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तीर्थंकर महावीर
और उनकी आचार्य-परम्परा
तीर्थंकर महावीर
और उनकी देशना
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तीर्थंकर महावीर और
उनकी आचार्य - परम्परा
प्रथम खण्ड
लेखक डाँ. नेमिचन्द्र शास्त्री, ज्योतिषाचार्य, एम. ए. पी-एच. डी. डी. लिट
आचार्य शन्तिसागर छाणी ग्रन्थमाला
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आद्य मिताक्षर 'परम्परा' शब्द अपना विशेष महत्व रखता है और विश्वके कण-कणसे सम्बन्धित है । परम्पराका इतिहास लेखबद्ध करना वैसे ही कठिन कार्य है, फिर श्रमण-परम्पराका इतिहास तो सर्वथा ही दुरूह है। प्रसंगमें जहाँ 'परम्परा' शब्द सन-आगम और सद्गुरुओंका बोधक है, वहां यह प्रामाणिकताका द्योतक भी है। परम्परागत आगम और गरुओंको सर्वत्र प्रथम स्थान है। इसीलिए 'आचार्यगुरुम्यो नमः' के स्थान पर 'परम्पराचार्यगुरुभ्यो नमः' का प्रचलन है। लोकमें आज भी यह परम्परा प्रचलित है । जैसे गृहस्थोंके विवाह आदि संस्कारोंमें परम्परा (गोत्रादि) का प्रश्न उठता है, वैसे ही मुनियोंके संबंध भी उनको गुरु-परम्पराका ज्ञान आवश्यक है। ___ भारतमें मुनि-परम्परा और ऋषि-परम्परा ये दो परम्पराएँ प्राचीनकालसे रही हैं । ऐतिहासिक दृष्टिसे प्रथम परम्पराका संबंध आत्मधर्मा श्रमणोंसे रहा है-jik Jल मोक्षमार्गदः उपदेया । द्वितीय पराराका संबंध लोकधर्मसे रहा है-ऋषिगण गृहस्थोंके षोडश संस्कारादि सम्पन्न कराते रहे हैं। ऋषियोंको जब आत्मधर्मशानकी बुभुक्षा जाग्नत हुई, वे श्रमगमुनियोंके समोप जिज्ञासाकी पूर्ति एवं मार्गदर्शनके लिए पहुंचते रहे ।' ।
स्व० डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा रचित ग्रन्थ 'तीर्थङ्कर महावीर और उनकी परम्परा' में श्रमण-मुनि-परम्पराका तथ्यपूर्ण इतिहास है। वस्तुतः १. वातरशना ह वा ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुस्तामृषयोऽर्थमायंस्तेऽनिलाय
मचरस्तेऽनुप्रविशुः कूष्माण्डानि तांस्तेष्वन्वविन्दन श्रद्धया च तपसा प । तानृषयो। ब्रुवन कया निलायं चरथेति ते ऋषीनवन्नमोवोऽस्तु भगवन्तोऽस्मिन् धाम्नि केन वः सपर्यामेति तानुषयोऽब्रुवन-पवित्रं नो ब्रूत पेनोरेपस: स्यामेति त एवनि सुक्तान्यपश्यन् ।'
-तैसिरीय आरण्यक २ प्रपाठक ७ अनुवाक, १-२ 'वातरशान-श्रमण-ऋषि कर्जमम्थी (परमात्मपदकी ओर उत्क्रमण करनेवाले) हुए । उनके समीप इतर ऋषि प्रयोजनषश (याचनार्थ) उपस्थित हुए। उन्हें देखकर वातरशन कुष्माण्डनामक मन्यवाक्योंमें अन्तहित हो गए, तब उन्हें अन्य ऋषियोंने श्रद्धा और तपरा प्राप्त कर लिया। ऋषियोंने उन वातरशन मुनियोंसे प्रश्न कियाकिरा विद्यामे आप अन्तहित हो जाते हैं ? वातरशन मुनियोंने उन्हें अपने अध्यात्म धामसं आए हुए अतिथि जानकर कहा- हे मुनिजनों ! आपको नमोऽस्तु है, हम आपकी सपर्या रात्कार) किससे करें ? अषियोंने कहा हमें पवित्र आत्मविद्याका उपदेश दीजिए, जिससे हम निष्पाप हो जाएं।
आद्य मिताक्षर : ७
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इतिहासकी रचनाके लिए तथ्यज्ञान आवश्यक है । यत्तःइतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः । इतिवृत्तमथेतिहामाम्नायं चामनन्ति तत् ॥
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- आचार्य श्री जिनसेन, आदिपुराण, १२५
'इतिहास, इतिवृत्त, ऐतिह्य और आम्नाय समानार्थक शब्द हैं । 'इति ह आसोत निश्चय ऐसा ही था), 'इतिवृत्तम्' (ऐसा हुआ - घटित दुला) तथा परम्परासे ऐसा ही आम्नात हैं-इन अर्थों में इतिहास है ।
इतिहास दीपकतुल्य है। वस्तुके कृष्ण-श्वेतादि यथार्थ रूपको जैसे दीपक प्रकाशित करता है, वैसे इतिहास मोहके आवरणका नाशकर, भ्रान्तियों को दूर करके - सत्य सर्वलोक द्वारा धारण की जानेवाली यथार्थताका प्रकाशन करता है । अर्थात् दीपक के प्रकाशसे पूर्व जैसे कक्षमें स्थित वस्तुएं विद्यमान रहते हुए भी प्रकाशित नहीं होतो, वैसे हो सम्पूर्ण लोक द्वारा धारण किया गया गर्भभूत सत्य इतिहासके बिना सुव्यक्त नहीं होता ।
प्रस्तुत ग्रन्थके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाता है कि विद्वान्को लेखनीमें बल और विचारों में तर्कसंगतता है । समाज इनकी अनेक कृतियोंका मूल्यांकन कर चुका है - लोभाँति सम्मानित कर चुका है। प्रस्तुत कृतिसे जहां पाठकोंको स्वच्छ श्रमण-परम्पराका परिज्ञान होगा, वहाँ ग्रन्थ में दिये गये टिप्पणोंसे उनके ज्ञानमें प्रामाणिकता भी आवेगी । श्रमण परम्परा के अतिरिक्त इस ग्रन्थमें श्रमणोंकी मान्यताओं एवं जैन सिद्धान्तोंका भी सफल निरूपण किया गया है। यह ग्रन्थ सभी प्रकारसे अपने में परिपूर्ण एवं लेखककी ज्ञान-गरिमाको इङ्गित करने में समर्थ है |
यहाँ लेखक अभिन्न मित्र डॉ० दरबारीलाल कोठियाजीके ग्रन्थके प्रस्तुत प्रकाशन में किए गए सत्यप्रयत्नों को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है, जिनके द्वारा हमें प्रस्तुत ग्रन्थके लिए कुछ शब्द लिखनेका आग्रहयुक्त निवेदन प्राप्त हुआ। विद्वत्परिषद्का यह प्रकाशन कार्य परिषद्के सर्वथा अनुरूप है। ऐसे सत्कार्यके लिए भी हमारे शुभाशीर्वाद !
विधानन्दमुनि
१. इतिहास- प्रदीपेन मोहावरणघातिना । सर्वलोकघृतं गर्भं यथावत् संप्रकाशयेत् ॥
- महाभारत
८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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प्राक् कथन भारतवर्षका क्रमबद्ध इतिहास बुद्ध और महावीरसे प्रारम्भ होता है । इनमेंसे प्रथम बौद्धधर्म के संस्थापक थे, तो द्वितीय थे जैनधर्मके अन्तिम तीर्थकर । 'तीर्थकर' शब्द जैनधर्मके चौबीस प्रवर्तकोंके लिए रूढ़ जैसा हो गया है, यद्यपि है यह यौगिक हो । धर्मरूपी तीर्थके प्रवर्तकको ही तीर्थंकर कहते हैं। आचार्य समन्तभद्रने पन्द्रहवे तीर्थकर धर्मनाथको स्तुतिमें उन्हें 'धर्मतीर्थमनचं प्रवर्तयन्' पदके द्वारा धर्मतीर्थका प्रवर्तक कहा है। भगवान महावीर भी उसी धर्मतीर्थ के अन्तिम प्रवर्तक थे और आदि प्रवर्तक थे भगवान् ऋषभदेव । यही कारण है कि हिन्दू पुराणोंमें जैनधर्मको उत्पत्तिके प्रसंगसे एकमात्र भगवान ऋषभदेवका हो उल्लेख मिलता है किन्तु भगवान महाका संकेर तक नहीं है जब उन्होंके समकालीन बुद्धको विष्णुके अवतारोंमें स्वीकार किया गया है । इसके विपरीत त्रिपिटक साहित्यमें निग्गंठनाटपुत्तका तथा उनके अनुयायी निर्ग्रन्योंका उल्लेख बहुतायतसे मिलता है। उन्हींको लक्ष्य करके स्व० डॉ० हनि याकोबीने अपनो जैन सूत्रोंकी प्रस्तावनामें लिखा है-'इस बातसे अब सब सहमत हैं कि नातपूत्त, जी महावीर अथवा वर्षमानके नामसे प्रसिद्ध हैं, बुद्धके समकालीन थे। बौद्ध ग्रन्थों में मिलनेवाले उल्लेख हमारे इस विचारको दृढ़ करते हैं कि नातपुतसे पहले भो निग्रंन्योंका, जो आज जैन अथवा आहेत नामसे अधिक प्रसिद्ध हैं, अस्तित्व था। जब बौद्धधर्म उत्पन्न हआ तब निर्मन्योंका सम्प्रदाय एक बड़े सम्प्रदायके रूप में गिना जाता होगा । बौद्ध पिटकोंमें कुछ निर्ग्रन्थोंका बुद्ध और उनके शिष्योंके विरोधीके रूपमें और कुछका बुद्धके अनुयायी बन जानेके रूप में वर्णन आता है। उसके ऊपरसे हम उक्त अनुमान कर सकते हैं। इसके विपरीत इन ग्रन्थोंमें किसी भी स्थानपर ऐसा कोई उल्लेख या सूचक वाक्य देखनेमें नहीं आता कि निर्ग्रन्थोंका सम्प्रदाय एक नवीन सम्प्रदाय है और नातपुत्त उसके संस्थापक है। इसके ऊपरसे हम यह अनुमान कर सकते हैं कि बुद्धके जन्मसे पहले अति प्राचीन कालसे निर्ग्रन्थोंका अस्तित्व चला आता है।" ____ अन्यत्र डॉ० याकोवीने लिखा है-'इसमें कोई भी सबूत नहीं है कि पात्रनाथ जैनधर्मके संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको जैन धर्मका संस्थापक मानने में एकमत है। इस मान्यतामें ऐतिहासिक सत्यको सम्भावना है।'
प्राक कथन : ९
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प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन्ने अपने 'भारतीय दर्शन में कहा है'जेन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है, जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं । इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको पूजा होती थी । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वधमान और पाश्वनाथसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरोंके नामोंका निर्देश हैं। भागवत पुराग हो इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।' ___ यथार्थ में वैदिकोंकी परम्पराको तरह श्रमणोंको भी परम्परा अति प्राचीन कालसे इस देश में प्रतित है। इन्हीं दोनों परम्पराओंके मेलसे प्राचीन भारतीय संस्कृतिका निर्माण हुआ है । उन्हीं श्रमणोको परम्परामें भगवान महावीर हुए थे | बुद्धकी तरह वे भी एक क्षत्रिय राजकुमार थे। उन्होंने भी घरका परित्याग करके कठोर साधनाका मार्ग अपनाया था । यह एक विचित्र बात है कि श्रमण परम्पराके इन दो प्रवर्तकोंकी तरह वैदिक परम्पराके अनुयायी हिन्दूधर्ममें मान्य राम और कृष्ण भी क्षत्रिय थे । किन्तु उन्होंने गृहस्थाश्रम और राज्यासन का परित्याग नहीं किया । यही प्रमुख अन्तर इन दोनों परम्पराओंमें है। कृष्ण भी योगी कहे जाते हैं किन्तु वे कर्मयोगी थे। महाबोर ज्ञानयोगी थे। कर्मयोग और ज्ञानयोगमें अन्तर है । कर्मयोगीको प्रवृत्ति बाह्याभिमुखी होती है और ज्ञानयोगीको आन्तराभिमुखो। कर्मयोगीको कर्ममें रस रहता है
और ज्ञानयोगीको ज्ञानमें । शानमें रस रहते हुए कर्म करनेपर भी कर्मका कर्ता नहीं कहा जाता। और कर्म में रस रहते हुए कर्म नहीं करनेपर भी कर्मका कर्ता कहलाता है । कर्म प्रवृत्तिरूप होता है और ज्ञान निवृत्तिरूप । प्रवृत्ति और निवृत्तिकी यह परम्परा साधनाकालमें मिली-जुली जैसी चलती है किन्तु ज्यों-ज्यों निवृत्ति बढ़ती जाती है प्रवृत्तिका स्वतः ह्रास होता जाता है । इसीको आत्मसाधना कहते हैं।
यथार्थमें विचार कर देखें-प्रवृत्तिके मूल मन, वचन और काय हैं । किन्तु आत्माके न मन है, न वचन है और न काय है । ये सब तो कर्मजन्य उपाधियाँ है । इन उपाधियों में जिसे रस है वह आत्मज्ञानी नहीं है। जो आत्मज्ञानी हो जाता है उसे ये उपाधियाँ व्याधियाँ ही प्रतीत होती हैं । ___ इनका निरोध सरल नहीं है। किन्तु इनका निरोध हुए बिना प्रवृत्तिसे छुटकारा भी सम्भव नहीं है । उसीके लिए भगवान महावीरने सब कुछ त्याग कर वनका मार्ग लिया था । संसार-मागियोंकी दष्टि में भले ही यह 'पलायनवाद' प्रतीत हो, किन्तु इस पलायनवादको अपनाये बिना निर्वाण-प्राप्तिका दूसरा १० : तीर्घकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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मार्ग भी नहीं है । भोगी और योगीका मागं एक कैसे हो सकता है। तभी तो गीतामें कहा है
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जार्गात संपमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
'सन प्राणियों के लिए जो रात है उसमें संयमी जागता है और जिसमें प्राणी जागते हैं वह आत्मदर्शी मुनिकी रात है ।'
इस प्रकार भोगी संसार से योगीके दिन-रात भिन्न होते हैं । संयमी महावीरने भी आत्म-साधनाके द्वारा कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रातः सूर्योदय से पहले निर्वाण लाभ किया | जैनोंके उल्लेखानुनार उसके उपलक्षमें दीपमालिकाका आयोजन हुआ और उनके निर्वाण लाभको पच्चीस सौ वर्ष पूर्ण हुए । उसीके उपलक्ष में विश्व में महोत्सबका आयोजन किया गया है ।
उसीके स्मृति में 'तोर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा' नामक यह बृहत्काय ग्रन्थ चार खण्डों हो रहा है। इसमें महावी और उनके बाद पच्चीस सौ वर्षोंमें हुए विविध साहित्यकारोंका परिचयादि उनकी साहित्य साधनाका मूल्यांकन करते हुए विद्वान् लेखकने निबद्ध किया
। उन्होंने इस ग्रन्थके लेखन में कितना श्रम किया, यह तो इस ग्रन्थको आद्योपान्त पढ़नेवाले ही जान सकेंगे। मेरे जानते में प्रकृत विषयसे सम्बद्ध कोई ग्रन्थ, या लेखादि उनको दृष्टिमे ओझल नहीं रहा । तभी तो इस अपनी कृतिको समाप्त करनेके पश्चात् ही वे स्वगंत हो गये और इसे प्रकाशमें लाने के लिए उनके अभिन्न ससा डॉ० कोठियाने कितना श्रम किया है, इसे वे देख नहीं सके । 'भगवान महावीर और उनको आचार्यपरम्परा में लेखक ने अपना जीवन उत्सर्ग करके जो श्रद्धा के सुमन चढ़ाये हैं उनका मूल्यांकन करनेकी क्षमता इन पंक्तियों के लेखकमें नहीं है। वह तो इतना ही कह सकता है कि आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्रीने अपनी इस कृतिके द्वारा स्वयं अपने को भी उस परम्परामें सम्मिलित कर लिया है ।
उनकी इस अध्ययनपुर्ण कृतिमें अनेक विचारणीय ऐतिहासिक प्रसंग आये हैं। भगवान महावीरके समय, माता-पिता, जन्मस्थान आदिके विषय में तो कोई मतभेद नहीं है । किन्तु उनके निर्वाणस्थानके सम्बन्धमें कुछ समय से विवाद खड़ा हो गया है । मध्यमा पावा में निर्माण हुआ, यह सर्वसम्मत उल्लेख है । तदनुसार राजगृही के पास पावा स्थानको हो निर्वाणभूमिकं रूपमें माना जाता है । वहाँ एक तालाब के मध्य में विशाल मन्दिरमें उनके चरण
प्राक्कथन ११
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चिन्ह स्थापित हैं। यह स्थान मगधमें है । दूसरी पावा उत्तर प्रदेशके देवरिया जिलेमें कुशीनगरके समीप है । डॉ० शास्त्रीने मगधवर्ती पावाको ही निर्वाणभूमि माना है।
बिम्बसार श्रेणिक भगवान महावीरका परम भक्त था। उसकी मृत्यु डॉ. शास्त्रीने भगवान महावीरके निर्वाषाके बाद मानी है, उन्हें ऐसे उल्लेख मिले हैं । किन्तु यह ऐतिहासिक प्रसंग विचारणीय हैं । ___ उन्होंने जैन तत्त्व-ज्ञानका भी बहुत विस्तारसे विवेचन किया है और प्राय: सभी आवश्यक विषयोंपर प्रकाश डाला है। दूसरा, तीसरा तथा चोथा खण्ड तो एक तरहसे जनसाहित्यका इतिहास जैसा है । संक्षेप में उनकी यह बहुमूल्य कृति अभिनन्दनीय है । आशा है इसका यथेष्ट समादर होगा।
कैलाशचन्द्र शास्त्री
१२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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आमुख
भारतीय संस्कृतिमें आत संस्कृतिका प्रमुख स्थान है। इसके दर्शन, सिद्धांत, धर्म और उसके प्रवर्त्तक तीर्थंकरों तथा उनको परम्पराका महत्त्वपूर्ण अवदान है | आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और उनके उत्तरवर्ती आचार्योंने अध्यात्म-विद्याका, जिसे उपनिषद् -साहित्य में र 'परा विद्या' (उत्कृष्ट विद्या) कहा गया है, सदा उपदेश दिया और भारतकी चेतनाको जागृत एवं ऊर्ध्वमुखी रखा है। आत्माको परमात्माकी ओर ले जाने तथा शाश्वत सुखकी प्राप्तिके लिए उन्होंने अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, त्याग और समाधि (आत्मलीनता) का स्वयं आचारण किया और पश्चात् उनका दूसरों को उपदेश दिया । सम्भवत: इसीसे वे अध्यात्म-शिक्षादाता और श्रमण-संस्कृतिके प्रतिष्ठाता कहे गये है । आज भी उनका मार्गदर्शन निष्कलुष एवं उपादेय माना जाता है ।
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तीर्थंकर महावीर इस संस्कृतिके प्रबुद्ध, सबल, प्रभावशाली और अन्तिम प्रचारक थे । उनका दर्शन, सिद्धान्त, धर्म और उनका प्रतिपादक वाङ्मय विपुल मात्रा में आज भी विद्यमान है तथा उसी दिशामें उसका योगदान हो रहा है।
२. मुण्डकोपनिषद् १।१।४१५ ।
३. स्वामी समन्तभद्र युक्त्यनुशासन की० ६ ।
अतएव बहुत समय से अनुभव किया जाता रहा है कि तीर्थंकर महावीरका सर्वाङ्गपूर्ण परिचायक ग्रन्थ होना चाहिए. जिसके द्वारा सर्वसाधारणको उनके जीवनवृत्त उपदेश और परम्पराका विशद परिज्ञान हो सके । यद्यपि भगवान् महावीरपर प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में लिखा पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है, पर उससे सर्वसाधारणकी जिज्ञासा शान्त नहीं होती ।
सोभाग्य की बात है कि राष्ट्रने तीर्थङ्कर वर्द्धमान महावीरकी निर्वाण रजतशक्ती राष्ट्रीय स्तरपर मनानेका निश्चय किया है, जो आगामी कात्तिक कृष्णा अमावस्या वोर निर्वाण संवत् २५०१, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७४ से कार्तिक १. धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनमः । ऋषभादि-महावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥
भट्टाकलङ्कदेव, लघीयस्त्रय, मङ्गलपद्य १ ।
आमुख १३
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कृष्णा अमावस्या, वीरनिर्वाण संवत् २५०२, दिनाङ्क १३ नवम्बर १९७५ तक पूरे एक वर्ष मनायी जावेगी । यह मङ्गल-प्रसङ्ग भी उक्त ग्रन्थ-निर्माण के लिए उत्प्रेरक रहा।
अत: अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषदने पांच वर्ष पर्व इस महान् दुर्लभ अवसरपर तीर्थंकर महावीर और उनके दर्शनसे सम्बन्धित विशाल एवं तथ्यपूर्ण ग्रन्थके निर्माण और प्रकाशनका निश्चय तथा संकल्प किया। परिषद्ने इसके हेतु अनेक बैठकें की और उनमें अन्यकी रूपरेखापर गम्भीरतासे महापोह किया । फलतः ग्रन्थका नाम 'तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्यपरम्परा' निर्घात हुआ और लेखनका दायित्व विद्वत्परिषद्के तत्कालीन अध्यक्ष, अनेक ग्रन्थों के लेखक, मूर्धन्य-मनीषी, आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री आरा (बिहार) ने सहर्ष स्वीकार किया। आचार्य शास्त्रीने पाँच वर्ष लगातार कठोर परिश्रम, अद्धत लगन और असाधारण अध्यवसायसे उसे चार खण्डों तथा लगभग २००० (दो हजार) पृष्ठोंमें सृजित करके ३० सितम्बर १९७३ को विद्वत्परिषद्को प्रकाशनार्थ दे दिया ।
विचार हुआ कि समग्र ग्रन्थका एक बार वाचन कर लिया जाय । आचार्य शास्त्री स्यादाद महाविद्यालयकी प्रबन्धकारिणीको बैठकमें सम्मिलत होनेके लिए ३० सितम्बर १९७३ को वाराणसो पधारे थे। और अपने साथ उक्त ग्रन्थके चारों खण्ड लेते आये थे । अतः १ अक्तूबर १९७३ से १५ अक्तूबर १९७३ तक १५ दिन वाराणसी में ही प्रतिदिन प्रायः तीन समय तीन-तीन घण्टे नन्थका वाचन हुआ। वाचनमें आचार्य शास्त्रीके अतिरिक्त सिद्धान्ताचार्य श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री पूर्व प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, डॉक्टर ज्योतिप्रसादजी लखनक और हम सम्मिलित रहते थे। बाचार्य शास्त्री स्वयं वाचते थे और हमलोग सुनते थे। ययावसर आवश्यकता पड़ने पर सुझाव भी दे दिये जाते थे। यह वाचन १५ अक्तूबर १९७३ को समाप्त हुआ और १६ अक्तूबर १९७३ को ग्रन्थका पहला भाग 'तीर्थर महावीर और उनको वेशना' प्रकाशनार्थ महावीर प्रेसको दे दिया गया, जो लगभग ९ माहमें छपकर तैयार हो सका। प्रस्थ-परिचय ___ इस विशाल एवं असामान्य ग्रन्थका यहां संक्षेपमें परिचय दिया जाता है, जिससे ग्रन्य कितना महत्त्वपूर्ण है और लेखकने उसके साथ कितना अमेय परिश्रम किया है, यह सहजमें ज्ञात हो सकेगा।
इस ग्रन्थके चार लण्ड हैं-१. तीर्थकर महावीर और उनको देशना, १४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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२. श्रुतघर और सारस्वताचार्य ३ प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य और ४. आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक |
१. तीर्थङ्कर महावीर और उनकी देशना
यह प्रथम खण्ड ११ परिच्छेदों और लगभग ६४० पृष्ठों में समाप्त है। इसकी विवेच्य विषय - सामग्री बहुवक्तव्य एवं प्रचुर है। इसीसे इसमें कई परिच्छेद रखे गये हैं । इन परिच्छेदों का वर्ण्य विषय नीचे प्रस्तुत हैप्रथम परिश्छेद: तीर्थङ्कर-परम्परा और महावीर
इस परिच्छेद में मानव जीवनका क्या महत्त्व है और उसके लिए धर्म दर्शनकी क्यों आवश्यकता है, इसका प्रतिपादन करते हुए उनके उपदेशक तीर्थङ्करों की परम्परा और इस परम्परा में हुए आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव, २१वें तीर्थंकर नमि, २२वें तीर्थंकर नेमि और २४वें तीर्थंकर पार्श्वनाथका पुरातत्वके आलोकमें दिग्दर्शन, पार्श्वनाथको ऐतिहासिकता तथा तोर्थंकर परम्पराको अन्तिम श्रृंखला २४वें तीर्थंकर महावीरपर विभिन्न उपशीर्षकों द्वारा विशद प्रकाश डाला गया है ।
द्वितीय परिच्छेव जन्म-जन्मको साधना
इसमें महावीरका अगणित पूर्व पर्यायोंमें पत्तन और पतनके बाद पिछली अनेक पर्यायोंमें उत्थान प्रतिपादित है । पुरुरवा भोलको पर्याय में वे कुछ सम्हलते हैं, किन्तु फिर उन्हें अनेक जन्मोंमें गोते लगाने पड़ते हैं, सुयोगसे सिंहकी पर्यायमें जो दशवीं पूर्व पर्याय थी, उनका उत्थानकी ओर झुकाव होता है। कनकोज्वल, हरिषेण, प्रियमित्र चक्रवर्तीको पर्यायोंमें उत्कर्ष करते हुए जब वे नन्दभवमें आते हैं, तो तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध कर जीवनकी चरम उपलब्धि - तीर्थंकरपदप्राप्ति के बीज बोते है, इस सबका रोचक एवं प्रामाणिक वर्णन किया गया है ।
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तृतीय परिच्छेद: समसामयिक परिस्थितियाँ : महान् विचारक एवं सम्प्रदाय
इस परिच्छेद में महावीर के जन्मसे पूर्व देश और समाजकी कैसी स्थिति थी, राजनीतिक वातावरण कैसा था, आर्थिक दशा कैसी थी, विभिन्न विचारकों एवं सम्प्रदायोंकी गतिविधियाँ कैसी हो रही थीं, आदिका विशद निरूपण है । चतुर्थं परिच्छेद: तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि, जन्म एवं किशोरावस्था
इसमें गणतंत्र वैशाली, उसके उपनगर और महावीरकी जन्मभूमि, कुण्डग्राम, वैशाली गणतंत्र के नायक चेटकं, कुण्डग्रामके अधिपति और महावीर के पिता सिद्धार्थ, माता त्रिशला चेटक ओर : सिद्धार्थके सम्बन्ध, त्रिशलाका स्वप्नदर्शन,
आमुख : १५
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स्वप्नोंका फल-तीर्थकर पुत्रका जन्म, देवियों द्वारा माताकी अनवरत सेवा ।। महावीरका जन्म, सुमेरुपर इन्द्रादि द्वारा जन्माभिषेकोत्सव, शैशवकाल, वर्ष . मान, वीर, अतिवीर, सन्मति और महावीर नामोंसे सम्बद्ध घटनाओंका उल्लेख, किशोरावस्था में संजय देव द्वारा महावीरकी परीक्षा और उसकी पराजय, आत्मोन्मुखी असामान्य चिन्तनधारा, अलौकिक शारीरिक शक्तियों और उच्च एवं दृढ़ मनोबलकी उपलब्धि आदिका हृदयग्राही प्रतिपादन है । पञ्चम परिच्छेद : युवावस्था संघर्ष एवं संकल्प ___ इस रिच्छेदमें महावीरके असाधारण शरीर-सौन्दर्य, बल एवं यौवन प्रवेश, माता, पिता और परिवारका दुलार, जनताका अपार स्नेह, उनको विचारधारा, परिणयका प्रस्ताव और उससे इन्कार, विरक्तिकी ओर झुकाव, आत्मस्वातन्यकी उपलब्धि और जनकल्याणके लिए निग्रंन्य-श्रमण-दीक्षा ग्रहण आदिका मार्मिक विवेचन है। षष्ठ परिच्छेव : सपश्चरण, साबमा एवं कैवल्योपलरिष
इसमें महावीरने गिरिकन्दराओं, बीहड़ वनों और खुले मैदानों आदिमें जो दुर्धर तपश्चर्या की, मौनपूर्वक साधना की, अनेक उपसर्ग सहे, विघ्न-बाधाओं पर विजय प्राप्त को, विचित्र अभिग्रह लिए, केदमें बद्ध चन्दना द्वारा आहार ग्रहण और उसका उद्धार करना आदिका कथन करते हुए महावोरकी वीतरागतासमुपलब्धि, कैवल्यप्राप्ति और केवलज्ञानप्राप्तिस्थानका सप्रमाण निर्धारण किया गया है। सप्तम परिसछेद : गणधर, समवशरण, अन्य राजन्मवर्ग एवं निर्वाण
इस सातवें परिच्छेदमें तीर्थंकर महावीरको केवलज्ञान प्राप्त हो जानेपर भो ६६ दिन तक उनका उपदेश न होनेसे उत्पन्न लोकचिन्ता, इन्द्रकी चतु. राईसे महाविद्वान् गौतम इन्द्रभूतिका महावीरकी समवशरणसभामें पहुँचना, महावोरके दर्शनमात्रसे उसके अहवारका दूर होना और महावीरका शिष्यत्व स्वीकार करना, श्रमण-दीक्षा लेते ही चार सम्यग्ज्ञानोंको प्राप्ति करना तथा प्रथम गणधरका पद प्राप्त करना, अग्निभूति, वायुभूति आदि उनके प्रकाण्ड विद्वान् १० भाईयोंका भी महावीरसे शास्त्रार्थके उद्देश्यसे उनके समवशरणमें पहुंचना और महावीरसे प्रभावित होकर उनके शिष्य होना तथा निम्रन्थ-दीक्षा ग्रहण करना, श्रावण कृष्णा एकमको ६६ दिन बाद महावीरको गौतम इन्द्रभूतिके सन्निधानसे प्रथम देशना होना, देशना-स्थल विपुलगिरिपर प्रथम समयशरणसभाका लगना, उपदेश श्रवणके लिए लालायित असंख्य नर-नारियों, १६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
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शु-पक्षियों और देवसमहका एकत्रित होना, मुनि-आयिका-श्रावक-श्राविका र पतुर्विध संघका संघटन करना, प्रधान श्रोताके रूप में बिम्बसार श्रेणिकका समवशरण में उपस्थित होना, श्रेणिकका का परिचय न उपली ऐतिहासिकता, अभयकुमार, मेधकुमार, वारिषेण, चन्दना, चेलना आदि राजन्यवर्गका महाबीर तीर्थकरकी देशनाको सुनने के लिए आना और वतादि ग्रहण करना, दिव्यध्वनिका भाषावैज्ञानिक विश्लेषण आदिका सहेतुक प्रतिपादन है। ___ इसी परिच्छेदमें तीस वर्षों तक हुए तीर्थकर महावीरके बिहारका विस्तारपूर्वक निरूपण है। महावीरका समवशरण देशके कोने-कोने में गया और जनसाधारणको अहिंसामृतका पान कराया। पुराण एवं अन्य ग्रन्थोंके आधारसे महावीरकी ८६ स्थानोंपर देशना हुई। उनको इस देशनाका आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा । क्रियाकाण्ड कम हुआ और तप, त्याग तथा आत्म-साधनाका प्रवाह प्रवाहित हुआ। फलतः प्रसेनजित, रानी मृगावतो, वृषभसेन, अदीनशत्र, सुबाहु, जीवन्धर, चण्डप्रद्योत आदि क्षत्रिय राजाओं, इन्द्रभूति, अग्निभति, वायुभति आदि ब्राह्मण-विद्वानों, वन्दना, चेलना आदि स्त्रियों, अंजन, विद्युच्चर आदि चौर्यकर्म करनेवाले पतितजनोंने तीर्थंकर महावीरके उपदेशोंको ग्रहण कर आत्मकल्याण किया। इन सबका इस परिच्छेदमें अङ्कन है। कुसन्ध, अश्वष्ट, गान्धार आदि स्थानोंका भी निर्देश है, जहाँ महावीरने विहार किया था । परिच्छेदके अन्तमें महावीरके निर्वाण और निर्वाण-स्थानपर विशेष विचार किया तथा मध्यमा पावा-वर्तमान पावापुरको ही महावीरका निर्वाण-स्थान सिद्ध किया है। अष्टम परिच्छेद : वेशना--जयतत्त्वमीमांसा ___ इस परिच्छेदमें महावोर द्वारा सर्वप्रथम प्रतिपादित ज्ञेयतत्त्वकी विचारणा है। ज्ञेयका अनेकान्तस्वरूप, उसकी उत्पादादित्रयात्मकता, द्रव्य, गुण, पर्याय, जीच, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छह द्रव्यों, जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य, पाप सहित नव पदार्थोका विशद निरूपण इसमें है। नवम परिच्छेद : ज्ञानतत्वमीमांसा
इसमें ज्ञेयके अधिगमोपायके रूपमें उपदिष्ट ज्ञानका स्वरूप, उसके मति आदि पांच भेदों, उनके भी उपभेदों, प्रमाण, नय और निकोपका विस्तृत विवेचन है । स्याद्वाद और सप्तभङ्गीका भी सुन्दर प्रतिपादन है । वशम परिचछेद : धर्म और आचार-मीमांसा इस परिच्छेदमें जीवनके उत्कर्षके लिए धर्मकी अनिवार्यता, धर्मका स्वरूप,
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प्रामाणिक व्यवहार और विचार, रत्नत्रय, सम्यकदर्शनका महत्त्व, उसको उत्पत्तिके कारण, उसके भेद, आठ अङ्ग, तोन मूढताएँ, आठ मद आदिका विशद विवेचन है । आचारके निरूपण-सन्दर्भमें श्रावकाचार तथा मुन्याचार दोनोंका विस्तृत प्रतिपादन है । एकादशम परिच्छेद : समाज-व्यवस्था
इस एकादश परिच्छेदमें तीर्थंकर महावीर द्वारा गुण-कर्मके आधार पर प्रतिपादित समाज-व्यवस्थाका दिग्दर्शन है। समाज-व्यवस्थाकै प्रमुख घटक परिवार, परिवारकी सीमाएं, दायित्व और अधिकार आध्यात्मिक साम्य, भावना, नेतिक विधि-विधानोंका निर्देश करते हुए अहिंसा, सत्य, अचौयं ब्रह्मचयं और अपरिमह पर आवृत महाबीरकी समाज-व्यवस्था सर्वदा और सर्वत्र सुख-शान्तिजनक, उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है, इसका कथन किया गया है।
इस प्रकार प्रथम खण्डमें तीर्थकर महावीर और उनकी देशनाका पूरा परिचय उपलब्ध है। ग्रन्थ-योजनाके समय यह खण्ड ५०० पृष्ठोंका कल्पित हुआ था, किन्तु लगभग ६४० पृष्ठोंमें वह समाप्त हुआ है।
२. श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्य तीर्थकर महावीरके सिद्धान्तों और वाङ्मयका अवधारण एवं संरक्षण उनके उत्तरवर्ती श्रमणों और उपासकोंने किया है । इस महान् कार्यमें बिगत २५०० वर्षों में लाखों श्रमणों तथा उपासकोंका योगदान रहा है। उन्हीं के त्याग और साधनाके फलस्वरूप भगवान् महावीरके सिद्धान्त और वाङ्मय न्यूनाधिक रूपमें हमें प्राप्त हैं । तीर्थक्षेत्र, मन्दिर, मूर्तियां, ग्रन्थागार, स्मारक आदि सांस्कृतिक विभव उन्हींके अटूट प्रयत्नोंसे आज संरक्षित है । इन सबका उल्लेख करनेके लिए विपुल सामग्रीकी आवश्यकता है, जो या तो विलुप्त हो गयी या नष्ट हो गयो या विस्मृत्तिके गर्त में चली गयी है । जो अवशिष्ट वाङ्मय, शिलालेख और इतिहास हमें सौभाग्यसे उपलब्ध हैं उन्हींपरसे तीर्थंकर महावीरकी उत्तराधिकारिणो परम्पराकी अवगति सम्भव है। ___ डॉक्टर शास्त्रोने इस उपलब्ध सामग्रीका आलोडन-विलोइन करके जिन आचार्यों और उनके वाङ्मयका परिचय प्राप्त किया है उन्हें तीन खण्डोंमें विभक्त किया है । इन्हीं खण्डोंका यहाँ परिचय प्रस्तुत है ।
दूसरा खण्ड 'श्रुतबराचार्य और सारस्वताचार्य है। इस खण्ड में दो परिच्छेद हैं-१. श्रुतधराचार्य और २. सारस्वताचार्य ।। १८ ; तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्रथम परिच्छेद: श्रुतशकार्य
इस परिच्छेद में श्रुतधराचार्यों का परिचय निबद्ध है | श्रुतघराचार्यसे लेखकका अभिप्राय उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त-साहित्य, कर्म-साहित्य, अध्यात्म-साहित्यका ग्रथन किया है और जो युग-स्थापक एवं युगान्तरकारी हैं । इन आचार्यों में गुणघर, धरसेन, पुष्ादन्त, भूतबलि यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य, आर्यमक्षु, नागहस्ति, कुन्दकुन्द, वप्पदेव और गृद्धपिच्छाचार्य अभिप्रेत हैं। आरम्भ में आचार्यका स्वरूप, आचार्यका महावोरके वाङ्मय के साथ सम्बन्ध, श्रुतका वर्ण्य विषय, उसके भेद प्रभेद एवं उनका सामान्य परिचय अति है | श्रुतके धारक आचार्यों की परम्परामें आद्य आचार्य गुणधर और घरसेनके व्यक्तित्व, समय-निर्धारण एवं वैदुष्प्रपर प्रकाश डालते हुए गुणधराचार्य द्वारा रचित 'कसायपाहुड' का तथा वरसेनाचार्य के साक्षाच्छिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि और उनके 'षट्खण्डागम' का विस्तृत परिचय दिया गया है। आर्यमंक्षु, नागहस्ति, वज्र, वज्रयश, चिरन्तनाचार्य, यतिवृषभ, उच्चारणाचार्य और कुन्दकुन्दाचार्य के व्यक्तित्व, कृतित्व और समय-निर्णय आदि पर विशेष विचार करते हुए कुन्दकुन्दके उपलब्ध ग्रन्थोंका विशद परिचय दिया गया है । परिच्छेदके अन्त में शिवायं स्वामिकुमार और आचार्य गृद्धपिच्छ तथा इनकी रचनाओं का परिशीलन निबद्ध है ।
द्वितीय परिच्छेद: सारस्वताचार्थं
इसमें श्रुतवराचार्य और सारस्वताचार्य की भेदक रेखाओंका अङ्कन करते हुए स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दि-पूज्यपाद, पात्रकेसरी (पात्रस्वामी), जोइंदु, विमलसूरि, ऋषिपुत्र मानतुङ्ग, रविषेण, जटासिंहनन्दि, एलाचार्य, अकलनदेव, वीरसेन, जिनसेन द्वितीय, अमितगति प्रथम, अमितगति द्वितीय, अमृतचन्द्रसूरि नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, नरेन्द्रसेन, नेमिचन्द्र मुनि, श्रीदत्त, कुमारसेन, यशोभद्र, वच्चसूरि, शान्तिषेण, श्रीपाल, काणभिक्षु और कनकनन्दिका जीवनवृत्त, गुरुपरम्परा, समय-निर्णय और रचनाओंका विशद परिचय अति है । इसी परिच्छेद में सिहनन्दि, सुमति, कुमारनन्दि, विद्यानन्द आदि आचार्योंका भी परिचय ग्रथित है । इन्हें लेखकने सारस्वताचार्यों में परिगणित किया है । सारस्वताचार्य से लेखकका तात्पर्य उन आचार्यों से है, जिन्होंने प्राप्त हुई श्रुतपरम्पराका मौलिक ग्रन्थ-प्रणयन और टीका - साहित्य द्वारा प्रचार एवं प्रगार किया है ।
इस प्रकार इस खण्ड में श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्य वर्णित हैं । उनके द्वारा रचित वाङ्मय भी विवेचित है ।
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३ प्रबुद्धाचार्य और परम्परापोपकाचार्य इस खण्डमें भी दो परिछेद हैं । इनका वर्ण्य विषय निम्न प्रकार है। प्रथम परिच्छेद : प्रबुद्धाचार्य
इस परिच्छेदमें डॉक्टर शास्त्रीने प्रबुद्धाचार्यो और उनकी कृतियोंको संकलित किया तथा उनका विस्तृत परिचय दिया है। प्रबुद्धाचार्यसे अभिप्राय उन आचार्यों से लिया है, जिन्होंने अपनी प्रतिभा द्वारा ग्रन्थप्रणयनके साथ विवतियाँ और भाष्य भी रचे हैं। इस श्रेणीमें जिनसेन प्रथम, गुणभद्र, पाल्यकीति, वादीभसिंह, महावीराचार्य, बृहत् अनन्तवीयं, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, लघुअनन्तवीर्य, वीरनन्दि, महासेन, हरिषेण, सोमदेव, वादिराज, पद्मनन्दि प्रथम, पद्मनन्दि द्वितीय, जयसेन, पद्मप्रभमलधारिदेव, शुभचन्द्र,अनन्तकोति, मल्लिषेण, इन्द्रनन्दि प्रथम, इन्द्रनन्दि द्वितीय आदि पचास आचार्य परिगणित हैं। इन सबका परिचय इस परिच्छेदमें निबद्ध है । इनकी कृतियोंका भी विस्तारसे वर्ण्यविषय प्रतिपादित है। द्वितीय परिणछेद : परम्परापोषकाचार्य ___ लेखकने परम्परापोषकाचार्य उन्हें बताया है, जिन्होंने दिगम्बर परम्पराकी रक्षाके लिए प्राचीन आचार्यों द्वारा निर्मित ग्रन्थोंके आधारपर अपने नये ग्रन्थ लिखे और परम्पराको गतिशील बनाये रखा है । इस श्रेणीमें भट्टारक परिगणित हैं। पाश्चदेव, भास्करनन्दि, ब्रह्मदेव, रविचन्द्र, पद्मनन्दि, सकलकोति, भुवनकोति, ब्रह्मजिनदास, सोमकीर्ति, ज्ञानभूषण, अभिनव धर्मभूषण, विजयकोति, शुभचन्द्र, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, वीरचन्द्र, सुमतिकीर्ति, यशःकीर्ति, धर्मकीति आदि पचास परम्परापोषकाचार्यों का परिचय, समय-निर्णय और उनको रचनाओंका इस परिच्छेदमें विस्तृत निरूपण है।
४. आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक इस चतुर्थ भागमें उन जैन काव्यकारों एवं ग्रन्थ-लेखकोंका परिचय निबद्ध है, जो स्वयं आचार्य न होते हुए भी आचार्य जैसे प्रभावशाली ग्रन्थकार हए । इसमें चार परिच्छेद हैं, जिनका प्रतिपाद्य-विषय अधोलिखित है :प्रथम परिच्छेव : संस्कृत-कवि और प्रन्थालेखक
इसमें परमेष्ठि, धनञ्जय, असग, हरिचन्द, चामुण्डराय, अजितसेन, विजयवर्णी आदि तीस संस्कृत-कवियों एवं ग्रन्थलेखकोंका व्यकित्व एवं कृतित्व वर्णित है। २० : तीर्थकर महावीर और धनको आचार्य-परम्परा
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द्वितीय परिच्छेव : अपभ्रंश कवि एवं लेखक
इस परिच्छेद में चतुर्मुख स्वयंभूदेव, त्रिभुवन स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, घबल, हरिषेण, वीर, श्रीचन्द्र, नयनन्दि, श्रीधर प्रथम, श्रीधर द्वितीय, श्रीवर तृतीय, देवसेन, अमरकीर्ति, कनकामर सिंह लाखु, यशः कीर्ति, देवचन्द्र, उदयचन्द्र, रइधू, तारणस्वामी आदि पैंतालीस अपभ्रंश कवियों-लेखकों और उनकी रचनाओंका संक्षिप्त परिचय निबद्ध है ।
तृतीय परिच्छेद: हिन्दी तथा देशज भाषा कवि एवं लेखक
इसमें बनारसीदास, रूपचन्द्र पाण्डेय, जगजीवन, कुंवरपाल, भूधरदास द्यानतराय, किशनसिंह, दौलतराम प्रथम, दौलतराम द्वितीय, टोडरमल्ल, भागचन्द, महाचन्द आदि पच्चीस हिन्दी कवियों और लेखकों का उनको कृतियों सहित परिचय अङ्कित है । अन्य देशज भाषाओंमें कन्नड़, तमिल और मराठी के प्रमुख काव्यकारों एवं लेखकों का भी परिचय दिया गया है । चतुर्थ परिच्छ ेद : पट्टावलियां
इस परिच्छेद में प्राकृत- पट्टावल, सेनगण-पट्टावलि, नन्दिसंघबलात्कारगण-पट्टावलि, आदि नौ पट्टावलियां संकलित हैं। इन पट्टावलियों में कितना ही इतिहास भरा हुआ है, जो राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और साहित्यिक दृष्टियों से बड़ा महत्त्वपूर्ण एवं उपयोग है ।
इस प्रकार प्रस्तुत महान् ग्रन्यसे जहाँ तीर्थंकर वर्धमान महावीर और उनके सिद्धान्तोंका परिचय प्राप्त होगा, वहीं उनके महान् उत्तराधिकारी इन्द्रभूति आदि गणधरों, श्रुतकेवलियों और बहुसंख्यक आचार्यों के यशस्वी योगदान - त्रिपुल वाङ्मय निर्माणका भी परिज्ञान होगा । यह भी अवगत होगा कि इन आचार्यों ने समय-समय पर उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में भी तीर्थकर महावीरकी अमृतवाणीको अपनी साधना, तपश्चर्या, त्याग और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग द्वारा अब तक सुरक्षित रखा तथा उसके भण्डारको समृद्ध बनाया है ।
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स्व० आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री
इस विशाल ग्रन्थके लेखक आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य, एभए. ( संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी ), पी-एच. डी., डी. लिट्, अध्यक्ष प्राकृत संस्कृत विभाग हरप्रसाद दास जैन कालेज आरा (मगध विश्व विद्यालय) विहार हैं । हमें अपार दुःख है कि यह यशस्वो ज्योतिर्मान् विद्वशक्षत्र विगत १० जनवरी १९७४ को असमय में अस्त हो गया, जो अपनी इस अन्तिम कृतिको प्रकाशित न देख सका ।
यहाँ उनका संक्षेप में परिचय प्रस्तुत किया जाता है। ये होते, तो उनके इस परिचयके निबद्ध करनेकी आवश्यकता न होती ।
जीवन-परिचय
लेखकका जन्म पौष कृष्णा १२, विक्रम संवत् १९७२ में राजस्थान प्रदेशके बावरपुरमें हुआ। पिताका नाम श्री बलवीर सिंह और माताका नाम श्रीमती जावित्री बाई था। डेढ़ वर्षको अवस्था में ही आपके पिताका स्वर्गवास हो गया था। विधवा माता जावित्री बाई और नाना श्री झण्डू लालजी के संरक्षण में आप पले-पुषे एव मिडिल तक शिक्षा प्राप्त की । आचार्य शास्त्री बचपन से ही मेधावी और तीक्ष्णबुद्धि थे । आरम्भ में राजाखेड़ा (आगरा) के कुन्दकुन्द दि० जैन विद्यालय में सोन वर्ष और उसके बाद स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीम सात वर्ष प्राच्य विद्याओं - प्राकृत, संस्कृत, धर्मशास्त्र, साहित्य, न्याय और ज्यौतिषशास्त्रका उच्च अध्ययन किया ।
आचार्य शास्त्रीने जो शैक्षणिक उपलब्धियां प्राप्त कीं, वे इस प्रकार है
प्राध्य. विद्या से सम्बन्धित —
१. न्यायतीर्थं ( दि० जैन) बंगाल संस्कृत एसोशिएसन
२. ज्योतिषतीर्थ
st
अन्य
१. मैट्रिक परीक्षा २. इण्टर - मीडियड ३. साहित्यरत्न
३. काव्यतीर्थं
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४. शास्त्री (ज्योतिष) वाराणसेय संस्कृत विश्व विद्यालय
५. ज्योतिषाचार्य
"
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ܕ
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उत्तर प्रदेश बोर्ड, प्रयाग
२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
13
"
हिन्दी विश्व विद्यालय,
प्रयाग
....
१९३७
१९३८
१९३२
१९४१
१९४६
१९४०
१९५४
१९४३
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द्वितीय परिद जन्म-जन्मकी साधना
जीवनशोधन : सतत साधना
एक जन्मको साधनासे कोई तीर्थकर नहीं बन सकता । तीर्थकर बननेके लिये अनेक जन्मोंकी साधना अपेक्षित है । इस पदका पाना साधारण नहीं । इसके लिये आत्माका पूर्ण विकास-परमविशुद्धि आवश्यक है। जीव अनन्त कालसे संसारमें जन्म-मरणको परम्पराजन्य क्लेश-संततिको पा रहा है। शरीरमें प्रमत्व बुद्धि रखनेके कारण उसे संसारकी चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। महावीरके जीवको भी अगणित काल राग-द्वेषके अधीन हो संसार-परिभ्रमणमें व्यतीत करना पड़ा। उन्हें अहिंसाका सर्वांगीण प्रासाद निर्माण करनेके लिये कई जन्मों तक साधना करनी पड़ी।
स्वस्थ विद्यारका अंकुर जीवनकी उर्वर भूमिमें तभी उत्पन्न हो सकता है, जब जीवनकी विकृतियाँ समाप्त हो जाती हैं और सत्य का आलोक दिखलायी पड़ने लगता है । तीर्थकर महावीरको शुद्ध, बुद्ध और प्रचेता बननेके लिये एक
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९ भाग्यफल
साहित्य-कुटीर, आरा १०. प्राकृत-प्रबोध
चौखम्बा संस्कृत भवन, वाराणसी ११. संस्कृत-प्रबोध
सुशीला प्रकाशन, धौलपुर १२. पुराने घाट : नयी सीढ़ियाँ
___ अहिंसा मन्दिर, दिल्ली १३, भास (Mornograph)
मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी १४. पण्डित गोपालदास बरैया संक्षिप्तझाको अ०भा० दि० जैन विद्वारिषद् १५. आचार्य जुगलकिशोर : व्यक्तित्व और कृतित्व
अ. भा. दि. जैन वि०प० १६. विश्वशान्ति और जैनधर्म
जैनेन्द्र भवन, आस १५. तीर्थकर महापौर और उनको आपरपर भा० दि. जैन वि०प० सम्पावन-अनुवाद १. व्रततिथिनिर्णय
भारतीय ज्ञान पोठ, दिल्ली २. केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली ३. भद्रबाहुसंहिता
भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली ४. मुहूर्तदर्पण
साहित्य कुटीर, आरा ५. रिट्रसमुच्चय
साहित्य कुटीर, आरा ६. रत्नाकरशतक
देशभूषण ग्रन्थमाला, काशी ७. धर्मामृत
देशभूषण ग्रन्थमाला, वाराणसी ८. लोकविजययंत्र
वीर सेवान्दिर ट्रस्ट, वाराणसी ९. अलंकारचिन्तामणि
भारतीय ज्ञान पीठ, दिल्ली १०. रघुवंश (द्वितीय सर्ग)
ज्ञानदा प्रकाशन, पटना ११. कुमारसम्भवम् (पंचम सर्ग) मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी १२. पाइय पउज-संगहो पढमो भागो तारा यंत्रालय, वाराणसी १३. पाइय गज-संगहो पढमो भागो तारा यंत्रालय, वाराणसी १४. पाइय पज-संगहो वीयो भागो BP T C. प्रकाशन १५. वरैया स्मृतिग्रन्थ
अखिल भा० दि० जैन विद्वत्परिषद् 8. Proceedings of the Seminar of scholars in Prakrit and
l'ali held at Magadh University, Bodhgaya 1971. पत्र-सम्पादन
१. मागधम् (संस्कृत) संस्कृत-प्राकृत विभाग ह. दा. जैन कालेज, आरा २. जैन-सिद्धान्त भास्कर (हिन्दी) देवकमार जैन प्राच्यविद्या शोध
संस्थान, आरा (बिहार) ३. Jain Antiquary (English)
४. भारतीय जैन साहित्य परिवेशन भारतीय जैन साहित्य संसद् २४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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जाती है । ऊँच-नीच, रंक राव, शत्रु-मित्र, कृष्ण-गौर आदिके भीतर रहने वाला भेद-भाव समाप्त हो जाता है और साम्य भावका तूर्यनाद होने लगता है | अहिंसा, सत्य और शान्तिका आलोक सर्वत्र व्याप्त हो जाता है ।
तीर्थंकरके इस महनीय पदको प्राप्ति एकाएक सम्भव नहीं है। इसकी प्राप्तिके लिये अनेक जन्मोंमें उग्र तपश्चरण करना पड़ता है। राग-द्वेष और मोहको जीतने के लिये कठोर प्रयास करना पड़ता है । संयम और ध्यानकी साधना करनी होती है, साथ ही कषाय और योगका निरोध कर संवर एवं निर्जराकी प्राप्ति करनी पड़ती है । वास्तव में अनेक जन्मों तक आत्म-शोधनका प्रयास करनेपर हो यह तीर्थंकरपद प्राप्त होता है ।
अतीत पर्यायोंमें महावीर : परिभ्रमण
महावीरके जीवने आत्मोत्थानके लिये अनेक जन्मोमं साधना सम्पन्न की । मनुष्य और तिर्यञ्च पर्यायोंके अतिरिक्त उन्हें नरकादि पर्यायों में भी परिभ्रमण करना पड़ा है । तत्त्वज्ञान और आत्मानुभूतिकी प्राप्तिके क्रम में कभी वे पथभ्रष्ट हुए, पतित हुए, तो कभी वे साधनाके उच्च शृंग पर आरूढ़ हुए । यह सत्य है कि महावीरका लक्ष्य अनेक अतीत जन्मोंमें भी सत्यकी साधना रहा है । वे सत्य के मूल स्वरूपको पकड़नेके लिये सचेष्ट रहे हैं। उनके अतीत जन्मोंकी साधना इस बातका प्रमाण है कि पंथ या सम्प्रदायकी संकुचित दृष्टि सत्यको सान्त और खण्डित कर डालती है । साम्प्रदायिक भावना सत्यको विकृत कर देती है । महावीरके जीवने जब-जब साम्प्रदायिक संकुचित दृष्टिकोणको अपनाया तब-तब वे साधनाके पथ से विचलित होकर निम्न मार्गकी ओर परावृत्त हुए। आत्मा शुद्ध स्वरूपको अवगत किये बिना उनकी साधना सफल नहीं हो सकी। अतः भवबन्धनोंसे विमुक्त होनेके लिये आत्म-निष्ठा, तत्त्वज्ञान और आत्माचरण नितान्त आवश्यक है । जब तक कर्मका आवरण विद्यमान है, तबतक साधक के जीवन में पूर्ण प्रकाश प्रादुर्भूत नहीं हो सकता !
I
विवेक और वैराग्यकी साधना ही भवबन्धन से छुटकारा दिला सकती है और यही निर्वाण प्राप्तिका साधन है । यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रत्येक आत्मा में परमात्म ज्योति विद्यमान है, प्रत्येक चेतनमें परम चेतन समाहित है | चेतन और परम चेतन दो नहीं हैं, एक हैं । अशुद्धसे शुद्ध होनेपर चेतन ही परम चेतन बन जाता है। कर्मावरण के कारण आत्मा संसार में भटकती है और जब कर्म बन्धनोंसे छुटकारा मिल जाता है, तब वह शाश्वत सुखको प्राप्त कर लेती है । महावीरकी अतीत जीवन गाथा भी ऐसी है, जो मानव को मानवता की ओर अग्रसर कर परमात्मा बनने की प्रेरणा देतो है ।
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४८ वर्षीया श्रीमती सुशीलाबाई और एकमात्र १९ वर्षीय पुत्र चिरंजीव नलिन कुमार है। कभी हमने यह कल्पना नहीं की थी कि ऐसे यशस्वी, लोकप्रिय और सर्वहितैषी विद्वानका यह परिवार निराश्रित हो जायेगा | जो घर आचार्य शास्त्रीके मित्रों, बन्धुओं, छात्रों और प्रचुर मित्र-अध्यापकोंसे भरा रहता था वह सहसा रिक्त हो जायेगा, यह कभी विचार नहीं आया था । यही जीवनको सबसे बड़ी विडम्बना है । जीवनके साथ संयोग-वियोग उसी तरह लगे हुए हैं जिस तरह सुख और दुःख सम्पृक्त हैं । यही सोचकर धैर्य, साहस और विवेककी त्रिपुटी मानव-परिवारको जीवन-पथमें संबलका काम करती है ।
हमारा विश्वास है कि आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री विनश्वर शरीरसे आज भले ही न हों, किन्तु सरस्वती-साधनासे प्रसूत यश और कृतियोंसे वे अमर हैं। उन्हें हमारी परोक्ष श्रद्धाञ्जलि है और परिवारके प्रति हार्दिक समवेदना। आभार
इस विशाल ग्रन्थो सूजन और प्रकाशनका विद्वत्परिषद्ने जो निश्चय एवं संकल्प किया था, उसकी पूर्णता पर आज हमें प्रसन्नता है। इस संकल्पमें विद्वत्परिषद्के प्रत्येक सदस्यका मानसिक या वाचिक या कायिक सहभाग है। कार्यकारिणी के सदस्योंने अनेक बैठकोंमें सम्मिलित होकर मूल्यवान् विचार-दान किया है । ग्रन्थ-वाचनमें श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री और डॉ. ज्योतिप्रसादजोका तथा ग्रन्थको उत्तम बनानेमें स्थानीय विद्वान् प्रो० खुशालचन्द्रजी गोरावाला, पण्डित अमृतलालजी शास्त्री एवं पण्डित उदयचन्द्रजी बौद्धदर्शनाचार्यका भी परामर्शादि योगदान मिला है।
पूज्य मुनिश्री विद्यानन्दजोने 'आद्य मिताक्षर' रूपमें आशीर्वचन प्रदान कर तथा वरिष्ठ विद्वान् श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने 'प्राककथन' लिखकर अनुगृहीत किया है। __ खतौली, भोपाल, बम्बई, दिल्ली, मेरठ, जबलपुर, तेंदूखेड़ा, सागर, वाराणसी, आरा आदि स्थानोंके महानुभावोंने ग्रन्थका अग्रिम ग्राहक बनकर सहायता पहुँचायी है । विद्वत्परिषद्के कर्मठ मंत्री आचार्य पण्डित पन्नालालजी सागरके साथ मैं भी इन सबका हृदयसे आभार मानता हूँ। वीर-शासन-जयन्ती, श्रावण कृष्णा १. वी. नि० सं० २५००,
दरबारीलाल कोठिया ५ जुलाई, १९७४
अध्यक्ष बाराणसी
अखिल भारतवर्षीय दि. जैन विद्वतारिषद्
२६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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विषय-सूची
प्रथम परिच्छेद
तीर्थङ्करपरम्परा और महावीर
विषय मानवजीवन एवं धर्म-दर्शन
जैनधर्म और तीर्थंकर परम्परा
तीथकर : व्युत्पत्ति एवं अवधारणा
मानव सभ्यता के सूत्रधार कुलकर और तीर्थंकरोंका आरम्भ एवं संख्या
वैदिक वाङ्मय और तीर्थंकर
और ऋषभदेव
पुरातत्व तीर्थङ्कर नमि
तीर्थंकर नेमिनाथ
तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ
इतिहासके आलोक में पार्श्वनाथ
तीर्थंकर परम्परा : अन्तिम शृङ्खला - महावीर
द्वितीय परिच्छेद
जन्म-जन्मकी साधना
जीवन-शोधन : सतत साधना अतीत पर्यायों में महावीर : परिभ्रमण मूल्यवान् : अतीत पर्याय पुरुरवा पर्याय : मंगल प्रभात
महावीर : जटिलपर्याय : पतनकी ओर पुष्यमित्र - पर्याय : अगतिशीलता अग्निसह : हठयोगकी साधना विश्वनन्दि: नया मोड़ त्रिपृष्ट-पर्याय : चक्रव्यूह्
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विषय सिंह-पर्याय : पुनः उत्थानकी ओर कनकोज्ज्वल-पर्याय : उदित हुए साधना-अंकुर हरिषेण-पर्याय : विकसित हई साधना प्रिय-मित्र चक्रवर्ती : साधनाने अंगडाई ली नन्दभव : सफल हुई कामना–तीर्थंकरत्वका बन्ध
तृतीय परिच्छेद समसामयिक परिस्थितियाँ, महान विचारक एवं सम्प्रदाय आर्थिक स्थिति सामाजिक स्थिति धार्मिक स्थिति अक्रियावाद-प्रवर्तक : पूर्णकाश्यप नियतिवाद-प्रवर्तक : मक्खलि गोशालक जाद-प्रवर्शन : अजितक्षेप कम्बल अन्योन्यवाद-प्रवर्तक : प्रक्रुद्ध कात्यायन विक्षेपवाद-प्रवर्तक : संजय वेलट्टिपुत्त
चतुर्थ परिच्छेद तीर्थकर महावीरको जन्मभूमि, जन्म और किशोरावस्था गणतंत्र वैशाली उपनगर : कुण्डनाम वैशाली कृतार्थ हो गई सूखे धरतीके आँसू त्रिशलाका स्वप्न-दर्शन
१. गज : तीर्थनायक २. श्वेत-वृषभ : सत्यप्रवर्तक ३. सिंह : अनन्त ऊर्जाका द्योतक ४. मन्दार पुष्पमाला : दिग्दिगन्त यशःसुरभि विस्तार ५. लक्ष्मी : इन्द्र-देवेन्द्रों द्वारा वन्दनीय ६. चन्द्र : अमृत-वर्षण ७. सूर्य : दिव्यज्ञान-प्राप्ति ८. जलपूर्ण कलश : करुणाका प्रसार
२८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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विषय ९. मत्स्ययुगल : अनन्त सौख्यकी उपलब्धि १०. जलाशय : संबेदनशीलता ११. सागर : हृदयको विशालता १२. मणि-जटित सिंहासन : वर्चस्व और प्रभुत्व १३. देवबिमान : कीर्ति १४. धरणेन्द्र-भवन : अबधिज्ञान १५. रत्नोंकी विशालराशि : अनन्तगुण
१६, निर्धम अग्नि : निर्वाण पुण्य-चमत्कार मनोरञ्जनार्थ : संगीत, नृत्य एवं चित्रकला संगीत कला नत्य-कला चित्र-कला काव्यगोष्ठीद्वारा मनोरञ्जन पहेलियों एवं प्रश्नोत्तरोंद्वारा मनोविनोद खुल गये भाग्य वैशालीके देवों द्वारा जन्माभिषेक शंशव तीर्थकर महावीरको जन्मपत्रिका और ग्रहस्थिति तीर्थङ्कर महावीरके विभिन्न नाम निर्भयताका प्रतीक : महावीर वैराग्य और निष्कामताका अंकुर किशोरावस्थाकी विचारधारा अलौकिक शक्तियोंका वरण
पञ्चम परिच्छद
युवावस्था, संघर्ष एवं संकल्प दिव्य देह और पराक्रम जनताका आह्वान माताकी ममता विवाह-प्रस्ताव माताका आशीर्वाद
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१२२ विषय-सूची : २९
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विषय महावीरका अनुचिन्तन परिणयबन्धनसे स्पष्ट इंकार माताको विह्वलसा यौवन और गृह-निवास चिन्ताधायुगकी पुकार मचल उठा त्रिशलाका मातृत्व लोकान्तिकोंद्वारा चरणवन्दन माताको सान्त्वना चरण चल पड़े आत्म-स्वातन्थ्यकी बेला । अट्ठाईस मलगुणोंका धारण
षष्ठ परिच्छेद
तपश्चरण, वर्षावास एवं केवल्य-उपलब्धि प्रथमवर्ष-साधना : सहिष्णुता और साहस ममताकी झोपड़ी कहाँ मिट गये शल, बन गये फूल द्वितीय वर्ष-साधना : सर्पोद्बोधन सुरभिपुरमें ज्योतिविद्की भविष्यवाणी और चक्रवतित्वके लक्षण नालन्दा : आत्मशोधन गोशालकका शिष्यत्व तृतीयवर्ष-साधना : चिकारशमन मानवताका श्रृंगार चतुर्थवर्ष-साधना : क्षमाको आराधना गोशालक : घटित घटनाओंके बीच निग्रन्थता : कल्याणका मार्ग साधना और शमामृत पञ्चमवर्ष-साधना : कायंगलामें घटित घटनाएँ अग्निकृत उपसगंजय सन्देह-जन्य उपसर्ग अनार्य-देश विहार
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३० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्पर।
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विषय षष्ठवर्ष-साधना : उपसर्गपर उपमर्ग विमेलक यक्षका चिन्तन कटपूतनाका उपसर्ग : असंख्यातगणी कर्मनिर्जरा सप्तमवर्ष-साधना : आत्म-दर्शन नृपतिद्वारा चरण-वन्दन अष्टमवर्ष-साधना : आत्मोदयकी ओर घोर उपसर्ग-जय नवमवर्ष-साधना : सामायिक-सिद्धि उपवासपर उपवास दशमवर्ष-साना : संयमाराधना तपस्वरूप : परिष्कार बालकोंका उपद्रव और समता कायोत्सर्ग मुद्रा एकादशवर्ष-साधना : आत्मानुभूति संगमदेवका परीक्षण और विभिन्न उपसर्ग मोपसिनारंवारा वग-न्दन अद्भत चमत्कार : फाँसीका फन्दा टूटा संगमदेवका पराजय और चरण-वंदन चमत्कारको नमस्कार निविघ्न पारणा सम्पन्न द्वादशवर्ष साधना : विचित्र अभिग्रह राजा-रानीको चिन्ता भाग्योदय हुआ चन्दनाका चन्दनाका अपहरण भिल्ल सरदारके घेरेमें चन्दना चन्दनाको विक्री संदेहका भूत खुल गये बन्धन, मिला रत्नमय उपहार चन्दनाकी वन्दना चन्दनाका मिलन अन्य उपसर्ग : आत्मदृढ़ता अप्सराओं द्वारा प्रस्तुत मोहक राग-भोग
१७०
१७१ १७२
१७३ विषम-सूची : ३१
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पृष्ठ
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१७६
विषय भवरुद्रद्वारा प्रदत्त उपसर्गोपर विजय कैवल्योपलब्धि कैवल्य-प्राप्ति-स्थान : विभिन्न मान्यताएं मौलिक विरोध जम्भिक या जम्भिय ग्रामकी अवस्थिति केवलज्ञान : अर्चना
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सप्तम परिच्छेद
गणधर, समवशरण, शिष्य एवं निर्वाण समवशरण : पीयूषवाणांकी आकांक्षा देशना-अवरोध और इन्द्रको चिन्ता सोमिल और इन्द्रभूति इन्द्रभूति गौतम : बुला श्रद्धाका द्वार निराशा और जिज्ञासा मानस्तम्भदर्शन : मानगलन और रत्नत्रय उपहार अन्य गणधर : हृदय-परिबर्तन और दीक्षा अग्निभूति वायुभूति गौतम : अहंकार चूर शुचिदत्त : हृदय-परिवर्तन सुधर्मा : दीक्षा और आत्मशोधन माण्डिक : आत्मोद्बोधन मौर्यपुत्र : सम्यक्त्वलाभ अकम्पिक : रिक्त श्रद्धाकी पूर्ति अचल मिली साधना मेदार्य : जागा विवेक प्रभास : पुरुषार्थ जागरण प्रथम देशनास्थल : विपुलाचल चतुर्विधसंघ-स्थापना प्रधान श्रोता-थेणिक : समवशरणको शरण श्रेणिक; वंश-परिचय श्रेणिक : मिथ्यात्व-तिमिरका ध्वंस : सम्यक्त्वका प्रकाश ३२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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विषय इतिहासकारोंकी दृष्टि में श्रेणिक अंणिक : प्रधान श्रोता
२१० रोहा : बदला जीवन एक प्रवचनने मेघकुमार : बिलासका विराग वारिपेण : सौरभ पुरानी स्मृतियाँ : नयी ब्याख्यायें अभयकुमार आयिका-संघकी प्रमुख आचार्या : चन्दना चलना : भक्ति और त्याग हुआ आत्मोदय
२३२ अन्य अनेक राजाओं द्वारा महावीरको भक्ति-वन्दना
२३२ दिव्यध्वनि या देशनाकी भाषा दियध्वनि : सर्वभाषा
२३६ समवशरण-विहार
२४१ वैशाली : चेटक एवं सेनापति सिंहका धर्म-श्रवण वाणिज्यनाम : जितशत्रुका नमन
२४४ पोलासपुर : विजयसेन और सद्दालपुत्रका मोहभंग
२४४ चम्पा : कुणिक अजातशत्रु, दधिवाहन और करकन्डुको दीक्षा "" ૨૪૬ चम्पा : अनेक बार समवशरणका सौभाग्य करकण्ड-जन्म और दीक्षा श्रावस्ती : प्रसेनजितको भक्ति कौशाम्बी : रानी मृगावतोकी दीक्षा एवं वृषभसेनका दिगम्बग्त्व हस्तिशीर्ष : अदोनशत्रुके पुत्र सुबाहुका व्रतगहण सौगन्धिका नगर : अप्रतिहतकी जागी सुषप्त चेतना
२५३ हेमाङ्गद देश : जोवन्धर : निर्वाण-मार्गके पधिक कलिंग : वीरश्रेणि और चित्रश्रेणिका प्रतग्रहण बंगदेश : सिंहथ-जातिस्मरण एवं नग्गतिका प्रत्येकबुद्धत्व २६१ सुश्मकदेश (दक्षिणभारत) : विद्दाजकी दीक्षा मत्स्य देश : नन्दिवर्द्धनका अर्चन-वन्दन अवन्ती : चण्डप्रद्योतका नमन पांचाल जनपद : जन-अभिनन्दन
२६६ दशाण : दशार्णभद्रका निर्ग्रन्थल
२६८ विषय-सूची : ३३
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विषय
सुह्य : कण-कण पुलकित
अस्मक पोतनपुर : प्रसन्नचन्द्रको दीक्षा
केकयार्द्ध जनपद श्वेतम्बिका प्रदेशीका मोह-ग्रन्थि भेदन कुरुदेशहस्तिनापुर : शिवराजर्षि द्रवीभूत पुरिमताल : महाबलका वन्दन वर्द्धमानपुर विजय मित्रका धर्म-श्रवण वाराणसी: जितशत्रुका नमन
काकन्दी : धन्य एवं सुनक्षत्रका मोह- छिन्न सिन्धु सौवीर उदायनका सम्यक्त्व-बोध
कुसन्ध्य
अश्वष्ट
शल्व
त्रिगर्त
पाटच्चर
मौक
कम्बोज
वाल्हीक
यवनश्रुति
गान्धार
सुरभीरु
क्वाथतोय
ताणं
काणं
करुणाकी परमज्योति प्रज्वलित
निर्वाणकी ओर
मुक्तिपर्व: पावापुरको ओर
अगणित देव-मानवों द्वारा निर्वाणकल्याणक- पूजन
निर्वाण तिथि
निर्माण स्थल
निर्वाण स्थल सम्बन्धी बौद्धागम प्रमाण
वर्तमान पावा सम्बन्धी सामग्री
उत्तराधिकार
३४ तीर्थंकर महावीर और उनकी अाचार्य-परम्परा
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विषय
विरासतको उपलब्धि और वितरण
ज्ञेयस्वरूप-प्रवचन
स्वरूपास्तित्व और त्रयात्मकता सादृश्यास्तित्व और त्रयात्मकता गुण : स्वरूप और भेद
पर्याय : स्वरूप निर्धारण और भेद द्रव्य निरूपण
जीवद्रव्य : स्वरूप आत्म-सिद्धि
जीवकी स्वतन्त्र सिद्धि
व्यापक एवं अणु आत्मवाद जीव या आत्मा ज्ञानस्वरूप
कर्तृत्व : विवेचन भोक्तृत्व : विवेचन जीव : भेद-प्रभेद संसारी जीव : भेद-प्रभेद
अष्टमपरिच्छेद
देशना : ज्ञेयतरध
पुद्गल - निरूपण
पुद्गल बन्ध- प्रक्रिया
पुद्गलके भेद
स्कन्धके भेद
पुद्गल-पर्याय
बन्ध
सूक्ष्मत्व और स्थूलत्व
संस्थान
भेद
प्रकाश - अन्धकार
छाया
आतप उद्योत
पुद्गल के अन्य मेद
स्कन्ध और परमाणु : उत्पत्ति-कारण
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विषय सूची: ३५
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३५९
१
विषय अणु : उत्पति परमाणु : गतिशीलता पुद्गल : कार्य धर्मद्रव्य : स्वरूप विश्लेषण अधर्मद्रव्य : स्वरूप-विश्लेषण आकाशद्रव्य : स्वरूप-विश्लेषण कालद्रव्य : स्वरूप-विश्लेषण सात तत्व : स्वरूप-विचार और भेद तस्वनिरूपण : प्रक्रिया और विधि १. आत्मतत्त्व : निरूपण
(क) आत्म-भेद (ग्व) बहिसन्मा : स्वरूप (ग) अन्तरात्मा: स्वरूप (घ) अन्तरात्मा : भेद (ङ) परमात्मा : स्वरूप (च) जीवके गाव : स्वरूप और भेन्द्र
(छ) भावोंके भेद-प्रभेद २. अजीवतत्त्व : स्वरूप ३. आस्रवतत्त्व : स्वरूप-विवेचन
(अ) आस्रव भेद और स्वरूप (आ। मिथ्यात्व (इ) अविरति (ई) प्रमाद (उ) कषाय
(अ) योग ४. बन्ध ५. संवर ६. निर्जरा ७. मोक्ष कर्मस्वरूप कर्मको पौद्गलिकता आत्मा और कर्मका सम्बन्ध
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३६ : तीर्थकर महाबोर और उनकी आचार्य-परम्परा
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विषय कर्मके मल भेद बन्धके भेद प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध स्थिति और अनुभागबन्ध प्रकृतिबन्धके भेद और स्वरूप कर्मप्रकृसियोंके उत्तरभेद कर्मों की स्थिति अनुभागबन्ध कर्मफलदान्प्रक्रिया कमोक १० करण ।अवस्थाएँ)
१. बन्ध २. उत्कर्षण ३. अपकर्षण ४. सत्ता ५. उदय ६. उदीरण ७. संक्रमण ८. उपशान्त ९. निधत्ति १०. निकाचना । पुनर्जन्म जन्म-भेद योनि और शरीर लोक-स्वरूप लोकके भेद अधोलोक : स्वरूप और विस्तार मध्यलोक : स्वरूप और विस्तार षटकालोंमें भोगभूमि और कर्मभूमि व्यवस्था ज्योतिषो देव , वर्णन उर्व लोक लोकस्थिति आध्यात्मिक दृष्टि : पदार्थ-विवेचन
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विषय-सूची : ३६
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विषय
नवम परिच्छेद वेशना : जानतत्त्व-मीमांसा
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४
ज्ञानका स्वरूप और व्युत्पत्ति ज्ञानोत्पति : प्रक्रिया अतीन्द्रियज्ञानको क्षमता ज्ञान और शेयका सम्बन्ध तदाकारता, अर्थ और आलोक कारणत्वका विचार ज्ञान और अनुभूति इन्द्रियप्राप्तिका क्रम मन : स्वरूप एवं कार्य शरीर और मनका सम्बन्ध सन्निकर्षविचार चक्षुका प्राप्यकारित्व-विमर्श श्रोत्रका अप्राप्यकारित्व-विमर्श ज्ञानके भेद ज्ञान और प्रमाण-विमर्श प्रमाणस्वरूपका विकास प्रामाण्य-विचार प्रमाणके भेद प्रत्यक्ष-परोक्ष : सामान्य-निरूपण सव्यवहारिक प्रत्यक्ष औत्पत्तिक वेनयिक कामिक पारिणामिक मतिज्ञानके भेद-प्रभेद श्रुतज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष अवधिज्ञान अवधिज्ञानका विषय मनःपर्ययज्ञान
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M
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३८ : तीर्थंकर महावोर और उनको आचार्य परम्परा
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विवच
मन:पर्ययज्ञानका विषय
केवलज्ञान
परोक्षप्रमाण
स्मृति या स्मरण
प्रत्यभिज्ञान
सादृष्य-प्रत्यभिज़में उगमानका अन्तर्भाव
तर्क
अनुमान साधन या हेतु
साध्य
अनुमानके भेद स्वार्थानुमान के अंग
धर्मी : स्वरूप निर्धारण
परार्थानुमानके अंग अनुमानके अन्य अवयव हेतुभेद एवं प्रकार
हेतुके बाईस भेदोंका सामान्य स्वरूप अर्थापत्तिका अनुमान में अन्तर्भाव
अभावका प्रत्यक्षादिमें अन्तर्भाव आगम प्रमाण : विमर्श शब्द और अर्थंका सम्बन्ध
प्रमाण - फल
प्रमाणाभास
हेत्वाभास
असिद्ध
विरुद्ध
अनैकान्तिक
अकिंचित्कर
दृष्टान्ताभास
साधर्म्य दृष्टान्ताभास : भेदनिरूपण वैधदृष्टान्ताभास: भेदनिरूपण
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विषय-सूची : ३०
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४७१
विषय शानसाधन : नय नयस्वरूप सुनय एवं दुर्नय नय-भेद निश्चय और व्यवहारनय नयोंके अन्य भेद-प्रभेद आध्यात्मिक और मलनय
१. नैगमनय २. संग्रह ३. व्यवहारनय ४. ऋजुसूत्रनय ५. शब्दनय ६. समभिरूदनय
७. एवं भूतनय स्याद्वाद सप्तभनी प्रमाणसप्तभङ्गी एवं नयसप्तभङ्गी सप्तमङ्गोंकी सिद्धि प्रथम-द्विताथ भंग-सिद्धि तृतीयभंग स्याद् अवक्तव्य-सिद्धि चतुर्थभंग-सिद्धि स्यादास्ति नास्ति पञ्चम भंग स्यादस्ति-अवक्तव्यसिद्धि षष्ठभंग स्याम्नास्ति-अवक्तव्यसिद्धि सप्तम भग स्यादास्तिनास्ति-अवक्तव्यसिद्धि निष्कर्ष अर्थनियामक निक्षेप नय और निक्षेप निक्षेपकी उपयोगिता निधोपके मेद
१. नाम-निक्षेप
२ स्थापना-निक्षेप नाम-निक्षेप और स्थापना-निक्षेपमे अन्तर
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४० : तोयंकर महावीर और उनको आवाय-परम्पर
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विषय
३. द्रव्यनिक्षेप ४. भावनिक्षेप
जीवन और धर्म धर्म : व्युत्पत्ति एवं स्वरूप सम्यग्दर्शनः स्वरूप- विवेचन तीनों करणों का उपयोग सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति के कारण सम्यग्दर्शनके भेद
औपशामक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व
क्षाधिकसम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन के अन्य भेद
प्रशम
सवेग
दशम परिच्छेद धर्म और आधार-भांभांसा
अनुकम्पा आस्तिक्य
सम्यग्दर्शनका स्थितिकाल
सम्यग्दर्शन के अंग
निःशङ्कित-अंग
निःकांक्षित-अंग
निर्विचिकित्सा अंग अमूढदृष्टि- अंग
उपगूहन - अंग स्थितिकरण-अंग
वात्सल्य अग
प्रभावना - अंग
सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष या न्यूनतायें
आस्था सम्बन्धी अन्धविश्वास षड् अनायतन या मिथ्या आस्थाएँ
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विषय शंकादि दोष सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र या सम्यगाचार परमपदप्राप्ति हेतु : आचारके भेद श्रावकाचार
१. न्यायपूर्वक धनोपार्जन २. गुण-पूजा ३. प्रशस्त वचन ४. निर्बाध त्रिवर्गका सेवन ५. त्रिवर्गयोग्य स्त्री, प्राम, भवन ६. उचित लज्जा ७. योग्य आहार-विहार ८. आर्य-समिति ९. विवेक १०. उपकारस्मृति या कृतज्ञता ११. जितेन्द्रियता १२. धर्मविधि-श्रवण १३. दयालुता
१४. पापभीति श्रावणके द्वादश व्रत व्रत : स्वरूप-विचार और आवश्यकता मल दोष अणुव्रत
१. अहिंसाणुव्रत २. सत्याणुव्रत ३. अचौर्याणवत ४. स्वदारसन्तोष-ब्रह्मचर्याणवत
५. परिग्नहरिमाण-अणुव्रत गुणवत और शिक्षाप्रत
१. दिग्वत २. देशाबकाशिक व्रत ३. अनर्थदण्डवत
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४२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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विषय १. प्रोषधोपवास
२. भोगोपभोग परिमाण
३. अतिथि संविभाग ४. सल्लेखनाव्रत श्रावकके दैनिक पट्कर्म १. देव पूजा
२. गुरु-भक्ति
३. स्वाध्याय ४. संयम
५. तप
६. दान
श्रावकाचार विकासकी सीढ़िय १. दर्शन - प्रतिमा २. व्रत - प्रतिमा
३. सामायिक प्रतिमा
४. प्रोषध - प्रतिमा
५. सचित्तविरत - प्रतिमा
६. दिवा मंथुरत्याग या रात्रिभुक्तित्याग- प्रतिमा
७. ब्रह्मचर्य - प्रतिमा
८. आरम्भत्याग - प्रतिमा
९.
परिग्रहत्याग-प्रतिमा १०. अनुमांत्तत्याग - प्रतिभा ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा मुन्याचार या साध्वाचार
१-५ पंच महाव्रत ६-१० पांच समितियाँ ११-१५ पंचेन्द्रिय-निग्रह
१६- २१ षडावश्यक
१२-२८ दोष सात गुण
साधुका अन्य आचार १२ अनुप्रेक्षा
५ चारित्र
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विषय-सूची : ४३
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शिवय
१. सामायिक चारित्र
२. छेदोपस्थापनाचारित्र
३. परिहारविशुद्धिचारित्र ४. सूक्ष्मसाम्परायचारित्र ५. यथा ख्यात चारित्र
१२ तप
६ बाह्य तप
६ आभ्यन्तर तप
ध्यान
ध्यानके भेद १. आर्त्तध्यान
२. रौद्र ध्यान
३.
धर्मव्यान
४. शुक्लध्यान पिण्डस्थध्यान
पदस्थ ध्यान
रूपस्थ ध्यान
रूपस्तीत
आध्यात्मिक उत्क्रान्ति गुणस्थान १. मिध्यादृष्टि
२. सासादन
३. मिश्र
४. अविरत सम्यग्दृष्टि
५. संयतासंयत
६. प्रमत्तसंयत
७.
अप्रमत्तसंघत
८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण
१०. सूक्ष्मसाम्पराय
११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगकेवली १४. जयोगकेवली
४४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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एकादश परिच्छेद समाज-व्यवस्था
विषय
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पृष्ठ समाज : व्युत्पत्ति एवं अर्थविस्तार समाजको उत्पत्ति के कारण
५५१ समाजघटक परिवार
५५२ परिवारके सात गुण
५५४ समाजगठनकी आधारभूत भावनाएं
५६९ समाजधर्म : पृष्ठभूमि
५७२ सामाजिक नैतिकताका आधार : आत्मनिरीक्षण
५७७ समाजधर्म की पहली साड़ी : विचार-समन्वय उदारष्टि .... समाजधर्मकी दूसरी सीढ़ी : विश्वप्रेम और नियंत्रण समाजधर्मकी दूसरी सीढ़ीके लिए सहायक
५८२ समाजघर्मकी तीसरी सीढ़ी : आर्थिक सन्तुलन
५८३ परिग्रह-परिमाण : आर्थिक संयमन
५८४ तीसरी सीढ़ीका पोषक : संयमवाद समाजधर्मकी चौथी सीढ़ी : अहिंसाकी विराट् भावना
५८७ समाजधर्मको पाँचवीं सीढ़ी : सत्य या कूटनीतित्याग समाजधर्मकी छठी सीढ़ी : अस्तेय भावना समाजधर्मको सातवीं सोढ़ी : भोगवासना-नियंत्रण
५९१ अध्यात्म-समाजवाद
५२३ व्यक्ति और समाज : अन्योन्याश्रय सम्बन्ध
५९६ सामाजिक संस्थाएं एवं समाजमें नारीका स्थान
५९७ संस्था : स्वरूप और प्रकार तीर्थकर महावोरको समाजव्यवस्थाकी उपयोगिता
उपसंहार
महावीर : व्यक्तित्व-विश्लेषण कांचनकाया
६०४ कर्मयोगी
६०५ अद्भत साहसी लोर-प्रदीप
विषय-सूची : ४५
६००
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प्रथम परिच्छेद
तीर्थंकर - परम्परा और महावीर
मानवजीवन एवं धर्म-दर्शन
धर्म और दर्शन मानवजीवन के लिये आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हैं । जब मानव चिन्तन- सागर में निमग्न होता है, तब दर्शनका और जब उस चिन्तनका अपने जीवनमें उपयोग या प्रयोग करता है, तब धर्मकी उत्पत्ति होती है । मानवजीवनकी विभिन्न समस्याओंके समाधान हेतू धर्म और दर्शनका जन्म हुआ है । धर्म और दर्शन परस्पर में सापेक्ष हैं, एक दूसरेके पूरक हैं । चिन्तकोंने धर्म बुद्धि, भावना और क्रिया ये तीन तस्व माने हैं। बुद्धिसे ज्ञान, भावनासे श्रद्धा और क्रिया से आचार अपेक्षित है। जैन दृष्टिमें इसीको सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र कहा जाता है । काण्टने धर्मको व्याख्या करते हुए ज्ञान और क्रियाको महत्त्व दिया है। मार्टिन्यूने धर्मके अन्तर्गत विश्वास, विचार और आचार इन तोनोंका समन्वय माना है । प्रकारान्तरसे इन्हें भक्ति, ज्ञान और कर्म कहा जा सकता है ।
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धर्म-दर्शनका विषय सम्पूर्ण विश्वसे सम्बद्ध है । विश्व के किसी भी प्रदेशका मानव इन दोनोंके अभाव में अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त नहीं कर सकता और न जीवनको गतिशील हो बना सकता है। भौतिकतासे कल कर विश्वका प्रत्येक मनुष्य आध्यात्मिकताकी शरण में पहुँचता है और धर्म-दर्शन के आश्रयमें ही उसे शान्ति लाभ होता है। दर्शन मानवकी अनुभूतियोंकी तर्कपुरस्सर व्याख्या कर सम्पूर्ण विश्वके आधारभूत सिद्धान्तोका अन्वेषण करता है। धर्म आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा सम्पूर्ण विश्वका विवेचन करता है। जीवनके विविध मूल्योंका निर्धारण और उनकी उपलब्धिका साधन धर्म-दर्शन ही है। ये दोनों मानवीय ज्ञानकी योग्यता, क्यार्थता तथा चरमोपलब्धि में विश्वास करते हैं। दर्शन में बौद्धिकताको आवश्यकता है, तो धर्मम आध्यात्मिकताकी । आत्मनिष्ठा. विवेक और आत्मनिष्ठ आचार व्यक्तिके व्यक्तित्व विकासके मानदंड हैं ।
ऐतिहासिक दृष्टि से धर्म-दर्शनकी उत्पत्तिका पता लगाना असम्भव है । इसके लिये प्राग ऐतिहासिक कालकी सामग्रीका विवेचन आवश्यक है । अनादि काल से मानव, मानवता की प्रतिष्ठा के लिये धर्म-दर्शनका प्रयोग करता आ रहा है। इस विश्व में धर्म-दर्शनका स्वरूप निर्धारण करने के हेतु वीतराग नेता या तीर्थकर जन्म ग्रहण करते हैं। वर्तमान कल्पकालमें चौबीस तीर्थकर हुए हैं, जिनमें अन्तिम तीर्थंकर महावीर हैं । तीर्थंकर महावीरसे पूर्व धर्म-दर्शन के व्याख्याता तेईस तीर्थंकर और हो चुके हैं। जिन्होंने मुक्ति-साधना एवं प्रकृतिके विभिन्न रहस्योंकी व्याख्याएं की हैं और मानव जीवनको सुन्दर, सरस, मधुर एवं व्यवस्थित बनाने का उपदेश दिया है। प्रत्येक कल्पकालमें चौबीस तीर्थंकरोंकी परम्परा आरम्भ होती है और यही परम्परा विच्छिन्न होते हुए समता और अहिंसामय धर्मको व्याख्या करती है । व्यक्तिको सत्ता, स्वाधीनता और सह-अस्तित्व की भावनाका प्रवर्त्तन तीर्थंकरों द्वारा हो होता है । सहिष्णुता, उदारता और धैर्य के सन्तुलन के साथ वैज्ञानिक सत्यान्वेषण की परम्पराका प्रादुर्भाव भी तीर्थकरों द्वारा ही संभव है ।
तीर्थंकर परम्पराबादी या रूढ़िवादी नहीं होते । उनको चिन्तन-पद्धति सहिष्णु, कान्तिनिष्ठ और प्रगतिशील होती है । वे प्रत्येक युगमें धार्मिक अन्तर विरोधोंको रचनात्मक मोड़ देते हैं, और अपनी स्वस्थ चिन्तन-प्रक्रिया द्वारा अहिंसा, समता, सहिष्णुता आदिकी उपासना करते हैं । स्याद्वाद या अनेकान्त उदार चिन्तन-पद्धत्तिके माध्यम से सर्वधर्मसमभावको साकार करने का यत्न तो करते ही हैं, साथ ही अन्धविश्वासों और रूढ़ियोंका उन्मूलन भी करते हैं । नर नारायणकी प्रतिष्ठा द्वारा प्रत्येक व्यक्तिको परमात्मा बनने की प्रेरणा देते
२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परभाग
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हैं । तीर्थंकरोंके सन्देशसे प्रत्येक प्राणी अपने भाग्यका विधाता बन सतत पुरुषार्थ द्वारा परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर सकता है । यह तत्त्व सहज है, दुष्प्राप्य हैं, पर अप्राप्य नहीं । भीरु रहनेवाला परमात्मतत्त्वको प्राप्त नहीं हो सकता। इस प्रकार तीर्थंकरोंने मानव जीवनको प्रत्येक क्रियाको अहिंसा मापदंड द्वारा मापा है। जो किया अहिंसामूलक है, रागद्वेष और प्रमादसे रहित है, वह सम्यक् है और जो हिंसामूलक है वह मिथ्या है। मिथ्या क्रिया कर्म -बन्धनका कारण हैं और सम्यक क्रिया कर्मक्षयका । धार्मिक विधि-विधानामें हो अहिंसा की आवश्यकता नहीं है, अपितु जीवनके दैनिक व्यवहार में भी अहिंसा की आवश्यकता है !
तीर्थंकर अपने आचार और विचारसे पार्थिव जीवनको अपार्थिव तो बनाते ही हैं, साथ ही आत्मसाधनाका एक विशुद्ध और सुपरीक्षित मार्ग भी निर्धारित कर देते हैं। ये सत्यके अन्वेषण, आत्मसाक्षात्कार एवं सुलझी हुई अन्तर्दृष्टि द्वारा मानवताकी प्रतिष्ठा करते हैं। इतना ही नहीं, अपितु ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, आस्था और आत्मशोधनकी प्रक्रिया भी प्रस्तुत करते हैं। ये जीवन के सम्यक्त्वा उपदेश देते हैं और मनको निर्मल बनानेका उपाय बतलाते हैं । वास्तवमें तीर्थंकरोंकी यह परम्परा सुदूर प्राचीनकालसे चली आ रही है |
जैनधर्म और तीर्थंकर-परम्परा
जैनधर्म में मान्य तीर्थंकरोंका अस्तित्व वैदिक कालके पूर्व भी विद्यमान था | इतिहास इस परम्पराके मूल तक नहीं पहुँच सका है। उपलब्ध पुरातत्त्वसम्बन्धी तथ्योंके निष्पक्ष विश्लेषणसे यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि तीर्थकरोंकी परम्परा अनादिकालीन है। वैदिक वाङ्मय में वात- रशनामुनियों, केशीमुनि और व्रात्य क्षत्रियोंके उल्लेख आये हैं, जिनसे यह स्पष्ट है कि पुरुषार्थपर विश्वास करनेवाले धर्म के प्रगतिशील व्याख्याता तीर्थंकर प्राग ऐतिहासिक काल में भी विद्यमान थे । मोहन-जो-दड़ों के खडहरोंसे प्राप्त योगीश्वर ऋषभकी कायोत्सर्ग मुद्रा इसका जीवन्त प्रमाण है । यहाँसे उपलब्ध अन्य पुरातत्त्व सम्बन्धी सामग्री भी तीर्थकर परम्पराकी पुष्टि करती है । वैदिक संस्कृति में ही वेदोंकने सर्वोपरि महस्व देकर मानव ज्ञानकी पूर्ण प्रतिष्ठा नहीं हुई है, अपितु श्रमणसंस्कृति में भी वीतराग, हितोपदेशी और सर्वज्ञ तीर्थंकरकी प्रतिष्ठा कर मानवताको महत्त्व प्रदान किया है। दीपक स्वयं प्रकाशित होता है और दर्पण स्वभावतः स्वरूपावलोकनका अवसर प्रदान करता है । इसी प्रकार तीर्थंकर भी समस्त आमुष्मिकताओंसे ऊपर उठकर मानवताका सन्देश देते हैं । इनमें राम-द्वेषका स्पर्श भी नहीं रहता और इनका ज्ञान इतना निर्मल हो जाता है कि उसमें
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सम्पूर्ण चराचर जगत् प्रतिभासित होता है। मृदंगकी ध्वनिके समान तीर्थकरकी दिव्यध्वनि भी नितान्त निस्पृह तथा परम लोकोपकारी होती है। तीर्थकर : व्युत्पत्ति एवं अवधारणा
तीर्थकरशब्द तीर्थ उपपद कृञ् + अप्से बना है । इसका अर्थ है जो तीर्थधर्मका प्रचार करे वह तीर्थंकर है। तीर्थशब्द भी/तृ + थक्से निष्पन्न है। शब्दकल्पद्रुमके अनुसार 'तरसि पापाविकं यस्मात् इति तीर्यम्' अथवा 'तरति संसारमहार्णवं घेन तत् तीर्थम्' अर्थात् जिसके द्वारा संपारनहाय या पाकोसे पार हुआ जाय, वह तीर्थ है । इस शब्दका अभिधागत अर्थ घाट, सेतु या गुरु है और लाक्षणिक अर्थ धर्म है। तीर्थकर वस्तुतः किसी नवीन सम्प्रदाय या धर्मका प्रवर्तन नहीं करते वे अनादिनिधन आत्मधर्मका स्वयं साक्षात्कार कर दीतरागभावसे उसकी पुनव्याख्या या प्रवचन करते हैं 1 तीर्थंकरको मानवसभ्यताका संस्थापक नेता माना गया है। ये ऐसे शलाकापुरुष हैं, जो सामाजिक चेतनाका विकास करते हैं और मोक्ष-मार्गका प्रवर्तन करते हैं।
तीर्थका अर्थ 'पुल' या 'सेतु' है । कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल-से-निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमतासे पार कर सकता है । तीर्थंकरोंने संसाररूपी सरिताको पार करनेके लिये धर्मशासनरूपी सेतुका निर्माण किया है । इस धर्मशासनके अनुष्ठान द्वारा आध्यात्मिक साधनाकर जीवनको परम पवित्र और मुक्त बनाया जा सकता है। __ तीर्थशब्द 'घाट' के अर्थमें भी व्यवहृत है। जो घाटके निर्माता हैं, वे तीर्थकर कहलाते हैं । सरिताको पार करनेके लिये घाटकी सार्वजनीन उपयोगिता स्पष्ट है । संसाररूपी एक महानदी है । इसमें क्रोध, मान, मायादिके विकाररूप मगर-मत्स्य मुँह फाड़े खड़े हुए हैं। कहींपर मायाके विषैले सर्प फुत्कार करते हैं. तो कहींपर लोभके भंवर विद्यमान हैं। इन समस्त बाधाओंसे मुक्ति प्राप्त करने के लिये तीर्थकर धर्म-घाटका निर्माण करते हैं। इस धर्मका अनुष्ठान और साधनाकर प्रत्येक साधक संसाररूपी नदीसे पार हो सकता है।
आगम बतलाता है कि अतीतके अनन्तकालमें अनन्त तीर्थकर हुए हैं । वर्तमानमें ऋषभादि चतुर्विशति तीर्थंकर हैं और भविष्यत में भी चतुर्विति
१. अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वमन् गिल्पिकरस्पर्शान् मुरजः किमपेक्षते ।।
-आ. समन्तभद्र : रत्नकथा, श्लोक. ८.
४ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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तीर्थकर होंगे। ये भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालके सभी तीर्थंकर धर्मके मूल स्तम्भस्वरूप शाश्वत सत्योंका समानरूपसे प्ररूपण करते रहे हैं, कर रहे हैं और करते रहेंगे । धर्मके मूल तत्वोंके निरूपणमें एक तीर्थकरसे दूसरे तीर्थकरका किंचिन्मात्र भी भेद न कभी रहा है और न कभी रहेगा। पर प्रत्येक तीर्थकर अपने-अपने समयमें देश, काल, जनमानसकी ऋजुता, तत्कालीन मानवकी शक्ति, बुद्धि, सहिष्णुता आदिको ध्यानमें रखते हुए उस कालके मानवके अनुरूप धर्म-दर्शनका प्रवनन करते हैं ।
देशकालके प्रभावसे जब तीर्थ में नानाप्रकारको विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, अनेक भ्रान्तियाँ पनपने लगती हैं और तीर्थ, विलुप्त, विशृंखलित एवं शिथिल होने लगता है, उस समय दूसरे तीर्थकरका समुद्भव होता है और वे विशद्धरूपेण नवीन तीर्थको स्थापना करते हैं। अत: वे तीर्थंकर कहलाते हैं। धर्मके प्राणभूत सिद्धान्त ज्यों-के-त्यों रूपमें उपदिष्ट किये जाते हैं | केवल बाह्य क्रियाओं एवं आचार-व्यवहार आदिमें ही किंचित् अन्तर आता है ।
जब पुराने घाट ढह जाते हैं, वे विकृत एवं अनुपयोगी हो जाते हैं। तब नवीन घाटोंका निर्माण किया जाता है । जब धार्मिक विधि-विधान में विकृति आ जाती है, तब तीर्थकर उन विकृत्तियों को दूरकर अपनी दृष्टिसे पुनः धार्मिक विधि-विधानोंका प्रवचन करते हैं। ये आत्मोपकारके साथ लोकोपकारमें भी प्रवृत्त रहते हैं। स्वयंको जीतकर अन्य लोगोंको स्वयं को जीतनेका मार्ग बतलाते है | इसप्रकार तीर्थकर-परम्परा प्रखरधारवाले भवसागरके तटपर घाट स्थापित करनेके साथ सम्यग्दर्शन, सम्बम्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके पोत भी निमित्त करती है।
तीर्थंकर कोई रूढ़ शब्द नहीं है । यह महिमाशाली, दयालु, निःस्वार्थ, निर्भीक, सर्बज्ञ, जितेन्द्रिय और निर्मल विश्वासीके लिये प्रयुक्त होता है। इसमें अनन्त अपरिमित ऊर्जा और आत्मनल पाया जाता है। तीर्थंकर पद आत्मविकासका चरमोत्कर्ष है और है आत्मविद्याका सर्वोच्च शिखर । तीर्थंकरोंने भौतिक जीवनको आध्यात्मिक जीवनदर्शन दिया । आत्मसाधनाका एक विशुद्ध और सुपरीक्षित मार्ग बतलाया है। उन्होंने सत्यकी शोध, आत्मसाक्षात्कार और सुलझी हुई आत्मदृष्टि द्वारा मनुष्यकोस्वानुभूतिका प्रतिष्ठित मागं बतलाया है । निःसन्देह तीर्थ' एक लोक-प्रचलित शब्द है, पर तीर्थकरके अर्थ में उसका प्रयोग लक्षणा और व्यंजना इन दोनों शब्द-शक्तियों द्वारा होता है। अतः तीर्थकर वह विशिष्ट वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी व्यक्ति है, जो संसार-सागरसे
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पार होनेका मार्ग प्रतिपादित करता है । अतएव वह मोक्षमार्गका प्रवर्तक युगपुरुष होता है। मानव-सभ्यताके सूत्रधार कुलकर और तीर्थंकरोंफा आरम्भ एवं संख्या
जैन विचारकोंकी दृष्टिसे यह संसार अनादिकालसे सतत गतिशील चला आ रहा है । इसका न कहीं आदि है और न कहीं अन्त । यह दृश्यमान विश्व परिवसंगती, परिणामी और निमाणी बटसे नित्य है और पर्यायकी दृष्टिसे परिवर्तनशील । प्रत्येक जड़, चेतनका परिवर्तन नैसर्गिक, ध्रुव एवं सहज स्वभाव है । जिसप्रकार दिनके पश्चात् रात्रि और रात्रिके पश्चात् दिन; प्रकाशके अनन्तर अंधकार और अंधकारके अनन्तर प्रकाशका प्रादुर्भाव होता है, उसीप्रकार अभ्युदयके पश्चात् पतन और पतनके पश्चात अभ्युदय प्राप्त होता है। उत्कर्ष और अपकर्षका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है । कालचक्र के अनुसार उत्कर्षमय कालको उत्सर्पण और अपकर्षमय कालको अवसर्पण संज्ञा दी गयी है। इन दोनोंके सुषम-सुषम, सुषम, सुषम-दुषम, दुषमसुषम, दुषम और दुषम-दुषम य छह अवसर्पणके और दुषम-दुषम, दुषम आदि छह उत्सर्गणके भेद होते हैं । यह कालचक्र निरन्तर चलता है। उत्सर्पण कालचक्रमें प्राणियोंको वृद्धि और विकसित रूपमें भोगीपभोगकी सामन्त्री एवं अवसर्पणमें हासोन्मुखमें भोगोपभोगकी सामग्री प्राप्त होती है। इस कालचक्रमें जब प्रकृति ह्रासोन्मुख हो जातो है और मानवकी सुख-सामग्री घटने लगती है, तो उसे अभावका सामना करना पड़ता है। सुषम-सुषम और सुषम कालमें कल्पवक्षोंसे जीवनोपयोगी सामग्नी सहजरूपमें उपलब्ध होती है, पर सुषमदुषम कालके आते ही अभावका सामना करना पड़ता है। फलत: विचारसंघर्ष, कषाय-वृद्धि, क्रोध, लोभ, छल-प्रपंच, स्वार्थ, अहंकार और वैर-विरोधकी पाशविक प्रवृत्तियोंका प्रादुर्भाव होने लगता है और विभिन्न दोषोंसे मानव-समाज जलने लगता है। अशान्तिको असह्य अग्निसे त्रस्त एवं दिग्विमूढ़ मानवके मनमें शान्तिको पिपासा जागृत होती है। उस समय उस दिग्भ्रान्त परिस्थितिमें मानव-समाजके भीतरसे ही कुछ विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति प्रकट होते हैं, जो श्रस्त मानव-समाजको भौतिक शान्तिका पथ प्रदर्शित करते हैं।
ये विशिष्ट बल, बुद्धि और प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति मानव-समाजमें कुलोंकी स्थापना करनेके कारण कुलकर कहलाते हैं। आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें कुलकरकी परिभाषा निम्न प्रकार व्यक्त की है-- प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मताः ।
आर्याणां कुलसंस्त्यायकृतेः कुलकरा इमे ।। ६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कुलानां धारणादेते मत्ताः कुलधरा इति । युगादिपुरुषाः प्रोक्ता युगादौ प्रभविष्णवः || १
अर्थात् प्रजाके जीवनका उपाय जाननेसे मनु और आयं पुरुषों को कुलकी भाँति इकट्टे रहने का उपदेश देनेसे कुलकर कहे जाते हैं । अनेक वंश स्थापित करने के कारण ये कुलवर भी कहलाते हैं ! युगके आदिमें होने से युगादिपुरुष माने जाते हैं ।
कुलकरोंके द्वारा अस्थायी व्यवस्था की जाती है, जिससे तात्कालिक समस्याका आंशिक समाधान होता है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालके कुछ भाग तक कल्पवृक्षोंके सद्भावके कारण मानव स्वतन्त्र और वन विहारी था । अतएव विशिष्ट प्रतिभाशाली व्यक्तियोंने नेतृत्व स्वीकार कर उस समयके मानवों को छोटे-छोटे कुलों में व्यवस्थित किया । ये कुलकर मानव सभ्यता के सूत्रधार थे । इन्होंने मनुष्यको प्रकृतिसे समरस किया और उसे सम्पन्न जीवन व्यतीत करनेका मार्ग बतलाया । आरम्भ में मनुष्य प्रकृतिके रहस्योंसे अपरिचित था, कुलकरोंने प्रकृति और मानवके सम्बन्धको उद्घाटित किया और मनुष्यको जीने की कलासे परिचित कराया । समाजका ढांचा तैयार कर विवेक एवं विचारकी शिक्षा दी । इसी कारण मनुष्य बर्वरता के स्तरसे ऊपर उठा और शनैःशनैः प्रगति के मार्गपर आगे बढ़ने लगा । कृषि और औद्योगिक सभ्यताकी ओर मनुष्यको प्रवृत्त करनेका श्रेय कुलकरपरम्पराको है। ये कुलकर ही ग्राम और नगर संस्कृतिके जनक हैं ।
कुलकरोंकी संख्या चौदह मानी गयी है। प्रत्येक कुलकर अपने-अपने समयम तात्कालिक समस्याओंके समाधान के साथ श्रम और उद्योगकी शिक्षा देते हैं। चौदहवें कुलकर नाभिरायने मनुष्यको कर्म और पुरुषार्थ के धरातलपर ला खड़ा किया । इन कुलकरोंने मनुष्य को बताया कि भयानक पशुओं से कैसे रक्षा करनी चाहिये | किन पशुओं को पालतू बनाया जा सकता है और उनसे उत्पादन कार्य में किस प्रकार सहायता ली जा सकती है आदि बातें प्रतिपादित की । भूमि एवं वृक्षों के स्वामित्वको मर्यादा, कृषि, खेत खलिहान, हाट, बाजार, कला, विज्ञान आदि विविध क्षेत्रोंमें मनुष्यको प्रविष्ट वायनेका कार्य भी इन्होंने सम्पादित किया । नदीपर घाट बांधना, यान चलाना, पर्वतारोहण करना, सड़क, भवन, कूप आदिका निर्माण करना एवं विविध वस्तुओंके उपयोगकी कला भी कुलकरोंने सिखलायी । परिवार, समाज, शासन आदिको नियम उपनियम भी इन्होंने बतलाये | कुलकरों द्वारा भौतिक साधनों के उपयोगकी जानकारी प्राप्त हो जाने पर भी सहज, शान्त और निर्दोष जीवनयापनके लिये धर्मकी आवश्यकता
१. महापुराण आदिपुराण ३१२११-२१२.
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प्रतीत हुई। इधर मानव कुलों की भी वृद्धि हो रही थी, जिससे विषमता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी । अतः जनसाधारणकी आध्यात्मिक भूख बढ़ रही थी और बढ़ती हुई भौतिक आवश्यकताओंके नियंत्रणकी अपेक्षा बनी थी । अतएव कुलकरोंके पश्चात् चौबीस तीर्थंकर, द्वादश चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण और नौ प्रतिनारायण ये त्रेसठ शलाकापुरुष जन्म लेते हैं, जो सभी तरह की समाज-व्यवस्था एवं वैयक्तिक जीवनोत्थान में योगदान देते हैं ।
तीर्थकरों में सर्वप्रथम ऋषभनाथ या ऋषभदेव हुए हैं, जिन्होंने आत्मविद्याका नेतृत्व किया है । मानव समाजको कृषिको शिक्षा के साथ जीविकोपयोगी षट्कर्मोकी शिक्षा भी इन्होंने दी । ऋषभदेवने इस युग में जैनधर्मका प्रवत्तन प्रत्येक कल्पकालके समान ही किया है । भोगभूमि के पश्चात् जब कर्मक्षेत्रका प्रारम्भ हुआ, तो मानव समाज में सहअस्तित्व, सहयोग, सहृदयता, सहिष्णुता, सुरक्षा, सौहार्द एवं समानताका पाठ पढ़ाकर मानवके हृदय में मानव के प्रति भ्रातृत्वभावको उत्पन्न किया । इन्होंने गुणकर्मके अनुसार वर्णव्यवस्थाका भी प्रतिपादन किया । अहिंसा, दयावृत्ति, संयम, रत्नत्रय आदिकी आराधनापर बल दिया ।
ऋषभदेवके पिताका नाम नाभिराय और माताका नाम मरुदेवी था | अयोध्या नगरी में इनका जन्म हुआ था। इनके जन्म लेते ही सभी दिशाएँ शान्त हो गईं और सभी प्राणियोंको क्षणभरके लिये अपूर्व विश्राम प्राप्त हुआ । देव-देवेन्द्रोंने इनका जन्मोत्सव सम्पन्न किया । इनका नाम वृषभ या ऋषभदेव रखा गया । आचार्य जिनसेनने लिखा है कि जगत् के लिये हितकारक धर्मामृतकी वर्षा करनेवाले होनेके कारण इनका नाम वृषभदेव रखा गया । धर्म-कर्म के आद्य प्रवर्तक होने के कारण इनका आदिनाथ नाम भी प्राप्त होता है । इनका वंश इक्ष्वाकु था । ऋषभदेवका विवाह सम्पन्न हुआ और उनके ब्राह्मी और सुन्दरी कन्याओंके अतिरिक्त १०० पुत्र उत्पन्न हुए । ऋषभदेवने असंख्यात वर्ष पर्यन्त राज्य किया । धर्मानुकूल लोक व्यवस्था संचालित की ओर अन्तमें विरक्त होकर श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। ऋषभदेवके साथ अनेक राजा, सामन्त और महापुरुषोंने भी दीक्षा ग्रहण की। घोर तपश्चरण के अनन्तर इन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और जगत्के जीवोंको शान्तिका उपदेश दिया ।
ऋषभदेवके पश्चात् अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपा चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अरनाथ, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पाक और वर्द्धमान ये तेईस तीर्थंकर हुए। इन सभीने सत्यका अन्वेषण किया, आत्म
८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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साक्षात्कार प्राप्त किया और सुलझी हुई अन्तर्दृष्टि द्वारा मानवकी तत्कालीन समस्याओंके समाधान प्रस्तुत किये। उन्होंने अनेकान्त, अहिंसा, समता आदिका प्रवर्तन कर जन- जनको शान्तिका मार्ग बताया । इन चौबीस तीर्थंकरोंमें ऋषभनाथ, नमि, नेमि, पार्श्व और महावीरका निर्देश अन्य वाङ्मय एवं पुरातत्त्व आदि में भी प्राप्त होता है ।
वैदिक वाङ्मय और तीर्थंकर
विश्वके प्राचीन वाङ्मय में ऋग्वेदका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसको एक ऋचामें आदि तीर्थंकर ऋषभदेवका उल्लेख आया है
"ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विवासहिम् | हंतारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपति गवाम् ||" ॠग्वेद
१०, १६६, १. यजुर्वेद और अथर्ववेदमें भी ऋषभदेवका उल्लेख प्राप्त होता है । श्रीमद्भागवतमें विष्णु के चौबीस अवतारोंमें एक ऋषभावतार भी स्वीकृत किया गया है, जिससे आदि तीर्थंकर ऋषभकी ऐतिहासिकता और प्रसिद्धि सिद्ध होती हैं । भागवत्तमें ऋषभदेवके जीवन-वृत्तका भी वर्णन प्राप्त होता है। लिखा है
"अथ ह भगवानृषभदेवः स्ववर्ष कर्मक्षेत्रमनुमन्यमानः प्रदर्शितगुरुकुलवासः लब्धवरेर्गुरुभिरनुज्ञातो गृहमेधिनां धर्माननुशिक्षमाणो..... शतं जनयामारा' । भगवानृषभसंज्ञ आत्मनन्त्रः स्वयं नित्यनिवृत्तानर्धपरम्परः केवलानन्दानुभव ईश्वर एवं विपरीतवत्कर्माण्यारभमाणः कालेनानुगतं गृहेषु लोकं नियमयत् ।
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अर्थात् भगवान् ऋषभदेवने समस्त लौकिक क्रियाओंका सम्पादन किया । वे परम स्वतन्त्र भौतिक आसक्तिसे रहित आनन्दस्वरूप साक्षात् ईश्वर थे । उन्होंने जनसामान्य में धर्माचरण और तत्त्वज्ञानका प्रचार किया। समता, शान्ति और करुणा के साथ धर्म, अर्थ, यश, सन्तानसुख, भोग और मोक्षका उपदेश देते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों का नियमित जीवन व्यतीत करनेका उपदेश दिया । ऋषभदेव समस्त धर्म के माररूप, वेदके सुह्य रहस्यके ज्ञाता थे । वे सामदानादि रीति के अनुसार जनताका पालन करते थे । उन्होंने सौ यज्ञोंका सम्पादन किया था | इनके शासनकालमें प्रजा सुखी थी, उसे किसी भी वस्तुकी कमी नहीं थी । ऋषभदेवने अनेक देशोंमें विहार किया था तथा देश, राष्ट्र और समाज हितका उपदेश दिया था ।
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१. श्रीमद्भागवत ( गीताप्रेस- संस्करण ) ५/४/८. २. वही ५/४/१४.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ९
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इसी ग्रन्थमें यह भी बताया गया है कि ऋषभदेवको शिक्षाको ग्रहणकर ऐसे धर्म और सम्प्रदाय प्रचलित होंगे, जो अस्नान, अनाचमन, अगौत्र, केशलुञ्च, ईश्वर-कत्तु त्वमें अविश्वास, यश-विरोध आदि करेंगे । लिखा है..
"येन ह वाव कलौ मनुजाः संपदा देवमायामोहिताः ...... ..."निजनिजेच्छाया गृहाना अस्नानानाचमनाशौचकेशोल्लुचनादीनि कलिनाधर्मबहुलेनोपहतषियो अझब्राह्मणयज्ञपुरुषलोकविदुषकाःप्रायेण भविष्यन्ति ।"
मार्कण्डेयपुराणमें तीर्थंकर ऋषभदेवके वर्णनमें लिखा है कि उन्होंने अपने पुत्र भरतको राज्यभार संपिा और स्वयं बिरक्त हो गये । इन्ही भरतके नामपर इस देशका नाम भारतवर्ष पड़ा ।।
कूर्मपुराणमें बताया गया है कि महात्मा नाभि और मेरुदेवीका पुत्र ऋषभ हुआ, जो अत्यन्त क्रान्तिकारी था। ऋषभके सौ पुत्र हुए, जिनमें भरत ज्येष्ठ था । बताया है---
"हिमाह्वयं तु यद्वर्ष' नाभेरासीन्महात्मनः । तस्यर्षभोऽभवत् पूत्रो मेरुदेव्यां महाद्युतिः ।। ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः । सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्र भरतं पृथिवीपतिः ॥"
-अध्याय ४१, श्लोक ३७-३८, पृ० ६१. अग्निपुराणमें महाराज नाभिके अलौकिक राज्यका वर्णन आया है और बताया गया है कि उनके तथा मरुदेवीके पुत्रका नाम ऋषभ था। ऋषभने अपने पुत्र भरतको राज्य देकर शालिग्राममें मुक्ति प्राप्त की। इस पुराणमें ऋषभका महत्त्व उनकी तपस्या एवं उनकी शासन-व्यवस्थाका भी सामान्य चित्रण आया है। इस पुराणमें जैन मान्यताके अनुसार ऋषभके माता-पिताके नाम नाभिराय एवं मरुदेवो आये हैं। __ वायुपुराण और ब्रह्माण्डपुराणके पूर्वार्ध ऋषभदेवके महत्त्वसूचक कई पद्य १. श्रीमद्भागवत, ५।६।९. २. मार्कण्डेयपुराण, अध्याय ५०, श्लोक ३९-४१, पृ० १५० तथा कल्याण, गीताप्रेस, ___ गोरखपुरका हिन्दू-संस्कृति-विशेषांक, जनवरी, १९५०, पृ० ८८२. ३. अग्निपुराण १०१०-११, पृ० ६२. ४. नाभिस्त्वजनयत् पुत्रं मरुदेग्या महायुतिः ।
ऋषभं पार्थिवश्रष्टं सर्व क्षेत्रस्य पूर्वजम् ।। वायु, अ० ३३, पद्य ५०-५२, प. ५१. ५. सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्र महाप्रावाज्यमास्थितः । ____ हिमाल दक्षिणं वर्ष तस्यानाम्ना विदुर्बुधाः ।। --ब्रह्मा०, अ० १४, पद्य ६१, पृ. २४. १० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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आये है । वाराहपुराण में' नाभिराय और मेरुदेव के पुत्र ऋषभदेव तथा उनके भरतादि सौ पुत्रोंका कथन आया है। ऋषभने भरतको हिमालयके दक्षिणवाला क्षेत्र दिया था, जिसका नाम आगे चलकर भरतके नाम पर भारतवर्षं पड़ा । लिङ्गपुराण में नाभिराजको हिमालयके उत्तर-दक्षिणवर्ती प्रदेशका शासक बतलाया गया है । इनके पुत्रका नाम ऋषभदेव आया है । ऋषभको माता मरुदेवी थी । ऋषभके पुत्र भरत हुए, जिनके नामपर इस देशका नाम भारतवर्षं
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पड़ा |
विष्णुपुराण और स्कन्धपुराण में भी ऋषभदेवकं प्रताप एवं प्रभावका चित्रण आया है ।
आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजीने अपने 'मोक्षमार्गप्रकाशक' में बताया है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभ, द्वितीय अजित, सप्तम सुपार्श्व २२वें अरिष्टनेमि और २४वें महावीरका उल्लेख यजुर्वेदमें है। उन्होंने यजुर्वेदका निम्नलिखित मन्त्र उद्धृत किया है
"ओं ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं परममाह संस्तुतं वरं शत्रुजयंत पशुरिन्द्रमाहुरिति स्वाहा। ओं त्रातारमिन्द्रं ऋषभं वदन्ति । अमृतारमिन्द्र हवां सुगतं सुपार्श्वमिन्द्र हवे शक्रमजितं सद्धर्म मानपुरुहूतमाहुरिति स्वाहा । ओं नग्नं सुधीर दिग्वाससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपमि वीरं पुरुषमहान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् स्वाहा । ओं स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु । दीर्घायुस्त्वायुर्बलायुर्वा शुभजाताः ओं रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा । "
- उद्धृत आचार्यकल्प पं० टोडरमल, मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ० २०८. ऋग्वेद में वातरशनामुनियोंके सम्बन्धकी ऋचाएँ आयी हैं। ये ऋचाएँ ऋषभदेवके जीवन से सम्बन्धित प्रतीत होती हैं । वस्तुतः वातरशनामुनियों को धर्मका उपदेश ऋषभदेव से प्राप्त हुआ होगा। इन ऋचाओं में मुनियोंकी साधनाका वर्णन आया है। लिखा है
१. नाभिर्मेरुदेव्यां पुत्रमजनमद् ऋषभनामानं तस्य भरतो पुत्रश्च तावदग्रजः । तस्य भरतस्य पिता ऋषभो हेमाद्र ेः दक्षिण वर्धमदद्"
- अध्याय १७४, १० ४९.
२. लिंगपुराण अध्याय ४७, श्लोक १९-२४, पृ० ६८.
P
३. विष्णुपुराण, अध्याय १ श्लोक २७-२८, पृ० ७७.
1
श्लोक ५७.
४. स्कन्धपुराण अध्याय ३७,
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ११
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"मुनयो वातरशना: पिशंगा वसते मला । वातस्यानु ध्राजि यन्ति यदेवासो अविक्षत ।। उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आतस्थिमा वयम् । शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ।।"
-ऋग्वेद १०, १३६, २-३. अर्थात् अतीन्द्रियदर्शी कातरशनामुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे गिल वर्ण दिखलायी पड़ते हैं। जब वे वायुकी गतिको प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपने तपकी महिमासे दीप्यमान होकर देवतास्वरूपको प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहारको छोड़कर मौनवतपूर्वक ध्यानस्थरूपमें विचरण करते हैं। उनका बाह्य शरीर मलसे लिप्त दिखलायी पड़ता है, पर अन्तरंग निर्मल होता है ।
ऋग्वेदमें केशीको भो स्तुति प्राप्त होती है । यह केशी साधनायुक्त होते हैं । लिखा है
"केश्पग्नि केशी विष केशी विर्भात रोदसी । केशो विश्वं स्वर्दशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ।।"
-ऋग्वेद १०,१३६,१। केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वीको धारण करता है । केशी समस्त विश्वके तत्त्वोंका दर्शन कराता है । उसको ज्ञानज्योति केवलज्ञानरूप है । ___ ऋग्वेदके केशी और वातरशना मुनियोंकी साधनाओंका भागवतपुराणमें उल्लिखित ऋषभकी साधनाओंके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे स्पष्ट होता है कि ऋग्वेदके वातरशना मुनि और भागवतके वासरशना श्रमण एक ही सम्प्रदायके वाचक हैं। केशीका अर्थ केशधारी है 1 सम्भवतः ये वातरशनामनियोंके अधिनायक थे, इनकी साधनामें मलधारण, मौनव्रत और उन्माद भावका विशेष उल्लेख है । श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवकी जिस वृत्तिका वर्णन आया है, उससे स्पष्ट है कि वे केशधारी अवधूतके रूपमें विचरण करते थे।
जैन मूर्तिकलामें ऋषभदेवके कुटिल केशोंकी परम्परा प्राचीनतम कालसे पायी जाती है ! २४ तीर्थंकरों से केवल ऋषभदेवकी मूर्तिके सिर पर ही कुटिल केश दिखलायी पड़ते हैं और वही उनका प्राचीन विशेष लक्षण भी माना जाता है । पद्मपुराणमें ऋषभदेवकी जटाओंका उल्लेख आया है। हरिवंशपुराणमें' १. श्रीमद्भागवत, ५४६१२८-३१. २. पद्मपुराण ३।२८८. ३. हरिबंशपुराण ९१२०४. १२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा
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भी उन्हें प्रलम्बजाधारी बताया है ! मत ऋषभदेत्रका 'केशी यह नाम सार्थक प्रतीत होता है।
ऋग्वेदमें एक ऐसी ऋचा उपलब्ध है, जिसमें केशी और ऋषभ इन दोनों का उल्लेख है। यहाँ केशी ऋषभका विशेषण जैसा प्रयुक्त है। मंत्र निम्नप्रकार है
"ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद् । अवावचीत् सारथिरस्य केशी । दुधेर्युक्तस्य द्रवत: संहानमः । कच्छन्तिमा निष्पदो मुद्गलानीम् ।।"
-ग्वेद १०,१०२.६, अर्थात् मुद्गल ऋपिकी गायोंको चोर चुग ले गये थे। उन्हें लौटानेके लिये ऋषिने केशी वृपभको अपना सारथी बनाया, जिसके वचनमात्रमे वे गायें आगेकी और न जाकर पीछेको लौट पड़ी। सायणने केशोको वृषभका विशेषण बतलाया है । लिखा है--
"अथवा, अस्य सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टके यो वृषभः अवावचीत् भृशमशब्दयत्" इत्यादि।
अर्थात् मुद्गल ऋषिने केशी वृषभको शत्रुओंका विनाश करनेके लिये अपना सारथी नियुक्त किया। इस ऋचाका आध्यात्मिक अर्थ यह है कि मुद्गल ऋषिकी जो इन्द्रियां पराङ्मुखी थीं, वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता कंशी वृषभका धर्मोपदेश सुनकर अन्तर्मुखी हो गयीं। अतएव यह स्पष्ट है कि ऋग्वेदमें जो केशीसूक्त आया है, वह ऋषभदेवके उल्लेखका सूचक है। डॉ० श्री हीरालाल जी जैनने लिखा है- "इस प्रकार ऋग्वेदमें उल्लिखित वात रशना मुनियोंका निर्मन्थ साधु तथा उन मुनियों के नायक केशी मुनिका ऋषभदेवके साथ एकीकरण हो जानेसे जैनधर्मकी प्राचीन परम्परापर बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है |"""केशी नाम जेन परम्परामें प्रचलित रहा। इसका प्रमाण यह है कि महावीरके समय में पार्श्व-सम्प्रदायके नेताका नाम कोशीकुमार था (उत्तराध्ययन २३)।"
इस प्रकार वैदिक साहित्य के प्रकाशमें आदितीर्थंकर ऋषभदेव और उनके अनुयायी वातरशनामुनियोंका उल्लेख प्रास होता है। १. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, प्रकाशक-मध्यप्रदेश-शासन, साहित्यपरिपद्,
भोपाल, सन् १९६२, पृ० १७.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १३
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पुरातत्त्व और ऋषभदेव
पुरातत्त्वकी दुष्टिसे भी ऋषभदेवकी प्राचीनता सिद्ध होती है। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डॉ० राखालदास बनर्जीने सिन्धुघाटीको सभ्यताका अन्वेषण किया है । यहाँके उत्खनन में उपलब्ध सील (मोहर) न० ४४९ पर चित्रलिपि में कुछ लिखा हुआ है । इस लेखको प्रो० प्राणनाथ विद्यालंकारने 'जिनेश्वरः ( जिन - इ-इ-सर: ' ) पढ़ा है । पुरातत्त्वज्ञ रायबहादुर चन्दाका वक्तव्य है कि सिन्धुघाटीकी मोहरोंमें एक मूर्ति प्राप्त होती है, जिसमें मधुराकी ऋषभदेवकी खडगासन मूर्तिके समान त्याग और वैराग्यके भाव दृष्टिगोचर होते हैं। सील नं० द्वितीय एफ० जी० एच० में जो मूर्ति उत्कीर्ण है, उसमें वैराग्य मुद्रा तो स्पष्ट है ही, उसके नीचेकं भागमें ऋषभदेवके चिह्न बैलका सद्भाव' भी है।
डॉ० श्री राधाकुमुद मुखर्जीने सिन्धु सभ्यताका अध्यका है फलक १२ और ११८, आकृति ७ (मार्शलकृत मोहन-जो-दड़ों) कायोत्सर्ग नामक योगासनमें खड़े हुए देवताओंको सूचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियोंकी तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है। जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थकर श्री ऋषभ देवता की मूर्ति । ऋषभका अर्थ है बेल, जो आदिनाथका लक्षण है । मोहर संख्या एक० जी० एच० फलक दोपर अंकित देवमूर्ति में एक बैल ही बना है | सम्भव है कि यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो । यदि ऐसा हो, तो शैव-धर्म की तरह, जैनधर्मका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है" 1
मथुरा कंकाली टीलाके आविष्कारने ऋषभादि तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिकता पर प्रकाश डाला है | वहाँकी पुरातत्त्वकी उपलब्ध सामग्रीमें लगभग ११० अभिलेख प्राप्त हुई हैं। वहींके एक स्तूपमें संवत् ७८ की १८ वें तीर्थङ्कर अरहनाथकी प्रतिमा भी प्राप्त है । यह स्तूप इतना प्राचीन है कि इसके रचनाका समय ज्ञात करना कठिन है। डॉ० बिसेन्ट ए० स्मिथ के अनुसार मथुरा-सम्बन्धी अन्वेषणोंसे यह सिद्ध है कि जैनधर्मके तीर्थंकरोंका अस्तित्व ई० सन्से पूर्व में विद्यमान था । ऋषभादि २४ तीर्थंकरों की मान्यता सुदूर प्राचीनकालमें पूर्णतया प्रचलित थी । इसप्रकार ऋषभदेवकी प्राचीनता इतिहास और
१. The modern review, August, 1935 - Sindh Five thausands years ago.
२. हिन्दू सभ्यता ( हिन्दी-संस्करण), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, सन् १९५८, पृ० २३. ३. द जैन स्तूप
मथुरा प्रस्तावना, पृ०
१४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
६.
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वाङ्मयसे सिद्ध है। डॉ० एन० एन० बसुका मत है कि लेखनकलाका प्रथम आविष्कार कदाचित् ऋषभदेवने किया था। प्रतीत होता है कि ब्रह्मविद्याके प्रचारके लिये उन्होंने ब्राह्मी लिपिका आविष्कार किया था। यही कारण है कि वे अष्टम अबतारके रूपमें प्रसिद्ध हुए हैं। तीर्थकर नमि ___ अनासक्ति योग के प्रतीक २१ व सार्थक र नामनाथ है । ऋषभनाथके अनन्तर नमिनाथका जीवनवृत्त जैनेतर साहित्य में उपलब्ध होता है | नमि मिथिलाके राजा थे और इन्हें हिन्दू पुराणोंम जनकके पूर्वजके रूपमें माना गया है। नमिकी अनासक्तवृत्ति इतनी प्रसिद्ध थी, जिससे उनका वंश ही विदेह कहलाता था। अहिंसाका प्रचार नमिक युगमें विशेष म्पसे हुआ था | उत्तराध्ययनमुत्रके नवम अध्ययन में नमि-प्रव्रज्याका सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है। इस प्रव्रज्यामें आये हुए बचनोंकी तुलना पालि जातक और महाभारतके कई अंगोम को जा सकती है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पा उद्धृत किये जाते हैं-
"मुह बमामो जीवामो जेसि मो णस्थि किंचण | मिहिलाए इज्झमाणीए का मे झन किंचण ।।"
-उन्न० २.-१४. मसुखं बत जीवाम येमं नो नन्थि किंचनं । मिथिलाये दहमानाय न मे किचि अदयहथ ।।"
___-पालि-महाजनक-जातक. "मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किञ्चन दह्यते ।"
-म० भा० शांतिपर्व. तीर्थकर नमिकी अनासक्तवृत्ति मिथिलामें जनक तक पायी जाती है । कहा जाता है कि अहिंसात्मक प्रवृत्तिके कारण ही उनका धनुष प्रत्यशाहीन रूपमें उनके क्षत्रियत्वका प्रतीकमात्र रह गया था। रामने शिवनगांडीवको फिर प्रत्यञ्चायुक्त किया। सीता-स्वयंवरके अवसरपर रामने इसी प्रत्यञ्चाहोन धनुषको तोड़कर धनुषपर पुनः प्रत्यञ्चाको परम्परा प्रचलित की । वस्तुतः अहिंसामें ही शौर्य और पराक्रमकी वृप्ति निहित है । नमि तीर्थकर ईस्वी सन्से सहस्रों वर्ष पूर्व हुए हैं। तीर्थकर नेमिनाथ
२रखें तीर्थक र नेमिनाथका वर्णन जैन ग्रन्थोंके साथ ऋग्वेद, महाभारत १. हिन्दी विश्वकोश, जिल्द १, पृ० ६४ तथा जिन्६ ३, पृ० ४४४.
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आदि ग्रन्थों में पाया जाता है । नेमिनाथ करुणाके प्रतीक हैं । ये यदुवंशी थे । इनके पिताका नाम समुद्रविजय था। ये कृष्णके चचेरे भाई थे। नेमिनाथका विवाह-सम्बन्ध गिरिनगरके राजा उग्रसेनकी विदुषी पुत्री राजलमतीके साथ होना निश्चित हआ था, पर जैसे ही बारात गिरिनगर जा रही थी कि मार्गमें अतिथियोंके भोजनके निमित्त एकत्र किये गये सहस्रों पाओंकी करुणा चौत्कार नेमिनाथको सुनायी पड़ी। इस घटनासे द्रवित होकर उन्होंने इस विवाहका परित्याग कर दिया और वे मार्गसे ही तपोवनको चल दिये । नेमिनाथका समय महाभारतकाल है। यह काल ईस्वी पूर्व १००० के लगभग माना जाता है। महाभारतके हरिवंशमें अरिष्टनेमिका वर्णन आया है। इस ग्रन्थके अनुसार महाराज यदुके सहस्रद, पयोद, कोष्टा, नोल और अंजिक ये पांच पुत्र हुए। क्रोष्टाको माद्री नामक दूसरी रानीसे युधाजित और देवमितृष नामक दो पुत्र हुए । क्रोष्टाके बड़े पुत्र युधाजितसे वृष्णि और अन्धक ये दो पुत्र हुए। वृष्णिके स्वफल्क और चित्रक नामक पुत्र उत्पन्न हुए 1 चित्रकके पृथु, विपृथु, अश्वनीय, अश्वमा, पार्श्वक, गवेषण, अरिष्टनेमि, अश्व, सुधर्मा धर्मभृत, सुबाह और बवाह ये बारह पुत्र हुए। इस बंशपरम्परासे यह स्पष्ट है कि अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण चचेरे भाई थे। अरिष्ट. नेमिका उल्लेख ऋग्वेदमें भी प्राप्त होता है । यथा
"स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥"
--ऋग्वेद १,८९,६. यहाँपर अरिष्टनेमिका अर्थ हानिरहित नेमिवाला, त्रिपुरवासो असुर, पुरुजित् सुत और श्रौतोंका पिता कहा गया है। पर शत्पथब्राह्मणमैं अरिष्टका अर्थ अहिंसक है और 'अरिष्टनेमि'का अर्थ अहिंसाकी धुरी-अहिंसाके प्रवर्तक हैं। बृहस्पतिके समान अष्टिनेमिकी स्तुति भी की गयी है।
वैदिक युगमें अरिष्टनेमि करुणा और अहिंसा के रूपमें मान्य हो चुके थे। वे विश्वकी रक्षाकरनेवाले श्रेष्ठ देवताफे रूपमें प्रतिष्ठित थे।
इससे स्पष्ट है कि २२वें सीर्थकर अरिष्टनेमि करुणामतिके रूपमें महाभारतकालसे मान्य रहे हैं । जैन वाङमयमें तो इनका महत्त्व वर्णित है ही, वैदिक साहित्यमें भी इनका महत्त्व कम नहीं है । ऋग्वेदके समान यजुर्वेदौर
१. हरिवंश, पर्व १, अध्याय ३४, पद्य १५-१६. २. यजुर्वेद, अध्याय २५, मंत्र १६, अष्टक ९१, अध्याय ६, वर्ग १, १६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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भी अरिष्टनेमिका उल्लेख आया है। इन्हें यज्ञमें विघ्न निवारणके हेतु बाहूतकिया गया है ।
टोडरमलजीने प्रभास पुराणका उद्धरण देते हुए बताया है कि वामनको पद्मासन दिगम्बर नेमिनाथका दर्शन हुआ था । उसीका नाम शिव है । उसके दर्शनादिकसे कोटि यज्ञ फल प्राप्त होता है। लिखा है---
भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम् । तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः ॥ पद्मासनमासीनः श्याममतिदिगम्बर: 1 नेमिनाथ: शिवेत्येवं नाम चक्रेऽस्य वामनः ॥ कलिकाले महाघोरे सर्वपापप्रणाशकः 1 दर्शनात्स्पर्शनादेव कोटियज्ञफलप्रदः ।।
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रेवतात्री जिनो नेमिर्युगादिनिमलाचले | ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् ।।
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यहाँ नेमिनाथ की 'जिन' संज्ञा बतलायी है और उनके स्थानको ऋषिका आश्रम, मुक्तिका कारण कहा है। इससे नेमिनाथकी पूज्यता स्पष्ट है । तीर्थंकर पार्श्वनाथ
२३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथका जन्म बनारसके राजा अश्वसेन और उनकी रानी वामदेव से हुआ था । इन्होंने ३० वर्ष की अवस्थामें गृह त्यागकर सम्मेदशिखर पर्वत पर तपस्या की। यह पर्वत आज तक पार्श्वनाथ पर्वतके नामसे प्रसिद्ध है। पार्श्वनाथने केवलज्ञान प्राप्तकर ७० वर्षों तक श्रमण - धर्मका प्रचार किया । पार्श्वनाथके जीवन प्रसंग में कमठका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसीके कारण पार्श्वनाथको साधनामें निखार और परिष्कार आया है। क्षमा और बेर के घात-प्रतिघातका मार्मिक वर्णन हुआ है । पार्श्वनाथ क्षमाके प्रतीक है और कमठ वैर का । क्षमा और वेरका द्वन्द्व अनेक जन्मों तक चला है और अन्तमें वैरपर क्षमाकी विजय हुई है।
जैन पुराणोंके अनुसार पार्श्वनाथका निर्वाण तीर्थंकर महावीरके निर्वाणसे २५० वर्ष पूर्व अर्थात् ई० पू० ५२७ + २५० = ७७७ ई० पू० में हुआ । पार्श्वनाथ१. मोक्षमार्गप्रकाशक -- आचार्यकल्प पं० श्रीटोडरमलग्रंथमाला, गांधीरोड, बापू नगर, प्लाट न० ए० ४, जयपुर, वि० सं० २०२३, १०१४१.
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना १७
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का श्रमण परम्परापर गम्भीर प्रभाव है । वे ऋषभनाथसे नेमिनाथ तक चली आय धर्म-परम्परा समवेत संकरण है । इनमें ऋषभका आकिंचन्य, अपरिग्रह और कर्मठता, नमिनाथकी अनासक्त वृत्ति एवं नेमिनाथकी करुणाप्रधान अहिंसावृत्ति सामयिक धर्म चक्र के रूपमें प्रतिष्ठित है । पार्श्वनाथने अहिंसाको सुव्यवस्थित सिद्धान्तके रूपमें प्रतिष्ठित कर क्षमाकी धारा प्रचलित की ।
तीर्थंकर पार्श्वनाथकी वाणीमें करुणा, मधुरता और शान्तिकी त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित है । परिमाणतः जन-जनके मनपर उनकी वाणीका मंगलकारी प्रभाव पड़ा, जिससे कोटि-कोटि जनता उनकी अनन्यभक्त बन गयी। इनके समयमें तापस-परम्पराका प्राबल्य था । लोग तपके नामपर अज्ञानपूर्वक कष्ट उठा रहे थे । इनके उपदेशसे विवेक युक्त तपश्चरण करनेकी नवप्रेरणा प्राप्त हुई। इनके उपदेशसे तपश्चरण का रूपही निखर गया ।
पार्श्वनाथकालीन साहित्यका अध्ययन करनेसे अवगत होता है कि पिप्पलादि, भारद्वाज, आदर भाव है। पिप्पलादि मान्य वैदिक ऋषि थे। उनके उपदेशों पर इनके उपदेशकी प्रतिच्छाया दिखलायी पड़ती है । पिप्पलादिका अभिमत था कि प्राण या चेतना जब शरीरसे पृथक हो जाती है, तब यह शरीर नष्ट हो जाता है। यह कथन 'पुद्गलमय शरीरसे जीवके पृथक होनेपर विघटन सिद्धान्तको अनुकृति है ।'
भारद्वाज जिनका अस्तित्व बौद्धधर्मसे पूर्व है। पार्श्वनाथ कालमें वे एक स्वतन्त्र मुण्डक सम्प्रदायकें नेता थे । बुद्धोंके अंगुत्तरनिकायमें उनके मत्तकी गणना मुण्डक श्रावकके नामसे की गयी है । मुण्डक मतके लोग वनमें रहनेवाले थे। ये सापसों तथा गृहस्थ विप्रोंसे अपनेको पृथक् दिखानेके लिये सिर मुंडाकर भिक्षावृत्तिसे अपना उदर पोषण करते थे । किन्तु वेदसे उनका विरोध नहीं था । इनके मसपर पार्श्वनाथ के धर्मोपदेशका प्रभाव लक्षित होता है ।
नचिकेता उपनिषदकालके एक वैदिक ऋषि थे। उनके विचारोंपर भी पाश्यंनाथका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । ये भारद्वाजके समकालीन थे तथा ज्ञान यज्ञको मानते थे । इनकी मान्यता के मुख्य अंग थे – इन्द्रियनिग्रह, ध्यानबृद्धि, आत्मा के अनीश्वर रूपका चिन्तन, तथा शरीर और आत्मका पृथक बोध ।
१. कैम्ब्रिम हिस्ट्री ऑफ इण्डिया पार्ट १ ० १८०.
२. Dialogues of Buddha, Part 2, Page 22, ३. गृहदारण्यकोपनिषद्, ४३२२.
१८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इस प्रकार पार्श्वनाथका प्रभाव उस समय के सम्प्रदायों और ऋषियों पर दिख लायी पड़ता है।
पार्श्वनाथ धर्मको चातुर्याम धर्म कहा गया है। इसका स्वरूप - १. सर्वथा प्राणातिपातविरमण - हिंसाका स्याग, २ सर्वथा भूषावादविरमण – असत्य का त्याग, ३. सर्वथा अदत्तादानविरमण -- चौर्य त्याग और ४. सर्वथा बहिस्थादानविरमण - परिग्रह त्याग रूप है । यह आत्म-साधनाका पवित्र मार्ग है । चातुयम धर्म का वास्तविक रहस्य चार प्रकारके पापोंसे विरक्त होना है । पार्श्वनाथके काल तक ब्रह्मचर्यव्रतको पृथक् स्थान प्राप्त नहीं हुआ था, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके समय की श्रमण परम्परामें ब्रह्मचर्यकी उपेक्षा थी । इस परम्परा श्रमण स्त्रीको भी परिग्रह के अन्तर्गत समझ कर, स्त्रीका त्यागकर ब्रह्मचर्य धारण करते थे । धन-धान्यके समान स्त्री भी बाह्य वस्तु होने से बहिस्पादान के अन्तर्गत थी ।
इतिहासके आलोक में पार्श्वनाथ
तीर्थंकर पार्श्वनाथ ऐतिहासिक व्यक्ति थे, यह अनेक प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुका है। जैन साहित्य ही नहीं, बौद्ध साहित्य भी तीर्थंकर पार्श्वनाथको ऐतिहासिकताको स्वीकार करता है। डा० जेकोबीने बौद्ध साहित्य के उल्लेखोंके आधारपर निर्ग्रन्थसम्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित करते हुए लिखा है - "यदि जैन और बौद्ध सम्प्रदाय एकसे ही प्राचीन होते, जैसाकि बुद्ध और महावीरकी समकालीनता तथा इन दोनोंको इन दोनों सम्प्रदायोंका संस्थापक माननेसे अनुमान किया जाता है, तो हमें आशा करनी चाहिये कि दोनोंने ही अपनेअपने साहित्य में अपने प्रतिद्वन्द्वोका अवश्यही निर्देश किया होता, किन्तु बात ऐसी नहीं है। बौद्धोंने तो अपने साहित्य में, यहाँ तक कि त्रिपिटकों में भी निग्रन्थों का बहुतायत से उल्लेख किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध निर्ग्रन्थ-सम्प्रदायको एक प्रमुख सम्प्रदाय मानते थे । किन्तु निर्ग्रन्थों की धारणा इसके विपरीत थी और वे अपने प्रतिद्वन्द्वीकी उपेक्षा तक करते थे । इससे हम इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि बुद्धके समय निम्रन्य-सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित सम्प्रदाय नहीं था । यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है । "
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डा० श्रीहीरालालजी जेनने लिखा है- "बौद्ध ग्रन्थ 'अंगुत्तरनिकाय', 'चत्तुक्कनिपात' (बग्ग ५) और उसकी 'अट्ठकथा' में उल्लेख है कि गौतम बुद्धका
t. Indian antiquary, volume 9th, Page 160.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १९
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चाचा (बप्प शाक्य ) निर्ग्रन्य श्रावक था । पार्श्वपत्यों तथा निर्ग्रन्थ श्रावकों इस प्रकार के और भी अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनसे निर्ग्रन्थ धर्मकी सत्ता बुद्ध से पूर्व भली-भाँति सिद्ध हो जाती है ।"
बौद्ध ग्रन्थोंमें निग्नंन्योंके चातुर्यामका उल्लेख मिलता है और उसे निर्ग्रन्थ नातपुत्र ( महावीर ) का धर्म कहा गया है, पर इसका सम्बन्ध पाश्र्वनाथकी परम्पराके साथ है, महावीरके साथ नहीं । असः जैन मान्यतामें चातुर्यामका उल्लेख पार्श्वनाथके साथ पाया जाता है, महावोरके साथ नहीं। महावीर तो पंचयाम व्रतके संस्थापक है। बौद्धधर्म में निन्योंकी जिन व्यवस्थाओं का वर्णन आया है, वह महावीरकी न होकर पार्श्वनाथकी परम्पराका होना चाहिये ।
मज्झिमनिकायके 'महासिंहनादत्त में (०४८-५०) बुद्धने अपने प्रारम्भिक कठोर तपस्वी जीवनका वर्णन करते हुए तपके चार प्रकार बतलाये हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया था । वे चार रूप हैं-सपस्विता, रुक्षता, जुगुप्सा और प्रविविक्तता । तपस्विता का अर्थ है नंगे रहना, हाथमें भिक्षा भोजन करना, सिर-दाढ़ीके बालोंको उखाड़ना, कंटकाकीर्ण स्थल पर शयन करना । रुक्षताका अर्थ है शरीरपर मैल धारण करना या स्नान न करना, अपने मैलको न अपने हाथ से परिमार्जित करना और न दूसरेसे परिमार्जित कराना | जुगुप्साका अर्थ है - जलकी बूंदतक पर दया करना और प्रविधिकताका भर्थं है— दनोंमें अकेले रहना ।
ये चारों तप निर्ग्रन्थ-सम्प्रदाय में आचरित होते थे। भगवान् महावीरने स्वयं इनका पालन किया था तथा अपने निर्ग्रन्थोंके लिये मी. इनका विधान किया था । किन्तु बुद्धके दीक्षा लेनेके समय महावीरके निर्ग्रन्थ सम्प्रदायका प्रवर्तन नहीं हुआ था । अतः अवश्य ही वह निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय महावीरके पूर्वज भगवान् पारवनाथका था । जिसके उक्त चारों तथोंको बुद्धने धारण किया था । किन्तु पीछे उनका परित्याग कर दिया था। इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। जैनधर्म अहिसापरक है । यह क्रान्तिमें आस्था रखता है और आक्षेप एवं दुराग्रह को स्थान नहीं देता । तीर्थंकरोंकी परम्परासे उपयुक्त तथ्य स्पष्ट हैं ।
१. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, मध्यप्रदेशशासन - साहित्यपरिषद्, भोपाल, सन् १९६२, ९० २१.
२. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, श्रीगणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, प्रथम-संस्करण, पृ० २१२-२१३.
२० तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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परम्पत : अन्तिम सानहासीर
तीर्थकर पाश्वनायके २५० वर्ष पश्चात् प्रगतिशील परम्पराके संस्थापक २४वें तीर्थकर महावीर हुए। इन्होंने अपनी व्रत-सम्बन्धी प्रगतिशील क्रान्ति के द्वारा जैनधर्मको युगानुकूल रूप दिया । सीयंकरोंकी यह परम्परा वैज्ञानिक दृष्टिसे सत्यका अन्वेषण करनेवाली एक प्रमुख परम्परा रही है । निश्चय ही महावीर धर्म प्रवर्तक ही नहीं, अपितु महान लोकनायक, धर्मनायक, क्रांतिकारो सुधारक, सबवे पथप्रदर्शक और विश्ववन्धुत्वके प्रतीक थे। उनमें अलौकिक साहस, सुमेरु तुस्प अविचल दृढ़ता, सागरोपम गम्भीरता एवं अद्भुत सहनशीलता विद्यमान पी। उन्होंने रूढ़िवाद, पाखण्ड, मिथ्याभिमान और वर्णभेदके अंधकारपूर्ण गम्भोर गर्तमें गिरती हुई मानवताको उठानेमें अथक प्रयास किया । उनके कैवल्यालोकसे मानव-हृदयोंका अज्ञान रूपी अंधकार छिन्न हो गया
और बिनाशोन्मुख मानवता को प्राण प्राप्त हुआ। __ महावीरको साधना वीतरागताकी साधना थी। उन्होंने विकृतियोंसे मुक्त होकर शुद्ध चैतन्य स्वरूप परमात्म-तत्त्वको प्राप्त किया और विश्वके समाजवाद, साम्यवाद, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका प्रशस्त मार्ग दिखाकर अमरत्वका संदेश दिया। रूढ़िवाद और अंधविश्वासोंका विरोधकर जनसाको सही दिशामें बढ़नेका मार्ग-दर्शन किया और उन्हें शुद्ध बितन की तीनतम प्रेरणा दी। - इस प्रकार इस युग को तीर्थंकर-परम्पराको अंतिम कड़ी भगवान महावीर हैं। महावीरने जन-जोवनको तो उन्नत किया ही, साथ ही उन्होंने साधनाका ऐसा मार्ग प्रस्तुत किया, जिस मार्गपर चलकर सभी व्यक्ति सुख और शांति प्राप्त कर सकते हैं। इनका साधना-पथ न किसी गुरुसे बंधा था और न किसी शास्त्र से | यह बंधा या उनके अपने भीतरको स्वतन्त्र अनुभूतिसे । तीर्थकर पार्श्वनायकी तीर्थपरम्पराके तहते हुए घाटोंका पुनरुद्धार इन्होंने किया। श्रमणों की प्राचीन साधना श्रम, शांति और संयमकी पो । महावीरने भी इसी साधनामार्गको गतिशील बनाया। __ उनके ध्यानयोगकी साधना आत्म-साधना थी, भयसे परे थी, प्रलोभनोंसे परे और राग एवं द्वेषसे परे थी। वे नील गगनके नीचे हिन अन्सुओसे भरे निर्जन वनमें ध्यानस्थ हो दिगम्बर मुद्रामें अविचल रहकर 'स्व'को शोध करते रहे। उनके मन में कोई भी विकल्प नहीं था । वे लहर और तूफानोंसे रहित प्रशांत महासागरके समान स्थिर और निश्चल थे। मैत्री भावनाका सर्वोच्च
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मावर्श, जिसे पुष्पोसे ही नहीं, कंटकोंसे भी प्यार था। सतानेवालेके प्रति भी एक सहज करुणा और कल्याणकी कामना विद्यमान थी। उनका चिंतन था, जो पा रहा हूँ, वह अपना किया ही पा रहा हूं। जो भोग रहा है, अपना किया ही भोग रहा हूँ। दूसरोंका कोई दोष नहीं। दूसरे सुख-दुःसमें निमित्त हो सकते है; कर्ता नहीं । कर्ता स्वयं मात्मा ही होता है। जो कर्सा होता है, वहीं भोक्ता भी होता है। का कोई और भोक्सा कोई, यह नहीं हो सकता । महावीर समत्वयोगके साधक थे और वे करुणाके देवता थे। उन्होंने विषको अमृत बना दिया और देर-विरोधका शमनकर समता और शां'सका मार्ग स्थापित किया ।
२२ : वीर्षकर महावीर और उनकी आवाय परम्परा
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४. एम. ए. (संस्कृत) आगरा विश्व विद्यालय .... १९५७ ५. एम. ए. (हिन्दी) विहार विश्व विद्यालय
१९५८ ६. एम. ए. (प्राकृस) [स्वर्णपदक],,
१९५९ ७. पी-एच. डी. [हरिभद्रके कथा-साहित्यका आलोचनात्मकर परिशीलनj
भागलपुर विश्व विद्यालय ८. डी. लिट् [संस्कृत-काव्यके विकासमें जैन कवियोंका योगदान]
मगध विश्व विद्यालय १९६७ इन रेखाओंसे विदित है कि आचार्य शास्त्रो १९३७ से १९६७ तक लगातार ३० वर्ष सतत ज्ञानार्जनमें निरत रहे और तीव्रतिसे समग्र शैक्षणिक उपलब्धियां अर्जित करने में सफल हुए । प्रत्येक रोक्षाने प्रथा अपवा द्वितीय श्रेणीमें उत्तीर्ण होते गये। साहित्य-सृजन और पुरस्कार-प्राप्ति
आचार्य नेमिचन्द्रजीको अनेक कृतियों पर पुरस्कार एवं बहुमान प्राप्त हुआ। पुरस्कृत कृतियो निम्न प्रकार हैंअन्य प्रकाशक
पुरस्कार १. भारतीय ज्योतिष भारतीय ज्ञान पोठ उत्तर प्रदेश सरकार ११००) २. आदि पुराणमें प्रतिपादित भारत वर्षी-ग्रन्थमाला , , ५००) ३. संस्कृत-गीतिकाव्यानुचिन्तनम्
" , ११००) ___ इसी पर वृषभदेव संगीत पुरकार, श्रमण संघ दिल्ली .... २५००) ४. संस्कृत-काव्यके विकासमें जैन कवियों
का योगदान भारतीय ज्ञानपीठ उत्तर प्रदेश सरकार ५००) अन्य प्रकाशित रचनाएँ:
१. स्नात्तक-संस्कृत-व्याकरण (मौलिक) शानदा प्रकाशन, पटना २. चन्द्र-संस्कृत-व्याकरण मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी ३. हेमशब्दानुशासन : एक अध्ययन चौखम्बा संस्कृत भवन, वाराणसी
(व्याकरणशास्त्रका तुलनात्मक अध्ययन) ४. अभिनव प्राकृत-व्याकरण
तारा यंत्रालय, वाराणसी ५. प्राकृत भाषा और साहित्यका बालोचनात्मक इतिहास
सारा यंत्रालय, वाराणसी ६. हरिभद्रके प्राकृत-कथासाहित्यका
आलोचनात्मक परिशीलन प्राकृत जैन शोध संस्थान, वैशाली ७. हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन भारतीय ज्ञान पीठ दिल्ली ८. णमोकार मंत्र : एक अनुचिन्तन भारतीय शान पीठ, दिल्ली
आचार्य नेमिचम्द शास्त्री : २३
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नहीं अनेक जन्मों में साधना सम्पन्न करनी पड़ी। वस्तुतः कर्मोंको कालिमाको सरलतापूर्वक दूर नहीं किया जा सकता है। मानव अनेक जन्मोंमें सत्य और अहिंसाकी साधना करके ही अपनेको इस योग्य बना पाता है कि सत्य और अहिंसाकी प्रकाशकिरणें उसके रोम-रोमसे प्रादुर्भूत हों । इन्द्रियोंकी दासताको उतार राग-द्वेषका विजयी बन सके ।
तीर्थंकर पद बड़े भाग्यशाली साधक पुरुष ही प्राप्त करते हैं । सामान्य सर्वज्ञ, सर्वदर्शी साधु हो जाना सुगम है, पर त्रिभुवनके महापुरुषोंसे पूजिस तीर्थंकरपद पाना सरल नहीं है। धर्मचक्रवर्तीका यह महान् पद अनेक जन्मोंके श्रम और योगसाधनासे उपलब्ध होता है । मानव जन्मगत पूर्णताको प्राप्त करके ही तीर्थंकरपद प्राप्त कर सकता है | तीर्थंकरपद इसीलिये अनुपम है कि उन जैसा उस काल में अन्य कोई नहीं होता । धर्मतीर्थ के प्रवर्तक होनेके कारण ये बड़े-बड़े आचार्यों द्वारा वन्दनीय होते हैं । वे लोकके सर्वोपरि सर्वतोभद्र कल्याणकर्त्ता होते हैं । उनका तीर्थ - धर्मशासन समस्त आपत्ति-विपत्तियोंका अन्त करनेवाला, लोककल्याणक सर्वोदय तीर्थं होता है ।
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तीर्थंकर के शरीरका प्रत्येक परमाणु योगनरत पूर्णता और विशुद्धताको प्राप्त कर शुद्ध पुद्गल स्कन्ध रूप हीरककी प्रभाको भी मन्द कर देता है सहस्राधिक सूर्य के प्रकाशको भी उनकी प्रभा लज्जित करती है। वे महान्, सुन्दर, सुभग, समचतुरस्र संस्थान और यत्र वृषभनाराचसंहननके धारी होते हैं । उनका अतुल बल, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त सुख अपरिमेय होता है । ज्ञानावरणादि कर्मोंके विनाशसे ज्ञानादि गुणों का पूर्ण विकास और प्रकाश तीर्थंकर में पाया जाता है। वे जीवन मुक्त सच्चिदानंद, शुद्ध आत्मा हो जाते हैं । अतएव शरीरका कोई विकार उनमें शेष नहीं रहता । उनकी आत्मा शुद्ध और शरीर भी शुद्ध हो जाते हैं। परका प्रभाव यहाँ निःशेष है । अतएव विकारके लिये कहीं अवकाश नहीं हैं । अन्तरंगमें रागद्वेषादि नहीं उठते और बहिरंगमें सुधा, तृषा, जन्म-मरण, रोग-शोक, भय आश्चर्य आदि भी विकार नहीं रहता । विशुद्धिके पुंज उद तीर्थंकरोंमें शुद्ध, बुद्ध, परमोत्कृष्ट आत्मतत्वका प्रत्यक्ष दर्शन होता है । अतएव उनके निकट आधि-व्याधि नहीं रहती । फलस्वरूप बहुत दूर-दूर तक न तो दुर्भिक्षजन्य बाधा रहती है और न परस्पर में वैर-विरोध ही रहता है। सभी चर-अचर प्राणी प्रेममन्दाकिनीमें निमग्न हो जाते हैं । म'नव क्या स्वर्गके देवगण भी उनके दर्शन कर अपने को पवित्र मानते हैं । उनकी धर्म-देशनासे संसारके सभी प्राणी पवित्र हो जाते हैं । मौतिकतामें भटकता हुआ मन केंद्रित हो जाता है और बाध्यात्मिक लोकतन्त्रकी सहज में प्रतिष्ठा हो
२४ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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पन्न-सम्पावन मुद्रमाक्रम में युगों-युगोंमें जैनधर्म
भारत धर्म महामण्डल बम्बई सपने मो रह गये बारे
१. महाकवि कालिदासकी उपमान-योजना २. वाक्यगठन : वृत्तिविचार ३. अधमीमांसा-सिद्धान्त और विनिमय ४. महाकवि वाणके शतशब्द ५. संस्कृत ऐतिहासिक नाटकोंका विवेचनात्मक अनुशीलन ६. जैनदर्शन ७. संस्कृत कवियोंका जीवन-दर्शन ८. समराइच्चकहा (सम्पादन) ५. चन्द्रमालन न समायम
आचार्य शास्त्रीने इन ग्रन्थोंको आरम्भ किया था, पर वे इन्हें पूरा नहीं कर सके। प्रसिया ___ आचार्य शास्त्री न केवल साहित्य-साधक मनीषी थे, अपितु समाज-सेवक एवं लोक-सेवक भी थे। आपकी सेवाएं एवं प्रवृत्तियां बहुमुखी थीं। उनमें कुछ इस प्रकार हैं
१. मानद निदेशक : देव कुमार जैन प्राच्यविद्या शोध-संस्थान २. उपाध्यक्ष : अखिल भारतीय दि० जेन विद्वत्परिषद् ३. संयक्त मंत्री श्री गणेशवर्णी दि० जेन संस्थान, वाराणसी ४. ट्रस्टी : वीर सेवा मन्दिर-ट्रस्ट, वाराणसी ५. सदस्य-प्रबन्धकारिणी : स्याद्वाद-महाविद्यालय, वाराणसी
इनके अतिरिक्त हिंसा, प्राकृत और जैन विद्या शोधसंस्थान वैशाली (बिहार), बिहार प्रान्तीय दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी आदि संस्थाओंके भी आप मानद सदस्य थे। उन्जेन (म० प्र०) में हुए अखिल भारतीय प्राच्य-विद्या सम्मेलनके २६वें अधिवेशनमें प्राकृत और जैन विद्या विभागके आप अध्यक्ष हुए थे। इस तरह आचार्य शास्त्रीका समग्र जीवन लोक-सेवा एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियोंमें सदैव घुला-मिला रहा । एक दर्जनसे अधिक छात्रोंको विभिन्न जैन अथवा अन्य विषयों में पी-एच. डो० कराया और उसके लिए सदा उद्यत रहे। आप छात्रों और अध्यापकोंके परमहितेषी एवं कल्पतरु थे । परिवार आपके परिवारमें ७० वर्षीया वृद्धा माता जावित्री बाईजी, विधवा पत्नी
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मूल्यवान : अतीतपर्याय
यों तो यह जीव अनादि कालसे संसार परिभ्रमण करता चला आ रहा है । इसकी उन असंख्यात पर्याय - जन्मों का कोई महत्त्व नहीं है; क्योंकि जिन पर्याय या जन्मोंमें इसने अपनी आत्मशक्तिके विकासका कोई प्रयास नहीं किया। पर्याय या जन्म वही महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान है, जिसमें व्यक्ति जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये सकल्प या साधनाका आरम्भ करता है । विगत उन अगणित जन्मों का कोई महत्त्व या मूल्य नहीं हैं, इसलिए कि जिनमें चेतनके स्वरूप बोधके प्राप्त करने का प्रयास नहीं हुआ है। वस्तुतः जीवनके दो रूप हैं : १. मर्त्य जीवन और २. अमर्त्य जीवन जिस जीवनमें क्षणभंगुर विषम भोगोंकी तृप्तिका प्रयास किया जाता है, वह मर्त्य जीवन है और यह जीवन मूल्यहीन है। मूल्यकी प्रतिष्ठा अमत्यं जीवनमें होती है। यह जीवन अमृत और अमर इसीलिये कहा जाता है कि इसमें धर्म-अंकुर उत्पन्न होता है, अथवा धर्मका बीज वपन किया जाता है।
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तीर्थंकर महावीरके अगणित और संख्यातीत जन्मोंमें भिल्ल जीवनका सबसे अधिक महत्त्व और मूल्य है। क्योंकि इसी जीवनमें उन्हें योगिराजका आशीर्वाद मिला और मोहग्रन्थिको भेदन करनेके लिये निष्ठाको प्राप्ति हुई 1 इस जीवन में अहिंसाका बीज वपन हुआ । हिसानन्दो पुरुरवा भील किस प्रकार करुणावृत्तिके कारण तीर्थंकर महावीरके पदको प्राप्त हुआ, यह मननीय और चिन्तनीय है | वास्तव में वही मनुष्यजन्म सफल है, जिसमें आत्मोत्या नकी प्रेरणा प्राप्त हो, जिस जीवनसे सावनाका मार्ग आरम्भ हो और जीवनका तिमिर छिन्न होकर ज्ञान का आलोकदीप प्रज्वलित हो सके । पुरुरवापर्याय : मंगल प्रभात
तीर्थंकर महावीर चननेका उपक्रम भिल्लसरदार पुरुरवाके जीवनसे होता है । यह सरदार पुण्डरीकिणी नगरीसे दूरवर्ती मधुक नामक अरण्य में निवास करता था। अनेक भिल्ल इसकी सेवामें तत्पर रहते थे तथा इसकी आशाका पालन करना वे अपना परम कर्त्तव्य समझते थे । इस पुरुरवाकी पत्नीका नाम कालिका था, जो अत्यन्त भद्र परिणामी और कल्याणकारिणी थी । भिल्लराज अपने साथियोंके साथ दस्यु कर्म करता हुआ आखेटमें संलग्न रहता था । एक दिन पति-पत्नी वन विहारके लिये गये । पुरुरवाने वृक्षोंके झुरमुट में दो चमकती आँखें देखीं । उसने अनुमान लगाया कि वहाँ कोई जंगली जानवर स्थित है । अतएव धनुष पर बाण चढ़ाया और सघन वृक्षोंके बीच स्थित उस व्यक्तिका वध करना चाहा । कालिकाने बीचमें रोक कर कहा - "नाथ ! यहाँ शिकार २६ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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नहीं है वनदेवता हैं। यदि जंगली जानवर होता, तो उसकी इतनी शान्त चेष्टा नहीं हो सकती थी।" पुरुरवा आश्चर्य चकित हो गया और वह उस झुरमुटकी ओर चला । वहाँ उसने पहुंच कर देखा कि एक मुनि ध्यानस्य हैं । पतिपत्नीने भक्ति विभोर होकर मुनिकी वन्दनाकी और फल-पुष्पोंसे अर्चना की। इन निम्रन्थ योगिराजका नाम सागरसेन था। ध्यानसमाधि टूटनेपर मुनिराज ने पुरुरवाको निकट भव्य जान धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया-'भिल्लराज ! क्यों मोहमें पड़े हो ? निरीह प्राणियोंकी हिंसा करते हुए तुम्हें कष्ट नहीं होता? दुःखका कारण हिंसा, झूठ, चोरो आदि पाप हैं । यदि तुम अपने जीवनकीधाराको परिवर्तित कर दो, तो सुख-शांति प्राप्त करने में तनिक भी कठिनाई न हो । तुम इस शरीरको अपना मानते हो, यह भ्रान्ति है। यह शरीर तो यहीं रह जाता है-मिट्टी में मिल जाता है। इस शरीर-मन्दिरमें जो बोलता हुआ हस है, नह उह जाता है ! वर हंस तम हो । अतएव तुम अमर हो, शरीरके नाश होनेपर भी तुम रहोगे । फिर इस शरीरसे क्यों मोह करते हो ? क्यों प्राणियोंकी हिंसामें संलग्न हो ? पथिकोंको लूट कर उनका सर्वस्व अपहरण करना क्या उचित है।"
मनोविज्ञानी मुनिराजने भिल्लराजके मनको पुनः झकझोरते हुए कहा"मनुष्य-अन्म पाना दुर्लभ है । इस दुर्लभ रत्नको प्राप्त कर हिंसा और चोरीमें संलग्न रहना ठीक नहीं है।"मिलराज कहने लगा-"महाराज ! में भिल्लोंका सरदार हूँ। मेरे साथी जो लूट-पाट कर लाते हैं, उसमें मेरा हिस्सा रहता है। मैं हिंस्र जीवोंको मारकर मार्गको निरापद बनाता हूँ।" मुनिराज कहने लगे-"अरे, भोले जीव ! तुम नहीं समझते हो कि पापाचरणमें कोई किसीका साथी नहीं होता है। पाप कमी सुखका कारण नहीं बन सकते । इनके सेवनसे अन्तरात्मा कलुषित हो जाती है और व्यक्ति अपने निज स्वरूपको भूल जाता है । यह मोहोदयका परिणाम है कि आपके मुख से इस प्रकारकी बातें निकल रही हैं। सात्त्विक प्रवृत्तिको प्रत्येक व्यक्ति सुखप्रद मानता है। जो पापका सेवन करता है, उसको राजदण्ड, समाजदण्ड और आतिदण्ड प्राप्त होता है । हिंसा कभी सुखदायक नहीं हो सकतो।"
भिल्लराज मुनिके उपदेशसे अत्यधिक प्रभावित हुआ। उसने पत्नी सहित मुनिराजसे अहिंसाणवत ग्रहण किया और उसका तत्परता पूर्वक पालन किया । अहिंसक आचरणसे पुरुरवाका जीवन ही बदल गया, वह समभावी बन गया । जो जीव-जन्तु पहले उसके पास आते हुए भयभीत रहते थे, वे अब निर्भय होकर पास आने लगे और उससे प्यार करने लगे | भिल्ल राजके हृदयमें दया और
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करुणाका सरोवर उत्पन्न हो गया । इस प्रकार भगवान् महावीरकी जीवात्मा. ने आत्मोत्थानकी साधना इस भिल्लपर्यायसे प्रारम्भ की। इस पर्याय में उसने श्रावकके द्वादश व्रतोंका अभ्यास किया ! आयुके अन्त में भोलका जीव इस नश्वर शरीरको छोड़कर स्वर्गमें देव हुआ। पूर्व संस्कार वश वह स्वर्गके दिव्य भोगोंमें आसक्त नहीं हुआ, किन्तु धर्माराधनामें समय व्यतीत करता रहा । सौधर्म स्वर्गकी आयु समाप्त कर वह जीय भारतवर्षके आदि चक्रवर्ती भरतका 'मरीचि' नामक पुत्र हुआ।
मरीचि आदि तीर्थंकर ऋषभदेवके माही दिगम्बर मनि हो गये, किन्तु वे तपस्वी जोवनको कठिनाईयोंको सहन न कर सके । मरीचि वन में रहकर अपने शरीरकी शीत-आतपसे रक्षा करता हुआ, बनके फल खाकर समय व्यतोत करता रहा ! वह रत्नत्रयके मार्गपर दृढ़ न रह सका और उस मागसे च्युत हो एक मिथ्या सम्प्रदायके प्रचारमें संलग्न हो गया । सत्यकी ओर वह बढ़ा हुआ, बीच में ही रुक गया। उसका जीवनपरीषहोंके झटकोंको सह नहीं सका। फलतः वह विचलित हो गया।
पुरुरवाके जन्ममें जो संस्कार अजित किये थे, वे अब धूमिल होने लगे । जीवनका यथार्थ अर्थ उसके नेत्रोंसे ओमल होने लगा। जहाँ शरीर आत्माके लिये होता है, आध्यात्मिक विकासमें सहयोग प्रदान करता है, वहां जीवन प्राणवान बन जाता है। इसके विपरीत जहाँ शरीर अपने आपमें साध्य बन जाता है, आरमाके विकासको उपेक्षाकी जाती है, वहाँ चेतनके स्थान पर जड़की प्रतिष्ठा हो जाती है। विश्वास, विचार और आचार इन तीनोंका सम्यक होना आवश्यक है । मरीचि सम्यक् आचार-विचार और श्रद्धाको छोड़ काय-क्लेशमें प्रवृत्त हुआ । वह पंचाग्नि तप करता तथा सूर्यके समक्ष दृष्टि कर एक पैर पर खड़ा होकर दिनभर तपश्चरण संलग्न रहता । अज्ञानतापूर्वक किया गया सप भी किंचित् फल देता है । अतएव काय-क्लेशके प्रभावसे मरोधिने मरकर ब्रह्मस्वर्ग में देवपर्याय प्राप्त किया। अब वह अहिंसा-संस्कारसे दूर भटक गया था, भोगोंमें मग्न रह रहा था । वहाँसे भोग भोगकर महाबोरके इस जीवने मनुष्यपर्याय प्राप्त किया। महावीर : जटिलपर्याय : पतनको भोर
महावीरका यह जीव ब्रह्मस्वर्गसे च्युत होकर अयोध्या नगरीमें कपिल बाह्मणके यहाँ जटिल नामक पुत्र हुआ ! कपिलकी स्त्रीका नाम कालो था। इन दोनोंको जटिलके प्रति अपूर्व ममता थी। जटिलने वेद-स्मृति आदि ग्रन्योंका २८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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अध्ययन कर पूर्ण पाण्डित्य प्राप्त किया और कुमारावस्थामें ही संसार छोड़ संन्यास मार्ग ग्रहण किया । जटिल आगमका विरुद्ध अर्थकर लोगोंको कुमार्गकी शिक्षा देता और उन्हें एकान्त मार्गपर चलनेके लिये प्रेरित करता । जटिलने संन्यासी अवस्था में अनेक प्रकारका बुद्ध र तपश्चरण किया, पर उसकी साधना आध्यात्मिकतासे शून्य थी। वह अज्ञानतापूर्वक कठोर तपश्चरण करता रहा । आत्मा और परमात्मा के परिज्ञानके अभाव में उसको साघना सफल नहीं हो सकी। फलतः वह साधना की अपूर्णता के कारण आयुका अन्त कर स्वर्ग में प्रथम देव हुआ ।
पुरुरवापर्याय में अहिंसाका जो बीज वपन हुआ था, वह अभीतक अंकुरित न हो सका और महावीरका वह जीव उत्पानसे पतनकी ओर गतिशील होने लगा । यह सत्य है कि त्याग द्वारा अर्जित संस्कारोंका कभी विनाश नहीं होता। यही कारण है कि इस जीवने भी संन्यास - मार्ग ग्रहणकर मिथ्या तपाचरण किया, पर अन्तरात्मामें स्थित संस्कार कभी-कभी जोर मारते रहे।
पुष्यमित्रपर्याय : अगतिशीलता
महावीरका वह जीव सौधमं स्वर्गसे च्युत हो अयोध्यापुरीके स्थूणागार नगरमें भारद्वाज नामक ब्राह्मण और उनकी पुष्पदत्ता नामक पत्नीसे पुष्यमित्र नामक पुत्र हुआ। पुष्योदयके कारण पुष्यमित्रका पालन-पोषण समृद्धरूप में सम्पन्न हुआ । उसने संस्कारवश घोड़े ही दिनोंमें वेद-पुराण आदि प्रत्योंका अध्ययन किया । पुष्यमित्रका विवाह समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ। कुछ दिनोंतक वह सांसारिक सुख भोगता रहा । पत्नीका स्वर्गवास हो जानेके कारण उसके मनमें विरक्ति उत्पन्न हुई। मिथ्यात्वके उदयसे वह 'आत्म' परिणतिका त्याग कर 'पर' - परिणति में प्रवृत्त हुआ । अपनी आत्माकी परमज्योतिको वह भूल गया फलतः उसके समस्त कार्य अध्यात्मपोषक न होकर शरीरपोषक हो होने लगे । फलस्वरूप कठोर साधना करनेपर भी शारीरिक कष्टके अतिरिक्त अन्य कोई उपलब्धि न हो सकी । कष्टसहिष्णुता के कारण मन्द कषाय होनेसे उसने देव आयुका बन्ध किया और फलस्वरूप स्वर्ग में प्रथम देव हुआ । इस देवपर्यायमें कर्मोदयसे प्राप्त संसार के सुखों का उपयोग करता रहा। सुखसामग्रीका जितना आधिक्य उसे उपलब्ध होता, उतनी ही उसकी बेचैनी बढ़ती जाती थी । अतएव देवगति के सुखोंका उपभोग करते हुए भी उसे एक क्षणके लिये भी शान्ति प्राप्त न हुई । मरीचिके भवसे अगतिशीलताकी जो स्थिति उत्पन्न हुई थी, वह ज्योंकी त्यों बनी रही । मज्ञानपूर्वक किये गये तपने जीवन में न कोई गति उत्पन्न की और न किसी आलोकको ही प्रादुर्भूत होने दिया । विकासकी अपेक्षा ह्रास ही उत्पन्न होता रहा । अर्जित संस्कार अज्ञानतामें दबने लगे ।
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अग्निसह हठयोगको सामना
पुष्यमित्रके जीवन में हठयोगको साधना आरम्भकी गयी थी, वह साधना आवर्तकदशमलव गणितके समान बढ़ रही थी। असएव पुष्यमित्रका वह जीव स्वर्गसे मरणकर भरत क्षेत्रमें श्वेतिक नामके नगरमें अग्निभूत ब्राह्मण और उनकी स्त्री गौतमोसे अग्निसह नामक पुत्र हुआ । इस पर्यायमें इसने धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोंका यथोचित सेवन किया । संन्यास संस्कार हो गया था, हठयोगका साधना अभी अपूर्ण की। फलतः यह वासी बना और उसका मधुर फल उसे स्वर्ग मिला।
स्वर्गके दिव्य भोग-भोगकर वह पुन: एकबार अग्निमित्र नामक परिव्राजक हआ और आंशिक साधनाके फलस्वरूप, उसे पुनः स्वर्ग सुख प्राप्त हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि छोटा-सा अच्छा बीज भी मधुर फल उत्पन्न करता है। एक जन्ममें की गयो अहिंसाको आंशिक साधना भी अनेक जन्मोंमें फल देती है। अतएव वह स्वर्गसे च्युत हो, भारद्वाज नामक त्रिदण्डी साधु हा 1 मिथ्या श्रद्धाको वह दूर न कर सका । देवगतिके भोगोंमें आसक हो गया । इस इन्द्रियासक्तिने उसे अनेक कुयोनियोंमें परिभ्रमण कराया। पूर्वसंचित शुभकर्मोदयसे, उसे मनुष्य जन्म भी मिला । इस जन्मको सार्थक करने के लिये परिब्राजक दीक्षा ग्रहणकी और अज्ञानपूर्वक तप किया । आत्मानुभवसे वह दूर रहा । फलतः निर्वाण या आत्मकल्याणकी दिशाकी ओर बह प्रवृत्त न हो सका। यह सत्य है कि विवेकपूर्वक किया गया तप ही सिद्धिका कारण होता है । विश्वनन्दी : नया मोड़
मगध देश अपनी धनधान्य सम्पत्ति के लिये सदासे प्रसिद्ध रहा है। यह प्रदेश पवित्रता और रमणीयताकी संगमभूमि है। यहाँके कण-कणने प्राचीन कालसे ही जनमानसको आकृष्ट किया है । इस प्रदेशमें राजगृह नामक प्रसिद्ध नगर है, जिसमें विश्वभूति नामक राजा न्याय-नीतिपूर्वक शासन करता था। महावीरका वह जीव स्वर्गसे च्युत होकर इस राजाके यहाँ विश्वनन्दी नामक पुत्र हुआ । 'होनहार विरवानके होत चीकने पास नीतिके अनुसार विश्वनन्दी शैशव कालसे ही भविष्णु, प्रतिभाशाली और तेजस्वी दिखलायी पड़ता था। उसकी तेजस्विताको देखकर सभी आश्चर्य चकित थे। जो भी उस बालकको देखता था, वह उसके स्वभाव तथा गणोंको प्रशंसा किये बिना नहीं रहता था । समय पाकर विश्वनन्दी युवक हुआ। वह सभी विद्या और कलाओंमें प्रवीण हुआ और उसका विवाह अनेक सुन्दरी कन्याओंके साथ सम्पन्न हुआ। विश्वनम्दीके पराक्रम और प्रतापसे सभी प्रजा संतुष्ट थी और सभी लोग उसके स्वभावकी पुनः पुनः प्रशंसा ३० : तीर्थकर महायोर और उनकी आचार्य-परम्परा
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करते थे। वह सेवा, त्याग, साहित्य, कला आदिको पूर्ण आदर प्रदान करता था। उसका अभिमत था-"यदि जीवन में सवा, त्याग और संयम न रहे, सो जीवन निस्सार हो जाता है। यदि कला, साहित्य, काव्य और दर्शनकी सरिता पृथ्वीपर प्रवाहित न हो, तो पृथ्वी असुरोंका अखाड़ा बन जाये | मानवताका प्रचार कला, काव्य और दर्शनके द्वारा ही होता है। जिसप्रकार शारीरिक स्वास्थ्यको ठीक रखने के लिये पौष्टिक भोजनकी आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आन्तरिक स्वास्थ्यको अनुकूल बनाये रखने के लिये त्याग, सेवावृत्ति, कला और कौशलकी आवश्यकता है।" विश्वनन्दी अपने इस विचारके अनुसार सांसारिक सुखोंको भोगता हुआ भक्ति, सेवा और संयमकी ओर भी प्रवृत्त रहा । उसका जीवन आदर्श जीवन था। वह विषयभोगोंसे उसी तरह अलिप्त था, जिसप्रकार कमलपत्र जलसे । भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग इन तीनों का समन्वय उसके जीवन में विद्यमान था ।
विश्वभूतिके भाईका नाम विशाखभूति था और विशाखभूतिके पुत्रका नाम विशाखनन्दी । विश्वभूति एक दिन अपनी अट्टालिकापर बैठे हुए मेघोंको सुन्दर आकृतिका अवलोकन कर रहे थे। उन्होंने सहसा देखा कि वह मेधाकृति वायुके एक मोंकेसे क्षणभरमें छिन्न-भिन्न हो गयी । इस दृश्यके देखनेसे उनको अन्तरात्मा प्रभावित हुई और वे सोचने लगे कि मनुष्य-जन्मको सार्थकता आध्यात्मिक प्राप्तिमें है। यह भव चन्दनके काष्ठके समान है, जिसे क्षर जन्तु कामोपभोग-वासनाओंके कण्डमें दग्धकर अकिचिन प्रयोजनके हेतु नष्ट कर देते हैं, पर जो मननशील हैं, प्रबद्धचेता है; वे इस काष्ठका घर्षण कर सुगन्ध प्राप्त करते हैं और इस गन्धसे अन्तरंग एवं बहिरंगको सप्त कर लेते हैं। यह मनुष्य जन्म किसना महान् है। आज भी अन्य प्राणी उसी पूर्व अवस्थामें हैं, जिसमें अनादिकालमें थे और उनके सभी व्यापार उतने ही सीमित है, जितने पूर्व युगमें थे । मनुष्य ही एक ऐसा भव है, जिसमें अध्यात्म-संपत्तिका विकास संभव होता है । जो इस भवको प्राप्तकर संयम ग्रहण नहीं करता, अहिंसाका आचरण नहीं करता, उसका नर-जन्म पाना सार्थक नहीं है। वस्तुतः इस मनुष्य-जन्मको तप, ज्ञान और चारित्रकी साधना द्वारा सार्थक बनाना ही जीवनका लक्ष्य है। मैंने अबतक मोह और कषायके उदयसे अगणित वर्ष इन सांसारिक विषयोंमें व्यतीत कर दिए हैं । अतएव अब मुझे आत्मकल्याणके लिये प्रवृत्त होना चाहिये ।"
इसप्रकार विचारकर विश्वभूतिने अपने भाई विशाखभूतिको बुलाकर कहा कि मैं अब संसारसे विरत होकर आत्मसाधनाके हेतु श्रमण-दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। अतएव "वत्स ! तुम इस राज्यभारको ग्रहण करो।"
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विशाखमूतिने अनुरोध करते हुए कहा-"प्रभो, अभी कुछ दिनतक और शासन कीजिये । आपके रहते हुए हम निश्चिन्त हैं । हमें किसी प्रकारको चिन्ता नहीं है । अभी आपका तारुण्य है। अतः इन सांसारिक भोगोंको छोड़कर अमण-दीक्षा ग्रहण करना उचित नहीं।" विश्वभूतिने उसर दिया-"वस्स, मत्यु किसीको नहीं देखती। उसकी दृष्टिम रूप-कुरूप, जानी-अशानी, पण्डित-अपण्डित, बनीनिर्धन, युवा-वृद्ध सभी समान हैं । अतः आत्म-हितसाधनके लिये जितनी जल्दी प्रयास किया जा सके, श्रेयष्कर है।" __ जीवन ओस कणके समान अस्थिर है। संसारके भोग देखते-देखते विलीन होनेवाले हैं। शरीर, परा और भोग विद्युत्के समान चंचल हैं। अत्तः बात्मोत्यानमें सलान होनेके लिये प्रयत्नशील होना मेरे लिये आवश्यक है"।
इसप्रकार उत्तर प्रत्युत्तर सम्पन्न होनेके अनन्तर विश्वभूतिने अपने भाई विशाखभूतिका राज्याभिषेक करनेकी तैयारी की। राजगृह नगरीको पूर्णतया सज्जित किया गया। चारों ओर ध्वज, वन्दनवार लगाये गये । पुष्पमालाएं प्रमुख मार्गोपर लटका दी गयीं। चन्दन-कुमकुमसे छिड़काव किया गया। राजोषित सामग्रियां एकत्र की गयीं। शंखध्वनि हुई। तूर्यमेरी आदि धात्र जब उठे। मंगलाचार सम्पन्न किया गया। पुरोधाओंने मंत्रपाठ किया और विशाखभूतिको राज्यके पट्टपर प्रतिष्ठित किया गया।
प्रकृति के अणु-अणुमें नवचेतना व्याप्त हो गयी। सहमदल कमल विकसित हो गये । पुष्पोंका सौरभ और सुषमा जनमानसको आत्मविभोर बनाने लगी। मोहक वसंतऋतुका साम्राज्य व्याप्त हो गया। ऐसे ही मनोरम समय में विश्वभूतिने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। पंच मुष्ठी लोञ्चकर गुरुसे दिगम्बर मुनिके व्रतोंकी याचना की और उन व्रतोंको ग्रहणकर वे देशान्तरमें विहार कर गये।
विशाखभूतिने अपने बड़े भाई विश्वभूतिके पुत्र विश्वनन्दोको पराकमशाली और तेजस्वी समझ युवराजके पदपर प्रतिष्ठित किया । विश्वनन्दी अपने कार्यों में पूर्णतया सतर्क और सावधान रहता था। वह राज-काजमें भी यथेष्ट सहायता प्रदान करता था। उसने अपने विलासके लिये एक सुन्दर उद्यान बनवाया और उसमें आनन्दपूर्वक निवास करने लगा। इस उद्यान में आम, अशोक, अनार आदिके अगणित वृक्ष थे। उसकी सुन्दरता और मध्यमें निर्मित सरोवरफी रमणीयताको देखकर मनुष्योंकी तो बात ही क्पा, देवोंका भी मन चंचल हो जाता था। सरोवरके मध्य रक्त, पीत, हरित मादि नाना वर्णके कमल विकसित हो रहे थे। सरोवरके घाट सुन्दर बनाये गये थे, जिनपर हंस, मयूर आदिकी आकृतियाँ अंकित की गयी थी । विभिन्न प्रकारको लताएं ३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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और उनसे निर्मित लतामंडप अद्भुत सौन्दर्यका सृजन करते थे । उद्यानके मध्यमें विश्राम करनेके हेतु मणिमाणिक्योंसे खचित शिलातल निर्मित किये गये थे। सभी मिलाकर वह उद्यान राजगृह नगर के सौंदर्यका प्रतिमान था ।
एक दिन वाटिका उसी मार्ग से विशास्त्रभूतिका पुत्र विशाखनन्दी जा रहा था। जब उसकी दृष्टि उस मनोरम वाटिकापर पड़ी, तो उसका मन उछलने लगा | वह सोचने लगा- "यों तो मैंने अनेक बार इस वाटिकाके दर्शन किये हैं, किन्तु आज यह मुझे सबसे अधिक सुन्दर लग रही है। इस उद्यानकी प्राप्तिके अभाव में तो यह जीवन ही व्यर्थ है । वह शुभावसर कब प्राप्त होगा, जब में इसे विश्वनन्दी से छीनकर अपना स्वत्व स्थापित कर सकूंगा ।"
राजकार्य सरल रेखाकी गतिसे नहीं चलता । इसमें अनेक वक्रताओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अचानक विशाखभूतिको समाचार प्राप्त हुआ कि कामरूपका समीपवर्ती राजा विद्रोही हो गया है। उसने कर देना बन्द कर दिया है और विशाखभूतिको आज्ञा माननेसे भी इन्कार कर रहा है। राजदूत और चरोंने भी आकर बतलाया कि कामरूपनरेश राजाज्ञाको नहीं मान रहा है । उसने राजगृहके राजदूतको वहांसे निर्वासित कर दिया है और अपनेको स्वतंत्र घोषित कर दिया है।
इस समाचारले विशाखमूर्ति चिन्तित हुआ और उसने राजसभामें अपना विचार सामन्तोंके समक्ष रखा। अमात्य और सामन्तोंने अपने - अपने विचार प्रकट करते हुए कहा- "अब इस विद्रोहको शमन करनेके लिए ससैन्य आक्रमण करना चाहिये । इस प्रकार तो सभी नरेश स्वतंत्र होते जायेंगे और राजगृहकी सत्ता ही समाप्त हो जायगी ।"
सभाके इस विचारको सुनकर युवराज विश्वनन्दी कहने लगा- "तात, मेरे रहते हुए आपको युद्धभूमिमें जाने की आवश्यकता नहीं है। आप मेरे बल - पौरुष पर विश्वास कीजिये । में थोड़ी-सी सेना लेकर ही जाऊंगा और राजविद्रोहीको केकर आपके सामने उपस्थित कर दूंगा । कामरूपनरेश अभी हमारी शक्तिसे अपरिचित है । उसे यह नहीं मालूम कि मागधों में कितनी शक्ति है ? हमारा प्रत्येक सामन्त कामरूपनरेशको परास्त करनेकी क्षमता रखता है । मैं सामन्तोंके ऊपर इस दायित्वको छोड़ना नहीं चाहता । अतएव आप मुझे आदेश दीजिये । में कामरूपनरेशको बंदी बनाकर कुछ ही दिनों में यहाँ उपस्थित कर दूंगा ।"
युवराज विश्वनन्दीके अत्यधिक आग्रहको देखकर विशाखभूतिने उसे आक्र
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मण करनेका आदेश दिया । रण-वाद्य बज उठे। वीर सैनिकोंने युद्धभूमिमें सम्मिलित होनेके हेतु तैयारियां आरम्भ की। तलवारोंकी खनखनाहट और कवचोंकी झनझनाहटने आकाशको पूरित कर दिया। शुभ मुहूर्त में विश्वनन्दीके नेतृत्वमें चतुरंगिणी सेनाने प्रस्थान किया और कुछ दिनों तक निरन्तर प्रयाण. करनेके पश्चात् राजगृहवाहिनीने कामरूपकी सीमामें प्रवेश किया। कामरूपनरेशने भी युद्धके निमित्त अपनी सेना तैयार की और निश्चित समयपर दोनों ओरको सेनाओंमें युद्ध होने लगा। राजगृहके कुशल सैनिकोंके समक्ष कामरूपके सैनिक ठहर न सके। कुछ ही घण्टोंके युद्धके पश्चात् भगदड़ मच गयो । सेना अस्त-व्यस्त हो गयी और कामरूपनरेश वंदी बना लिया गया।
विश्वनन्दी उसे युद्धबन्दी बनाकर राजगृह ले आया और विशाखभूतिके समक्ष उपस्थित किया । सम्राट विशाखभूतिने कामरूपनरेशके समक्ष संधिको शत प्रस्तुत की, जिनका पालन करनेका उसने पूर्ण वचन दिया। कामरूपनरेश स्वतंत्र कर दिया गया और दण्डस्वरूप उससे पांचसो हाथी एवं पांच सहस्र स्वर्णमुद्राएँ ले ली गयीं।
युवराज विश्वनन्दी जब उद्यान-विहारके लिये पहुंचा, तो उसने वहाँ देखा कि विशाखनन्दीने उसकी अनुमत्तिके बिना उद्यानपर अधिकार कर लिया है । उद्यानके मध्यमें निर्मित उत्तुङ्ग भवनके द्वारोंपर उसने अपने पहरेदारोंको नियुक्त कर दिया । फलतः जब विश्वनन्दी महलमें प्रवेश करने लगा, तो पहरे. दारोंने उसे रोका और कहा-"राजकुमार विशाखनन्दीकी आज्ञाके बिना आप इसमें प्रवेश नहीं कर सकते । अब यह भवन और वाटिका आपकी नहीं रही, विशाखनन्दीको है । कुमारको आज्ञाके बिना यहाँ कोई भी नहीं आसकता और न इस वाटिकामें विहार ही कर सकता है।"
विश्वनन्दी सोचने लगा कि इन निरीह प्रसिहारियोंसे संघर्ष करना व्यर्थ है। यों तो अपने चचेरे भाई विशाखनन्दीसे भी में झगड़ा करना नहीं चाहता । अतएव पहले मैं उसे यहां बुलाकर बातें कर लेना आवश्यक समझता है, जिससे परस्परकी मिथ्या धारणा दूर हो जाये ।
अपने उक्त विचारानुसार उसने कुमार विशाखनन्दीको बुलाकर कहा"वत्स, तुमने मेरी अनुमत्तिके बिना उद्यानपर क्यों अधिकार कर लिया है और क्यों वहाँपर अपने प्रतिहारियोंको नियुक्त किया है ? मैं कुछ कारण समझ नहीं सका हूँ। यदि तुम्हे वाटिकासे प्रेम है, तो तुम्हारे लिये दूसरी वाटिकाकी ३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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व्यवस्था की जा सकती है। छोटी-सी बातोंको लेकर पारिवारिक कलह करना उचित नहीं है। परिवारमें तभी शान्ति और एकता विद्यमान रहती है, जब परस्परमें उदारतापूर्ण प्रेमका वार किया जाये ! मतगत ना उद्यानपरसे अपना अधिकार हटा लो।"
विश्वनन्दीके इस कथनको सुनकर विशाखनन्दीने उत्तर दिया-"यह उपवन मुझे मेरे पिताने दिया है और अब मैं इसका स्वामी हूँ । अतएव मैं इसे यों ही वापस नहीं कर सकता । यदि सामर्थ्य है, तो तुम लड़कर इसे ले लो।" _ विश्वनन्दी क्रोधाविष्ट हो विशाखनन्दीको मारनेके लिये दौड़ा। विशाखनंदी भयसे आतंकित हो एक उन्नत वृक्षके ऊपर चढ़ गया । कुमार विश्वनन्दीने उस उन्नत कपित्थ वृक्षको जड़से उखाड़कर फेंक दिया और उसे मारनेके लिये उद्यत हुआ। यह देख विशाखनन्दी वहाँसे भागा और एक पाषाण स्तम्भके पीछे छिपकर बेठ गया। शक्तिशाली विश्वनन्दीने अपने मुष्टिप्रहारसे उस पत्थरके स्तम्भको चूर-चूर कर डाला । अब विशाखनन्दीको कहीं छिपकर प्राण बचानेका स्थान नहीं था । अत: वह पलायनवादी नीति स्वीकार कर वहाँसे भागा । जब कुमार विश्वनन्दीने अपने अपकार करनेवालेको इसप्रकार भागते हुए देखा तो उसका सौहार्द और करुणा जागृत हो उठी । उसने कुमारको रोकते हुए कहा"भय मत करो। तुम मेरे भाई ही हो । मैं अब तुम्हारे ऊपर शस्त्र प्रहार नहीं करूंगा। तुम्हारे प्रति मेरे हृदयमें ममता है । मैं तुम्हें अपना उपवन देनेको तैयार हूं । अब जब तुम आत्मसमर्पण करनेको प्रस्तुत हो, तो मुझे उपवन देने में किसी भी प्रकारको आपत्ति नहीं है। यदि यह कार्य पहले ही किया गया होता, तो न तुम्हें कष्ट होता और न मुझे ही क्लेशका अनुभव करना पड़ता।" __ इसप्रकार विशाखनन्दीको सांत्वना देकर विश्वनन्दीने उसे वह वाटिका सौंप दी । अब विश्वनन्दो संसारको स्वार्थपरताके सम्बन्धमें सोचने लगा-“मैंने इसससारकी स्वार्थपरता देख ली । चाचाजीने मुझे कामरूपनरेशको वश करनेके लिये भेजा और मेरी अनुपस्थिति में मेरी वाटिकापर विशाखनन्दीका आधिपत्य करा दिया। विशाखनन्दीमें न शारीरिक बल ही है और न आत्मिक बल । उसका मनोबल इतना कमजोर है कि वह मेरा तो क्या किसी अच्छे सेनिकका भी सामना नहीं कर सकता। यह संसार स्वार्थीका अखाड़ा है। इसकी अनित्यता और अनिश्चितता सभीको कष्ट देती है। कषाय और असंयमके कारण अनेक गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। यह मनुष्यजीवन आत्मोत्थानके लिये प्राप्त हुआ है। यदि इस जीवनको सार्थक न किया गया, तो फिर पश्चात्ताप ही करना पड़ेगा। अतएव इन्द्रिय और मनका नियन्त्रणकर आत्मकल्याणमें
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प्रवृत्त होना चाहिए। जीव अनादि कालसे इस संसार में पंचपरावर्तन करता चला जा रहा है । जब संयमकी प्राप्ति हो जाती है, तभी इन परावर्त्तनोंसे छूटकारा प्राप्त होता है । अतएव अब मुझे रत्नत्रयकी आराधना में प्रवृत्त होना है ।"
इसप्रकार विचार कर विश्वनन्दीने श्रमण-दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय किया। वह अपने चाचा विश्वभूति के समीप पहुँचा और निवेदन करने लगा" तात ! मैंने संसारके रहस्यको ज्ञात कर लिया है और मेदविज्ञान द्वारा मुझे आत्मदृष्टि प्राप्त हो गयी है। आप मुझे दिगम्बर- दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दीजिए । में अब सच्चे पुरुषार्थ में प्रवृत्त होना चाहता हूँ । मानवशरीरकी प्राप्ति बड़े सौभाग्यसे होती है, इसे प्राप्तकर साधना द्वारा कर्मसंतत्तिको नष्ट कर में स्वतन्त्र होना चाहता हूँ ।"
कुमार विश्वनन्दीके इस कथनको सुनकर विशाखभूति कहने लगा- " वत्स ! तुमने इस अवस्था में ही संसारका अनुभवकर लिया ! अभी तुम्हें संसारके विषयसुखों का उपभोग करना चाहिये। जब चौथापन आरम्भ हो, तब तुम दीक्षा ग्रहण करना | राज्यकी सारी व्यवस्था तुम्हारे ऊपर ही है । मैं तो सोचता था कि तुम्हारा राज्याभिषेक कर में दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करूं । विशाखनन्दीसे तुम परिचित ही हो, उसमें राज्यका भार वहन करनेकी क्षमता नहीं है । न वह शूर-वीर ही हैं और न राज्यशासन में कुशल है । अतएव तुम कुछ दिनों तक अभी राज्यसुखका उपभोग करो। "
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विश्वनन्दी कहने लगा--" तात ! मैं इस संसारकी वास्तविकताको समझ गया हूँ । आत्मोत्थान करनेके लिये समयकी प्रतीक्षा नहीं की जाती । अतः मब मुझे आप दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दीजिये ।"
जब विश्वभूतिने कुमार विश्वनन्दीके त्यागभावकी गहराई देखी, तो उसे श्रमण-दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दे दी । फलतः विश्वनन्दीने संसारके समस्त परिग्रहका त्यागकर सम्भूत नामक गुरुके समीप दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। जब विशाखभूतिको विश्वनन्दी की दीक्षाका समाचार मिला, तो उसके मनमें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वह सोचने लगा कि - "मैंने अपने पुत्रके साथ पक्षपातकर उसे विश्वनन्दीकी अनुपस्थितिमें मनोहर उद्यानका अधिपति बना दिया, जिससे मेरी स्वार्थपरता के कारण विश्व नन्दीको दीक्षा ग्रहण करनी पड़ी। यदि मैंने यह अनुचित कार्य नहीं किया होता, तो विश्वनन्दीको दीक्षा ग्रहण करनेका अवसर नहीं आता और राज्यकी व्यवस्था सुदृढ़ रहती ।" इसप्रकार पश्चात्ताप करने के अनन्तर उसे भी विरक्ति हो गयी और उसने भी संयम धारण कर लिया ।
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मुनि बनकर विश्वनन्दोने समस्त देशों में विहार करते हुए घोर तपश्चरण किया । उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया। वह विभिन्न देश और नगरोंमें विचरण करता हुआ मथुरा नगरीमें पहुँचा । जब चर्याके लिये भ्रमण करने लगा, तो बार्द्धक्य एवं शक्तिकी क्षीणताके कारण उसके पैर डगमगा रहे थे अधिक दूर चलना विश्वनन्दी के लिये कठिन था । उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो चुकी थी, पर मनोबल और आत्मबल उदीप्त थे। शरीरसे तेजपुंज प्रस्फु टित हो रहा था, पर मार्ग चलने में उसे कठिनाई हो रही थी ।
इधर पिता मुनि दीक्षा ग्रहण करनेके पश्चात् बल और पौरुवकी हीनताके कारण विशाखनन्दी अपने समस्त राज्यको खो बैठा। अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गये । विश्वनन्दीने जिस राजशक्तिका संगठन किया था, वह शक्ति कुछ ही वर्षोंमें लि-मिल हो गयी। वादीको होसी राजाके यहाँ राजदूतका कार्य करना पड़ा। अक्षमताओंके साथ उसकी व्यसनोंकी प्रवृत्ति भी उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी। यही कारण था कि वह दिनों-दिन निर्धन और दुःखी जीवन व्यतीत करनेके लिये बाध्य हो गया ।
संयोगवश विशाखनन्दी अपने स्वामीका दूतकार्य सम्पन्न करनेके हेतु इसी समय मथुरा नगरीमें पहुंचा। वह अपनी विषयाभिलाषा तृप्तिके लिये एक वेश्या के भवनमें पहुंचा। जिस समय वह उसके भवनकी छतपर बैठा हुआ था, उसी समय मुनि विश्वनन्दी उस वैश्याके भवन के नीचेसे चर्याके हेतु जा रहे थे । तत्काल प्रसूता एक गायने क्रुद्ध होकर मुनिराजको धक्का देकर गिरा दिया । उन्हें गिरता देख क्रोषित हो विशाखनन्दी कहने लगा--" तुम्हारा जो पराक्रम पत्थरका खम्भा तोड़ते समय देखा गया था, वह आज कहाँ गया ? इस समय तो मैं भी तुम्हें यमराजके यहाँ पहुंचा सकता हूँ । तुमने मुझे जो अपमानित किया है, उसका बदला में तुमसे चुका सकता हूँ। बड़े बहादुर बने थे, आज एक गायके धक्केसे गिर गये ? यदि अब शक्ति है, तो मेरा सामना करो ।"
इसप्रकार भुनिकी भर्त्सना करते हुए विशाखनन्दीने अनेक दुर्वचनोंका प्रयोग किया। मुनिराजका धेर्य टूट गया । उनके मनमें भी विकार उत्पन्न हो गया और कुपित होकर मन-ही-मन कहने लगे - "इस अपमानका तू अवश्य फल प्राप्त करेगा 1"
मुनिराज विश्वनन्दी बिना चर्या किये ही वापस लौट आये और उन्होंने अपनेको असमर्थ समझ सल्लेखना ग्रहण की। काय और कषायोंको कृश करनेपर
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भी उन्होंने निदान सहित मरण किया । फलत: महावीरके जीव विश्वनन्दीने महाशुक्र स्वर्ग में देवपर्याय प्राप्त की। इधर विशाखभूतिका जीव भी सपश्चरणके प्रभावसे उसी स्वर्ग में देव हुआ। ये दोनों ही अगणित वर्ष तक मनोनुकूल सुखोंका उपभोग करते रहे। विश्वनन्दीके चाचा विशाखभूतिका जीव सुरम्पदेशके पोदनपुर नगरमें प्रजापति महाराजको जयावती रानीके गर्भसे विजयभूति नामका पुत्र हुआ । विश्वनन्दोका जीव भी वहाँसे च्युत हो इन्हीं प्रजापति महाराजको दूसरी रानी मगावतीके गर्भसे त्रिपृष्ठ नामका पुत्र हुआ। यह शिवसे ही शरवीर और तेजस्वी था। उसके शरीरकी कांतिने चन्द्रमाकी ज्योत्सनाको भी पराजित कर दिया था। इसप्रकारके तेजस्वी कुमारको देखकर सभी परिजन
और पुरजन आनन्दित थे। प्रजापति ने अपने दोनों पुत्रों के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षाका उत्तम प्रबन्ध किया । कुमार त्रिपृष्ट अल्पकाल में ही युद्धविद्यामें पारंगत हो गया। त्रिपृष्ठ-पर्याय : चक्रव्यूह
विश्वनन्दीके भव में महावीरके जीवने प्रतिशोधका निदान बांधा था। इस निदानका फल उन्हें भी संसार-परिभ्रमणके रूपमें प्राप्त होना अनिवार्य था। तपस्या आत्माको कंचन बनाती है । वह क्लेश-कर्मोंको भस्मकर शुद्ध करती है, पर जब इसी तपस्या में निदानका संयोग हो जाता है, तो यह आत्मामें ऐसा मोड़ उत्पन्न करती है, जिससे लक्ष्य च्युत होने में विलम्ब नहीं होता। त्रिपष्ठको वीरता और पुरुषार्थके साथ समस्त ऐहिक भोग उपलब्ध हुए। वह अनेक प्रकारसे संसारके भोगोंका सेवन करने लगा।
इधर विशाखनन्दीका जीव पापकर्मके फलस्वरूप अनेक दुर्गतियों में परिभ्रमण करता हुआ विजयाद्ध पर्वतकी उत्तरश्रेणीके अलकापुर नगरमें मयरग्रीव नामक विद्याधर राजाकी नीलाञ्जना नामक पत्नीके गर्भसे अश्वग्रीव नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । अश्वग्रीव भी पूर्वजन्मोंमें कभी अर्जित किये गये शुभ पुण्योदबसे विभिन्न प्रकारके सुखभोगोंको प्राप्त हुआ। अश्वग्रोव शक्तिशाली और पुरुषार्थी था । इसने भी अस्त्र-शस्त्रकलामें निपुणता प्राप्त की। ___ विजयाद्ध पर्वतकी दक्षिणश्रेणीमें रथनूपुरचक्रवाल नामक नगरमें ज्वलन. जटी नामका विद्याधर राजा शासन करता था। यह तीन विद्याओंका स्वामी था । उसने अपनी शक्तिसे दक्षिणश्रेणीके समस्त विद्याधर राजाओंको अपने वशमें कर लिया था। इसके बल पौरुषके समक्ष बड़े-बड़े सामन्त और शूर-वीर नतमस्तक रहते थे। इस राजाको पत्नीका नाम वायुवेगा था, जो द्युतिलक ३८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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नगरके राजा विद्याधर और सुभद्रा नामक रानीकी पुत्री थी। वायुवेगा रूपमें रति और गुणोंमें लक्ष्मी थी। एकप्रकारसे रति, लक्ष्मी और सरस्वती इन तीनोंका समन्वय उसमें विद्यमान था । इस दम्पतिकी दो सन्तानें हुई-अर्ककीर्ति नामक पुत्र और स्वयंप्रभा नामक पुत्री।
स्वयंप्रभाके शरीरसे लावण्यकी कोति निस्सृत होती थी । उसने अपने रूपसे तिलोत्तमा और गुणोंसे सरस्वतीको तिरस्कृत कर दिया था। उसमें सभी स्त्रियोचित सुलक्षण विद्यमान थे | बिना आभूषणोंके हो उसका अनिन्द्य लावण्य पुरुषमात्रके लिये आकर्षणका विषय था। स्वयंप्रभा शनैः शनैः किशोरावस्थाको पारकर मौवनमें प्रविष्ट हुई। पिता ज्वलनजटीके लिये कन्याको युवती देख विवाह करनेको चिन्ता हुई । उसने निमितज्ञ अपने पुरोहितको बुलाकर पूछा"कन्या स्वयंप्रभाका विवाह किसके साथ होगा और कब होगा ? निमित्तशास्त्रके पन्ने उलटकर पुरोहितने उत्तर दिया--'यह नारायण त्रिपृष्ठको महादेवो होगी और आप भी उसके द्वारा दिये हुए विद्याधरोंके चक्रवर्तीपदको प्राप्त करेंगे।"
ज्वलनजटीने पुरोहितके द्वारा पोदनपुर और पोदनपुरनरेश प्रजापति, त्रिपृष्ठ आदिकी जानकारी प्राप्तकर अत्यन्त विश्वस्त शास्त्रज्ञ और राजभक्त इन्द्र नामक मंत्रोको पत्र एवं बहुमूल्य पदार्थ भेंटके निमित्त देकर पोदनपुर भेजा। इन्द्र अपने विद्याबलसे विमानद्वारा पोदनपुर पहुँचा । पोदनपुरनरेश महाराज प्रजापति उस समय पुष्पकरण्डक नामक उद्यानमें क्रीडा कर रहे थे । वे परिजनोंसे वेष्टित हो सरोवरमें मजन, जलकेलिके अतिरिक्त विभिन्न लताओं और विटपोंसे पुष्पावचय करने में संलग्न थे । प्रकृतिको रमणीय गोदमें विचरण करनेके कारण उन्हें अपूर्व सुख प्राप्त हो रहा था। इस समय प्रजापति ललित क्रीड़ाओंमें भी संलग्न थे। एक और मनोरम नत्य हो रहा था और दूसरी ओर संगीतका अखाड़ा जमा हुआ था। ध्रुपद और धमारको ध्वनि सभोको अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। इसी आमोद-प्रमोद के समय पुष्पकरण्डक उद्यानमें ही इन्द्र मंत्री पहुँचा और उसने प्रतिहारी द्वारा अपने आनेका समाचार राजा प्रजापतिके पास पहुँचाया । प्रजापतिने मंत्रीको आसन देकर रथनूपुरचक्रवाल नगरके सम्राट् ज्वलनजटोका कुशल समाचार पूछा । मंत्रीने बहुमूल्य मणि-माणिक्य आदिकी भेंट उपस्थित कर पत्र प्रस्तुत किया। प्रजापति पत्रको पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। पत्रमें लिखा था कि संधि-विग्रहमें निपुण विद्याधरोंका स्वामी अपने लोकका शिखामणि, प्रजावत्सल, महाराज नमिके वंशरूपी आकाशका सूर्य ज्दलनजदी रथनपुर नगरसे पोदनपुरनरेश तीर्थंकर ऋषभदेवके पुत्र बाहुबलिके
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वंशज महाराज प्रजापतिको नतमस्तक हो प्रणाम करता है। कुशलप्रश्नके अनतर पत्रमें लिखा था-' -"मैं रथनूपुरनरेश अपनी कन्या स्वयंप्रमाका विवाह आपके पुत्र त्रिपृष्ठके साथ करना चाहता हूँ। हमारे वंशोंमें परम्परासे यह सम्बन्ध चला आ रहा है। हम दोनोंके विशुद्ध वंश सूर्य और चन्द्रमाके समान पहलेसे ही प्रसिद्ध हैं । अतएव आप मेरे इस सम्बन्धको स्वीकार करने या फौजिये ।" प्रजापति ज्वलनजीके इस पत्रको पढ़कर प्रसन्नत्तासे विभोर हो गया मौर उसने विनम्रतापूर्वक अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए पत्र लिखा - " नमिके वंशको सुशोभित करनेवाले महाराज ज्वल जटी की आज्ञा मुझे स्वीकार है । मैं अपने पुत्र त्रिपृष्ठके साथ आपकी कन्या वयंप्रभाके विबाहकी स्वीकृति प्रदान करता हूँ । इस विवाह सम्बन्वसे हम दोनों के वंशमें प्रेमभाव उत्पन्न होगा और चिरकालतक हमारे वंशोंमें सौहार्द, सहयोग एवं पारस्परिक प्रेमभाव बने रहेंगे ।"
प्रजापतिके इस पत्रको प्राप्तकर ज्वलनजटी प्रसन्न हुआ और वह पोदनपुर चलने को तैयारी करने लगा । उसने अपने प्रधान सेनापति और युवराज अर्क - कीर्तिको सेना तैयार करनेका आदेश दिया तथा अन्य आवश्यक यात्रोपयोगी सामान भी तैयार होने लगे । स्वयंप्रभा को भी साथ ले जानेके लिए तैयारी की जाने लगी । ज्वलनजटीने पुत्र अर्ककीर्तिको युवराजपदके साथ प्रधान सेनापतिका पद भी दिया था । अतएव उसने सेना तैयारकर पोदनपुरकी ओर प्रस्थान किया । जब ज्वलनजी ससैन्य पोदनपुरमें पहुँचा, तो पोदनपुरनरेशने ज्वलनटीका स्वागत किया और उसे मनोहर उद्यान में स्थान दिया 1
शुभ लग्न शोधा गया और विधिपूर्वक विवाहविधि सम्पादित को गयी । स्वयंप्रभा और त्रिपुष्ठका विवाह उसी प्रकार सम्पन्न हुआ, जिस प्रकार ऋषभदेव और सुनन्दाका विवाह सम्पन्न हुआ था । दुन्दुभि वाद्य बज रहे थे । सौभाग्यवती स्त्रियाँ मंगलगान गा रही थीं और पुरोधा मंगलमंत्रों का उच्चारण कर रहे थे ।
ज्वलनजटीने दहेज में अन्य पदार्थों के साथ सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी विद्याएं भी प्रदान की । विवाहोत्सव धूम-धामपूर्वक सम्पन्न हुआ । ज्वलननटी और प्रजापति दोनों ही इस विवाह से प्रसन्न थे ।
जब अश्वी को अपने गुप्तचरों द्वारा स्वयंप्रभाके विवाहका समाचार प्राप्त हुआ, तो उसका हृदय क्रोधाग्निसे जलने लगा । वह सोचने लगा कि "मेरे रहते हुए स्वयं प्रभाका विवाह त्रिपृष्ठके साथ कैसे सम्पन्न किया गया है। स्वयंप्रभा जैसी सुन्दरी तो मुझे मिलनी चाहिये थी। ज्वलनजटीने यह मेरा अपमान किया है । ४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य परम्परा
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में अपने अपमानका बदला स्वयंप्रभाको छीनकर लूंगा और युद्धभूमिमें त्रिपृष्ठका बष करूंगा। विधाताने स्वयंप्रमाको मेरे लिये बनाया है, त्रिपृष्ठके लिये नहीं । इस उदण्डताका फल सभीको भोगना पड़ेगा।"
अश्वग्रीवने अपनी सेनाको थबके लिये तैयार किया। तीन विद्याओंसे संपन्न विद्याधर राजाओंको युद्धमें सम्मिलिस होनेके हेतु आमन्त्रित किया । अश्वनीवने विभिन्न प्रकारकी विद्याओं और अस्त्र-शस्त्रसे सज्जित हो आक्रमण किया और रथावत नामक पर्वतपर अपना सैन्य शिविर स्थापित किया । गिरनार भी सामग्रीलकी सेनामा सागमन मुनकर अपनी चतुरंगवाहिनीके साथ वहां आ डटा । दोनों ओरसे व्यूहरचना होने लगी । धनुषधारी अपने धनुषोंको सज्जित कर रणभेरीको प्रतीक्षा करने लगे। ___ चारों ओर युद्ध-वाद्य बजने लगे। सेनापतियोंने अपनी-अपनी सेनाको युद्ध करनेका आदेश दिया । बाण-वर्षा होने लगी, जिससे सूर्य बाच्छादित हो गया। अश्ववाहिनीके सैनिक परस्परमें युद्ध करने लगे। त्रिपृष्ठकुमारकी सेनाकी वीरताके समक्ष अश्वग्रीवकी सेना ठहर न सकी और जिसप्रकार वायुके चलनेसे मेघ तितर-वितर हो जाते हैं, उसी प्रकार अश्वग्रीवकी विद्याधरसेना रण. भूमि छोड़कर भाग उठी। जब अश्वग्रीदने देखा कि रणक्षेत्र खाली हो रहा है, तो वह स्वयं ही युद्ध करनेके लिये आ डटा। उसने ललकारकर कहा-"निरपराधी इन सैनिकोंको मारनेसे क्या लाभ है ? अपराधी तुम हो, अतएव अब में तुम्हारे साथ ही युद्ध करना चाहता हूं। तुम्हारा और मेरा युद्ध ही अन्तिम निर्णायक होगा।" ____ अश्वग्रीव और त्रिपृष्ठ दोनों युद्ध करने लगे। अश्वग्रीदने मायाका संचारकर त्रिपृष्ठको पराजित करना चाहा, पर त्रिपृष्ठकी वीरताके समक्ष उसका वश न चल सका। अतएव अश्वग्रीदने लज्जित होकर त्रिपृष्ठके ऊपर कठोर चक्र चलाया। यह चक्र त्रिपुष्ठके पुण्यप्रतापसे प्रदक्षिणाकर शीघ्र ही उसकी दाहिनी भुजापर आकर स्थिर हो गया। त्रिपष्ठने उसे लेकर क्रोधवश शवपर चला दिया। जिससे अश्वग्रीवकी ग्रोवाके दो टुकड़े हो गये। अश्वनीवके धराशायी होते ही उसकी समस्त सेना और विद्याधर सामन्त भाग खड़े हुए।
विपृष्ठने अश्वग्नीवको पराजित करने के पश्चात् त्रिखण्डको जीतने के लिये प्रस्थान किया और सर्वत्र विजयका डंका बजाते हुए अपने स्थानपर लौट आया तथा त्रिखण्ड-अधिपत्ति होकर अर्द्धचक्रवर्तीका पद प्राप्त किया।
उसने विश्वनन्दीके भवमें किये गये निदानको पूरा किया और इस निदान
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अन्य अशुभकर्मके उदयसे त्रिपृष्ठकी प्रवृत्ति संसार - विषयोंकी ओर विशेषरूपसे जागृत हुई। उसने अनेक विद्याधरकुमारियोंसे विवाह किया। अनेक गन्धर्वकन्याएँ प्राप्त की और भूमिगोचरियोंके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया । त्रिपृष्ठने विजयार्द्ध पर्वतपर जाकर रथनूपुर नगरके राजा ज्वलनजटीको दोनों श्रेणियोंका चक्रवर्ती बना दिया और निश्चिन्ततापूर्वक अर्द्धचक्रवर्ती पदका भोग करने का।
शुभोदय के कारण जितनी भांगसामग्री प्राप्त होती जाती थी, त्रिपृष्ठ उतना ही अशान्त बना रहता था। उसे एक क्षण के लिये भी भोंगोंसे तृप्ति न मिली। वह करोड़ों वर्षो तक राज्यसुख और संसारके विषय सुखोंका भोग करता रहा । उसने बहुत आरम्भ और परिग्रह संचित किया; फलतः विषय-सुखोंको गृद्धता के कारण मरकर उसने सप्तक नरक में जन्म ग्रहण किया ।
पूर्वजन्ममें बाँधा गया निदान सफल हुआ और दुर्गतिका कारण बना। इस नरक में त्रिपृष्ठके जीवने अगणित काल तक नाना प्रकारके दुःखोंको सहन किया । आयु पूर्ण होनेपर यह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में गंगानदी के तटके समीपवर्ती वनप्रदेशमें सिगिरि पर्वतपर सिंह हुआ । यहाँ भी इसने तीव्र पापका अर्जन किया, जिससे रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकम नारकी हुआ और वहाँ एक सागर तक भयंकर दुःख भोगता रहा। पश्चात् वहाँ च्युत होकर इसी जम्बूद्वीपमें सिन्धुकूटकी पूर्व दिशा में हिमवत पर्वत के शिखरपर देदीप्यमान बालोंसे सुशोभित सिंह हुआ । सिंहपर्याय पुन: उत्थानको ओर
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सिंहपर्याय प्राप्त करनेपर महावीरका जीव अपनी शक्ति और पुरुषार्थका प्रदर्शन करता हुआ हिंसा में प्रवृत्त हुआ । वहु निर्बल जोवों को मारकर खाने लगा और अपनी शक्ति द्वारा समस्त जीवांको त्रस्त करने लगा। एक दिन उसने एक हिरणका पीछा किया और जब हिरणको उसने पकड़ लिया, तो उसे अपनी तोक्ष्ण दाड़ोंसे फाड़ डाला । जब सिंह इस प्रकार हिंसाकर्म में लगा हुआ था, तब आकाशमार्ग से अजिसञ्जय नामक चारण मुनि अमितगुण नामक मुनिराजके साथ जा रहे थे। उन्होंने आकाशमार्ग से उस सिंहको हिंसा में रत देखा, तो वे दयासे द्रवीभूत हो आकाशमार्ग से उतरकर उस सिंहके पास पहुँचे और एक शिलातलपर बैठकर जोर-जोर से धर्मप्रवत्रन करने लगे । उन्होंने कहा - " हे भव्य मृगराज ! तू हिंसा क्यों प्रवृत्त है ? क्या अभी भी तुम्हारी विषयोंसे तृप्ति नहीं हुई है ? त्रिपृष्टके भव में तुमने पांचों इन्द्रियोंके श्रेष्ठ विषयों
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का अनुभव किया है। तुमने कोमल शुय्यातलपर अनेक रमणियोंके साथ चिरकाल तक विहार किया है । रसना इन्द्रियको तृप्त करनेवाले सब रसोंसे परिपूर्ण तथा अमृतरसायन के साथ स्पर्द्धा करनेवाले दिव्य भोजनका उपभोग तुमने किया है। उसी त्रिष्ठके भव में तुमने सुगंधित धूपके अनुलेपनोसे, मालाओंसे तथा अन्य सुवासित पदार्थोंसे अपनी घ्राण इन्द्रियको तृप्त किया है। रस-भाव समन्वित सम्पन्न हुए नृत्यका तुमने पर्याप्त अवलोकन किया है। संगीतके मधुर झंकारको सुनकर अगणित वर्षोंतक तुमने आनन्द लिया है। तीन खण्डका अ चक्रवतित्व प्राप्तकर ऐसा संसारका कौन सा भोग है, जिसका तुमने उपभोग नहीं किया है । निरन्तर सांसारिक सुखोंकी आसक्तिके कारण सम्यग्दर्शन और पंचव्रतोंसे रहित होने से तुमने सप्तम नरककी आयुका बन्ध किया और वहाँ तेतीस सागर तक विभिन्न प्रकारके कष्टोंको सहा नरकसे च्युत हो सिंहपर्याय प्राप्त की और इस पर्यायके अनन्तर पुनः प्रथम नरककी यातना सही। अब पुनः यह सिहपर्याय तुम्हें प्राप्त हुई है । अत: इस पर्यायमें तुम्हें अपने आत्मोत्थानमें प्रवृत्त होना चाहिये । तुम यह भूल रहे हो कि पशु और नरकपर्याय में छेदन-भेदन, भूख-प्यास, शीत-आतपजन्य कितने कष्ट सहन किये हैं । क्रूर परिणामी होकर तुम पशुओंकी हिंसा में प्रवृत्त हो रहे हो । अतएव संसारके स्वरूपका विचारकर हिंसाका त्याग करो। "
"अहिंसाका सम्बन्ध प्राणीके हृदयके साथ है, मस्तिष्क के साथ नहीं, तर्कवितर्कके साथ नहीं और न बँधे बँधा ये विवेकशून्य विश्वासोंके साथ ही है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरणके साथ है - भीतर की गहरी आध्यात्मिक अनुभूति के साथ है । असाकी भूमि जीवन है। जबतक जीवके आचार-व्यवहार अहिंसामूलक घटित होते हैं, तभी तक जीवन हरा-भरा और विकसित रहता है । अतएव तुम्हें अहिंसाके वास्तविक महत्त्वको समझना है और जीवनको गतिशील बनाना है । तुमने पुरुरवा के भवमें अहिंसा-संस्कारका बीज अर्जित किया था, वह बीज अनेक जन्मोंमें किये गये मिथ्याचरणके कारण दबता गया । उसपर अज्ञानताकी तह पड़ती गयी । फलतः त्रिपृष्ठभवमें नारायण होकर भी तुमने इस अहिंसाके बीजको बने I अंकुरित नहीं होने दिया । तुम पूर्वके जन्मोंमें मनुष्य हुए, देव हुए और पशु पुरुरवाके भवमें तुमने हिंसा करना छोड़ा था, जिसके फलस्वरूप तुमने स्वर्गक सुख प्राप्त किये, पर त्रिपृष्ठके भवमें तुम वासनामें डूब गये, हिंसा में सन गये, जिसका दुःखद परिणाम यह पशु जीवन है । सुख चाहते हो, तो हिंसा - कार्यको छोड़ पहले किये गये संकल्पको याद करो ।"
उग्र तपस्वी अजितञ्जयको वाणीने जादूका कार्य किया । सिंहकी वृत्तियाँ
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विगलित होने लगीं । अज्ञानताके कारण जो गुण अच्छादित थे, वे शनैः शनैः उद्घाटित होने लगे । उसे अपने पूर्व जन्मोंकी स्मृति आ गयी और विगत जन्म उसे दर्पण में पड़नेवाले प्रतिबिम्बके समान स्पष्टतः दिखलायी पड़ने लगे। आत्माकी वाणीको आत्माने समझा; आध्यात्मिकता और अहिंसा-संस्कारोंने सिंहके ज्ञाननेत्रोंको खोल दिया । वह पूंछ हिलाता हुआ योगिराजके समक्ष नतमस्तक हो गया। उसकी भावभंगिमासे यह प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ रहा था कि उसे अपने पूर्वकृत कार्योंपर पश्चात्ताप है और अब अपने उत्थानके लिये वह कृतसंकल्प है।
आचार्य अजित सिंहकी इस भाव-विभोर अवस्थाको देखकर कहा" मृगराज ! घबंडाओ नहीं । तुम्हारी आत्मा अनन्त ज्ञानवान् और शक्तिशाली है। यदि तुम आत्म-निष्ठापूर्वक हिसाका त्याग कर अहिंसाका आचरण करोगे, तो तुम्हारा उद्धार सम्भव है । विदेहस्थ तीर्थंकर श्रीधरने समवशरणमें कहा है कि अबसे तुम दशवें जन्ममें भरतक्षेत्र के अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगे । संयम, तप और त्याग मनुष्य तथा पशु दोनोंके लिये प्रायः समानरूपसे उपकारक हैं । यदि तुम अपनी वृत्तिको अहिंसक बना सकते हो. तो तुम्हारे उद्धार में बिलम्ब नहीं है ।"
मुनिराज उक्त उपदेश देनेके पश्चात् विहार कर गये। उस सिंहने अपने जीवनकी आलोचना की और संयम ग्रहण कर लिया । उसने मांसाहारका त्याग कर सल्लेखना धारण की। मनुष्य और पशुओं के उपसर्ग एवं यातनाओंको समताभावसे सहा और प्राणविसर्जनकर सोधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नामका देव हुआ । धर्मका फल ऐश्वर्य होता देखकर वह धर्मपुरुषार्थ में लीन हो गया । वह प्रतिदिन अकृत्रिम चैत्यालयों में जाकर अत्प्रतिमाओं की दिव्य पूजा-अर्चा करता । नन्दीश्वरादि द्वीपोंमें भावविशुद्धि के हेतु जिन प्रतिमाओंकी पूजा एवं गुरुमोंके उपदेशका श्रवण करता । एक दिन अजितञ्जय गुरुका उसे दर्शन हुआ । वह विनीत रूपमें निवेदन करने लगा - "गुरुदेव ! आपके वर्मोपदेशको प्राप्त कर में कृतकृत्य हो गया और अब स्वर्ग-सुख भोग रहा हूँ । आपके उपदेशने मेरे ज्ञान- वक्षुओंका उन्मीलन कर दिया है। मुझे संयम और साधनामें ही सुख दिखलायी पड़ता है । पर यह देवगति भोगयोनि है। यहाँ वीतरागताकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । ऐसा उपाय बतलाइये, जिससे मेरा संकल्प पूरा हो सके।"
गुरु - " वत्स ! इस देवगतिमें देव, गुरु और शास्त्रकी भक्ति सुखपूर्वक की जा सकती है । सन्यग्दर्शनकी उपलब्धि भी यहाँ संभव है। तुम भक्ति और श्रद्धा द्वारा अपने सम्यक्त्वको निर्मलकर आत्मोत्कर्षं कर सकते हो ।"
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सिंहकेतुने कृत्रिम और अकृत्रिम जिनालयोंकी वंदना की और देवगसिके भोगोंको क्षणभंगुर समझकर अनासक्तभावसे इस गतिमें निवास किया। आयुके अन्तमें समभावोंसे प्राणविसर्जन कर विद्याधरनरेश हुआ। कनकोज्ज्वलपर्याय : उदित हुए साघमा-अंकुर
घातकीखण्डद्वीपके पूर्व विदेहमें मंगलावतं देश है। इसके मध्यमें विजयार्द्ध पर्वत है । इस पर्वतकी उत्तरश्रेणी में कनकप्रभ नामका नगर स्वर्णमंडित प्रासाद, प्राकार और जिनालयोंसे सुशोभित है। नगरका वैभव और उसका रम्यरूप पथिकोंको दूरसे ही अपनी ओर आकृष्ट करता है। सरोवर, उद्यान और कूप नगरके सौन्दर्यवृद्धिमें गुणात्मक वृद्धि कर रहे हैं। मानव या विद्याधरोंकी तो बात ही क्या, प्रकृति भी इसके यथार्थ नामका विज्ञापन कर रही है।
इस नगरका अभिगति विद्याधर रान लगभगा और मां चना चाली कनकमाला नामकी उसकी पत्नी थी। इन दोनोंके यहाँ महावीरका जीव वह सिंहकेतु देव स्वर्गसे चयकर कनकोज्ज्वल नामका पुत्र हुआ । पिता कनकपुखने पुत्रोत्पत्तिका समाचार अवगतकर जिनालय में जाकर कल्याण करनेवाली पंचकल्याणक पूजा की। उसने दीन-दुखियों एवं सत्पात्रोंको यथोचित दान दिया । वार्धापन-संस्कार सम्पन्न करनेके हेतु विभिन्न प्रकारकी कलागोष्ठियोंकी योजना की। नृत्य-गान सम्पन्न हुए। पुरोधाओंने मंत्रोच्चारकर नवजात शिशुको आशीर्वाद प्रदान किया । शिशु द्वितीयाके चन्द्रमाके समान क्रमशः वृद्धिगत होने लगा और आठ वर्षको अवस्थामें उसका विद्या-संस्कार सम्पन्न किया गया । कनकोज्ज्वलको प्रतिभासे सभी गुरुजन आश्चर्यचकित थे। उसने अनेक शास्त्र और कलाओंमें अल्प समयमें ही प्रवीणता प्राप्त कर ली। किशोर कनकोउञ्चल अपनी मेषा, मनीषा और मानवोचित गुणोंके कारण परिजन-पुरजन सभीका प्रेम भाजन बन गया। उसकी मधुर वाणी सुनकर सभी हर्षित होते और उसे प्यार करते थे । जब बड़े गुरुजनोंको भी किसी विषयमें आशंका या कठिनाई उपस्थित होती, तो वे इस प्रतिभामूर्ति युवासे परामर्श करते । __ जब कनकोज्ज्वलने युवावस्थाकी देहलीपर पैर रखा तो माता-पिताके मनमें उसका पाणिग्रहण सम्पन्न कर देनेकी भावना उदित हुई। कुमारके मामाका नाम हर्ष था और वह कुमारके गुणोंमें अत्यधिक अनुरक्त था। हर्षके कनकावती नामको सुन्दर कन्या थी, जो सभी गुणोंसे परिपूर्ण थी। मातुल हर्षने अपनी पत्नी और मित्रोंसे स्वीकृति लेकर अपनी कन्या कनकावतीका विवाह कनकोज्ज्वलके साथ सम्पन्न कर दिया।
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कनोज्ज्वलके मनमें युवावस्थाजन्य वासनाओंका द्वन्द्व आरंभ हुआ । कभी वह अपनी रूपवती भार्याके गुणोंका स्मरण करता, तो कभी पुरुरवा और सिहपर्याय में किये गये संकल्प उसे उद्वेलित करने लगते । कुमारके समक्ष अनेक विद्याधरकन्याओंके परिणयके प्रस्ताव उपस्थित किये गये । एवं सांसारिक विषय-भोगोंका चाकचिक्य प्रस्तुत किया गया । पर उसका मन इन सब विषयोंमें रम न सका । एक दिन वह अपनी पत्नी कनकावती के साथ क्रोड़ा करता हुआ महामेरु पर्वतपर जिन चैत्योंको पुजाके लिये गया। वहाँपर ऋद्धिधारी अवविज्ञानी मुनीश्वरको देख उनकी तीन परिक्रमाएँ की और 'नमोऽस्तु' कहकर वह उनके पादमूल में बैठ गया । जो बीज एक दिन मिट्टी के अन्दर दबा पड़ा था, जल, पवन और प्रकाशका संयोग मिलते ही वह अंकुरित होने लगा । इस अंकुरने भीतर और बाहर दोनों ही ओर अपनी यात्रा आरंभ की । अन्दरको ओर बढ़नेवाले अंकुर ने बीजके अनुरूप ही भीतर से खोज और छान-बीन के साथ जीवनशक्ति प्रदान की । कनकोज्ज्वलका अज्ञानतिमिर नष्ट होने लगा और भीतर के प्रकाशसे प्रकाशित हो उसने कहा - "प्रभो ! जन्म-मरणको दूर करनेका उपाय बतलाइये | अगणित पर्यायों में मैंने सांसारिक वेदना सही है । अब आप जैसे गुरुको प्राप्तकर में निर्वाण मार्गका उपदेश सुनना चाहता हूँ ।"
मुनिराज -- " वत्स ! अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण, उत्सर्ग, मनगुप्ति, वचनगुप्ति एवं काय गुप्तिरूप तेरह प्रकारके चारित्रको वीतरागमुनि धारण करते हैं । काम, क्रोध, मोह, लोभादिको जीतकर संयम, तप और ध्यानके द्वारा सिद्धि प्राप्त करते हैं । यह साधनामार्ग ही वीतरागताका मार्ग है । जो आत्म-दर्शन कर लेता है, उसे ही निराकुल साधनाको उपलब्धि होती है । कुमार! अब तुम्हारा संसार निकट आ गया है । तुम्हारा चित्त द्रवीभूत हो गया है। अतएव इसमें धर्मवृक्षका रोपण सरलतापूर्वक किया जा सकता है ।"
पूर्वार्जित संकल्पके उदित होते ही कुमार के हृदयमें आलोक भर गया 1 उसे संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्ति हो गयी । वह सोचने लगा कि में अपनी आत्माको परमात्मा बना सकता है । मुझमें सभी शक्तियां निहित है । केवल पुरुषार्थकी कमी है, उसे ही मुझे जागृत करना है। वह द्वादश अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करने लगा, जिससे संसारकी वास्तविकता उसके नेत्रोंके समक्ष प्रत्यक्ष होने लगी। सिंह्रपर्याय में अजितञ्जय द्वारा दिया गया उपदेश भी मूर्तिमान हो उठा । कुमारने अपने चित्तका संशोधनकर बाह्य और अन्तरंग परिग्रहको छोड़नेका संकल्प किया। उसने विषय-भोगोंको निस्सार समझा और दिग
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म्बरदीक्षा धारण करनेका विचार किया। आर्त और रौद्र ध्यानके हटते हो उसकी अशुभ लेश्याएँ दूर होने लगीं और शुक्ललेश्याके प्रभावसे धर्मध्यान उत्पन्न हुआ ।
दिगम्बर मुनि होकर कनकोज्जवल संयम, तप और स्वाध्यायको सिद्धिमें संलग्न हो गया। रागके उत्पन्न करनेवाले स्थानोंको छोड़ वह गुफा, वन, पर्वत, श्मशान एवं निर्जन स्थानोंमें विचरण करने लगा। उसकी साधना में अनेक विघ्न आये, पर वह विचलित न हुआ । उपसर्ग और परीषहों को सहनकर निर्विकल्पक चित्त हो धर्म ध्यानमें प्रवृत्त हुआ । आयुका अन्त निकट जान इसने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया और लांतव नामक सप्तम स्वर्ग में महद्धिक देव हुआ । यहाँ उसे सभी प्रकारकी सुख-संपत्तियां प्राप्त हुई।
अवधिज्ञान द्वारा पूर्व में किये गये तपश्चरणको अवमतकर वह अर्हतभक्ति, गुरुभक्ति और शास्त्रभक्ति में प्रवृत्त हुआ। इस स्वर्ग में उसे तेरह सागर की आयु और पाँच हाथ उन्नत शरीर प्राप्त हुए। वह तेरह हजार वर्ष बीतनेपर एक बार कण्ठसे झरते हुए अमृतका सेवन करता था और साढ़े छह महीने बीत जानेपर सुगंधित श्वांस लेता था । सम्यग्दृष्टि होनेके कारण वह शुभ ध्यान एवं अर्हतुपुजामें संलग्न रहता था । नृत्य, गान और मधुर वाद्यका आनंद लेता हुआ भी चह 'जलमें भिन्न कमल' की तरह निर्लिप्त रहता था । सम्यग्दर्शन के कारण उसे आत्मप्रकाश प्राप्त हो गया । आत्मसत्ता पर विश्वास होनेसे उसे अपने स्वरूपकी उपलब्धि हो गयी । अतएव वह अहंकार और ममकारके बंधनोंसे मुक्त हो आत्मबोधमें विचरण करने लगा। देवगतिके भोगोंके मध्य रहते हुए भी वह उन्हें भौतिक और पौद्गलिक मान रहा था। वह सोचता था कि मैं चेतन हूँ, आत्मा हूँ, अभौतिक हूँ और पुद्गल से सर्वथा भिन्न हूँ। में ज्ञानस्वरूप हूँ और पुद्गल कभी ज्ञानस्वरूप नहीं हो सकता। आत्मा और पुद्गलमें स्वरूपतः भिन्नता है। दोनों को एक मानना अध्यात्म क्षेत्र में सबसे बड़ा अज्ञान है और यही सबसे बड़ा मिथ्यात्व है । यह अज्ञान और मिथ्यात्व सम्यग्दर्शनमूलक सम्यग्ज्ञान से ही दूर हो सकता है । अनन्त अतीत पर्यायों में जब पुद्गलका एक कण भी मेरा अपना नहीं हो सका, तब वर्त्तमान और अनागतमें यह कैसे मेरा हो सकेगा ? यह ध्रुव सत्य है कि आत्मा आत्मा है और पुद्गल पुद्गल है । आत्मा कभी पुद्गल नहीं हो सकती और पुद्गल कभी आत्मा नहीं हो सकता ।
इस देवगति में चारों ओर नाना प्रकारके मोहक पदार्थोंका जमघट है | यहाँ विलास और वैभवकी सभी सामग्रियाँ विद्यमान हैं । इस भोगयोनिमें वीत
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रागताकी प्राप्ति तो संभव नहीं, पर उसके लिये प्रयत्न किया जा सकता है। आत्मामें अनन्त कालसे पुद्गलके प्रति जो ममता है, भौतिक पदार्थोके प्रति जो आकर्षण है, उसे तो दूर किया ही जा सकता है। अतएव मुझे तटस्थ भावसे शुभ भावनाओंका चिन्तन-मनन करना चाहिये। मैं इन विषयोंके बीच रहते हुए भी इनसे लिप्त नहीं होऊंगा। इस विचारधाराके प्रभावसे स्वर्गसे च्युत हो उसने मनुष्यपर्याय प्राप्त की । हरिषेण पर्याय : विकसित हुई साधना
महावीरको साधनाका वृक्ष अब पल्लवित हो चुका था। अब उसमें शनैः शनैः कलिकाएं मुकुलित होती हुई दृष्टिगोचर होने लगी थीं । सिंह जैसी हिंसक पर्यायमें अजित साधनाका संकल्प चन्दनवृक्षके समान अपनी सुगंध विकीर्ण करने लगा। जन्म-जन्मकी साधना सफलताके सामीप्यका लाभ करनेके लिये उतावली हो उठो।
कनकोज्ज्वलका जीद लान्तवस्वर्गसे च्युत हो कौशल देशको अयोध्या नगरीके राजा वज्रसेन और उनकी पत्नी शीलवतीके उदरसे हरिषेण नामका पुत्र हुआ । माता-पिताने बड़े उत्साह और अभ्युदयके साथ पुत्र-जन्मोत्सव सम्पन्न किया। पूर्व जन्मके अतिशय पुण्यके कारण कुमार हरिषेण नगरवासियों की आँखोंका तारा बन गया । जो भी उसका दर्शन करता, आनन्द-विभोर हो जाता और अपने भाग्यको सराहने लगता। कुमार हरिषेणने राजनीति-अर्थशास्त्र, कला-कौशल, धर्मशास्त्र, तर्कविद्या आदि सभी विषयों में दक्षता प्राप्त कर ली । उसका शरीर देवोंसे अधिक सुन्दर और विद्याधरोंसे अधिक मनोज्ञ था। कुमारके चातुर्यने सभी व्यक्तियोंको अपनी ओर आकृष्ट किया ।
हरिषेणके युवा होनेपर अनेक राजकन्याओं के सम्बन्ध विवाहके हेतु उपस्थित हुए। माता-पिता और मंत्रीपरिषद्ने कई सुन्दरी कल्याओंसे उसका विवाह-सम्बन्ध कर दिया । वन सेनने कुमारको सभी प्रकार योग्य जानकर उसका राज्याभिषेक किया। राज्यपद प्राप्त होते ही कुमारने बड़ी योग्यतासे राज्यकार्यका संचालन किया। उसकी न्यायप्रियता और शासनव्यवस्था सभीके लिये श्लाघनीय थी। कुमारकी मंत्रीपरिषद्में मनीषी विद्वानोंके साथ कवि और कलाकार भी सम्मिलित थे। वह अपनी दिनचर्या नियत कर लौकिक और पारमार्थिक कार्योका संचालन करता था । सम्यक्त्वकी निर्मलताके लिये देवपूजन, शास्त्र-स्वाध्याय एवं श्रावकके व्रतोंका प्रमादरहित पालन करता था। प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको सभी प्रकारके पापकार्योंका त्याग ४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कर प्रोषषव्रतका आचरण करता या प्रातः शय्यासे उठकर मंदिके लिये सामायिक एवं स्तुति-पाठ करता । भोजन करनेके पूर्व सुपात्रोंको दान देता और अतिपिजनोंका यथोचित सत्कार करता था।
वह जितेन्द्रिय होकर परिमित रूपमें विषयोंका सेवन करताहुआ आत्मसिद्धि प्रवृत्त था । जनसाधारणके लिये कल्याणकारी कार्योका सम्पादन करता हुआ प्रजाके अभ्युदय एवं विकासकेलिये निरन्तर तत्पर रहता था। उसने राज्यके दायित्वके निर्वाहहेतु सम्पूर्ण राज्यको मशीनरीको ठीक कर दिया था । कृषि
और वाणिज्य-सम्बन्धी कार्योंकी देखभालकेलिये विभिन्न अधिकारी नियुक्त किये 1 उसने लोकतांत्रिकपद्धतिपर राज्यका विकास किया था। कृषियोग्य बंजर भूमिका सुधार, सिंचाई-व्यवस्था, बाजार-व्यवस्था आदिको उन्नत बनाया। यों तो कुमारके जीवन में अनेक उत्कर्ष और अपकर्ष प्राप्त हुए, पर उसका जीवन सरल रेखाकी गतिसे गमन कर रहा था । उसने आर्थिक स्वतंत्रता, अहिंसक वातावरण एवं पारस्परिक सहयोग और सहकारिताको भावना उत्पन्न कर प्रजाका अपार प्यार अर्जित कर लिया।
इस प्रकार राज्यका संचालन करते हुए कुमार हरिषेणने अगणित वर्ष व्यतीत किये। एक दिन उसने आकाशमें बादलोंका एक सुन्दर दृश्य देखा। इस दृश्यको देखते ही वह मुग्ध हो गया और उस दृश्यका मानचित्र अंकित करने लगा। सहसा वायुका एक झोका आया और आकाश में एकत्र मेघपटल क्षण-भरमें सिसर-वितर हो गया । हरिषेण सोचने लगा-"ऐसा सुन्दर दृश्य जब क्षणभरमें विलीन हो सकता है, तब इस जीवनका क्या विश्वास ? मैंने अगणित वर्षों तक संसारके सुखोंका उपभोग किया है, पर तृप्ति नहीं हुई । तृष्मा और आशाकी जलती हुई भट्ठीमें उपलब्ध होनेवाली सभी भौतिकताएं क्षण-भरमें स्वाहा हो जाती हैं। मैंने मानवताके परातलपर स्पिस रहनेका पूरा प्रयास किया, पर शान्ति दूर ही रही । मैं सदा सोचता हूँ, जीवन क्या है ? जगत् क्या है ? तथा उन दोनों में परस्पर सम्बन्ध क्या है ? बन्धन क्या है ? मुक्ति क्या है? पर समाधान मुझे मिल नहीं पाता। जीवन शरीरका धर्म नहीं है, बेसन आत्माका धर्म है । जीवन पवित्रतासे जीनेके लिये है । यह पवित्रता उस आत्माका धर्म है, जो मात्मा बुद्ध एवं प्रबुत है। जिसे अपने शुभ और अशुभका, सुन्दर एवं असुन्दरका तथा वांछनीय एवं अवांछनीयका सम्यक् परिज्ञान है। जो अपने भलेबुरे, भूत-भविष्यत् और वर्तमानपर चिन्तन कर सकता है, वही प्रबद्ध चेतन है, वही जागृत आत्मा है और वही विकासोन्मुख जीव है। भौतिक सभ्यता या भौतिक जीवनमूल्योंको जब मानवजीवनको तुलापर तौला जाता
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है, तो मुझे निराशा ही प्राप्त होनी है । ये भौतिक सुख त्याज्य हैं । अतः मानवजीवन में आध्यात्मिकत्ताको अपनाना और अपनी आध्यात्मिकशक्तिके विकासके लिये पूर्ण प्रयत्न करना परमावश्यक है। हमारी आत्म-ज्योति भोगवादी अविवेकके घने कुहासे में आवृत्त है, जिस प्रकार कीचड़में लिपटे होरेकी ज्योति तिरोहित हो जाती है और वह हीरा मिट्टी जैसा प्रतीत होता है, उसी प्रकार मानवजीवनके वास्तविक तथ्य और सत्य पूर्वाग्रह, अन्धविश्वास और अविवेकसे लिप्त हो जाने के कारण मानवताके क्षितिजसे तिरोहित हो जाते हैं । अतएव मुझे आत्मोद्वारके लिये अतृप्ति, कुण्ठा, निराशा और भोगवादी दृष्टिगोणका त्याग करना है 1
इस प्रकार सहापोह करता हु हो अपने निती शामगारे लिये धन-विहारको चल दिया ।
राजाज्ञा प्राप्त होते ही अमात्य, महिषि-वर्ग, चतुरंगिणी सेना, कलाकार सभी उसके मनोविनोदके लिये साथ-साथ चल दिये । संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त कुमारका मन प्रकृति के इस रमणीय रूपको देखकर भी रम न सका। विषयोंकी विरक्तिने उसको चेतनाको उद्बुद्ध कर दिया था। अतएव हरिषेण यानसे उतरकर पैदल ही वनमें भ्रमण करने लगा। कुछ दूर चलने के पश्चात् उसे अंगपूर्वके ज्ञाता श्रुतसागर नामक मुनि दिखलायी पड़े । उसने तीन प्रदक्षिणाएं की और 'नमोऽस्तु' कहकर मुनिराजकी वन्दना की।
सम्यग्दर्शनके प्रकाशने उसकी अन्तरात्माको आलोकित कर दिया था । विवेकोदयके कारण कषाय और विकार धूमिल हो रहे थे । परिग्रहको आसक्केि त्यागने उसकी आत्मामें संयमको ज्योति प्रज्वलित कर दी थी। अतएव उसने मुनिराजसे दिगम्बर-दीक्षा प्रदान करनेकी प्रार्थना की । मुनि बन हरिषेण एकाकी नदीतट, पर्वत-गुफा एवं श्मशानभूमिमें ध्यानासक्त रहता था । बह ग्रीष्मऋतुमें पर्वतकी चोटीपर, वर्षाऋतु में वृक्षके नीचे और शरदऋतुमें नदीके सटपर ध्यानारूढ़ रहता था। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और सप इन चारों बाराधनाओंका सेवन करता हुआ आत्म-शोधनमें प्रवृत्त रहता था। समाधिमरणसे प्राण त्याग करनेके कारण वह महाशुक्र नामक दशम स्वर्गमें महर्दिक देव हुआ और वहाँसे चयकर मनुष्य-पर्याय प्राप्त की। प्रियमित्र चक्रवर्ती : साधनाने अंगड़ाई की
घातकीखण्ड द्वीपके पूर्व विदेहमें पुष्कलावर्स नामक देश है । यहां पुण्डरी५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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किणी नामको
तयारी है।
सुनिक राजा था । इसको सुव्रता नामकी महिषी थी। इन दोनोंके वह महद्धिक देव स्वर्गसे चयकर प्रियमित्र नामक पुत्र हुआ । पिताने पुत्र जन्मोत्सव सम्पन्न करने के लिये अहंन्तकी पूजाके साथ चार प्रकारका दान दिया और नानाप्रकारसे गीत-नृत्यादिपूर्वक उत्सव सम्पन्न किया । कुमार प्रियमित्र यथानाम तथागुण था । सभी लोग उसे प्यार करते थे ।
पूर्व जन्मों में की गयी साधना अब अंगड़ाई ले रही थी। संकल्प इतना उग्र और उद्दीप्त हो चुका था कि अब उसे आवृत्त करनेमें सभी विकार अक्षम ये ! अमृत की साधना सफल हो रही थी जौर कुमार प्रियमित्र के समस्त जीवनके आदर्श आध्यात्मिकताको ओर अग्रसर हो रहे थे । अनादिकालीन अर्जित कर्मसंस्कार शिथिल हो गये थे और आत्मतत्त्वरूप चैतन्य पूर्णतया उद्बुद्ध हो गया था । कषाय-विकाररूप विषके शमन होते ही रत्नत्रय की अमृतधारा प्रवाहित होने लगी थी । कुमार संसारके विषयोंसे उदासीन रहता था और उसे संसार के सभी भौतिक पदार्थ अस्थिर एवं अहितकर प्रतीत होते थे ।
कुमारको उदासीनतासे माता-पिताको चिन्ता हुई और उन्होंने उसे कुशल राजनीतिज्ञ और नेता बनानेके हेतु गुरुके समक्ष अध्ययनार्थ भेज दिया । कुशाग्रबुद्धि कुमारने अल्पकालमें कला और विद्याओंमें प्रवीणता प्राप्त की ।
युवा होनेपर पित्ताने उसका राज्याभिषेक किया। पूर्व पुण्यके अतिशय प्रभाव से उसे चक्रवत्तित्व, अष्टसिद्धियाँ एवं नवनिधियां प्राप्त हुईं। प्रियमित्रने चक्ररत्नके प्राप्त होनेके अनन्तर षट्खण्ड पृथ्वीकी विजयके लिये प्रस्थान किया । वह चतुरंगिणी सेना सहित भ्रमण करने लगा और विद्याधर, मण्डलेश्वर एवं अन्य नृपतियोंको पराजित करता हुआ बढ़ने लगा । अनेक राजा और विद्याघरोंने अपनी सुन्दरी कन्याएं उसे भेंट में प्रदान की । चक्रवर्तीने रूप लावण्यवाली छानवे हजार राजकन्याओंसे विवाह किया । बत्तीस हजार मुकुटबंध राजा चक्रवर्तीकी आज्ञा शिरोधार्य करते और उसके चरणकमलमें नमस्कार करते थे । चक्रवर्तीके पास चौरासी करोड़ पैदल सेना, सोलह हजार गणदेव और अठारह् ह्जार म्लेच्छ राजा विद्यमान थे। उन्हें निम्नलिखित चौदह रत्न मो प्राप्त थे
(१) सेनापति - सेनानायक - युद्धकलाविशेषज्ञ (२) स्थपति-प्रधान इंजिनीयर (३) स्त्रीरत्न (५) पुरोहित
(४) हर्म्यपति
(६) गजरत्न
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(७) अश्वरत्न (९.) चक्ररत्न (११) कांकण
(१३) छत्र
(८) दण्डरत्न (१०) चर्मरत्न (१२) मंग
(१४) असि
चक्रवर्ती दिग्विजय के लिये प्रस्थान करते समय मार्ग में शिविर स्थापित करता था । सैन्य प्रस्थानके पूर्व ही सेनाके पड़ावका स्थान निश्चित हो जाता था | स्थपति अपनी देख-रेख में शिविर निर्मित कराता था । शिविरके चारों ओर तम्बू लगाये जाते थे । मध्यमें चक्रवर्तीका सम्बू अनेक मंगलद्रव्योंसे युक्त रहता था । चक्रवर्तीके तम्बूको घेरे हुए सामन्तोंके तम्बू रहते थे और उसके पश्चात् बड़े-बड़े योद्धाओं एवं सामान्यसैनिकोंके। सैनिकोंके मनोरंजन एवं विश्राम के लिये वारांगनाओंके नृत्य होते थे । चक्रवर्ती अनेक प्रकारकी व्यूह - रचना में भी पटु था । भसंहृतव्यूह, गौड़व्यूह, चक्रव्यूह, दण्डव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, भोगव्यूह, नागव्यूह अदिकी रचनासे अवगत था ।
प्रियमित्र चक्रवर्तीको रत्न, देवियां, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाटघशाला, वर्तन, भोजन और वाहन — ये दश प्रकारके भोग उपलब्ध थे । वह अवतंसका माला धारण करता था । इस मालाके प्रभावसे सभी प्रकारके शारीरिक रोग दूर हो जाते थे । सूर्यप्रभछत्र द्वारा उसके शरीरकी कान्ति वृद्धिगत होती थी । अणिमा, महिमा, गरिमा, लत्रिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व – ये आठ सिद्धियाँ भी उसे प्राप्त थीं। भौतिक दृष्टिसे उसे किसी वस्तुकी कमी नहीं थी । नवनिधियाँ उसके भौतिक ऐश्वर्य की वृद्धि में प्रयुक्त थीं । आधुनिक अध्ययनको दृष्टिसे ये निषिय शिल्पशालाएँ ( Factories) प्रतीत होती हैं । कालनामक निषि --- यन्त्रशाला में ग्रन्थ- मुद्रण या ग्रन्थ-लेखनका कार्य होता था । चक्रवर्तीक राज्यव्यवस्था संबंधी सभी कागज पत्र इस शिल्पशाला में सुरक्षित रहते थे। महाकालनिधि शिल्पशालामें विभिन्न प्रकारके आयुध तैयार किये जाते थे । सर्वरत्ननिधिमें धय्या, आसन एवं भवनोंके उपकरण निर्मित होते थे । यों तो सर्वरत्ननिषि में प्रधानरूपसे, नील, पचराग, मरकतमणि, माणिक्य, होरक आदि विभिन्न प्रकारकी मणियोंको खानसे निकालकर उन्हें सुसंस्कृत रूपमें उपस्थित करनेका कार्य किया जाता था । पाण्डुनिधिमें धान्यों और रसोंकी उत्पत्ति निष्पन्न की जाती थी । पद्मनिषिनामक व्यवसाय- केन्द्रसे रेशमी एवं सूखी वस्त्र तैयार होते थे । दिव्याभरण एवं धातु-सम्बन्धी कार्य पिंगलनामक व्यवसायकेन्द्रमें सम्पन्न किये जाते थे | माणदनामक उद्योगगृहसे शस्त्रोंकी प्राप्ति होती थी । प्रदक्षिणावतं नामक उद्योगशालामें सुवर्ण तैयार किया जाता था । ५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी भाषायं परम्परा
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शंखनामक उधोगशालामें शंखकी सफाई कर उसे शुद्धरूपमें उपस्थित किया जाता था| नेसप्यनिधिमें भवन, पुल एवं अन्य उद्योगगृह निर्मित करनेका कार्य सम्पन्न किया जाता था। इस प्रकार प्रियमित्र चक्रवर्तीके यहां नव प्रकारकी उद्योगशालाएं विद्यमान थीं। निधियोंके कार्योक वर्णनसे अवगत होता है कि वस्तुत: ये चक्रवर्तीको उद्योगशालाएं ही थीं, जिनसे विभिन्न प्रकारको भौतिक आवश्यकताएं पूर्ण की जाती थीं।
प्रियमित्र चक्रवर्ती इस वैभवको प्राप्त कर भी अनासक्त रहता था। उसे अर्य और काम दोनों ही पुरुषार्थ सदोष प्रतीत होते थे । पमं पुरुषार्थको ओर उसका विशेष झुकाव था। वह निरन्तर श्रावकधर्मका सेवन करता हुआ मन्दिर और मूर्तियोंके निर्माणमें भी संलग्न रहता था। प्रतिदिन देव-पूजन करता हुआ मुनियोंको प्रासक आहार देता था। यह अहर्निश अशुभ पत्तियोंका त्याग कर शुभ वृत्तियोंके प्राप्त करनेकी चेष्टा करता था। सुन्दर रमणियां, उच्च अट्टालिकाएं, छानवे करोड़ ग्राम, उद्योगशालाएं एवं गण-अश्वादि वेभव निस्सार प्रतीत होते थे। अनेक जन्मों में अजित धर्म-संस्कार उसे तीर्थकरत्वके बन्धके लिये प्रेरित कर रहे थे। ___ एक दिन वह चक्रवर्ती पुरजन-परिजनके साथ क्षेमकर तीर्यकरको वन्दनाके लिये चला ! समवशरणमें पहुँच उसने तीन प्रदक्षिणाएं दी और मनुष्यके कक्ष में बेठ तीर्थकरकी पूजा की । तीर्थकरको दिव्यध्वनि हो रही थी। आयु-वैभव, ऐश्वर्य, इन्द्रियसुख विद्युत्के समान क्षणभंगुर बसाये जा रहे थे। सात तत्व और नव पदार्थोके स्वरूपका विवेचन किया जा रहा था। चर्तुगतिके दुःखोंका वर्णन सुन चक्रवर्तीका उबुद्ध विवेक और अधिक जागृत हो गया और उसने संवेगसे प्रभावित हो निन्थ-दीक्षा धारण को । उसने नाना प्रकारके परीषह और उपसगोको सहा और आयुके अन्तमें प्राण-त्याग कर सहस्रार नामकद्वादशम स्वर्ग में सूर्यप्रभ नामका महान् देव हुआ । वहाँसे चयकर मनुष्य-पर्याय प्राप्त की । नन्दभव : सफल हुई कामना-तीर्थकरत्वका बन्ध
प्रियमित्रके जन्ममें राजचक्रवत्तित्वको ठुकरा कर उन्हें धर्मचक्रवर्ती बनना अभीष्ट था । अतएव महावीरका जीव सभी प्रकारसे आत्म-शोधनमें प्रवृत्त हुआ। उसने स्वगसे च्युत हो छत्रपुर नामक नगरके राजा नन्दिवद्धन और उनकी पुण्यवती रानी वीरमसीके यहां पुत्र रूपमें जन्म ग्रहण किया। शिशु अपने रूपगुणोंसे जगतको आनन्दित करनेवाला था। अतएव पिताने उसका नाम नन्द रखा । पुत्र-जन्मोत्सव उत्साहपूर्वक सम्पन्न किया गया और क्रमशः किशोर
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अवस्थाको प्राप्त होनेपर शस्त्र और शास्त्र विद्याके अजंन हेतु उसे गुरुके आश्रममें प्रविष्ट कराया गया । विद्या और कलाओं में पाण्डित्य प्राप्त करनेके पश्चात् युवा होनेपर उसका राज्याभिषेक सम्पन्न किया गया। अपूर्व लावण्यवती कन्या के साथ उसका विवाह भी सम्पन्न हुआ। अतएव वह उत्तम भोगोंको मांगता हुआ राज्यका संचालन करने लगों ।
पूर्व जन्मोंमें की गई साधना के फलस्वरूप वह अपने सम्यक्त्वको उत्तरोत्तर निर्मल बनानेके लिए प्रयत्नशील रहने लगा संसारमें अनन्त पदार्थ हैं और वे दो वर्गों - जड़ एवं चेतनमें विभक्त हैं। जब और चेतनका भेदविज्ञान करना ही सम्यग्दर्शनका वास्तविक उद्देश्य है । 'स्व' और 'पर' का, आत्मा और अनारमाका, चैतन्य और जड़का जबतक भेद-विज्ञान नहीं होता है, तबतक 'स्व' रूपकी उपलब्धि नहीं मानी जा सकती है । 'स्व' रूपकी उपलब्धि होते ही यह आत्मा कर्मके बन्धनोंमें बंध नहीं सकती । जिसे आत्मबोध एवं चेतना - बोध हो जाता है, वही आत्मा यह निश्चयकर पाती है कि मैं शरीर नहीं हूँ, में मन नहीं हूँ, यह सब कुछ भौतिक है और है पुद्गलमय । इसके विपरीत मे चेतन हूँ, आत्मा हूँ, अभौतिक हूँ और पुद्गलसे सर्वथा भिन्न हूँ । आत्मा ज्ञानरूप है और पुद्गल जड़रूप । जबतक मात्मा और पुद्गलमें स्वरूपतः मेदानुभूतिका अनुभव नहीं किया जाता तबतक मध्यात्म क्षेत्रसे अज्ञान और मिध्यात्व दूर नहीं हो पाते । अज्ञान और मिथ्यात्व के निराकरणका साधन सम्यग्दर्शन मूलक सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे ही आत्मा यह निश्चय करती है कि पुद्गलका एक कण भी मेरा अपना नहीं है। मैं त्रिकालाबच्छित शुद्ध शुद्धरूप हूँ | शरीरादि पुद्गलद्रव्योंकी सत्ता सदा रहेगी, पर इनके प्रति जो आसक्ति या ममता है, उसे दूर करना ही पुरुषार्थं है । आत्मज्ञानकी उपलब्धि होनेके अनन्तर अज्ञान और मिथ्यात्व सहज में दूर हो जाते हैं ।
इस प्रकार चिन्तन करता हुआ वह धावकके द्वादश व्रत पालन करने में प्रवृत्त हुआ। वह पर्वदिनोंमें आरम्भका त्यागकर उपवास करता । मुनियोंको भक्तिपूर्वक आहारदान देता और चैत्यालयों में जिनेन्द्रदेवको महान पूजा करता था। उसकी समस्त अशुभ प्रवृत्तियोंका विरोध हो चुका था और उसका मन विकारोंके दूर होने से पवित्र हो गया था। वह परिमित रूपमें सांसारिक विषयभोगोंका सेवन करता था, पर उसको आन्तरिक प्रवृत्ति उससे विलग थी । कुछ समय तक राज्यकार्य संचालन करनेके अनन्तर नन्द भव्यजीवों सहित धर्म श्रवण हेतु श्रुतकेवल प्रोष्ठिल मुनिकी बन्दनाके लिये गया । उनके चरणों में बैठकर उसने उत्तमक्षमादि दश धर्मोके स्वरूपको सुना और चिन्तन किया :
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"यह संसार अनन्त दुःखोंकी खान है। काम, क्रोध, लोभ, मोहादि सदा इसे विचलित करते है । इन्द्रियोंके विषय अपनी ओर आकृष्ट करनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहते हैं । अतएव भुझे इस राज्यवैभव और समस्त गृहस्थी के दायित्वका त्यागकर मात्म-शोधनमें प्रवृत्त होना चाहिये । अब इन सांसारिक प्रपंचोंमें फँसना मूर्खताके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।" इस प्रकार विचार कर नन्दने समस्त अंतरंग और बहिरंग परिग्रहका त्याग कर निग्रन्थ-दीक्षा ग्रहण की। वह मेद-विज्ञानका चिन्तन करता हुआ आत्मालोकसे भर गया । नन्द मुनिने द्वादश तपोंका मली प्रकार आचरण किया, जिससे उनकी तृष्णा, लालसा आदि सभी कुण्ठाएँ समाप्त हो गयीं । आलोचना, प्रतिक्रमण करते हुए उसने धर्मध्यान और शुक्लध्यानका अभ्यास आरम्भ किया। तीर्थंकर-सम्पत्तिको देनेवालो दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का सम्यक् चिन्तन कर धर्मनेता बनानेवाली तीर्थंकर - प्रकृतिका बन्ध किया । लौकिक नेता बनना सहज है, सरल है, पर आध्यात्मिक नेताका बनना सहज साध्य नहीं है । विरले ही व्यक्ति इस पदको प्राप्त कर पाते हैं ।
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नन्दमुनिने अपने मनसे समस्त विकारोंको निकाल बाहर किया। मन, वचन और कर्मको प्रवृतिको नियंत्रित किया । महिला, सत्य, संयम और शीलका आचरण ही मनुष्यको धर्मनेता बननेके लिये प्रेरित करता है ।
नन्दमुनिने उक्त श्रुतकेवलोके पादमूलमें स्थित होकर निम्नलिखित सोलह कारणभावनाओंका चिन्तन कर तीर्थंकर प्रकृतिका अर्जन किया :
(१) दर्शनविशुद्धि-सम्यग्दर्शनके साथ लोककल्याणकी भावना दर्शनविशुद्धि है । 'स्व' रूपकी आस्थाके हेतु जीवादि तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान परमा वश्यक है और इन तत्त्वोंके श्रद्धानार्थं आप्त, आगम एवं गुरुका श्रद्धान अपेक्षित है। आठ अंग सहित और पच्चीस दोष रहित आत्म-श्रद्धाका विकास करना दर्शन विशुद्धि भावना है। तीर्थंकरनाम - कर्मका बन्ध करानेवाले कारणों में दर्शनविशुद्धिका रहना अनिवार्य है ।
(२) विनयसम्पन्नता -- सम्यग्ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधन गुरु आदिके प्रति उचित आदर-सत्कार रखना विनयसम्पन्नता है । विनयके पाँच भेद है— दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार । सम्यग्दर्शन निर्दोष धारण करना तथा सम्यग्दृष्टिजीवों का यथासंभव सत्कार करना दर्शनविनय है । सम्यग्ज्ञानको धारण करना तथा सम्यग्ज्ञानी पुरुषोंका यथोचित सत्कार करना ज्ञानविनय है । यथार्थमें ज्ञानविनय वही है, जिससे सम्यग्ज्ञानका विकास हो सके 1 श्रद्धा
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और भक्तिपूर्वक स्वाध्याय करना और मात्मविवेकको बागृत करना मानविनयके अन्तर्गस है। __ यथाशक्ति धिपूर्वक कल्याणकारी सभ्यश्चारित्रको धारण करना एवं सम्यक्चारित्रके धारी पुरुषों में पूज्य भाव रखना चारित्रविनय है। इन्द्रिय और मनोनिग्रहपूर्वक समताभावसे क्षुधा, तुषादिका कष्ट सहनकर अनशन, ऊनोदरादि सपोंमें प्रवृत्त होना तथा साधु-सपास्वधकि प्रांत पूज्य भाव रखना तपविनय है। अपनेसे गुणाधिक व्यकियोंमें भक्ति-भाव रखना, शिष्टता और नम्रतापूर्वक उनके साथ संभाषण करना, उच्चासन देना, उनकी आशा स्वीकार करना, उपचारविनय है। विनयगुणके धारण करनेसे आत्मशक्तिका विकास होता है और कषायें मन्द होती हैं।
(३) शीलवतानतिचार-अहिंसा, सत्य आदि व्रत हैं और इनके पालने में सहायक क्रोष, मान आदि कषायोंका स्थाग शील है । इनका निर्दोष रीतिसे पालन करना शीलवतानतिचारभावना है । आशय यह है कि शीलव्रतोंके पालन करने में मन-वचन-कायकी निर्दोष प्रवृत्ति शीलवस-अनतिचार है। शील आत्माका स्वभाव है। इस स्वभावसे भिन्न परमादोंका निरोष करना शीलवत. अनतिकारभावना है। इन्द्रिय और मनकी प्रवृत्तियोंको निरन्तर शुभ बनाये रखनेकी चेष्टा इस भावनाका लक्ष्य है।
(४) अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-जीवादि स्वतस्वविषयक सम्यग्ज्ञानमें निरन्तर समाहित रहना अभोक्षणशानोपयोग है। इस भावनाका आशय सप्त सत्त्वोंका निरन्तर अभ्यास और चिन्तन है । शावमें सदा उपयोगके रहने से मन संयमित रहता है और विषयों की ओर उसको प्रवृत्ति नहीं होती है । अत: वह विषयोंकी चाहको दाहसे अछूता रहता है। जैसे-जैसे शान और अनुभव वृद्धिंगत होते हैं, वैसे-वैसे आनन्दका लाभ होता है।
(५) अभीषणसंवेग-सांसारिक भोगसम्पदाएं दुःखका कारण हैं । उनसे निरन्तर भयभीत रहना अभीक्षणसंवेग है । संसारके विषयोंसे भयभीत रहते हुए धर्म, धर्मात्मा और धर्मके फलमें अनुराग करना संवेगभावना है।
(६) शक्तितः त्याग–अपनी शक्तिको विना छिपाये मोक्षमार्गमें उपयोगी आहार, अभय और शानदान देना यथाशक्ति त्याग है।
(७) शक्तिः तप-अपनी शक्तिको बिना छिपाये अनशन, ऊनोदर, वृसिपरिसंख्यान, रसपरित्याग आदि सप करना यथाशक्ति तप है। सम्यकप्रकार इच्छाओंका निरोध करना तप है । इस तपका पयाशक्ति आचरण करना ही इस भावनाका रहस्य है। ५६ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य-परम्परा
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14) साधुसमाधि-तपश्चर्या में अनुरक्त साधुबोके ऊपर वापत्ति आनेपर उसका निवारण करना और ऐसा प्रयत्न करना जिससे वे स्वस्थ रहें साधुसमाधि है।
(१) वैयावृत्यकरण-गुणी पुरुषोंके कष्टमें पड़ने पर उनके कष्टको दूर करनेका प्रयत्न करना यावृत्यकरण है। वैयावृत्यका अर्थ सेवा करना है। जब रोगादिके कारण कोई प्राणी अस्वस्थ हो जाय, उस समय उसके प्रधानको अडिग बनाये रखनेके लिये वेमावृत्ति आवश्यक होती है । यह दो प्रकारसे संभव है--भक्ति और करुणासे | जो दर्शन, शान, चारित्र, तपादि गुणोंसे उन्नत हैं, उसकी सेवा करना भक्तिसेवा है और गुण-दोषोंकी ओर दृष्टिपात न करके करुणा या दयाव सेवा करना करुणासेवा है।
(१०) अहमक्सि-अरहन्त भगवानकी उपासना करना अहंन्तभक्ति है। यह भक्ति ही चतुर्गतिके दुःखोंसे दूर कर सकती है और इसीके द्वारा सम्यक्त्व निमंल होता है।
(११) आचार्यभक्ति-दीक्षा शिक्षा देनेवाले गुरुकी उपासना करना आचार्यभक्ति है।
(१२) बहुश्रुतभक्ति-वादशांगवाणीके ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठीकी भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति है।
(१३) प्रवचनमक्ति–परिणामोंकी निर्मलतापूर्वक प्रवचन-जिनागममें अनुराग रखना प्रवचनभक्ति है।
(१४) आवश्यकापरिहाणि षट् बावश्यक क्रियाओंको यथासमय करते रहना आवश्यकापरिहाणि भावना है।
(१५। मार्गप्रभावना-रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गको स्वयं जीवनमें उतारना और समयानुसार उपयोगी कार्यों द्वारा सर्वसाधारण जनताका उसके प्रति आदर उत्पन्न करना मार्गप्रभावना है।
(१६) प्रवचनवात्सल्य-साधर्मी प्राणियोंमें निष्कपट भावसे प्रेम करना, यथाशक्ति आदर-सत्कार करना एवं निष्काम मावसे उनकी सहायता करना प्रवचनवात्सल्य भावना है।
नन्दमुनि तीर्थकरनाभकर्मको कारणभूत इन सोलह प्रकारको भावनाओंका चिन्तन करता रहा, जिनके फलस्वरूप उसने तीर्थकरनामकर्मका बन्ध किया ।' १. एदेहि सोलोहि कारणेहि जीवो तित्ययरगामागोदं कम्मं बंधवि (षट्कण्डागम) ।
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उसने सोलह कारणभावनाओंको अपनी जीवनचर्या में अनुस्यूत कर लिया और समभावोंसे शरीर त्याग कर अच्युत स्वर्गके पुष्पोत्तर विमानमें बाईस सागरकी मायुवाले अच्युतेन्द्रका पद प्राप्त किया। यहाँसे च्युत हो वह तीर्थंकर महावीरका पद प्राप्त करेगा |
इस प्रकार महावीरके जीवने आत्मोन्नति के पथमें अनेक प्रकारसे उन्नति और अवनतिके नकोरोंको सहा । शारीरिक पूर्णताके साथ आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त हुई । इसमें सन्देह नहीं कि सोर्थंकर बनने के लिये एक जन्मकी साधना नगण्य है। इसके लिये कई जन्मों तक साधना या तपश्चर्या करनी पड़ती है । शिकारी पुरुरवाभीलकी पर्यायमें उन्हें अहिंसा और श्रमकी जो सम्पत्ति प्राप्त हुई, उसीके प्रभावके फलस्वरूप धर्मनेता बननेके हेतु उन्होंने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया ।
उत्तरपुराण में आचार्य गुगले लिखा है..
संप्राप्य धर्ममाकर्ण्य निर्णीताप्तागमार्थकः । संययं संप्रपद्यासु स्वीकृतंकादशाकः || भावयित्वा भवध्वंसि तीर्थकृनामकारणम् । बद्ध्वा तीर्थकरं नाम सहो च्चै गोत्रकर्मणा ॥
धर्मका स्वरूप सुनकर उसने आप्त, आगम तथा पदार्थका निर्णय किया और संयम धारण कर शीघ्र ही ग्यारह अंगोंका पाठी बन गया । उसने तीर्थंकरप्रकृतिका बंध होने में कारणभूत और संसारको नष्ट करनेवाली दर्शनविशुद्धयादि सोलह कारणभावनाओंका चिन्तनकर उच्चगोत्रके साथ तीर्थंकरप्रकृतिका बंध किया |
१. उत्तरपुराण, भारतीय ज्ञानपीठ - संस्करण, ७४ व पर्व, श्लोक २४४-२४५.
५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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तृतीय परिच्छेद समसामयिक परिस्थितियाँ, महान् विचारक एवं संप्रदाय
ई० पूर्व ६००-७०० में भारतमें ही नहीं विदेशोंमें भी जनक्रान्ति और धर्मक्रान्ति हुई थी। इस युगमें राजनीति, समाज और धर्मसंबन्धी मान्यताएँ परिवर्तित हो रही थीं। समस्त संसारके मानवका मस्तिष्क उद्विग्न था । फलतः धार्मिक अभ्युत्थानके हेतु चीन में लाओत्से और कन्फ्यूशियस एवं यूनान में सोक्रेटिज तथा प्लेटोने जनमानसको बदलनेका प्रयास किया था। प्रसिद्ध इतिहासकार एच० जी० वेल्सका अभिमस है कि ई० पूर्व छठी शताब्दी संसारके इतिहासमें महत्त्वपूर्ण काल है। इस शताब्दी में मनुष्यकी चेतना सर्वत्र रूढ़िवादी परम्पराओंको बदलनेके लिये क्रियाशील थी। प्रत्येक विचारक रूढ़ियों, बुराईयों और स्वार्थीका ध्वंसकर मानवताको नयी प्रतिष्ठा करनेके लिये प्रयत्नशील था। लिखा है-- (This sixth Century B, C. was indeed one of the most remarkable
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in all history. Everywhere rmen's minds were displaying a new boldness, Everywhere they were waking up out of the tradition of kingships and priests and blood sacrifices and asking the most penetrating questions, it is as if the race had reached a stage of addescence,"
इस उसरणसे स्प है कि पूर्व छठी शताब्दी में मनुष्य समाज में अशांति और असंतोष फैला हुआ था। धर्मसिद्धान्तोंके प्रति विश्वास परिवर्तित हो रहे मे | राजनीति और समाजमें भी यथेष्ट परिवर्तन हो रहे थे। उस समय भारतमें कहीं राजतन्त्र या, तो कहीं गणतन्त्र । कुछ अंशोंमें दोनोंका समन्वय भी प्राप्त होता था। गणराज्यों में शासनको बागडोर जनताके हाथमें रहती थी अतः जनप्ता राजाओं द्वारा शासित नहीं होती थी। बज्जी, मल्ल और शूरसेन आदि गणराज्य थे। राजतन्त्रमें वंशक्रमानुगत एक राजा शासक होता था, जिसकी आशाका पालन समस्त जनता करती थी। ऐसे राज्योंमें अवन्ति, वत्स, कोशल और मगध प्रधान थे। ये जनपद साम्राज्य-स्थापनाके लिये आपसमें संघर्षरत रहते थे। राजतन्त्र भी सर्वत्र एक ही तरहका था, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। मगषमें अहो राजा सर्वश्रेष्ठ था, वहीं सिन्धुमें राजा केवल युबमें नेतृत्व करता था और शासनकायं वृद्धजनोंकी परिषद् द्वारा सम्पन्न होता था ।
वैदिक युगमें आर्यसभ्यताके प्रतिनिधि निम्नोक नव राज्य थे :
(१) गंधार-सिन्धुके दोनों ओर विस्तृत राज्य-जिसकी राजधानियां पूर्वमें तक्षशिला और पश्चिममें पुष्कलायती नामक नगरियोंमें थीं। छांदोग्य उपनिषद् (६।१४) के अनुसार विचारक उहालक, आणि, गंधारसे परिचित थे। जातक (संख्या ३७७ एवं ४८७) के अनुसार आरुणि पिता-पुत्र दोनों तक्षशिलाके विद्यार्थी थे। यह राज्य पर्याप्त विस्तुस या ।
(२) केकय-यहाँक दार्शनिक राजा अश्वपति प्रसिद्ध थे। (३) मन्द्र आचार्य पतंजलिको यहींका निवासी माना गया है ।
(४) वशकुशीनर--मध्यदेशका उत्तरी भाग ; गोपथब्राह्मण (२२९) में इसे उदोन देश कहा है।
(५) मत्स्य-राजस्थानका भरतपुर, अलवर, धौलपुरके आस-पासका प्रदेश। यह विनाफा प्रसिद्ध स्थान रहा है ।
१. महावीर-जयन्ती-स्मारिका, जयपुर १९७३, ५० २७. ६० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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(६) कुरु | (७) पंचाल |
(८) काशी -- यहाँके दार्शनिक राजा अजातशत्रु प्रसिद्ध थे ।
(९) कोशल |
इन जनपदोंके अतिरिक्त मगध, अंग, आन्ध्र, पुलिन्द, पुण्ड्र और निषध जनपद भी प्रसिद्ध थे ।
भारतीय इतिहासके भालोडनसे अवगत होता है कि महाभारत के उपरान्त उत्तरभारत में वैदिक क्षत्रियोंने बारह राज्योंकी स्थापना की थी: - ( १ ) वत्स, (२) कुरु, (३) पांचाल, (४) शूरसेन, (५) कोसल, (६) काशी, (७) पूर्वविदेह, (८) मगध, (९) कलिंग, (१०) भवन्ति, (११) माहिष्मती और (१२) अश्मक ।
I
इन द्वादश राज्योंमें कुरु, पांचाल, कोशल, विदेह और काशी ये पाँच प्रमुख राज्य थे । ये सभी राज्य उस समय वेदानुयायी आर्य क्षत्रियोंके थे। इनके अतिरिक्त अवशिष्ट राज्य श्रमणोपासक क्षत्रियोंके थे, जो पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में अवस्थित थे ।
कहा जाता है कि हस्तिनापुर में कुरु और कुरुवंशियोंका राज्य स्थित था । अर्जुनका पौत्र परीक्षित उस राज्यका अवीश्वर था। इस समय नाग और द्रविड़ जातियाँ अपनी शक्ति बढ़ाने में लगी थीं तथा तक्षशिला और सिन्धुमुखकी पातालपुरी नाग विशेष शक्तिशाली हो गये थे । फलतः तक्षशिला के नागवंशी राजाओं ने कुरु राज्यपर आक्रमण किया और इस युद्धमें परीक्षितको मृत्यु हुई । परीक्षितके पुत्र जन्मेजयको भी नागोंसे युद्ध करते हुए अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा । जन्मेजय के पश्चात् शतानीक, अश्वमेषदत्त, और अघिसोमकृष्ण क्रमशः सिंहासनपर आसीन हुए । अधिसोमके समय में अयोध्या में दिवाकर, मगधमें प्रसेनजित, विदेह में जनक एवं पंजाब में प्रवाहण जेबालका प्रभाव वृद्धिगत हो रहा था । अघिसोमके पुत्र निचक्षुके समयमें नागों का आक्रमण विशेष प्रबल हुआ और हस्तिनापुर पर उनका अधिकार हो गया। इसी समय से हस्तिनापुरका नाम नागपुर या हस्तिनागपुर प्रचलित हुआ । सम्भवतः यह घटना ई० पूर्व ८ वीं ९ वीं शताब्दीकी है ।
इस युग में विदेह में भी राज्य क्रान्ति हुई और प्रजाने कहाँके कामी राजा कराल - जनकको समाप्त कर विदेहसे जनकोंकी राजसत्ताका अन्त कर दिया और वहाँ संघराज्यकी स्थापना हो गयी। उसी समय विदेह के पड़ोस में वैशाली के लिच्छवियोंका संघराज्य विकसित हो रहा था । अतः विदेहका संघराज्य
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भी इसी में सम्मिलित हो गया और फलस्वरूप सुप्रसिद्ध वृजि या वज्जिगणकी स्थापना हुई। ____ काशीमें जरग या नागवंशी क्षत्रियोंका राज्य स्थापित हुआ। इस वंशमें ब्रह्मदत्त नामका चक्रवर्ती सम्राट हुआ। काशीकी राजसत्ता बहुत बढ़ रही थी
और मध्यदेश में यह प्रमुख शासनशक्ति थी। कोशल भो इसके अधीन था तथा गोदावरीका तटवर्ती अश्मक राज्य भी इसी में सम्मिलित था। कहा जाता है-तीर्थकर पार्श्वनाथका जन्म इसी नागवंशमें हुआ था । ई० पू० ८वीं शतीमें मगधमें भी राज्यविप्लव हुआ और बार्हद्रयोंका पतन होनेके अनन्तर काशीनरेश शिशुनागको मगसवालोंने भामंत्रित किया और पगधः स राजवंशको प्रतिष्ठा हो गयी। इस प्रकार ई० पूर्व छठी शतोके लगभग महाभारतकालीन समस्त वैदिक राजसत्ताओंका अन्त हो गया और उनके स्थानपर नागादि विद्याघर, लिच्छवि, मल्ल, मौर्य आदि व्रात्य क्षत्रियोंने राजसत्ताएं स्थापित की।
डॉ० राधाकुमुद मुकर्जीने' अगुत्तरनिकायमें आये हुए सोलह जनपदोंकी सूची निम्नप्रकार प्रस्तुत की है :
(१) अग (२) मगध (३) कासी (४) कोसल (५) वज्यि (६) मल्ल (७) चेटि (चेदि) (८) वंस (वत्स)
(१०) पंचाल (११) मच्छ (मत्स्य) (१२) सूरसेन (१३) अस्सक (अश्मक) (१४) अवन्ति (१५) गंधार
(१६) कम्बोज १. हिन्दू सम्यता, हिम्बी-संस्करण, राजकमल प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, पृ० १७६. २. १।२१३, ४४२५२, ४।२५६, ४।२६०. ६२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इन जनपदोंमें सात जनपद प्रमुख थे :--
(१) कलिंग-राजषानो दंतपुर, (२) अस्सक-राजधानी पोतम, (३) अवन्ति–राजधानी माहिस्सति, (४) सौवीर--मुख्य नगर रोरुक, (५) विदेह-राजधानी मिथिला, (६) अंग-राजधानी चम्पा,
(७) काशी-राजधानी ताराणसी। भगवतीसूत्र में भी-अंग, बंग, मगह, मलय, मालव, अच्छ, वच्छ (वत्स), कोच्छ, पाढ़ (पुण्ड्र), लाढ़ (राढ़), वज्जि, मोलि (मल्ल), काशी, कोसल, अवाह, संमुत्तर इन सोलह जनपदोंके नाम प्राप्त होते हैं।
बंग–यह मगधके पूर्वमें था। इसकी राजधानो चम्पा थो। आधुनिक विहारके भागलपुरका चम्पानगर आज भी इसकी धरोहरके रूपमें सुरक्षित है। चम्पा उस समय भारतवर्षकी सबसे प्रसिद्ध नगरियोंमें थी । यह कला, संस्कृति, सभ्यता बोर व्यापारका केन्द्र थी । इस राज्यने विशेष उन्नति की, पर शनैः शनैः इसकी शक्तिका ह्रास आरम्भ हुआ। मगषसे सदा संघर्ष होता रहा और अन्तमें मगधने इस राज्यको पराजित कर अपनेमें मिला लिया ।
माष—मगषकी राजधानी राजगृह नगरी थी। उस समय राजगृहका वैभव बहुत ही प्रसिद्ध था। मगधमें पटना और गयाके आधुनिक जिले भी सम्मिलित थे। प्रागबुद्धकालमें बहद्रथ और जरासंघ यहाँके प्रमख शासक थे। बताया जाता है कि अंगके शासक ब्रह्मदत्त और अन्य राजाओंने मगधके राजाओंको परास्त किया था, पर अंतमें मगधको ही जीत हुई।
काशी--इसकी राजधानी वाराणसी थी, जो वरुणा और असी नदियोंके संगमपर बसी थी। यह नगरी बारह योजन विस्तृत बसलायी गयी है ! 'महाबग्ग में काशी देशका विस्तृत वर्णन माया है। वैभव, शिल्प, बुद्धि एवं ज्ञानके लिये यह राज्य प्रसिद्ध रहा है। कोशलराज्यके साथ इसका विशेष संघर्ष रहा है । काशीराज्यकी शक्ति इस संघर्षके कारण दिनानुदिन क्षीण होती गयी और अंतमें इसका पतन हो गया।
कोश-उत्तरप्रदेशके मध्यमें उत्तरकी ओर कोशल राज्य स्थित था। इसकी राजधानी श्रावस्ती थी । मयोध्याका महत्त्व उस समय तक घट गया था
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और श्रावस्तीका महत्त्व बढ़ता जा रहा था । काशीके साथ इसका संघर्ष बहुत दिनों तक चला और अंतमें काशीके अस्तित्वको समाप्त कर कोशल - राजाओंने अपने साम्राज्यका विस्तार किया । श्रावस्ती नगरीका व्यापार की दृष्टिसे बड़ा महत्त्व था । शाक्योंकी राजधानी कपिलवस्तु इसी कोशल राज्यके अंतर्गत थी ।
वृज्जि - यह आठ राज्यों का एक संघ था। जिसमें लिच्छवी, विदेह, और झाक ( नाथवंश) विशेष महत्व पूर्ण थे । ये सभी उत्तर-विहारमें थे। महावीर और बुद्धके समय तक बृज्जिसंघ विद्यमान था । पाणिनि और कौटिल्यने भी वृज्जियों किये हैं। वहीं पति भी और इस संघकी राजधानी वैशाली थी । उन दिनों वैशाली संस्कृति और सभ्यताका प्रधान केन्द्र थी । वृज्जिशासनमें प्रत्येक ग्रामका प्रमुख राजा कहलाता था । राज्यके सामूहिक कार्यका विचार एक परिषद्वारा होता था, जिसके वे सभी सदस्य होते थे ।
मल्ल - वृज्जियोंके पड़ोसी मल्ल थे और उनका भी गणराज्य था । ये लोग वृज्जिके पश्चिम और कोशलके पूर्व में थे । पावा और कुशीनगर इस राज्यके प्रमुख नगर थे । मल्ल दो भागोंमें विभक्त थे । एक भाग कुशीनगरमें रहता था और दूसरा पावामें । महाभारतमें मल्लके दोनों राज्योंका उल्लेख है ।
बि – आधुनिक बुन्देलखण्ड के अन्तर्गत यह राज्य था और इसकी राजधानी शक्तिमती थी । शिशुपाल यहींका राजा था ।
वत्स - काशीके पश्चिममें यह जनपद स्थित था। पुराणोके अनुसार राजा विचक्षुने यमुना नदी के तटपर अपने राजवंशकी स्थापना हस्तिनापुरके राज्यपतनके अनन्तर को थी। इसकी राजधानी कोशाम्बी थी। यह व्यापारिक मार्गपर स्थित था, इसलिये इसका विशेष महत्त्व था । अवन्तिके साथ इसका निरंतर संघर्ष चलता रहता था ।
कुछ - दिल्ली और मेरठके समीपवर्ती प्रदेशमें यह राज्य स्थित था और इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी । एक जातकके अनुसार इस राज्यमें तीनसी संघ थे । उत्तराध्ययनसूत्र में यहाँके इक्ष्वाकु नामक राजाका उल्लेख आया है। जातककथाओंमें सुतसोम, कौरव और धनजय यहाँके राजा माने गये हैं । प्रारम्भमें यहाँ राजतन्त्र था, तदनन्तर यहाँ गणतन्त्रको स्थापना हुई। यह धर्म और शील
प्रधान जनपद मा ।
पांचाल - कुरु और पांचाल मिलकर सम्भवतः एक राष्ट्र गिना जाता था । अतः कुरु राष्ट्रकी राजधानी कभी इन्द्रप्रस्थ, कभी काम्पिल्यनगर और कमी उत्तर
६४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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पांचालनगरमें अवस्थित रहती थी। पांचाल देश कोशल और वत्सके पश्चिम तमा चेदिके उत्तर था । कुरु इसके पश्चिम और व्रजभूमिके उत्तर था । ये दोनों प्राचीन जनपद थे, पर इनका महत्त्व घट रहा था। पांचाल जनपदकी दो शाखाएँ थीं :-उत्तरी और दक्षिणी । उत्तरी पांचालको राजधानी अहिच्छत्र और दक्षिणी पांचालको काम्पिल्य थी। आरम्भमें यहाँ राजतन्त्र था, परन्तु बादमें यहाँ गणतन्त्रको स्थापना हुई। ___ मत्स्य-आधुनिक अलवर, जयपुर और भरतपुर राज्योंकी भूमिपर यह स्थित था। इसकी राजधानी विराटनगरी थी। मत्स्य पहले तो चेदियोंके अधीन था, पर कुछ समय बाद मगधके अधीन हो गया।
शूरसेन-कुरुके दक्षिण और चेदिके पश्चिमोत्तर यमुनाके दाहिने शूरसेनोंका राज्य था। इस जनपदको मथुरा राजधानी थी। पहले यहां गणतन्त्र था, बादमें यहाँ राजतन्त्र हुआ।
वश्मक- यह राज्य गोदावरीके तटपर स्थित था। इसकी राजधानी पाटेली (पोतन) थी। इस राज्यके राजा इक्ष्वाकुवंशके थे। इनका अवन्तीके साथ निरन्तर संघर्ष चलता रहता था । शनैः शनैः यह राज्य अवन्तीके अधीन हो गया। ___ अवन्ती-आधुनिक मालवा प्रान्त ही प्राचीन अबन्तीका राज्य है । उत्तरी अवन्तीकी राजधानी उज्जयिनी और दक्षिणी अवन्तीकी राजधानी माहिष्मती थी । प्राचीनकालमें यहाँ हैहय वंशका शासन था।
गान्धार-यह आधुनिक अफगानिस्तानका पूर्वी भाग था। यह पश्चिमी पंजाब और काश्मीर तक विस्तृत था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। अवन्ती और गान्धारके बीच कई बार युद्ध हुए थे। मगधराज बिम्बसारका भी इस राज्यके साथ मित्रताका सम्बन्ध था। तक्षशिलामें एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था, जिसके कारण गान्धार विख्यात था ।
कम्बोज-गान्धार काश्मीरके उत्तर आधुनिक पामीरका पठार तथा उसके पश्चिम वरखूशाम प्रदेश, कम्बोज महाजनपद कहलाता था। हाटक या राजपुर इस राज्यको राजधानी थी।
इन सोलह जनपदोंके अतिरिक्त भी उस समय भारतवर्ष में कई छोटे-छोटे राष्ट्र थे । गान्धार-कुरु तथा मरस्यके बीच केकय, मद्रक, त्रिगतं, यौधेय आदि तथा उनके पश्चिम और दक्षिण-पश्चिममें सिन्धु, शिवि, अम्बष्ठ, सौवीर आदि राष्ट्र थे । सोलह महाजनपदोंमेंसे गान्धार-कम्बोजका युगल तो एक ओर था; किन्तु अवशिष्ट साप्त युगलके प्रदेश लगातार एक दूसरेसे लगे हुए थे। इनकी पूर्वी सीमा अंग और कलिंग तथा दक्षिणी सीमा अश्मक थी । इस युगके भारतके
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अन्तर्गत केन्द्रीयकरणकी भावनाके स्थानपर विकेन्द्रीयकरण की भावना विशेष रूपसे विद्यमान थी। भारत कई छोटे-छोटे राज्योंमें विभक्त था और कोई भी राज्य इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह भारतभूमिमें स्थित अन्य राज्योंको अपने अधिकारमें करके एक शक्तिशाली केन्द्रीय राज्यको स्थापना करने में सफल होता । सोलह महाजनपदोंकी यह व्यवस्था भी अधिक दिनों तक न रह सकी; क्योंकि कई जनपद दूसरे जनपदोंको निगलकर अपना कलेवर बढ़ाने में संलग्न थे ।
अंग और मगधमें संघर्ष चलता रहा । इसी प्रकार काशी और कोशल भी संघर्षरत रहे । संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में समस्त उत्तर भारतके राज्योंमें आधिपत्य के लिये जो संघर्ष चल रहा था, उसमें मुख्यरूपसे कोशल, ल, अवन्ती और मनव शासकगण सक्रिय रूपसे भाग ले रहे थे । सभी अपने-अपने अस्तित्वको सुदृढ़ बनाने में लगे हुए थे और अपनेअपने राज्यके नेतृत्वमें एक संगठित साम्राज्यकी स्थापना करना चाहते थे । बिम्बसार, प्रसेनजित, चण्डप्रद्योत एवं वत्सराज उदयन प्रबल शासक थे और अपने-अपने क्षेत्रोंके विस्तार में संलग्न थे । इस लम्बे संघर्ष से ही भारतवर्ष में इतिहासका एक नया अध्याय आरम्भ होता है. जिसमें मगध और वैशालीका उत्कर्ष - अपकर्षं दिखलाई पड़ता है। तीर्थंकर महावीरके जन्म के समय देशकी राजनीतिक स्थिति विशृंखलित सी हो रही थी । राजतन्त्र और गणतन्त्र दोनों ही समानान्तर रूप में विकसित हो रहे थे। पर राजतन्त्रका अस्तित्व शनैः शनैः सुदृढ़ होता जा रहा था और यह गणतन्त्र-व्यवस्थाको ध्वस्त करना चाहता था ।
बौद्ध साहित्य में दस गणराज्योंका उल्लेख प्राप्त होता है । इनमें कपिलवस्तु के शाक्य और वैशालीके लिच्छवि प्रधान थे । शाक्य गणराज्य जनतन्त्रात्मक पद्धतिपर शासित होता था । शासन की बागडोर जनता के हाथोंमें थी और राजसत्ता अस्सी हजार कुलोन परिवारोंके हाथोंमें थी । राजाका निर्वाचन होता था और निर्वाचनके पश्चात् राजा राष्ट्रपति के रूपमें कार्य करता था। राज्य संचालनके लिये एक परिषद्का निर्माण किया जाता था, जो परामर्शदातृपरिषद्के रूपमें कार्य करती थी । कोई कार्य इस परिषद्की सम्मतिके बिना नहीं होता था। राज्यका प्रत्येक नागरिक राष्ट्रका सेवक माना जाता था । परिषद्को संथागार कहा जाता था । ललितविस्तर में शाक्य - राज्य के सदस्योंकी संख्या पाँच सौ बतलायी गयी है ।
वैशाली में लिच्छवि-गणराज्यं स्थापित था, जिसके सदस्योंकी संख्या सात ६६ खोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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हजार सात सौ सात थी । प्रतिनिधिसभाको संथागार कहा जाता था। यह राज्यकी व्यवस्थापिका सभा होती थी ।
लिच्छवि, विदेह और अन्य छ : राज्योंको मिलाकर एक संघ बना हुआ था, जिसे वज्जिसंघ कहते थे । वज्जिसंघकी शासन व्यवस्था सम्बन्धी निम्नलिखित विशेषताएं थीं :
१. वज्जिसंघकी अनेक सभाएं थीं, जिनके अधिवेशन प्रायः हुआ करते थे । २. वज्जिसंघके लोग परस्पर मिलकर राजकीय कार्योंको सम्हालते थे, एक होकर बैठक करते और अपनी तथा संघकी उन्नति के लिये प्रयास करते ।
३. ये अपने संघके परम्परागत नियमों और व्यवहारोंके पालने में सावधान रहते थे और संघद्वारा प्रतिपादित एवं विहित व्यवस्थाका अनुसरण करते थे ।
४. इनका शासन वृद्धोंके हाथोंमें था, जिनका ये लोग आदर करते थे और जिनकी बातोंको ध्यानपूर्वक सुनते-समझते थे ।
कुशीनारा और पावामें मल्लोंका गणतन्त्र स्थापित था । इसमें आठ प्रमुख व्यक्ति रहते थे और शासनका समस्त कार्य संथागार द्वारा किये गये निर्णयोंके आधारपर सम्पादित होता था ।
इस प्रकार तीर्थंकर महावीरके समयमें देशकी शासन व्यवस्था एक और गणराज्योंकी लोकतन्त्रात्मक पद्धतिपर आधारित थी और दूसरी ओर राजतन्त्रव्यवस्था स्वतन्त्ररूपसे विकसित हो रही थी । गणतन्त्रोंमें पारस्परिक ईर्ष्याद्वेष एवं दलबन्दियों विद्यमान थीं ।
आर्थिक स्थिति
:
तीर्थंकर महावीरके समयमें भारत में अर्थ संकट नहीं था । उस समयका भारत आजसे कहीं अधिक सम्पन्न और सुखी दृष्टिगोचर होता है। तत्कालीन जैन और बौद्ध साहित्य में आर्थिक समृद्धिके पर्याप्त चित्रण प्राप्त होते हैं ।
पाणिनिकी अष्टाध्यायी, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में उन्नत आर्थिक जीवन सम्बन्धी सामग्री प्राप्त होती है। जनपदोंमें समृद्ध होनेवाले विभिन्न शिल्प या देशोंके लिये जानपदीयवृत्ति (४|१|४२ ) शब्द उपलब्ध होता है । कुछ व्यक्ति वेतनसे भी आजीविका उपार्जन करते थे और कुछ शासन में कार्य करते थे । सरकारी श्रेणीमें कार्य करनेवाले अध्यक्ष और युक्त कहलाते थे। शस्त्रोपजीवी व्यक्तियों का भी निर्देश प्राप्त होता है । भूत्ति या पारिश्रमिक लेकर काम करने
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वाले कर्मकार मजदूरोंका भी अस्तित्व विद्यमान था । कर्मकारोंको पारिश्रमिक नगम जाता था !
सामग्री
क्रय-विक्रय से सूचित व्यापार और दुकानदारीका उल्लेख आया है । इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि उस युगमें व्याजपर ऋण लेनेकी प्रथा भी विद्यमान थी । ऋण जिस मासमें देय होता था, उसके आधारपर ऋणका नाम पड़ता था । अष्टाध्यायी में अगहन या भागशीर्ष में देय ऋणको आग्रहायणिक और संवत्सर के अन्त में देय ऋणको सांवत्सरिक कहा गया है ।
कृषि सम्बन्धी शब्दावली में 'हल' या उसका पर्याय 'सीर' शब्द प्रचलित थे । जुताई और बोआईकी विधियोंका भी उल्लेख आया है। फसलोंका नामकरण उस महोने के नामसे होता था, जिसमें वे बोयी जाती थीं। खेतोंके नाम उनमें बोये जानेवाले धान्योंके नामसे रखे जाते थे । व्रीहि, शालि, जो, साठी, तिल, उड़द, अलसी एवं सन आदि धान्य बोये जाते थे । अनाज भरनेवाले थैलेका नाम गोणी और ढरकीका प्रवाणि नाम आये हैं। कुम्हार, चर्मकार, रंगसाज और सूती तथा रेशमी वस्त्र बुननेवाले बुनकर भी उस समय समाज में विद्यमान थे ।
महाभारतके अध्ययनसे भी उस समयकी आर्थिक समृद्धिका परिज्ञान प्राप्त होता है। नागरिक और ग्रामीण दोनों प्रकारके जीवनका परिचय प्राप्त होता है । घर मिट्टी, ईंट, पत्थर और लकड़ीसे बनाये जाते थे । मकानोंके बीचमें सड़क एवं गलियां रहती थीं। भवन और प्रासाद कई मंजिलोंके बनाये जाते थे । ग्रामोंके बाहर मंदिर एवं चेत्य बनवाने की प्रथा थी । कृषिके सम्बन्धमें विशेष उन्नति हुई थी । बौज, भूमिके मेद एवं मिट्टीके गुणोंका परिचय ज्ञात था। सिंचाईकी व्यवस्था भी विद्यमान थी । बाढयुक्त क्षेत्र केदार कहलाते थे। कपास, जौ, गेहूं, चावल, मूँग, तिल, उड़द, गन्ना एवं शाक आदि पर्याप्त मात्रामें उत्पन्न होते थे । ग्राम्य पशुओं में गाय, भैंस, भेड़, बकरी, अश्व, गज आदिको गणना की जाती थी। गो-पालन, दुग्धोत्पत्ति, घृत-निर्माण एवं विभिन्न प्रकार के मिष्टान्न निर्माण भी प्रचलित थे । सुनार, लुहार, रंगरेज, तेली, धोबी, दर्जी, तन्तुवाय, कुम्हार, चर्मकार आदि विभिन्न प्रकारके पेशे करनेवाले व्यक्ति विद्यमान थे ।
नगद लेन-देन और वस्तुओंकी अदला-बदलो दोनों ही प्रकारको प्रथाएँ प्रचलित थीं । राज्य व्यापारियोंसे परामर्श करके आयात-निर्यात, भड़सालको अवधि, मालको माँग एवं उसको उपलब्धिके आधारपर वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करता था । व्यापारियोंके सामूहिक गठन विद्यमान थे, जो क्रय
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विक्रय और उसके व्यवहारोंका नियम निर्धारण करते थे । व्यापारमार्ग बनकान्तार, जलीय-प्रदेश और अरण्योंमें होते हुए जाते थे | माल पशु और गाड़ियोपर ढोया जाता था । नदीका यातायात नावोंसे होता था, जिसका तर्पण्य दूरी और स्थानीय दरके हिसाबसे तय किया जाता था। समुद्री यातायातके लिये दर निश्चित नहीं था। नौसंचार-सम्बन्धी असावधानीके कारण होनेवाली क्षतिको पूर्ति नौ या प्रवहणके स्वामीको करनी पड़ती थी ! इस अध्ययनसे ऐसा भी ज्ञात होता है कि उस समय बीमेका भो प्रबन्ध प्रचलित था ।
निर्यात वाणिज्यका नियमन राज्यकी ओरसे होता था। जिस मालमें राजाका एकाधिकार था या जिसका निर्गम वर्जित था, उसका निर्यात करनेवाले व्यापारीको सम्पत्ति जब्त कर ली जातीर्थ।। प्राच्य देशमें हाथी, काश्मीरमें केसर, रेशम एवं ऊनी वस्त्र, पश्चिमी देशोंमें अश्व, दक्षिणमें रत्न एवं मोती आदिका निर्यात सीमित था ।
वाणिज्यपर शुल्क भी लिया जाता था । क्रय-विक्रयके भाव माल लाने, ले जानेको दूरी, मुख्य और गोण मूल्य एवं मार्ग में शंकास्थलोंका विचार कर शुल्काध्यक्ष शुल्कोंको दर निश्चित करते थे। राज्यकी ओरसे नदियोंपर उतराईके घाटोंका भी प्रबन्ध था। यहाँ शुल्ककी दर निश्चित थी। महावीरके समयमें स्वर्ण, रजत एवं ताम्रकी मुद्राए भी प्रचलित थीं। पण, अद्धपण, पादपण, अष्टभागपण, रोप्यमाषक, धरण आदि सिक्के प्रचलित थे। स्वर्ण और रजतके निष्कोंका भी व्यवहार होता था। इस प्रकार महावीरके समयका भारत आर्थिक दष्टिसे पूर्ण समृद्ध था । अन्न और वस्त्रकी कमी उस समय किसीके समक्ष नहीं थी। ग्राम और नगर अपनी-अपनी आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिये समर्थ थे। कृषिसे अन्न, करघेसे वस्त्र, शिल्पियोंसे विलास-सामग्री एवं पशुओंसे दुग्ध और वाहनके कार्य सम्पन्न किये जाते थे । देशका व्यापार मिश्र, यूनान, चीन, फारस एवं सिंहल तक व्याप्त था | आमोद-प्रमोदकी सामग्रियोंका भी बाहुल्य था । कूप, वापी, स्नानागार, सभागृह, नाटयशाला आदिकी भी कमी नहीं थी। सामाजिक स्थिति
महावीरके समयका समाज वैदिककालीन समाजकी अपेक्षा टूट रहा था । समाजमें शिक्षाका प्रचार तो अवश्य था, पर उसकी सीमाएँ निश्चित थीं । स्त्री
और शूद्रोंको वेदाध्ययनके अधिकारसे वंचित किया गया था । ऋग्वेदकालमें जिस जातिप्रथाका प्रचार हुआ वह सूत्रकालमें आकर अधिक सुदृढ़ हो गयी। ऋग्वेदमें अन्तर्जातीय विवाहका निषेध केवल भाई-बहन या पिता-पुरीके व्य•
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भिचारके विरोध में ही था । शतपथ ब्राह्मण में विवाह सम्बन्धी यह प्रतिषेध रक्त-सम्बन्धकी तृतीय या चतुर्थं पीढ़ी तक समाविष्ट हो गया । ब्राह्मण एवं क्षत्रिय अपनेसे हीन वर्णकी कन्या के साथ विवाह कर सकते थे । जाति-पाँति व्यवस्था दिनोदिन संकीर्ण होती जा रही थी। ब्राह्मणका प्रभुत्व पर्याप्त विकसित हो गया था । क्षत्रिय भूमिके स्वामी माने जाते थे। वेश्योंका कार्य कृषि एवं वाणिज्य द्वारा धनार्जन करना था तथा शूद्र सेवा द्वारा ही अपना उदर-पोषण करते थे । समाजके संचालनका दायित्व उच्च वर्गके व्यक्तियोंके हाथमें था और वे चाहें जैसे भी समाजपर अत्याचार और नाचार कर सकते थे |
उस समय वैदिक और श्रमण दोनों हो सामाजिक संगठनमें भाग ले रहे थे । विष होने लगी थीं, जिनके फलस्वरूप विभिन्न वर्णके व्यक्ति अपने वर्णके विरुद्ध कार्य करने लगे थे । नाग, द्रविड़ आदि जातियाँ वैदिक क्षत्रिय - राजसत्ताओं का सामना करने लगी थीं ।
शनैः शनैः पुरानी राजसत्ताओंके स्थानपर व्रात्य एवं क्षात्र बन्धुओंकी राजसत्ताएँ स्थापित होने लगी थीं। ब्राह्मण परम्पराको अनुश्रुतियों में लिच्छवि, मल्ल, मोरीय आदि जातियोंको व्रात्य बताया गया है। शिशुनागवंशको भी क्षत्रिय नहीं, अपितु क्षात्र बन्धु कहा गया है । ' व्रात्य' शब्द अथर्ववेद में भी आया है । यह श्रमण परम्परासे सम्बन्धित है । यह शब्द अर्वाचीन काल में आचार और संस्कारोंसे हीन मानवोंके लिये व्यवहृत होता रहा है । आचार्य हेमचन्द्रने अपने 'अभिधानचिन्तामणि कोश' में - " प्रात्यः संस्कारवर्जितः । व्रते साधुः कालो व्रात्यः । तत्र भवो व्रात्यः प्रायश्चित्तार्हः, संस्कारोऽत्र उपनयनं तेन वर्जितः ' लिखा है ।
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मनुस्मृतिमें बताया है-- क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त करनेपर भी असंस्कृत हैं। क्योंकि वे व्रात्य हैं और वे आर्यों द्वारा गर्हणीय हैं । ब्राह्मण संतति, उपनयन आदि व्रतोंसे रहित होने के कारण व्रात्य शब्द द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है। इस प्रकार अर्वाचीन उल्लेखोंमें व्रात्यका अर्थ आचारहीन बतलाया गया है, पर प्राचीन ग्रन्थोंमें व्रात्यका अर्थ विद्वत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्वसम्मान्य व्यक्ति के अर्थ में आया है। अथर्ववेद में लिखा है
१. अभिधानचिन्तामणिकोष, २०५१८.
२. द्विजातयः सवर्णासु जनयन्स्यव्रतांस्तु ताम् । तान् सावित्री-परिभ्रष्टान् बाह्यानिति विनिदिशेत् ॥
- मनुस्मृति १०/२०
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कञ्चिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसंमान्यम् । ब्राह्मणविशिष्टं व्रात्यमनुलक्ष्यवचनमिति मन्तव्यम् ।।
व्रात्यकाण्डको भूमिका में आचार्य सायणने लिखा है - " उपनयन आदिसे हीन मानव व्रात्य कहलाता है। ऐसे मानवको वैदिक कृत्योंके लिये अनधिकारी और सामान्यतः पतित माना जाता है। परन्तु कोई व्रात्य ऐसा हो, जो विद्वान् और तपस्वी हो, ब्राह्मण भले ही उससे द्वेष करें, पर वह सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्माके तुल्य होगा ।"
उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि अथर्ववेदका व्रात्यकाण्ड किसी ब्राह्मणेतर परम्परासे सम्बद्ध है । यह परम्परा श्रमणोंकी हो सकती है । प्रात्य शब्दका मूल व्रत है । व्रतका अर्थ धार्मिक संकल्प और संकल्पोंमें जो साधु है, कुशल है, वह व्रात्य है। डॉ० हेवरने ब्रात्य शब्दका विश्लेषण करते हुए लिखा है -- "वात्यका अर्थ व्रतोंमें दीक्षित है। अर्थात् जिसने आत्मानुशासनको दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक व्रत स्वीकार किये हैं, वह ज्ञात्य है ।"
अतएव स्पष्ट है कि व्रतोंकी परम्परा श्रमण संस्कृतिको मौलिक देन है 1 वेद, ब्राह्मण और आरण्यक साहित्य में कहीं भी व्रतोंका उल्लेख नहीं है । डॉ० कीथ, मैकडोनल आदिने भी व्रतोंमें दीक्षित व्यक्तियोंको व्रात्य कहा है । इस प्रकार प्राचीन कालमें व्रात्य शब्दका प्रयोग श्रमण-संस्कृति के अनुयायियों के लिये प्रयुक्त होता था। डॉ० ज्योतिप्रसादजीने प्रो० जयचन्द्र विद्यालंकार का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है - " क्षात्रबन्धु शब्दका प्रयोग हीनताका भाव सूचित करनेके लिये किया गया है। क्योंकि वे व्रात्य लोगोंके क्षत्रिय थे और व्रात्य वे आयंजातियाँ थीं, जो मध्यदेश के पूर्व या उत्तर-पश्चिममें रहती थीं । वे मध्यदेशके कुलीन ब्राह्मण क्षत्रियोंके आचारका अनुसरण नहीं करती थीं । उनकी शिक्षा-दीक्षाको भाषा प्राकृत थी और वेश-भूषा आर्योकी दृष्टिसे परिष्कृत न थी । वे मध्यदेशके ब्राह्मणोंके संस्कार न करते थे और ब्राह्मणों के बजाय अरहन्तोंको मानते थे तथा चेतियों (चैत्यों) की पूजा करते थे । *"
वस्तुतः महावीर के पूर्व सामाजिक क्रान्ति परिलक्षित होने लगी थी और १. अथर्ववेद १५।१।१।१.
२. वही, १५।१।११.
3. Vratya as initiated in varatas. Hence vratyas meaus a person who has volmitanly accepted the moral code of vows for his own spiritual discipline-By Dr. Hebar.
४. भारतीय इतिहास : एक दृष्टि, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण, पृ० ३९.
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वैदिक आर्योंकी शुद्ध संतति समाप्त हो रही थी। रमिश्रण, सांस्कृतिक आदानप्रदान एवं धर्म-परिवर्तनादिके कारण नवीन भारतीय जातियो उदय में आ रही थीं। आर्य और धड़ामें भी सा मिश्रण हो रहा था और परस्सर जातीय भेद-भाव टूटता जा रहा था। व्यवसायकर्मके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शद्र इन चार वर्षों में समस्त भारतीय समाज विभक्त हो रहा था। क्षात्रधर्म पालन करनेवाले आर्य-व्रात्य, नाग और द्रविड सभी क्षत्रिय कहलाते थे । इतना होनेपर भी वैदिक संस्कार इतने सुदृढ़ और सुगठित थे कि उनमें सामान्यतया कोई परिवर्तन दिखलायो नहीं पड़ता था । वेदानुयायी ब्राह्मण 'अहंदश' अपनेको सर्वश्रेष्ठ, पवित्र और क्रियाकाण्डका अधिकारी मानता था । वैदिक धर्म और मान्यताएं इतनी जटिल और आडम्बरपूर्ण हो गयी थीं कि उनकी लोकग्राह्यता समाप्तिपर थी। वर्णाश्रमधर्म समाजपर छाया हुआ था । यद्यपि इसके विरोधमें क्रान्तिकी ध्वनि गूंज रही थी, पर इस प्रथाके विरोधमें खड़े होनेको क्षमता किसी व्यक्तिविशेषमें अवशिष्ट नहीं थी। धार्मिक स्थिति :
ई० पू० ६०० के आस-पास भारतको धामिक स्थिति भी बहुत हो अस्थिर और भ्रान्त थो। एक ओर यज्ञीय कर्मकाण्ड और दूसरी ओर कतिपय विचारक अपने सिद्धान्तोंकी स्थापना द्वारा जनताको संदेश दे रहे थे । चारों ओर हिंसा, असत्य, शोषण, अनाचर एवं नारीके प्रति किये जानेवाले जोर-जुल्म अपना नग्न ताण्डव प्रस्तुत कर रहे थे। धर्मके नामपर मानव अपनी विकृतियोंका दास बना हुआ था । वैयक्तिक स्वातंत्र्य समाप्त हो चुका था और मानवके अधिकार तानाशाहों द्वारा समाप्त किये जा रहे थे । मानवता कराह रही थी और उसकी गरिमा खण्डित हो चुकी थी। धर्म राजनीतिका एक भोंथा हथियार मात्र रह गया था। भय और आतंकके कारण जनता धार्मिक क्रियाकाण्डका पालन करती थी, पर श्रद्धा और आस्था उसके हृदयमें अवशिष्ट नहीं थी। स्वार्थलोलुप धर्मगुरु और धर्माचार्य धर्मके ठेकेदार बन बैठे थे। मानवकी अन्तश्चेतना मूर्छित हो रही थी और दासताको वृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जाती थी।
दिग्भ्रान्त मानवका मन भटक रहा था और कहीं भी उसे शानका आलोक प्राप्त नहीं हो रहा था । नारीको सामाजिक स्थिति भयावह थी। उसका अपहरण किया जा रहा था। कोई उसे बेड़ियोंमें जकड़ता और कोई उसे तलघरोंमें बन्द करता था। फलत: नारोका नारीत्व ही नहीं अपितु समस्त मानवसमाज अन्धकारमें भटक रहा था और सभीको दृष्टि उद्धारके हेतु किसी महाशक्तिकी प्रतीक्षामें लगी हुई थी। ७२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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निरीह पशुओंका निर्मम बध किया जा रहा था । पशुमेध ही नहीं नरमेध भी किये जा रहे थे। भीषण रक्तपात विद्यमान था। अग्निकुण्डोंसे चीत्कारकी ध्वनि कर्णगोचर हो रही थी। वर्वरता और अमनुष्यताका नग्न ताण्डव वर्तमान था । मनुष्य मनुष्य के द्वारा होनेवाले निर्लज्ज शोषणका इतिहास बना हुआ था। तीर्थकर पाश्वनाथके पश्चात् यज्ञीय क्रियाकाण्डोंने मानवताको संत्रस्त कर दिया था। आलोककी धर्मरेखा धुंधली होती जा रही थी और जीवनका अभिशाप दिनानुदिन बोझिल हो रहा था।
अनेक व्यक्ति अपनेको तीर्थकर कहने लगे थे और ये व्यक्ति भी मानवताके असमर्थ थे। कोई कहता था कि भौतिकता ही जीवनका चरम लक्ष्य है, कोई प्राणमें कहता था कि अक्रिया ही धर्म है और कोई अकर्मण्यताको ही धर्म घोषित करता था। क्षणिकवाद, नित्यवाद, नियतिवाद आदि सिद्धान्त दिग्भ्रान्त मानवको शान्ति प्रदान करने में असमर्थ थे। स्वर्ग, नरक बिक रहे थे और धनिकवर्ग लम्बी-लम्बी रकमें देकर अपना स्थान सुरक्षित करा रहा था । धर्म और दर्शनके क्षेत्रमें पूर्णतया अराजकता विद्यमान था। अव्यवस्था, औद्धत्थ, अहकार, अज्ञानता और स्वैराचारने धर्मकी पावनताको खण्डित करदिया था। वर्गस्वार्थकी दूषित भावनाओंने मानवताको धूमिल कर दिया था। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और मैत्री जैसी उदात्त भावनाएँ खतरेमें थीं। सदियका स्थान वर्णोदयने प्राप्त कर लिया था और धर्म एक व्यापार बन गया था। उस समयके विचारकोंमें पूर्णकाश्यप, मक्खली गोशालक, अजितकेशकम्बल, प्राद्ध कात्यायन, संजय बेलट्टिपुत्र और गौतम बुद्ध प्रमुख थे । 'दोनिकाय'के 'समनफलसुत्त में निग्रंथ ज्ञातपुत्र महावीर सहित सात धर्मनायकोंकी चर्चा प्राप्त होती है। हम यहाँ उस समयके धर्मनायकोंकी प्रमुख मान्यताओंका विवेचन कर उस समयकी धार्मिक स्थितिका स्पष्टीकरण प्रस्तुत करेंगे। अक्रियावाद-प्रवर्तक : पूर्णकाश्यप
पूर्णकाश्यप अक्रियावादके समर्थक थे । अनुभवोंसे परिपूर्ण मानकर जनता इन्हें पूर्ण कहती थी। ये जातिस ब्राह्मण थे और काश्यप इनका गोत्र था । ये नग्न रहते थे और अस्सी हजार इनके अनुयायी थे। एक बौद्ध-किंवदन्तीके अनुसार यह एक प्रतिष्ठित गृहस्थ के पुत्र थे । एक दिन इनके स्वामीने इन्हें द्वारपालका काम सौंपा। पूर्णकाश्यपने इसे अपना अपमान समझा और विरक्त होकर अरण्यकी ओर चल पड़े। मार्गमें चोरों ने इनके कपड़े छीन लिये, तबसे ये नग्न रहने लगे। एक बार जब ये किसी ग्राममें गये, तो लोगोंने इन्हें पहनने के लिये वस्त्र दिया । पूर्णकाश्यपने वस्त्र वापस करते हुए कहा--"वस्त्रका प्रयोजन लज्जा-निवारण
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है और लज्जाका मूल पापमय प्रवृत्ति है। मैं तो पापमय प्रवृत्तिसे दूर हूं । अतः मुझे वस्त्रोंकी क्या आवश्यकता है" पूर्णकाश्यपको निस्पृहता और असंगता देखकर जनता उनको अनुयायी होने लगो ।
यतः पूर्णकाश्यप अक्रियावादके प्रवर्तक थे, अतः उनका अभिमतथा-"अगर कोई कुछ करे या कराये, काटे या कटाये, कष्ट दे या दिलाये, शोक करे या कराये, किसीको कुछ दुःस्त्र हो या कोई दे, डर लगे या डराये, प्राणियोंको मार डाले, चोरी करे, घरमें सेंध लगाये, डाका डाले, एक ही मकान पर धावा बोल दे, बटमारी करे, परदार-गमन करे या असत्य बोले तो भी उसे पाप नहीं लगता। तीक्ष्ण धारवाले चकसे यदि कोई इस संसारके पशओंके मांसका बड़ा ढेर लगा दे तो भी उसमें बिलकुल पाप नहीं है, उसमें कोई दोष नहीं है। गंगा नदीके दक्षिणी किनारे पर जाकर यदि कोई अनेक दान करे या करवाये, यश करे या करवाये, तो भी उसमें कोई पुण्य नहीं मिलता। दान, धर्म, संयम और सत्यभाषणसे पुण्यकी प्राप्ति नहीं होती।"२
उपर्युक्त उद्धरणसे निम्नलिखित निष्कर्ष प्रस्तुत होते हैं(१) क्रिया करने पर भी पाप और पुण्यसे अलिप्त रहना । (२) क्रिया सम्यक् और मिथ्यात्वका भेद-भाव नहीं। (३) क्रिया करनेकी प्रवृत्ति स्वाभाविक है, इससे जीव बन्धको प्राप्त नहीं
होता। (४) मन-वचन-कायः कृत, कारित और अनुमोदनामें तरतमभावका अभाव | (५) क्रियाका सम्पादन नैसगिक है और निसर्ग बन्धका कारण नहीं है।
अतएव क्रियाके प्रति निस्पृहता। नियतिवाद-प्रवर्तक मक्खलि गोशालक ___ मक्खलि गोशालक नियतिवादका प्रवर्तक था । मक्खलि उसके पिताका नाम था । इसी कारण वह मक्खलिपुत्र कहलाता था। गोशालकका जीवनवृत्त बौद्ध साहित्य के साथ भगवतीसूत्र, उवासगदसा आदि ग्रन्थोंमें भी पाया जाता है। कहा जाता है कि मक्खलिको भद्रा नामक पत्नी थी। वह सुन्दरी और सुकुमारी थी। एकबार वह गर्भिणी हुई। शरवण प्राममें गोबहुल नामक ब्राह्मण रहता १. बौखपर्व (मराठी) प्र० १०, पृ० १२७ तथा आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन,
२. आगम और विपिटक : एक अनुशीलन, पृ० ५. ७४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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था। यह धनिक तथा ऋग्वेदादिक ग्रन्थोंमें निपुण था । गोबहुलकी एक गोशाला थी। एक बार मंक्खलि भिक्षार्थं हाथमें चित्रपट लेकर गर्भवती भद्रा के साथ ग्रामानुग्राम विचरण करता हुआ शरवण सनिवेश में आया । उसने गोबहुलकी गोशाला में अपना समान रखा और भिक्षार्थ ग्राम में चला गया। उसने ग्राम में निवास योग्य स्थानकी खोज की, पर उसे कोई उपयुक्त स्थान नहीं मिला 1 फलतः उसने गोशाला के एक भाग में चातुर्मास व्यतीत करनेका निश्चय किया | नौ मास साढ़े सात दिन व्यतीत होनेपर मंक्खलिकी पत्नी भद्राने एक सुन्दर और सुकुमार बालकको जन्म दिया। बारहवें दिन माता-पिताने गोशालामें जन्म लेने के कारण शिशुका नाम गोशालक रखा । क्रमशः गोशालक बड़ा हुआ और शिक्षा प्राप्तकर प्रतिभासम्पन्न बना । गोशालकने भी स्वतंत्र रूप से चित्रपट हाथमें लेकर अपनी आजीविका सम्पादित करना आरम्भ किया । गोशालक तीर्थंकर महावीरके सम्पर्क में भी आया और पृथक् सम्प्रदाय की स्थापनाको कामना से अलग हो गया |
गोचालकको अष्टतिगिता परिज्ञान या वतः वह जनताको लाभअलाभ, सुख-दुःख और जीवन-मरणके विषयमें उत्तर देता था। इस अष्टांगनिमित्तज्ञानके बलपर ही उसने अपनेको जिन केवली, सर्वज्ञ आदिके रूपमें घोषित किया था । गोशालक द्वारा प्रवर्तित सिद्धान्त नियतिवाद है । इस सिद्धान्तका अभिप्राय यह है - " अपवित्रता के लिये कोई कारण नहीं होता, कारणके बिना ही प्राणी अपवित्र होते हैं । प्राणीको शद्धिके लिये भी कोई हेतु नहीं होता, कोई कारण नहीं होता । हेतुके बिना, कारणके बिना प्राणी शुद्ध होते हैं | अपने सामर्थ्य से कुछ नहीं होता और न दुसरेके सामर्थ्य से कुछ होता है । पुरुषार्थसे भी कुछ नहीं होता है। किसीमें बल नहीं, वीर्य नहीं, पुरुषशक्ति नहीं और पुरुषपराक्रम भी नहीं है। सर्वसत्व, सर्वप्राणी, सर्वभूत, सर्वजीव तो अवश, दुर्बल और निदर्य है । वे नियति (भाग्य) - संगति एवं स्वभाव के कारण परिणत होते हैं और सुख-दुःखका उपभोग करते हैं "
I
नियतिवादके उपर्युक्त विश्लेषणसे निम्नलिखित तथ्य प्रसूत होते हैं
(१) पुरुषार्थ और आत्मविश्वासका अभाव |
(२) नियतिवश ही कार्योंका सम्पादन |
(३) प्राणी की पुण्य और पापसे अलिप्तता । (४) नियति जैसा कराती है. वैसा करनेको प्रेरणा | (५) शुद्धि और अशुद्धिके लिये कारणोंका अभाव |
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(६) प्राणियों की अवशता और निर्वीर्यता ।
(७) सुख-दुःख की प्राप्ति नियतिके अघोन है, पुरुषार्थाधीन नहीं । उच्छेदबाद- प्रवर्तक : अजित केशकम्बल
केशोंका बना कम्बल धारण करनेके कारण ये अजित केशकम्बलो कहलाते थे । एफ० एल० वुडवाल्डको धारणाके अनुसार कम्बल मनुष्यके केशोंका ही बना होता था । इनकी मान्यता लोकायतिक दर्शन जैसी ही थी। कुछ विद्वानोंका यह भी मत है कि नास्तिक दर्शनके आदिप्रवर्त्तक यही थे । बृहस्पतिने इनके अभिमतोंको ही विकसित रूप दिया है । उच्छेदवादका अर्थ यह है कि दान, यज्ञ और हवन आदि कुछ भी तथ्य नहीं । अच्छे या बुरे कर्मोंका फल और परिणाम नहीं होता है । इहलोक-परलोक, माता-पिता, स्वर्ग-नरक आदि कुछ भी नहीं है । इहलोक और परलोकका अच्छा ज्ञान प्राप्तकर उसे दूसरोंको देनेवाले दार्शनिक और योग्यमार्गपर चलनेवाले श्रमण-ब्राह्मण इस संसारमें नहीं है | मनुष्य चार भूतोंका बना हुआ है । जब वह मरता है, तब उसमें समाहित पृथ्वीधातु पृथ्वीमें, आपोधातु जलमें, तेजांधातु तेजमें और वायुषा वायुमें जा मिलते हैं तथा इन्द्रियां आकाशमें चलो जाती हैं। भूत व्यक्तिको अर्थीपर रखकर चार पुरुष श्मशानमें ले जाते हैं। उसके गुण-अबगुणोंकी चर्चा होती है, उसकी अस्थियाँ श्वेत हो जाती हैं, उसे दो जानेवाली आहुतियां स्मरूप वन जाती हैं।ता मुर्ख व्यक्तियोंने खड़ा किया है, जो कोई आस्तिकवाद बतलाते हैं, उनका वह कथन बिलकुल मिथ्या और वृथा है। शरीरके नाशके पश्चात् विद्वानों और मूर्खोका उच्छेद होता है । वे नष्ट हो जाते हैं । मृत्युके अनन्तर उनका कुछ भी शेष नहीं रहता ।
इस प्रकार अजित केशकम्बलने उच्छेदवादका प्रवर्तनकर परलोक, आत्मा और पुण्य पापका निषेध किया है। इस सिद्धान्तमें निम्नलिखित तथ्य समाहित हैं:
(१) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतोंका अस्तित्व ।
(२) प्रत्यक्षदृष्टिगोचर पदार्थ ही सर्वस्व है, परोक्षपदार्थोंका अस्तित्व सिद्ध नहीं, अतएव उनका अस्वीकरण !
(३) शरीर के साथ ही आत्माका भी उच्छेद |
(४) पुण्य और पाप वास्तविक नहीं, कल्पित ।
१. The book of graducl Sayings Volum 1 Page 265.
3. Barua. O. P. Cit., Page 288.
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(५) आत्मा और पुनर्जन्मका अभाव। (६) शरीरातिरिक्त अन्य कोई तत्व नहीं, फलतः शरीरमें ही आत्म-कल्पना ।
(७) शुभ और शुद्ध प्रवृत्तियोंका सर्वथा अभाव । अन्योन्यवाव-प्रवर्तक : प्रकद्ध कात्यायन
ये शीतोदकपरिहारी थे और उष्णोदकको ग्राह्य मानते थे । पक्रुद्ध वृक्षके नीचे पैदा होनेके कारण ये पक्रुद्ध या प्रक्रुद्ध कात्यायन कहलाये । प्रश्नोपनिषद्भ इन्हें ऋषि पिप्पलादिका समकालीन और ब्राह्मण बतलाया गया है । यद्यपि वहाँ इनका नाम कबन्धी कात्यायन बताया गया है, पर कबन्धी और प्रक्रुद्ध एक ही शारीरिक दोषके वाचक है। बौद्ध टीकाकारोंने इन्हें पक्रुद्धगोत्री होनेसे पक्रुद्ध माना है। बुद्धघोषने प्रकद्ध उनका व्यक्तिगत नाम और कात्यायन इनका गोत्र नाम कहा है। डॉ० फीयर इन्हें कध कहनेकी भी राय देते हैं। इन्होंने अन्योन्यवादी सिद्धान्तका प्रवर्तन किया है। बताया है कि सात पदार्थ किसीके किये, करवाये, बनाये या बनवाये हुए नहीं हैं । ये कूटस्थ और अचल हैं । न ये हिलते हैं और न परिवर्तित होते हैं। एक दूसरेको ये नहीं सताते । एक दूसरेको सुख-दुःख उत्पन्न करने में ये असमर्थ हैं । पृथ्वी, अप, तेज, वायु, सुखदुःख एवं जीव ये सात पदार्थ हैं। इन्हें नष्ट करनेवाला कोई नहीं है। तीक्षण अस्त्रसे भी कोई किसीका सिर नहीं काट सकता और न कोई किसीका प्राण ले सकता है 1 अस्त्र मारनेका केवल अर्थ है कि सात पदार्थोके बीचके अवकाशमें अस्त्रका प्रविष्ट होना।
इस प्रकार प्रकुद्ध कात्यायनने नित्य और कूटस्थ सात पदार्थोंका अस्तित्व स्वीकार किया और जनताको उक्त सातोंपदार्थोंके सम्मिलनसे सुस्त्र एवं विछोहसे दुःख प्राप्तिका सन्देश दिया। विक्षेपवाद-प्रवत्तक : संजय बेलष्टिपुत्र
संजय बेलट्ठिपुत्र नाम वैसा ही प्रतीत होता है, जैसा मक्खलि गोशालक । उस युगमें ऐसे नामोंकी परम्परा प्रचलित थी, जो माता या पिताके नामसे सम्बद्ध होती थी। आचार्य बुद्धत्रोषने इन्हें बेलटिका पुत्र माना है । कुछ विद्वान् सारिपुत्र और मौद्गलायनके पूर्व आचार्य संजय परित्राजकको ही संजय वेलट्ठिपुत्र मानते हैं। पर यह कल्पना यथार्थ नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो बौद्ध-पिटकोंमें स्पष्ट उल्लेख भी मिलता, पर बौद्ध-पिटक इतना ही कहकर विराम लेते हैं कि सारिपुत्र और मौद्गलायन अपने गुरु संजय परिवाजकको छोड़कर बुद्धके धर्म
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संघमें आये । परिवाजक शब्द भी यह संकेत करता है कि संजय वैदिक संस्कृतिसे सम्बद्ध थे।
संजयने विक्षेपवादका प्रवर्तन किया है। इनके सिद्धान्तमें परलोक आदिका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। परलोक, कर्मफल, मृत्यु, पुनर्जन्म, आत्मा आदिके सम्बन्धमें इनकी कोई निशिवत धारणा नहीं है।
गौतम बुद्धने समाजोत्थान और चार आर्य-सत्योंका उपदेश देकर जनताको सान्त्वना देने का प्रयास किया, पर एकान्त क्षणिकवादका प्रचार करने के कारण सत्यका आलोक उपस्थित न हो सका।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथकी श्रमण-परम्परासे प्रभावित उपर्युक्त चिन्तकोंने भी समाजमें क्रान्ति लानेकी चेष्टा की, पर वे सफल न हो पाये। एक ही मतमें हिंसक और अहिंसक अनुयायी विद्यमान थे । आजोविकोंमें ऐसे दो पक्ष थे । पूर्णकाश्यप जीव-हिंसामें पुण्य-पाप नहीं मानते थे । प्रक्रुद्धकी भी यही स्थिति थी | अजित केशकम्बली वैदिक क्रियाकाण्डोंका विरोध अवश्य करते थे, परन्तु हिंसाको उचित मानते थे । इन विचारकोंमें इतना नैतिक बल नहीं था कि ये जनताको मांस-मदिराकी लिप्सासे बचा सकें। उस समय हस्ति तापस जैसे तपस्वी भी विद्यमान थे; जो वर्ष में एक बड़े हाथीको मारकर आजीविका चलाते थे और समस्त प्राणियोंके प्रति अनुकम्पा बुद्धि रखते थे। अहिंसाको धारा क्षीण हो रही थी और इन्द्रियनिग्रहकी चर्चा तो दूर ही थी।
ब्राह्मण-परम्परा वैदिक मान्यताओंकी रक्षाके लिये क्रियाशील थी । इसमें भी दो धाराएं परिलक्षित हो रही थीं। एक धाराके अनुयायी प्रश्नोपनिषद्के अधिष्ठाता पिप्पलादि, मुण्डकोपनिषद्के रचयिता भारद्वाज और कठोपनिषद्के प्रचारक नचिकेता थे । इन ऋषियोंने वैदिक कर्मकाण्ड में सुधार कर शान-यज्ञ, अहिंसा और सदाचारका प्रचार किया था । दूसरी परम्परा हिंसापूर्ण यज्ञादि उच्च करनेमें संलग्न थी। शूद्र और स्त्रियाँ मनुष्यकोटिम परिगणित नहीं थी । इनके साथ अभिजात्यवर्गकी अहंवादी प्रवृत्तिने नानाप्रकारके अत्याचार करना आरंभ किये थे। मनुष्यको वासना खुल-स्वेलकर सामने आती थी और भोग-विलासको प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ रही थी। निःसन्देह वैदिक क्रियाकाण्डके प्रचारने धर्मतत्त्वकी आत्माको शुष्क बना दिया था । अनात्मवाद और कर्मकाण्डके सार्वभौमिक राज्यने मानवको आडम्बरमें फंसा दिया था और उसकी अन्तरात्मा प्रकाशके लिये बेचैन थी।
आध्यात्मिक जीवनका गौरव विस्मृत हो गया था और भौतिकताका महत्त्व ७८ :: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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बढ़ रहा था । कुछ व्यक्ति हठयोगकी साधनायें आत्म-शान्ति के स्वप्न देखते थे । राजा महीपाल हठयोगके विशेष उपासक थे । ऋद्धि और सिद्धियाँ प्राप्त करनेके लिये विविध प्रकारके काय- क्लेश सहन किये जाते थे । जनताके समक्ष नये विचार और नये सिद्धान्त प्रस्तुत हो रहे थे, पर कहीं भी प्रकाशकी किरण दिखलायी नहीं पड़ती थी। फलतः सर्वत्र धार्मिक अशान्ति परिलक्षित हो रही थी और चारों ओरसे यह ध्वनि हो रही थी कि किसी ऐसे धार्मिक नेताकी आवश्यकता है, जो इस विशृंखलित समाजको सुगठित और श्रृंखलित कर नया मार्ग प्रदर्शित कर सके ।
संसार में व्याप्त तृष्णा, अनीति, हिंसा, धर्मान्धता एवं जातिमदके विषको दूर करने के हेतु एक ऐसे पुरुषकी आवश्यकता थी, जो अहिंसा, सत्य और अपरिग्रहके साथ अनेकान्तमयी दृष्टिके आलोकसे लोगों के हृदयान्धकारको छिन्न कर सके । प्रत्येक युग में जब अधर्माचरण बढ़ जाता है, तो कोई ऐसी विलक्षण शक्ति प्रादुर्भूत होती है, जो टूटती हुई मानवताको जोड़नेका कार्य करती है। इस शताब्दीने भी तीर्थंकर महावीरको क्रान्तिद्रष्टा के रूपमें उपस्थित कर मानवता के प्राणकी शंखध्वनि की ।
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ७९
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चतुर्थ परिच्छेद तीर्थकर महावीरकी जन्मभूमि, जन्म और किशोरावस्था गणतंत्र वैशाली:
ई० पूर्व छठी शताब्दीमें वैशाली अत्यन्त समृद्ध सुव्यवस्थित और प्रतिष्ठित गणतंत्र था। उस समय मध्य हिमालयसे लेकर गंगानदी तकका प्रदेश छोटेछोटे गणतंत्रोंमें विभक्त था और इनमें से अधिकांश राज्योंमें इक्ष्वाकुवंशके लोगोंका प्राधान्य था। कोशलमें बहुत पहलेसे इक्ष्वाकुवंश चला आ रहा था और यहाँसे इस वंशको शाखाएं वैशाली और मिथिलामें जब गणतंत्रोंकी स्थापना हुई, तब इस वंशके लोगोंके रूपमें कई राज्योंमें पहुंच चुकी थीं। वैशालीके लिच्छवि, कुशीनगरके मल्ल, पिप्पलीवनके मोरीय, कपिलवस्तुके शाक्य और रामगांवके कोलिय इक्ष्वाकुवंशी थे।
जितने गणतंत्र स्थापित हुए उनमें वृजिसंघ सबसे अधिक बलशाली और प्रतिष्ठित था। इसे बज्जीसंघ भी कहा जाता था। इसकी स्थापना विदेहके
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राजतंत्रके समाप्त होनेपर हुई थी। इसमें विदेह, लिच्छवि, शातक, वृजि, उग्र, भोग, कौरव और इक्ष्वाकु ये आठ कुल सम्मिलित थे | विदेहोंकी प्राचीन राजपानी मिथिला थी और यह वैशालीके गणतंत्रमें समाहित हो गयी थी। वृजिराष्ट्रवासियोंमें लिच्छवि सबसे प्रशस्त थे । ये वाशिष्ठ गोत्रके थे । इसी कारण वाशिष्ठ भी कहे जाते थे । इनकी राजधानी वैशाली थी।
वृजि भी आठ कुलों से एक था। संघका नाम इसी कुलके नामपर वृजिसंघ पड़ा था। लिच्छवियोंके समान वृजियोंका भी वैशाली नगरी और इसके उपनगरोंसे घनिष्ठ संबंध था । जातक क्षत्रिय काश्यपगोत्री थे और इनकी राजधानी कुण्डपुर या कुण्डग्राममें थी। इसे क्षत्रियकुण्ड भी कहा जाता था । यह वैशालीका उपनगर था । उग्रोंका संबंध वंशाली और हस्तिग्रामसे था | भोग भोगनगरमें रहते थे। यह नगर वैशाली और पावाके बीचमें स्थित था। कौरवोंका जिसंघसे संबंध था। बौद्धधर्मक उदयके बहुत पहलेसे कुरु ब्राह्मण विदेहकी राजधानीमें बसने लगे थे। इश्चाकूओंका वैशालीसे अत्यन्त प्राचीन सम्बन्ध था; क्योंकि विशालसे लेकर सुमति तक समस्त राजा इक्ष्वाकुवंशी थे।
वृजिसंघके सदस्य 'राजा' (गणपति) कहलाते थे। सात हजार सातसो सात राजा थे। इतने ही उपराज (अध्यक्ष), इतने ही सेनापति और इतने ही भाण्डागारिक थे । सदस्योंमें उच्च, मध्य, वृद्ध और ज्येष्ठका भेदभाव नहीं था। प्रत्येक सदस्य अपनेको राजा मानता था । संस्थागारमें सदस्योंकी बैठकें हुआ करती थीं। मख्य कार्य अष्टकूलों और नी लिच्छवि गणराजाओंके द्वारा सम्पन्न होते थे । नौ लिच्छवियों, नौ मल्लकि इस प्रकार अठारह काशीकोशलके गणराजाओंने मिलकर एक संघ बनाया था ।
वृजिसंघ अपनी विशिष्ट न्यायप्रणाली के लिये प्रसिद्ध था। परम्परासे चला आया 'वजिधर्म' यह था कि बज्जिके शासक यह 'चोर है', 'अपराधी है' न कह कर व्यक्तिको विनिश्चय महामात्यके हाथमें सौंप देते थे। वह विचार करता, अपराधी न होनेपर छोड़ देता और अपराधी सिद्ध होनेपर वह उसे व्यावहारिक (न्यायाध्यक्ष) को दे देता। वह भी अपराधी जाननेपर सूत्रधारको दे देता, सूत्रधार निरपराध होनेपर छोड़ देता और अपराधी होनेपर अष्टकुलिकको सुपुर्द कर देता । अष्टकुलिक सेनापतिको, सेनापत्ति उपराजको और उपराज राजाको दे देता। राजा विचारकर यदि अपराधी न हो, तो उसे छोड़ देता और अपराधी होनेपर 'प्रवेणि-पुस्तक' (दण्डविधान) के अनुसार दण्ड-व्यवस्था करता था। इस प्रकार वैशाली-गणतंत्रकी राज्य-व्यवस्था अत्यन्त दृढ़ और व्यवस्थित पो।
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देशाली नगरो चहारदीवारीसे घिरी हुई थी । यहाँ तीन प्रकारको दीवाले थों और प्रत्येक दोवाल एक दूसरीसे एक गव्यति (एक कोस) पर स्थित थी। तीनों स्थानोंपर द्वार थे, जो गोपुरों और अट्टालिकाओंसे युक्त थे । वैशालीके तीन भाग थे । प्रथम भागमें स्वर्णके गोपुरोंसे युक्त सात हजार भवन, मध्य भागमें रजतके गोपुरोंसे युक्त चौदह हजार भवन और अन्तिम भागमें ताम्रके गोपूरोंसे युक्त इक्सीस हजार भवन थे। इनमें उच्च, मध्यम और निम्नवर्गीक व्यक्ति अपने-अपने पदोंके अनुसार निवास करते थे | वैशालीके निवासियोंने यह नियम बना रखा था कि प्रथम भागमें जन्मी कन्याका विवाह प्रथम भागमें ही होगा, द्वितीय या तृतीय भागमें नहीं । नध्य भागमें जन्मी कन्याका विवाह प्रथम और द्वितीय भागोंमें होगा और अन्तिम भागमं जन्मी कन्याका तीनोंमेंसे किसी भी भागमें विवाह किया जा सकता था। वैशालीका यह संविधान था कि वेशालोमें जन्मी कन्याका विवाह किसी दूसरे स्थानमें नहीं किया जा सकता है।
चे तीनों भाग वैशाली, कुण्डपुर और वणियगाम (वाणिज्यग्राम) रहे होंगे, जो सम्पूर्ण नगरके दक्षिण-पूर्वी, उत्तर-पूर्वी और पश्चिमी अंशोंमें व्याप्त थे । कुण्डपुरके अनन्तर उत्तर-पूर्वी दिशामें कोल्लाग-सन्निवेश था, जिसमें ज्ञातकुलके क्षत्रिय निवास करते थे। वैशालीको समृद्धि और परम्पराके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि वैशाली कुण्डग्राम और वाणिज्यग्राममें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वश्य निवास करते होंगे । निश्चयतः उन दिनोंमें वैशाली बहुत हो समृद्ध और सुव्यवस्थित नगरी थी । इसमें सात हजार सात सौ सतहत्तर प्रासाद, इतने ही कटागार, आराम और पुष्करिणियाँ थों। यह नगरी अपनी रमणीयता, वितानपुक्क आँगन, द्वार, तोरण, गवाक्ष और होसे समलंकृत एवं पुष्पवाटिकाओं और कूसूमित वनोंसे युक्त थी । वैशालोमें सभी प्रकारकी फसलें उत्पन्न होती थीं। वहाँ के निवासी शांति और संतोषका जीवन व्यतीत करते थे । राष्ट्र धन-सम्पन्न और देवपुर-जैसा रम्य था। उपनगर : कुण्डग्राम
वैशालीका कुण्डग्राम या क्षत्रियकुण्ड बहुत ही प्रसिद्ध और रमणीक था ।यह कुण्डपुर या कुण्डग्राम दो भागोंमें विभक्त था-क्षत्रियकुण्ड और ब्राह्मणकुण्ड । क्षत्रियकुण्डसन्निवेश ब्राह्मण-कुण्डपुरसन्निवेशसे उत्तर स्थित था।क्षत्रियकुण्डग्राममें ज्ञातृवंशी क्षत्रियोंका निवास था। बताया जाता है कि गंडकी नदीके पश्चिम तटपर ये दोनों ही कुण्डपुर स्थित थे और एक-दूसरेके पूर्व-पश्चिम पड़ते थे। कुण्डपुरका वर्णन महाकवि असगने अपने 'वर्द्धमानधरित' में किया है। यह नगर सभी प्रकारको वस्तुओंसे युक्त परकोटा, खातिका, पापिका एवं वाटिकायों८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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से परिपूर्ण था। कोटके प्रान्त भागोंमें लगी हुईं अरुणमणियाँ, पन्नाओंकी प्रभा छायामय पटलोंसे परिपूर्ण होने के कारण संध्याकालीन श्रीका सृजन करती थीं। भूमिपर जटित इन्द्रनीलमणियाँ अपनी आमासे भ्रमरोंकी भ्रांति उत्पन्न करती थीं । उन्नत भवन और रत्नजटित गोपुर अपने सौन्दर्यसे पथिकों के मनको आकृष्ट करते थे । मुक्ताओंकी आभाके कारण इस नगर में श्वेत किरणोंका वितान तना रहता था। धन-धान्य, पशु सम्पत्ति आदिले युक्त यह नगर प्रजा'जनों को अत्यंत सुखप्रद था' | आचार्य जिनसेन प्रथमने भी विदेहदेशके अन्तर्गत कुण्डपुरका यथार्थ चित्रण किया है। उन्होंने लिखा है कि यह ऐसा सुन्दर नगर है जो इन्द्रके नेत्रोंकी पंक्तिरूप कमलिनियों के समूह से सुशोभित है तथा सुखरूपी जलका कुण्ड है । यहाँ शंखके समान श्वेत एवं शरद् ऋतुके मेघके समान उन्नत भवनों के समूह से श्वेत हुआ आकाश अत्यन्त सुशोभित होता है । भवनोके अग्रभागमें लगी हुई चन्द्रकान्तमणिकी शिलाएं रात्रिके समय चन्द्रमारूपी पतिके करस्पर्श से स्वेदयुक्त स्त्रियोंके समान द्रवीभूत हो जाती हैं । भवनोंके अग्रभाग में जटित सूर्यकान्तमणियाँ अत्यन्त देदीप्यमान है। भवनों के शिखरपर जटित पद्मरागमणियों सूर्य की किरणोंके संसर्गसे अत्यन्त अनुरक्त अङ्गनाकी तरह दिखलायी पड़ती हैं। इस नगर में कहीं मोतियोंकी मालाएं लटक रही हैं, कहीं मरकतमणिका प्रकाश व्याप्त हो रहा है, कहीं हीरकप्रभा फैल रही है, तो कहीं बंडूर्यमणियोंको नौली - नीली आभा छिटक रही है । यह नगरी कोटरूपी पर्वतोंके बड़ेबड़े धूलि कुट्टिम और परिखासे वेष्टित है । इस नगरीका अतिक्रमण करनेमें
१. तत्रास्त्ययो निखिल वस्त्वव गायुक्तं भास्वत्कलाधर बुध: सबुषं सत्तारं
अध्यासितं वियदिव स्वसमानशोभं ख्यातं पुरं जगति कुंडपुराभिधानं !! प्राकारको टिघटितारुणरत्नभास छायामयैः परिगता पटलैः समंतात् । आभाति वारिपरिखा नितरामनेका संध्यामियं विदधतीय दिवापि यत्र ॥ धौतेंन्द्रनीलमणि कल्पित कुट्टिमेषु योपहाररचितान्यसितोत्पलानि । एकीकृतान्यपि सलीलतया प्रयति व्यक्ति पतद्भ्रमर हुंकृतिभिः समंतात् ॥ जैत्रेयवः सुमनसो मकरध्वजस्य निस्तेजितां बुजरुषो शशलक्ष्मभासः | अप्रावृषोः नवपयोधर कांतियुक्ता यस्मिन्विभान्त्य सरितः सरसा रमप्यः ॥ अत्युन्नताः शशिकरप्रकरावदाता मूर्धस्वरत्नहमिपल्लवितांत रिक्षाः । उत्संगदेशसुनिविष्टमनोज्ञरामाः पौरा विभाति सुधि यत्र सुधालयाश्च ।। लीलामहोत्पलमपास्य कराग्रसंस्थं कर्णोत्पलन विगलम्मनु यत्र लूंगाः । निश्वाससौरभरता वदने पतन्ति स्त्रीणां मृदुमृदुकराहतिमीप्सवश्च ॥
- महाकवि अलग विरचित वर्षमानचरित, सर्ग १७, पद्म ७-१२.
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शत्रु सदा असमर्थ रहते हैं । धान्य, गोधन एवं अन्य आवश्यकताकी सभी वस्तुएँ इस कुण्डपुर में समवेत हैं । यहाँ के निवासी इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय, प्रजाके संरक्षण और अभ्युदयमें निरन्तर तत्पर हैं । नगरका आयाम कई मील विस्तृत है । पंक्तिबद्ध मदन, कमलयुक्त सरोवर एवं विभिन्न प्रकारको कमलनियोंसे युक्त पुष्करिणियाँ अपने सौन्दर्यसे जन-मानसको आकृष्ट करती हैं ।
यह कुण्डपुर वर्तमान में बसाढ़ या बासुकुण्डके नामसे प्रसिद्ध है । इस नगर के शासनप्रमुख राजा सर्वार्थं ओर रानी श्रीमतीसे उत्पन्न महाराज सिद्धार्थं थे । सिद्धार्थको क्षत्रियकुण्डग्रामका प्रमुख शासक माना गया है। इनकी राज्यव्यवस्था में इतिहासका कलुषित पृष्ठ उज्ज्वल हो उठा था ।
वैशाली कृतार्थ हो गयी
वैशाली - गणतंत्र उन दिनोंमें सर्वाधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय थी । वैशालीके अधिनायक महाराज चेटक थे । इन्हें काशी- कोशल के नौ लिच्छवियों और नौ मल्ल राजाओंका भी अधिक साथ एक है | सिंह अथवा सिंहभद्र था, जो वज्जिगणका प्रघान सेनापति था। चेटक निर्ग्रन्य श्रमणका उपासक था । इसकी सात कन्याएं थीं, जिनमें प्रभावतीका विवाह वीतिमयके राजा उद्रायणके साथ हुआ था । पद्मावतीका कौशाम्बीके नरेश शतानीकके साथ, शिवाका उज्जयिनीके राजा प्रद्योतके साथ, त्रिशलाका वैशालीके उपनगर कुण्डपुरके राजा सिद्धार्थ के साथ, चेलनाका राजगृहके राजा श्रेणिकके १. तत्राखण्डलनेत्रालोपचिनीखण्डमण्डनम्
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सुखाम्भः कुण्डमाभाति नाम्ना कुण्डपूरं पुरम् ॥ यन प्रासादसङ्घातः शङ्खशुभ्रैर्नभस्तलम् । पवलीकृतमामाति शरम्मेवैरिवोन्नतः । चन्द्रकान्तकरस्पर्शाचन्द्रकान्त शिलाः निशि । द्रवन्ति यद्गृहामेषु प्रवेदिन्य इव स्त्रियः || सूर्यकान्तकरासङ्गात् सूर्यकान्तानकोटयः । स्फुरन्ति यत्र गेहेषु विरक्ता इव योषितः ॥ पद्मरागमणिस्फीतिर्यत्र प्रासादमूर्धनि । इनदपरिष्वङ्गवङ्गमेवातिरज्यते मुक्तामरकताछोयंजनंदूर्यविभ्रमः
"
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एकमेवं सदा घसे मत्समस्ताकरश्रियम् ॥ शाललमहावठपरिखापरिमेषिणः
।
यस्योपरि परं
मित्रेत रमण्डलम् ॥
- हरिवंशपुराण, २५-११.
८४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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साथ एवं छठी कन्या सुज्येष्ठाका विवाह अवन्तिनरेश चण्डप्रद्योतके साथ हुआ था। सातवीं कन्या चन्दना अविवाहित रह गयी थी, जिसने दीक्षा ग्रहण की।
चेटक के प्रभावकारी व्यक्तित्वके कारण अन्य देशोंके नरेश भी उनका सम्मान करते थे। चम्पाके राजा दधिवाहन, कलिंगनरेश जितशत्रु, श्रावस्तीनरेश प्रसेनजित, मथुराके राजा उदितोदय, हेमांगदनरेश जीवंचर, पोदनपुरनरेश विद्रराज, पोलापुरनरेश विजयसेन, पांचालनरेश जय एवं हस्तिनापुरनरेश चेटकके मित्र राजाओंमें परिगणित थे ।
महाराज चेटकके इन संबंधोंके कारण वैशालोको प्रतिष्ठा अविक बढ़ गयी थी और वैशालीके उपनगर कुण्डपुरमें तीर्थंकर महावीरका जन्म होनेसे वैशालीको भूमि कृतार्थ हो गयी । वहाँका अणु-अणु पावन हो पाप और अनाचारके बोझको दूर करनेके लिये कृतसंकल्प था । वैशालीको प्रजा सुखी और समृद्ध तो थी ही, यहां न कोई शोषणकर्त्ता था और न कोई शोषक हो था । सभी एक- दूसरेपर विश्वास और प्रेम रखते थे। सरलता, शिष्टता, निश्छलता, सादगी और सत्यका पूर्ण साम्राज्य था । तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्पराने लोकमानसको जनोद्धारके लिये कृतसंकल्प कर दिया था। प्राचीकी भौति वैशालीको प्रत्येक दिशा ज्योतिसंती हो रही थी ।
महाराज चेटक अपनी कन्या त्रिशलाका पाणिग्रहण सिद्धार्थके साथ सम्पन्न कर सुख और शांतिकी साँस ले रहे थे । त्रिशला स्वभावसे कोमल, | वाणीसे मृदु और हृदयसे उदार थी । उसके व्यक्तित्वको मधुर छाप प्रत्येक व्यक्तिके अंतस्तलपर पड़ती थी। जो भी उसे देखता सहज ही उसका भक्त बन जाता । प्रिय और मधुर वचन बोलनेके कारण तथा छोटे-बड़े सभीके प्रति प्रिय व्यवहार करने के कारण उसका अपर नाम प्रियकारिणी भी था । प्रिय करना और प्रिय बोलना त्रिशलाका सहज संस्कार था । आचार्य जिनसेनने प्रियकारिणी या त्रिशलाके गुणोंका चित्रण करते हुए उसे स्नेह-पयस्विती कहा है । अपने उदात्त गुणोंके कारण त्रिशलाने महाराज सिद्धार्थके मनको वशीभूत कर लिया था । कुण्डपुरके नैसर्गिक सौन्दर्य में प्रियकारिणी की सत्ताने कई गुनी वृद्धि कर दी थी। धर्मवत्सल महाराज सिद्धार्थं त्रिशलाको प्राप्तकर बड़भागी बन गये थे । बैशालीका १. उच्च कुलादिसम्भूता सहजस्नेहवाहिनी ।
महिती श्री समुद्रस्य तस्यासीत् प्रियकारिणी ॥ तटकराजस्य यास्ताः सप्तशरीरजाः । सिस्नेहाकुलं बस्तास्वाद्या प्रियकारिणी ॥
- हरिवंश पुराण २०१६-१७.
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गणतंत्र विश्वका धर्मनायक बनने के लिये प्रयलशील था। महाराज सिद्धार्थ शातृवंशके वैभव महावीरके जन्मकी अगवानी कर रहे थे । सारा कुण्डपुर सहज उमंग और उल्लासका अनुभव कर रहा था | नगरको प्रत्येक डगर आनन्दमें डूबी हुई थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कोई निधि यहां उद्धृत होनेवालो है। सूखे धरतीके आँस्न ____ अज्ञानवाद, अनिश्चितवाद, निर्यातवाद, गौतिकवाद, अक्रियावाद, यज्ञवाद एवं क्रियाकाण्डवादने समाजमें निराशा जान्न कर दी थी। फलतः समाजविकृतिके कारण धरतीके नेत्रोंसे भी आँसू झर-झर कर गिरते थे । जब-जब धरतीपर पाप और अत्याचार बढ़े, महान् आत्माओंने जन्म ग्रहण किया। सभीने अपने-अपने दंगसे मानव-समाजको राह दिखायी, संसारके दुःखोंको दूर करनेका संकल्प लिया, वैशालीकी धरती और आंगन महावीरके आविर्भावकी प्रतीक्षामें
आँसू बहा रहा था | धरा पर चारों ओर अन्धकार आच्छादित था। विवेकका मार्ग अवरुख था | फलत: उनके आगमनकी प्रतीक्षामें धरती मुस्कुरा उठी थी।
पृथ्वीके आँचलसे शनैः शनै: सुखकी मणियाँ लुप्त होती जा रही थी और दुःखकी काली छाया चारों और बढ़ रही थी। यद्यपि देशमें धन, सम्पन्नता ओरखाद्यसामग्रीका अभाव नहीं था, पर दास और सेवकोंके साथ किये जानेवाले बर्बरतापूर्ण व्यवहार धरतोके हृदयको कचोट रहे थे 1 पापपूर्ण वासना और विलासिताके प्रचण्ड अग्नि-कुण्डमें दी जानेवालो आहुतिसे निःसृत धूम-कालुष्यने आकाशको आच्छादित कर लिया था | स्त्री और पुरुष दोनोंने ही नीति और धर्मके आँचलको छोड़ दिया था और दोनों ही कामुकताके पंकमें फंसे हुए थे। आचार-विचार, शील-संयमकी अवहेलनाने धरतीक हृदयको मथ दिया था। लोगोंका ध्यान मन-प्राण और आस्माकी धवलतासे हटकर शरीरपर केन्द्रित हो गया था। लोग शरीरको ही सर्वस्व मानने लगे थे। मांस-भक्षण, मदिरा-पान, द्यूत-क्रीड़ा आदिने धरतीको यंत्रणाका लोक बना दिया था 1 वर्णाश्रमधर्मका अर्थ स्वार्थकी संकीर्ण सीमामें आबद्ध हो गया था । शब्द एवं चाण्डालोंका दर्शन भी अशुभ समझा जाता था और उनकी छायाका स्पर्श होते ही स्नानको व्यवस्था को जाती थी । अतएव धरतीका पुलकित होना आरम्भ हुआ और वैशाली में जगत्वंदनीय महावीरने जन्म ले घराको धन्य किया। निश्चय ही वैशालीको धरतो कितनी पूज्य है, जिसको गोदमें तीर्थकर महादोरने कोड़ा की है।
वैशालीका परिसर कुण्डपुर पुलकित हो उठा । शत-शत वसन्त खिल उठे, सदानीरा आधुनिक नारायणी गंडकी)तरंगित हो गयो और कोटि-कोटि मानवोंने ८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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चन्दन के समान उस धरतीका चन्दन किया । शस्य श्यामला धरतीको छटा अनुपम हो गयी । वैशालीकी गौरव गाथाए लोकको आकृष्ट करने लगीं और घरासे सुरभित उच्छ्वास निकलने लगा ।
सूखे पेड़-पौधे हरीतिमाकी चादरसे आच्छादित हो गये । नदी-नालोंमें जल उफान लेने लगा । वृक्षोंकी गोद फूलोंसे भर गयीं और खेतोंमें अनाजकी बालोंसे लदे हुए पौधे झूमने लगे । पक्षियोंका कंठ खुल गया, जनजनके हृदयका उल्लास फूट पड़ा, धरती और धरती के लोग उस दिव्य ज्योतिके आगमन की प्रसन्नतामें स्वर्ग और स्वर्गके देवताओंसे स्पर्धा करने लगे ।
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त्रिशलाका स्वप्न-दर्शन
तीर्थंकर महावीर जब गर्भ में अवतरित हुए, उस समय त्रिशला के मुखमण्डलपर दिव्य आभा विचरण पार हो । असके हृदय दिव्य कालका कोत प्रवाहित हुआ और उनके पुण्यके शत-शत कमल विकसित होने लगे । त्रिशला - के अंग-प्रत्यंग स्फुरित होने लगे और आनन्दसूचक शुभ शकुन दिखलायीं पड़ने लगे । घरापर ही नहीं, स्वर्ग में भी इन्द्रको माँ त्रिशलाकी सेवाको चिन्ता उत्पन्न हुई। उसने देवांगनाओंको कुण्डपुर में प्रेषित कर त्रिशलाको सेवाकी व्यवस्था की । इन्द्रने कुबेर द्वारा रत्न और धन-सम्पत्तिकी वृद्धि कर विदेहदेशको समृद्ध बनाया | महाराज सिद्धार्थं विवेक और नीति के मार्गपर चलते तथा सभी प्रकारसे प्रजाका मंगल और कल्याण करनेमें तत्पर रहते ।
गर्भाधान से छः महीने पहले ही महाराज सिद्धार्थके यहाँ धन-धान्यकी वृद्धि होने लगी । सुगंधित जलवृष्टि, फल-पुष्पोंकी वृद्धि एवं स्वर्ण-रत्न भण्डारकी समृद्धि होने लगी ।
अच्युत स्वर्गसे च्युत हो तीर्थंकर महावीरका जीव १७ जून ई० पू० ५९९ शुक्रवार के दिन आषाढ़ शुक्ल पोको त्रिशलाके गर्भ में प्रविष्ट हुआ। प्रियकारिणी त्रिशला अपने राजभवनमें निद्रालीन थी। रात्रिके पिछले प्रहरमें उनकी पलकोंपर एक सुहावनी स्वप्न पंक्ति उतरती दिखलायी पड़ी। हस्तोत्तर आषाढशुक्ला षष्ठीकी रात्रिका अन्तिम प्रहर संसारके लिये विभूतिके उदयका निमित्त बना । त्रिशलाने देखा कि उसके सामने मदसे झूमता हुआ उन्नत गज उसके उदरमें प्रविष्ट हो रहा है। इतना ही नहीं उसने भविष्यसूचक सोलह स्वप्नोंका दर्शन किया। स्वप्न-दर्शनसे ही उसे अपूर्व आनन्द प्राप्त हो रहा था । उसके हृदयमें हर्ष की लहरें उत्पन्न हो रही थीं और मन-मयूर नृत्य कर रहा था । सोलह स्वप्न निम्न लिखित हैं '—
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१. चार दांतों वाला उन्नत गज,
२. दवेत वर्णका उन्नत स्कंधवाला वृषभ, ३. उछलता हुआ सिंह,
४. कमलसिंहासनपर स्थित लक्ष्मी,
५. सुगन्धित भव्य मन्दारपुष्पोंकी दो मालाएं, ६. नक्षत्रों से परिवेष्ठित चन्द्र,
७. उदयाचलर अंगड़ाइ भरता हुआ सूर्य, ८. स्वच्छ जल परिपूरित दो स्वर्णकलश, ९. जलाशय में क्रीड़ारत मत्स्यद्वय, १०. स्वच्छ जलसे भरपूर जलाशय, ११. गम्भीर घोष करता हुआ सागर, १२. मणिजटित सिहासन,
१३. रत्नोंसे प्रकाशित देव - विमान,
१४. धरणेन्द्रका गगनचुम्बी विशालभवन --- नाग- विमान, १५. रत्नोंकी विशालराशि,
१६. निर्धूम अग्नि
स्वप्न बेलाके समय हस्त नक्षत्र था, जो मंगल और विभूतिका प्रतीक है । स्वप्नदर्शन के अनन्तर त्रिशलाकी निद्रा भंग हुई और वह सोचने लगी- आज कभी भी इस प्रकारके स्वप्न दिखलायी ही नहीं पड़े। क्या कारण है कि आज तक मेरे मनमें हर्ष और उल्लास इतना अधिक बढ़ रहा है ? जिस बातकी कल्पना मैंने कभी जागृत अवस्था में नहीं की, वह स्वप्न में क्यों आई ? कम्बद्ध प्राणी की क्रियाएं भूत और भावी जीवनको सूचना देती हैं। स्वप्नका अंतरंग कारण ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय और अन्त रायके क्षयोपशमके साथ मोहनीयका उदय है। जिस व्यक्ति के जितना अधिक इन कर्मोका क्षयोपशम रहता है, उस व्यक्तिके स्वप्नोंका फल भी उतना ही अधिक सत्य निकलता है। तीव्र कमवा व्यक्तियोंके स्वप्न निरर्थक एवं सारहीन होते हैं । इसका मुख्य कारण यही है कि सुषुप्तावस्थामें भी आत्मा सो जागृत रहती है, केवल इन्द्रियों और मनकी शक्ति विश्राम करनेके लिये सुषुप्त सी हो जाती है।
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जिस व्यक्तिके ज्ञानावरणादि कर्मोंका क्षयोपशम है, उसके क्षयोपशमजन्य इन्द्रिय और मन संबन्धी चेतनता और ज्ञानावस्था अधिक रहती है । अतएव ज्ञानकी मात्राको उज्ज्वलतासे निद्रित अवस्थामें जो कुछ दिखलायी पड़ता है उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भायी जीवनसे है। पौराणिक अनेक ८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
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आख्यानोंसे भी यही सिद्ध होता है कि स्वप्न मानवको उसके भावी जीवनमें घटित होनेवाली घटनाओंकी सूचना देते हैं। मेरे द्वारा देखे गये ये स्वप्न सामान्य नहीं हैं । इनसे अवश्य ही भविष्य की सूचनाएँ उपलब्ध होंगी ।
त्रिशला जैसे-मैले स्त्री कप विचार करती है, वैसे-वैसे उसका मानसिक तनाव बढ़ता जाता है। उसकी चिन्तनधारा स्वप्नोंका फल अवगत करनेके लिये उतनी ही अधिक प्रबल होती जाती है । उसकी उत्सुकता बढ़ती जाती है और वह अपने द्वारा देखे गये स्वप्नोंका फल ज्ञात करनेके लिये अपने पति महाराज सिद्धार्थके पास जानेका निश्चय करती है।
नित्य कर्म से निवृत हो त्रिशला उल्लास और हर्षसे विभोर होकर वस्त्राभूषण धारण करती है और पूर्णतया अपनेको सज्जित कर राजसभामें चलनेके लिये तैयार हो जाती है ।
राजसभामें पहुँचने पर महाराज सिद्धार्थं उठकर उनका स्वागत सम्मान करते हैं और अर्द्धासन दे त्रिशलाको यथोचित स्थान देते हैं। सभी सभासद उठकर महारानीका जय-जयकार करते हुए अभिननन्दन करते हैं।
महाराज सिद्धार्थ ... "देवी! आपने इतने सबेरे राजसभामें आनेका क्यों कष्ट किया ? यदि कोई आवश्यकता थी, तो मुझे ही क्यों नहीं बुला लिया ? मैं आपका आदेश प्राप्त करते ही अन्तःपुरमें चला आता ।"
त्रिशला – कोकिलकंठसे कहने लगी- "स्वामिन्! मैंने रात्रिके पिछले प्रहर में सोलह स्वप्न देखे हैं । इन स्वप्नोंका फल जाननेके लिये मेरा मन बेचैन है। निमित्तशास्त्र में अन्तिम प्रहरमें देखे गये स्वप्नोंको भविष्यफलसूचक बतलाया गया है । में इन स्वप्नोंका फल जानने की इच्छा से आपके समक्ष उपस्थित हुई हैं। कृपया मेरे देखे गये सोलह स्वप्नोंका फल बतलाइए | "
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महाराज सिद्धार्थं त्रिशला द्वारा बतलाये गये सोलह स्वप्नोंको सुनकर कहने लगे - "देवि ! तुम्हारे गर्भ से एक महान विभूति जन्म लेनेवाली है, जिसके अस्तित्व मात्र से अन्याय, हिंसा, असत्य, परिग्रह, संघर्ष, अत्याचार आदिका अन्त हो जायेगा | त्रिशले ! तुम बड़ी भाग्यशालिनी हो कि तुम्हारी कुक्षिसे एक अपराजिता ज्योति प्रादुर्भूत होनेवाली है। युग आयेंगे और जायेंगे, पर तुम्हारे पुत्री कीर्ति - गाथा सर्वत्र और सदैव गूँजतो रहेगी। वह देवोंके देव और अमरोके भी श्रद्धा - पात्र होंगे। उनकी चरण-वन्दना के लिये मनुष्योंकी तो बात ही क्या इन्द्र भी लालायित रहेंगे। ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ तो उनके चरणोंपर लोटती रहेंगी। वह लोक कल्याणके लिये अपने सुखका त्यागकर अलख जगायेगा !"
तोकर महावीर और उनकी देशना ८९
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गज : तीर्थनायक
गज स्वप्नशास्त्रम महत्ताका प्रतीक है | इस स्वप्न-दर्शन द्वारा महान तीथंप्रचारक होनेकी सूचना प्राप्त होती है। त्रिशले ! तुम्हारा बालक महान होगा, संतप्त विश्वका उद्धारक होगा और तीर्थनायक बनकर अनेकान्त-शासनका पुनरुद्धारक और प्रचारक होगा। गर्भस्थ बालक अपने उदात्त गुणोंके कारण तीर्थकर पदको प्राप्त करेगा और इसके द्वारा अहिंसाका सार्वजनीन प्रचार होगा । अहिंसा, अभय और समताके भावोंका प्रसार होगा |
स्वप्नशास्त्रके अनुसार चतुर्दन्त गजको किसी महान् अभ्युदयकी प्राप्तिका प्रतीक माना जाता है। जो गज उन्नत और पुष्ट होता है, उसका स्वप्नदर्शन भावी अभ्युदयका निमित्त समझा जाता है। राज्यलक्ष्मी उसके चरणोंकी सेवा करती है। लौकिक अभ्यदय उसे घेरे रहते हैं, पर वह मनुष्यजातिके अभ्युत्थानके लिये कृतसंकल्प रहता है । वह अपनी साधनामें चुपचाप बढ़ता जाता है और करुणाका अवतार बनकर जगत्का उद्धारक बनता है। श्वेत वृषभ: सत्यप्रवर्तक
जब स्वप्न में उन्नत स्कंध वाले श्वेत वृषभका दर्शन होता है, उस समय उस स्वप्न-दर्शन द्वारा भावी बालकको सत्य-धर्मका प्रचारक समझा जाता है। निश्चयतः यह स्वप्न पवित्र आचरणसम्पन्न, दिव्यज्योतिके प्रादुर्भावका सूचक है। इस स्वप्न द्वारा निर्भीकता, सहिष्णुता और समत्वकी सुचना प्राप्त होती है। लोककल्याण सत्य-धर्ममें निहित है। इस सत्यका साक्षात्कार उग्र तपश्चरण, वासनाओंसे युद्ध एवं आसक्तियोंके संघर्ष-विजय द्वारा होता है । गर्भस्थ बालक मार्गभ्रष्ट जनमानसकोसत्यके लिये प्रेरित करेगा। जगतमें व्याप्त अज्ञानरूपी अन्धकारको छिन्नकर शान्ति और कल्याणका सन्देश देगा । बालकके जन्मसे देश और धरा तीर्य बन जायेंगी । युगों तक विश्वकी मृत्तिका चन्दन बनकर महकती रहेगी । कोटि-कोटि मानव उसके द्वारा पावन को गयो मिट्टी में लोटकर अपने तनमनको पवित्र बनायेंगे । बालकके त्याग और तपश्चरणसे सुख-सरिताएँ तरंगित हो जायेंगी । श्रद्धाकी त्रिवेणी प्रवाहित होने लगेगी। मृत्युविजेता हो वह धरतीकी गोदको अक्षय सुख और शान्तिको मणियोंसे भर देगा। सत्यका आलोक प्रस्फुटित हो जायगा । यह स्वप्न सत्यसन्ध और धर्मनिष्ठ होनेका प्रतीक है । बालक धर्मविशेषका प्रतिनिधि हो जनताको शान्ति और सुख प्रदान करेगा। सिंह : अनन्त ऊर्जाका घोतक
स्वप्नशास्त्रमें सिंहको बल, प्रताप और पौरुषकी वृद्धिका प्रतीक माना गया है । युद्ध-क्षेत्रमें शत्रुओंको परास्त करने योग्य सामर्थ्यको सूचना भो इस ९० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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स्वप्नसे प्राप्त होती है । देवि ! तुमने स्वप्नमें उछलते हुए सिंहका दर्शन किया है, जिसका फल गर्भस्थ बालकको अतुलपराक्रमी और शूर-वीर होना है । बालक अपनी अपार ऊर्जाको प्रादुर्भूत कर कर्म-शत्रुओंको नष्ट कर आत्मज्योति प्राप्त करेगा। उसके मनमें न कोई तनाव होगा, न कोई चिन्ता होगी और न वह संसारके प्रलोभनोंमें आसक्त रहेगा । जन्मसे ही वह आत्मवष्टा होगा। बड़ेबड़े सम्राट् और इन्द्र-धरणेन्द्र उसके चरणोंकी वन्दना करेंगे। श्रम, साधना और तपके माध्यमसे अपनो अनन्त कजाका विकास कर परमात्मपद प्रास करेगा । बालककी ऊर्जा पूर्णतया प्रस्फुटित होगी और उसके अध्यात्म-पराक्रमकी सभी लोग प्रशंसा करेंगे। मग्वार-पुष्पमाला : दिग्दिगन्त यशःसुरभि-विस्तार
मन्दार-पुष्पोंकी माला उत्सव, यश एवं प्रसिद्धिको सूचक है। इस स्वप्नदर्शन द्वारा बालकके यशस्वी होने एवं उसके कान्तिमान सुरभित सुस्फीत शरीरकी सूचना मिलती है । यह स्वप्न अनेक शुभ लक्षणोंका सूचक है । बालकका शरीर सुगन्धित एवं बनेक शुभ लक्षणोंसे युक्त होगा। यह इन्द्रियोंका निग्रह कर संयम और समताका आचरण करेगा। लक्ष्मी : इन्द्र-देवेन्द्रों द्वारा वन्दनीय
लक्ष्मी-दर्शनसे यह प्रकट होता है कि सुमेरु पर्वतपर सौधमं आदि इन्द्रोके द्वारा बालकका जन्माभिषेक सम्पन्न किया जायगा । राजा-महाराजाओके साथ इन्द्र, धरणेन्द्रादि उसके चरणोंकी पूजा करेंगे । तीर्थंकरप्रकृति के अतिशय पुण्यप्रभावके कारण जन्मसे छ: महीने पहलेसे ही कुबेरादि धन-सम्पत्तिको वृद्धि करेंगे। बालक अतिशय पुण्यके प्रभावसे सभीका लोकप्रिय होगा । वह केवलज्ञानादि लक्ष्मीका प्राप्तिकर्ता होकर पुनर्जन्म, आस्मा एवं षद्रव्योंके महत्त्वका प्रतिपादन करेगा । बालकके सौम्य दर्शनसे सिंह और गाय एकसाथ निवास करेंगे । चन्द्र : अमृत-वर्षण
स्वप्नमें चन्द्रमाका दर्शन अमृत-वर्षाका प्रतीक माना जाता है। गर्भस्थ बालककी वाणीसे कोटि-कोटि मानवोंके हृदयोंको मलिनता दूर होगी। उनके अमृत-स्पर्शसे सर्वत्र शीतलता व्याप्त हो जायगी। धर्मामतके वर्षपसे जगतका सन्ताप दूर होगा | धर्मामृत प्राणोंमें नव शक्तिका संचार करेगा। नश्वरको स्थायित्व प्रदान करेगा। इनके धर्मामृतसे संसारके क्लेश मिट जायेंगे, मलिनताके बादल छंट जायेंगे और पारस्परिक पृथकताओंको दूरी सिकुड़कर समाप्त हो जायगी। धर्मके सम्बन्धमें विकृत हुई भावनाका अन्त होगा। विपरीत
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व्याख्याएं समाप्त हो जायेंगी और सत्यका आलोक प्राप्त होगा। महावीरकी अमृत-वर्षा शीतल और सुखकर होगी । आत्माके वास्तविक स्वरूपका परिमान प्राप्त होगा। अहिंसाका चन्द्रोदय जगतके प्राणियोंका पथ-प्रदर्शन करेगा । संसार-समुद्र में निमग्न प्राधियोको वह सहास देगा, भाण करमा, शस्त्रा देगा, गति देगा और प्रतिष्ठा प्रदान करेगा। इनका धर्मामृत भुषितोंकेलिये भोजनसदश, प्यासोंकेलिये जलसमान और रोगियों के लिये औषधसमान होगा। इनकी वाणी अमृतका अक्षय कोष होगी। सूर्य : विध्यज्ञानप्राप्ति
सूर्य-दर्शनसे भावी बालक अज्ञानरूपी अन्धकारको नष्ट करनेवाला और सूर्यके समान भास्वर केवलज्ञानको प्राप्त करेगा । यों तो जन्मसे ही मत्ति, श्रुत और अवधिज्ञानका धारी होगा, पर वह अपने त्याग, तपश्चरण द्वारा कमकालिमाको भस्मकर केवलज्ञान प्राप्त करेगा। पूर्णशानी ही जगतके उत्थानका कार्य कर सकता है। केवलज्ञानको ज्योतिके समक्ष अणित दीपक और असंख्य सूर्य-चन्द्र निस्तेज हो जाते हैं । बालकको जगतके अनिवार्य कोलाहलके मध्य आरमाका संगीत सुनायी पड़ेगा। उनकी शान-ज्योति सरागताको समाप्त कर वीतरागताका विकास करेगी। तालाबोंमें ही नहीं, पृथ्वीपर भी इस दिव्यज्ञान-मार्तण्डके आलोकसे कमल विकसित हो जायेंगे। जलपूर्ण फलश : करुणाका प्रसार ___ जलपूरित दो स्वर्ण-कलशोंका दर्शन गर्भस्थ बालकके कल्याणकारी सुन्दर एवं ध्यानरत्त होनेका सूचक है। यह स्वप्न करुणाका प्रतीक है । बालक करुणासे द्रवीभूत हो अहिंसाके मार्गका प्रचार करेगा । उसका समस्त जीवन हिंसाके विरुद्ध संघर्ष करने और अहिंसाके प्रचारमें व्यतीत होगा। जिस प्रकार भयसे समाकुल प्राणियोंके लिये बलवानकी शरण आधार है, उसी प्रकार विश्वक दुःस्लोंसे भयभीत प्राणियों के लिये अहिंसा आधार है। अहिंसाकी मंगलमयताका उद्घोष इस बालक द्वारा होगा । मन, वचन और कर्म द्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ मित्रताका भाव स्थापित कर करुणाकी प्रतिष्ठा करेगा । अनुकम्पा, दया, करुणा, सहानुभूति और संवेदना आदिको अहिंसाके अन्तर्गत सिद्ध करेगा। मत्स्ययुगल : अनन्त सौख्यकी उपलब्धि
मस्स्ययुगलको अनन्त सुखकी उपलब्धिका सूचक बताया गया है । स्वप्नशास्त्रमें मत्स्य-दर्शनको भावी सुख-समृद्धिका प्रतीक माना है । व्यक्ति प्रमादरहित हो अपने पुरुषार्थमें अहर्निश आगरूक रहता है और उसे अभीष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । निस्संदेह यह बालक सर्वजनकल्याणक और सुखी होगा। ९२ : तीर्थकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
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जलाशय : संवेदनशीलता
जलाशय संवेदनशीलताका प्रतीक है। गर्भस्य बालक मानव-चेतनाका अध्ययन कर संवेदनशील होगा और पथभ्रष्ट मानवताको कल्याणके पथपर पहुंचायेगा । वह पशुओंका गोपाल, शूद्र और नारियोंके आंसुओंको अपने हाथोंसे पोंछनेवाला, सर्वधर्म समभावी और विश्वमैत्रीका प्रचारक होगा। अज्ञानतिमिरको दर हटाकर नव प्रकाश विकीर्ण करेगा और रोते हुए लोगोंके आँसुओंको पांछकर उन्हें गोदामे बैठायेगा। दलित और पतित मानवोंको कण्ठसे लगायेगा, उन्हें सहारा देगा और जाति-मदके विषको दूर कर अमृतमें परिणत करेगा | आडम्बर और गुरुडमको दूर कर अपनी संवेदना द्वारा शान्तिका सन्देश देगा। इतना ही नहीं, वह दुःखी जगसको अपनी सहानुभूति और संवेदना द्वारा सांत्वना देगा। सागर : हृदयको विशालता
गम्भीर घोष करते हुए समुद्रका स्वप्न हृदयकी विशालताका प्रतीक है । मोघजीवी स्वार्थी पण्डितोने मानवताके अधिकारसे वंचित कर जनसामान्यको निरुपाय और निःसहाय बना दिया है। ऐसे व्यक्तियोंको राहत पहुँचाना और उन्हें खोये हुए अधिकारोंकी पुन: प्राप्ति कराना गर्भस्थ बालकका कार्य होगा | उसके हृदयकी विशालसा ही हिंसापूर्ण क्रिया-काण्ड, जातिमद, स्वार्थवश में च-नीचत्व, आदिका निरसनकर मानवताकी यथार्थ प्रतिष्ठा करेगी ! वह अतिभोग और अभावग्रस्त प्राणियोंका विवेक जागत कर उन्हें मानव बनने के लिये प्रेरित करेगा। मनिटित सिंहासन : वर्चस्व और प्रभुत्व
मणिजटित सिंहासन भावी बालकके वर्चस्व और प्रभुत्यका प्रतीक है वह अन्तःसम्पदा और अक्षयनिधि प्राप्त करेगा। उसके जीवन में कत्तत्व और भोक्तृत्वकी अप्रतिम भावसंज्ञाएं विसर्जित हो जायंगी। प्रज्ञाका धनी वह महाचेता बन अपनी चेतनाका ऊर्वीकरण कर स्थिर-प्रकताको प्राप्त करेगा। प्रेम, करुणा और वात्सल्यको अनन्ससामें वह समा जायगा । उसके वित्तकी चंचलसा, चेतनाको चिन्मयतामें रूपान्तरित हो जायगी। बास्माकी गतिशीलता अन्तश्चेतनाके उर्वीकरणका सृजन करेगी । उसका पौरुष जीवनसे पलायन नहीं, जीवनको अन्तनिहित शक्तियोंका स्फुरण करेगा। देव-निमाम कोति
स्वप्नमें देव-विमानके दर्शनसे यह सूचित होता है कि गर्भस्थ बालक स्वर्गसे भ्युप्त हो जन्म ग्रहण करेगा। इस बालककी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त हो जायगी। उसके
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कार्योको यशोगाथासे जन-जन परिचित हो आयेगा | परम्परागत धर धार्मिक कर्म काण्ड समाप्त हो जायेंगे । जनताके समक्ष रूढ़ियोंकी आलोचना कर धार्मिक प्रतिष्ठानके विरुद्ध कान्तिका शंखनाद करेगा | वह मनुष्य-मनुष्यके बीच होनेवाली दलालीको बन्दकर उदार नीतिका प्रचार करेगा। जातिप्रथा और कर्मकाण्डपर प्रहारकर अपने क्रान्तिकारी विचारों द्वारा जनमानसको आलोकित कर देगा। वह जड़-चेतनका स्वतंत्र अस्तित्व प्रतिपादित कर एकाधिकारका विरोध करेगा । व्यक्तिकी स्वतंत्रताका उद्घोषकर अनेकान्तास्मक दृष्टिकी स्थापना करेगा । उसकी अपनी राह होगी, अपनी करनी होगी और वह अपने बल-पौरुष द्वारा स्वतन्त्रताका प्रचार करेगा ।
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धरणेन्द्र भवन अवधिज्ञान
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नागेन्द्र भवन के अवलोकनसे गर्भस्थ बालक अवधिज्ञानका धारी होगा । जन्मकालसे ही वह अपनी प्रतिभा द्वारा लोगोंको आश्चर्यचकित करेगा । आत्मा और ज्ञान ज्योतियाँ जगमगा जायेंगी और सर्वत्र प्रकाश व्याप्त हो जायगा । सारे अन्तर्विरोध समाप्त हो जायेंगे | आत्मदर्शन द्वारा वह जगतको निराकुल बनाने का प्रयास करेगा । जन्मसे ही अद्भुत रोशनी प्राप्त कर वह वीतरागता और अनेकान्तवादका अमृतवर्षण करेगा । उसका चित्त भवसागर के तटपर चरम शक्तिका अन्वेषण करेगा । उसकी साधना के सम्मुख सांसारिक सुख अकिंचन हो जायगा | समस्त व्यवधान, अमंगल, कोलाहल शान्त हो दिव्य आलोक प्रस्तुत करेंगे | आत्म शुद्धिकी दिशामें बढ़ता हुआ वह एक नयां आलोक प्राप्त करेगा | धर्मान्ध जनता विवेक प्राप्त कर उसका नेतृत्व स्वीकार करेगी ।
रस्तोंकी विशालराशि : अनन्तगुण
स्वप्न में रत्नराशिका दर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रयकी प्राप्तिका प्रतीक है । जीवनका वास्तविक कल्याण रत्नत्रयसे ही होता है। इस स्वप्न-दर्शनका फल समता, सहिष्णुता आदि लोकोत्तर गुणोंकी प्राप्ति भी हैं। बालक अपने समस्त आचरण और दिनचर्या में सजग रहेगा । सभी प्रकारके संयम ग्रहण करेगा । वह ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, लोभ, मोह, छल, कपट, घृणा आदिसे रहित होगा । न उसका कोई शत्रु होगा, न मित्र, वह सभीके प्रति समभाव रहेगा। आकाशके समान व्यापक शुद्ध अन्तःकरण - निर्मल हृदय, कमलपत्र के समान सर्वथा अलिप्स और सिंहके समान निर्भय विश्चरण करेगा । वह अपना ज्ञान जन-जनको बांट कर मुक्तिका पथ प्रशस्त करेगा ।
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निधूम अग्नि
निर्वाण
गर्भस्थ बालक अपनी समस्त कर्म -कालिमाको नष्टकर निर्वाण प्राप्त करेगा 1 आत्माका सच्चा सुख निर्वाण प्राप्ति ही है । इसीके लिये संयम तपकी कमसे साधना को जाती है । बालकका भविष्य बहुत ही उज्ज्वल हैं। वह युद्ध कर अपनी आत्माको शाम मुख-प्राप्तिकी ओर लगायेगा । भारतकी मानसिक और सांस्कृतिक पंगुताको समाप्तकर स्वस्थ चिन्तनकी वीणा वादित मधुर् करेगा। लोक-जीवन और लोकशासन पावनताका अनुभव करने लगेगा | अज्ञान, अधर्म, अन्याय और अत्याचार समाप्त हो जायेंगे | आत्म-स्वातन्त्र्यको भावना द्वारा वह जनमानस के मनोवलकी वृद्धि करेगा। आत्मा अज्ञान, मोह और मिथ्यात्वसे मुक्त हो जायगी । विश्व बन्धुत्व और विश्व मंत्री की भावनाओंका मार होगा ।
भावी बालक स्वयं अपना तो उद्धार करेगा हो, अपने उपदेशों द्वारा आडम्बर और औपचारिकताओंका भी अन्त करेगा । सच्ची रुचि, सच्ची पहचान और सच्चा आचरण उसके जीवनका लक्ष्य होगा ।
इस प्रकार विशिष्ट निमित्तज्ञानी महाराज सिद्धार्थ द्वारा स्वप्नोंके उपकरने युक्त फलको सुनकर त्रिशला धन्य हो गयी और अपने भाग्यकी सराहना लगी । भाग्यशाली पुत्रका जन्म अवगतकर उसका मन अपार वात्सल्य और उत्साह से भर गया। वह उस भाग्यशाली क्षणकी उत्कंठापूर्वक प्रतीक्षा करने लगी | माँ त्रिशलाका मन होनेवाले बालककी विशेषताओंको ज्ञात कर अत्यन्त शान्त हुआ। वह सोचती है- "जिस दिन मेरी कुक्षिसे यह बालक जन्म ग्रहण करेगा, उस दिन मुझ जैसी बड़भागिन कौन होगी ? माँकी साध सुयोग्य सन्तान प्राप्त करने की है। यदि यह प्राप्त हो जाये, तो मातृत्व चरितार्थ हो जाता है ।" पुण्य-चमत्कार
पुण्योदमसे संसार के समस्त वैभव प्राप्त होते हैं। पुण्यात्मा के यहाँ लक्ष्मी दासी बन जाती है, कुबेर किंकर हो जाता है और जगतके वैभव हस्तामलक हो जाते हैं। महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला के पुण्य- वैभवका कहना ही क्या, जिनके यहाँ अच्युत स्वर्गसे च्युत हो तीर्थंकर महावीरका जीव पुत्ररूपमें जन्म ग्रहण करनेवाला है । सारा उपनगर हर्ष उल्लास और उमंग से अनुस्यूत है । सिद्धार्थका घर-आंगन देव-देवांगनाओंका क्रीडास्थल बना हुआ है । महावीरका गर्भकल्याणक सम्पादन करनेके लिये मनुष्योंको तो बात ही
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क्या, चतुर्निकायके देव भी आतुर हैं । वैशालीके समस्त नगरों और उपनगरों की
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कृषि - सम्पत्ति बढ़ रही है। गोधन, अश्वघन और गजधनकी वृद्धि हो
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रही है। फसलोंकी हरीतिमाने जन-जनको पुलकित कर दिया है। पशुओंने मनार वैर
विलोड़ दिया है। भीली पिकारिणी-त्रिशलाकी शोभा-वृद्धिमें. हृदेची लज्जाकी समृद्धि में, धृतिदेवी धैर्य के संवर्द्धनमें, कीर्तिदेवी स्तुतिगानमें, बुद्धिदेवी विवेक और विचारके संरक्षणमें एवं लक्ष्मीदेवी धन-धान्य समद्धिकी वृद्धि में संलग्न हैं । माता त्रिशलाकी सेवा महल की परिचारिकाएं तो करती ही हैं, पर स्वर्गकी देवांगनाए भी आकर उनकी सेदा-शुश्रूषामें रह रही हैं।
यह सब कुछ विलक्षण, पर सुहावना दिखलायी पड़ता था । समस्त अन्त:पुर हर्ष और आनन्दमें विभोर था । माता-त्रिशलाकी की जानेवाली सेवा शब्दातीत थी 1 देवियों और परिचारिकाओं द्वारा की जानेवाली सेवाके समक्ष सभी हार मान जाते थे । त्रिशलाके मनोरंजन हेतु नाना प्रकार के साज-सामान एकत्र किये जाते थे । देवियां और परिचारिकाएँ माताके मनबहलावके हेतु विविध प्रकारके प्रश्न और पहेलियाँ पूछती थीं। प्रत्येक क्षण त्रिशलाकी समस्त सुख-सुविधाओंका ध्यान रखा जाता था।
महाराज सिद्धार्थ भी गर्भवती त्रिशलाके समस्त दोहदोंको पूर्ण करनेके लिये सचेष्ट थे। उन्होंने अनेक अप्रमत्त परिचारिकाएं नियत की थीं। वे सभी परिचारिकाएँ माताके स्वभाव और प्रवृत्तिका अध्ययन कर कार्य करती थीं। अद्भुत पुण्यके प्रभावसे समस्त समवाय विलक्षण ही था। ममोरखनार्य : संगीत, नृत्य एवं चित्रकला
भारतीय सभ्यतामें संगीत, नृत्य एवं चित्रादि कलाएँ मनोविनोद अथवा भोग-विलासका साधन नहीं है, अपितु इनमें तत्त्ववाद, कल्पनात्मक विस्तार एवं ऐतिहासिक परम्पराका प्रच्छन्न रूपपाया जाता है । कला केवल शारीरिक अनुरजन ही नहीं करती, अपितु मानसिक और बौद्धिक विकासका भी संकेस प्रस्तुत करती है। तीर्थंकर महावीरकी माता त्रिशलाके मनोविनोदार्थ संगीत एवं नृत्यादि कलाएं सेवाके हेतु प्रस्तुत देवियोंने उपस्थित की। नवीन रूपकों, नयी रेखाओं एवं नये रंगोंसे विभिन्न प्रकारके चित्रोंका निर्माण कर माताको प्रसन्न किया। विवालों, काट-फलकों एवं वस्त्रोंके ऊपर भी विचित्र, अविचित्र एवं रसचित्र अंकित किये गये। कलाद्वारा विभिन्न प्रकारको लोलाएँ एवं शिल्प-साधनाएँ चित्रित कर सत्य, शिव और सौन्दर्यकी पूर्णतया अभिव्यक्ति की गयी है। लोक-जीवनकी रसभरी प्रेरणा द्वारा राग-रागिनी, ऋतुवर्णन, लोला-वर्णन एवं प्रकृतिके रम्य रूप उपस्थितकर माताका अनुरंजन किया जाने लगा। ९६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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संगीतकला
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संगीतका प्राण स्वर है । काव्यकी काया शब्द और अर्थों द्वारा निर्मित होती है, पर संगीत शब्दातीत है । संगीतमें रस - निष्पत्तिके हेतु वाचक-शक्तिकी अपेक्षा नहीं रहती है । यही कारण है कि संगीतकी भाषा शास्त्रत और सार्वम होती है । वह भौगोलिक सीमाओंके बन्धनसे परे रहती है । प्राणी ही नहीं, पत्तियों में भी है। सा रे, ग, म आदि सप्त स्वरोंपर आधृत है । ये सात स्वर ही सामक कहे जाते हैं । साम-गान में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ ओर मन्द्र इन पाँच स्वरोंको मुख्य माना गया है और 'कृष्ट तथा अतिस्वायं इन दो स्वरोंको गौण । साम - सिद्धान्त के अनुसार मुख्य पाँच स्वर क्रमसे मध्यम, गान्धार, ऋषभ - षड्ज और निषाद हैं। मुख्य और गौण स्वरोंको मिला देनेसे सप्त स्वर होते हैं । इन्होंके अन्तर्गत दो मध्यम स्वर माने जाते हैं, जो अन्तर और काकली कहे जाते हैं । वीणाके साथ गान करते समय ऋषभ, धैवत और मध्यम स्वरोंके विकृत रूपों को मिलाकर संगीतके बारह स्वर- स्थान, बाइस सूक्ष्म श्रुतियाँ एवं छयासठ नादके सूक्ष्मतर प्रभेद होते हैं ।
वाणीको स्वरमयी और शब्दमयी माना जाता है तथा स्वर और शब्द नादके अधीन हैं। नादको जगतका परिणाम माना गया है। इसके आहत और मनात दो भेद हैं । अनाहत नाद बिना आघात के उत्पन्न होता है। इसे केवल योगीजन ही सुनते हैं, समझते है और इसके द्वारा मोक्ष प्राप्त करते हैं । समस्त चराचर जगत नादसे प्रभावित है । हरिण और सर्प वीणाका स्वर सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं । संगीतको ब्रह्मानन्द-सहोदर इसीलिये कहा जाता है कि नादमें अपार आकर्षण शक्ति विद्यमान है। जीवन और सृष्टिके जिन रहस्योंको हम ज्ञात करनेमें अक्षम रहते हैं, संगीतद्वारा वे रहस्य सहज हृदयंगम हो जाते हैं ।
देवियां संगीतगोष्ठी और वादित्रगोष्ठी द्वारा माता त्रिशलाको प्रसन्न करती और उनके हृदयको पवित्र भावनाओंसे आप्लावित करती थीं। वे मधुर मान द्वारा ऐसे स्वर और नादका सृजन करती थीं, जिससे माताका हृदय प्रफुल्लित हो जाता था ! संस्कृति, शिक्षा, धार्मिक, नैतिक विश्वास एवं निष्ठाओं की अभिव्यक्ति संगीत के द्वारा की जा रही थी । रसानुभूतिको क्षमता और अभिरुचिका परिष्कार अनेश होता रहता था ।
माता त्रिशला संगीतके रसास्वादनद्वारा मनोविनोद तो करती ही थीं, पर वे जीवन के गम्भीर रहस्यों को भी अवगत करती थीं। विनोदकी सबसे प्रथम और बड़ी आवश्यकता है बन्धनों से मुक्ति । यद्यपि धर्म और नीति इस विनोदकी प्रवृत्तिको मर्यादित और संस्कृत करनेका सतत प्रयत्न करते आये हैं, परन्तु तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ९७
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विनोदकी आवश्यकता इसे मुक्त अन्तराल देनेके प्रयत्नमें लगी रहती है। इसका अर्थ यह है कि सौन्दर्यके सृजन और रसके आस्वादनमें जनरुचिकी सर्वाधिक अभिव्यक्ति होती है।
संगीत और सन्तुलन, लयात्मक आरोह-अवरोह तथा अंगोंका समानुपातिक विन्यास आदि सौन्दर्यके ऐसे गुण हैं, जो मानवमात्रके स्वभाव और चिके अंग बनते हैं। संगीतकला केवल अनुरंजनका ही साधन नहीं है, अपितु धर्मको भी मर्यादित और नियन्त्रित करती है । देवाङ्गनाएँ संगीतकलाका शुद्ध स्वरूप उपस्थित कर माताके समक्ष दिव्य मंगल प्रस्तुत करती थीं । जीवनके स्थल और सूक्ष्म दोनों पक्षोंका उपस्थितीकरण मानवकी मानवताका उबुर करता है । जीवनगत स्थूलको सघन अन्तरालमें युग-युगान्तरसे सोये हुए जड़-प्रत्यय एवं मुमूर्षसूक्ष्मकी कल्पना स्मृत्ति और प्रत्यभिशाको उद्बद्ध कर उसके अपराहत पौरुषको अनुष्ण अग्निशिखाको प्रदीप्त करती है। व्यावहारिकताके वर्वर क्षणोंमें मनुष्यता शील और सौन्दर्यको स्पन्दित करती है। इस प्रकार देवाङ्गनाएं विभिन्न प्रकारके गीत और वादित्र द्वारा माता त्रिशलाका मनोरंजन कर उन्हें सदैव प्रसन्न रखनेका प्रयास करती थीं। नृत्यकला
नृत्यकला भी सौन्दर्योपासनाकी एक सुखद प्रवृत्ति है। सौन्दर्य-जिज्ञासाकी इस प्रवृत्तिने ही सभ्यता और संस्कृतिको जन्म दिया। मानवसभ्यता और संस्कृतिके विकासमें नृत्यकलाका सर्वाधिक योगदान रहा है। भारतीय जीवनमें नृत्यकलाको सत्य, शाश्वत, नित्य और अनादि माना है। उसकी आराधना लोकमंगल और परमार्थ दोनोंके लिये होती है। नत्यकला अनुरंजनके लिये न होकर जोबनके विकासके लिये है । नृत्यका व्यापक अनुराग काम, क्रोधादि विकारोंको शमन करनेका भी कार्य करता है। आंगिक संकेतोंद्वारा भावाभिव्यजनकी प्रवृत्ति नृत्यमुद्राओंमें देखी जा सकती है। देवाङ्गनाएं माता त्रिशलाको अपने विभिन्न अंग-संचालन द्वारा प्रसन्न करती थीं। नृत्य करते समय देवाङ्गनाओंकी दन्तपंक्तिसे नि:सूत किरणें मुस्कराती हुई जान पड़ती थीं। लयके साथ पाद-संचालनकी गति और हाव-भावयुक्त विलास रस-धाराका सृजन करते थे । नृत्यमें संलग्न देवियाँ अनेक प्रकारको गति, तरह-तरहके गीत, नृत्यविशेष एवं विचित्र शारीरिक चेष्टाओं द्वारा माताके मनको उत्कंठित करती थीं। हस्त-पल्लवोंसे वीणा-वादन करतो हुई विभिन्न शारीरिक चेष्टाओं को प्रस्तुत करती थीं । ताल और स्वरके साथ मन्द और मधुर रूपमें प्रस्तुत की गयी शारीरिक चेष्टाएं जनमानसका अनुरञ्जन करती ही हैं। ९८ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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वस्तुतः नृत्य जीवनके विस्तारका नाम है। यह जीवनका अनुपम और अमूल्य अंग है। जीवनका अर्थ है प्रगति एवं प्रवृत्तिकी गाथा तथा कर्मका इतिवृत्त । जिस जीवन में नृत्य और संगीतका विकास न हो, वह भारभूत हो जाता है। जीवन में यदि नत्यादि कलाएं न हों, तो मानवकी सात्विकता और पशकी पाशविकतामें अन्तर ही न रहे। संगीत और नृत्यकला विहीन जीवन अपूर्ण, वेग-रहित और नीरस है । जीवन में प्रगति लाना नृत्यादि-कलाओंका धर्म है। जैसे-जैसे जीवन में नृत्य और संगीत आदि कलाओंका विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे जीवन मूल्यवान् बनता जाता है । अतः कलाकी निर्मलता और पवित्रताका प्रभाव भी निर्मल एवं पावन होता है। संगीत और नृत्य आत्मलीन होनेके साधन हैं। ये जागृतिके कारण हैं। आत्म-स्वतन्त्रता एवं आनन्द-प्रमो. दकी प्राप्ति इन्हींके द्वारा सम्भव है।
संगीतशास्त्रमें विभिन्न मुद्राओंका उल्लेख आता है। मुखराग एवं हस्ताभिनय भी नृत्यके अन्तर्गत हैं। नर्तक एवं नर्तकियाँ मेधा-स्मृति, गुणश्लाघा, राग, संसर्ग और उत्साहसे युक्त होकर गीत वाद्य-तालके अनुसार पाद-संचालन कर विविध प्रकारके स्वाभाविक परिभ्रमण प्रस्तुत करती थीं। पताकहस्त, त्रिपसाक-हस्त, अर्द्धपताक-हस्त, कर्तरमुख-हस्त, मयूर-हस्त, अर्द्धचन्द्रहस्त, सुचीहस्त, चतुरहस्त, भ्रमरहस्त, व्यानहस्त, कटकहस्त एवं पल्लीहस्त आदि बत्तीस प्रकारको सयुक्त हस्तमुद्राओं द्वारा धियां अभिनय करती थीं। असंयुक्त हस्तमुद्राओंमें अञ्जलि, कपोत, कर्कट, पुष्पपुट, उत्संग, शकट, शंख, चक्र, सम्पुट, पाश, कोलक, मत्स्य, वराह, गरुड़, नागबन्ध आदि तेइस प्रकारकी मुद्राएं परिगणित हैं । शृङ्गारादि नव रसोंको अभिव्यक्त करनेवाले नृत्य उपस्थित किये जा रहे थे। इस प्रकार देवाङ्गनाए संगीत एवं नृत्य द्वारा माता की आनन्दोपलब्धिका साधन बन रही थीं। ये रसाश्रित और भावात्मक नृत्य उपस्थित कर माताको प्रसन्न करती थीं चित्रकला
गर्भस्थ बालकके सम्पक पोषण हेतु माताका प्रसन्न और आनन्दित मुद्रा में रहना आवश्यक माना जाता है। जीवनके विविध अनुभवोंका मूल्य अवगत करनेके लिये चित्रकलाको भी आवश्यकता अनिवार्य है । संस्कृतिकी पहचान इसीके द्वारा होती है । चित्रकलाका प्रधान कार्य कल्पनाको जागृत कर जीवनको पूर्ण बनाना है। इसकी मुख्य शर्त यह है कि इसमें जीवनका तटस्थ अनुभव ही प्राप्त हो । यथार्थताके सान्निध्यमें जो व्यवहार अनिवार्य बन जाये, उसमें उसके लिये जरा भी गुंजाइश नहीं। मनुष्यके आस-पास अपार जीवनलीलाका विस्तार रहता है। रेखा, परिबन्धन, आवेग और आलेखन द्वारा विभिन्न प्रकार
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की भाव-भंगिमाएं व्यक्त को जाती हैं। देवाङ्गनाएं चित्रकला द्वारा माताके अन्तर्जीबनकी भूखको मिटानेवाले रसोंका सृजन करती थीं। वस्तुतः चित्रकला सन्तप्त हृदयों के समाधान और विश्रामके लिये अथवा दैनिक जीवनको क्षुद्र बना देनेवाली घटनाओंसे दूर हटाकर आन्तरिक जीवनको उद्दीपन और पोषण प्रदान करनेवाली दिव्य जड़ी है । चित्रकलाको प्रशस्तिमें सौन्दर्यको माता श्री अनेक बार उसइ हुई दिखलायी पड़ती है। मनोभावों में सुसम्पादन और लीला-वैविध्यका उद्रेक चित्ताकर्षक सौन्दर्यषा आग्रह करता है ।
चित्रकलाकी प्रवृत्ति अनादिकालस मानवसमाजमें पायी जाती है। विभिन्न सामाजिक स्तरोंकी जानकारी चित्रकला द्वारा प्राप्त की जाती है। मनोगत भावों एवं विभिन्न शारीरिक चेष्टाओ का अंकन भी चित्रकलामें सम्भव होता है। चित्रकलाका सर्वस्त्र उसकी भावधारा है और इस भावधाराका अंकन विभिन्न शैलियो द्वारा किया जाता है।
देवाङ्गनाएँ चित्रोको करुणाके सूत्रमें आवद्ध कर विभिन्न सभ्यताओंके संघर्ष और आघातोंका अंकन करती थीं। इनके द्वारा निर्मित चित्रों में निम्नांकित विशेषताएं उपलब्ध होती थीं :
(१) सादश्यकी उपेक्षा और भावको प्रधानता, (२) रंगानुकूल रेखाओंका चित्रण एवं विभिन्न गतिविधिका रूपांकन, (३) रंगों द्वारा भारतीय वातावरणका सृजन, (४) दृष्टि-सरणिको विषयपर अवलिम्बत न रहने देना, (५) शाश्वत सौन्दर्यका अंकन ।।
देवाङ्गनाएँ पद-चित्र, फलक-चित्र और भित्ति-चित्रों द्वारा माताका मनोरंजन करता हुई उनको सुसंस्कृत रुचिका परिष्कार करती थीं। बताया गया है कि देवियां आलस्थरहित होकर रत्नोंके चूर्णसे रंगावली तैयार कर धूलिचित्रोंका निर्माण करती थीं। रंग-विरंगे चौकके चारों ओर पुष्प विकीर्ण कर रसमय चित्रोंका निर्माण करती थीं । वीणा और मृदंग आदि वाद्य बजाती हुई देवियाँ मनोहर और आकर्षक चित्रों द्वारा माताके मनका आकर्षण करती थीं।
इस प्रकार नृत्य-गोष्ठी, वाद्य-गोष्ठो, संगीत-गोष्ठी, अभिनय-गोष्ठी, चित्रगोष्ठी आदिके द्वारा माता त्रिशलाके मनमें रस-माधुर्यका संचार करती थीं। काव्य-गोष्ठीद्वारा मनोरञ्जन ___ गर्भके नवम मासमें माता त्रिशलाके मनोविनोदार्थ देवियां विशिष्ट-विशिष्ट काव्य-गोष्ठियोंका आयोजन करती थीं। मूढ़ अर्थ, गूळ क्रिया, गूढ़ पाद एवं लुप्त मात्रा और अक्षरवाले पद्यों द्वारा माता त्रिशलाको प्रसन्न करती थीं। वे १०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कहने लगती कि हे माता ! क्या तुमने इस संसार में एक क्षीण चन्द्रमाको देखा है ? व्याजस्तुति द्वारा वे माताकी मुखकान्तिका चित्रण करती और बतलाती हैं. कि माताकी मुखकान्ति जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, चन्द्रमा उतना ही क्षीण होता जाता है। __ देवियाँ माताके मुखकमलका अनेक दुष्टियोंसे काध्यात्मक चित्रण करती थीं। वे कभी उनके मुखकमलको भ्रमरसहित चित्रित करतो, तो कभी कमलरहित । __देवाङ्गनाएँ काव्यका सृजन करती हुई कहती कि- "हे कमलनयनी ! ये भ्रमर आपके मुखरूपी कमलको आनात कर कृतार्थ हो जाते हैं। अतएव ने फिर पृथ्वीसे उत्पन्न हुए कमलके पास नहीं जाते हैं । इस प्रकार देवाङ्गनाएं काव्यपाठ द्वारा माताके मनको आनन्दित करती थीं। वे इष्टभावके स्वरूपको काव्य-बन्ध द्वारा प्रस्तुत करती थीं। लय वर्ण और दोघं वर्गोंका प्रयोग इस रूपमें करती थीं, जिससे शब्द और अर्थमें सामंजस्य एवं माधुर्य उत्पन्न हो जाता था । सुकोमल भावनाओं और अनुभूतियों का प्रचण्ड वेग उपस्थित कर वे माताको भाव-विभोर बनाती थीं। देवाङ्गनाओं द्वारा पठित काव्योंमें संगीतात्मकता और भावमयताके साथ सुकोमल भावनाओंका भाण्डार निहित रहता था । इनके काव्योंमें निम्नलिखित गुण समवेत रहते थे :
(१) अन्तवृत्तिका प्राधान्य, (२) संगीतात्मकता, (३) रसात्मकता, (४) रागात्मक अनुभूतियोंकी कसावट, (५) शब्द-चयन और चित्रात्मकता, (६) समाहित प्रभाव, (७) मार्मिकता, (८) गेयता, (९) मधुरता।
इस प्रकार देवियाँ काव्य-सृजन द्वारा माता त्रिशलाका मनो-विनोद करती थीं | गोति-नाट्य एवं प्रबन्धों द्वारा अपूर्व रसका चमत्कार उत्पन्न करती थीं। पहेलियों एवं प्रश्नोत्तरोंछारा मनोविनोद
माता त्रिशलाके मनोरंजनार्थ देवियां प्रश्न करती है कि इस संसारमें किसके वचन श्रष्ठ और प्रामाणिक हैं ? माता-सर्वज्ञ, हितैषी और वीतरागी तीर्थकरके वचन ही श्रेष्ठ हैं।
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देवियाँ -
रणरूपी विषको कालक मृत समान क्या पेय है ?
माता - तीर्थंकर के मुखकमलसे निर्गत ज्ञानामृत ही पेय है। इस ज्ञानामृत से जन्म-मरणकी संसार-परम्परा छिन्न हो जाती है ।
देवियाँ - लोक में बुद्धिमानोंको किसका ध्यान करना चाहिये ?
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माता - पञ्चपरमेष्ठी, आगम और आत्मतत्वका ध्यान करना श्रेयस्कर है । संसार परिभ्रमणके कारणभूत आतं और रौद्र ध्यान त्याज्य हैं ।
देवियाँ - किस कार्य करनेमें शीघ्रता करनी चाहिये ?
माता -- संसार-उच्छेदक अनन्तज्ञान और चारित्र के प्राप्त करने में शीघ्रता करनी चाहिये। जो आत्मकल्याणके कारणीभूत रत्नत्रयधर्मको धारण करने में समयकी प्रतीक्षा करता है, वह आत्मकल्याणसे दूर रहता है । अतः धर्मपालन में शीघ्रता करना आवश्यक है ।
देवियां -- संसारमें सज्जनोंके साथ जानेवाला कौन है ?
माता - दयामय अहिंसाधर्म ही साथ जानेवाला है, यही जीवोंका रक्षक है ।
देवियाँ - धर्मके लक्षण कौन-कौन हैं ? धर्मसाधनसे क्या फल प्राप्त होता है ?
माता - आत्मतत्त्वको अनुभूति कर द्वादश तप, रत्नत्रय, महाव्रत, अणुव्रत, शील और उत्तमक्षमादि धारण ये धर्मके लक्षण हैं । धर्मका फल कर्मनिर्जरा है ।
देवियां -- धर्मात्माओंके चिह्न क्या हैं ?
माता — उत्तम शान्तस्वभाव होना, अहंकार और ममकार न होना, शुद्धाचरणका पालन करना, धर्मात्माओंके चिह्न है ।
देवियाँ - पापके चिह्न और फल क्या है ? तथा पापी जीवों की पहचान क्या है ?
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माता -- मिथ्यात्व क्रोधादि कषाय अनायतन सेवन पापके चिह्न हैं । राग, द्वेष, मोह, क्लेशादि पापके फल हैं । अत्यधिक क्रोध, मान, माया और लोभ करने वाला, दूसरोंका निन्दक और स्व-प्रशंसक, आर्त-रोद्रध्यानधारी होना पापियोंके चिह्न हैं ।
देवियाँ - लोक विचारवान कौन है ?
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माता-सर्वन, हितोपदेशी और वीतराग देव, शास्त्र और गुरुका चिन्तन करनेवाला विचारवान है।
देवियां--परलोकगमन करते समय पाथेय क्या है ? माता-दान, पूजा, वत, उपवास, शील और संयम ही पाथेय है। देवियां-इस लोकमें किसका जन्म सफल है ?
माता-मोक्ष-लक्ष्मीके सुखदायक उत्तम मेद-विज्ञानको प्राप्त करनेवाले व्यक्तिका ही जीवन सफल है।
देवियां संसारमें सुखी कौन है ?
माता-सब प्रकारको परिग्रह-उपाधियोंसे रहित ध्यानरूपी अमृतका स्वाद लेनेवाला योगी ही सुखी है, अन्य व्यक्ति नहीं।
देवियां-संसारमें किस वस्तुकी चिन्ता करनी चाहिये और क्या उपादेय है ?
माता-कर्मोकी निर्जरा करनेकी और मोक्ष लक्ष्मीको प्राप्त करनेकी चिन्ता करनी चाहिये, इन्द्रियसुखोंकी नहीं । अतीन्द्रिय सुख ही उपादेय है।
देवियां-किस कार्यके लिये महान उद्योग करना अभीष्ट है ?
माता-रत्नत्रय और शुखोपयोगको प्राप्त करनेके लिये महान् यत्न करना हो अभीष्ट है।
देवियां-मनुष्योंका परम मित्र कोन है और अमित्र कौन है ?
माता-तप, दान, व्रत, शील, संयम आदिके धारण करनेकी ओर जो प्रेरित करे वही परम मित्र है और जो इन कार्यों में विघ्न करता है तथा हिंसा, असंयम और प्रमाद आदिमें प्रवृत्त करता हो वह अमित्र है।
देवियां संसारमें प्रशंस्य कौन है?
माता-थोड़ा धन रहनेपर भी जो सुपात्रको दान देता हो और निर्बल शरीर रहनेपर भी निष्पाप तपश्चरण करता हो वही प्रशंस्य है।
देवियों-विद्वत्ता क्या है और मूर्खता क्या है ?
माता-शास्त्रोंका ज्ञाता होकर भी जो निन्द्य आचरण और अभिमानका स्पाग करता है तथा पापाचरणसे दूर रहता है वही विद्वान् है । मिथ्याचरण, मिथ्याज्ञान और मिथ्याश्रद्धासे पृथक् रहना ही विद्वत्ता है । जो शानी होकर भी संयम, तप और त्यागका आधरण नहीं करता वही मूर्ष है । सम्यक आचरणसे पृथक् रहना ही भूखंता है। देवियां-बोर कोन है ?
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माता-पंचेन्द्रियाँ चोर हैं। ये रत्नत्रयरूप धर्मको चुरानेवाली हैं । विषयासक्ति ही जीवके विवेकको चुराती है ।
देवियाँ-शूरवीर कौन है ? ___ माता-जो धैर्यरूपी खड्गसे परीषहरूपी महायोद्धाओंको, कषायरूपी शत्रुओंको एवं काम-क्रोधादि रिपुओंको जीतनेवाला ही शूरवीर है।
देवियाँ-पिञ्जरमें कोन आबद्ध है ? कठोर शब्द करनेवाला कोन है और जीवोंका आधार क्या है ?
माता-शुक पिउजरमें आबद्ध है, काफ कठोर शब्द करता है और जीवोंका आधार लोक हे।
देवियाँ-मधुर शब्द करनेवाला कौन है ? पुराना वृक्ष कौन है ? कैसा राजा छोड़ देने योग्य है ?
माता-मयूर तथा कोयल मधुर शब्द करनेवाले हैं। कोटरवाला वृक्ष पुराना है । क्रोधी राजा छोड़ देने योग्य है ।।
इस प्रकार देवियोंने मातासे विभिन्न प्रश्न पूछे और नाना प्रकारको प्रहेलिकाएँ उनके समक्ष उपस्थित की। देवियाँ माता त्रिशलाकी सेवामें अहर्निश उपस्थित रहती थीं। तीर्थकर महावीरके गर्भमें आते हो माता त्रिशलाका मन अपार वात्सल्य और उल्लाससे भर गया। सिद्धार्थ महाराजका घर-आंगन देवोत्सवोंका रंगमंच बन गया । सारा कुण्डग्राम उमंग, उत्साह और पुलकका अनुभव कर रहा था। कृषिकी समृद्धि और मैदानोंकी हरीतिमा सभीके मनको उल्लसित करती थी। वैशालीका यह उपनगर धन-धायसे समद्ध होता हुआ मंत्री, प्रमोद और प्रेमका आगार बन गया । सब कुछ विलक्षण और सुखद दिखलायी पड़ने लगा। देवांगनाएं और परिचारिकाएँ छायाके समान त्रिशलाको सेवामें उपस्थित रहती थीं।
माता त्रिशलाका मन आमोद-प्रमोद एवं शास्त्र-चर्चा और तत्त्व-चर्चाके कारण अत्यन्त पावन रहता था । माताके पवित्र संस्कारोंका प्रभाव गर्भस्थ शिशुपर भी पड़ने लगा । महाराज सिद्धार्थ भी त्रिशलाकी समस्त सुख-सुविधाओंका ध्यान रखते और एक क्षण भी उसे अप्रसन्न नहीं रहने देते। परिचारिकाएँ अप्रमत्तभावसे रानी प्रियकारिणीकी सेवामें उपस्थित रहतीं। इस प्रकार वैशालीका उपनगर कुण्डग्राम समृद्धि और सुखसे ओत-प्रोत हो रहा था। खुल गये भाग्य वैशालीके ___ नौ माह और आठ दिनकी गर्भावधि समाप्त कर त्रिशलाने विशाला वैशालोमें १०४ : तीपंकर महावीर और उनकी आपार्य-परम्परा
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विश्ववन्य वैशालिक तोयंकर महावीरको २७ मार्च ई० पू० ५९८ को जन्म दिया। इस समय समस्त ग्रह उच्च स्थानपर स्थित थे और चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रका उपभोग कर रहा था । चैत्रशुक्ला त्रयोदशी चन्द्रवारकी रात्रिका वह अन्तिम प्रहर मांगलिक था, जिसमें यर्द्धमानका जन्म हुआ। ___ तीर्थंकर महावीरके जन्मके समय चतुर्थ काल दुषम-सुषुममें ७५ वर्ष ३ महीना अवशिष्ट थे। वैशालीके भाग्य जग चुके थे 1 हिंसा, असत्य, अन्याय, आडम्बर एवं विकृतिको सलकार शीव, कृा हुई। प्रकृतिने समस्त वातावरणमें मधुरिमा घोल दी। अज्ञानका अवसान हुआ और ज्ञानसूर्यका उदय । वैशालीका उपनगर कुण्डनाम आल्हादसे परिपूर्ण था। प्राणीमात्र शान्ति और सुखको श्वांस ले रहा था । समस्त परिसर हर्षोन्मत्त हो बामोद-प्रमोदमें संलग्न था।
तीर्थंकर वर्द्धमानका शरीर काञ्चन आभायुक्त था और मुखमण्डलपर अगणित सूर्योकी दीप्ति विद्यमान थी । नवजात शिशु के शरीरसे दिव्य कान्ति फूट रही थी और ऐसा अनुभव हो रहा था कि बालकके दर्शनमात्रसे उपनगर निरापद, निष्कंटक और समद्ध बन गया था। प्राणियोंके हृदयोंके साथ-साथ समस्त दिशाएं भी प्रसन्न हो गयी थीं । आकाश निर्मल और प्रकृति मनोरम हो गयी पो । देवों द्वारा मत्तभ्रमरोंसे व्याप्त पुष्पवृष्टि और दुन्दुभिनाद सम्पन्न हुए।
देवों द्वारा जन्माभिषेक
तीर्थंकरका जन्माभिषेकोत्सव देवोंने सम्पन्न किया और स्वयं महाराज सिद्धार्थने अपने भवनमें दस दिनों तक आनन्दोत्सव मनाया | दीपक प्रज्वलित कर प्रकाश किया गया । दान, पुण्य आदि शुभकृत्य किये गये और कारागारोंसे बन्दीजनोंको बन्धनमुक्त किया गया ।
सौधर्म इन्द्रका आसन कम्पित हुआ और भवनवासी आदि देवोंके यहाँ घंटाको ध्वनि हुई । अवधिशानसे देवोंने अवगत किया कि कुण्डग्राममें अन्तिम तीर्थकर बर्द्धमानका जन्म हो चुका है। वे हर्षमें झूम उठे और समस्त देवपरिवार नृत्य-गान करता हुमा कुण्डपुर पहुंचा । ऐरावत हाथी सजाया गया, सारा गया और उसके अपर विभिन्न उपकरण रखे गये । मानवताका शृङ्गार करनेवाले वर्षमानका जन्माभिषेक सम्पन्न करनेके हेतु देव-परिवार चल पड़ा । सौधर्म इन्द्रने कुण्डपुरमें पहुंचकर राजमहलकी तीन प्रदक्षिणाएं की और माता त्रिशला -प्रियकारिणीकी स्तुति की ।
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इन्द्राणी प्रसूतिगृहमें पहुंची और उसने माताको सान्त्वनाके हेतु मायामयी बालक वहाँ सुला दिया और तीपंकर वर्धमानको गोदमें लेकर बाहर बायी। उसने शिशुको सौधर्म इन्द्रको सौंप दिया | इन्द्रने ऐरावत हाथीपर सवार हो समस्त देव-परिवारके साथ सुमेरु पर्वतकी रत्नमयी पाण्डक शिलापर शिशुको विराजमान किया और क्षीरोदपिके निर्मल जलसे अभिषेक किया |
अभिषेकके अनन्तर इन्द्राणीने शिशु के देहको पोंछा । जब वह कपोलप्रदेशपर लगे हुए जल-बिन्दुओंको सुखाने में प्रवृत्त हुई, तो उसे एक विलक्षण दृश्य दिखलायी पड़ा । जैसे-जैसे वह जलबिन्दुओंको पोंछती वैसे-वैसे बलबिन्दुओं की संख्या बढ़ती जाती । इन्द्राणीके समक्ष अजीब असमंजसताकी स्थिति यो । अन्ततः उसने अनुभव किया कि ये जलबिन्दु नहीं, अपितु दबसे स्निग्ध निर्मल कपोलपर स्थित आभूषणोंका प्रतिबिम्ब है। उसने इतना सुन्दर शिक्षु अभी तक देखा ही नहीं था । उसके नेत्र लज्जासे झुकने लगे।
अभिषेकके अनन्तर शिशुको घस्वाभरण पहनाये गये, दिव्य एवं सुगन्धित मालाओंसे उन्हें आभूषित किया गया । नम्रीभूत हो सुरेन्द्रने उनको स्तुति की। जब इन्द्रकी दृष्टि शिशुके दक्षिण पगपर पड़ी, तो सिंहका चिह्न देखकर और उसे भावी पुरुषार्षका प्रतीक समझकर उनका चिह्न 'सिंह' स्थिर किया ।
अभिषेकके पश्चात् इन्द्र उन्हें वैशालीके राजमार्गोसे कुण्डग्राम लाया और इन्द्राणीने पूर्ववत् प्रसूति गृहमें जाकर शिशुको माता प्रियकारिणीके पाश्वमें सुला दिया।
शिशु महावीरके अन्मसे हो राजा सिवाका बल-वैभव बढ़ने लगा। उनकी कोत्ति व्याप्त होने लगी। सब भोर महाराज सिद्धार्थ एक उदाराशय राजाके नामसे प्रसिद्ध हुए। बतएव महाराज सिद्धार्थने अपने समस्त बन्धु-बान्धव और इष्ट-मित्रोंको आमंत्रित कर वीर बालकका नामकरण-उत्सव सम्पन्न किया। वे कहने लगे-"यह शिशु महामाम है । जिस दिनसे महारानी प्रियकारिणीके गर्भ में आया, उसी दिनसे घर, नगर और राज्यमें धन-धान्यको समृद्धि हुई है। अतएव इस बालकका साधक नाम वर्षमान रखा जाय।" उपस्थित जन-समुदायने राजा सिद्धाधके इस प्रस्तावका अनुमोदन किया और वीर बालक 'वर्षमान' नामसे प्रसिद्ध इमा'। १. सिद्वार्षप्रियकारिण्योः सममानन्ददायकम् ।
वर्षमानास्पया स्तुस्वा सदेवो वासवोऽगमत् ॥ -हरिबंशपुरान, राw. १०६ : तीर्थकर मावीर और समकी गापार्य-परम्परा
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शैदाव
तीर्थंकर बर्द्धमान द्वितीयाके चन्द्रमा के तुल्य वृद्धिंगत होने लगे। उनकी बाललीलाएं विलक्षण और मनोहारिणी थीं। वर्धमानकी शिशु-सुलभ क्रीड़ामोंद्वारा महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशला मनोरंजन प्राप्त करते थे | जन्मसे ही वे विलक्षण प्रतिभासे सम्पन्न थे, विशिष्ट थे और थे तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धक | उनका शरीर अनुपम सुषमा और शोभासे युक्त था । रक्त दूधके समान श्वेत पवित्र और उज्ज्वल, वाणी मधुर तथा शरीर शंख, चक्र, पद्म, यव, धनुष आदि एक हजार आठ शुभ लक्षणोंसे युक्त अलौकिक था !
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प्रियकारिणी पुत्रको पालनेमें झुलाती, दुलराती और लोरियां सुनाती थी । वर्धमानकी शारीरिक विभूतिके साथ आध्यात्मिक विभूति भी बढ़ रही थी । ज्ञानकी दीप्तिसे उनकी कायर अनवरत सामगाशी हवी से एक बड प्रकाशित होती थी । मति, श्रुत और अवधिज्ञानका प्रकाश उन्हें आलोकित कर रहा था। सौन्दर्य राशि आविर्भूत होती जा रही थी । क्रमशः अब वे पालने से गोदोमें और गोदीसे भूमिपर लड़खड़ाकर चलने लगे थे। उनकी क्रीड़ाए पुरजन और परिजनकी थाती बन रही थी । कूप सजल और तालाब कमलोंसे परिपूर्ण होने लगे थे । खेत हरे-भरे और खलिहान धान्य- प्रचुर दिखलायी पड़ते थे । घर-घर में सुख-सम्पदा व्याप्त हो गयी थी । ऐसा लगता था कि धरती स्वयं अपना कोष लुटा रही है। लोगोंके घरोंको धन-धान्यसे भर रही है । ज्योतिषी और गणक शिशुके शारीरिक लक्षणोंको देखकर विस्मित- चकित थे। उनकी घोषणा थी कि यह बालक धरतीका श्रृंगार है। इसके प्रताप और यशका गान मनुष्य ही नहीं सूर्य-चन्द्र और नक्षत्र भी करेंगे। इसके द्वारा जगतमें मंगलदायिनी क्रान्ति होगी, जो मनुष्य के दुःख- दैन्यको मिटाकर अक्षय सुखकी ओर ले जायगी ।
तीर्थंकर महावीरको जन्मपत्रिका और ग्रह-स्थिति
तीर्थंकरके जन्मके समय बृहस्पति, शनि, मंगल ग्रह उच्च स्थानमें थे । एक भवावतारी या धर्मनायकके लिये जिस प्रकारके ग्रह - योगकी आवश्यकता रहती है, वह ग्रह-योग इनकी जन्म कुण्डली में निहित था। यहाँ उनकी जन्म कुण्डली अंकित कर ग्रहों के संक्षिप्त फलादेशका विचार किया जायगा । कुण्डलीके फलाध्ययन से यह स्पष्ट है कि वे आजीवन अविवाहित रहे हैं। सप्तम गृहमें दो पापग्रहों के मध्य राहुके अवस्थित रहनेसे पत्नीका अभाव सिद्ध होता है । उनकी जन्मपत्रिका निम्नप्रकार है
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जन्मकुण्डली
मंगल १. केस
७ शनि
(१) जब व्यक्तिका जन्म 'चर' लग्नमें हो; गुरु, शुक्र पंचम या नवम भावमें स्थित हों और शनि केन्द्रमें हो, सो जातक, तीर्थनायक या अवतारी होता है।
(२) सप्तम भावमें राहु स्थित हो, इस भावपर पापग्रहकी दृष्टि हो, सप्तमेश पापाकान्त हो, तो पत्नीका अभाव रहता है। ऐसे जातकका विवाह नहीं होता, इस योगसे उसके संयमी हानेको सूचना मिलती है ।
(३) तीर्थकर महावीरको कुण्डलीमें शुक्र और चन्द्रमा १२० अंशके अन्तराल पर स्थित हैं । यह स्थिति उनकी सर्वकासा और वीतरागताको सूचक है । चन्द्रमा नवम भावमें स्थित है और बुधके गृहमें है और बुध केन्द्रमै सूर्य के साथ है। चन्द्रमा सप्तमेश भी है । अतएव महावीरको बारह वर्षों तककी साधनाके सूचक हैं। नवमस्थ चन्द्रमा दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र एवं विभिन्न प्रकारके शानविज्ञानकी अभिज्ञताका सूचक है। जातकका प्रभाष अनुपम रहेगा और यह समाजका उद्धारक होगा।
{४) महावीरकी इस कुण्डली में चन्द्रचूड़ योग है । इस कुण्डलीमें भाग्येश बुध केन्द्रमें स्थित है । अतः यह योग चन्द्रचूड़ कहलाता है । इस योगमें जन्म लेनेवाला व्यक्ति प्रसिद्ध ज्ञानी, आत्मयोगी एवं धर्मप्रचारक होता है। लोक
१. पत्नीभावे या राहः पापपुरमेन वीक्षितः ।
पत्नी योगस्थिता तस्य भूवाऽपि म्रियतेऽचिरात् ।। २. लाभे त्रिकोणे यदि शीतरषिम: करोत्यवश्यं क्षितिपालतुल्यम् ।
कुलदयानन्दकरं नरेन्द्र जोत्स्ना हि दीपस्तमनाशकारी ।। १०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
-मानसागरी।
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कल्याणकी भावनाकी सूचना लगनस्थ मंगलसे प्राप्त होती है । लग्न स्थानमें उच्चका मंगल उपसर्ग और परीषड्जयी होनेकी ओर इंगित करता है ।
तीर्थंकर महावीरके विभिन्न नाम तर महावीरके प्रतिरिक्त अन्य भी कई नाम थे । इनकी माताने इन्हें 'विदेह दिन' और 'वेशालिक' नाम दिये । पितृवंशकी परम्परान 'ज्ञातृपुत्र' के नामसे उन्हें प्रसिद्ध किया ! ये 'अतिवीर' और 'निग्रन्थ' भी कहलाते थे । उनका एक नाम 'सन्मति' था, जिसके साथ एक घटना जुड़ी है, जो बड़ी रोचक और प्रेरक है !
तीर्थंकर महावीरकी अवस्था अभी पांच या छः वर्षकी थी कि वे एक दिन झूला झूल रहे थे । आकाशमार्ग से दो चारण ऋद्धिधारी मुनि जा रहे थे । इन मुनियों में एकका नाम संजय और दूसरेका विजय था । इन्हें अनेक ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त थीं । महावीरको झूलते हुए देखकर इन मुनियों के मन में शंकाएँ उत्पन्न हुईं। अतएव वे उनकी परीक्षाके हेतु महावीर के निकट पहुँचे, पर जैसे ही उन्होंने उनका दिव्य दर्शन किया, वैसे ही दर्शनमात्रसे उनके मनकी शंकाएँ निराकृत हो गयीं । शंकाओंके दूर होनेसे उन मुनियों का मन भक्ति-विभोर हो गया और वे तीर्थंकर महावीरकी स्तुति करते हुए कहने लगे कि इस बालकका नाम अब 'सन्मति' होगा'। उसी दिनसे इनका नाम 'सन्मति' पड़ गया ।
I
निर्भयताका प्रतीक महावीर
बाल्यकाल से ही महावीर अत्यन्त निर्भय थे । आठ वर्षको अवस्था में वे अपने समवयस्क साथियोंके साथ उद्यानमें कीड़ा कर रहे थे । सौधर्म इन्द्रकी सभा में महावीर के पराक्रम और वीरताका प्रसंग छिड़ा हुआ था । इन्द्रने कहा --- बालक महावीर शैशवकाल से अत्यन्त साहसी और पराक्रमी हैं । देव, दानव और मानव कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता ।
संगम नामक देवको इन्द्रके कथनपर विश्वास नहीं हुआ, अतएव वह वद्धमान महावीरकी परीक्षा करनेके लिये चल पड़ा ।
१. संजयस्यार्थसन्देहे संजाते विजयस्य च ।
जन्मानन्तरमेवमभ्येत्या लोकमात्रतः || तरसन्देहे गते ताभ्यां वारणाभ्यां स्वभक्तिः । अस्त्वेष सम्मतिदेवो भावीति समुदाहृतः ॥
-- उत्तरपुराण ७४।२८२-२८३. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १०९
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महावीर वाटिकामें अपने मित्रोंके साथ आँख-मिचौनी खेल रहे थे । संगमदेवने भयंकर विषधरका रूप धारण किया । वह देखने में अत्यन्त कृष्ण वर्ण और भयानक था। पह-प्रकट होते ही फन फेलाकर फुफकारसा हा उस आमलकी वृक्षको ओर दौड़ा, जिस वृक्षपर महावीर अपने साथियोंके साथ क्रीड़ारत थे। वह भयंकर नाग वृक्षके तनेसे लिपट गया। उपस्थित सभी बालक सर्पको देखकर आतंकित हुए और वे इधर-उधर भागने लगे, पर महावीर डरे नहीं, वह हिमालयकी भांति अडिग खड़े रहे। उन्होंने अपने साथियों को धैर्य देते हुए कहा-आप लोग घबड़ायें नहीं, में इसे अभी उठाकर दूर फेंक देता हूँ । बालकोंके मना करने पर भी महावीरने उस भयंकर नागको पकड़कर दूर कर दिया और सभी बालक प्रसन्न होकर पुनः क्रीड़ामें जुट गये ।
उपर्युक्त घटनाके घटित होनेपर भी संगमदेवको संतोष नहीं हुआ। अत: वह समवयस्क बालकका रूप धारण कर उन्हींके साथ क्रीड़ा करने लगा। इस बार तिन्दुशक नामक खेल आरम्भ हुआ। इस खेलमें दो बालक एकसाथ लक्षित वक्षकी ओर दौड़ते और इन दोनोंमेंसे जो वृक्षको पहले छ लेता वह विजयी माना जाता। विजयी बालक पराजितपर सवार होकर मूल स्थान पर आता।
महावीर और छपवेशधारी संगमदेव एकसाथ दौड़े। महावीरने वृक्षको पहले छू लिया। खेलके नियमानुसार पराजित संगमको सवारीके लिये उपस्थित होना पड़ा । महावीर उसपर सवार होकर जैसे ही नियत स्थानपर आने लगे, देवने सात ताड़के बराबर उन्नत और भयावह शरीर बनाकर महावीर को आतंकित करना चाहा । इस दृश्यको देखकर सभी पालक भयभीत हुए, पर महावीर सोचने लगे-अवश्य ही कोई मायावी देव-दानव है, जो मुझे डराना चाहता है। उन्होंने उसको पीठपर अत्यन्त दृढ़ मुष्टि प्रहार किया; आघाससे संगमदेव चीख उठा और गेंदके समान फूला हुआ उसका शरीर दबकर छोटा हो गया। महावीरके इस धैर्य और पराक्रमको देखकर संगमदेव
१. देवानामधुना शूरो वीरस्वामीति तच्छुतेः ।
देवः संगमको नाम संप्राप्तस्तं परीक्षितुम् ॥ दृष्ट्वोधामवने राजकुमारहुभिः सह । काकपक्षधरैरेकवयोभिल्यिचोदितम् ॥ कुमार भास्वराकारं दुमक्रीडापरायणम् ।
स विभीषयितुं वाञ्छम् महानागाकृति दषत् ।। ११० : सोपंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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नत मस्तक हो गया और उनकी स्तुति कर वहाँसे चला गया। इसी प्रकार इन्होंने मदोन्मत्त हाथीको वश में करके उसे गजशालामें बांध दिया | महावीरको इस निर्भयता और पराक्रमसे पूरा वैशालो गणतन्त्र प्रभावित हुआ। वैराम्य और निष्कामताका कुर
तीर्थकर महावीरके माता-पिता भगवान पार्श्वनाथकी परम्पराके अनुयायी थे। उनके अहिंसा, करुणा, दया बोर संयमशीलता आदि महान गुणोंके कारण उनका जीवन आलोकिस पा । अतः महावीरको उनसे इन गुणोंकी आदर्श छाया प्राप्त हुई । उनका वैराग्य शनैः शनैः बढ़ने लगा और आत्मशुद्धिकी ओर जनके पग तेषीसे गतिशील होने लगे। संसारके वैभव उन्हें निस्सार और स्वादहीन लगने लगे। उन्होंने लोकजीवन में व्याप्त बुराइर्शका अध्ययन किया और उन्हें मनुष्यद्वारा मनुष्यका किया जानेवाला शोषण अनुचित प्रतीत हुआ और उनका मन बितोह र नसारे वो सनामाही मना गरम पाहते थे, जिसमें किसी भी प्रकारका भेद-भाव न हो, प्राणीमात्र समान हों और सभीको जीनेका अधिकार हो । फलतः उन्होंने माठ वर्षको अवस्थामें ही निम्नलिखित नियमोंको धारण किया
(३) जीवोपर दया करना और अहिंसक वृत्ति रखना, (३) सत्य भाषण करना, (६) अचोर्यव्रतका पालन करना, (४) ब्रह्मचर्यवसका धारण करना, (५) इच्छाओंको सीमित करना ।
विश्वके इतिहासमें ऐसा एक भी बालक दिवसायी नहीं पड़ेगा, जिसने पाठ वर्षको अवस्थामें ही जीवोंपर दया करने, सत्य बोलने, चोरी न करने, ब्रह्मचर्य
मूमात् प्रभृति मुबस यावरस्काधमवेष्टता । विटपेम्पो निपपाशु धरित्री भगविलाः ।। प्रपलायम्तं तं दृष्ट्वा पालाः सर्व पकायषम् । महामये समुत्पले महत्तोऽयो न तिति ।। सज्जिबाशतास्युनमाया तमहिं विभीः । कुमारः क्रीडयामास मातृपर्यवत्तदा ॥ विनम्ममाणहम्मोनिधिः संगमकोऽमरः । स्तुस्वा ममान्महावोर इति माम पकार सः ।
-उत्तरपुराण ॥२८९-२९५. सीकर महागीर और उनकी देशमा : १११
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रखने और अपनी इच्छाओंके सीमित रखनेकी बात सोची हो । बाल्यावस्थामें ही उन्होंने अपनी प्रवृत्तियोंको परिष्कृत करने का प्रयास किया।
महावीरका चिन्तन परिवारको परिधिसे आगे बढ़ने लगा । सामाजिक जीवन में उत्पन्न होनेवाली आर्थिक विषमता, वर्गभेद, दलित और पतितांक प्रति निष्करुण भावना आदिको दूर करने के लिये उन्होंने संकल्प किया। उनका जन्म ही आत्मकल्याण और लोकहितके लिये हआ था। अतएव लोककल्याण उनका इष्ट था और लोककल्याण हो उनका लक्ष्य था । किशोरावस्थाकी विचारधारा ___ महावीर सोचने लगे कि परम्परागत धर्म और धार्मिक कर्मकाण्ड मानवताके रूपको विकृत कर रहे हैं। वे मनुष्य-मनुष्य के बीच गहरी खाई उत्पन्न कर रहे हैं। वेद, कर्मकाण्ड और ब्राह्मणोंका स्वार्थमूलक व्यवहार समाजको विकृत करने में संलग्न है। जातिप्रथा कर्मकाण्डका मूल है और इस कर्मकाण्डपर पलके कारण तत्कालीन ब्राह्मण-समाज हिंसाप्रिय और अहमन्य है | आज जातिप्रथामें सडाँध आ गयी है । अतएव आजके समाजने मनुष्योंको विभिन्न वर्गोमें विभक्त कर दिया है ।
भाषा-नीति भी विकृत हो रही है। जनताको बोलीसे पृथक् संस्कृतमें पुरोहित या धर्माचार्य अपना प्रवचन करते हैं, जिससे शासक और शासित ये दो वर्ग अलग-अलग दिखलायी पड़ते हैं 1 जनताकी भाषामें बोल या लिखकर शासकवर्ग अपनी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं कर सकता। अतएव सामान्य जनतासे अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनेके लिये ही शासकवर्ग मनमाना शोषण कर रहा है। उच्चवर्ग अपनी भाषा विशिष्ट बतलाकर जनतापर शासन कर रहा है। अतः जनताको धर्म और धर्म के ठेकेदारोंके शिकंजोंसे मुक्त करनेके लिये उन्हें भाषासे भी मुक्त करना होगा, जो निहित स्वार्थीको प्रतीक बन गयी है। ___ महत्त्व भाषाका नहीं, भावोंका है । वास्तवमें वही भाषा श्रेष्ठ है, जो वक्ता और श्रोताके बीच सेतु बन सके। जिस भाषाको जनता समझ सके उसीमें उपदेश देना या वैचारिक क्रान्ति करना युक्ति-संगत है।
वर्तमानमें नारीकी भी प्रतिष्ठा समाप्त हो चुकी है। न उसे सामाजिक अधिकार प्राप्त हैं और न पारिवारिक । शिक्षा और धर्म-संस्कारोंको प्राप्त करनेके अधिकारसे भी वंचित है । वेदाध्ययन करना या धर्मानुष्ठान करना उसकी अधिकार-स्प्रेमासे बाहर है। अतएव नारीसमाजका उत्थान करना भी इस समय आवश्यक है। ११२ : तीमंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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यज्ञोंमें की जानेवाली हिंसा बीभत्स और अमानवीय है। पर बलि-प्रधानयज्ञके हिमायती ब्राह्मण और उच्च वर्गो अत्याचार एवं दवावके कारण किसी व्यक्तिमें इतनी शक्ति नहीं कि वह उसका तथा अन्य असामाजिक प्रवृत्तियोंका विरोध कर सके। न तो आज व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य ही है और न उच्च आचारविचारको प्रतिष्ठा ही प्राप्त है। शान, कर्म और पाण्डित्यके दम्भने जनसामान्यके हृदयको स्तब्ध कर दिया है। आजका मनुष्य मनुष्य नहीं, दानव दिखलायी पड़ता है । प्रेम, शान्ति और त्यागका वातावरण कहीं भी नहीं है । ___ महावीरने तयुगोन समस्याओंपर विस्तारसे विचार किया। उन्होंने सोचा कि आज मनुष्य धनका दास बना हुआ है । वह धन और वैभवके बलसे स्वर्गका धाज्ञा-पत्र प्राप्त कर सकता है। ऐसा कोई भी साधन नहीं जो धनके बलसे न खरीदा जा सके । यज्ञीय समस्त विधियोंका संयोजन भी धन द्वारा किया जा सकता है। अतएव धन-त्याग या परिग्रह-नियमनकी अत्यन्त आवश्यकता है । समाज कल्याणके मार्गसे दूर हट गया है। भोगने पागधर अपः अधिकार जमा लिया है । मित्रसा, विश्वास, निष्कपटता और परम पुरुषार्थकी अवहेलना हो रही है । वृत्तियोंकी शुद्धि परम आवश्यक है । अवतक मनुष्य अपने विवेकको जागृत नहीं करेगा, तबतक उसका जीवन सांस्कृतिक नहीं हो सकता है। ___इस युगमें आध्यात्मिक लोकतन्त्रके स्थापनको अत्यन्त आवश्यकता है। हिसा, असत्य, शोषण, संचय, कूशील-विचार, असहिष्णुता, संचय-शीलसा आदिका विरोध करना मानवताके अभ्युत्थानहेतु आवश्यक है।
आज विधार-स्वातन्त्र्यको स्थान प्राप्त नहीं है। हठ्याद और दुराग्रह मानवताको पंगु बनाये हुए हैं । अपनी संकुचित दृष्टिके कारण विभिन्न संभावनाओं में आस्था उत्पन्न नहीं हो रही है। व्यक्ति, वस्तु, क्षेत्र और कालकी सीमाओं का विचार नहीं किया जा रहा है । जबसक एकान्तवादका विष बना रहेगा, तबतक मनुष्य चरम शक्तिको प्राप्त नहीं कर सकेगा। वर्तमानमें लोगोंकी दृष्टि इतनी संकीणं और संकुचित है, जिससे वस्तुकी पूरी सम्मावनाओंपर विचार नहीं किया जा सकता है । असहिष्णु और अनुदार व्यक्ति सत्यका साक्षात्कार नहीं कर सकता है । अतएव सापेक्ष कथन ही सत्यके निकट पहुँचाता है। व्यक्ति, स्थिति या वस्तुको लेकर सब कुछ एक साथ और एक समयमें कहना सम्भव नहीं है । शब्द और शब्द-प्रयोकाकी अपनी सीमाएं हैं तथा सुनने और समझनेवालोंकी भी अपनी सीमाएं हैं। चाहे कोई कितना ही बड़ा दावा क्यों न करें, पर सथ्योंको एक साथ उपलब्ध नहीं कर सकता, मार्जिन सदेव ही बना रहता
तीपंकर महावीर और उनकी देवाना : ११३
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है और इसका बना रहना भी आवश्यक है। आजको इस संकुचित विचारधाराको उदार और विस्तृत बनाना आवश्यक है।
निस्सन्देह महावीर किशोरावस्थासे ही विचारशोल थे। वे जीवन के प्रथम चरणसे ही समाजकी विकृतियोंके लिये चिन्तित थे। वे समता, सहिष्णुता,अभय, अहिंसा एवं अनासक्ति आदि गुणोंका प्रचार और प्रसार चाहते थे। वे लोककल्याणकी उज्ज्वल ज्योति जलाकर समाजको आलोकित करना चाहते थे। उन्होंने किसी विद्यालय या महाविद्यालयमें जाकर विद्याका अभ्यास नहीं किया था। उनकी सर्गिक प्रतिभा अनुपम थी । वे सच्चे कर्मयोगी, महान दार्शनिक, आत्मद्रष्टा और जीवन-क्षेत्रके अमर योद्धा थे। विश्वमें बड़े-बड़े युद्धोंके विजेता तो बहुत व्यक्ति हुए हैं, किन्तु कामनाओं और वासनाओंपर विजय प्राप्त करनेवाले महावीर कम ही हुए हैं। ___महावीरने जीवन के जिस क्षेत्रमें प्रवेश किया उसमें अपने आचरण और व्यवहारोंका मान-बिन्दु स्थापित किया । उन्होंने स्वयं लोक-कल्याणके लिये कष्ट सहे और अपने पुरुषार्थ द्वारा बड़ी-बड़ी विघ्न-बाधाओंको समाप्त किया। अपने पवित्र आचरण और दिव्य-शानको ज्योतिसे जन-जनका अनुरंजित किया।
जिस गुरुडममें धनिक-गरीब, राजा-रंक सभी डूबे हुए थे, उस गुरुतमको दूर करने के लिये उन्होंने संकल्प लिया । __उनके गुणोंसे आकृष्ट होकर सह्योगी और समवयस्क ही उनके प्रति नत मस्तक नहीं होते थे, अपितु देवता भी उनका चरण-वन्दन करते थे, उनका यशोगान करते थे और अपनी समस्याओंका समाधान प्राप्त करते थे। अलौकिक शक्तियोंका वरण
किशोरावस्था में ही महावीरको अगणित अलौकिक शकियाँ प्राप्त हुई। उनमें देवी गुण प्रादुर्भूत हुए। जनता उन्हें श्रद्धा और आदरको दृष्टिसे देखती थी। कोटि-कोटि मानव उन्हें वीतराग समझकर उनको पूजा करते और उनके पवित्र चरणों में अपनी श्रद्धा निवेदित करते थे। उनका पराक्रम मित्रोंके लिये अनुकरणीय था। उनके शरोरसे न तो दुगंधित पसीना निकलता और न अन्य किसी प्रकारकी अशुचिता ही दृष्टिगोचर होतो थी । अद्भुत रूप, समचतुरस्र संस्थान, वनवृषभ-नाराय-संहनन, अनन्त बल, अतिशय सुगन्धता एवं एकहजार आठ शुभ-लक्षण उनकी शारीरिक आभाको आलोकित करते थे। इसमें सन्देह नहीं कि महावोरको नाना प्रकारके अतिशयों और वैभवोंने वरण किया था। ११४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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इसप्रकार उनका किशोर-काल या कुमार-काल अलौकिक और दैवीय गुणोंसे युक्त होकर व्यतीत होने लगा। उनकी प्रत्येक क्रिया विशिष्ट मालूम होती थी । वे सामान्य मनुष्योंकी अपेक्षा विशिष्ट विचारशील नेताके रूपमें दिखलायी पड़ते थे। यही कारण है कि उन्हें सभी लोग जापक, तारक,बोधक और मोचकके रूपमें देखते थे। वे स्वयं सोचते कि मानव-जीवन संगमर्मरके समान है और मानव एक शिल्पकार है। कुशल शिल्पोंके हाथों द्वारा मानवधन सुन्यस्तम रूपमें परिणत हो जाता है। यदि मानव कुशल शिल्पकार नहीं बन पाया, तो जीवन-संगमर्मरका स्वयं कोई मूल्य नहीं है। संगमर्मरका यह टुकड़ा केवल पाषाण-खण्ड ही रह जायगा, इससे और आगे कुछ नहीं बनेगा | यदि सौन्दर्यको अभिव्यञ्जना करनी है, तो कुशल शिल्पकार बनना होगा, तभी जीवनसंगमर्मरसे आराध्य आत्मा या भगवानको मूर्ति गढ़ी जा सकेगी। मानव अपनेको पहचान ले तो उसे शिल्पकार बनने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती है।
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पञ्चम परिच्छेद युवावस्था, संघर्ष एवं संकल्प
ग्रीष्म ऋतुके पश्चात् वर्षा जिस प्रकार आरम्भ होती है, उसी प्रकार केशो के अनन्तर महावीरके जीवन में भी युवावस्थाका अध्याय आरम्भ हुआ । लीने पुष्पका आकार ग्रहण किया और चारों ओर पुष्पका सौरभ फैलने लगा । किशोरावस्था के आसनपर यौवनने अंगड़ाई ली, धूप-छाया एकसाथ अभिव्यक्त हुई । कैशोर्य की विदाई और यौवनका आगम एक अपूर्व वय- सन्धि थी। एक ही प्रांगण में सब कुछ भव्य और मनोहर प्रतीत हो रहा था। महावीरका व्यक्तित्व विलक्षण था । शरीरमें अखण्ड यौवनका साम्राज्य रहनेपर भी उनका मन संसारके समस्त प्राणियों के लिये करुणामें निमग्न था । समत्व उनको त्रास थी और परिणाम विशुद्धिपर उनका विशेष ध्यान था । मन, वाणी और कर्म से वे सम्वत् प्रवृत्त थे ।
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मनीषा प्रखर थी और विवेक उनके जीवनका सावधान प्रहरी था । उनका जीवन क्रान्तिका प्रतीक था, मुक्तिका दिव्य छन्द था और शक्तिकी एक विशाल शोधशाला था । यौवनके प्रकट होनेपर भी वे जलमें रहनेवाले कमलके समान संसारसे निलित और निष्पक थे। उनका जीवन अनासक्त था। उनके व्यक्तित्वके धरातलपर संसार था, पर तलमें वैराग्यका निवास था। विष्यवेह और पराक्रम
अखण्ड और सौन्दर्य राशिने उनके तारुण्यको कृतार्थ कर दिया था। दिलक्षण देह, सुगठित अवयव', कर्जस्त्री मन, उद्दीप्त मुख, अंग-अंगके अपूर्व पुरुषार्थ एवं युवावस्थाका परिस्फुरण करवट ले रहा था । वस्तुतः महावीरका उज्ज्वल नया यौवन, विलक्षण पुरुषार्थ, बहुचित पराकम और अप्रतिम तेज एक नया मागं ढूँढ रहा था। सुराज बहावीर गोबत सणको को दीदामें मूर्तिमान करना चाहते थे। वे नरसे नारायण बनकर स्वातन्त्र्य-उपलबिके लिये प्रयत्नशील थे।
यौवनने उनके विवेकको आच्छादित नहीं किया | वे निघूम अग्निके समान स्पष्ट और भास्वर बने रहे। उनकी मनीषा अहर्निश आत्मोन्मुख होती गयी । अहिंसाका रचनात्मक सूत्र उनके हाथ में आकर क्रियात्मक रूप धारण करने लगा | जैसे-जैसे युवावस्थाका ज्वारभाटा बढ़ता जाता, वैसे-वैसे महावीर साधना-पयको ओर बढ़ने का संकल्प करते। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहके अंकुरने अब विराट वटवृक्ष का रूप धारण कर लिया था। लोक-कल्याण और आत्म-कल्याणका लक्ष्य उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता गया। वे काम, क्रोध, लोभ, मोहादि अन्तरंग शत्रुओंसे जूझनेके लिये तैयारो करने लगे।
यह सत्य है कि महावीर राजकुमार थे। राज्य था, वैभव था, सेना थी, सेवक थे, सेविकाएं थीं, विलास था और आमोद-प्रमोदके अनेक साधन थे। युवक महावीरके चारों ओर लौकिक सुखोंका अम्बार लगा हुआ था। उन्हें सभी प्रकारका आदर-सम्मान प्राप्त था। लक्ष-लक्ष मानवोंका प्यार, श्रद्धा और स्नेह उन्हें प्राप्त था। उनकी सात हाथ उन्मत काया यौवन की कान्सिसे जगमगा उठी । प्रजा उनके बलिष्ठ और कान्तिमय शरीरको देखकर सोचती थी कि एक दिन आयगा जब यही भलौकिक महापुरुष उसके अध्यात्म-मार्गका विधाता बनेगा। इस अलोकिक महापुरुषका जन्म किसी एक प्रान्त या वर्गके लिये नहीं हुआ है, यह तो सम्पूर्ण विश्वके प्राणीमात्रका कश्याण करेगा।
सीकर महावीर कौर उनकी देशमा : ११७
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महावीरका सम्पर्ण जीवन चिन्तनका क्षेत्र बन गया । इसकी सम्पर्ण साधना विजयकी साधना हो गयी। जितेन्द्रिय बनना-आन्तरिक रूपसे आत्म-विरोधी तस्वोपर विजय प्राप्त करना लक्ष्य हो गया । आत्मोदय स्वाधीनताके रूपमें परिणत होने लगा.। शरीर और मनको परतन्त्रता नष्ट होने लगी । परमस्वातन्त्र्य अपने निज स्वभावकी ओर बढ़ने लगा। उनके पौरुषेय-पराक्रमसे अनन्त पर्यायोंके दुबर्ष मोह, राग और वासनाके विकार धूलिसात होने लगे। चित्तकी चञ्चलता चेतनाकी चिन्मयतामें रूपान्तरित हो गयी। उन्होंने अपनी गतिशीलताको अन्तश्चेतनाके ऊर्ध्याकरणमें प्रयुक्त किया । वे जीवनकी अन्तनिहित शक्तियोंका स्फुरण करने लगे, जिससे राग-विद्वेषको विकृत्तियो स्पष्ट ज्ञात होने लगी। वे भीतर और बाहर इतने सुन्दर हो गये कि छिपानेको कुछ भी शेष नहीं रहा।
यों तो महावीरको संसारका प्रखर जान था। उनकी शाश्वत साधना अनेक जन्मोंको थी और वे अपने इस अन्तिम पड़ावमें सम्पूर्ण चराचर जगतकी अनन्त पर्यायोंक शाता-द्रष्टा बननेको उस्सुक थे। ___ योवनके आनेपर भी उनके जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटित नहीं हुई । अत्त: घटनाओंके घटाटोपमें उनके व्यक्तित्वकी तलाश करना व्यर्थ है । अगणित भवोंमें तारुण्यके आते ही अनेक घटनाएं घटित हुई थी, पर वे सभी पीछे छूट गयी थी। अब तो वे उस पथके नेता थे, जहां उन्हें पहंचना था, जो उन्हें स्पष्ट दिखलायी पड़ता था। ___इसमें सन्देह नहीं कि युवावस्थामें व्यक्तित्वको परिवर्तित करनेवाली घटनाएं घटती हैं और घटनाओंका आकार-प्रकार वैसा ही होता है, जैसी हमारी वासना और आकांक्षा | हम प्रत्येक युवकसे लोला-प्रिय होनेकी आशा करते हैं। घटनाओं और सन्द को उनके जीवन के साथ जोड़ना चाहते हैं। हमारे अपने संकल्प-विकल्प और विचार-वासनाएँ तरुणोंके जीवनमें घटनाओंका सृजन करती हैं । हम अपने विचारोंकी प्रतिनाया ही युवकोंके जीवन में देखना चाहते हैं । युवाकी स्वाभाविक और प्रखर कान्ति हमें सन्दर्भ-कल्पनाके लिये प्रेरित करती है।
युवावस्थाके रहनेपर भी महावीरका व्यक्तिस्व एक ओर जहां पुष्पकी तरह कोमल और सुरभित पा, वहाँ दूसरी ओर अग्निकी तरह जाज्वल्यमान् भी था। उनके व्यक्तित्व में चन्द्रमाके समान शीतलता और सूर्यक समान प्रखरताका समावेश था । वह गजकी तरह बलिष्ठ थे, तो वृषभकी तरह कर्मठ भी । उनका पराक्रम सिंहके समान निःशंक था। ११८ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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महावीरके व्यक्तिस्वमें मागरके समान गम्भीरता और हिमालयके समान उत्तुङ्गसा विद्यमान थी । मानमें प्रखरता और करुणामें कोमलता प्रादुर्भूत हो रही थी। शान्ति और क्रान्तिका एकत्र समवाय दुष्टिगोचर हो रहा था। उन्होंने सम्पूर्ण सृष्टिके साथ एकात्मकता और समरसताझा अनुभव फिया । युवावस्थाके रहनेपर भी उनका जीवन खुली पुस्तक था और आकाशके समान स्वच्छ और निर्मल था। उनके तारुण्य और भास्वर लावण्यने जन-जनका मन मोह लिया था। उनके दिव्य देहको देखकर मलिन मन भी पवित्र हो उठता था। अनन्त शक्तियोंका विकास दिनोंदिन होने लगा था। वे सामाजिक क्रान्तिके क्षेत्रमें एक नया अध्याय जोड़ना चाहते थे। उनका हृदय विप्लवसे भरा हुआ था | अन्याय और अनीतिकी राह चलता हुआ संसार उन्हें खटकता था । वे शोषितों, पीड़ितों और संतप्तोंके बीच अलख जगाना चाहते थे। जनसामान्यकी दरिद्रता और जड़ताने उनके हृदयको झकझोर दिया था। वे विश्वको सह-अस्तित्वके महान् सन्देशकी ओर ले जाना चाहते थे। जमताका आह्वान
निरीह पशुओंका हाहाकार उनकी चेतना और संवेदनाको आमत्रित कर रहा था। दिग्भ्रमित विश्वको वे स्पष्टतः दिशा-निर्देश करना चाहते थे । वे विगत तेईस तीर्थंकरोंके धुंधले पद-चिलोंको स्पष्टता और गम्भीरता देना चाहते थे। धर्म-दर्शनकी परम्पराओंपर जमी हुई रूढ़ियोंकी राखको साफकर अपनी साधनासे उसे निर्धूम अग्निका रूप देना चाहते थे।
नारीका करुण-क्रन्दन और दलित वर्गको संवेदनाएं उनके हृदयको आलोडित कर रही थीं। आध्यात्मिकताकी क्रान्ति सशक्त भूमिका तैयार कर रही थी। मोह, माया, ममता और अस्मितापर विजय प्राप्त करने के लिये उनका यौयन उत्ताल तरंगें ले रहा था। तप, त्याग और संयम द्वारा वे लोकके लोचन-कपाटोको खोलना चाहते थे। जगत्के अनिवार्य कोलाहलमें भी उन्हें आत्माका संगीत सुनायी पड़ रहा था । जंजालोंमें भी वे प्राञ्जल बने हुए थे।
युवा महावीर वैशालीके बाल-सरस्वती बने हुए थे। उनके दर्शन-मात्रसे जनताके अन्तर्नयन उद्घाटित हो जाते थे । वय और विलक्षण मनीषाको देख लोग आश्चर्यचकित थे । यौवनमें धन-सम्पत्ति और अविवेकताके स्थानपर महावीरमें त्याग, विवेक और संयमका प्रादुर्भाव हो गया था। यौवनकी अमावास्या संयमके कारण पूणिमा बन चुकी थी। न उनके मनमें क्रोष था, न आकुलता और न किसी प्रकारका भय या आतंक ही था। उनकी सरलता
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और स्वाभाविकता जन-जनके लिये बन्दनीय थी। असएव वे विश्व-कल्याणके हेतु अपना सर्वस्व त्याग करनेके लिये प्रस्तुत थे। माताको ममता
माता त्रिशला महावीरके अद्वितीय और अलौकिक शरीरके तारुण्य और लावण्यको देखकर लाख-लाख मनसे उनपर बलिहारी हो जाती। वह मन हो मन सोचती, का होछा होला, पति महा दोरा विदाह हो जाता और राजभवन में बधुका प्रवेश होता। माताका मन बहके सौन्दर्यको कल्पनासे उल्लसित होने लगा। वह बेटेके भावी सुखको कल्पना कर आनन्दित ही नहीं होती, अपितु कुछ क्षणके लिये उन्मत्त हो नृत्य भी करने लगती। त्रिशलाकी ममताका एकमात्र आधार महावीर था। वह अपनी समस्त आकांक्षाओंको महावीरके अभ्युदय द्वारा ही पूर्ण करना चाहती थी । वह अपने लाड़लेको सुखभोगोंके बीच देखकर अत्यन्त आङ्गदित होती थीं। उसकी कामना थी कि वह धूल-धूसरित पौत्रको गोदमें खिलाकर आनन्दित हो।
त्रिशलाने अपनी यह आकांक्षा महाराज सिद्धार्थके समक्ष प्रस्तुत की। सिद्धार्थने महारानीके प्रस्तावका समर्थन किया। मंत्रियोंने भी महाराज सिद्धार्थका अनुमोदन किया । फलतः योग्य कुमारीसे विवाह-सम्बन्ध स्थिर करनेके लिये रातदूत दौड़ाये गये। बड़े-बड़े राजा-महाराजा अपनी-अपनी राजकुमारियोंका पाणिग्रहण-सम्बन्ध महाबोरसे करनेके लिये लालायित थे। विवाह प्रस्ताव
महावीरकी जन्मगाँठके अवसरपर कलिंग देशके महाराज जितशत्रु अपने राज-शिविर सहित कुण्डग्राममें पधारे। इनकी षोडसी कन्या यशोदा अनुपम सुन्दरी थी। आकाश और धरती भी उसके सौन्दर्यका वर्णन करते थे। यशोदाकी आशुतोष छवि कलिंगका गौरव थो। मांसलपुट देह, सुवर्णचम्पक-तुल्य वर्ण, शिरोषसम मृदुल गात, विशाल नेत्र, पूर्णेन्दु-तुल्य मुख, कोकिलकंठी और मृगनयनी राजकुमारी यशोदाने महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशलाके मनको जीत लिया । महाराज सिद्धार्थ और रानी त्रिशला राजकुमारी यशोदाको अपनी पुत्रवधू बनानेके लिये अत्यन्त उस्कण्ठित थे। सिद्धार्थने महारानी विशल.से
१. यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया पीरविवाहमङ्गलम् । अनेककायापरिवारयारुहस्सभीक्षितुं तुङ्गममोरथं सदा ।।
-हरिवंश पुराण ६६१८. १२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कहा-देवि ! विवाह करनेके पूर्व राजकुमार महावीरसे भी सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। अतः विवाह-सम्बन्धी तैयारियां करनेके साथ महावीरसे महमति लेना अनुचित नहीं होगा।
नगरमें मंगलवाद्य बजने लगे। समस्त राजभवन मंगल-गीतोंसे मुखरित हो उठा। सभी ओर नृत्य-गीतके सुमधुर आयोजन होने लगे । महावीर इन सबसे अनभिन्न थे। उन्हें इसका पता भी नहीं था। आखिर एक दिन अवसर पाकर माता त्रिशलाने राजकुमार महावीरसे विवाहकी चर्चा को-"बेटा ! कलिंगनरेश जितशत्रुकी पुत्री यशोदा अत्यन्त रूपवती है। मैं उसे अपनी पुत्रवधू बनाना चाहती हूँ । इस सम्बन्धमें तुम्हारा क्या अभिमत है ?"
महावीर माताके प्यार-भरे वचनोंको सुनकर मौन रह गये। उन्होंने कुछ उत्तर न दिया। माता त्रिशला कुमारके सिरपर हाथ फेरती हुई, पुचकारती हुई और प्यार करती हुई पुनः बोली-"लाडले ! जल्दी बताओ, मैं तुम्हारी सहमति चाहती हूँ। अब मेरी यही अभिलाषा है | आज तक तुमने मेरी सभी इच्छाओंका आदर किया है । अब मुझे निराश नहीं करोगे।"
राजकुमार महावीरने अर्थपूर्ण दृष्टिसे मांकी ओर देखकर कहा-"मुझे दुःख है माँ, तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण न हो सकेगी। मैं विवाह बन्धनमें फंसकर परिवारकी परिधिमें आबद्ध नहीं होना चाहता । आज सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता, वर्गभेद, घृणा, ग्लानि बढ़ती जा रही है । एक ओर सामान्य सुविधा-विहीन बह जनता है, जिसे दास या दलित वर्ग कहा जाता है और दूसरी ओर वह समाज है, जो ऐश्वर्य एवं प्रभुताके मदमें समाजकी इस बड़ी इकाईको अपनेसे पृथक् कर चुका है । यह प्रभुसत्ता-सम्पन्न वर्ग जनसामान्यका शोषण और दुरुपयोग भी करता है । आज दास-दासियोंके रूपमें नरनारियोंका क्रय-विक्रय हो रहा है। इस प्रकार सारा समाज अस्त-व्यस्त और विशृंखलित है। अतएव मैं विवाह बन्धनमें न बंधकर सत्यका अनुसन्धान करूंगा और जीवनकी श्रेष्ताओंका वरण करूँगा।"
राजमाता त्रिशला आश्चर्यचकित हो करुण स्वरमें बोल उठी-'पुत्र! विवाह न करोगे ? क्या मैं पौत्रके मुख-दर्शनसे वंचित रह जाऊंगी? माताका मातृत्व पौत्रकी प्राप्तिपर ही पूर्ण होता है।"
राजकुमार महावीर-"माँ ! मैंने लोक और आत्मकल्याणका महाप्रत लिया है 1 देख रही हो, आज चारों ओर अधर्म और अज्ञानका अन्धकार व्याप्त है। चारों बोरसे पापका धुओं निकल रहा है। बलि दिये जानेवाले पशुओंकी
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करुण चीत्कारसे दिशाएं कम्पित हो रही हैं। मां! मैं अन्धकारको प्रकाशमें बदलना चाहता है और सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रान्ति उत्पन्न कर समाजको मार्ग-दर्शन कराना चाहता हूँ। में जीवनके निर्मल लक्ष्यको छोड़कर विषये. च्छाओंमें उलझना नहीं चाहता। साधनामें सबसे बड़ा बाधक परिग्रह है और यह परिग्रह पारिवारिक सम्बन्धोंसे प्राप्त होता है । इसका सर्वथा त्याग करना अनिवार्य है। विवाह जोवनकी परिधिको संकीर्ण कर देता है। अत: इसका त्याग तो आवश्यक हो नही, अनिवार्य है।" __ "जीवनकी भूलों और अन्धकारके बीच प्रकाशमान सत्यको देखना ही अधिक महत्त्वपूर्ण है । अत: में सत्यके अनुसन्धानमें प्रवृत्त होनेका प्रयास करूंगा।"
"सत्य प्रसन्नताका जनक है। यह सभ्यताका उत्पादक है और यही जीवनको श्रेष्ठ एवं पवित्र बनाता है। सबसे ऊंची महत्त्वाकांक्षा जो किसीको भी हो सकती है, वह सत्य ज्ञानको है। सत्य ही व्यक्तिको परोपकार करनेका अधिकसे अधिक सामर्थ्य देता है। यही तलवार भी है और दाल भी है। यह आत्माका पवित्र प्रकार है : मानद खोन तारने किया है, यति मिलता है और मिलता है अनुभवसे ।”
राजमाता त्रिशला महावीरके उपर्युक्त कथनको सुनकर स्तब्ध हो गयीं। बह सोचती थीं कि पुत्रका विवाह करूगी। राजभवन में पुत्रवधू लाकर मंगलगीतोंसे उसे मुखरित कर दूंगो । फूल जेसी सुकुमारी पुत्रयधू जब राष-प्रांगणमें विचरण करेगी, तो मेरे सभी स्वप्न साकार हो जायेंगे।
महावीरने तो एक ही झटके में मेरे समस्त स्वप्नोंके भव्य भवनको धूलिसात् कर दिया। अतः वह पुनः साहस एकत्र कर कह उठी-"बेटे ! तुम लोककल्याणमें प्रवृत्त होगे, अधर्म और अज्ञानके अन्धकारको दूर करोगे, पर इस राज्यका क्या होगा? इसे कौन सम्हालेगा ?" ____ महावीरने संयत स्वरमें उत्तर दिया-"माँ! सभी वस्तुएं नष्ट होनेवाली हैं। जो नष्ट होनेवाली वस्तुएं हैं, उनकी हमें चिन्ता नहीं करनी चाहिये । हमें सो शाश्वत सत्यको प्राप्त करना है और इसी उपलब्ध सत्य द्वारा समाजको व्यवस्थित करना है। यह जीवनसे पलायन नहीं है, अपितु वास्तविक जीवनके साथ समझौता करना है।" माताका आशीर्वाद
माता त्रिशला साधारण माता नहीं थीं। यदि महावीर अद्वितीय पुत्र थे, १२२ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
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तो वह भी अद्वितीय मातृपदपर प्रतिष्ठित थीं। उन्होंने तीर्थकरको जन्म देकर महान् गौरव निता था: लिलामे में गाई सा, , श्रद्धा थी और जन-कल्याणकी भावना थी। वह अपने पुत्रको प्रणय-सूत्रमें अवश्य बांधना चाहती थी, पर यह नहीं चाहती थी कि महावीर जीवनके सच्चे पदको छोड़ दें। अतः जब उसने महावीरके मनमें विवाहके प्रति विरक्ति देखी, तो वह मोन हो गयी। उसने अनुभव किया कि महावीरका कथन यथार्थ है । ____ वर्तमान समाज धनके आगे झुकना और घुटने टेकना जानता है । आज धनसे शक्ति, सम्मान, प्रतिष्ठा प्राप्त हो रही है । अतः जबतक समाजमें सत्य, न्याय और विवेककी प्रतिष्ठा नहीं होगी; तबतक समाज आत्म-निर्भर नहीं हो सकता है। राजकुमार महावीर सत्य-अनुसन्धानके हेतु यदि विवाह नहीं करते हैं, सो कुछ भी अनुचित नहीं है । महावीरका अनुचिन्तन ____महावीरके हृदयमें अनेक अनुभूतियां बड़ी तीव्रतासे जागृत होने लगीं। वे सोचने लगे कि "कहीं मैं पुरके कर्त्तव्यसे च्युत तो नहीं हो रहा हूँ। मातापिताको आज्ञा स्वीकार करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है, पर मैं आध्यात्मिक पथका पथिक हूं। मुझे संयमका पाथेय चाहिये । पिसाका हृदय ममताका अतल समुद्र है, और माके वात्सल्यका अन्त नहीं है । पर ये सब व्यामोह हैं। मोहके परिणाम हैं। मोक्ष और मोह दो परस्पर विरोधी तथ्य हैं। इनमेंसे किसी एकका ही चयन करना होगा। मोह बन्धन है, त्याग मुक्ति है। मुझे मुक्ति प्राप्त करनी है। अस: मैं विवाहके कीचड़में क्यों फंसू ? यदि मैं बन्वनमें फंस गया, सो इस विकट परिस्थितिमें मुक्तिका प्रवर्तन कौन करेगा? मैं काम, वासना, हिंसा, अज्ञान, असत्य, पराधीनता और आडम्बरके दुर्भाग्यपूर्ण अनुबन्धपर नेत्र बन्दकर हस्ताक्षर नहीं कर सकूँगा। आदितीर्थंकर ऋषभदेवसे लेकर २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ तकको उदात्त परम्परा मेरे समक्ष है। मुझ एक वैज्ञानिकके समान सत्यका अनुसन्धान कर कुछ नये अध्याय जोड़ने हैं । आत्माकी स्वतंत्रता उपलब्ध करनी है और वासनाकी दासतासे उन्मुक्त होना है। संसारका यह वैभव कब किसका हआ है ? यह सब कुछ क्षण-ध्वंसी है। मेघ-पटलके समान क्षणभरमें विलीन होनेवाला है।"
"आज व्यापक रूपमें प्राणियोंका बध हो रहा है । समाजमें विकृतियाँ बढ़ती जा रही हैं । स्वार्थने धमंकी पावनता को स्खण्डित कर दिया है। चारों ओर कपट और मायाचार पनप रहे हैं । मनुष्य-मनुष्यका शोषण कर रहा है । हिंसा,
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झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, अज्ञान, भ्रम, दुराचार, अविश्वास और आडम्बरको वृद्धि होती जा रही है। यज्ञोंमें निरपराध जोवित पशुओंको झोंका जा रहा है और उनके दुःसह चीत्कारसे मानवता आक्रान्त हो रही है । अतः मेरा कत्र्तव्य मुझे आत्म-साधनाको ओर प्रेरित कर रहा है।" परिणय-बन्धनसे स्पष्ट इनकार ___ महावीरके अनुचिन्तनने उनके विचारोंको परिपुष्ट किया और उन्होंने स्पष्ट रूपमें कलिंग-नरेश जितशत्रुकी अनिन्द्य सुन्दरी कन्या यशोदाके साथ विवाह करनेसे इनकार कर दिया और घोषित किया कि में आजन्म ब्रह्मचारी रहकर सत्यज्ञान प्राप्त करूंगा और उसका आलोक जन-जन तक पहुंचाऊँगा । मुझे समाजके विशाल भवनको नींवको दृढ़ करना है। मुझे देवताओंके मन्दिर नहीं बनाना है अपितु जन-जनके मानस-मन्दिरको सुसंस्कृत करना है । मानवशक्तिके होते हए अपव्ययको रोकना है। प्रत्येक बड़-चेतनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। किसीका किसीपर अधिकार नहीं है। सभी पदार्थ अपने परिणामी स्वभावके अनुसार उत्पाद-व्यय प्रौव्यकी प्रक्रिया द्वारा परिवर्तित होते हैं।
महावीरका हृदय आध्यात्मिक क्रान्तिके विप्लवसे भर गया और वे सोचने लगे कि संसार में कोई किसीका नहीं है। सभी आत्माएँ स्वतन्त्र रूपसे कर्ता और भोक्ता हैं । जो जैसा करता है, उसे वैसा फल मिलता है । फल देनेवाला कोई अन्य व्यक्ति नहीं है। अत: वे अपने माता-पितासे आरम-निवेदन करने लगे
"पूज्यवर ! मैं आपका पुत्र हैं, किन्तु आप ही बतलाइये कि इस संसारमें कौन किसका है ? संसारका प्रत्येक पदार्थ क्षणभंगुर है। जीवन अनित्य है, दुःखमय है । इस चरम सत्यसे इनकार नहीं किया जा सकता है। आत्मा अमर और शाश्वत है। परिवर्तन तो जगतका शाश्वत नियम है। यह चेतन और अचेतन दोनोंमें ही होता है, पर इतनी बात अवश्य है कि जड़में परिवर्तनको प्रतीप्ति शीन हो जाती है, जबकि चेतनगत परिवर्तनको प्रतीति शीच नहीं हो पाती है। यदि चेतनमें परिवर्तन न होता, तो आत्माका दुःखीसे सुखी होना और अशुद्धसे शुद्ध होना यह कैसे सम्भव हो सकता है ? जीवन और जगत में प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है, यह चरम सत्य है ।" । ___ "शरीर अनित्य है। धन और वैभव भी शाश्वत नहीं है। मृत्यु सदा सिरपर नाचती रहती है । न जाने किस क्षण श्वांस बन्द हो जायगी। जिस दिन बालक जन्म ग्रहण करता है, उसी दिनसे उसके पीछे मृत्यु लग जाती है ।" १२४ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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"जिस शरीरपर मनुष्य अभिमान करता है, वह शरीर भी विविध प्रकारके रोगोंसे आक्रान्त है । क्रीड़ाओं और व्यथाओंका भाण्डार है । न जाने कब और किस समय कहाँपर उसमेंसे रोग फूट पड़ेंगे। अतएव मुझे ऐसे लक्ष्य तक पहुँचना है, जहां वैषम्यका प्रश्न नहीं । सबकुछ समत्वके वातावरणमें स्पन्दित है।" ___"मैं शोषित, पीड़ित और सन्तप्तोंके मध्य भोगरत जीवन-यापन करना अपराध मानता हूँ | पिताजी ! क्या इस व्यापक दरिद्रता और जड़ताके रहते हुए, मुझे समलियोंके बीच विलास-मग्न होनेका अधिकार है ? मैं इस मर्त्यजीवनसे अमतत्वको प्राप्त करना चाहता हूँ। यह अमतत्व ही आत्मतत्त्व है। अविनाशी है, नित्य है और शाश्वत है। यह आस्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय है । आलोक या प्रकाश-पुञ्ज है ।" ।
"मेरे जीवनका लक्ष्य संसारको शान्ति प्रदान करना है। मैं इन भूले और भटके हुए प्राणियोंको सम्मान प्रवृत्त करना चाहता हूं : अहिंसा, सत्य और अचौर्य आदिके द्वारा मानवमें मानवताकी प्रतिष्ठा करना चाहता हूँ | अतएव आपका भव्य आशीर्वाद मेरो साधनाके पथको आलोकित करेगा।"
महाराज सिद्धार्थ महावीरके विचारोंको सुनकर पुलकित हो उठे । उनका पितृत्व धन्य हो गया । वे बाल्यकाल से ही महावीरकर सम्मान करते थे और उनमें पूर्ण व्यक्तित्वका दर्शन करना चाहते थे। उन्हें विश्वास हो गया कि महावीर अविवाहित रहकर ही विश्वका कल्याण करेंगे। उनका कार्यक्षेत्र परिवार और वैशाली-गणतन्त्र तक ही सीमित नहीं रहेगा, अपितु वे पूरे विश्वको अपने आलोकसे आलोकित करेंगे। अतएव उन्होंने महावीरको उनके उच्च विचारोंपर मौन स्वीकृति प्रदान की। सिद्धार्थका पितृत्व भावी तीर्थकरत्वसे पराजित हुआ । मासाको विबलता
पुत्रको विरक्त अवगत कर सिद्धार्थने तो किसी प्रकार धैर्य धारण किया, पर माताकी विह्वलता अभी भी ज्यों-की-त्यों अक्षुण्ण थी। माताको आशा थी कि महावीर अभी विवाहके पक्षमें भले ही न हों, पर आगे वह मेरा आग्रह स्वीकार कर लेगा ! माताके वात्सल्यको ठुकराना संभव नहीं है। अतएव त्रिशला हृदयका साहस एकत्र कर पुत्रके विचार-परिवर्तनकी प्रतीक्षा करने लगी। वह पुत्र-परिणयके दृश्यका काल्पनिक आनन्द लेती हुई रोमांचित होने लगी। वह सोचती-महावीर वयमै कम, परंतु प्रज्ञा और प्रतिभामें ज्येष्ठ है । उन
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जैसा समझदार पुत्र किसी सौभाग्यवती माताको ही प्राप्त होता है। अभी तो महावीरका मन कच्चा है, समय आने पर उसे बदलना सम्भव है।
माता त्रिशलाने एकान्त देखकर एकाध बार अपने पुत्रसे प्रेमपूर्वक पाणिग्रहण करनेका अनुरोध भी किया, पर महावीरका दृढ़ संकल्प ज्यों-का-त्यों बना रहा । उन्होंने अपनी स्नेहमयी माताको समझाया और बतलाया कि इस समय अस्स नताकी रक्षा माना जाता है। महावीरके चिन्तनको ज्ञात कर माता त्रिशलाको भी यह निश्चय होने लगा कि महावीर अपने संकल्पपर अडिग रहेगा और यह सांसारिक बन्धनमें न बंधकर स्वन्त्र रूपसे जन-क्रान्ति करेगा। संसारको कोई भी मोह-माया इन्हें बाँध नहीं सकती है । यह तो वर्गहीन समाजको स्थापना कर आत्म-स्वातन्त्र्य लाभ करेगा। अतएव पुत्र विवाह न भी करे, तो भी मेरी आँखोंके समक्ष बना रहे यही मेरे लिये बहुत है । यौवन और गृह-निवास
तीर्थंकर महावीरका जन्म ऐश्वर्य पूर्ण परिवेशमें हुआ था और उनके चारों ओर परिवार एवं वैशाली गणतन्त्रकी समृद्धि व्याप्त थी । युवावस्थाके प्राप्त होनेपर उन्होंने विवाह न करनेका दृढ़ संकल्प किया एवं उनके हृदयमें विरागका अंकुर पल्लवित हुआ । भोगसे योगकी और उनकी प्रवृत्ति बढ़ने लगी। यत: अतिसमृद्धि से हो त्यागकी प्रवृत्ति जन्म लेती है। गहरे रागमें विराग पनपता है 1 राजभवन में नर्तकियोंके पग-नूपुरकी झंकार सुनायी पड़ती, परिचारक इच्छा व्यक्त होनेके पहले ही भोग-सामग्रियाँ प्रस्तुत कर देते । उत्तरोत्तर भोगके साधन बढ़ रहे थे। ___ पंचेन्द्रियोंके रमणीय सुख पूर्णरूपेण समवेत थे। न अशन-वसनकी कमी थी
और न भोग-सामग्रीका ही अभाव था। महावीर प्रातःकाल व्यायाम आदिसे निवृत हो एकान्त चिन्तनमें समय यापन करते । रमणीयाहरितवसना वसुन्धरा महावीरके मनको प्रसन्न करती। वैशालोके जनपदमें ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था, जो महावीरका सम्मान न करता हो। वे सभीकी औखोंके तारा थे । काञ्चन वर्ण और गम्भीर मुखमुद्राको देखकर जन-जन उनके चरणों में नतमस्तक हो जाते थे । जब महावीर नगर-परिभ्रमणके लिये निकलते तो पौराङ्गनाएं गवाक्षोंसे एकटक दृष्टिसे देखा करती थीं । राजकुमार महावीरको सभी भोग-सामग्रियाँ प्रचुर रूपमें उपलब्ध थीं।
बड़े बड़े सामन्त और मुकुटधारी नृपतिगण उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे अपनी कठिनाइयां उन्हें निवेदित करते और विचक्षणबुद्धि महाबीरसे अपनी १२६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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समस्याओंका समाधान प्राप्त करते । राजा सिद्धार्थं महावीरके बढ़ते हुए इस प्रभावको देखकर अत्यन्त पुलकित थे । वे पुत्रकी समृद्धिको अवलोकित कर सुनहले स्वप्न संजोते और विचार करते कि महावीरका जन्म देशकी जनताको दासताके बन्धनों से मुक्ति दिलानेके लिये हुआ है। वास्तवमें मैं धन्य हूँ, जिसके घरमें तीर्थंकर महावीरने जन्म लिया है। यह विश्वका धर्म- नेता बनेगा और समस्त व्यवधान, अमंगल और मोह बन्धनों को शिथिल करेगा ।
महावीरको सब कुछ सहज और सुलभ था। बड़ी-बड़ी लावण्यवती वाराङ्गनाएं अपने नृत्य, चाद्य और संगीत द्वारा उनका मनोरंजन करतो थीं, पर महावीरका चित्त इनसे अलग था । उनका मन भव-सागरके उस तटपर चरम शक्तिका अन्वेषण करता था। वे मोक्ष- साधनके लिये तैयारियाँ कर रहे थे। अपनी इस साधना के समक्ष उन्हें सांसारिक सुख अकिंचन प्रतीत होते थे। उनके अन्तःकरणको राजसी विलास एक क्षण भी नहीं रुचता था । वे अपने पूर्व भवका स्मरण करते हुए कभी सोचने लगते
चिन्तनधारा
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"आज जिन विनश्वर ऐश्वयोंके बीच मैं हूँ, उनसे कई गुना अधिक वैभव भोग चुका हूँ। मुझे अगणित देवाङ्गनाओंका सुख मिला, इच्छानुसार अमृतको प्राप्ति हुई, पर तृप्तिका अनुभव कभी नहीं हुआ । सांसारिक समस्त भोगोपभोग त्याग - सुखकी तुलना में नगण्य है। अब संयम और त्यागका अवसर उपस्थित हुआ है । अतः मुझे आत्म-शुद्धिकी दिशा में प्रगति करनी है। मोह, माया, ममता और अस्मिता पर विजय प्राप्त करनी है । अहंताके पंकसे ऊपर उठकर जीवनको निर्मल बनाना है । मुझे उन दिनोंको स्मृति भा रही है, जब मैं 'पुरुरवा भीलको पर्याय में धनुष-बाण लेकर आखेट किया करता था । उन दिनों मुनि सागरसेनने मुझे उपदेश दिया था, उसकी आज भी स्मृति बनी हुई है ।
जटिल - पर्यायमें मिध्याशास्त्र पढ़कर मैंने जिन भोगोंका आस्वादन किया था और मेरी आसक्तिके कारण मुझे जो नर-नारकादि पर्यायें प्राप्त हुई थीं, उनकी स्मृति - रेखा अभी भी अंकित है । विश्वनन्दीकी पर्यायमें मेरे द्वारा किये गये पराक्रमपूर्ण कार्य एवं विरक होती गयो साघनाकी स्मृति अक्षुण्ण है । त्रिपृष्ठनारायणको पर्यायमें मैंने संगीत, चित्र, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं द्वारा जो मनोरंजन किया था, उसकी भी स्मृति मूली नहीं है। इस प्रकार मैंने विगत अनेक भवोंमें अपार वैभवका भोग किया है। यह सत्य है कि इस भोग-परम्परासे आत्म-साधना की उपलब्धि सम्भव नहीं है। वीतरागत्ताकी प्राप्ति
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बड़ी कठिनाई होती है आत्मानुभूति सहज नहीं है । आत्माको विकारोंसे बचाने की आवश्यकता है। राग-द्वेषके वातावरणसे बाहर निकल कर एकबार जो श्वांस लिया कि उसकी सुगन्ध स्वयमेव सर्वशक्तिमानकी अनुभूति उत्पन्न करा देगी। सुषुप्त आत्मशक्तिके जागृत होनेपर विकाररूपी शत्रुओंका कहीं पता-ठिकाना भी नहीं रहता । जीवनमें एक नगी चमक आ जाती है. नया मोड़ उत्पन्न हो जाता है और सच्चे आनन्दको उपलब्धि होती है । पूर्णता के अभाव में सर्वशक्तियों का उदय नहीं हो पाता ।
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महावीर ज्यों-ज्यों वयकी सीढ़ियोंपर चढ़ते गये, त्यों-त्यों भोगासचिके स्थानपर विरक्ति-भावना वृद्धिंगत होती गयी। जिस यौवनावस्था में सांसारिक प्राणी विषय और भोगोंके प्रति आकृष्ट होते हैं और क्षणिक सुखके लिये अपने जीवनको अर्पित कर देते हैं, उसी योवनावस्थामें महावीर पूर्णरूपसे विरकि प्राप्त करने लगे । तीस वर्षकी अवस्था तक वह गृहस्थ जीवनमें रहे, पर उनका मन एक क्षण भी परिवार, गृह और भोगोंमें आसक्त न हो सका । उनके मनमें कई बार तूफान उठा कि वह गृहस्थ जीवन के बन्धनोंको तोड़कर अपनी लक्ष्यसिद्धिके लिये निकल पड़े। पर किसी न किसी कारणवश उन्हें रुक जाना पड़ा । वस्तुतः साधनाको उपलब्धि सहजमें नहीं होती है। जबतक काललब्धि उपलब्ध नहीं होती, तबतक चाहनेपर भी साधना-पथ नहीं मिल पाता है ।
महावीरमें अद्भुत शूरता और वीरता थी । प्रायः देखा जाता है कि लोग सन्यास लेने के लिये घर-द्वार छोड़ते हैं। पर घरके बोच रहकर इन्द्रियसुख और मोह-ममता से संघर्ष करना साधारण बात नहीं है। रोग, दुःख, पापाचार, क्रोध, मान, माया, लोभ और अहंकार ऐसे साधन हैं, जो व्यक्तिको एक सामान्य परिवेशमें बन्द करके रखते हैं। महावीरको वैशाली में सभी सांसारिक सुखसुविधाएँ प्राप्त थीं, पर उनका मन सदा विरक्त रहता था । अतः वैशालीके सुखसाधन उन्हें अधिक दिनों तक अपने बीच रोक न सके। उन्हें राज्य, भवन, सुख-सम्पदा, कुटुम्ब एवं बन्धुवर्ग आदि सभी बन्धन प्रतीत हो रहे थे । वे इन बन्धनोंसे ऊपर उठकर स्वयं बुद्ध बननेका प्रयास कर रहे थे । वे अपने जीवनप्रवाहको नयी दिशामें परिवर्तित कर साधक बनना चाहते थे । गृह-वास करते हुए भी वे संसार से विरक्त थे। अब उनके अन्तस्तलमें वैराग्यको उत्ताल तरंगे उठ रही थीं। पुरजन-परिजन इन तरंगोंको शान्त करना चाहते थे, पर महावीरके संकल्पको परिवर्तित करने की क्षमता किसी में नहीं थी । तप, त्याग, संयम और ज्ञानके अक्षय पदको प्राप्त करनेके लिये महावीर प्रयत्नशील थे ।
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युगकी पुकार __ महावीरका युग एक क्रान्तिकारी युग-द्रष्टा व्यक्तिको पुकार रहा था। चारों ओर "त्राहि माम्, त्राहि माम् को ध्वनि गूंज रही थी। यज्ञोंके धूम, पशुओंके करुण चीत्कार, नारीपर किये जानेवाले जोर-जुल्म एवं शूद्र और दलितोंपर किये गये अत्याचार जोर-जोरसे पुकार रहे थे कि कोई एक आध्यास्मिक क्रान्तिकारी महान प्रभावशाली व्यक्ति उपस्थित हो और संसारके अन्याय एवं अनीतिका विरोध करे । वास्तवमें इस समय युगका आह्वान न सुनना मानवताकी अवहेलना करना था। युग संयम और त्यागकी ओर टकटकी लगाये देख रहा था। अतः लोक-कल्याणके लिये दृढ़ संकल्प ग्रहण करना आवश्यक था। दुःखी संसार आँखें खोलकर किसी महान् व्यक्तिको प्रतीक्षा कर रहा था। चारों ओर अनेक तरहकी प्रतिक्रियाएं अभिव्यक्त हो रही थीं। प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने ढंगसे अपनी-अपनी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त कर रहा था । दीर्घकालसे चली आयी सार्वदेशिक विषमताको दूर करने के लिये महावीरकी खोज थी । जनकल्याणका मार्ग सभी नहीं प्राप्तकर सकते हैं। इसके प्राप्त करनेवाले तो कोई एकाध व्यक्ति ही होते हैं । अतः महावीरने वैराग्य ग्रहण करनेका संकल्प लिया। युगको पुकार उन्होंने सुनी और वे युगनिर्माणके कार्यमें प्रवृत्त हुए । मचल उठा त्रिशालाका मातृत्व
त्रिशलाने जब महावीरकी आध्यात्मिक जागृतिका संवाद सुना तो उनका मातृत्व मचल उठा। ममता उतावली हो उठी और उसके मनःप्राण शून्य हो गये। वह सोचने लगी-"राजसी वैभवमें पला मेरा लाइला बीहड़ वनपवंतोंमें किस प्रकार विचरण करेगा? ग्रीष्मके कड़े सन्तापको कैसे सहन करेगा? जिसने आजतक मखमलको छोड़कर नंगी भूमिपर चरण भी नहीं रखा, वह कंटकाकीर्ण भूमिमें किस प्रकार गमन करेगा ? शीत-ऋतु में सरितातटोंपर कैसे विचरण करेगा? जब मूसलाधार वर्षा होगी, तब वह किस प्रकार खुले आकाशमें साधना कर सकेगा ? कहाँ तो मेरे पुत्रकी सुकुमारता और कोमलता: और कहाँ कंकरीली कठोर घरती? तप्त शिलाखण्डोंपर बैठकर आत्मचिन्तन करना, क्या सुकुमार महावीरसे संभव होगा? हाथियोंकी चिंघाड़, सिंहोंकी गर्जना एवं सोंके उत्कट फत्कारोंको यह कैसे सहन कर सकेगा? मेरा हृदय आशंकासे दहल रहा है और मेरा रोम-रोम कॉप रहा है।"
माता त्रिशलाकी विचारधारा और तीवतासे आगे बढ़ी। वह चिन्तन करने लगो कि "जिसके सुकोमल.पगतलोंमें प्रकृतिने स्वयं महावर लगाया है।
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जिस लाड़लेने स्वप्न में भी संघर्ष नहीं किया है, वह इन विषम परिस्थितियों से जझेगा ? राजसी कोमल शेय्यापर शयन करनेवाला मेरा पुत्र कठोर चट्टानपर किस प्रकार शयन करेगा ? कहाँ बीहड़ वन और कहाँ सुख-सुविधासम्पन्न राजभवन | आजतक मैं जिसके मुखको निहारकर पुलकित होती रही और इसी आशा में जीवित रही कि मेरा प्यारा पुत्र महावीर मेरी मनोकामना पूर्ण कर मेरे जीवनको सफल करेगा। अब उसके संन्यासी बन जानेपर मैं जीवनको नीरस घड़ियोंको किस प्रकार वित्ताऊँगी ? में पुत्रके वियोगको एक क्षणके लिये भी सहन करने में असमर्थ हूँ । यह. में मानती हूँ कि महावीरपर मेरा उतना ही अधिकार है, जितना कोटि-कोटि मानवका । महावीर मेरा ही पुत्र नहीं है, वह जन-जनका प्यारा लाड़ला है ।" माता त्रिशलाके सोचनेकी तीव्रताने उसे मूच्छित कर दिया ।
परिचारिकाएँ जल लेकर उपस्थित हुईं और चन्दन - मिश्रित शीतल जलके सिंचन करते ही त्रिशलाको मूर्च्छा दूर हो गई ।
चेतनाके लौटते ही पुत्र वात्सल्य उमड़ पड़ा। उसे सारा संसार रूक्ष, कर्कश और कठोर प्रतीत हुआ । सारा दृश्य मर्मस्पर्शी था । माता लड़खड़ाती हुई उठी और संत दयसे महान को महाववृढ़ संकल्प लेकर वैराग्यकी ओर कटिबद्ध थे। उनके अन्तरंग में वीतरागताकी उत्ताल तरंगें उठ रही थीं और यह संसार उन्हें स्वार्थी का जलता हुआ पुञ्ज दिखलाई पड़ रहा था ।
लोकान्तिकों द्वारा चरण वन्दन
महावीरकी विरक्तिको अवगत कर लौकान्तिक देव आये और उन्होंने प्रभुके चरणोंकी वन्दना करते हुए स्तुति की
"प्रभो ! आप धन्य है और धन्य है आपका अमर संकल्प | आपने जिस जीवन के वरणका संकल्प किया है, उससे समस्त लोकोंका कल्याण होगा | आप तप, त्याग, संयम और ज्ञानके अक्षयपदको प्राप्त करेंगे। सर्वज्ञ और हितोपदेशी बनकर विश्वका कल्याण करेंगे। हम सभी आपके वैराग्यको प्रशंसा करते हैं । आपने जन-कल्याणके लिये जिस साधना पथका अनुसरण करनेका संकल्प लिया है, वह महनीय है । इस समय विश्वको आप जैसे साधक धर्म- नेसाकी आवश्यकता है । निःसन्देह महापुरुषके जीवन में एक ऐसी स्थिति आती है, जब वह विषय वासनाओं और भोगों से सर्वथा विरक्त होकर यथार्थ सत्यको प्राप्त करने के लिये व्यग्र हो उठता है | आत्म-संयमकी उच्च भावनाओंमें रमण करना उसे प्यारा १३० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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लगता है । धन, सम्पत्ति, राज्य, भोग-विलास आदि वस्तुएं तो बाह्य साधन हैं और अपूर्ण हैं, क्योंकि वे स्वयं नाशवान हैं अतएव हम आपके त्याग, संयम और सत्यानुष्ठानकी प्रशंसा करने एवं आपके वैराग्यका अनुमोदन करनेके लिये यहाँ उपस्थित हुए हैं! आप मसि भूत और जानके भारी विवेकी एवं आत्म-शोधक है । आपकी साधनामें सफलताको तनिक भी आशंका नहीं है । आप अपने संकल्पको अवश्य पूरा कीजिये ।
माताको सांत्वना
इन्द्रको जब अवधिज्ञानसे तीर्थंकर महावीरको विरक्तिका समाचार ज्ञात हुमा, तो वह उल्लासमें पगा कुण्डग्राम आ पहुंचा और उसने कई प्रकारसे हर्षोत्सवका आयोजन किया। देव विभिन्न प्रकारके उत्सवोंका आयोजन करते हुए महावीरके वैराग्यको ला करने लगे । आगत देवोंने माता त्रिशलाको विह्वल देखा तो वे मातृ-हृदयकी प्रशंसा करते हुए सांत्वना के स्वरमें कहने लगे
“जगदम्बे ! तीर्थंकरकी माता होकर आपने महान पुण्य अर्जित किया है । आपका पुत्र परम तेजस्वी और fareer कल्याणकारक है | आप इतना विलाप क्यों करती हैं ? चिन्ता छोड़िये शोत, आतप और वर्षाका कष्ट सहन करनेका उसमें अपूर्व सामर्थ्य है। ये बच्चवृषभनाराचसंहनन से युक्त हैं। धीरजके धनी हैं और समस्त उदात्त गुणोंसे सम्पन्न हैं । इन्हें सर्वोच्च पद तीर्थंकरत्व प्राप्त करना है । यह ऐसा पद है, जिसके समक्ष संसारके समस्त पद और वैभव तुच्छ माने जाते हैं। महावीर स्वयं तो मुक्ति प्राप्त करेंगे ही, पर वे अन्य साधकोंके लिये भी तीर्थंका निर्माण करेगें । विश्श्रृंखलित और विघटित होते हुए समाजका स्थिरीकरण भी इन्हींके द्वारा सम्पन्न होगा। तुम्हारी कुक्षि धन्य है । तुमने एक लोकोद्धारक विभूतिको जन्म दिया है। संसार शताब्दियों तक तुम्हारे चरणवन्दन करेगा | देवि! तुम्हारे समान सौभाग्यशाली नारियाँ कितनी हैं ? अतएव वास्तविक परिस्थितिको ज्ञातकर शान्त हो जाइये " ।
देवोंकी इस सांत्वनाप्रद वाणीको सुनकर माताका मन कुछ हल्का हुआ । फिरभी पुत्र-वियोगकी कल्पना इन क्षणोंमें भी उसे विह्वल बना रही थी । उसे विश्वास नहीं हो पाता था कि उसका लाड़ला महावीर वनकी उन भयावनी स्थितियों का सामना कर सकेगा ? राजसी वातावरण में पालित पोषित और सम्बद्धित महावीर तपश्चर्या में होनेवाले कष्टोंको सहन कर सकेगा ? त्रिशलाका मातृत्व उसे विह्वल कर रहा था। आँखोमें सावन-भादोंके बादल घिरे हुए थे । मन ममता में उफन रहा था और महावीर दीक्षा कल्याणक की तैयारी कर रहे
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थे । अब उन्हें एक क्षण भी वैशाली में निवास करना असा प्रतीत हो रहा था । देवोंने विलखते हुए मातृत्वको सांत्वना दी और महावीर की शक्तियोंका परिज्ञान कराया ।
चरण चल पड़
मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी २९ दिसम्बर ई० पू० ५६९ की तिथि भारतीय इतिहासमें स्वर्णाक्षरोंमें अंकित है ।" इस दिन कुण्डग्रामका राजमार्ग जयघोषोंसे गूँज रहा था और महावीर कामनाओं एवं विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिये कृतसंकल्प थे। उनके साहस और शौर्यपूर्ण चरण आत्मविजयकी मोर बढ़ रहे थे । देशोंपर विजय प्राप्त करनेवाले तो विश्व के इतिहास में अनेक महापुरुष मिलते हैं, पर कषायों और विषय-वासनाओं को जीतनेवाले महामानव कम ही होते हैं । महावीर विषय-वासनाओं की कटीली झाड़ियोंको काटने के लिये गतिशील थे । कोटि-कोटि मानव श्रद्धा और विश्वाससे अवनत हो चरण-स्पर्श कर रहे थे। वे मानवको दुःखोंसे त्राण देनेके हेतु उद्यत थे ।
वास्तव में इन्द्रियोंकी दासता और विलासिता दुर्दमनीय शत्रु हैं। बड़े-बड़े शक्तिशाली शत्रुओंको पराजित करनेवाले अनेक योद्धा होते हैं। पर रोग, शोक, कदाचार और काम जैसे अन्तरंग दुर्दमनीय शत्रुओंको तो तीर्थंकर महावीर जैसे विरले महामानव ही पराजित कर सकते हैं ।
महावीर राज्य भवन, सुख-सम्पदा और कुटुम्ब वर्गको त्यागकर दिगम्बरदीक्षा ग्रहण करनेके लिये सश्रद्ध हो गये । समस्त कुण्डग्राम में शोक और उल्लासकी लहर व्याप्त हो गयी । शोक इसलिये कि उनके प्राणप्रिय राजकुमार उन्हें छोड़कर जा रहे थे और उल्लास इसलिए कि उनके श्रद्धापात्र महावीर उन विषय-वासनाओंसे युद्ध करनेके लिए जा रहे हैं, जिन्हें अबतक लोग अजेय, अविजितं समझते आ रहे थे। एक ओर जनता के नेत्रोंसे अश्रुधारा प्रवाहित हो रही थी, तो दूसरी ओर जनता के कण्ठसे जयनाद भी निकल रहा था। हर्ष और विषाद के समागमका अद्भुत दृश्य था ।
कुण्डग्राम वासियोंने महावीर के दीक्षा कल्याणककी पूरी तैयारी की। इस उत्सव में देव भी सम्मिलित हुए। समारोह में परिजन पुरजन और प्रजाजन एकत्र हुए । सबने महावीरको विदा दी। सभोके नेत्र असुओं से गोले हो रहे
१. मग्गसिर बहुलदसमी अबरहे उत्तरासु णाघवणे । तदियध्वणम्म गहिदं मन्दं
वडमाणेण ॥
- तिलो० प० ४।६६७
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थे । और हृदयमें प्रवल आकर्षण था । नेत्रोंसे गिरती अश्रुधारा और जनताका निश्छल प्रेम भो महावोरके चरणोंको बांधने में असफल रहा | धन्य थे उनके चरण । उनके उन चरणोंमें कितनी गति थी । कितनो संचरण-शक्ति थी।
जनता डबडबाई आँखोंसे महावीरके मुखको देखती रही और महावीर मोह-बन्धनों को तोड़कर 'चन्द्रप्रभा' पालकीपर जा बैठे ।
आत्म-स्वातन्त्र्यकी बेला
देव और मानवों के बीच विवाद आरम्भ हुआ कि त्रिलोकीनाथ महावीरकी इस चन्द्रप्रभा पालकी को पहले कौन उठायेगा ? देवोंने अपने तर्क उपस्थित किये और मानवोंने अपने तर्क । मानवोंने कहा जो महावीर के साथ दीक्षित हो सकता है, वही उनकी इस पालिकोको अपने कंधों पर उठानेका अधिकारी है । संयमग्रहण करनेमें असमर्थ देव कतराने लगे और मानव मंगलके वे क्षण अत्यन्त भाग्यशाली बन गये । आरंभ में मानवोंने कंधोंपर पालकीको उठाया; अनन्तर देव-देवेन्द्र पुलकित हो 'चन्द्रप्रभा' पालकीको उठाये हुए 'खण्डबन' की ओर बढ़ने लगे। इसे 'नायखण्डवन' या 'ज्ञात खण्डवन' भी कहते हैं । वैशाली गणतन्त्रने आत्मस्वान्त्र्यकी बेलाका अनुभव किया ।
तुमुल जयघोषोंसे गगन, घरा, दिदिगन्त गूँज उठे ! वैशालीसे ज्ञातखण्डवन तक सम्पूर्ण प्रदेश जीवन्त था । आध्यात्मिक जागृतिको लहर एक छोरसे दूसरे छोर तक व्याप्त थी । जीवन की समस्त उज्ज्वलताएँ लोक-कल्याणके लिये प्रवृत्त थीं ।
पालकी - चाहकोंने उद्यानमें पहुँच कर महिमामय अशोकवृक्षके नीचे पालकीको उतारकर रख दिया। महावीर पालकीसे नीचे उतरे और अशोकवृक्ष के नीचे स्थित मणिजटित स्फटिक शिलापर आसीन हो गये और उत्तर दिशाकी ओर मुखकर अपने समस्त वस्त्राभूषणों को त्यागकर दिगम्बर वेश धारण किया ! अब ये यथाजात शिशुवेषमें दिखाई पड़ रहे थे। कितना हृदयद्रावक और प्रभावक यह दृश्य रहा होगा, जिसमें एक राजकुमार अपने विशाल वैभवको ठुकरा कर अपरिग्रही विरक्त बन रहा हो । दिग्बंधुओंने दिगम्बर महावीरको आरती उतारी और देव मानवोंने दीक्षा कल्याणक सम्पन्न किया । महावीरने सिद्धपरमेष्ठीको नमस्कार कर पंच मुष्टियों द्वारा अपने राजसी, सुकोमल, स्निग्ध केशोंका लुञ्चन किया उन्होंने शरीरके मोहपर पूर्ण विराम लगा दिया और आत्म-लोचन एवं आत्म-शोधन में प्रवृत्त हुये ।
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अट्ठाईस मूलगुणोंको धारण
समस्त बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग कर महावीरने अट्ठाइस मूलगुणोंके पालन करनेकी महाप्रतिज्ञा की। चे ज्ञान-ध्यान में लीन हो संयम-आराधनामें संलग्न हो गये !
महावीरने ( १ ) अहिंसा, ( २ ) सत्य, ( ३ ) अस्तेय, ( ४ ) ब्रह्मचर्य और ( ५ ) अपरिग्रह इन पांच महाव्रतोंके पालन करनेकी प्रतिज्ञा की । अनंतर उन्होंने पंच-समितियोंको स्वीकार किया । प्रमादजन्य पापोंसे दचने और मनको एकाग्र करने के लिए समितियों की आवश्यकता होती है। महावीर द्वारा स्वीकृत समितियाँ निम्न प्रकार हैं।
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( ६ ) ईर्ष्या-समिति - जीवोंकी रक्षा हेतु सावधानीपूर्वक चार हाथ आगेकी भूमि देखकर चलना ।
(७) भाषा समिति - हित मित और प्रिय वचन बोलना । (८) एषणा समिति--सावद्य रहित पवित्र भोजन ग्रहण करना । (९) आदान-निक्षेपसमिति - वस्तुओं ( साधु द्वारा स्वीकार्य पिछी, शास्त्र और कमण्डलु) के रखने और उठाने में प्रमादका त्याग कर सावधानी रखना ।
(१०) व्युत्सगं समिति - जीव-जन्तु रहिस भूमिपर मल-मूत्र त्याग करना । तीर्थंकर महावीरने पांच महाव्रत और पाँच समितियों के पालन करनेका संकल्प कर निम्नांकित गुणों-- सद्वृत्तियोंके पालन करनेकी भी प्रतिज्ञा की(११) स्पर्शन-निरोध - प्रिय और इच्छित वस्तुके स्पर्शका निषेध | (१२) रसना -निरोध - अभीप्सित वस्तुके रसास्वादनका त्याग । (१३) प्राण-निरोध - इच्छित गन्धके सूंघनेका निषेध ! (१४) चक्षु-निरोध - इच्छित वस्तुके अवलोकनका त्याग ।
(१५) श्रोत्र-निरोध — रागात्मक इच्छित संगीतके श्रवणका त्याग ! (१६) सामायिक - समभावका पालन |
(१७) चतुर्विंशतिस्तव - तीर्थंकरोंका स्तुति - पाठ ।
(१८) वन्दना -देव- गुरुको नमस्कार ।
(१९) प्रतिक्रमण – दोषोंका शोधन और प्रकटीकरण ।
(२०) प्रत्यास्थान - अयोग्यके त्यागका नियमन और व्रत पालन | (२१) कायोत्सर्ग - नियत कालके लिये देहसे ममत्व त्यागकर खड़े होना । (२२) केश- लुञ्चन – नियत कालमें उपवासपूर्वक अपने हाथसे केशोंका लुञ्चन करना - उखाड़ना |
(२३) अचेलकत्व - वस्त्रादि द्वारा शरीरको नहीं ढँकना ।
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(२४) अस्नान-स्नान, अञ्जनादिका त्याग करना । (२५) क्षिति-शयन-शुद्ध एकान्त स्थानमें एक करवटसे शयन करना। (२६) अदन्त-धावन-दंतौन आदि नहीं करना ।
(२७) स्थित-भोजन-अपनी अञ्जुलिमें समपाद खड़े होकर नियमित भोजन करना।
(२८) एकमत या एक समयका भोजन-सूर्योदय और सूर्यास्त कालमें तोन घड़ी अर्थात् एक घंटा बारह मिनट समय छोड़कर एकबार भोजन करना । ___ महावीरने साधुके इन अट्ठाइस मूलगुणोंको स्वीकार किया और साधना द्वारा अपने गत आत्म-वैभवको प्रकाशित करनेका प्रयास किया । महाबीरने जीवनको ममतासे ऊपर उठकर मोह और विकारका त्याग किया। युवा योगिराट् महावीरने दिगम्बररूप धारणकर यह बता दिया कि वे जितेन्द्रिय हैं । विकारोंपर उन्होंने विजय प्राप्त करनेके लिये कमर कस ली है । निर्मलता
और सरलता उनके रोम-रोममें समा गयी है । वे हिमालयके समान दृढ्-प्रतिश होकर उपवासमें प्रवृत्त हुए। वह कुण्डग्रामके ज्ञातखण्ड उद्यानसे चलकर कुल्यपुर पहुंचे और वहाँ सहीने बकूल का पूज राजा यहाँ म गाहान ग्रहण किया।
वकूल या कूलको ही हिन्दी-कवियोंने 'नृपकुमार' कहा है । वरांगचरितमें इस वकूल नामक नृपकुमारको अत्यन्त धर्मात्मा कहा गया है। उत्तरपुराणमें इसे कूल बताया गया है।
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ONAL
स्पष्टीकरण इस अन्य के प्रथम भाग के षष्ठ परियोद में भगवान महावीर के तपश्चरण, वविास एवं कैवल्य का वर्णन
करते हुए लेरवा मे लिखा है - आगम ग्रन्थों में वधासो ३ का वर्णन प्राप्त होता है। इस वर्णमा से महावीर के मानवीय
जीवम का उज्व ल पक्ष ifive हो जाता है। यहां आगम । अन्यों से उमा अभिप्राय श्वेताम्बर साहित्य से है योटिक इ दिगम्बर साहित्य में इस प्रकार के यम नहीं पाये खाते
हैं। श्रम की संभावना के परिमार्जन के लिये यह स्पष्टीकरण किया जाता है।
( प्रकाशक )
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पष्ठ परिच्छेद तपश्चरण, वर्षावास एवं कैवल्य-उपलब्धि अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहका त्याग करते ही महावीरको मनःपयंयज्ञानकी प्राप्ति हो गयी। वे इस ज्ञानको प्राप्तकर ग्रामानुग्राम विचरण करने लगे। उनकी सतत साधना बढ़ती जा रही थी। सोते-जागते, उठो बैठते, चलते-फिरते आदि सभी अवसरोंपर उनका मन चिन्तनसे विरत नहीं था । वे अपने आपको सभी ओरसे समेटकर आत्म-अनुभवमें लीन हो रहे थे और सर्वस्वका विसर्जनफर विश्व-मंगलकी कामनासे ओत-प्रोत थे। __ - ग्रीष्मकी तपती हुई दुपहरियामें खुले आकाशमें अग्नि-वर्षा करते हुए सूर्यके नीचे उतप्त पाषाण-शिलापर तपस्या करने बैठ जाते और अविचल भावसे दीर्घकाल तक तपस्यामें लीन रहते । वर्षा-ऋतुमें जन धनघोर वर्षा, भयंकर
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तूफान और बादलोंकी गड़गड़ाहटका आतंक व्याप्त रहता था, उस समय वे वृक्षके नीचे अविचल मावसे खड़े हुए तपश्चर्या लीन रहते थे।
पारों ओर हरी-हरी घास उग आती। ताल-सलैयां जलसे परिपूरित हो जाती। मक्खी और मच्छरोंकी भरमार हो जाती, ऐसे समयमें भी महावीर अनावृत्त कायामें संयमको साधनामें लीन रहते। शीत-ऋतुमें बर्फीली हवाएं पलती, घरसे निकलना पशु-पक्षियोंके लिये भी असम्भव था। ऐसे समय निवस्त्र रहकर महावीर नदीके शीत-लहरीयुक्त सटपर ध्यानावस्थित रहते । पर्वतकी फिसी उपत्यका, गुफा अथवा सूनसान, निर्जन और भयंकर स्थानोंमें जाकर वे तपस्या करते। इस प्रकार महावीरकी साधना उत्तरोत्तर उग्रतर होती गयी ।
महावीर विहार करते समय किसी भी स्थानपर तीन दिनोंसे अधिक नहीं व्हरते थे । साधनाके दिनोंमें उन्होंने अगणित स्थानोंकी यात्राएं की, अगणित मानवोंसे भेंट की और अगणित प्रकारके उपसर्ग सहन किये। तपश्चर्याके दिनोंमें जब व माती, कि.पी. स्थलापर नहकर पातुर्मास व्यतीत किया करते थे। उन्होंने साढ़े बारह वर्षोंके लम्बे तपश्चरण-कालमें कितने ही स्थानोंमें चातुर्मास किये।
महावीरके चातुर्मासोंके स्थानोंके साथ बड़े ही प्रेरक सन्दर्भ जुड़े हुए हैं। इन सन्दभोंसे एक ओर तत्कालीन समाजको कायरता, कदाचार और पापाचार अभिव्यक्त होते हैं, तो दूसरी ओर तीर्थकर महावीरके अदम्य साहस, त्याग, धैर्य, सहनशीलता, दया एवं क्षमाके चित्र भी प्रस्तुत होते हैं। यहाँ महावीरके वर्षावासोंके सम्बन्धमें कुछ जानकारी प्राप्त कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा।
आगम-गन्थोंमें वर्षावासोंका वर्णन प्राप्त होता है। इस वर्णनसे महावीरके मानवीय जीवनका उज्ज्वल पक्ष अंकित हो जाता है । प्रथम वर्ष-साधना : सहिष्णुता और साहस
ज्ञातृखण्डवनसे 'एक मूहूर्त दिन शेष रहनेपर महावीर कर्मार ग्राममें पहुंचे और कायोत्सर्ग धारण कर ध्यानमें संलग्न हो गये। इसी समय एक ग्वाला अपने बैलों सहित वहाँ आया और महावीरसे बोला-"मैं गाय दुहकर अभी गाँवसे वापस आता हूँ। मेरे ये बेल चर रहे हैं, इनकी निगरानी रखियेगा।" वह उत्तरकी प्रतीक्षा किये बिना ही गौव चला गया । महावीर तो ध्यान मग्न थे। उन्हें ग्वालेकी बातका कुछ भी ज्ञान नहीं था । बैल घास चरते हुए वनमें बहुत दूर चले गये । ग्वाला जब घरसे वापस आया और
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उस स्थानपर बैलोंको चरता हुआ न पाया, तो उसने महाबोरसे पूछा-'मेरे बेल कहां चले गये ?" महावीरने कुछ भी उसर नहीं दिया । उसने क्रोधाविष्ट हो महावीरको बहुत बुरा-भला कहा । पर जब उनसे कुछ भी उत्तर नहीं मिला, तो उसने समझा कि इन्हें मालूम नहीं है। अतः यह बैलोंको ढूढ़नेके लिये जंगलकी ओर चल दिया । रातभर वह बैलोंकी तलाश करता रहा, पर बैल उसे नहीं मिले । प्रातःकाल होने पर उसने बैलोको महावीरके पास बैठे रोमन्थन करते हुए पाया। ग्वाला बैलोंको महावीरके पास प्राप्तकर क्रोधसे जल-भुन गया और अपमानके स्वर में बोला-"बैलोंकी जानकारी होते हुए भी आपने मुझे नहीं बतलाया । मालूम होता है कि आप मुझे तंग करना चाहते थे, इसीलिये रातभर मुझसे परिश्रम कराया गया " यह कहकर हाथमें ली हुई रस्सीसे उसने महावीरको मारनेका प्रयास किया। तभी किसी भद्र पुरुषने आकर ग्वालको रोका और कहा कि "अरे, यह क्या कर रहे हो ? क्या तुझे मालूम नहीं कि जिन्होंने कल ही दीक्षा ली है, वही ये महाराज सिदार्थके पुत्र महावीर हैं । इन्हें तुम्हारे बेलोसे क्या प्रयोजन ? ये तो आत्म-ध्यानी हैं और कर्म-कालिमाको दूर करनेके लिये प्रयत्नशील हैं। अतएव इन्हें मारना-पीटना या अपशब्द कहना सर्वथा अनुचित है।"
ग्वालेने नतमस्तक होकर महावीरसे क्षमा याचना की और वह बैलोंको लेकर चला गया। ममताको सोपी कहाँ ?
अप्रतिबन्ध विचरण करते हुए महावीर मोराक-सन्निवेशमें पधारे। यहां दुर्जयन्त नामक तापस-कुलपतिका आश्रम था। आश्रमके समीप कल-कल । निनाद करते हुए निर्झर प्रवाहित हो रहे थे । शांत वातारण था और कुलपति महावीरके पिसाका मित्र था | उसने दूरसे ही महावीरको आते हुए देखा। कुलपतिने महावीरका स्वागत किया और अपनी कुटियामें विश्राम कराया।
प्रातःकाल महावीर अब चलने लगे, तो कुलपसिने उन्हें भावभीनी विदाई दो और इसी कुटियामें चातुर्मास करनेका निवेदन किया। तीर्थकर महावीर प्रामानुमाम विचरण करने के उपरान्त पुनः मोराकसन्निवेशमें आये और कुलपतिकी उसी कुटियामें चातुर्मास करनेका निश्चय किया।
वर्षा-ऋतु प्रारम्भ हो चुकी थी, पर वर्षाको कमीके कारण पर्याप्त मात्रामें वहाँ पास उत्पन्न नहीं हुई थी। गायोंका पेट नहीं भर रहा था। अतः भूखी गायें अपनी क्षुषाको शान्त करनेके लिये झोपडीको घास खानेको १३८ : तीर्थंकर महावीर और धमकी श्राचार्य परम्परा
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आने लगीं। महावीर तो मौन रूपमें आत्म-साधनामें संलग्न थे, उन्हें झोंपड़ीकी क्या चिन्ता थी?
एक दिन कुलपतिके साथ उनके सभी शिष्य बाहर गये हुए थे। गायोंने उस दिन जी भरकर झोपड़ीकी घास खायी और जब संध्या समय कुलपति वापस लौटा, तो उसने देखा कि झोंपड़ीका अधिकांश भाग उजाड़ दिया गया है । गाय उसको घास खा दु है और रहार ध्यानस्थ हैं ! इस स्थितिको देखते ही कुलपतिको क्रोध उत्पन्न हो गया और महावीरको डाँटने लगे"पक्षी भी अपने घोंसलेका ध्यान रखते हैं, आप तो मनुष्य है, आपको अपनी इस झोपडीकी रखवाली करनो चाहिये थो। अरे, जिस झोपड़ी में रहते हो, उसकी रक्षा भी तुमसे सम्भव नहीं। तब तुम क्या साधना करोगे?"
अभी वर्षावासके प्रारम्भ होने में कुछ दिन अवशिष्ट थे । अतः महावीरने वहाँसे बिहार कर दिया और मनमें दृढ़ संकल्प लिया कि जो स्थान सस्वामिक हो, वहाँ नहीं ठहरना और निर्जन स्थानमें ध्यान एवं आत्म-शोधनका सम्पादन करना है । अब मोन रूपमें हो विचरण करूगा । मिट गये शूल, बन गये फूल __ महावीर मोराक-सन्निवेशसे ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए अस्थियाम पधारे । यहाँ ग्रामके बाहर रात्रिमें शूलिपाणि यक्षके चेत्यमें ठहरे । जनताने उनसे अनुरोध किया-'प्रभो ! यहाँका निवासी शूलपाणि महादुष्ट है । यदि रात्रिमें कोई भी भूला भटका यात्री इस चैत्यमें आकर ठहर आता है, तो यह यक्ष उसे मार डालता है। आपको जो हड़ियोंका पहाड़ दिखलायो पड़ रहा है, यह इसी यक्षके कुकर्मोका फल है । अतएव आप हमारी प्रार्थना स्वीकार कोजिये और यहां रात्रि व्यतीत करनेका कष्ट न कीजिये ! आप त्यागो-तपस्वी हैं । अतः दूसरा स्थान उपलब्ध करने में आपको कठिनाई नहीं है। यहाँ रहकर व्यर्थ प्राण मत दीजिये । जो इस यक्षके फंदेमें फँस जाता है, वह जीवित नहीं जा सकता।
लोगोंने यक्षके भय और आतंककी अनेक घटनाएं सुनायी तथा इस प्रकारके दृश्य उपस्थित किये, जिनसे कोई भी विचलित हो सकता था। ___ महावीर साहस और शूर-चौरताको मूर्ति थे । उन्होंने सोचा कि-"सम्यक् दृष्टिको न कोई भय है और न कोई भयजन्य किसी प्रकारकी पीड़ा हो । में तो इसी चैत्यमें रहकर चातुर्मास व्यतीत करूंगा और ध्यान द्वारा सभी प्रकारके उपसोको जीतूंगा।" महावीर कायोत्सर्ग-मुद्रामें ध्यानस्थित हो
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गये । जब आधी रात्रिका समय व्यतीत हुआ और यक्षने देखा कि एक नग्न संन्यासी उसके चैत्यमें निर्भय होकर ध्यानारूढ़ है तो उसका क्रोध बढ़ गया और वह नाना प्रकारके रूप बना-बनाकर महावीरको असह्य और असंख्य यातनाएं देने लगा। पर महायोश्पर इन सबका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उसने अपशब्दोंके साथ मार-पीट भी की, पर अन्तमें हताश हो वह तीर्थंकर महावीरके चरणोंमें गिरकर क्षमा-याचना करने लगा और स्तुति करता हुआ अन्तर्हित हो गया ।
बताया जाता है कि उपसर्गके दूर होनेपर तीर्थंकर महावीरको रात्रिके अन्तिम प्रहरमें कुछ क्षणके लिये नींद आयी और इसी समय उन्होंने कुछ स्वप्न देखे । इसके पश्चात् तो महावीर समस्त जीवन भर जागृत हो रहे और बारह वर्षोंके तपश्चरण में एक क्षणको भी न सोये ।
उनको अनवरत महावीरका अनुपम साहस और त्याग अतुलनीय था साधना द्वारा कर्मपाश शिथिल हो रहे थे। अविचल तपने कर्मकी श्रृंखलामको जर्जर कर दिया था। महावोरका रोम-रोम एक दोप्त आत्म-ज्योतिका सिंहासन बना हुआ था। चारों ओर एक प्रभामण्डल उनके भावी तीर्थंकरत्वका तूर्यनाद कर रहा था ।
अपने इस प्रथम चातुर्मासमें महावीरने पन्द्रह-पन्द्रह दिनके आठ अर्द्धमासी उपवास किये और पारणाके लिये केवल आठ बार उठे ।
बताया जाता है कि तीर्थंकर महावीरके निमित्तसे शूलपाणि-पक्ष के शान्त हो जानेके कारण अस्थिग्रामका नाम वर्द्धमाननगर रख दिया गया, जो आज भी 'बर्दवान' के नामसे पश्चिम बंगाल में प्रसिद्ध है। महावीरकी साधना अनुपम थी। उन्होंने एक वर्ष के साघना कालमें ही अनेक ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त कर ही थीं ।
द्वितीयवर्ष की साधना सर्पोद्बोधन
प्रथम चातुर्मास समाप्त कर महावीरने अस्थिग्रामसे विहार किया और वे दे मोराकसन्निवेश पहुँचे। वहाँ कुछ दिन तक ठहर कर उन्होंने वाचलाकी ओर प्रस्थान किया। जब वे मार्ग में कुछ आगे बढ़े तो गाय चरानेवाले ग्वालोंने उनसे प्रार्थना की कि "यह मार्ग निरापद नहीं है। इसमें भयंकर एक दृष्टिविष नामक सर्प रहता है। वह पथिकोंको अपने दृष्टिविषसे मार डालता है । उसके विषैले फूत्कारसे आकाशमें उड़ते पक्षी भी धरतीपर आ गिरते हैं ।
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इतना ही नहीं उसके तीव्र विषके कारण आस-पासके वृक्ष और लताएं भी सूख कर दूंठ बन चुकी हैं।"
इस समस्त सन्दर्भको सुनकर महावीरने विचार किया कि 'एक ओर चंडफोशिक है, तो दूसरी बोर निरन्तर हो रही विनाश-लीला है। अतः उन्होंने निश्चय किया कि इस चंडकौशिक या दृष्टि-विषको उदबोधित कर सन्मार्ग पर लगाना आवश्यक है। इस विषधरके विषको अमृतमें परिवर्तित करना मेरा काम है ।" अतएव महावीर निर्भय होकर वनके उसी मार्गसे विहार करने लगे। जिसमें नागराज दृष्टिविष निवास करसा था । दृष्टिविषने सोयंकर महावीरको ज्यों ही देखा, फुफकार मारने लगा, विषकी ज्वालाएँ उगलने लगा। महावीर उसके बिलके पास ही स्थिर और अडिग होकर खड़े रहे । नागराजने देखा कि फुफकारका प्रभाव नहीं पड़ रहा है, तो उसने महावीरके पैरके अंगूठेको ओरसे डंस लिया। उसे अनुभव हुआ कि इस व्यक्तिके रक्कमें रक्तका स्वाद नहीं, अपितु सुगना बाद बा रहा है। नपने कई बार महानीरको डंसा, पर महावीर अविचल भावसे ध्यानस्य रहे।
दोनों ओरसे बहुत समयतक संघर्ष चलता रहा । एक ओरसे क्रोधरूप महादानव रह-रहकर विषको ज्वालाएं उगलता था, तो दूसरी ओरसे क्षमाकी अमृत-पिचकारी छूट रही थी। दृष्टिविष विषका वमन करते-करते थक गया और पराजित होकर महावीरके चरणोंके पास लोटने लगा । प्रभुने अपने क्षमाअमृतसे उसके विषकी ज्वाला सदाके लिये शान्त कर दी।
दृष्टिविष महावीरके मौनरूपसे सम्बोधिस होकर मन-ही-मन विचारने लगा"वास्तवमें मनुष्यका अहित कषायावेशके कारण ही होता है। मैंने कोष-कषायके कारण अपनी कितनी योनियोंको यों ही नष्ट किया है। आत्माका सच्चा मंगल रत्नत्रयके द्वारा ही सम्भव है। मैंने इस महानुभावके पगतलमें कई बार दशन किया है। इसके शरीरसे निकलनेवाला रक्त दूधके समान स्वादिष्ट और मोठा है ! इनके मौन सम्बोधनसे मेरा कल्याण सुनिश्चित है।"
दृष्टिविष महावीरका मौन उद्बोधन प्राप्तकर सचेत हुया और अपना मुख नीचेकी ओर करके कुएमें लटक गया। उसने फुफकार मारना बन्द कर दिया और सल्लेखना व्रतमें संलग्न हुआ । अन्तमें अहिंसाकी साधना द्वारा दृष्टिविषने अपने देहका त्यागकर सद्गति प्राप्त की ।
इस प्रकार महावीर निर्भय हो ग्रामानुग्राम बिहार करते हुए श्वेताम्बी नगरीमें पधारे। यहाँके राजा प्रदेशोने भगवान्का स्वागत किया और भक्तिपूर्वक
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उनके चरणोंकी वन्दना की। राजा प्रदेशी महावीरके दर्शन-वन्दनसे बहुत प्रभावित हुआ और धर्माराधनकी ओर प्रवृत्त हुबा । सुरभिपुर में ज्योतिविदको भविष्यवाणी और चक्रवतित्व के लक्षण
श्वेताम्बी नगरीसे चलकर महावीरने सुरभिपुरकी ओर विहार किया। कुछ दूर चलने के अनन्तर मार्ग में गंगा नदी मिली। इसे पार करने के लिए महावीरको नावपर बैठना पड़ा। नाय जब नदीके मध्य में पहुंची, तो भयंकर तूफान आया । नाव भँवरमें पड़कर चक्कर काटने लगी । तुफानकी तेजीको देखकर सभी यात्रियों को ऐसा अनुभव हुआ कि अब प्राण-रक्षा होना कठिन है । अतः '' 'आदि' करने लगे। तीर के एक किनारे बैठे हुए सुमेरुवत् ध्यानस्थ थे । उनके मनमें न किसी प्रकारको आशंका थी और न भयके चिह्न ही । महावीरका साहस अतुलनीय था । तूफान के कारण उठती हुई लहरें शनैः शनैः शान्त होने लगीं। गंगाकी प्रायः समस्त आकुलित जलराशि स्तब्ध हो गयी ।
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एकाएक तूफान के शान्त होनेसे नावमें सवार लोगोंको ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों किसी चमत्कारी व्यक्तिने जादू कर दिया हो । भयंकर तूफानका महना, भँवरोंका उठना, नायका डगमगाना, उनका सहसा शान्त हो जाना और नावका तटपर सकुशल पहुँच जाना आश्चर्य की बात थी । नावमें बेठा जन-समुदाय इसे महावीरका चमत्कार मान रहा था और उनका जयनाद कर रहा था।
महावीर नावसे उतरकर थूणाक-सन्निवेशकी ओर चल दिये । मार्ग में अंकित उनके पदचिह्नोंको देखकर एक सामुद्रिक-देत्ता आश्चर्यमें डूब गया और सोचने लगा कि ये चरणचिह्न तो किसी चक्रवर्तीके ही हो सकते हैं । अतः यह उन पदचिह्नोंका अन्वेषण करता हुआ वहाँ पहुँचा, जहाँ महावीर ध्यानस्थ खड़े थे । उसने सिरसे पैर तक महावीरपर दृष्टि डाली । वह उनके सर्वाङ्गमें चक्रवर्तीके चिह्न देखकर चिन्तामें पड़ गया ! वह सोचने लगा-"इस महापुरुष में चक्रवर्तीके सभी शुभ लक्षण विद्यमान है । शंख, चक्र, गदा आदि चिह्नोंके साथ हाथकी ऊर्ध्व रेखाका उन्नत होना एवं गुरु और भौमके पर्वतों का समतल रूपमें उत्कृष्ट होना चक्रवर्त्तित्वका सूचक है । इस महापुरुष में ऐसा एक भी लक्षण कम नहीं है, जिससे इसे चक्रवर्ती न माना जाय । निमित्तशास्त्रमें धर्मनेता, चक्रवर्ती एवं भाग्यशालियोंके जिन लक्षणोंका वर्णन मिलता है, वे सभी लक्षण इसमें विद्यमान है। क्या कारण है कि यह पुरुष साधु बनकर जंगलोंमें परिभ्रमण कर रहा है ? निमित्तशास्त्र की दृष्टि से यह अत्यन्त विचारणीय है" ।
ज्योतिर्विद अपनी इस शंकाका समाधान प्राप्त करनेके लिए इधर-उधर
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सलाश करने लगा। किसी भद्रपुरुषने बतलाया कि ये अपरिमित लक्षणवाले धर्मचक्रवर्ती तीर्थकर महावीर हैं। इनके राम लक्षणोंसे स्पष्ट है कि ये जनक्रान्तिके नेता, आत्मशोधक और मोक्षमार्गके नेता होंगे। ये नाना प्रकारले उपसर्ग और परीषहोंके विजेता, इन्द्रिय-निग्रही एवं जनकल्याण-कर्ता होंगे। सामान्य-चक्रवर्सीको अपेक्षा इनमें अपरिमित गुणाधिक्य है। यह महावीरका वन्दन-अर्चनकर अपने स्थानको चला गया ।
महावीर थूणाक-सन्निवेशसे विहार करते हुए नालन्दा पधारे। वर्षाकाल प्रारम्भ हो जानेके कारण उन्होंने वहीं चातुर्मास व्यतीत करनेका निश्चय किया। मालया : आत्मशोधन
नालन्दामें एक मासका उपवास स्वीकारकर महावीर ध्यानावस्थित हो गये। उनकी साधना मूक रूपमें चलने लगी। इसी समय वर्षवास व्यतीत करनेके उद्देश्यसे मंखली-पुत्र गोशालक वहाँ आया । इसकी महावीरसे भेंट हुई ।
उपवासकी अवधि समाप्त होनेपर महावीर चके लिए निकले और वहाँक विजय सेठके यहाँ उनका निरन्तराय बाहार हुमा । धानके प्रभावसे नालन्दामें गन्धोदककी वर्षा और पुष्पवृष्टि हुई, सुगन्धित वायु चलने लगी, देवोंने दुन्दुभिवादन किया और 'यह दान आश्चर्यकारी है' की ध्वनि की । नालन्दावासो इन पञ्च आश्चर्योको देखकर महावीरका जयनाद करने लगे । गोशालक भी बहुत प्रभावित हुआ और महावीरको चमत्कारी साघु समझ जनका शिष्यत्व स्वीकार करनेका उसने निश्चय किया। गोशालकका शिष्यत्व ___ जब धर्यासे महावीर लौट आये तो गोशालकने उनसे प्रार्थना की कि आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। महावीरने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और पुनः एक मासके उपवासका नियम ग्रहणकर ध्यानस्थ हो गये । उपवास समाप्तकर पारणाके हेतु नगरमें परिभ्रमण किया तथा आनन्द श्रावकके यहाँ उनकी पारणा हुई । अनन्तर वापस लौटकर उन्होंने पुनः एक मासका उपवास ग्रहण किया। उपवास समाप्त होनेपर वे पारणाके लिए चले और यहाँ सुनन्द श्रावकके घर उनकी पारणा सम्पन्न हुई।
महावीरने चतुर्थमासके आरम्भमें पुनः एकमासका उपवास करनेका संकल्प लिया।
चातुर्मास पूर्ण होते ही महावीरने नालन्दासे विहार किया, वे कोल्लागसन्निवेश पहुँचे । महावीरने जब नालन्दासे विहार किया, उस समय गोशालक
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मिक्षाके लिए गया हुआ था । भिक्षासे वापस लौटनेपर उसे महावीरके विहारका समाचार मिला, अतः वह उनकी तलाश करता हुआ कोल्लाग सन्निवेश पहुँचा । इसके पश्चात् गोशालक छः चातुर्मासों तक उनके साथ रहा। महावीर मौन रूप में साधना करते रहे ।
तृतीयवर्ष -साधना : विकार - शमन
साधनाका लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति है। जीवन मरणके दुःखसे मुक्त होना ही साधनाका केन्द्रबिन्दु है । इस साधना के दो रूप हैं - (१) बाह्य साधना, (२) अन्तरंग साधना । बाह्य साधना में शरीर और इन्द्रियोंको तपाकर साधित किया जाता है । आन्तरिक साधना में मनको साधित कर वायुके समान मनको चंचल गतिको वश कर केन्द्रबिन्दु आत्मापर स्थिर किया जाता है । साधनाका सम्यक् होना आवश्यक है और सम्यक्का अर्थ है साघनाका आत्मभिमुखी होना । जब साधना आत्माभिमुखी हो जाती है, तब स्व-परका भेदज्ञान प्रकट हो जाता है ।
महावीरकी तृतीय वर्ष सम्बन्धी साधना आत्माकी साधना थी, वे आत्मविकासका प्रयास कर रहे थे । वे शुभ रूपमें अपने रागका ऊर्ध्वमुखी विकास करते हुए पूर्ण वीतरागी बनने के हेतु प्रयत्नशील थे ।
महावीर कोल्लाग सन्निवेशसे विहार करते हुए ब्राह्मणगांव पहुंचे। यहाँपर महावीरकी पारणा निरन्तराय सम्पन्न हुई, किंतु गोशालकको भिक्षामें वासी भात मिला, जिसे लेनेसे उसने इनकार कर दिया और भिक्षा देनेवाली स्त्रीकी मर्त्सना करते हुए बोला ---" बासी भात देते हुए तुझे लज्जा नहीं आती । किसी साधुको कैसी भिक्षा देनी चाहिए, यह भी अभी तक ज्ञात नहीं है । साधुकी साधना भोजन के अभाव में चल नहीं सकती है, अतएव साधुको पुष्ट और हितकर अहार देना चाहिए। मैं तुम्हारो अज्ञानतापर पश्चात्ताप कर रहा हूँ और तुम्हें अभिशाप देता हूँ कि आजसे साधुओं को शुद्धाहार देना, अन्यथा तुम्हारा नाश हो जाएगा ।"
इस प्रकार कहकर भिक्षा बिना लिये गोशालक चल दिया। गोशालकने यहाँ रसना - इन्द्रियको जीतने का संकल्प किया 1
ब्राह्मणगांव से चलकर महावीर चम्पानगरी गये और तीसरा चातुर्मास यहीं पर व्यतीत किया । इस वर्षावासमें महावीरने दो-दो मास उपवास किये । कर्मनिर्जराके हेतु अट्ठाइस मूलगुणोंका पालन करते हुए वे आत्म-शोधनमें प्रवृत्त हुए । महावीर के वज्रवृषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थानका सौंदर्य १४४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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द्विगुणित हो गया तथा उनके आध्यात्मिक जीवनको सुगन्ध अनन्तगुणेरूपमें वृद्धिंगत होने लगी । अहिंसा और सत्यकी साधना उत्तरोत्तर निर्मल होने लगी । कषाय-भाव उनकी आत्मासे पृथक् होने लगे। विरोधोके प्रति भो उनके हृदयमें करुणाकी सतत धारा प्रवाहित होने लगी ।
मानवताका श्रृंगार
पथ भ्रमित होती हुई मानव सभ्यताको उन्होंने सजाया और सैवारा । दान, शील, तप और भावरूप चतुविष धर्म की साधना द्वारा मानवताको प्रतिष्ठा की । उनके जीवन में किसी भी प्रकारकी गोपनीयता नहीं थी। उनका जीवन पूर्णतया सरल और समरस था। वे अपनी अपाय सकियोंका सर्वोकृष्ट विकास अपने निजी पुरुषार्थ द्वारा करने में संलग्न थे। फलतः उपवास, ध्यान एवं आत्म-चिन्तनकी प्रक्रिया अहर्निश बढ़ रही थी । महावीरको साधना राग-द्वेषके जीतने में प्रवृत्त थी ।
चतुर्थ वर्ष साधनः क्षमाको आराधना
अनवरत साधना के फलस्वरूप महावोरने क्षमाका पूर्ण अभ्यास कर लिया और उनके कर्म-पाश शिथिल होने लगे । अविचल तपने कर्म श्रृंखलाको जर्जरित कर दिया । दीक्षाके चतुर्थ वर्ष में उन्होंने अपने तपको और अधिक तेज बनाया । एकाग्रताके कारण उनकी समस्त आकुलताएँ शान्त हो चुकी थीं। वे शीत, ग्रीष्म और वर्षामें समानरूपसे तपश्चरण करते हुए आत्मसाधनामें रत थे ।
गोशालक : घटित घटनाओं बोध
तपस्वी महावीर चम्पानगरीसे चलकर ग्राम-ग्राम, नगर-नगर घूमते हुए कालायस - सन्निवेशमें पहुँचे । वहाँ पहुँचकर एक खण्डहरमें ध्यानावस्थित हो उन्होंने रात्रि व्यतीत की। एकान्त स्थान समझ गाँवके मुखियाका व्यभिचारी पुत्र किसी दासीको लेकर वहाँ व्यभिचार करनेकी इच्छासे आया मोर व्यभिचार करके वापस जाने लगा । गोशालक इस दृश्यको देख रहा था । अतः उससे न रहा गया और उसने उस दुराचारिणी स्त्रीका हाथ पकड़ लिया ।
जब मुखियाके पुत्रने देखा कि गोशालक उसकी प्रेमिकाका हाथ पकड़े हुए है, तो उसे गोशालकपर बड़ा क्रोष आया और उसने गोशालकको खूब पिटाई की। महावीर ध्यानावस्थित थे, उनका इस प्रकारकी घटनाओंकी ओर ध्यान न था । गोशालक पिटते समय महावीरकी सहायताको आकांक्षा कर रहा था, पर व्यानी महावीर अपने आत्म-चिन्तनमें विभोर थे । गोशालक मन-ही-मन तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : १४५
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महावीरपर क्रुद्ध हो रहा था और सोचता था कि गुरुका कर्तव्य है कि वह कष्टके समय शिष्यकी रक्षा करे। ये गरु तो मेरा कुछ भी उपकार नहीं करते। न तो भोजन-चर्या में इनसे सहायता मिलती है और न अन्य किसी संकटके समय ही । अतएव इस प्रकारके गुरुका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।
गोशालकका मन महावीरसे बगावत कर रहा था, पर संकोच और लज्जावश उनका साथ छोड़ने में भी असमर्थ था ।
दूसरे दिन महावीरने कालायस-सन्निवेशसे पत्रकालयकी ओर विहार किया । यहाँ पहुँचकर महावीर एकान्त स्थानमें ध्यानारूढ़ हो गये और उन्होंनेसामायिकवत ग्रहण कर लिया। वे सोचने लगे-"जीव और पुद्गल भिन्न भिन्न द्रव्य हैं । अनादिकालसे इनकी विजातीय अवस्थारूप बन्धावस्था हो रहो है। इसीसे यह आत्मा नाना योनियोंमें परिभ्रमण करती हुई परका कर्ता बनकर अनन्त संसारी हो रही है। बन्धावस्थाका जनक आस्रव है। यह आस्रव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप है। पुद्गल-कर्मोके विपाककालमें जो जीवके राग-द्वेष-मोहरूप अशानमय भाव होते हैं, वे ज्ञानावरणादि कर्मों के आने में नियित है। वे शापानमामि गंगास तीतो सब देवमोहरूप अज्ञानमय भावोंके निमित्त हैं। इस तरह पुद्गलफर्म और जीवके राग-द्वेषादि अशुद्ध भावोंमें निमित्त-नैमित्तिकमाव बना चला आ रहा है। अतएव निमितके हटाने में सम्पूर्ण पुरुषार्थ करना है, जिससे नेमित्तकों (राग-द्वेषादि अशुद्ध भावों) की परम्परा समाप्त होकर सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावोंकी ही सदा परम्परा चले । यतः सम्यग्दृष्टिके मासव और बन्ध नहीं हैं, असः ज्ञानी जीवके अज्ञानभावोंकी अनुत्पत्ति है।"
महावीर आत्म-चिन्तनमें संलग्न थे कि पहले दिन कालायस-सनिवेशमें घटित घटनाकी यहाँ भी पुनरावृत्ति हुई। प्रेमिकाका हाथ पकड़नेके कारण गोशालक यहाँपर भी पीटा गया और उसकी बुरी अवस्था की गयो। निन्थता : कल्याणका मार्ग
पत्रकालयसे चलकर महावीरने कुमाराक-सनिवेशकी मोर विहार किया। यहाँपर चम्पक-रमणीय उद्यानमें महावीर ध्यानास्ट हुए और सामायिकमें प्रवृत्त हो गये। इस उद्यानमें कुछ साधुव्हरे हुए थे, जो वस्त्र और पात्रादि रखते थे।
गोशालकने इन साधुओंसे पूछा-"आप किस प्रकारके साधु हैं, जो वस्त्रादि रखते हैं ?"
साघु-"हम निर्गन्थ है ?" १४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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गोशालक-"इतना परिगह रखने पर आप कैसे निर्गन्य माने जा सकते हैं ? मालूम पड़ता है कि अपनी आजीविका चलाने लिए बाप लोगान को रच रखा है। निन्थत्व और परिग्रहत्वका तो शाश्वतिक विरोध है। आप लोग देखिए, सच्चे निर्गन्थ तो हमारे धर्माचार्य हैं, जिनके पास एक भी वस्त्र
और पात्र नहीं है। निर्गन्थ सर्वपरिग्रहके त्यागी होते हैं, इनके पास तिल, तुषमात्र भी परिग्रह नहीं रहता । हमारे गुरु महावीर साक्षात् त्याग-तपस्याकी मूत्ति हैं। इनका आदर्श ही साधुओंके लिए अनुकरणीय हो सकता है।" ___ इस प्रकार सग्रन्थ साधुओंको भत्सना कर गोशालक महावीरके पास आया और सगन्थोंके साथ हई चर्चा-वार्ताका उल्लेख किया । पर महावीर तो आत्म-चिन्तनमें रत थे। उन्हें इन बातोंसे क्या मतलब ? उनके लिए तो आत्म-साधना मुख्य थी और अन्य सब गौण। अतः निराकुल साधनाकी वृद्धि करनेमें महावीर सतत प्रवृत्त रहते थे।
इस प्रकार चतुर्थ-वर्ष कठोर तपश्चरण और आत्मानुसंधानमें व्यतीत हुआ। साधना और प्रमामृत
महावीर कुमाराक-सनिवेशसे चलकर चोराक-सनिवेश गये । इस सनिवेशमें पहरेदार चोरोंके भयसे अत्यन्त सतर्क रहते थे। किसी भी अपरिचित व्यक्तिको इस ग्रामकी सीमामें प्रविष्ट नहीं होने देते थे। जब महावीर इस ग्रामकी सीमामें पहुंचे तो पहरेदारोंने उनका परिचय जानना चाहा, किन्तु महावीर मौन थे, उन्होंने अपना परिचय प्रकट नहीं किया। इसपर आरक्षकोंको सन्देह हुआ और उन्होंने उनको चोरोंका गुप्तचर समझकर पकड़ लिया तथा नाना प्रकारके कष्ट दिये । कष्ट सहन करते हुए भी महावीर अडिग थे। उनके हृदयमें शान्ति और समताका अमृत चू रहा था। ___ आरक्षक महावीरको जितनी अधिक साइना देते, महावीर उतने ही अधिक प्रसन्न दिखलायी पड़ते । समसाभावपूर्वक कष्ट सहन करनेसे कमोंकी प्रकृतियां नष्ट हो रही थीं। इनके मनमें न किसीके प्रति राग था और न द्वेष हो । वीतरागताका अनुभव करते हुए आनन्दित हो रहे थे। ___ अचानक सोमा और जयन्ती नामक परिबालिकाओंको महावीरका परिचय प्रास हुआ। वे दोनों घटनास्थलपर पहुंचीं बोर. आरक्षकोंको समझासी हुई कहने लगी--"देवानुप्रिय ! तुम इन्हें नहीं जानते, ये धर्मचक्रवर्ती सिद्धार्थपुत्र महावीर हैं। अपनी साधनाको सफल करनेके लिए मौनरूपसे विचरण कर रहे हैं । अब कोई इन्हें कष्ट पहुंचाता है, तो ये शमामृतका पान करते हैं।
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ये जितेन्द्रिय और संयमी हैं। वजवृषभनाराष-संहनन होनेके कारण इनकी सहनशक्ति अपार है । इन जैसा त्यागी संन्यासी कोई दूसरा नहीं | आप लोग इन्हें कष्ट देकर पापका बन्ध कर रहे हैं। न ये स्वयं चोर हैं, न घोरोंके मुप्तचर ही हैं। अतः आप इनको छोड़ दीजिये और अपने किये गये अपराधोंके लिये क्षमा याचना कीजिये।" __ आरक्षकोंने महावीरको बन्धन-मुक्त कर दिया और उनके चरणोंमें गिरकर क्षमा याचना की।
वीतरागो महावीरने चोराक-सन्निवेशसे विहार किया और पृष्ठचम्पामें पहुंचे। यहींपर इन्होंने चतुर्य वर्षावास व्यतीत किया । इस चातुर्मासमें महावीरने पूरे चार मासका उपवास रखा और अनेक योगार नों द्वारा तपश्चरण किया। चातुर्मास समाप्त होते ही पारणाके हेतु कयंगलाकी ओर विहार किया। पन्नमवर्ष-साधना : कयंगलामें घटित घटनाएं
तीर्थंकर महावीर निराकुल भावसे क्षुधा-तृषाके परिषह सहन करते हुए आत्मामृतका पान कर तृप्त होते थे । एकाग्रता और ध्यानके कारण उनके रोमरोमसे आत्म-ज्योति प्रस्फुटित हो रही थी। वे कयंगलाके बाहरी उद्यानमें स्थित एक देवालयमें ठहरे। उसके एक भागमें स्थित होकर कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गये। संयोगवश उस देवालयमें रात्रि-जागरण करते हुए कोई धार्मिक उत्सव मनाया जा रहा था। अतः सन्ध्याकालसे ही नगरके स्त्री-पुरुष एकत्र हो गये। गायन-वादन और नृत्यको योजना की गयी। देवालयमें शोरगुल होने लगा और वहाँका शान्त वातावरण अशान्तिमें परिणत हो गया।
गोशालकको देवालयका यह धूम-धड़ाका अच्छा नहीं लगा और वह उनलोगोंकी निन्दा करने लगा। महावीर तो समत्वकी साधना करते हुए आस्मध्यानमें लीन रहे । उन्हें आज समायिक में इतना आनन्द आया कि वे सन-बदनकी सुध भूल गये प्रामवासियोंने गोशालक द्वारा जब अपनी निन्दा सुनी, तो वे क्रोधसे आग बबूला हो गये और उन्होंने उसी समय गोशालकको देवालयसे निकाल बाहर किया । गोशालक रासभर बाहर शीतसे कांपता रहा और ग्रामवासियोंको गालियाँ बकता रहा । वस्तुतः कयंगलामें कुछ पाखण्डी निवास करते थे, जो सपत्नीक और आरम्भ-परिग्रही थे। इन्हीं लोगोंने धार्मिक उत्सवकी योजना की थी। इस उत्सवमें गायक और वादक भी दूर-दूरसे एकत्र हुए थे। गोशालककी अवस्था शीतके कारण बिगड़तो जारही थी और वह बड़बड़ता हुआ शीतजन्य बाधाको सहन कर रहा था। उपस्थित व्यक्तियोंमेंसे किसीको उसपर दया आयो और वह बोला---''यह देवायंका सेवक है । इसे कष्ट पहुंचाना उचित १४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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नहीं । यह सत्य है कि यह क्रोधी है, कियेका पर्याप्त फल मिल चुका है। चाहिये और जोर-जोरसे वाद्य बजाने न पड़े।"
असहिष्णु है और चंचल है । इसे अपने अतएव अब इसे वापस भीतर बुला लेना चाहिये, जिससे इसकी बड़बड़ाहट सुनायी
किसी प्रकार गोशालकको त्राण मिला और उसने रात्रिका अवशेष भाग व्यतीत किया । महावीर तो ध्यानस्थ थे ही; आत्मानन्दकी अनुभूति होने के कारण उन्हें बाह्य परिवेशका बोध न था ।
अग्निकृत उपसगंजय
प्रातःकाल होते ही महावीरने कयंगला से श्रावस्तीकी ओर विहार किया । चर्याका समय होने पर गोशालकने नगरमें प्रवेश करने को कहा । यहाँ चर्याक समय ऐसी घटना घटित हुई, जिससे गोशालकको विश्वास होगया कि - "भवितव्यता दुनिवार है !”
शनैः-शनैः घटनाएं इस प्रकार घटित हो रही थीं, जिससे गोशालकको निय सिवादपर अटूट विश्वास होता जा रहा था ।
श्रावस्ती से तीर्थंकर महावीर हृल्यदुयभ्रामकी ओर चले। वे नगरके बाहर एक वृक्ष के नीचे ध्यान-स्थित होगये। रात्रिमें वहाँ कुछ यात्री ठहरे हुए थे और उन्होंने शोससे बचने के लिये अग्नि जलायी थी । प्रातः काल होनेके पूर्व ही यात्री सो चले गये, पर आग बढ़ती हुई महावीरके पास जा पहुंची, जिससे उनके पैर झुलस गये। महावीरने यह वेदना शान्तिपूर्वक सहन की और आग के बुझ जाने - पर उन्होंने मंगला गाँवकी ओर विहार किया। यहाँ गाँवके बाहर महावीर तो वासुदेवके मन्दिरमें ध्यानस्थ हो गये, पर वहाँ खेलनेवाले लड़कों को गोशालकने डरा-धमका दिया। लड़के गिरते-पढ़ते घरोंकी ओर भागे और उन्होंने अपने अभिभावकोंसे जाकर गोशालककी घटना निवेदित कर दी ।
अविभावक क्रोषाभिभूत हो गये और उन्होंने वहाँ आकर गोशालकको खूब पीटा। महावीर तो ध्यानस्य थे, उन्हें इस घटना की कोई भी जानकारी म थी। पिटता हुआ गोशालक अविभावकोंको तो बुरा-भला कह ही रहा था, पर महावीरको भी कायर और डरपोक समझने लगा । वह महावीरकी सहनशीलताको समझ नहीं पा रहा था। उनकी सिंहवृत्तिका उसे यथार्थ बोध च था ।
नंगलाले विहारकर महावीर आवतंग्राम पहुँचे और वहाँ नगरसे बाहर अने बलदेवके मन्दिरमें रातभर ध्यानस्थ रहे। दूसरे दिन वहाँसे प्रस्थान कर वे
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चोराक-सन्निवेश पहुँचे और वहाँ भी नगरके बाहर उद्यान में सर्व सावद्य का त्याग - कर सामायिक करने लगे। महावीरकी साधना उपवासपर्वके रूपमें चल रही थी, पर गोशालक भिक्षाचयकेि लिये नगरकी ओर चला । नगरवासियोंने उसकी वेश-भूषासे उसे गुप्तचर समझा और उसकी खूब मरम्मत की । सन्देह अन्य उपसर्गं
बराक-सनिवेश से महावीर जय कलम्बुका सन्निवेशकी ओर जारहे थे, तो मार्ग में सीमा रक्षकोंने उनसे पूछा कि तुम लोग कौन हो ? मौन साधक महावीरने तो कुछ भी उत्तर नहीं दिया और गोशालक सोचने लगा कि मैं उत्तर देते ही पीटा जाऊँगा और अब पिटते पिटते मेरी अवस्था बहुत खराब हो रही है, अतएव महावीरकी तरह मौन रहना ही मेरे लिये भी श्रेयष्कर है।
सीमा रक्षकों को उन दोनोंपर सन्देह उत्पन्न हो गया और उन्हें शत्रुका गुप्तचर समझा । फलतः उन दोनोंको पकड़कर वे नगराधिपति के पास ले गये । रहस्य अवगत करनेकी दृष्टिसे सीमा रक्षकोंने उन्हें नानाप्रकारको यातनाएं दीं।
अब महावीर नगराधिपतिके समक्ष पहुंचे, तो उसने महावीरको पहचान लिया और बन्धन मुक्त कर वह बोला - "प्रभो ! क्षमा कीजिये। आपको न पहचानने के कारण ही यह अपराध हुआ है । आप 'स्यागी संयमी श्रमण हैं । जन-कल्याणके लिये ही आपने राजसिंहासनका त्याग किया है। मेरे अहोभाग्य हैं कि में आपका कर कृतार्थं हो रहा हूँ । मेरे सेवकोंने जो आपकी धावमानना की है, उसके लिये भुझे पश्चात्ताप है। प्रभो! आपकी साधना सफल हो ।
अनायवेश-बिहार
अभी प्रचुर कमका क्षय करना अवशिष्ट था । कर्म-निर्जराके हेतु साधनाको और अधिक तीव्रता प्रदान करनी थी । अतएव तपस्वी महावीरने अनार्यदेशोंकी ओर विहार करनेका विचार किया । यतः इन देशोंमें उपसर्ग और परीषह सहन करनेके लिये अनेक अवसर आते हैं । उपादानमें प्रबल शक्तिके रहनेपर भी निमित्त कर्मनिर्जरामें सहायक होता है । महावीर इस तथ्यसे मयगत थे कि शत्रु-मित्रमें समताभाव रखनेकी परीक्षा विपरीत परिस्थितियों में ही सम्भव होती है । विपरीत परिस्थितियोंसे युद्ध करना सामान्य बात नहीं । अतएव विरोधी परिस्थितियोंमें अविचलित बना रहना ही साधना की सफलता १५० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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है । इस प्रकार विचारकर महावीरने लाढ़ देशकी ओर विहार किया । यहाँपर बनाय द्वारा की जानेवाली अवहेलना निन्दा, तर्जना और ताड़ना आदि अनेक उपसर्गोको सहनकर कर्मों की निर्जरा की । इस देशको भूमिमें महावीरको निवास करने योग्य स्थान भी नहीं मिलता था। अतः वे कंकरोली, पथरीली विषम भूमिमें हो ठहरते थे। वहाँ के लोग उनपर कुत्तं छोड़ देते तथा और भी नानाप्रकारसे कष्ट पहुँचाते थे। आहार भी बड़ी कठिनाईसे उपलब्ध होता था । अतएव महावीरको कई दिनों तक लम्बा उपवास रखना पड़ता था । जब वे वहाँसे लौट रहे थे, तो मार्ग में उन्हें दो चोर मिले, जो अनार्य-भूमिमें चोरी करने जा रहे थे । महातीर को उन्होंने अपशकुन समझा और भविष्य में आनेवाली विपत्तियोंका अनुमान किया। अतएव इस अपशकुनको निष्फल करनेके विचारसे उन्होंने महादोरपर आक्रमण किया। महावीर समताभावपूर्वक उपसर्गको सहन करते रहे। उनकी साधनाने चोरोंके आक्रमणको कुण्ठित कर दिया ।
आर्य-प्रदेशमें पहुँचकर महावोर मलयदेशमें बिहार करते रहे और उन्होंने अपना पञ्चम वर्षावास मलयकी राजधानी भद्विलनगरी में सम्पन्न किया । इस चतुर्मास में महावीरने अनशनादि तप करते हुए विविध आसनों द्वारा ध्यान किया । चातुर्मास समाप्त होने पर वे भद्दिलनगरीसे पारणा के हेतु बाहर निकले और कलि-समागम की ओर विहार किया । वस्तुतः महावीरने इस पंचम चातुर्मास में भी चार महीनेका उपवास ग्रहण किया था और अनन्तर नगरीके बाहर उनकी पारणा हुई थी।
वर्ष - साधना उपसर्ग - पर- उपसगं
1:
महावीर कर्यालि या कदली-समागमसे जम्बूखण्ड गये और वहांसे सम्बायसन्निवेशकी ओर प्रस्थान किया । ग्रामके बाहर सामायिक ग्रहणकर महावीर ध्यानस्थ हो गये । यहाँ पार्श्व सन्तानीय नन्दीषेण आचार्य रात्रिमें किसी चौराहेपर ध्यान कर रहे थे । कोट्टपालका पुत्र पहरा देता हुआ उस चौराहे पर पधारा और नन्दिषेणको उसने चोर समझकर भालेसे मार डाला । गोशालकने इस घटनाकी सूचना नगर में दी और वह भ्रमण करता हुआ महावीरके पास लोट आया । गोशालक की चर्चा पाश्र्वापत्य अनगारोंसे भी हुई और उसने मुनि आचारविचारकी रूपरेखा प्रस्तुत की ।
तम्बा सन्निवेश से सीर्थंकर महावीर कूपिय-सन्निवेश गये । यहाँपर आपको गुप्तचर समझकर राजपुरुषोंने पकड़ लिया और उनसे उनका परिचय जानना चाहा । जब महावीरने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और वे मौन रूपमें स्थित रहे,
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तब राजपुरुषोंको उनपर और अधिक आशंका हुई। महावीर जैसे-जैसे अपनी सहनशीलता दिखलाते जाते थे, वैसे-वैसे राजपुरुष उन्हें कष्ट देते जाते थे।
महावीरके बन्दी बनाये जानेकी घटना नगरमें व्याप्त हो गयी | अतः विजया और प्रशल्भा नामक दो परिवाजिकाएं तुरन्त घटना स्थलपर पहुंची। उन्होंने महावीरको पहचानकर राजपुरुषोंसे कहा-"क्या तुम लोग सिद्धार्थराजकुमार अन्तिम तीर्थंकर महावीरको नहीं पहचानते ? महावीरको साधनासे मनुष्योंकी तो बात ही क्या, देव-दानव भी प्रभावित हैं। ये तीर्थकरप्रकृति-धारी निर्गन्ध महावीर हैं। इनकी उम्र तपश्चर्यासे इन्द्रादि भी अत्यन्त प्रभावित हैं। महावीर स्वाबलम्बन, धनी हैं। इन्हें स्वयं अपनेपर विश्वास है । अतएव ये किसी परोक्ष शक्ति की सहायता नहीं चाहते हैं ।"
परिकाजकाओंके इस कपनको सुनकर राज्याधिकारी कांप उठे। उन्हें अपनी अशानजन्य भूलका अनुभव हुआ और वे क्षमा-प्रार्थना करते हुए कहने लगे--"प्रभो! अज्ञान और प्रमादसे हो अपराध होते हैं। हमने आपकी जो अवमानना की है, उसके मूलमें अज्ञान ही है। आप दयामति हैं और क्षमाके धनी हैं । अतएव हम लोगोंके अपराधको क्षमा कर दीजिये।"
महावीरने मौन रहकर उन राजपुरुषोंको क्षमा कर दिया और वे पुन: निद्वन्द्वभावसे विहार करने लगे। __पियसे महावीरने वैशालीकी ओर विहार किया । गोशालक यहाँसे महावीरके साथ नहीं गया और उनसे बोला-"भगवन् ! न तो आप मेरी रक्षा करते हैं और न आपके साथ रहने में मुझे किसी प्रकारका सुख मिलता है। प्रत्युत कष्ट हो भोगने पड़ते हैं और भोजनकी भी चिन्ता बनी रहती है। अतएव अब मैं आपके साथ नहीं चल सगा।' यह कह कर गोशालक राजगहको ओर चला गया। महावीर शान्त और मौनभावसे गोशालकका कथन सुनते रहे। दे वैशाली पहुँचकर एक फम्मारशाला-लोहारके कारखाने में ध्वान-स्थित हो गये । दूसरे दिन कम्मारशालाका स्वामी लोहार वहाँ आया। वह छह महीनेकी लम्बी बीमारीसे उठा था । जब कारखाने में कामपर गया, तो पहले-पहल नग्न दिगम्बर व्यक्तिके दर्शनको अमंगल और अशुभ समाता । अतएव वह हथोड़ा लेकर महावीरको मारने के लिये दौड़ा । इसी समय संयोगवश कोई भद्र पुरुष आ गया और उसने तीर्थंकर महावीरका परिचय उस लोहारको दिया । विमेलक मकाका चिन्तन
वैशालीसे चलकर महावीर ग्रामाफ-सन्निनेशकी ओर आये । यहाँके उद्यानमें विमेलक यक्षका चैत्य था । यक्षके कार्योंका आतंक सर्वत्र व्याप्त था । महा१५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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वीरने यक्षके चैत्यमें सामायिक ग्रहण किया और आत्म-स्थित हो गये। यक्षपर महावीरको शान्त और सौम्य मुद्राका बहुत प्रभाव पड़ा और वह उनकी स्तुति करने लगा। ___ महावीर गामाकसे शालिशीर्ष पधारे और वहाँके उद्यानमें कायोत्सर्ग करने लगे। माघका मास था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी और तीर्थंकर महावीर दिगम्बर-मद्रामें ध्यानस्थ थे । इस समय महावीरके चारों ओर दिव्य कान्तिपुञ्ज अवस्थित था। उनके रोम-रोमसे शान्तिका प्रवाह निकल रहा था । कटपूसनाका उपसर्ग : असंख्यातगुणी कामनिर्जरा
इसी समय वहाँ कटपूतना नामक एक व्यन्तर देवी आयी और तीर्थकर महावीरकी इस शान्त मुद्राको देखकर द्वेषसे जल उठी । क्षणभरमें उसने परिवाजिकाका वेश धारण किया और विखरी हुई जटाओं में पानी भरकर महावोरके ऊपर छिड़कने लगी तथा उनके कंधोंपर चढ़कर प्रचण्ड हवा करने लगी। ___ भयंकर शीतऋतु, जलवर्षा और तीक्ष्ण पवनने इस समय भीषण और असाधारण उपसर्ग उपस्थित किया। महावीर मौन भावसे साधनामें सुमेरुवत् दृढ़ रहे । केटपूतना महावीरकी अपराजिता वीतरागताके सम्मुख नतमस्तक हो गयी | उसने अपना पराजय स्वीकार किया और महावीरकी तपश्चर्याको प्रशंसा करते हुए उनके चरणोंका वन्दन किया।
महावीरका जीवन तपोमय था । वे दुर्लघ्य पर्वत, अन्धकारपूर्ण गुफाओं, निर्जन नदी-तट, बीहड़ वन एवं सूनसान श्मशान भूमिमें आस्म-साधना करने में तत्पर रहते थे। वास्तवमें महावीरका आत्म-परिष्करण अद्भुत था। वे मोह-भंगके हेतु समस्त पदार्थोंसे आसक्ति तोड़ने में संलग्न ये । सार्वभौम समत्त्व ही उनका आधार था। उनके समक्ष सिंह-मग, मयूर-सर्प, मार्जार-मुषक जेसे अन्तविरोधी भी शान्त थे । वीतरागताके प्रभावने उनकी जन्मजात शत्रुप्ताको समाप्त कर दिया था । सर्वत्र प्रेम, शान्ति और सौख्यका साम्राज्य व्याप्त था ।
शालिशीर्षसे महावीरने भहिया नगरोकी ओर विहार किया और वहीं छठा वर्षावास ग्रहण किया । महावीरने चातुर्मासभरका उपवास-व्रत किया और अखण्डरूपसे आत्म-चिन्तनमें निरत रहे ।
गोशालक भी छह महीने तक अकेला भ्रमण करता हुआ शालिशीर्ष में महाबीरसे आ मिला । महावीरने चतुर्मास समाप्त होनेपर भद्दिया नगरीके बाहर पारणा ग्रहण की और यहाँसे उन्होंने मगध-भूमिकी ओर विहार किया ।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १५३
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सप्तमवयं-साधना : आत्म-दर्शन
आत्म-साधक योगीश्वर तीर्थंकर महावीर क्षुधा तृषा, शीत-उष्ण आदि परीषहोंको सहन करते हुए आत्म-दर्शनकी ओर उन्मुख हुए । उन्होंने निश्चय किया कि आत्मा शुद्ध स्वरूपको समझे विना साधककी साधना सफल नहीं हो सकती है। मानव जीवनका सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना है। मुक्ति भय-बन्धनोंसे विमुक्त होने का नाम है। इसके लिये तत्त्वज्ञानकी नितान्त आवश्यकता है । जबतक कर्मका आवरण है, तबतक साधकके जीवन में पूर्ण प्रकाश प्रकट नहीं हो पाता है। अतः भीतर के प्रसुप्त ज्ञान एवं विवेकको जागृत करनेको आवश्यकता है । मोक्ष जीवनको पवित्रताका अन्तिम परिपाकरस और लक्ष्य है। विवेक एवं बैराग्यकी साधना करते हुए कदम-कदमपर साधकके बन्धन टूटते रहते हैं और मोक्षकी प्राप्ति होती है ।
मानव सदा परस्पर के प्रतिशोध और विद्वेषके दावानल में झुलसता रहता है । यही कारण है कि वह आत्म-बोध, आत्म-सत्य अथवा आत्म-ज्ञानको प्राप्त नहीं कर पाता है । जब तक व्यक्ति विश्वको समग्र आत्माओंको समान भावसे नहीं देखता, तब तक उसे आत्म-दर्शन नहीं हो पाता है। यह आत्म-दर्शन कहीं बाहर से आनेवाला नहीं है, यह तो हमारी आत्माका धर्म है, हमारी चेतनाका धर्म है, एवं शाश्वत तत्व है। हमें जो कुछ पादा है, वह कही बाहर नहीं है, वह स्वयं हमारे भीतर स्थित है । आवश्यकता है केवल अपनी आत्म-शक्तिपर विश्वास करनेकी विचार करनेकी और उसे जीवनकी धरतीपर उतारनेकी । आत्म-दर्शन मनुष्यको प्रसुप्त शक्तिको प्रबुद्ध करता है, आत्माका पूर्ण विकास करता है और आत्म-स्वरूपका पूर्ण उद्घाटन करता है। अतएव मुझे अपनी साधना द्वारा आत्म-दर्शन करना है। यों तो मैंने सामायिकका अभ्यास किया है, पर अभी समय आत्म-साधना शेष है। जब तक पूर्ण वीतरागता और निष्कामताकी उपलब्धि नहीं होती, तक तक मेरो साथमा अनवरत रूपसे चलती रहेगी।
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नृपतिद्वारा चरण-वन्दन
महावीर शीत और उष्णाकालमें मगधभूमि में विचरण करते रहे। जब वर्षाकाल निकट आया, तो उन्होंने आलम्मिया नगरीमें सप्तम वर्षावास ग्रहण किया । इस वर्षावासमें भी महावीरने चातुर्मासिक तप और विविध योग क्रियाओंकी साधना की । वर्षावास के समाप्त होनेपर उन्होंने पारणाके हेतु कुण्डाक
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सन्निवेश की ओर विहार किया। इस सन्निवेशमें महावीरने वासुदेव के मन्दिरमें स्थित हो ध्यान लगाया और कुछ दिनों तक साधना कर मद्दना सन्निवेशको ओर विहार किया । यहाँ वं बलदेवके मन्दिर में ध्यानस्थ हो गये । साधुके अठ्ठा ईस मूलगुणों का पूर्णतया पालन करते हुए यहाँसे लोहार्गला नामक राजधानीमें पधारें। यह कि राजा जितशत्रुपर उन दिनों शत्रुलोंकी वक्र दृष्टि थो, असएव राजपुरुष बहुत सावधान रहते थे। कोई भी व्यक्ति अपना परिचय दिये विना राजधानी में प्रवेश नहीं कर सकता था । महावीर और गोशालकके यहाँ पहुँचते ही पहरेदारोंने उन्हें रोक दिया और परिचय मांगा। ये दोनों मौन रहे । फलस्वरूप राजपुरुषोंने इन्हें बन्दी बना लिया ।
जिस समय महावीर और गोशालक राजसभा में लाये गये, उस समय वहाँ अस्थिकग्रामवासी नैमित्तिक उत्पल भी उपस्थित था। महावीरको देखते हो वह खड़ा हो गया और चरण-वन्दन कर बोला- "अरे गुप्तचरों, तुम इन्हें नहीं पहचानते ? ये चौबीसवें तीर्थंकर महावीर हैं। चक्रवर्तीके लक्षणोंसे भी बढ़कर शारीरिक लक्षण इनमें विद्यमान हैं। इन जैसा तेजस्वी, पराक्रमी, आत्म-द्रष्टा अन्य नहीं है । आप लोगोंने इन्हें बन्दी बनाकर महान् अपराध किया है ।
उत्पल द्वारा परिचय प्राप्त करते हो जितशत्रुने महावीर और गोशालकको बन्धन मुक्त कर दिया और चरण-वन्दन करते हुए उनसे क्षमा प्रार्थना की।
अष्टमवयं-साधना : आत्मोदयकी ओर
श्रमण जीवनका मूलोद्देश्य प्राणियोंको श्रेयोमार्ग की ओर प्रवृत्त करना है । यही वह मार्ग है, जिसके द्वारा आत्माको अनन्त एवं यथार्थकी उपलब्धि हो सकती है। आत्मा कमजाल में आबद्ध होनेसे ही चिरकालतक संसारमें परिभ्रमण करती रहती है । यह अपने शुभाशुभ कर्मके परिणामस्वरूप ही नाना योनियोंमें परिभ्रमण करती है । यथार्थज्ञानके अभाव में वह भौतिक सुखको ही सच्चा सुख मानकर उसीमें यथार्थ आनन्दकी मिथ्या अनुभूति करती है । अतएव भौतिक सुखकी नश्वरता सुनिश्चित होनेपर भी व्यक्ति आत्मोदयसे विमुख रहता है ।
ध्यातव्य है कि प्रत्येक आत्मा अनन्त गुणोंका अक्षय बमृतकूप है, जिसका न कमी अन्त हुआ है और न कभी अन्त होगा । विवेकज्योति या आत्मोदय होनेपर आत्मा उस परमात्मा स्वरूप अमृतरसका पान करने लगती है, जिसे
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प्राप्तकर शाश्वत सुख उपलब्ध होता है। आत्मा उस धनकुबेर के पुत्रके समान है, जिसके पास कभी घनकी कमी नहीं होती, चाहे वह अपने उस अक्षय भंडारका दुरुपयोग ही क्यों न करे ।
आत्मोदयका तात्पर्य आत्माके अनन्तगुणोंके विकाससे है। आत्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यं विद्यमान हैं। इन गुणोंकी अभिव्यक्ति ही आत्मोदय है । महावीरने अष्टम वर्ष की साघनामें आत्मोदय प्राप्त करनेके हेतु अगणित उपसर्गं सहन किये तथा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, दंशमशक आदि विभिन्न परीषहोंको समतापूर्वक सहन किया । उन्होंने अपन स्वरूपमें रहकर अक्षय आनन्दका अनुसन्धान किया । आत्माके अतिरिक विश्व के किसी बाह्य पदार्थ में सुखकी परिकल्पना करना भयंकर काम है। सत् और चित् तो प्रत्येक आत्माके पास व्यक्तरूपमें सदा विद्यमान हैं, पर आनन्दगुणकी अभिव्यक्तिको कमी रहती है। अतः जो आत्मोदय प्राप्त कर लेता है, वह सच्चिदानन्द बन जाता है ।
घोर उपसर्गजय
लोहार्गला से महावीरने पुरिमतालपुरकी ओर विहार किया। यहाँ नगरके बाह्य उनमें कुछ समय तक किया। यहां भी महावीरको अनेक प्रकारके उपसर्ग सहन करने पड़े । वग्गुर श्रावकने यहाँ महावीरका सरकार किया तथा विभिन्न प्रकारसे उनकी स्तुति की। महावीर मौनरूपमें अपनी साधना में संलग्न रहे ।
पुरिमतालसे उनाग, गोभूमि होते हुए महावीर राजगृह पधारे और आठवाँ वर्षावास राजगृहमें ही सम्पन्न किया । इस वर्षावासमें उन्होंने चातुर्मासिक तप एवं विविध योगक्रियाओंकी साधना द्वारा आत्मोदय प्राप्त किया ।
महावीर आसन-साधना के साथ आतापना — सूर्यरश्मियोंका ताप लेते, शीतको सहन करते और दिगम्बर रहकर आत्म-साधना करते थे । विभूषा एवं परिकर्म – शरीरकी सभी प्रकारकी साज-सज्जाओंका त्याग करते थे ।
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यथाशक्ति इन्द्रियोंके विषयोंसे बचते; क्रोध, मान, माया और लोभसे बचते; मन, वाणी और शरीरकी प्रवृत्तियों का संयमन करते एवं एकान्त स्थानमें ध्यानस्थ होते थे । मनकी सहज चंचलताको ध्यान द्वारा नियन्त्रित करते थे ।
अष्टम चातुर्मास दिनों में महावीरने चित्तशुद्धिका पूर्ण अभ्यास किया । उन्होंने भ्रमणशील मनको विषयोंसे पृथक कर आत्मस्वरूपपर ही केन्द्रिस
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किया । मन जैसे-जैसे शान्त और निष्कम्प होता गया, त्यों-त्यों स्थिरता बढ़ती गयी ।
जब चातुर्मास समाप्त हुआ तो महावीरकी सावधि योग साधना भी समाप्त हो गयी और पारणाके हेतु उन्होंने राजगृहसे विहार किया ।
नववर्ष -साधना : सामायिक- मित्र
महावीर विहार करते हुए राजगृहसे लाढ़ देशकी ओर गये ओर वहाँस वज्रभूमि, शुद्धभूमि एवं सुम्हभूमि जैसे आदिवासी प्रदेशोंमें पहुँचे। यहाँपर महावीरको ठहरने योग्य स्थान भी नहीं मिला। न यहाँ कोई चैत्य ही ऐसा था, जिसमें रहकर ध्यान कर सकें और न ऐसा कोई शून्य मन्दिर ही था. जिसमें सामायिकको सिद्धि कर सकें । अतएव महावीरने ग्राम और नगरके बाहर उद्यानमें खड़े होकर सामायिक किया |
महावीरकी सामायिक-क्रिया आत्मोपलाब्धिका साधन थी । दुष्टजन महावीरकी हँसी उड़ाते, उनपर धूलि - पत्थर फेंकते, गालियाँ देते, अवमानना करते और शिकारी कुत्ते छोड़ते थे । पर इन समस्त कष्टोंको सहन करते हुए भी वे अपने सामायिक में पूर्णतया तल्लीन रहते। उनके परिणामोंमें शान्ति थी । क्रोधादि कषायों का प्रादुर्भाव नहीं होने देते। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनेको नियन्त्रित रखते थे ।
उपवास -पर- उपवास
चातुर्मास आनेपर महावीरने एक वृक्षके नीचे नवम चतुर्मास ग्रहण किया । चार महीने का उपवास स्वीकार कर सामायिककी सिद्धिके हेतु वे कायोत्सर्ग और ध्यानमें प्रवृत्त हुए। इन्द्रिय और मनकी दीवालोंको मेदकर आत्माके सानिध्य में रहना आरम्भ किया । शरीरकी चंचलता और शरीर के ममत्वका पूर्ण विसर्जन किया । प्रवृत्ति और ममत्व ये दोनों शरीर एवं मनमें तनाव उत्पन्न करते हैं तथा इन्हींके द्वारा अनेक प्रकारको शारीरिक एवं मानसिक व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं । अतएव महावीरने उक्त दोनोंका निरोध किया ।
महावीर इहलोक -भय, परलोक भय, अत्राण-भय, आकस्मिक भय, मृत्युभय आदि सात प्रकार के भयोंसे रहित थे । अतः दुष्टजनोंके उपद्रवका उनके ऊपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता था । वे जितेन्द्रिय और सामायिक संयमी थे ।
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : १५७
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महावीर छ: महीने तक अनार्य भूमिमें भ्रमणकर वर्षाकालके अनंतर आर्यभूमिमें लौट आये। बशमवर्ष-साधना : संघमाराधना
संयमका अर्थ है इन्द्रियों और मनका दमन करना तथा उन्हें आत्म-वशीभत करना और हिंसा-प्रवृत्तिसे बचना। संयम अहिंसारूपी विशाल वृक्षको एक शाखा है। अहिंसा साध्य है और संयम साधन | संयमके अनुष्ठानसे ही अहिसाको साधना सम्भव होती है। संयम दो प्रकारका है-इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम | इन्द्रियों और मनको अपने-अपने विषयोंमें प्रवृत्त करनेसे रोककर आत्मोन्मुख करना इन्द्रिय-संयम है और षटकायके जीवोंको हिंसाका त्याग करना प्राणी-संयम है। वस्तुतः व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्रके जीवन में सुखशन्तिका हेतु संयम ही है और इसीके द्वारा अहिंसाकी प्राप्ति होती है। जीवनमें अहिंसाकी प्रतिष्ठा संयम ही सम्भव है। अझएक महावीरने अपने दसवें वर्षकी साधनामें संयम और समता-प्राप्तिके लिये पूर्ण प्रयास किया।
महावीर और गोशालकने अनार्य भूमिसे निकलकर सिद्धार्थपुर जाते हुए कूर्मग्रामको ओर प्रस्थान किया।
तपस्वरूप : परिष्कार
कर्मनामके बाहर वैश्यायन नामक एक तापस तपस्या कर रहा था। वह घपमें अधोमुख होकर तपस्या में रत था। इस तपस्वीकी जटाएं बहत बड़ी-बड़ी थीं और उनमें सजीव विद्यमान थे। गोशालक वेश्यायनके इस दश्यको देखकर महावीरसे कहने लगा-"प्रभो ! इस प्रकारको तपस्यासे संयमकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? और संयमके अभावमें अहिंसाकी साधना सम्भव नहीं ? अतः इस तपस्याको आत्म-कल्याणकारिणी कहा जायगा ? मुझे तो यह तपस्वी ढोंगी जैसा प्रतीत हो रहा है। इसकी जटाओंसे जूएं गिर रहे हैं । अतः इस तपस्याको केवल शारीरिक कष्ट ही माना जा सकता है । आत्मशुद्धिके लिये तो उपवास, ध्यान, संयम आदिको आवश्यकता है । तपस्याका अर्थ इच्छा-निरोध है । मनुष्यकी इच्छाएं अपार, असीम और अनन्त हैं । अतः इच्छाओंको पूर्ति सम्भव नहीं है। इच्छाप्रतिके लिये असंयमके पाप-पथपर चलना अनिवार्य होता है।" __ "तपोनुष्ठानसे मनुष्य संयमशील बनसा है और संयमशीलतासे अहिंसाकी प्रतिष्ठा होती है। जिस व्यक्ति के अन्तरमें अहिंसा, संयम और तपको त्रिवेणी १५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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प्रवाहित होती है, उसकी आत्मा निर्मल, निष्कलष और निर्विकार हो जाती है। देव भी उसके चरणों में नमस्कार कर अपनेको धन्य मानते हैं।" ____ गोशालक द्वारा इस प्रकार संयमको व्याख्या सुनकर और इसे अपने कपर आक्षेप मानकर वैश्यायनने क्रुद्ध होकर अपनी तेजोलेश्या गोपालकपर छोड़ी। पर तीर्थकर महावीरके अहिंसा-प्रभावसे गोशालककी रक्षा हो गयी और वैश्यायनको तेजोलेश्या व्यथं सिद्ध हुई।
गोशालक महावीरका साथ छोड़कर श्रावस्ती चला गया और वहाँ आजीवक मतको उपासिका कुम्हारिन हालाहलाकी भाण्डशालामें रहकर तेजोलेश्याकी साधना करने लगा। गोशालकने छह महीनोंकी निरन्तर साधनाके पश्चात् तेजःशक्ति प्राप्त की। इतना ही नहीं, उसने निमित्तशास्त्रका भी अध्ययन किया। अब वह सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण आदि सभो बातोंको बतलाने में निपुण हो गया ।।
तेजःशक्ति और निमित्तझान जैसी प्रभावक शक्तियोंने गोशालकका महत्व बढ़ा दिया। उसके भक्त और अनुयायियों की संख्या प्रतिदिन बढ़ने लगी । साधारण भिक्षु गोशालक अब एक आचार्य बन गया और आजीवक-सम्प्रदायका प्रवर्तक कहलाने लगा। बालकोंका उपद्रव और समता
सिद्धार्थपुरसे तपस्वी महावीर वैशाली पधारे। एक दिन वैशाली के बाहर ये कायोत्सर्ग-ध्यानमें स्थित थे। उस समय नगरके बालक खेलते हुए वहां आये और महावीरको पिशाच या भूत समझकर सताने लगे। बालकोने महावीरके ऊपर तुले फेकें, गालियां दी और अनेक प्रकारसे कदर्षनाएं की, पर संयमाराधक महावीर अपनी साधनासे विचलित न हुए । उन्होंने इस उपसर्गको बड़ी समता और शान्तिके साथ सहत किया। बालकोंका उपद्रव प्रतिक्षण बढ़ता जाता था। वे धूल और मिट्टी भी उनके ऊपर फेंक रहे थे। इसी समय राजा सिद्धार्थका मित्र बनराज शंख भी अकस्मात् वहाँ पहुँच गया। उसने बालकोंके उपद्रवको रोका और स्वयं महावीरके चरणों में गिरकर उनसे क्षमायाचना की। कायोत्सर्ग-मुद्रा
वैशालोसे महावीरने वाणिज्य-ग्रामकी ओर प्रस्थान किया और वाणिज्यग्राम पहुँचकर प्रामके बाहर कायोत्सर्ग-मुद्रामें ध्यान आरम्भ किया। संयमकी
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साधनाके कारण महावीरको विभिन्न प्रकारको ऋद्धियां प्राप्त होने लगी, पर वे इन सभी ऋद्धियोंसे अनासक्त थे। उन्हें प्रत्येक उपसर्गको दूर करनेका सामय्ये उपलब्ध था। किन्तु उन्होंने कभी भी अपने सामर्थ्य का प्रयोग नहीं किया । साधक माहावोर संयम और उपवासको सिद्धि द्वारा कर्मोकी निजंना करना चाहते थे । वे अन्य व्यक्तियोंको जीतनेकी अपेक्षा अपनेको जीतना अधिक उपयुक्त मानते थे।
जब वाणिज्यग्रामके निवासी श्रमणोपासक आनन्दको महाबोरके पधारनेका पसा चला, तो उसने आकर उनकी वन्दना की। वहां से विहारकर महावीर श्रावस्ती पधारे और यहींपर उनका दशवा वर्षावास सम्पन्न हुआ। गोशा. लक तो चातुर्मास आरम्भ होनेके पहले हो महाघोरका साथ छोड़कर चला गया था।
इस दशम वर्ष-साधनाकी उपलब्धि संयमकी सिद्धि थी। वे आत्मसिद्धिके लिये निरन्तर प्रयासशील थे। चेतन्यके ऊर्ध्वगमनकी वृत्तिको ही वे धर्मको जननी मानते थे।
एकादशवर्ष-साधना : आत्मानुभूति
जोवन की यात्रामें आत्माकी अमरता हो परबिन्दु है और यही है जीवनका अन्तिम लक्ष्य, क्योंकि इसीको मुक्ति-यात्रा कहा जाता है । आत्माकी अमरताविभावपरिणतिरहित अवस्था वीतराग हुए विना प्राप्त नहीं होती। न तो रागो मुक्त होता है और न विरागी ही। दोनों ही संसारके बन्धनमें जन्धते हैं। वीतरागता रागो और विरागीसे ऊपरको स्थिति है। रागका अर्थ है रंगना या किसी वस्तुमें आसक्त होना । विरागीका अर्थ है-रागकी कुछ न्यूनता। रामी आसक्त होता है, तो विरागी कम आसक्त होता है। उसका पूर्णत: राग छूटता नहीं। किन्तु वीतराग इन दोनोंसे परे है। उसकी आँखों में कोई रंग नहीं है, वह पूर्णतया रंग-मुक्त है । जो वस्तु जैसी है, वीतरागको वैसी हो दिखलायी पड़ती है। वीतरागकी दृष्टि में कोई वस्तु न सुन्दर है और न असुन्दर । यतः वीतरागताकी प्राप्ति अमृतको प्राप्ति है । ___ महावीरने श्रावस्तीमें चातुर्मास समाप्त कर सानुलट्ठीय-सन्निवेशकी ओर बिहार किया । यहाँ इन्होंने भद्र व महाभद्र और सर्वतोभद्रतपस्याओंको करते हुए सोलह उपवारा किये । उपवाराके अन्तमें, इन्होंने आनन्द उपासकके यहां पारणा की और दढ़भूमिको ओर विहार किया। मार्ग में पढ़ाल उद्यानके चैत्यमें जाकर १६. : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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सेला उपनाः सहणकर एक शिन पर मानभित हो गये । महावीरके इस निश्चल और निनिमेष ध्यानको देखकर लोग प्रशंसा करते हुए कहते कि"ध्यान और धैर्यमें तीर्थंकरका कोई समकक्ष नहीं है । वे आत्माके अमृतत्वको प्राप्त करने के लिये अहर्निश ध्यानकी साधना करते हैं। मनुष्य तो क्या, देव भी उन्हें विचलित नहीं कर सकते हैं। उपसर्ग और परीषहोंका ऐसा विजेता इस कालमें अन्य नहीं है।" संगमदेवका परीक्षण और विभिन्न उपसर्ग
संगम नामक देवने विचार किया कि महावीरको ध्यानसे विचलित कर मैं उनकी परीक्षा करूगा । ऐसा कौन व्यक्ति है, जिसे में विचलित न कर सकूँ। मेरे समक्ष किसीका भी धैर्य अटल नहीं रह सकता है। अतः में जाकर महावीरको ध्यानसे च्युत करता हूँ। यह निश्चयकर संगमकने पेढ़ाल उद्यानमें स्थित पोलास चैत्यमें जाकर महावीरको ध्यानसे विचलित करने का उपक्रम किया। उसने विविध प्रकारके कष्टदायक बीस उपसर्ग किये, पर महावीरका हृदय इन उपसर्गोंसे रंचमात्र भी क्षुब्ध नहीं हुआ।
पोलास चैत्यसे चलकर महावीरने बालुकाकी ओर विहार किया। वहाँसे सुभोग, सुच्छेत्ता, मलय और हस्तिशीष आदि ग्रामोंमें विहार करते हुए तोलि पहुंचे। संगमकदेवने इन नामोंमें भी महावीरको विभिन्न प्रकारके कष्ट दिये । मारन-ताड़नजन्य बाधाएं पहुंचायीं, पर महावीर अपनी साधनामें अविचलित रहे।
एक समय महावीर तोसलि गाँवके उद्यानमें ध्यानारूढ़ थे। संगमकदेव साधुरूप धारणकर गाँवमें गया और एक भवनमें सेंध लगानेका कार्य करने लगा। ग्रामवासियोंने उसे चोर समझकर पकड़ा और मारने लगे। संगमक कहने लगा-"मुझे मत मारो। मैं तो निरीह और निरपराधी हूँ। अपने गुरू की आज्ञाका पालन करनेके लिये ही मुझे यह कार्य करना पड़ा है 1 जैसा गुरु कहते हैं, वैसा मैं करता हूँ। गुरुका आदेश चोरी करने के लिये हुबा और मैं यहाँ आकर सेंध लगाने लगा।"
लोगोंने पूछा तुम्हारे गुरु कहाँ हैं ? और क्या करते हैं ? उसने कहा-"वे उद्यानमें ठहरे हुए हैं और नेत्र बन्दकर ध्यान कर रहे हैं।"
ग्रामवासी उसके साथ उद्यानमें गये, तो महावीरको संगमकके बताये हुए नियमानुसार ध्यानस्थ देखा । अज्ञानी नागरिकोंने चोर समझकर महावीरपर आक्रमण किया और बांधकर नगरमें ले जानेकी तैयारी की। उन लोगोंने
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महावीरको विभिन्न प्रकारकी यातनाएं दीं। उन्हें मारा-पीटा और बांधकर नगरमें ले जाने लग। महावीर इन सबको सहन करते हुए भी मौन थे। वे पूर्वोदयका कर्म-विपाक समझकर सब कुछ समतापूर्वक सहन कर रहे थे। इसी समय भूतिलक नामक एक इन्द्रजालिक वहां आया। वह महावीरको पहचानता था। अतः उसने ग्रामवासियों के समक्ष महावीरका परिचय प्रस्तुत किया। जब ग्रामवासियोंको यह ज्ञात हुआ कि ये महाराज सिद्धार्थके पुत्र महावीर हैं, और कैवल्यसिद्धि के लिये ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए तपश्चरण कर रहे हैं, सो वे अपने कृत्योंके लिये लज्जित हुए। ग्रामीणोंने साधु-वेशधारी उस व्यक्तिकी भी तलाश को, जो उन्हें महावीरके पास ले गया था। पर उसका कहीं पता नहीं चला। अन्तमें ग्रामवासी इस निष्कर्षपर पहुंचे कि इस घटनामें कोई रहस्य अवश्य है। मोसलि-नरेश द्वारा चरण-वन्दन
सोसलिसे तीर्थकर महावीर मोसलि पधारे और वहां उद्यानमें ध्यानस्थित, हो गये। यहां भी संगमकने महावीरपर घोर होनेका अभियोग लगवाया जिससे राजपुरुषों द्वारा उन्हें अनेक प्रकारके उपसर्ग दिये गये। राजपुरुष महावीरको पकड़कर मोसलि-नरेशके पास ले गये। राजसभामें राजा सिद्धार्थका मित्र सुमागध नामक राष्ट्रिय बैठा हुआ था। इन्हें देखते ही वह कहने लगा-"राजन् ! यह चोर नहीं हैं । यह तो सिद्धार्थके राजकुमार महावीर हैं। ये अपनी आत्म-शक्तियोंका विकास करनेके लिये तपश्चरण कर रहे हैं। इन जैसा घोरतपस्वी और परीषहजयी अन्य कोई नहीं है। अतः इनपर चोर होनेका सन्देह करना बिल्कुल निराधार है।"
सुमागधके इन वचनोंको सुनकर मोसलि-नरेशको पश्चात्ताप हुआ और उन्हें बन्धन-मुक्त कर उनके चरणों में गिर गया।
संगमक इतनी जल्दी अपना पराजय स्वीकार करनेको तैयार नहीं था। अतः उसने उपसर्ग देनेकी अपनी प्रक्रियाको और अधिक तीव्र बनाया। जब' महावीर तोसलि उद्यानमें ध्यानस्थ थे, उस समय संगमकने इनके पास चोरीके अस्त्र-शस्त्र रख दिये। इन अस्त्र-शस्त्रोंको देखकर लोगोंने इन्हें चोरसमझा और तोसलि-पत्तिके पास इन्हें पकड़कर ले गये। बदभुत चमत्कार : फांसीका फंवा टूटा
सोसलि-पत्तिने महावीरसे कई प्रकारके प्रश्न पूछे, पर महावीर मौन रहे । अब तो उसे और उसकी सलाहकार समितिको यह विश्वास हो गया कि १६२ : तीर्थकर महापीर मोर उनकी आचार्य-परम्परा
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यह अवश्य ही कोई छप्रवेशधारी चोर है। अतएव उसने महावीरको फांसी देनेका आदेश दिया। अधिकारियोंने उन्हें फाँसीके तख्तेपर चढ़ा दिया और तुरस्त गलेमें फाँसीका फंदा लगाया। पर तख्ता हटाते ही फाँसीका फंदा टूट गया । दूसरी बार फांसी लगायी, फिर भी वह टूट गया । इस प्रकार सात बार महावीरके गले में फांसी डाली गयी और सातों ही बार फांसीका फंदा टूटता गया। इस घटनासे कर्मचारी भयभीत और आतंकित हुए । अत: वे सोसलिनरेशके पास इन्हें ले आये और पूर्वोक्त घटनाका स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया । तोसलि-नरेश महावीरके इस प्रभावसे प्रभावित हुआ और क्षमा याचना करते हुए उन्हें मुक्त कर दिया। __संगमदेवने अभी भी पराजय स्वीकार नहीं किया। अतः वह इन्हें उपसर्ग देन लिया और अमित सिधी हसा सोपरिको महावीर सिद्धार्थपुर गये और वहाँ भी संगमकदेवके षड्यन्त्रके कारण इन्हें चोर समझकर पकड़ लिया गया। इसी समय कौशिक नामक एक अश्वव्यापारी वहां आया। वह महावीरको पहचानता था। अतः उसने इनका परिचय देकर इन्हें बन्धनमुक्त किया । सिद्धार्थपुरसे महावीर वृजगाँव (गोकुल) पहुंचे।
वृजग्राममें उस दिन कोई उत्सव था | घर-घर क्षीरान बना था । महावीर भिक्षाचर्याक हेतु वृजगायमें पहुंचे । संगमक वहाँ पहलेसे ही उपस्थित था। वह अहारको अनेषणीय करने लगा। जब महावीरको संगमके षड्यंत्रका पता लगा, तो वे तुरंत ही उस गाँवसे बाहर चले गये। संगमकने महावीरको ध्यानविचलित करनेके लिये अनेकानेक उपसर्ग किये, पर वह उन्हें विचलित न करसका।
संगमकको महावीरपर उपसर्ग करते हुए लगभग छहमास व्यतीत होने जा रहे थे। वह उन्हें ध्यानच्युस करनेके लिये अगणित विघ्न भी कर चुका था, पर वह अपने इस दुष्कृत्य में सफल नहीं हो पाया। संगमदेवका पराजय और चरण वंदन
उसने अवधिज्ञान द्वारा महावीरको मानसिक वृत्तियोंकी भी परीक्षा ली । पर उसने अवगत किया कि महावीरका मनोभाव अधिक सुदढ़ है। वे आत्माके अमरत्यके निकट पहुँच रहे हैं। संयम और शीलकी अहर्निश वृद्धि हो रही है। अतः अपनी पराजय स्वीकार करते हुए महाबीरसे निवेदन किया-"प्रभो ! आपके सम्बन्धमें बो कहा गया था, वह अक्षरशः सत्य है। आप सत्यप्रतिक हैं और उपसर्ग-विजेता है। विश्वमें कोई भी ऐसी शक्ति नहीं है, जो आपको बात्मा
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राधनसे विचलित कर दे। मैं आपना पराजय स्वीकार करता हैं और दिये गये कष्टोंके लिये आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। आप वास्तवमें धन्य हैं। आपका साहस और धैयं अतुलनीय है और आपकी साधना अनुपम है।"
तीर्थकर महावीरके धैर्य से हार मानकर संगमक वहाँसे चला गया। दूसरे दिन महावीरने उसी जगाँवमें भिक्षा-चर्याके लिये प्रवेश किया । पूरे छह महीनोंके बाद इन्होंने एक वृद्धाके यहाँ निर्दोष क्षीरान्नका भोजन ग्रहण किया।
वृजग्रामसे महावीर आलम्भिया आदि प्रसिद्ध नगरियोसे होते हुए श्रावस्ती पहुंचे और वहाँ नगरके उशनमें ध्यानस्थित हो गये। चमत्कारको नमस्कार
इन दिनों श्रावस्ती में स्कन्दका उत्सव चल रहा था । नगरनिवासी उत्सवमें इतने व्यस्त थे कि महावीरकी और किसीने लक्ष्य ही नहीं किया । समस्त गाँवस्कन्दके मन्दिरके पास एकत्र था। यहाँ एक प्रभावक घटना घटी। भक्तजन देवमूर्तिको वस्त्रालंकारोंसे सजाकर रथमें बैठाने जा रहे थे कि मूर्ति स्वयं चलने लगी। भक्तोंके आनंदका पार न रहा । थे समझे कि देव स्वयं रथमें बैठने जा रहे हैं। हर्ष के नारे लगाते हुए सब लोग मूतिके पीछे-पीछे चलने लगे। मूर्ति उद्यान में पहुंची और महावीरके चरणोंमें गिरकर वंदना करने लगी। उपस्थित जनसमुदायने हर्ष-ध्वनि की और महावीरको देवाधिदेव मानकर उनका महुमान किया और महिमा व्यक्त की। निर्विघ्न पारणा सम्पन्न
श्रावस्तीसे विहारकर महावीर कोशाम्बी, वाराणसी, राजगृह, मिथिला आदि नगरों में परिभ्रमण करते हुए वैशाली पधारे और यहीं ग्यारहवाँ वर्षावास सम्पन्न किया। शालीके बाहर काममहावन नामक एक उद्यान था। इसी उद्यानमें महावीर चातुर्मासिक तप ग्रहणकर ठहरे ।
वैशालीका नगरसेठ प्रतिदिन महावीरके चरण-वंदन करने जाता और आहार ग्रहण करनेकी प्रतिदिन प्रार्थना करता । पर महावीर आहारके निमित्त नगरमें नहीं जाते । श्रेष्ठिने सोचा महावीरका मासिक तप होगा और महीना पूरा होने पर आहारके हेतु पधारेंगे । पर महावीर आहारके लिए नहीं उठे।
सेठने द्विमास-क्षपणको कल्पना की और दूसरे मासके गंतमें त्रिमासिक को । महावीर तीसरे महीनकी समाप्तिपर भी भिक्षाचर्याके लिये नहीं निकले। अब १६४ : दीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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उसने अनुमान किया कि महावीरका चातुर्मास क्षपण होगा। अतः चार महीनेके उपवासको समाप्त कर वे भिक्षाचर्या के लिये प्रस्थान करेंगे। वह अपने घर आकर चातुर्मास के अंत में महावीरकी प्रतीक्षा करने लगा । मध्याह्नकाल महावीर चर्याके लिये निकले और पिण्डेषगाके नियमानुसार वैशालीमें भ्रमण करते हुए उन्होंने एक गृहस्थके घरमें प्रवेश किया। गृहस्वामीने, जो कुछ रूखा-सूखा तैयार था, उसीसे महावोरकी पारणा करायी। महावीरने अत्यन्त संतोष और शान्ति के साथ पारणा ग्रहण की। सेठने गुता कि महावीरली पारणा अन्यत्र हो गयी, तो वह अपने भाग्यको दोष देने लगा | महावीरकी पारणा निर्विघ्न सम्पन्न होनेके कारण पञ्चाश्चर्य प्रकट हुए, जिससे वैशाली - निवासी अत्यन्त प्रसन्न थे ।
इस प्रकार तीर्थंकर महावीरने इस एकादश वर्षको साधनामें कर्मों की असंख्यातगुणी निर्जरा की। उन्होंने साधुके अट्ठाईस मूलगुणों, तीन गुप्तियों, पांच समितियों आदिका पूर्णतया निर्वाह करते हुए त्याग, वैराग्य और संयमानुष्ठान किया । महावीरने आत्म संयम और उच्च भावनाओंमें रमण करनेकी पूरी चेष्टा की । आत्म शुद्धिके लिये प्रयत्नशील रहना ही जीवनका प्रधान उद्देश्य था । महावीर की यह साधना आत्मशुद्धिका प्रमुख साधन थी ।
द्वादशवर्ष-साधना : विचित्र अभिग्रह
संवर और कर्म-निर्जराके हेतु महावीर विचित्र अभिग्रह ग्रहण कर चयकि लिये निकलते थे और जब अभिग्रह पूरा नहीं होता, तो वे सन्तोषपूर्वक लौटकर साघनामें संलग्न हो जाते। उनके भीतर दिव्यप्रकाशके उदयका आरम्भ हो चुका था । अतएव वे अपनी समस्त शक्तियोंके विकास हेतु प्रयत्नशील थे । वे हिमालय के समान दृढ़ होकर उपवास आरम्भ करते और अनेक प्रकारके उपसर्ग आनेपर भी वे उनसे विचलित न होते । भय और रोषसे दूर अविचलभावसे यंत्रणाओंको सहन करते रहते थे ।
I
महावीर क्षमाके अवतार थे । दुराचारियों, अत्याचारियों और अधर्मियोंको क्षमा प्रदानकर उन्हें सच्चे पथपर लगाते थे । वे अनार्यों में सद्व्यवहार और सम्यक्त्वके विकास हेतु भ्रमण करते और उन्हें भी सन्मार्ग पर अग्रसर होनेकी प्रेरणा देते थे ।
वैशालीसे महावीरने सूसुमारपुरकी ओर विहार किया। इस नगरके परिसरमें महावीरने अशोकवृक्ष के नीचे कायोत्सर्गं किया । यहाँसे महत्वीर भोगपुर और नन्दिग्राम होते हुए मेंद्रियग्राम पधारे। यहाँ एक गोपने तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १६५
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महावीरको कठिन उपसर्ग दिया और महावीरने बड़ी समताके साथ उस उपसर्गको सहन किया। ___ मैढ़ियग्रामसे महावीर कौशाम्बी पधारे और पौष कृष्णा प्रतिपदाके दिन चर्याविषयक यह अटपटा अभिग्रह किया कि-"मुण्डित सिर, पैरोंमें बेड़ियां पहने हुए, तीन दिनकी भूखी, उबाले हुए उड़दके बाकुले, सूपके कोनेमें लेकर भिक्षक पर वो नुकोपर द्वारकाप खड़ी हुई तथा दासत्वको प्राप्त हुई यदि कोई स्त्री आहार देगी, तो मैं ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं।"
उक्त प्रतिमा कर महावीर प्रतिदिन कौशाम्बीमें चर्याक लिये जाते । घूमतेघूमते चार महीने उन्हें बीत गये, पर अभिग्रह पूरा न हुआ।
एक दिन महावीर कौशाम्बीके अमात्य सुगुप्तके घर चर्याक हेतु पधारे । अमात्य-पत्नी नन्दा भक्तिपूर्वक प्रतिग्रहण करने लगी, पर अभिग्रह पूरा न होनेसे महावीर चल दिये। नन्दा पश्चात्ताप करने लगी। दासियोंने निवेदन किया-"ये देवार्य तो प्रतिदिन यहां आते हैं और कुछ भी लिये विना यहाँस चले जाते हैं।" दासीके इस कथनसे नन्दाने निश्चय किया कि अवश्य ही महावीरका कोई दुर्गम अभिग्रह है, जिसकी पूत्ति न होनेसे आहार ग्रहण नहीं करते।
जब अमात्य घर आया, तो उसने नन्दाको उदासीन देखा। पूछा-"क्या बात है ? मलिन और चित्तितमुख क्यों दिखलाई पड़ती हो?"
नन्दा-"आपका अमात्यपन किस कामका, बब कि चार महीनोंसे योगिराज महावीर आहार ग्रहण नहीं कर रहे हैं। पता नहीं उनका क्या अभिग्रह है? और उसकी पूर्ति क्यों नहीं हो रही है ? यदि आप महावीरके अभिग्रहका पता नहीं लगा सकते, तो आपका चातुर्य किस कामका ?"
आश्वासन देता हुमा सुगप्त बोला-"तुम चिंता मत करो, मैं उनके अभिग्रहकी जानकारी प्राप्त करूंगा, जिससे महावीरकी पारणा हो जाय ।" राजा-रानीको चिन्ता
जिस समय महावीरके अभिग्रहकी चर्चा हो रही है, उस समय वहाँ प्रतिहारी विजया भी उपस्थित थी। उसने सब बातें सुन ली और राजभवनमें जाकर रानी मुगावतीसे निवेदन किया। रानी भी इस घटनासे आकुल हुई
और राजाको उलाहना देती हुई बोली-"आपका इतना समृद्ध राज्य है और इस राज्यमें एक-से-एक बढ़कर मेषाची और प्रतिभाशाली व्यक्ति है । गुप्तचर१६६ : सोषकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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विभाग आपका कार्य करता है। महावीर कई महीनोंसे कोई अभिग्रह लेकर राजधानोमें चर्या के हेतु भ्रमण करते हैं। पर अभिग्रह पूर्ण न होनेसे वे बाहार ग्रहण किये बिना ही लौट जाते हैं ! क्या आपके व्यक्ति उनके अभिनहका पता नहीं लगा सकते? आपने कभी यह सोचा भी नहीं कि महावीर आहार क्यों ग्रहण नहीं करते ? आपके इतने बड़े राज्यकी सार्थकता तभी है, जब आप अभिग्रहकी जानकारी प्राप्त करें। आज नगरमें सर्वत्र यही चर्चा है ।"
राजा शतानीक-"देवि ! चिंता मत करो। मैं शास्त्रज्ञ विद्वानोंको बुलाकर आहार-सम्बन्धी सभी अभिनहोको जानकर नगरमें घोषणा करा दूंगा कि सभी भव्य उक्त अभिग्रहोंको एकत्र करनेका प्रयास करें।
राजाने सभापण्डित तथ्यवादीको बुलाया और कहा-"महाशय ! धर्मशास्त्रोंमें साधुकी चर्याका जो आचार वर्णित है, आप उसे सुनाइये । साधु भोजनके लिए जाते समय किस प्रकारके अभिग्रह ग्रहण कर सकता है, यह भी बतलाइये। आप जानते होंगे कि हमारी नगरीमें महावीर कोई दुर्बोध अभिग्रह लेकर कई महीनोंसे निराहार रह रहे हैं। जबतक उनका अभिग्रह नहीं मिलेगा, वे आहार ग्रहण नहीं करेंगे। अतएव शास्त्रोंमें जितने प्रकारके अभिग्रह वणित हों, नगरमें उन सभीकी व्यवस्था कर दूं।" _ राजाने सुगुप्त महामात्यकी ओर संकेत करते हुए कहा-"मन्त्रिवर ! आप भी अपनी बुद्धिका उपयोग कीजिए और महावीरके अभिग्रहका पता लगाइये।" ___ सभापण्डित--"राजन् ! अभिग्रह अनेक प्रकारके होते हैं, अतः यह कैसे जाना जाय कि किसके मनमें क्या अभिप्राय है? द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव. विषयक अभिग्रह, पिण्डेषणा और पानेषणा-सम्बन्धी विविध नियम शास्त्रोंमें बाये हैं।" __ राजा शतानीकने शास्त्रोंमें उल्लिखित चर्या-सम्बन्धी विधि-विधानकी जान कारी प्रजाको कराई । अनेक प्रकारके अभिग्रहोंकी पूत्तिका भी प्रबन्ध किया गया; पर महावीरका आहार न हो सका। महावीरको निराहार पांच महीने बीत चुके थे और छठा महीना पूरा होनेमें केवल पांच दिन शेष रह गये थे । दोपहरका समय था । सारा कौशाम्बी नगर महावीरके जयघोषसे गूंज रहा था। नगरके एक कोनेसे दूसरे कोने तक विद्युत-तरंगकी भांति यह समाचार व्याप्त हो गया कि महावीर आहारके लिये बा रहे हैं।
महावीर आहारके निमित्त नगरमें धूमने लगे। द्वारद्वारपर लोग उनकी प्रतीक्षा करने लगे । कोशाम्बी-निवासी आश्चर्यपूर्वक यह देखने के लिये उत्सुक
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थे कि आज किसके भाग्य खुलते हैं ? कौन ऐसा पुण्यात्मा है, जो तीर्थकर महावीरको आहार देता है ? इस प्रकार नगरको उत्सुकता देखते ही बनती थी। भाग्योदय हुआ बन्द नाका
चन्दना चेटककी पुत्री रानी त्रिशलाकी छोटी बहन थी। चन्दना और त्रिशलाके बीच में एक और बहन थी मृगा | पर भाग्यका चक्र विचित्र होता है । कर्मोदयसे त्रिशला और मृगावतीको तो राजभवन और पुष्पशेय्या प्राप्त हुई, पर बेचारी चन्दनाको कांटोंकी झाड़ियां ही उपलब्ध हुईं। बड़े दुःख भोगे चन्दनाने । यहाँ तक कि उसे दासी भी बनना पड़ा।
चन्दनाका आरम्भिक जीवन बड़ा ही गर्वित था । वह राजकन्या तो थी ही, पर अपने अद्भुत रूपलावण्यके कारण वैशालीके समस्त उपनगरोंकी शोभा थी । उन्नत ललाट, काञ्चन दिव्य वर्ण एवं कृश शरीर सहजमें हो जनमानसको आकृष्ट कर लेता था । पुरजन, परिजन सभीका विश्वास था कि चन्दनाके समान दिव्य कुमारी देव, नाग, गन्नों में भी नहीं हो सकती।
वसन्तके दिन थे। राजोद्यानमें पुष्प विकसित थे और भौरे उनपर मधुर स्वरमें गुंजन कर रहे थे। चन्दना भी उद्यान में घूम-घूमकर गुनगुना रही थी और भ्रमरोंके स्वर में स्वर मिला रही थी। उसके कोकिल कण्ठसे निकली हुई वाणी सहजमें ही सरस और मधुमय हो जाती थी। उसके स्वरका मिठास अपूर्व था । चन्दनाका अपहरण
हठात् एक विद्याधरकी दृष्टि चादनापर पड़ी। वह आकाशमार्गले विमान द्वारा जा रहा था, पर चन्दनाके अपूर्व स्वर-माधुर्य ने उसे स्तब्ध कर दिया । चन्दना उसके मनःप्राणमें समा गयी। वह नीचे उतरा और चन्दनाको लेकर फिर आकाश-मार्गसे उड़ चला। चन्दनाने शक्तिभर विरोध किया, पर विद्या. धरपर इसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा ।
चन्दना रोयी-चिल्लायी। नाखनोंसे अपने शरीरको क्षत-विक्षत किया, पर विद्याधरने उसे न छोड़ा। विद्याधर चन्दनाके शोलको नष्ट करना चाहता था और चन्दना सभी प्रकारसे अपने शीलको रक्षा करने में तत्पर थी। संयोगकी बात कि विद्याधरकी धर्मपत्नी कहींसे घूमते हुए वहीं आ पहुँची। विद्याधर अब क्या करता ? पत्नीसे भयभीत होकर उसने चन्दनाको भयानक बनमें छोड़ दिया।
निरीह चंदना उस भयानक वनमें इधर-उधर घूमने लगी। चारों ओर हिंसक पशु और अकेली चन्दना । भूख और प्याससे उसकी आंतें सूखी जा रही थीं, पर १६८ : तीकर महावीर और उनकी बाचार्य-पराम्परा
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वह करे तो क्या करे ? घूमते हुए उसकी भेंट एक भिल्लसे हुई । भिल्ल चन्दनाको देखकर विस्मित हो उठा। ऐसा रूप-लावण्य तो उसने अपने जीवन में कहीं देखा ही नहीं था । वह सोचने लगा-यह अवश्य कोई देवी या अप्सरा है, मानवी तो हो नहीं सकती। मनुष्योंमें इतना सौंदर्य कहाँसे आ सकता है ? अतएव वह चन्दनाको अपने सरदारके पास ले गया । भिल्लसरदारके घेरेमें चन्चना
चन्दनाको देखते ही भिल्ल-सरदारके मनमें वासनाका विष समाविष्ट हो गया। वह उसे अपनी पत्नी बनानेके लिये चेश करने लगा। पर चन्दना उसकी शर्त स्वीकार करनेको तैयार नहीं थी। वह तो एक शीलवतो और सदाचारिणी नारी थी। भिल्ल-सरदार भी उसे यों ही छोड़नेवाला नहीं था। वह उसे डराने-धमकाने लगा तथा भांति-भांतिकी यंत्रणाएं देने लगा। फिर भी चंदना उसके वशमें न आयो । वह अपने पवित्र विचारोंपर दृढ़ रही। ___ जब भिल्ल-सरदारने यह अनुभव किया कि मेरे अत्याचारोंसे यह अनिन्यसुन्दरी अपने प्राण छोड़ देगो, पर मेरी इच्छा पूर्तिका साधन न बनेगी, तो वह सोचने लगा कि अच्छा हो कि इसे बेचकर कुछ रुपये प्राप्त करूं।
उन दिनों दास-प्रथाका प्रचलन था । स्त्री-पुरुष दास-दासियोंके रूपमें उसी प्रकार बेचे जाते थे, जिस प्रकार बाजारोंमें पशु बेचे जाते हैं । अतः वह भिल्ल' सरदार चन्दनाको लेकर कौशाम्बी नगरीमें पहुंचा और चौराहेपर खड़ा होकर उसकी बोली लगाने लगा। मापनाको विको
भिल्ल-सरदार बोली लगाकर चन्दनाका मूल्य बढ़ाता चला जारहा था कि दूसरी ओरसे वहाँ वृषभदत्त नगरसेठ उपस्थित हुआ । चन्दनाको देखते ही उसके हृदयमें निश्छल वात्सल्यका उदय हो गया और उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि चन्दना उसकी कभीकी पुत्री है । अतः उसने सर्वाधिक मूल्य चुकाकर चन्दनाको खरीद लिया और धर्मपुत्रीके समान उसका पालन-पोषण करने लगा।
यद्यपि नगरसेठका हृदय पवित्र था। वह चन्दनाको अपनी धर्मपुत्री समशता था | पर नगरसेठकी पत्नी चन्दनाके रूप-लावण्यसे आशंकित थी। उसके मनमें संदेह था कि सेठ चन्दनाफो अपनी धर्मपत्नी बना लेगा और उसको अवमानना करेगा । चन्दनाका रूप-सौंदर्य यहांपर भी उसके जीवनका अभिशाप बना। नगरसेठकी पत्नी चन्दनाके साथ दासी जैसा कटु व्यवहार करने लगी।
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वह अपने तीखे बाक्वाणों द्वारा उसके हृदयको छेदती तथा अनेक प्रकारको जली-केटी सुनाती। चन्दना करती तो क्या करती ? वह अशुभ कर्मोदयका विपाक समझकर सब कुछ सहन करती हुई नगरसेठके घर पड़ी रहती।
दिन बीतते गये और चन्दना बड़ी होतो गयी। युवावस्थाके पदार्पणने उसके शारीरिक सौंदर्यको कई गुना बढ़ा दिया। सेठकी पत्नी सुभद्राका संदेह दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था । संदेहका भूत
एक दिनकी बात है कि नगरसेठ वृषभदत्त मध्याह्न कालमें तेज धूपमें से लौटाथा । चन्दना उसके पैर धुला रही थो। उस समय उसके बाल विखरकर नोचेकी ओर जमीनको छूने लगे और मुहेपर छा गये। वृषभदत्तने सहज ममतावश अपने हाथसे उन बालोंको ऊपर कर दिया। जब सुभद्राने इस दृश्यको देखा तो उसका मन आशंकाओंसे भरने लगा। उसे यह निश्चय हो गया कि नगरसेठ वृषभदत्त चन्दनासे प्रेम करता है। अतएव वह चन्दनाको अपने धरसे निकालने और उसे विद्रप करनेका अवसर बढ़ने लगी | सेठके रहते हए उसके भयसे सुभद्रा कुछ नहीं कर पाती थी। ___ अन्तमें एक दिन सुभद्राको ऐसा अवसर मिल गया। सेठ वृषभदत्त बाहर गया हुआ था । उसने नाईको बुलाकर सर्वप्रथम चन्दनाको केशराशिको उसके सिरसे उत्तरवा दिया । के केश चन्दनाके सौंदर्यको अभिवृद्धिमें बहुत बड़े कारण थे। इसपर भी उसे संतोष न हुआ, तो चन्दनाके पैरोंमें बेड़ी डलवाकर उसे तलघरमें बन्द करवा दिया । चन्दनाको बड़ी ही दुर्गति थी। वह एकप्रकारसे जीवन-मृत्युकी घड़ियाँ गिन रही थी।
वृषभदत्त बाहरसे लोटा । चन्दनाको न देखकर उसके मनमें विभिन्न प्रकारको आशंकाएं उत्पन्न होने लगीं। उसने दास-दासियोंसे चन्दनाके विषयमें पूछा, पर किसीका भी साहस न हुआ कि सेठको वास्तविक स्थितिका गरिज्ञान कराये । बहुत तलाश करनेके उपरान्त वृषभदत्तकी एक दासीने डरते-डरते पूरी बात बतलायी। वह शीघ्र ही तलघरमें पहुंचा और चन्दनाकी उक्त स्थिति देखकर रो पड़ा । उसकी ममताके बादल बरसने लगे । वह शीघ्र ही चन्दनाको वहसि निकालकर बन्धनमुक्त करना चाहता था । अतएव बेड़ियां काटने के लिये वह लोहारको बुलाने चला गया । खुल गये बन्धन, मिला रस्नमय उपहार
संयोगकी बात कि महावीर छह महीनेतक निराहार रहकर अहारके हेतु नगरमें दुर्गम अभिग्रह लिये धूम रहे थे । चन्दना बेड़ियोंमें पड़ी हुई थी। तल१७० : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य-परम्परा
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घरका द्वार खुला हुआ था। तभी महावीर उस ओरसे निकले। सुभद्राने बन्दनाको फोज लिये को कुछ हार न मासे लिये कह बैठी थी ।
महावीरके निकट आते ही उसकी बेड़ियाँ टूट गयीं और उनके अभिग्रहके अनुसार द्वारके मध्य में स्थित होकर सूपमें रखे बाकुलोंसे उनको पड़गाहने लगी | महावीर चन्दनाकी ओर बढ़ आये। उन्होंने आहार स्वीकार कर लिया । राजा शतानीक, सुगुप्त मंत्री, वृषभदत्त और सेठकी पत्नी सुभद्रा आदि सभी चन्दनाके भाग्य की प्रशंसा कर रहे थे । नर-नारियोंके झुण्ड के झुण्ड चन्दन के दर्शन के लिये दौड़ पड़े और उसके चरणोंकी धूलि अपने मस्तकपर लगाने लगे। राजमार्ग ठसाठस भरा था और चारों ओर जय-जयकारकी तुमुलध्वनि हो रही थी ।
वन्दनाको वन्दना
आज चन्दना के साथ कोदोंके भी भाग्य खुल गये और कौशाम्बी कृतार्थं हो गयी । उसके जन्म-जन्मके पातक शिथिल पड़ गये । चन्दनाको आत्मशक्तिका बोध हुआ । उसकी आत्माके बन्धन क्षीण हो गये और शीलका उपहार मिल गया। यह दृश्य इतना अलौकिक और अद्भुत था कि चन्दन की प्रशंसा हर व्यक्तिको जिह्वापर विराजमान थी। भारतीय नारीत्व अमर हो गया था मोर चन्दन के सतीत्वका उदाहरण आदर्श रूप में उपस्थित था ।
दशों दिशाओंके द्वार खुल चुके थे और घन्दनाकी आरती के लिये दिग्दिगन्त तैयार था | भारतीय नारीत्वको एक उज्ज्वल ऊँचाई प्राप्त हुई थी । चन्दना की बेड़ियाँ बशीर्वाद बन चुकी थीं ।
चन्दनाका मिलन
कौशाम्बीकी राजमहिषी मृगावतीको जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तो वह भी चन्दना दर्शनार्थं द्वारपर जा पहुंची। उसे क्या पता था कि चन्दना कोई और नहीं, उसकी ही छोटी बहन है। जब उसने चन्दनाको देखा, तो उसकी आँखो में शोक और हर्ष के आँसू छलक आये । शोकके आंसू इसलिये गिरे कि चन्दनाको राजपुत्री होनेपर भी दासीका जीवन व्यतीत करना पड़ा और हर्षा इसलिये प्रादुर्भूत हुए कि उसकी बहन चन्दनाके हाथोंसे महावीरने आहार ग्रहण किया । उसने उपस्थित जन समुदाय के समक्ष चन्दनाका परिचय प्रस्तुत किया और राजभवन में चलनेके लिये अनुरोध किया !
वृषभदत्तकी पत्नी सुभद्रा चन्दना के पैरोंपर गिर गयी । उसकी आँखें सजल हो गयीं और मुखपर पश्चात्तापका गहरा भाव उत्पन्न हो गया। वह कह रही थी- "बहन मुझे क्षमा करो | मैंने तुम्हारे साथ घोर अन्याय किया है । मेरे
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पापी मनने तुम्हें भी पापरूपमें ही कल्पित किया है। मुझे अपने कृत्यपर धोर पश्चात्ताप है ।"
चन्दना - "देवी ! तुम बड़ी हो। तुम्हारे चरण भुझे छूने चाहिये । तुमने मेरा महान् उपकार किया है। यदि तुम्हारा यह व्यवहार न हुआ होता, तो महावीरका अभिग्रह मिल ही नहीं पाता । तुम्हारे तलघरने मेरा भाग्योदय किया है । अतएव मेरी कृतज्ञता स्वीकार कीजिये ।"
रानी मृगावतीने चन्दनाको राजभवनमें चलनेका पुनः आग्रह किया और उसे अपनी बड़ी बहनका आग्रह स्वीकार करना पड़ा। कालान्तर में महाराज चेटकको चन्दनाको प्राधिका समाचार भेजा गया और वे चन्दनाको अपने घर लिवा ले गये ।
कौशाम्बीसे बिहारकर महावोर सुमङ्गल, सुच्छेत्ता और पालक आदि गाँवों में विचरण करते हुए चम्पापुरी पहुंचे और यहींपर वर्षावास समाप्त किया । वर्षावासके दिनों में महावीरने चार महोनेका उपवास ग्रहण किया । इस वर्षांवास में उन्होंने स्वातिदत्तको प्रबोधित किया । तीर्थंकर महावीर नानाप्रकारसे मीन साधना करते हुए ग्रामानुग्राम विचरण कर रहे थे । वे चम्पासे विहारकर जम्भय गाँव पहुँचे ।
अन्य उपसर्ग व्याक्ष्म-ता
स्वर्ण तपाये जानेपर ही कुंदन बनता है । व्यक्ति की साधना भी उपसर्ग और परीषहोंके सहन करनेपर ही सफल होती है। जिस प्रकार अञ्जलिका जल शनै: शनै: हाथसे चू जाता है उसी प्रकार उपसर्ग सहनेसे कर्मका कालुष्य समाप्त हो जाता है। अविच्छिन्न तपस्या ही कर्म-निर्जराको सम्पादित करती है । तपश्चर्याकी छेनी से कर्मकी निविड़ श्रृंखलाएं कट रही थीं और धीरे-धीरे वीतरागता उभर रही थी । एक अदम्य परम ज्योतिका उदय निकट था और केवलज्ञानका उषाकाल उपस्थित था । आत्माके आवरण शिथिल हो रहे थे और निर्मलताका तेज बढ़ता जा रहा था ।
महावीरको उपसर्ग - विजय साधारण नहीं थी, उन्होंने बड़े-से-बड़े उपसर्गोको समता और शांतिसे सहन किया। उनकी दृष्टिमें कोई शत्रु मित्र नहीं थे । सभी कल्याणमित्र थे । दुस्सह साधना के तेजसे हिंसा, घृणा, भय और आतंक निष्प्रभ हो गये थे ।
वसंतके दिन थे । चारों ओर वन वाटिकाएँ पुष्पोंसे आच्छादित थीं । पक्षी सुमधुर स्वरोंमें कलकल निनाद कर रहे थे। तीर्थंकर महावीर एक पुष्पित
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उद्यानके मार्ग से गमन कर रहे थे। प्रकृतिका रम्य वातावरण पशु-पक्षी, मानव और देव सभीको आह्लादित कर रहा था ।
अप्सराओं द्वारा प्रस्तुत मोहक राग-भोग
स्वर्गकी देवांगनाओंके मन में संदेह उत्पन्न हुआ कि महावीर काम-विजयी और इन्द्रिय-जयी हो सकते हैं ? वे महावीरकी स्वर्ण कांतिमय देहको देखकर सोचने लगीं, हो नहीं सकता कि ऐसे स्वस्थ सुन्दर पुरुष के मनमें काम विकार उत्पन्न न हो। देवांगनाएं महावीरके संयम की परीक्षाएं लेनेके हेतु उद्यत हो उठीं ।
बसंतश्रीका मादक सौरभ सभीके मनको काम वासना से दोशिल बना रहा था । देवांगनाएं ऐसे ही मधुमय वातावरणमें महावीरके समक्ष उपस्थित हुई । वे एक-से-एक सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत थीं। सबकी सब प्रकट होकर नृत्य करने लगीं, गाने लगीं, कामुक हाव-भाव प्रदर्शित करने लगीं और अपने कटाक्षों द्वारा अपने भावोंको प्रकट करने लगीं । अश्लीलतापूर्ण उनके वचन और विकारीभाव बड़े-बड़े संन्यासियोंको विचलित कर सकते थे, पर महावीरपर उनका रंचमात्र भी प्रभाव न पड़ा। प्रभावकी तो बात ही क्या, महावीर ने उनकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देखा । आखिर वे हारकर तीर्थंकर महावीर से अपने अपराधोंके लिये क्षमा-याचना करने लगीं ।
महावीरकी यशोगाथा चारों ओर फैल गयी और काम-विजयी के रूप में वे सर्वत्र समादृत होने लगे । महावीरने इन्द्रियोंके विकारोंको जीत लिया था । वे स्वकी उपलब्धि और स्वनिष्ठ आनन्दकी खीजमें सलग्न थे । संसारका बड़े-सेबड़ा प्रलोभन उनके लिये तुच्छ या संसारकी भोग-वासना और दुर्गंधभरी गलियोंसे भटकना उन्हें स्वीकार नहीं था । वे सोचते – “विकृतियोंके कीड़ोंसे कुलबुलाता जीवन भो क्या जीवन है ? जीवनकी निर्विकार पवित्रता एवं अनन्त सत्यकी उपलब्धि ही जीवनका महान् उद्देश्य है । वे परम सत्य और परम आनन्दको प्राप्त करनेके लिये प्रयत्नशील थे ।
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स्वयं बुद्ध महावोरकी साधना जड़ नहीं, सचेतन थी और सचेतन साधना गतिहीन नहीं होती। साधनाकी सचेतनता ज्ञानपर अवलम्बित है । वे श्रमणसाधना में संलग्न थे । उनके कदम सूनी और अनजानी राहोंपर दृढ़ता से बढ़ रहे थे ! उन्होंने न तो कभी किसीको डराया और न स्वयं कभी भयभीत हुए । उनके ध्यानयोगकी साधना आत्मानन्दकी साधना थी। भयसे परे, प्रलोभनसे परे, द्वेषसे परे, शरीर में रहकर भी शरीरसे अलग, शरीरकी अनुभूतिसे पृथक,
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जीवनको आशा और मरण के भय से वे विप्रमुक्त थे । कायोत्सर्गका अर्थ उनकी दृष्टिमें देहभावकी विस्मृति, देह में विदेहभाव, शरीर से सम्बन्धित मोह-ममत्व
का त्याग या ।
निश्चयतः महावीरका साधनाकाल बड़ा विकट था । उस युगका जनमानस बड़ा ही संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण था । विश्वहितकी दिशा में सर्वस्व त्यागकर निकले हुए साधकको इतना उत्पीड़न, ऐसी भयंकर बाधाएं एवं ऐसी निर्दयतापूर्ण यातनाएं दी जा सकती हैं, यह महाबोरके जीवनसे स्पष्ट है । महावीरके उपसर्गों की कथा जानकर सहृदय श्रोताका तन-मन कांप उठता है, मन सिहर जाता है, पर महावीर ऐसे थे, जैसे एक प्रशांत महासागर, जिसमें कभी तूफान नहीं उठता । मैत्रीभावनाका ऐसा सर्वोच्च आदर्श, जिसे फूल और कांटोंसे समान प्यार हो । सतानेवालेके प्रति भी एक सहज करुणा, कल्याणकी कामना और उनके उत्थानको भावना निहित थी। हम प्रायः देखते हैं कि मनुष्य अनादि कालसे दूसरोंकी शिकायत करता चला भा रहा है । महावीर को अपने सतानेवालोंसे भी कोई शिकायत नहीं थी । उनका चिन्तन था - " जो पा रहा हूँ, वह अपना ही किया पा रहा हूँ। जो भोग रहा हूँ, अपना ही किया भोग रहा हूँ। दूसरोंका कोई दोष नहीं, दोष तो मेरा है ।"
" अन्य व्यक्ति किसीके सुख-दुःख में निमित तो हो सकते हैं, कर्त्ता नहीं । कर्त्ता मनुष्य स्वयं ही होता है। जो कर्ता है, वही भोक्ता भी होगा । कर्ता कोई हो और भोक्ता कोई हो, यह कैसे सम्भव होगा। जो कृत है, उसे भोगे विना बन्धनमुक्ति नहीं ।"
इस प्रकारका चिन्तन भी महावीरको प्रारम्भिक भूमिकामोंमें हो रहा | मागे चलकर तो वे इन समस्त विकल्पोंसे रहित हो गये। मेरे और तेरेका कोई विकल्प नहीं । करने और भोगने का भी कोई विचार नहीं । अन्तलीनताके क्षणोंमें किया गया ध्यान-योग निर्वास कक्षमें प्रज्वलित दीप शिखाके समान स्थित हो जाता है। उस समय न अशुभकी लहर उठती है और न शुभकी । यह तो शुद्धोपयोगको स्थिति होती है। आत्मा विकल्पसे अविकल्पकी ओर और चिन्तनकी ओर भाती है । इस शुद्धस्थितिको प्राप्त करना हो तो साधकका लक्ष्य है।
भवरा द्वारा प्रदत्त उपसगवर विजय
उज्जयनीके चातुर्मासकी कथा तीर्थंकर महावीरके अनुपम शौर्य और वीरत्वका चित्र उपस्थित करतो है । इस प्रकारके उपसगं बड़े-बड़े साहसियों के भी
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साहसको तोड़ देते हैं। महावीर जैसे असाधारण साहसी ही इस प्रकारके उपसर्गों में सफल हो पाते हैं ।
महावीर जिन दिनों में साधना कर रहे थे, उन दिनों उज्जयिनी में बलिप्रथाका बड़ा जोर था | देवताओंकी पूजा में प्राय: पशुओंकी बलि दी जाती थी । महावीरने यह वर्षावास श्मशानमें ग्रहण किया था। इस श्मशान में भव नामक रुद्र निवास करता था । वह महावीरको देखते ही कोपसे जल उठा । यतः वह महावीर के अहिंसक विचारोंसे परिचित था । वह नहीं चाहता था कि वे अपना वर्षावास उज्जयिनी में करें। उसे भय था कि महावीरकी अहिंसा-साधना के प्रभाव से यहाँकी बलि प्रथा बन्द हो जायगी । अतएव उज्जयिनीसे महावीरको हटानेके लिये अगणित अत्याचार और उपसर्ग किये। वह चारों ओर से अग्नि जलाकर महावीरको यन्त्रणा देने लगा । कभी वह धूलि -मिट्टीकी वर्षा करता, कभी कंकड़-पत्थर गिराता और मूसलाधार जलवर्षा कर महावीरको भिगो देता और तीक्ष्ण तुफान चलाकर उनकी हड्डियों तक को शीत से जकड़ देता ।
भयावती और महावीरको डराता, धमकता । कमी सर्प बनकर उन्हें इंसता, तो कभी सिंह बनकर उन्हें खा जाना चाहता । इसप्रकार उस रुद्रने तीर्थंकर महावीरपर विभिन्न प्रकारके हिंसक उपसर्ग किये। पर महावीर हिमालयकी चट्टान के समान दृढ़ बने रहे और इन उपसर्गों से तनिक भी विचलित न हुए । उनके समत्वयोगकी साधना बढ़ती जा रही घी । विष अमृत बन रहा था। राग और द्वेष चूर-चूर होकर वीतरागतायें परिणत हो रहे थे । उन्हें अपनी सहायताके लिये किसी अन्यकी आवश्यकता नहीं थी । जब रुद्र थक गया और महावीरका कुछ न बिगाड़ सका, तो वह उनकी असाधारण वीरताकी प्रशंसा करता हुआ कह उठा कि ये तो महान् महावीर या अतिवीर हैं। इन्हें साधना - मार्ग से कोई भी विचलित नहीं कर सकता । इन्होंने अपने शरीरको संयमकी अग्नि में तपाया है ।
סי
साढ़े बारह वर्षोंके साधनाकाल के अधिकांश भागको निराहार रहकर व्यतीत किया । बारह वर्ष, छहमास और पन्द्रह् दिनके अपने साधना - कालमें महावीरने केवल ३५० दिन हो आहार ग्रहण किया ।
महावीरके तपश्चरणका विवरण निम्न प्रकार हैछहमासी अनशन तप
१ पक्षोपवास
७२
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पाँचदिन कम छह्मासी तप चातुर्मासिक त्रैमासिक
१ भद्रप्रतिमा दो दिनपर उपवास ९ महाभद्रप्रतिमा चार दिनपर उपवास १ २ सर्वतोभद्रप्रतिमा दस दिनपर उपवास १
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J2
"
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अढ़ाई मासिक
२ षष्ठोपवास (वेला) दोमासी
६ अष्टमभक (तेला) डेढ़मासी , २ पारणाके दिन
३४९ एकमासी
" १२ दीक्षाका दिन स्पष्ट है कि महावीर उपसर्ग और परीषहकी घड़ियोंमें भी अनाकुल रहते, विचलित नहीं होते थे ! वे उग्रतपस्वी, घोरतपस्वी या दो,तपस्वी थे । उनका तप विवेककी सीमा आबद्ध था । वे सहज तपस्वी थे । वे क्षमाके क्षीरसागर थे । अवज्ञा और अवमानना सहन करनेका उन्हें अभ्यास था। लोग उनपर धूल फेंकते, पत्थर मारते, उन्हें नोच डालने के लिये शिकारी कुत्ते भी छोड़ते, पर महावीर शान्त रहते । किसीको कुछ भी नहीं कहते । उदण्ड विरोधियोंके प्रति भी सौहार्द एवं सौजन्यपूर्ण मधुरभाव विद्यमान था। वाणीमें तो क्या, मनमें भी कटुता नहीं होती थी। जिस प्रकार विलियां या उल्काएँ सागरमें गिरकर स्वयं शान्त हो जाती, सागमा पुल नहीं निगामनी साकार महानोरको कपर किये गये उपसर्ग स्वयं ही शान्त हो जाते और उनमें किसी भी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं कर पाते । महावीर अपनी तपःसाधनामें अडिग थे। उन्होंने आत्मनिष्ठा और ज्ञान-ध्यानके अभ्यास द्वारा समताभावको जागृति कर ली थी । ऐहिक सुख-दुःख, आकुलत्ता और व्याकुलता एवं मोह-ममता सभी उनसे दूर थे। महावीरने आसयका निरोधकर संवर और निर्जराको सक्रिय बनाया था। उनकी आत्माकी अनन्त तेजस्विता ज्ञानके उदयाचलकी ओर मांक रही थी। कैवल्योपलब्धि
वैशाखशुक्ला दशमो, २३ अप्रिल ई० पू० ५५७ का शुभ दिन मानवताके इतिहासमें अमर है । इस शुभ तिथिमें महावीर ऋजुकूला नदीके तटपर स्थित जम्भृका ग्रागके निकट शालिवृक्षके नीचे ध्यानमग्न हो गये थे और क्षपकत्रेणीका आरोहणकर केवलज्ञानको आवृत करनेवाली कर्मप्रकृतियोंका क्षय करने हेतु ध्यानस्थ थे । फलस्वरूप इन्होंने निर्मल चित्तसे आज्ञा-विचय आदि चार महान् धर्म-ध्यानोंका अभ्यास किया । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्त्र, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व, तियंचायु, देवायु, नरकायु इन दश कर्मप्रकृत्तियोंको (तीन आयुओंका तो अबन्ध था, शेष सात प्रकृतियोंका) चतुर्थ. गुणस्थानसे सप्तम गुणस्थानके मध्य क्षयकर दिया। कर्मरूपी शत्रुओंको नष्ट करने के लिये तीर्थंकर महावीरने शुक्लध्यानका अभ्यास किया और क्षपकश्रेणो आरूढ़ होकर स्त्पानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला; नरकगति, १७६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सिर्थञ्चगति, एकेन्द्रिम, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रियरूप पार जातियों, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिग्गति, तियंगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थायर, सूक्ष्म, साधारण इन सोलह कर्मप्रकृतियोंको नष्ट किया। महावीर शुक्लध्यानकी साधनाद्वारा अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थानके प्रथम भागमें अवस्थित रहे । पुनः इसी गुणस्थानके द्वितीय भागमें चारित्रधातक आठ कषायोंको, तुत्तीय भागमें नपुंसकवेदको, चतुर्थ भागमें स्त्रीवेदको, पंचम भागमें हास्यादि षट्को, षष्ठ 'माग पुरुषवेदको, सप्तम भाग संज्वलन कोषका, अष्टम भागमें संज्वलन मानको और नवम भागमें संज्वलन मायाको क्षीण किया। अनन्तर दशम गुणस्थानको भूमिपर आरोहित हो सूक्ष्मसंज्वलन लोभका विनाश किया।
इस प्रकार समस्त मोहनीय कर्मको नष्टकर बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थानका आरोहण किया। इस बारहवें गुणस्थानके दो समयोंमेंसे उपान्त्य समयमें निद्रा और प्रचला इन दो कर्मप्रकृतियोंको तथा अन्त समयमें पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय इन चौदह कर्मप्रकृतियोंका नाश किया । इस प्रकार द्वादश गुणस्थान तक वेसठ कर्मप्रकृतियोंका विनाशकर त्रयोदश गुणस्थानका यारोहण किया।
इस गुणस्थानारोहणसे महावीरकी शुभ्रता और उज्ज्वलता सर्वत्र प्रकट हो रही थी । घातियाकोंकी ४७ और अघातियाकमकी सोलह प्रकृतियाँ कुल मिलाकर वेसठ प्रकृतियाँ विगलित होनेसे कैवल्य-सूर्यका उदय हो गया । महावीरकी सौम्य मुद्रामें सर्वशता तरंगायित हो रही थी। कर्मशत्रओंने आत्मार्पण कर दिया था और शान-प्राचीपर कैवल्य-भास्कर उदित हो चुका था । जिस प्रकार सूर्योदय होनेपर सर्वत्र प्रकाश व्याप्त हो जाता है, उसी प्रकार कैवल्योदय होनेपर दिव्य तेज व्याप्त हो गया था । ___ अनन्त सौख्यकी अनुपम विभूतिसे घराका कण-कण मुस्कुरा उठा और अस्त मानवता त्राणके हेतु आशान्वित हो गयी । राग-द्वेषके विकल्प शान्त हो चुके थेबोर आत्माने निर्विकल्पक स्थितिको प्राप्त कर लिया था । समसाके समक्ष विषमताका अस्तित्व समाप्त हो गया था । ___ महावीरको केवल्यबोध या सस्यकी उपलब्धि जिस दिन हुई उसका उल्लेख करते हुए आचार्य यतिवृषभने लिखा है
वइसाहसुद्धदसमी मघारिक्सम्मि वीरणाहस्स । रिजुकूलणदीतीरे अवरोहे केवलं गाणं ।
-ति० ४।१७०१ तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १७४
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वैशाख शुक्ला दशमी (२३ अप्रैल ई०पू० ५५७) का शुभ दिन था, जिस दिन महातपस्यी महावीरको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । उस दिन अपराह्न काल और मधा नक्षत्र था । ऋजकुला नदीका पावन सट था। जम्भिका गांव निकट था । शालिवृक्षके नीचे ध्यानमग्न होकर क्षपकश्त्रेणीका आरोहण करते हुए घातिकोकी ४७ और अघातिकर्मोकी १६ कुल ६३ प्रकृत्तियोंको निरस्त करके महावीरने कैवल्य उपलब्ध किया था। कैवस्यप्राप्ति-स्थान : विभिन्न मान्यताएं
इस कैवल्य-प्राप्ति-स्थानके सम्बन्धमें विद्वानोंमें विवाद है :--
बाबू कामताप्रसादजीने झरियाको जम्भिक गाँव माना है। आपका अभिमत्त है कि प्राचीन लाटदेशका विजयभूमि प्रान्त वर्तमान विहारके अन्तर्गत छोटानागपुर डिवीज़नके मानभूमि और सिंहभूमिमें है । श्रीनन्दलाल डे भी झरियाको ही जुम्भिक गांव मानते हैं । यहाँकी बराकर नदी ही प्राचीन ऋजुफूला है । इस कथनमें एक ही बात विचारणीय है वह है भगवान्की केवलज्ञान-प्राप्तिका ममि होना मागविगार गोयलय शितान्ते समय यहाँकी भूमिसे प्रथम बार पत्थर निकलता है ! अतः यह भूमि यथार्थमें वनभूमि है।
आगम-साहित्यके भौगोलिक निर्देशानुसार इस गांवको वनभूमिमें होना चाहिये । श्वेताम्बर आगम-साहित्यमें जम्भिक गांवकी स्थिति लाटदेशमें मानी गयी है।
मुनि श्रीकल्याणविजयजी इस मामको स्थितिके विषयमें लिखते हैं :"म्भिक गांवको अवस्थितिपर विद्वानोंका ऐकमत्य नहीं है । परम्पराके अनुसार सम्मेदशिखरसे दक्षिणमें बारह कोसपर दामोदर नदीके पास जो जम्मिय गांव है, वही प्रचीन जम्भिक गाँव है। कोई सम्मेदशिखरसे दक्षिण-पूर्व में लगभग पचास मीलपर आजी नदीके पासवाले जमगामको प्राचीन जम्भिय गांव बताते हैं। हमारे मान्यतानुसार जम्भिक गांवकी अवस्थिति इन दोनों स्थानोंसे भिन्न स्थानमें होनी चाहिये, क्योंकि महावीरके विहार-वर्णनसे अम्भिय गांव चम्पाके निकट कहीं रहा होगा।" मौलिक विरोध
बाबू कामताप्रसादद्वारा अनुमानित स्थान शरिया प्राचीन जम्भिय या जुम्भिक गाँव नहीं है । इस स्थानको ऋजुकूला नदीके किनारे होना चाहिये।
१. बाबू कामताप्रसाद : भगवान् महावीर ।
२. श्रमण भगवान महावीर, पृ० ३७० । १७८ : तीर्थकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा
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बराकर नदी ऋजुकूलाका अपभ्रंश नहीं है और न क्षरियामें कोई भी ऐसा प्राचीन चिह्न ही उपलब्ध है, जिससे इसे तीर्थंकर महावीरका केवलज्ञानस्थान माना जा सके । बाबू कामताप्रसाद मां स्वयं इस स्थानक विषय में पूर्ण असन्दिग्ध नहीं है |
मुनि कल्याणविजयको तो स्वयं ही इस स्थानकी स्वस्थितिके विषय में आशंका है, पर इतना उन्हें निश्चय है कि यह स्थान चम्पाके निकट ही कहीं होना चाहिये । आवश्यकचूर्णिके अनुसार महावीर केवली होनेके पूर्व चम्पासे जम्भय, भिण्डिय, छम्माणी होते हुए मध्यमा पावा गये थे और मध्यमासे फिर जम्भय गाँव गये थे, जहाँ उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। इस वर्णनसे लगता है कि जम्मिय ग्राम और ऋजुपालिका नदी दोनों मध्यमाके रास्तेमें चम्पाके निकट ही कहीं होने चाहिये ।
जृम्भिक या जम्भिय ग्रामको अवस्थिति
वर्त्तमान विहारके भूगोलका अध्ययन करने तथा बिहारके कतिपय स्थानोंका पर्यटन करने पर अवगत होता है कि महावीरका कैवल्यप्राप्ति-स्थान वर्तमान मुंगेर से दक्षिणको ओर पचास मीलकी दूरीपर स्थित जमुई गाँव है । यह स्थान वर्तमान क्विल नदी के तटपर है । यही नदी ऋजुकूलाका अपभ्रंश है । क्विल स्टेशन से जमुई गाँव अठारह उन्नीस मीलकी दूरीपर अवस्थित हैं। जमुईसे चार मील उत्तरकी और क्षत्रिय कुण्ड और काकली नामक स्थान हैं। इन स्थानोंकी प्राचीनता आज भो प्रसिद्ध है । जमुईले तीन मील दक्षिण एनमेंगढ़ नामक एक प्राचीन टीला है। कर्निघमने इसे इन्द्रद्विमनपालका माना है । यहाँपर खुदाई में मिट्टीकी अनेक मुद्राएं प्राप्त हुई हैं । वर्षाकालमें अधिक पानी बरसनेपर यहाँ अपने आप ही अनेक मनोश मूर्तियाँ निकल आती हैं ।
जमुई और लिच्छवाड़ के बीच में महादेवसिमरिया गाँव है। यहाँ सरोवर के मध्य एक तीन-चार सौ वर्ष पुराना मन्दिर भी है। इस मन्दिरमें कुछ प्राचीन जैन प्रतिमाएं भी हैं। जमुईसे १५-१६ मीलपर लक्खीसराय है । यहाँ पर एक पर्वतश्रेणी है, जिसमें से प्रतिवर्ष अनेक बौद्ध और जैन मूर्तियां निकलती हैं । जमुई और राजगृहके बीच सिकन्दरा गाँव है तथा सिकन्दरा और लक्खीसरायके मध्य में एक आम्रवन है । कहा जाता है कि इस आम्रवन में भगवान महावोरने तपश्चरण किया था। आज भी यहाँके निकटवर्ती लोग इस वनको पावन मानकर इसके वृक्षोंकी पूजा करते हैं ।
१. लेखकने स्वयं जाकर देखा और जानकारी प्राप्त को ।
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'जमुई गाँवकी भौगोलिक स्थितिसे प्रकट है कि जैन साहित्यमें उल्लिखित यह 'ऋजुकुला' नदी वर्तमान अपभ्रंश 'क्विल' नदी ही है और इसका तटवर्ती वर्तमान 'अमुई' गाँव ही 'म्भिक' ग्राम है। हमारे इस कथनकी पुष्टि आगमोंमें वणित भूगोल और महावीरके विहार-प्रदेशके वर्णनसे भी होती है। यहाँ प्रचलित किंवदन्तियाँ और उपलब्ध पुरातत्त्व भी इसको पुष्टि में सहायक हैं। 'जमुईके दक्षिण लगभग ४-५ मालकी दूरीपर एक कैवाला नामक ग्राम है, जो महावीरके केवलज्ञानोत्पत्ति-स्थानकी स्मृतिको बनाये रखने के लिये ही प्रसिद्ध हुआ होगा । इस गांवके समीप बरसाती 'अञ्जन' नदी बहती है, जिसके किनारेपर बाल अधिक पायी जाती है । सिकन्दराबाद तथा केवाली-निवासियोंसे बातें करनेपर वे कहते हैं कि यही 'केवाली' भगवान महावीरका केवल' ज्ञान-स्थान है तथा 'अंजन' नदीको 'ऋजुपालिका' या ऋजुबालिका' बसलाते हैं। वेशाखशुक्ला दशमीके दिन यहाँ सामूहिक रूपसे उत्सव भी मनाया जाता है। सिकन्दराबादके निवासी श्रीभगवानदास केशरीने इस स्थानसे अनेक पुरासस्वावशेषोंका संकलन किया है तथा उनके पास ऐसी अनेक किम्बदन्तियां भी संग्रहीत हैं, जिनसे 'जमुई का निकटवर्ती प्रदेश महावीरका कैवल्यप्राप्ति-स्थान सिद्ध होता है।'
'जमुई से राजगिर लगभग ३० मीलकी दूरीपर है। झरियासे चम्पा और राजगृहकी दूरी सौ-सवासो मीलसे भी अधिक है। 'जमुई चम्पाके भी निकट है । अतः यह निश्चित है भगवान् महावीरका बोषि-स्थान ऐसी जगह था, जो राजगृह और चम्पा दोनोंसे ३०.३५ मोलकी दूरीसे अधिक न था। 'जमुई भी वनभूमि है । यहाँ भी पृथ्वीके नीचे पत्थर निकलते हैं, पहाडी स्थान भी है। 'विवल' नदोका तटवर्ती प्रदेश है । जमीन पथरीली और उबड़-खाबड़ है । अत: महावीरका केवलज्ञान-स्थान 'अमुई' ग्रामका निकटवर्ती वह प्रदेश, जहाँ आजकल 'केवाली' ग्राम बसा है, होना चाहिये । केवलज्ञान अर्चना
महावीरके केवलज्ञान-कल्याणकका उत्सव सम्पन्न करने के लिए चतुनिकायके देव और मनुष्य एकत्र हए | सभीने भक्तिभावपूर्वक उनके केवलजानकी पूजा को । ऋजुकूलाका तट मुखरित था । बारह वर्ष, पाँच मास और पन्द्रह दिनकी दुद्धर्ष तपश्चर्याका फल अर्हत्वके रूपमें प्राप्त हो चुका था। तीर्थंकरप्रकृतिका उदय होनेसे दिव्य देशनाका सामयं उत्पन्न हो गया था।
१. लेखकने स्वयं जाकर देखा और जानकारी प्राप्त की है। १८० : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा
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सप्तम परिच्छेद
गणधर, समवशरण, शिष्य एवं निर्वाण
समवशरण : पीयूष - वाणीकी आकांश
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तीर्थंकर महावीरने अर्हत्व प्राप्त कर लिया । उनके ज्ञानके अपूर्व प्रकाशसे सारा संसार जगमगा उठा, दिशाएँ शान्त एवं विशुद्ध हो गयीं । मन्द मन्द सुखद पदन बहने लगा । सौधर्म इन्द्र और अन्य चतुर्निकायदेव महावीरके केवलज्ञान-कल्याणककी पूजा कर चुके थे । इन्द्रने अपने कोषाध्यक्ष कुबेरको बुलाया और एक विशाल सभा मण्डप - समवशरणको रचनाका आदेश दिया । इन्द्रकी अभिलाषा थी कि विगत २३ तीर्थंकरोंके समान अन्तिम तीर्थंकर महावीर भी अपनी देशनाद्वारा संसारके संत्रस्त, सन्तप्त प्राणियोंको शान्ति प्रदान करें । इस उद्द ेश्यकी पूतिके लिये ऋजुकूलाके तटपर अविलम्ब समच
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शरणको स्वना की गयी। कुबेर हर्षित था और उसे अपना वैभव अकिंचन लग रहा था।
विशाल भव्य समवशरण रचा गया। उसकी शाभा अप्रतिम और सजावट अद्वितीय थो । धरतीके वक्षस्थलपर निर्मित यह समवशरण विश्वके गौरवका प्रसीक था। इसके चारों द्वारोंके आगे धर्म-ध्वजोंसे मण्डित मानस्तम्भ और धर्मचक्र सुशोभित या समवशरण प्राकार, चैत्य वृक्ष, ध्वजा, पनवेदो, तोरण, स्तूप आदि रत्नमय एवं जिन-प्रतिमाओंसे युक्त थे ।
प्राणी इस सभा-मण्डपमें पहुँचते ही आनि-व्याधि भूल जाता था। धर्ममय दातावरणमें वह निराकुल हो जाता था। इस सभा-मण्डपमें मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी तक पहुंच कर अपना कल्याण करते थे। समवशरण द्वादश कोष्ठकोंमें बटा हुआ था, जिनमें साधु-आर्यिका, देव-देवाङ्गना और पशु-पक्षी बैठते थे। इसके मध्यमें गन्धकुटी थी, जिसमें एक स्वर्णसिंहासन रखा हुआ था। महावीर इतने निर्लिप्त और निर्मोही थे कि उसका स्पर्श भी उन्हें नहीं होता था। उनको पुण्यप्रकृतियोंसे शरीर इतना सूक्ष्म और सुन्दर हो गया था कि वह अधिक स्थूल पदार्थका आश्रय न चाहकर आकाशमें ही स्थिर था। सिंहासनपर स्वर्ण-कमल बना था, जिससे यह प्रतिभासित होता था कि भगवान् कमलासनपर विराजित हैं।
यह समवशरण आत्मानुशासनका प्रतीक था। यहां किसी प्रकारको आकुलता नहीं थी, सभी प्राणी शान्त, विनम्र और अनुशासित थे ।
स्थापत्यकलाको दृष्टिसे भी यह एक अलौकिक उदाहरण था। सर्वप्रथम धूलिसालकोट बना हुआ था, इसके आगे मानस्तम्भ और मानस्तम्भके आगे वापिकाएँ विद्यमान थी । वापिकाओंसे कुछ दूर जानेपर जलपूर्ण परिखा, इसके आगे लतावन और तदनन्तर प्रथम परिकोट आता था। इस कोटके द्वार पर देव द्वारपालके रूपमें विद्यमान थे और गोपुरद्वारपर आठ मंगलद्रव्य स्थित थे। इसके आगे दूसरा परिकोट विद्यमान था, जिसमें अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन ये चार वन विद्यमान थे। इन वनोंमें चैत्यवन भी थे, जिनके वृक्षोंपर तीर्थंकरोंकी प्रतिमाएं विराजमान थीं। यहाँ किन्नर-जातिको देवियाँ तीर्थंकरका गुणगान करती हुई परिलक्षित होती थीं। इसके पश्चात् चार गोपुरद्वारों सहित वलवेदिका उल्लंघन करनेपर अनेक भवनोंसे युक्त पृथ्वी और स्तूप अवस्थित थे। ये भवन तीन, चार और पांच खण्डोंके थे। भवनोंके बीच में रलतोरण लगे हुए थे। जिनमें मूर्तियाँ अंकित थीं । यहाँ रत्नमय स्तूप भी सुशोभित होता था।
१८२ : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा
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इसके आगे आकाशमें स्फटिकका बना हुआ तृतीय कोट था। इसके द्वारपर कल्पवासी देव उपस्थित रहकर पहरा देते थे । उनसे आज्ञा लेकर अथवा बिना बाशा लिये हो सभा में प्रवेश करते थे। यह चारों ओर एक योजन लम्बाघोड़ा और गोल श्रीमण्डप बना हुआ था । इसके मध्य में तीर्थंकर महावीर सुशोभित थे । बारह कक्षों में क्रमशः मुनि, कल्पवासिनी देवियाँ आर्यिकाएँ", महारानियाँ एवं अन्य स्त्रियां ज्योतिषोदेवोंकी स्त्रियां व्यन्तरदेवोंकी स्त्रिय; भवनवासीदेवोंकी स्त्रियां; भवनवासीदेव, व्यन्तरदेव, ज्योतिषीदेव; कल्पवासीदेव; सभी प्रकारके पुरुष और सभी प्रकारके मृगादि पशु-पक्षी उपस्थित थे ।
तोर्थंकर महावीरको देशना सुननेके लिये जनसमूह एकत्र हो रहा था । इन्द्र भी अपने विशाल परिवार सहित आ पहुंचा। उसने तीर्थंकर महावीरका अर्चन, वन्दन किया और समवशरणके नियमानुसार अपने कक्षमें बेठ गया । इस सभामण्डपमें ज्ञानालोक व्याप्त था और तिमिर छिन्न करनेवाली प्रकाशव्यवस्था भी बड़ी महनीय थी । रात-दिनका भेद मिट गया था और प्रकाश-हीप्रकाश सर्वत्र दिखलायी पड़ता था । जो भी प्राणी इस समवशरण सभा में आया, उसके हृदयसे वैर, द्वेष, क्रोध, हिंसा एवं प्रतिशोधको दूषित भावनाएं समाप्त थीं और उनके परिणाम इतने निर्मल थे कि वे जन्मजात शत्रुताको भी विस्मृत कर चुके थे। समस्त अन्तर्विरोध समाप्त हो गये थे । गाय - सिंह, भृग-व्याघ्र, मार्जार- मूषक बड़े निर्मलभावसे एकसाथ स्थित रहकर तीर्थंकर महावीरकी दिव्य वाणीकी उत्कण्ठापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे ।
अगणित श्रोता महावीरको ओर अपलक दृष्टि थे । उनके मनःप्राण तोर्थंकरको पीयूष वाणीको सुनने की प्रतीक्षा कर रहे थे। महावीरको सौम्य मुखमुद्रा सभीको अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। उनकी मुखाभा दिव्यभाषा बनी हुई थी। उनकी मुद्रा अविचल, वचनातोत और भाषातीत थी । अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यको उज्ज्वलता सर्वत्र विद्यमान थी ।
समवशरण सभा में एकत्र सभी प्राणिवर्ग उद्ग्रोव होकर महावीरकी देशना सुनने के लिये लालायित थे ।
बेशना अवरोध और इन्द्रको चिन्ता
महावीरको दिव्यज्ञानकी प्राप्ति वैशाख शुक्ला दशमीके दिन अपराह्न कालमें हो चुकी थी । आषाढ़का मास व्यतीत होने जा रहा था, पर अभी तक महावीरकी देशना आरम्भ नहीं हुई थी। विद्वज्जन, देवगण एवं अन्य विचारशील व्यक्ति देशनाके अवरोधके सम्बन्ध में विचार कर रहे थे । वे
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चिन्तित थे कि तोर्थंकर महावीरने अपने तपस्या - कालमें मौन रहकर साधनाकी, उन्होंने कोई देशना नहीं दी। उनके सम्पर्क से दृष्टिविष जैसे सपं और शूलपाणि जैसे यक्ष अवश्य उपकृत हुए थे । पूर्वतीर्थंकर कि समान सर्वभूत- हितार्थं महावीरकी दिव्यध्वनिका लाभ हमें अवश्य होना चाहिये । पर यह क्या ? दिन गिनते-गिनते पैंसठ दिन बीत गये और महावीरकी दिव्यवाणी प्रकट नहीं हुई । श्रोताओंने मनको समझाया कि अभी काललन्धि नहीं आयी है। यही कारण है कि प्रभुकी देशनामें बिलम्ब है ।
इन दिनों में सभा मण्डपमें कितने ही लोग आये, कुछ आकर लौट गये और कुछ भव्यप्राणी दिव्यध्वनिकी प्रतीक्षा करते हुए उपस्थित रहे ।
दिन-पर-दिन और रात-पर-रात व्यतीत होती गयी; पर तीर्थंकरकी वाणी मुखरित न हुई । उपस्थित जनसमुदाय निराश होने लगा और बाजीके अवरुद्ध होनेके कारणकी जिज्ञासा करने लगा। सभी लोग स्तब्ध थे, बसमंजस - में थे, पर समाधान किसीके पास न था । सब जानते थे कि तीर्थंकर महावीर मूकवली नहीं । उनका उपदेश अवश्य होगा । पर कब होगा ? और अबतक क्यों अवरुद्ध है ? इसकी जानकारी किसीको नहीं थी ।
पैंसठ दिनों तक समवशरण भी एक स्थानपर नहीं रह सका और तीर्थ कर महावीर विहार करते हुए राजगृहके निकट विपुलाचलपर आये । यहाँ भी कुबेरने पूर्ववत् सभा मण्डप - समवशरणकी रचना की । असंख्य श्रोता इस सभा में भी उपस्थित थे, पर गतिरोध ज्यों-का-त्यों बना हुआ था । तीर्थंकर महावीरकी वाणीके प्रकट न होनेसे सौधर्म इन्द्रको चिन्ता उत्पन्न हुई और उसने ज्ञान-गंगाके अवरुद्ध रहने के कारणोंको जानकारी चाही । सौधर्म इन्द्रने अवधिज्ञानसे ज्ञात किया कि सम्यक् और यथार्थ ज्ञानी गणधर के अभाव में ज्ञान गंगा रुकी हुई है। उसे अवतरित करने के लिये किसी भगीरथकी आवश्यकता है। जब तक सच्चा जिज्ञासु और श्रुतज्ञानका धारक व्यक्ति उपस्थित न होगा, तब तक तीर्थंकर की दिव्यध्वनि सम्भव नहीं है । समवशरण में इस समयकोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जो तीर्थंकर महावीरकी वाणीको सुने, समझे और ठीक-ठीक उसकी व्याख्या कर सके। जब तक ज्ञानकी गूढ़ताका ज्ञाता यथास्थितिका संवन करनेवाला व्यक्ति इस सभा में उपस्थित नहीं होगा, तब तक तीर्थंकरकी वाणी मुखरित नहीं हो सकेगी। अतएव मुझे गणघ' की खोज करनी है ।
जिस प्रकार तीर्थकर तीर्थ का निर्माता होता है और श्रुतरूप ज्ञानपरम्पराका पुरस्कर्ता होता है, उसी प्रकार- गणधर तीर्थ-व्यवस्थापक, नियोजक
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और तीर्थंकरोंकी अर्थरूप वाणीका व्यास्थाता होता है। प्रत्येक तीर्थकरके सोर्च में गणघर एक अत्यावश्यक उत्तरदायित्वपूर्ण और महान प्रभावशाली व्यक्तित्व होता है । वह इनके पादमूलमें दीक्षित होता है।
वस्तुतः साधनाके क्षेत्रमें व्यक्ति स्वयं अपना विकास कर सकता है, पर साधनाको सिद्ध करके उसके प्रकाशको बन-बनके जीवनमें प्रसारित करनेके हेतु महान व्यक्तित्व-सम्पन्न व्यक्ति भी समाजमें जब प्रविष्ट होता है अथवा संघ एवं समाजको स्थापना करता है, तब उसे इसके लिये सहयोगोंके स्पमें तेजस्वी व्यक्तिस्वकी अपेक्षा होती है। यतः सहयोगके बिना कार्यको साकार रूप नहीं दिया जा सकता है। जानको अभिव्यक्ति करनेके लिए क्रियाका सहयोग आवश्यक है। व्यक्तिका आचार ही व्यक्तिके विचारको अभिव्यक्ति दे सकता है। आचारके विना विचार साकार रूप ग्रहण नहीं कर सकता है। इसी प्रकार प्रदालु एवं कर्मनिष्ठ व्यक्ति ही महान् तेजस्वी व्यक्तित्वकी तेजस्विताको जन-जनके समक्ष प्रकट कर सकता है।
प्रत्येक तीर्थकरके लिए गनपरको नितान्त मावश्यकता है। तीर्थकरकी शान-साधना गणवरके द्वारा ही अभिव्यक्तिको प्राप्त होती है। अतः महावीरकी दिव्यज्ञानधाराको ग्रहण करनेवाफा कमाकर परसा मारा है। सोमिछ और इनभूति ___ मगधमें आर्य स्रोमिल नामक एक विद्वान ब्राह्मण ब्राह्मणवर्गका नेतृत्व अपने हाथमें लिये हुए पूर्वीय भारतमें बत्यन्त प्रतिष्ठित वा। उसने मध्यमा पावामें एक विराट् यशका आयोजन किया, जिसमें पूर्वी भागोंके बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानोंको उनके शिष्य-परिवार सहित आमन्त्रित किया । इस महायज्ञके अवसरपर बेदविरोधी विचारधाराके कड़े प्रतिवादके उपामोंपर एवं साधारण जनताको पुनः वैदिकविचारोंको बोर आकृष्ट करनेके साधनोंपर भी विचार करनेके निमित्त योजना बनाई गई थी। इस महायज्ञका नेतृत्व मगध के प्रसिद्ध विद्वान एवं प्रकाण्ड तर्कशास्त्री इन्द्रभूति गौतमके हायमें था।
इस अनुष्ठानमें सहस्रों विद्वानों के साथ अग्निभूति, वायुभूति आदि एकादश महापण्डित उपस्थित थे। वैदिक विचारधाराके समर्थक अपने विखरते हुये प्रभुत्वकी पुनः स्थापनाहेतु वहाँ सम्मिलित थे | आर्य सोमिलको बयध्वनि बाकाम तक पहुंच रही षो। इन्ः मूति गौतम :सुथा श्रद्धाका द्वार इन्द्रभूति गौतमका जन्म भगध-जनपदके गोबर ग्राम में हुआ था। इनकी
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माताका नाम पृथ्वी और पिता नाम वसुभूति था । इनका गोत्र गौतम था । गौतमका व्युत्पत्तिजन्य अर्थ है - 'गोभिस्तमो ध्वस्तं यस्य' - बुद्धिके द्वारा जिसका अन्धकार नष्ट हो गया है अथवा जिसने अन्धकार नष्ट किया है। यों तो 'गौतम' शब्द कुल एवं वंशका वाचक है। ऋगवेद में भी गोतमनामसे अनेक सूक्त मिलते हैं। इस नामधारी अनेक व्यक्ति हो चुके हैं । इन्द्रभूति गौत्तमका व्यक्तित्व विराट् एवं प्रभावशाली था । दूर-दूर तक उनकी विद्वत्ताकी धाक विद्यमान थी । ५०० छात्र उनके पास अध्ययन करते थे । इनके व्यापक प्रभावके कारण ही सोमिल आयेंने इस महायज्ञका धार्मिक नेतृत्व इनके हाथ में सौंपा था । मगध- जनपदके सहस्रों नागरिक दूर-दूरसे इस यज्ञके दर्शन करने आये थे ।
राजगृहके निकट विपुलाचलपर निर्मित समवशरण में तीर्थंकर महावीरकी देशना सुननेके लिए असंख्य देव विमानों द्वारा पुष्पोंकी वर्षा करते हुए जा रहे थ े । आकाशमार्ग जयजयकारकी ध्वनिसे गूंजित था। जिस प्रकार छोटी-छोटी सरिताएँ बृहत् समुद्र में सम्मिलित होती हैं, उसी प्रकार नर-नारियोंके विभिन्न वर्ग इस सभामें सम्मिलित होनेके लिये आकूलित थे ।
निराशा और जिज्ञाशा
यज्ञ मण्डप में स्थित विद्वानोंने आकाशमार्गसे आते हुए देवगणोंको देखा, तो वे रोमांचित हो कहने लगे - " यज्ञ महात्म्यसे प्रभावित होकर आहुति ग्रहण करनेके हेतु देवगण आ रहे हैं ।" लक्ष लक्ष मानवोंकी आँखे आकाशकी ओर टकटकी लगाये देख रही थीं, पर जब देवविमान यज्ञ मण्डपके ऊपरसे होकर सीधे आगे निकल गये, तो यज्ञ-समर्थकों के बीच बड़ी निराशा उत्पन्न हुई । सबकी आंखे नीचे झुक गयीं, मुख मलिन हो गये और आश्चर्य के साथ सोचने लगे - "अरे ! देवगण भी किसीकी मायामें फँस गये हैं या भ्रम में पड़ गये हैं ? यज्ञ मण्डप छोड़कर कहाँ जा रहे हैं ?"
इन्द्रभूतिने देवविमानों को प्रभावित करनेकी दृष्टिसे वेद-मन्त्रोंका पाठकर तुमुल ध्वनि की, पर उनके अहंकारपर चोट करते हुए देवविमान सोधे निकल गये ।
इन्द्रभूतिको यह जानकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि ये सभी देवविमान महावीरकी समवशरण-सभा में जा रहे हैं । इन्द्रभूतिका मन अहंकारपर चोट लगनेसे उदास हो गया । उनका धर्मोन्माद मचल उठा । इसो समय सौधर्म - इन्द्र बटुकका रूप बनाये हुए इन्द्रभूत्ति के समक्ष पहुँचा और कहने लगा- "गुरुवर! आपकी विद्वत्ताकी यशोगाथा देशभर में व्याप्त है । वेद, उपनिषद्का
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ज्ञान आपकी चेतनाके कण-कणमें छाया हुआ है। आप दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष और आयुर्वेदके मर्मज्ञ विद्वान् हैं । मुझे एक गाथाका अर्थ समझमें नहीं आ रहा है । अतः उसका अर्थ ज्ञात करने के लिये में आपकी सेवामें उपस्थित हुआ हूँ । यदि आप आदेश दें, तो मैं उस गाथाको आपके समक्ष प्रस्तुत करूं । ____ इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मणवटुकरूपधारी इन्द्रके विनीत भावसे बहुत प्रसन्न हा । उसने अनुभव किया कि आगन्तुक वृद्ध में ज्ञानको पिपासा है। वह नम्र और अमुशासित भी है । अतः इसकी जिज्ञासा पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है। इन्द्रने नम्रतापूर्वक कहा :
पंचेव अत्यिकाया छज्जीव-णिकाया महब्वया पंच।
अठ्ठयपवयण-मादा सहेउओ बंष-मोक्सो य'। इन्द्रभूति-"मैं इस गाथाका अर्थ तभी बतलाऊँगा, जब तुम इसका अर्थ ज्ञात हो जानेपर मेरे शिष्य पारेको ६ स्वीकार करो."
इन्द्रभूति बहुत समय सक गायाका अर्थ सोचता रहा । पर उसको समझमें कुछ नहीं आया । अतएव वह इन्द्रसे कहने लगा-"तुमने यह गाथा कहाँसे सीखी है ? किस ग्रन्थमें यह गाथा भायी है ?
ब्राह्मणवेशधारी इन्द्र-"मैंने यह अपने गुरु तीर्थकर महावीरसे सीखी है। पर वे कई दिनोंसे मोनावलम्बन लिये हुए हैं। इसी कारण इस गाथाका अर्थ में उनसे नहीं जान पाया । आपका यश वर्षोंसे सुनता चला आ रहा है और आपकी प्रखर प्रतिभाका मैं प्रशंसक हूँ । अतएव इस गाथाका अर्थ सात करने के लिये आपकी सेवामें उपस्थित हुआ हूँ।"
इन्द्रभूति समझ न सके कि पञ्चास्तिकाय क्या हैं ? छः जीवनिकाय फोन से है ? पाठ प्रवचनमात्रिकाएं क्या वस्तु हैं ? इन्द्रभूसिको जीवके अस्तित्व के
१. षट्खण्डागम, धवला, पु. ९, पृ० १२९ में उपत । २. उक्त गाथाके समकक्ष संसातमें भी निम्नलिखित पच उपलब्ध है:
कास्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्र काय-लेश्याः । पञ्चान्ये पास्तिकाया प्रत-समिति-गति-शान-बारित्रभेदाः ॥ इत्येतन्मोषमूल त्रिभुवनहितः प्रोक्समहगिरीशैः । प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्ध दृष्टिः ।।
-तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतभक्ति नोकर महावीर और उनकी देशना : १८७
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सम्बन्धमें स्वयं शंका थी। अतः वे और भी असमंजसमें पड़कर कहने लगे-"चलो, तुम्हारे गुरुके समक्ष ही इस गाथाका अयं बतलाऊंगा । मैं अपनी विद्वत्ताका प्रभाव तुम्हारे गुरुपर ही एकट करना मान्दा !" ___ इन्द्रभूति गौतमको उक्त बातको सुनकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ और मनमें सोचने लगा-"मेरा कार्य अब सम्पन्न हो गया। तीर्थकर महावीरके समयशरणमें पहुंचते ही इनका अहंकार विगलित हो जायगा और शंकाओंका समाधान स्वयं प्राप्त हो जायगा।" मानस्तम्भवर्शन : मानगलन और रत्नत्रयका उपहार
इन्द्रभूति गौतमने शास्त्रार्थ करनेकी आकांक्षासे तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें प्रवेश किया । मानस्तम्भके दर्शनमात्रसे ही उनके मनका सारा कालुष्य घुल गया। स्तम्भ देखकर इन्द्रभूति स्तब्ध रह गया और शानका समस्त अहंकार पिघल गया। इन्द्रभूति गौतमके लिये मानस्तम्भ प्रकाश-स्तम्भ बन गया। उनके हृदयका तिमिर छिन्न हो गया और उन्हें क्षायोपशमिक ज्ञानकी सीमा ज्ञात हो गयी। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि मेरा ज्ञान कितना बौना है। मैं तो महावीरके शानकी एक किरण भी छूनेमें असमर्थ हूँ। न मालूम क्यों मुझे अपने ज्ञानका अहंकार था। आज मेरा अभिमानी मन विनम्रतासे भर गया है, द्रवीभूत हो गया है।
इन्द्रभूति गौतम गततम होकर गन्धकुटीमें विराजमान तीर्थंकर महावीरकी मङ्गल-मुद्राका दर्शनकर हर्षविभोर हो उठा। प्रतिभाके साथ उसकी श्रद्धाके कपाट भी खुल गये । मिथ्यास्वरूपी ओस-कण महावीरके केवलज्ञानरूपी सूर्यप्रभासे सूखने लगे। उसको अन्तरात्मा निर्मल नीरकी तरह स्वच्छ हो गयी । सम्यक्दर्शनका आविर्भाव हो गया और जानका मद चूर हो गया ।
श्रद्धातिरेकके कारण उसके परिणामोंमें अतिशय कोमलता उत्पन्न हो गयो । आया था शास्त्रार्थ करने, पर उसके शास्त्रके सभी शस्त्र कुण्ठित हो गये । वीतरागताके समक्ष उसके मनका कालुष्य घुल गया। दम्भ और मिथ्या१. स्वओवसमणिद-चउरमलबुद्धिसंपण्णण बम्हणेण गोदमगोत्तेण सयल-दुस्सुदि
पारएण जीवाजीव-विषय-संदेहविणासणट्ठमुवगय-वड्जमाण-पादमूलेण इंदभूदिणा वहारिदो। उक्तं च
गोसेण गोदमो विष्पो चाउब्वेय-सडंग वि । गामेण इंदभूदि ति सीलबं घम्हणुतमो ।।
-षट्संडागम, धवला, पुस्तक १, पृ० ६४ में उपत, १८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आषाय-परम्परा
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का लेशमात्र भी न रहा । मनकी ग्रंथि खुल गयी और वह महावीरका सच्चा उपासक हो गया । वह तन गोर मनसे निर्ग्रन्थ बननेका संकल्प करने लगा ।
इन्द्रभूसिने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली । उसे मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया । इन्द्रभूति गौतमकी मिथ्याते श्रद्धाका ताला टूटते ही जयजयकारकी ध्वनि होने लगी ।
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यह पावन दिन आषाढ़ी पूर्णिमाका था, इसी दिन गौतमने दीक्षा धारण की थी । इसी कारण यह दिन 'गुरुपूर्णिमा' के नामसे लोक में प्रसिद्ध है । अगले दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके ब्राह्ममुहृत्तमें भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनि आरम्भ हुई। और इसीलिए धर्म तीर्थकी उत्पत्ति भी इसी दिन हुई
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वासस्स पढममासे सावणमासम्म बहुल पडिवाए । अभिजीत उप्पती म्पत्यस्स ॥
वीरसेनाचार्यने केवलज्ञानोत्पत्ति के ६६ दिनतक देशना प्रकट न होनेके कारणकी मीमांसा की है। लिखा है-
केवलणाणे समुप्पण्णे वि दिव्वणीए किमट्टं तत्यापउत्ती ? गणिदाभावादो | सोहम्मदेण तक्खणे चैव गणिदो किण्ण होइदो ? ण, काललबीए विपा असहेग्जस्स, देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि पडवण्णसहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिसिय दिव्वणी किण्ण पयट्ठदे ? साहावियादो | ण च सहाओ परपणिओगारुहो, अभ्ववत्था पत्तोदो ।
आशय यह है कि सौधर्म इन्द्र भी कालब्धि के अभाव में तत्काल गणघरकी तलाश नहीं कर सका । काललब्धिके सम्बन्धमें प्रश्न नहीं किया जा सकता, यतः यह स्वभाव है और स्वभाव में तर्कका प्रवेश नहीं होता ।
इन्द्रभूति गौतमने पचास वर्ष की अवस्थामें दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की और मोक्ष - भवनकी साड़ियोंपर पदार्पण किया। ये तत्वज्ञानी, विशिष्ट साधक और तपस्वी थे और थे विरल अध्यात्मयोगी, सिद्धिसम्पन्न साधक और विश्यकल्याणकी उदग्र भावनासे युक्त परिव्राजक । उनमें विनय, सरलता, मृदुता और विचारशीलता पूर्णतः विद्यमान थी। इनका जीवन पुष्पतुल्य ही नहीं, किन्तु पुष्पोंका रंग-विरंगा गुलदस्ता था, जिसमें विविध प्रकारकै सौरभके साथ सुरम्य सुकुमारता भी निहित थी ।
१. तिलोयपण्णत्ती १६९.
२. कसायपाहुड, जयधवला, पुस्तक १, पृ० ७६.
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १८९
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गणघरों में इन्द्रभूतिका प्रधान स्थान था । महावीरके समवशरणमें ग्यारह विद्वान गणधरनामसे विख्यात थे । इन सभीने महाबीरके दिव्य ज्ञान और तेजसे प्रभावित होकर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की थी। अन्य गणधर : हत्य-परिवर्तन और बीमा
इन्द्रभूति गौतमके दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करनेका समाचार मगध-भूमिमें विद्युत्के समान व्याप्त हो गया। शिष्य-परिवार सहित इनके दीक्षित होनेसे अग्निभूति आदि विद्वानोंको महान् आश्चर्य हुआ और वे इन्द्रभूतिका समाचार मात करनेके लिए राजगृहके निकट विपुलापलपर पधारे । मग्निभूति ___अग्निभूति इन्द्रभूतिके मझले भाई थे। ये भी पांचसौ छात्रोंके विद्वान् अध्यापक थे और सोमिलार्यके यज्ञोत्सवमें अपने छात्रगणके साथ मध्यमा पावामें पधारे थे। वेद, उपनिषद् और कर्मकाण्डके महान ज्ञासा थे। इनके आकर्षक व्यक्तित्वका प्रभाव प्रत्येक व्यक्तिपर पड़ता था। इनका व्यवहार मधुर एवं विनयपूर्ण था। ____ इन्द्रभूतिकी दीक्षाके समाचारसे आश्चर्यचकित हो शास्त्रार्थ करनेको साथ लेकर महावीरके समवशरणमें आये। मानस्तम्भके दर्शनमासे इनके हृदयका व्यामोह दूर हो गया तथा मिथ्याखके विगलित होते ही सम्यक्त्वको प्रकाशकिरणें फूट पड़ी।
- वे महावीरको शांत मुखमुद्राका दर्शन करने में इतने तल्लीन हो गये कि उन्हें शरीरको भी सुध-बुध न रही । जिस प्रकार स्वर्ण अग्निमें तपकर निखर जाता है और समस्त मलिनता दूर हो जाती है, उसी प्रकार अग्निभूतिकी आत्मज्योति तीर्थंकर महावीरके सम्पर्कसे निखर गई और आत्म-शोधनके हेतु दीक्षित होनेको उनको कामना भी जागृत हो गयी।
सच्ची रुचि, सच्ची श्रद्धा, सच्चा प्लान और सच्चा आचरण भी उत्पन्न हो गया। अग्निभूतिके हृदय-परिवर्तनमें विलम्ब न हुआ। सच है कि काललब्धिके आनेपर आत्मोत्थानमें रुकावट नहीं आती। द्वैत-अद्वैस-सम्बन्धी उनकी शंकाएं स्वयं निराकृत हो गयीं। ___ अग्निभूतिने ४६ वर्षको अवस्थामें तीथ कर महावीरके चरणोंमें दिगम्बरदीक्षा ग्रहण की। इनके दीक्षित होनेका समाचार भी बात-की-बातमें सर्वत्र व्याप्त हो गया और विद्वानोंकी उत्सुकता जागृत हुई कि महावोरमें ऐसा कौन-सा १९० : तीषकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा
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चमत्कार है ? क्रियाकाण्डी ब्राह्मण-परम्परानुयायी विद्वान् आश्चर्य चकित हो समवशरण-सभामें आने लगे। वायुभूति गौतम : अहंकार पूर
वायुभूति इन्द्रभूतिका छोटा भाई था। यह भी सोमिलायंके यशोत्सवमें ५०० छात्रोंके साथ मध्यमा पायामें आया हुआ था। जब इसे इन्द्रभूति और अग्निभूतिके दीक्षित होनेका समाचार प्राप्त हुआ तो इसका मन महावीरसे शास्त्रार्थ करनेके लिये फड़क उठा | इसने विचार किया-"मेरे दो माई, पता नहीं, किस प्रकार मायावीके इन्द्रजालमें फंस गये हैं। मुझे वैदिक मान्यताओंकी रक्षा करनी है। अतएव में शास्त्रार्थद्वारा महावीरको अवश्य पराजित करूंगा । भौतिक सुख, समृद्धि, यज्ञ-यागादि क्रियाकाण्ड, जातिवाद, बहुदेववाद आदिका विरोध करनेका सामर्थ्य किसमें है ? यह में मानता हूँ कि मेरे दोनों बड़े भाई मुझसे अधिक विद्वान और प्रतिभाशाली हैं, पर में भी अपने ज्ञानपर भरोसा करता हूं। मेरा विश्वास है कि देहासिरिक 'आस्मा' नामका कोई पदार्थ नहीं। चलता हूँ महावीरको सभा में और अपने तर्कोसे उन्हें परास्त कर देता हूं।"
इस प्रकार अहंकारसे पुलकित होता हुआ वायुभूति महावीरके समयशरणमें उपस्थित हुआ । जैसे ही वह मानस्तम्भके निकट आया, उसके अहंकार रूपी ओले गल गये और मानस-पक्ष उद्घाटित हो गये | गन्धकुटीमें विराजमान तीर्थंकर महावीरको सौम्य मुद्राको निनिमेष होकर वह देखता रहा । ज्ञानमद चूर होते ही उसका हृदय श्रद्धासे जगमगाने लगा। दम्भ और मिथ्याके हटते ही उसका हृदय परिवर्तित हो गया। मनके सारे विकल्प समाप्त हो गये । मन दिगम्बरी दीक्षाके लिये विवश करने लगा। __वायुभूतिने ४२ वर्षको अवस्थामें तीर्थकर महावीरके पादमूलमें दिगम्बरदीक्षा धारण की और तृतीय गणधरका पद प्राप्त किया । वायुभूतिको भी आत्मदर्शन हो गया और वह भी तीर्थकरके चरणोंका उपासक हो गया । शुचिंवत्त : हृदय-परिवर्तन
परिवेश व्यक्तिको कितना परिवर्तित कर देता है, यह शुचिदत्तके जीवनसे जाना जा सकता है। यह ब्रह्मवादी था और यज्ञ-यागादि द्वारा लौकिक अभ्युदयको प्राप्तिमें विश्वास करता था। जब उन्हें इस बातका शान हुआ कि तीर्थंकर महावीर समवशरणमें स्थित हैं और जनसमुदाय उनकी पीयूष-वाणीका पान करनेके लिये एकत्र है, तो वे भी अपनी इच्छाका संवरण न कर सके और तीर्थकर महावीरके दर्शनके लिये चल पड़े। शुचिदत्त ज्ञानी अध्यापक थे और ५००
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शिष्य इनके चरणों में बैठकर वेदाध्ययन करते थे। इनके मानकी धूम भी समस्त पूर्वाञ्चलमें व्याप्त थी । ये कोल्साग-सन्निवेशके निवासी बोर भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माताका नाम वारुपी बोर पिताका नाम बनमित्र या। शुचिदत्त अपनी विवत्ताके लिये प्रॉसद्ध थे। इनके हृदय दृश्य जगत्के बस्तित्वके सम्बन्धमें आशंका विद्यमान थी। इन्हें भी अपने शानका दम्भ था और शास्त्रार्थमें बड़े-बड़े विद्वानोंको परास्त करनेकी क्षमता भी थी । __शुचिदत्त महावीरके समवसरणमें उपस्थित हया और महावीरके दर्शनमात्रसे उसको शंकामोंका समाधान हो गया। वह सोचने लगा-"महावीरका तेज अद्भुत है । इनके तेजके समक्ष सभीका तेज फीका पड़ जाता है । में देतवादको शंकामें अबतक पड़ा हवा था, पर वाब मेरी बांखें खल गयीं और मझे सत्यका साक्षात्कार हो गया। बतएव मुझे दीक्षा-सहन करनेमें बव विलम्ब नहीं करना चाहिये ।" ___ शुचिदत्तने ५० वर्षकी बवस्थामें दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की और महावीरके चतुर्थ गमघरका पद प्राप्त किया । शुधिदत्तका अन्य नाम वायव्य भी प्राप्त होता है। सुधर्मा : गोक्षा बोर यात्मशोषन ___महावीरके पंचम गवघरका नाम सुषर्मा है, जो सुधर्मा स्वामीके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये कोल्लाम-सन्निवेश निवासी अग्निवेश्यायनगोत्रो काह्मण पं । इनको माताका नाम भदिदला और पिसाका नाम धम्मिल्ल था। ये भी बपने ५०० शिष्योंके साथ बायं सोमिलके यत्रोत्सवमें सम्मिलित होनेके हेतु मध्यमापावा पधारे थे।
बन इन्हें इन्द्रभूति, अग्निभूति आदिके दीक्षित होनेका वृत्त भास हया, तो इनके मनमें भी तीर्थंकर महायोरके दर्शनको इच्छा जागृत हुई और निर्मल वातावरणमें सीकर महावीरके समवशरणमें इन्होंने प्रवेश किया। मानस्तम्भके दर्शनमात्रसे मनका सारा कालुष्य घुल मया और मिप्यात्वका गलन होते ही आत्मामें पात्रता उत्पन्न हो गयो । सुधर्माको काललन्धि भी आ पहुंची और उनके मनमें भी वीतरागता प्रकट होने लगी। आज सुधर्माका कर्म-कालुष्य विसबिस होने जा रहा था बोर उनकी उज्ज्वलता, शुद्धता, निर्मलता और समता वृद्धिंगत हो रही थी। क्षणकी सत्ता विलक्षणतामें परिवर्तित हो रही थी। बारमाके महान शिल्पीके स्पर्शसे उनको सरागता उज्ज्वलतामें बदल रही थी। वे महावीरको सौम्प मुद्राके दर्शनसे बानन्दविमोर थे। १९२ : तीपंकर महावीर कौर उनको नाचार्य-परम्परा
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सुधर्मा सोचने लगा-"मेरे पचास वर्ष बीत गये। मैंने अभी तक अपनी मात्माका कुछ मी सुधार नहीं किया । ज्ञान और जासिके अहंकारमें डूबा रहा । न मैंने आत्म-साधना की और न कल्याण हो । वास्तवमें अहिंसा ही जीवनोत्थानका साधन है। जो व्यकि वैभव और विभूतियोंसे दबा रहता है, वह महान् नहीं बन सकता है। मानवको मानवताके सामने देव भी नतमस्तक हो जाते हैं । अतएव व्यतिको सदा सत्य, अहिंसा आदि मानवीय एवं ज्ञान-दर्शनादि आत्मीय गुणोंका साक्षात्कार करना चाहिये । मानवताके नाते सभी मानव समान हैं। जन्मसे कोई भी व्यक्ति न बड़ा है न छोटा। प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य-गुण मग नमसे गहावतः है। लाइव अब मुझे प्रवजित हो जाना आश्यक है।" ___ सुधर्माने ५० वर्षकी अवस्था दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। महामोरके गणघरोंमें इनका पांचवां स्थान था। सुधर्मा दीर्घजीवी थे। इन्होंने बहुत दिनों तक श्रमण संघका संचालन किया । मणिक : आत्मोदडोषन
मण्डिक सांख्य दर्शनका समर्थक था। उसे बन्ध-मोक्षके सम्बन्धमें आशंका थी। वह मौर्य-सन्निवेशका निवासी और वाशिष्ठगोत्री विद्वान् ब्राह्मण था। उसको माताका नाम विजयदेवी और पिताका नाम धनदेव था । वह ३५० छात्रोंका विद्यागुरु था। सोमिल आर्यके निमंत्रणपर यज्ञोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये मध्यमा पावामें आया हुआ था। मण्डिक स्वस्थ शरीर, गौरवर्ण और सात हाथ उम्नत्त था। उसके ज्ञानका प्रकाश पूर्वाञ्चलमें पूर्णतया व्याप्त पा। वेदकी अपेक्षा वह तर्कशास्त्र में अधिक निष्णात था। उसका शिष्यवर्ग दर्शन और सर्कमें विशेष निपुण था।
मण्डिकको इन्द्रभूति, वायुभूति आदिके दीक्षित होनेका समाचार उपलब्ध हुआ, तो उसके मनमें भी महावीरके समवशरणमें प्रविष्ट होनेकी भावना उत्पन्न हुई। मण्डिक सोचने लगा-"देवायं महावीरमें ऐसा कौन-सा चमत्कार है, जो बड़े-बड़े विद्वानोंको अपना शिष्य बना लेते हैं। इन्द्रभूति, अग्निभूति वैदिक कर्मकाण्डी विद्वान् थे।तर्क-शास्त्रसे वे प्रायः दूर थे। अतः सम्भव है कि महावीरने इन्हें सरलतासे प्रभावित कर लिया हो। मैं तो तर्कका पण्डित हूँ। मेरे समक्ष महावीर या उनका अन्य कोई शिष्य नहीं ठहर सकता। मैं आज जाकर महावीरसे अवश्य शास्त्रार्थ करूंगा और उन्हें पराजित कर अपनी यशःपताका फहराऊँगा।"
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १९३
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मण्डिक अपने ही विचार में डूबता उत्तराता अपने ३५० शिष्यों सहित विपुलाचलपर स्थित महावीर के समवशरणमें सम्मिलित हुआ। जैसे ही वह समयशरणके निकट पहुंचा कि उसके मनमें एक जोरका झटका लगा। ज्ञानका सारादम्म घुसा हो गया हो गये और सम्यक्त्वसूर्यका उदय हो गया । जो मण्डिक कुछ क्षण पूर्व महावीरकी आलोचना कर रहा या वही उनका स्तवन करने लगा। वह स्वरचित स्तोत्र पढ़ता जाता था और afest विह्वलताके कारण उसके राग-द्वेष घुलते जा रहे थे। भक्ति-गंगामें स्नान करते ही उसको अन्तरात्मा पवित्र हो गयी और वह दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करनेके लिये उत्सुक हो उठा ।
५० वर्ष की अवस्था में मण्डिकने उद्बोधन प्राप्त किया और सोयंकर महावीरके पादभूलमें स्थित होकर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। अब मण्डिक वह मण्डिक नहीं रहा, जिसे अपने तर्क और ज्ञानका अहंकार था । आत्माकं मृदुल होते ही अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार और मिथ्यात्व, सभ्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन दर्शनमोहनीय इस प्रकार सात कर्म प्रकृतियों के क्षय होते ही मण्ठिक में परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक था । मण्डिकने छठे गणधरका पद प्राप्त किया ।
मौर्यपुत्र: सम्यक्त्वलाभ
तीर्थंकर महावीरके सप्तम गणधर का नाम मौयं पुत्र है। ये मौर्यपुत्र काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिताका नाम मौर्य और माताका नाम विजयादेवी था । ये मौयं सन्निवेशग्रामवासी थे ।
मीयं पुत्र भी ३५० छात्रोंके अध्यापक थे और आर्य सोमिलके आमंत्रणपर मध्यमा पावामें पधारे थे । इन्हें परलोक, पुनर्जन्म आदिके सम्बन्धमें सन्देह था। अतएव अग्निभूति, इन्द्रभूति आदिको दीक्षाका समाचार ज्ञात कर ये भी तीर्थंकर महावीर के समवशरण में सम्मिलित हुए। महावीरके समवशरण के दर्शन करते हो इनकी आत्मा में सम्यक्त्वको लहर उत्पन्न हो गयी। ये सोचने लगे- "यह मानव जीवन क्या है ? इस विश्व में तो मत्स्यन्याय चल रहा है। जैसे समुद्रमें बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाती है, उसी प्रकार यहाँ भी शक्तिशाली मनुष्य निर्बलको आक्रान्त कर देता है। जाति-पातिका बन्धन भी कम नहीं है । ब्राह्मणको अपनी विद्या और जातिका अभिमान है । भजन- भोजन एवं पठनपाठनपर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया है। वेदय वाणिज्यपर अपना अधिकार मानता है और जैसे-तैसे धन संचय करना ही अपना अधिकार समझता है । क्षत्रिय कुमार पर पीड़ा देने में हो आनन्दानुभूति करते हैं। शूद्रजाति सब ओरसे १९४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्रताड़ित हो रही है । बारमामें प्रज्वलित होती हुई ज्योतिका कोई अनुभव नहीं करता है । प्रत्येक आत्मा प्रयत्न करनेपर परमात्मा बन सकती है। अम्मसे व्यक्ति ऊंच-नीच नहीं होता, यह तो आचारपर निर्धारित है। अतः में तोथंकर महावीरकी शरणमें आकर मोटा करूगा इस बात को लिये सम्म कोई श्रेयस्कर कार्य नहीं है। उसका रोम-रोम पुलकित होने लगा और भोगोपभोगोंका त्याग करनेके लिये वह कृतसंकल्प हो गया।
राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकार उसके छूटने लगे । "आत्मा अपने में अनन्तज्ञानादि गणोंकी झलक पाकर अपने वास्तविक स्वरूपको अनुभव करे और अपने सप्तप्रयत्नों द्वारा कर्म-कलंकसे छूटनेका प्रयास करे, तो उसका परमात्मा बन जाना कठिन नहीं है।"
"यह आत्मा शरीरादि अजीवसत्त्वोंसे मिन्न है। शान-दर्शन, सुख और वीर्य इसके अपने गुण हैं । यह पर-संयोगके कारण कलेशका अनुभव करती है। जहां पर-संयोग छूटता है कि आत्माको शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है। अगणिस शास्त्रोंके पढ़ लेनेपर भी आरमशान प्राप्त नहीं होता है। सम्यग्दर्शनके साथ आत्मामें तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान पैदा होता है।" । ___ इस प्रकार चिन्तन करते हुए मौर्यपुत्रने सम्यक्त्व-लाभ कर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहका स्यागकर ६५ वर्षकी अवस्थामें दिगम्बर-दीक्षा धारण की। भकम्पिक : रिक्त पद्धाको पूर्ति
तीर्थकर महावीरके समवशरणको प्रसिद्धि सर्वत्र फेल गयी थी । विद्वानोंका समूह अपने विद्याके अहंकारको छोड़कर उनकी सभामें उपस्थित होने जा रहा था । अकम्पिक मी अहंकारके पंकसे ऊपर उठकर विपुलाचलकी ओर गया और उसने अष्टम गणधरका पद प्राप्त किया। · अकम्पिक मिथिलाका निवासी गौतम-गोत्रीय ब्राह्मण था। इनकी माताका नाम जयन्ती और पिताका नाम देव था। अकम्पिकके चरणों में बैठकर ३०० छात्र विद्याध्ययन करते थे । आर्य सोमिलके यश-महोत्सवका निमन्त्रण प्रासकर ये भी अपनी छात्र-मण्डलीके साथ मध्यमा पावामें पधारे थे। इनके हृदयमें नरकलोक और नारकी जीवोंके अस्तित्वके सम्बन्धमें शंका चली आ रही थी। जब अकम्पिकको महावीरके प्रभावका परिज्ञान हुआ तो वह भी उनके समवशरणकी ओर चला । उसने जैसे ही मानस्तम्भका दर्शन किया वैसे ही उसका जाति-अईकार नष्ट हो गया और वह आस्माको शाश्वत सत्ताके सम्बन्धमें
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विचारने लगा - "आत्माके गुण निजी सम्पत्ति हैं। वे कहीं बाहरसे नहीं आते । इनकी उपलब्धिका अर्थ इतना ही है कि मिथ्यात्वभावके हटते ही इन गुणोंकी अनुभूति होने लगती है । जैसे सूर्यपरसे मेघका आवरण हटते ही सूर्यका भास्वर प्रकाश व्याप्त हो जाता है, उसी प्रकार आत्माकी विभावपरिणतिके दूर होते ही स्वभावपरिणति उत्पन्न हो जाती है । जब साधकके हृदयमें संसार की आशा और तृष्णाका अन्त हो जाता है, तत् साधकका चित्त सविकल्प- समाधि से निकलकर निर्विकल्प समाधिमें पहुँच जाता है और अपने पूर्व संचित कर्मोकी निर्जरा कर डालता है । यह निर्विकल्प समाधिभाव कहींसे आता नहीं है, यह तो स्वभावका रमण है । अतएव में भी इस अवसरका लाभ उठाकर महावीरके समक्ष दीक्षा ग्रहण कर लूँ ।"
अतएव अम्पिकने समस्त परिग्रहका त्याग कर ४८ वर्ष की अवस्थामें दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण को और अष्टम गणधरका पद प्राप्त किया ।
अचल : मिली साधना
महावीर और उनके प्रमुख शिष्योंके अन्तरंग और बहिरंग-परिग्रह त्यागकी चर्चा सर्वत्र व्याप्त थी । उनकी देशना जीवनके परत खोल रही थी। आत्माकी बद्धता और मुकताका कथन विचारशीलोंको आकृष्ट कर रहा था । अतः अचल भो तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें चलने की तैयारी करने लगा । वह कोशल-निवासी हारीतगोत्रीय ब्राह्मण था । उसकी माताका नाम नन्दा और पिताका नाम वसु था । ३०० छात्र उसके शिष्य थे। क्रियाकाण्ड, यज्ञविधान आदिका वह जाता था । व्यतः सोमिलाके यज्ञोत्सव में सम्मिलित होनेके लिये शिष्य परिवार सहित आया था। इसके मनमें पुण्य पापके अस्तित्व एवं उसके फलाफलके सम्बन्धमें आशंका थी । जीवनकी दृष्टि उलझी हुई थी। वह शरीर, इन्द्रियाँ और मनके विषयोंमें हो बानन्दानुभूति करता था। अनेक परतोंके नीचे दबे हुए जल स्रोतके समान उसकी चेतनाका विशुद्ध अस्तित्व भी विकारोंकी परतोंके नीचे दबा हुआ था। रूप, रस, गन्ध आदि भौतिक स्थितियोंकी अनुभूतिको ही उसने सर्वस्व मान लिया था ।
जब वह तीर्थंकर महावीरके समवशरण में प्रविष्ट हुआ तो राग-द्वेष और इनसे होनेवाली उत्तेजना, घृणा, ईर्ष्या, अहंकार आदि विकृतियां दूर हो गयीं । वह सोचने लगा- "मनपर विकारों, संस्कारों एवं अच्छे-बुरे विचारों की एक सघन तह जमी हुई है । मनके क्षुद्र आँगनमें नाना प्रकारकी विकृतियाँ उपस्थित हैं । विकृतियोंकी यह भीड़ ही शुद्ध चेतनाको प्रकट नहीं होने देती । विकृतियोंका १९६ तीर्थंकर महावीर और उनकी बाधायें-परम्परा
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आवरण ही चेतनाको अनन्तव्योतिको सभी बोरसे मावृत्त किये हुए है। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि अगणित विकृतियोंके भूल बीज हैं- राम और द्वेष | इसी राग-द्वेषसे मुक्त होनेकी दिशामें चेतनाका अपना पुरुषार्थ है । जथ चेतना विकृतियोंसे मुक्त होकर अपने विशुद्ध भूल स्वरूपमें पहुँच जाती है, तो यही परम चेतना बन जाती है। यही परम तत्व है और यही परमात्मा है। अतः परम तत्त्व या परम चैतन्यको प्राप्त करनेको आध्यात्मिक प्रक्रिया दिगम्बरदीक्षा है। यह दीक्षा ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप परम तत्त्वको प्राप्त करने में साधक है । अतएव मुझे दिगम्बर- दीक्षा ग्रहण कर परमात्मपद प्राप्त करनेके लिये प्रयास करना चाहिये । "
अचलने ४६ वर्षकी अवस्थामें तीर्थंकर महावीरके पादमूलमें दिगम्बरदीक्षा ग्रहण की और नवम गणधरका पद पाया ।
मेवार्य : जागा विवेक
मेदायं या मेतार्य वत्सदेशके निवासी और कौण्डिन्यगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनकी माताका नाम वरुणदेवी और पिताका नाम दत्त था । ये ३०० छात्रोंके अध्यापक थे । आर्य सोमिल के निमन्त्रणपर मध्यमा पाचामें पधारे थे । इन्हें I आत्माके पुनर्जन्म और अस्तित्वके सम्बन्धमें आशंका थी । जब अन्य गणधरोंके समान इन्हें भी तीर्थंकर महावीरके समवशरणकी जानकारी प्राप्त हुई, तो ये भी तत्काल ज्ञानके अहंकारकी गठरी बांधे हुए आ पहुंचे और समवशरण में प्रविष्ट होते ही इनके ज्ञानचक्षु खुल गये। ये सोचने लगे- “याशिक-क्रियाकाण्ड आत्माको अमरत्व और शान्ति नहीं दे सकते । पञ्चाग्नि आदि तपश्चरण भी आत्मोपलब्धि में सहायक नहीं हैं । यतः दमनकी साधना यथार्थं सामना नहीं । वृत्तियोंका विवेक ही यथार्थ है । इनका अंघनिग्रह करके उन्हें शुद्ध नहीं बनाया जा सकता है । दमन द्वारा निगृहीत विकार या वृत्तियाँ पिंजड़े में बन्द किये गये भूखे सिंहके समान हैं। जैसे ही अवसर प्राप्त होता है, विकार पुनः उत्तेजित हो जाता है। महानदीकी जलधाराको कितने दिनोंतक बांधा जा सकता है ? अवसर मिलते ही जलधारा बांध तोड़ देती है और संहारलीला उपस्थित हो जाती है। अतएव दमन या पञ्चाग्नि तपके साधनों द्वारा विकारोंको जीता नहीं जा सकता है।"
"आत्मामें तीन प्रकारकी वृत्तियां उत्पन्न होती हैं— अशुभ, शुभ और शुद्ध । घन, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि सम्बन्धी वृत्तियाँ राग-द्वेषका मूल होनेसे अशुभ है । इन अशुभ वृत्तियों की निवृत्ति दमनद्वारा सम्भव नहीं है। शुभ वृत्तियां आत्मायें परिष्कृत रागके कारण उत्पन्न होती हैं और वे आत्माके निकट पहुँचाती हैं । सीकर महावीर और उनकी देशना १९७
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वृत्तियोंका शुद्धिकरण तो राग-द्वेषकी निवृत्तिसे ही होता है। वीतरागता ही आत्माका निजरूप है और इसी स्थितिमें वृत्तियाँ शुद्ध होती हैं। मैं अनादिकालसे जन्म-मरणका दुःख उठा रहा हूँ। अब वीतरागत्ताकी प्राप्तिका अवसर आ चुका है। अतएव मुझे इस अवसरका उपयोग करना आवश्यक है।"
मेदार्यने ३६ वर्षकी अवस्थामै दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण कर महावीरका शिष्यत्व स्वीकार किया। इन्हें दशम गणघरका पद प्राप्त हुआ। प्रभास : पुरुषार्थ-जागरण
तीर्थकर महावीरका युग बहुदेववादका था । तत्कालीन जनजीवन भ्य, एवं प्रलोभनोंसे प्रताडित था | जनता दुःख और विपत्तियोंसे त्राण पानेके लिए देवताओंकीशरणमें जासी की और उन्हें मारनेके दिए यजामुन करतो यो । यक्ष, भूत, राक्षस सभी देवत्वको प्राप्त हो चुके ये आतं मानव उन यक्षों, भूतों, एवं राक्षसोंको प्रसन्न करनेके लिए विभिन्न प्रकारका अनुष्ठान करता था। यज्ञ-बलिकी तो बात ही क्या, शान्ति कमके नामपर मनुष्यों तकका हवन कर दिया जाता था।
मानव अपने पुरुषार्थको भूलकर दिग्भ्रमित हो देवोंसे ऐश्वर्यको भिक्षा मांगता था। धन, ऐश्वर्य, राज्य-शासन, विद्या, पुत्र, स्वास्थ्य आदि सभीकी प्राप्तिके लिए विशिष्ट-विशिष्ट देवोंको अर्चना की जाती थी। पुरुषार्थपर किसीको विश्वास नहीं था। अतः इस युगमें पुरुषार्थ प्राप्तिकी ओर ध्यान देना नितान्त आवश्यक था।
प्रमासने युगका अध्ययन किया और महावीरके समवशरणमें पहुँचनेका संकल्प किया।
यह कौडिन्यगोत्रीय ब्राह्मण था। इनकी माताका नाम अतिभद्रा और पिताका नाम बल था। यह राजगुहका निवासी था। ३०० छात्र उसके शिष्य थे। उसे भी आत्मा और मुखिके विषय में संदेह पा और श्रुति-वाक्योंका अर्थ भी यथार्थ शात नहीं था। महावीरके दर्शनमात्रसे प्रभासका पुरुषार्थ जागृत हो गया और उसने ४६ वर्षको अवस्थामें दिगम्बर दीक्षा स्वीकार की तथा एकादेश गणधरका स्थान प्राप्त किया। प्रथम वेशनास्थल : विपुलाचल
विपुलाचलपर बवसपिणीके चतुर्य कालके अन्तिम भागमें तेतीसवर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहनेपर श्रावण-कृष्णा प्रतिपदाके दिन अभिजित् नक्षत्र में धर्म१९८ : तीर्घकर महावीर बीर उनको आचार्य-परम्परा
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सीकी उत्पत्ति हुई | देव, विद्याधर और मनुष्य तिर्यञ्चोंके मनको प्रसन्न करनेवाला वह विपुलाचल प्रथम देशनाका स्थल होनेके कारण सभीसे वन्दनीय है ।
राजगृह नगर के पूर्व में चतुष्कोण ऋषिशेल, दक्षिणमें बेभार और नैऋत्य दिशामें विपुलाचल पर्वत है। ये दोनों वैभार और विपुलाचल पर्वत त्रिकोण माकृति के हैं। पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशामें फैला हुआ धनुषके आकारका छित्र नामक पर्वत है और ईशान दिशामें पाण्डुपर्वत है । इस प्रकार पांच पर्वतोंसे युक्त होनेके कारण यह पंचशैलपुर कहलाता है ।
षट्खण्डागमकी घवला - टीकामें उद्धृत पथोंके आधारपर पंघ-पहाड़ियोंके क्रमशः नाम ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुलाचल, चन्द्राचल और पाण्डुगिरि आये हैं ।
हरिवंश पुराण में बताया गया है कि पहला पर्वत ऋषिगिरि है। यह पूर्व दिशाकी ओर चौकोर है। इसके चारों ओर झरने निकलते हैं। यह इन्द्रके दिग्गज के समान सभी दिशाओंको सुशोभित करता है ।
दूसरा पर्यंत दक्षिण दिशाकी ओर वैभारगिरि है । यह पर्वत त्रिकोणाकार है। वन और शरनोंसे युक्त है । इसका सौन्दर्य प्राकृतिक दृष्टिसे अपूर्व है ।
तीसरा दक्षिण - परिश्रम के मध्य त्रिकोणाकार विपुलाचल पर्वत है । इसी पर्वतके ऊपर लीकः महायक प्रथम उनवारण हुआ था और यहीं एकादश गणधरोंने भगवान्के पादमूल में दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की थी। विपुलाचल पर्वत अपनी प्राकृतिक शोभा और सौन्दर्यके लिये भी प्रसिद्ध है । १. एत्थावर पिगीए उत्यकालस्य परिमभागम् । तेलीसवास-मडमास - पण्णरस्रदिवस - सम्मि || वासस्स पढममासे साबणणामम्मि बहुलपरिवाए । अभिजीणक्वत्तम्मि व उष्पत्ती धम्मतित्यस्स ॥
-तिलोमसी १२६८-६९.
हम्मिस्से मसप्पिणीए पउत्प- समयस्य पछि भए । पोलीस - पास सेसे किंचि विसेसूणए संते ।। बासस्य पदम - मासे पढमे पक्खम्हि सावणे बहुले । पाविद - पुम्न दिवसे तिस्युप्पत्ती दु भिजिहि ॥
"
- पट्खण्डागम, पथला टीका - समन्वित पु० १ ० ६२-६३. २. सुरक्षेयरमणहरणे गुणणामे पंचसेरूणपरस्मि । वित्तरुम्मि पव्वदवरे वीरभिणो अटुकतारो ॥ बतरस्सो गुम्बा रिसिसेको दाहिणाए बेमारी इरिदिविसाए बिचको दोन्नि तिकोगट्टिदायारा ॥
सोकर महावीर और उनकी देखना : १९९
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चतुर्थ पर्वत बलाहक नामका है । यह धनुषके आकारका तीनों दिशाओंको घेरे हए पोभित है। पांच पाण्डक नामक पर्वत गोलाकार पूर्वोत्तर-मध्यमें है। ये पांचों पर्वत फल-पुष्पोंके समूहसे युक्त हैं। इन पर्वतोंके धनोंमें वासुपूज्य स्वामीको छोड़कर शेष समस्त तीर्थकरोंके समवशरण हुये हैं । ये यन सिद्धक्षेत्र भी हैं और कर्म-निर्जरामें कारण हैं' ।
वर्तमानमें पहला पर्वत विपुलाचल है। इसी विपुलाचलपर तीर्थकर महावीरका प्रथम समवशरण हुमा था । दूसरा रलगिरि है, सोसरा उदगिरि है, चौथा स्वर्णगिरि है और नाचतो वेभ गिरि मा है।
राजगृह के प्राचीन नाम पंचशेलपुर, गिरिव्रण, कुशाग्रयुर, क्षितिप्रतिष्ट आदि मिलते हैं | मगध देशमें अनेक उत्तम भव्य भवनोंसे युक्त राजगह-नगर चासरिन्छो शिण्णो वरुणागिलसोमदिसविभागेसु । ईसाणाए पंडू वण्णा सब्जे कुसम्पपरिपरणा ॥
-सिलोयपणती १६५-६७ पंच-सेल-पुरे रम्मे विसले पम्वदुत्तमे । णाणा-दुम-समारणे देव-दाणव-वंदिवे ॥ महावीरेणत्यो कहिओ भविय-लोयस्स ।
-पटसण्डामम, धवलाटोका-समन्वित, पु. १, पृ०६१. १. पंचशैलपुरं पूतं मुनिसुव्रतजम्ममा ।
यत्परध्वजिनीदुर्ग पञ्चशंसपरिष्कृतम् ॥ ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्रः सनिबरः । दिग्गजेन्द्रं इवेन्द्रस्य :कुकुभं भूषयत्यलम् ।। वैभारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृसिराश्रितः । वशिक्षणापरहिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ॥ सज्य चापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । शोभते पाणुको वृत्त: पूर्वोत्तरदिगम्तरे ॥ फलपुष्पभरानम्रलतापापपशोभिताः । पतनिरिसवातहारिणो गित्यस्तु ते॥ वासुपूज्यजिमाधीशादितरेषां जिनेशिनाम् । सर्वेषां समवस्थानः पावनोखमातराः ॥ तीर्थयात्राणतानेकमव्यसंघनिषेवितः । मानातिशयसम्बद: सियक्षेत्रः पवित्रताः ।।
-हरिवंशपुराम, ११५२-५८. २०० : तीपंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
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है । इस नगरीको वेष्टित किये हुए पाँचशैल हैं, इसीलिए इसे पंचशैलपुर कहा गया है। तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के चार कल्याणक यहीं सम्पन्न हुये थे । जैन साहित्य में राजगृह और विपुलाचलका बड़ा महत्त्व वर्णित है। घवलाटीका, जयघयलाटीका, तिलोयपण्णत्ती, पद्मपुराण, महापुराण, हरिवंशपुराण, जायकुमारचरिठ, जम्बुसामिचरिउ, उत्तरपुराण, बाराधना- कथाकोश, पुष्यास्रव - कथाकोष, मुनिसुव्रतकाव्य, धर्मामृत आदि ग्रन्थोंमें इस नगरीका माहात्म्य वर्णित है ।
राजगृहके साथ जैन पुराणोंकी शताषिक कथाएँ सम्बद्ध हैं। पुरातत्त्वकी दृष्टिसे भी विपुलाचल और राजगृह महत्त्वपूर्ण हैं ।
पहियान (ॐ) देखाएमा वर्णन किया है। वह लिखता है - " नगर से दक्षिण दिशा में चार मील चलनेपर वह उपत्यका मिलती है, जो पांचों पर्वतोंके बीचमें स्थित है। यहाँ पर प्राचीन कालमें सम्राट् बिबसार विद्यमान था । विपुलाचल धार्मिक पवित्रताकी दृष्टिसे प्रसिद्ध है । आज यह नगरी नष्ट-भ्रष्ट है'।"
१८ जनवरी सन् १८११ ई० को बुचनन साहबने इस स्थानका निरीक्षण किया था और इसका वर्णन भी लिखा है । उनसे राजगृह के ब्राह्मणोंने कहा या कि जरासंघके किलेको किसी नास्तिकने बनवाया है-जैन उसे उपश्रेणिक द्वारा बनाया बताते हैं । बुचमन साहबने यह भी लिखा है कि पहले राजगृहपर सुर्भुजका अधिकार था, पश्चात् राजा वसु अधिकारी हुए, जिन्होंने महाराष्ट्रसे चौदह ब्राह्मणोंको लाकर बसाया था । वसुने श्रेणिकके बाद राज्य किया था ।
कनिंघमने लिखा है कि- "प्राचीन राजगृह पांचों पर्वतोंके मध्य में विद्यमान था। मनियारमठ नामक छोटा-सा जैन मन्दिर सन् १७८० ई० का बना हुआ था । मनियारमठके पास एक पुराने कुएँको साफ करते समय इन्हें सीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। इनमें एक मायादेवी की मूर्ति थी, दूसरी सप्तफणमण्डलयुक्त एक नग्न मूर्ति तीर्थंकर पार्श्वनाथकी थी।
एम० ए० स्टीन साहब लिखते हैं- "वैभारगिरिपर जो जैन मन्दिर बने हुए हैं, उनके ऊपरका हिस्सा तो आधुनिक है, किन्तु उनकी चौकी, जिनपर वे बने हुए हैं, प्राचीन हैं ।'
श्रीकाशीप्रसाद जायसवाल ने मनियार मठवाली -पाषाण मूर्तिका लेख पढ़कर
?. Travels of Fa-Hian, Beal (London, 1869) pp. 110-13, २. Buchanan Travels in Patna District, Page 125 - 144. 7. Archacological Survey of India, Vol. 1 ( 1871) PP. 25-26.
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बताया है कि यह लेख पहली शताब्दीका है और उसमें सम्राट् श्रेणिक तथा विपुलाचलका उल्लेख है। ____ झार. डी. बनर्जी ने बताया है कि सातवीं शताब्दीतक विपुलाचल और वैभारगिरिपर जैन स्तूप विद्यमान थे और गुप्तकालकी कई जैन मूर्तियां भी वहाँ हैं। सोनभद्र-गुफामें यद्यपि गुप्तकालीन लेख हैं, पर इस गुफाका निर्माण मौर्यकालके जैन राजाओंने किया था।
विपुलाचल पर्वतके तीन सामग्रेसे मसाले मन्दिर पारस्वासीय श्वेतवर्णकी मूर्ति विराजमान थी, जो गुप्तकालीन अनुमानित है।
द्वितीय रत्नगिरिपर महावीर स्वामीकी श्यामवर्ण-प्रतिमा एवं तृतीय उदयगिरिपर महावीर स्वामीकी खड्गासन-प्रतिमा निश्चयतः गुप्तकालीन है।
संक्षेपमें राजगृहके विपुलाचल पर्वतपर अन्तिम तीर्थंकर महावीरका प्रथम समवशरण लगा था। आज भी सोनभण्डार, मनियार, गौसमवन, सीताकुण्ड आदि स्थान जैन संस्कृतिसे सम्बद्ध हैं।
पुरातत्त्वके अनुसार राजगृह नगरको कुशात्मज वसुने गंगा और सोन नदीके संगमपर बसाया था। महाराज श्रेणिकने पंचपहाडीके मध्यमें नवीन राजगृह नगरको बसाया, जो विभूति और रमणीयतामें अद्वितीय था। जब श्रेणिकके पुत्र अजातशत्रने मगधकी राजधानी चम्पाको बनाया, उस समय किसी कारणवश अग्निदाहसे यह नष्ट हो गया। अतएव संक्षेपमें राजगहके निकट स्थित विपुलाचल पर्वत सीर्थकर महावीरका प्रथम देशनास्थल है। यहींसे धर्मतीर्थका उदय हुआ है। चतुर्विषसंघ-स्थापना
तीर्थंकर महावीरके उपदेशोंसे प्रभावित होकर अनेक राजा-महाराजा, राजकुमार, सार्थवाह, श्रेष्ठि, राजहिषियों, श्रेष्ठिपलियाँ एवं सामान्य नरनारीजन उनके शिष्य बने | इस सम्पूर्ण शिष्य समुदायको महावीरने पतुर्विधसंघमें विभक्त किया था—(१) मुनि, (२) आर्यिका, (३)श्रावक और (४)श्राविका। इस व्यवस्थाको दो भागोंमें भी विभक किया जा सकता है-(१) मुनि और (२) श्रावक ।
संन्यस्त व्यक्तियोंके लिये मुनि और आर्यिका अलग-अलग संघ बनाये गये थे। इसी प्रकार श्रावक-श्राविकाओंके लिये पृषक संघकी व्यवस्था की गयी पो । जो १. Journal of the Bihar and Orissa Rea. Soc. Vol. XXII (June,
1935), २. Indian Historical Quarterly, Vol. xxV, Pages 205-210. २०२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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निर्ग्रन्थ बनकर आत्माका विकास करना चाहता था, वह मुनि-संघका सदस्य बनता और जो घरमें रहकर श्रावकके व्रतोंका आचरण करते हुए आत्मोत्थान करना चाहता था, उसके लिये श्रावक और श्राविका संघकी व्यवस्था थी। तीर्थंकर महावीरके यहाँ जाति और वर्ण व्यवस्था नहीं थी कि भार संघ व्यवस्था थी। जैन मुनियोंके आधार के नियम कठोर थे और वे उन नियमोंका आचरणकर आत्माके ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोंका विकास करते थे । केवली महावीरके संघमें पूर्वधारी ३००, शिक्षक ९९००, अवधिज्ञानी १३००, सर्वऋषिसंख्या ७००, विक्रियाधारी ९००, मन:पर्ययज्ञानी ५००, वादी ४००, १४००० आर्यिका ३६०००, श्रावक १००००० ओर श्राविकाएँ ३००००० थीं । प्रधान लोता — श्रेणिक : समवशरणको शरण
पर
काललब्धि प्राप्त होनेपर मिध्यादृष्टि सहज में ही सम्यग्दृष्टि बन जाता है । श्रेणिक बिम्बसार जैनधर्मका विरोधी था, निग्रन्थ साधुओं की निन्दा और अवमानना करता था । बौद्धधर्मके प्रति उसके हृदयमें अटल श्रद्धा थी, महारानी चेलनाने अपने चातुयंसे उसे महावीरका भक एवं अनुयायी बना दिया । उसकी समस्त अशुभवृत्तियाँ शुभवृत्तियोंके रूपमें परिवर्तित हो गयीं । भौतिकतामें भटकता हुआ उसका मन शान्त हो गया। तीव्र पापाचरणसे बांधी यी सप्तम नरककी आयु खण्डित होने लगी और वह प्रथम नरकको जघन्य आयुके रूपमें परिणत हो गयी । सत्य है कि जीवनमें जब आध्यात्मिक जागृति होती है, तो सभी शुभोपलब्धियां स्वयमेव प्राप्त हो जाती है। एक क्षणके लिए प्राप्त की गयी आध्यात्मिक जागृति भी अनेक जन्मोंको मंगलमय बना देती है । श्रेणिका मोह भंग हुआ और उसकी जीवनधारा परिवर्तित हो गयी। महावीरके समवशरणकी शरणने उसे भावी तीर्थंकर बना दिया |
१. शतानि त्रीणि पूर्वाणां धारिणः शिक्षकाः परे । शुम्यद्वितयरन्धादिरन्त्रोक्ताः सत्यसंयमः ॥ सहस्रमेकं त्रिज्ञान लोचना स्त्रिशताधिकम् । पञ्चमावगमाः समतानि परमेष्ठिनः ॥ शतानि नयविज्ञेया विक्रमविवदिताः । चतुर्दशसहस्राणि पिण्डिताः स्युर्मुनीश्वराः ॥ चन्दनाद्यायिकाः शून्यत्रय वह्निसम्मिताः । भावका लक्षमेकं तु त्रिगुणाः श्राविकास्ततः ॥
- उत्तरपुराण ७४ ३७५-३७९ तिलो० ० ४।११६६-११७६ः
हरि० पु० ६०/४३२-४४०
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मेषिक : वंशपरिचय
ई० पू० छठी शतीमें मगधका शासन शिशुनागवंशीय क्षत्रिय राबाबोंके बाहुओंको छायामें पल रहा था। इसकी उत्पसिके सम्बन्धमें बताया जाता है कि महाभारतयुद्धमें जरासन्धको मृत्युके पएचात् उनके बन्तिम वंशज रिपुञ्जयको मगधका शासनभार प्राप्त हा ।इसके मन्त्री शुकनदेवने वि० सं० पूर्व ६७७ (ई. पू. ६१०) में इसे मार डाला और अपने पुत्र प्रद्योतनको मगधका राजा नियुक्त किया। इस वंशमें वि० सं० ६७७-५८५ (ई० पू० ६१०-५२८) पूर्व तक पालम, विशाखाभूप, जनक और नन्दिवर्द्धनने राज्य किया। अनन्तर इस वंशका पाँचवाँ राजा शिशुनाग हुआ | यह पराक्रमी, प्रतापी, साहसी और शूरवीर था, अतएव इसोके नामपर इस वंशका नाम शिशुनागवंश प्रसिद हुआ । ई०पू० ६४२-४८० तक शिशुनाग, कामवर्ण, कर्मक्षेपण, अपणिक, श्रेणिक या बिम्बसार, कूणिक या अजातशत्र, हर्षक, उदयाश्व, नन्दिवर्षन और महानमि ये दस राजा हुए। ___ उपश्रेणिकके पुत्रका नाम श्रेणिक बिम्बसार था। इसका जन्म ई० पू० ६०१ में हुआ था । उपत्रेणिक मगष-जनपदके राजा थे। राजमूह इनको राजपानी थी । मगधके समीपवत्तों चन्द्रपुरके राजा सोमशमांका उपश्रॉणक साथ युद्ध हुवा और उपणिकने उसे युबमें परास्तकर अपने सम्यकी वृद्धि की । उपणिकको पट्टरानीका नाम इन्द्राणी था । श्रेणिकका जन्म इसीकी कुक्षिसे हुआ था।'
श्रेणिकका बचपन सुखके रंगीन पलकोंमें बसा था। इन्हें बचपनमें मातापिता दोनोंका ही प्यार मिला था। थेणिककी बुद्धिकी प्रशंसा प्रत्येक व्यक्ति करता था । वह असाधारण गुणोंका आगार था । बालक श्रेणिकको विद्यारम्भ कराया गया। उसने अपनी कुशाग्रबुद्धिके कारण पोड़े ही समयमें समस्त विद्याओं, कलाओं और शस्त्र-संचालनमें प्रवीणता प्राप्त कर ली। श्रेणिकमें दान देनेको संस्कारगत प्रवृत्ति थी।
उपश्रेणिकको श्रेणिकके अतिरिक्त अन्य पुत्र भी थे। महाराज उपत्रेणिकने चिलातीपुत्रको राज्य देनेका पहले ही वचन दे दिया था, परन्तु इस समय इन्हें चिन्ता उत्पन्न हुई कि सब पुत्रोंमें सच्चा राज्याधिकारी कौन है ? अतः उन्होंने एक ज्योतिषीको बुलाकर पूछा-"मेरे पुत्रोंमें मेरे राज्यका अधिकारी कौन होगा ?
ज्योतिषीने कहा कि-"महाराज आप अपने पुत्रोंको परीक्षा करें, जो अधिक १. श्रेणिकरित, पृ० १८-३२. २०४ : सीपंकर महावीर और उनकी बाधार्य-परम्परा
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बुद्धिमान और योग्य हो, उसे ही राज्याधिकारी बनाइये” । परीक्षा निम्न प्रकारसे ली जा सकती है :
१. आप एक चीनो भरा हुआ घड़ा पुत्रको दीजिए, जो घड़े को सेवकके सिरपर रखवाकर सिंहद्वारपर रख आये और स्वयं क्रीडा करता हुआ पीछेकी ओर से निकल आये, वहीं मगधका स्वामी होगा ।
२. प्रत्येक पुत्रको एक नवीन घड़ा दीजिए, जो घड़ेको ओससे भर दे, वही मगधका शासक होगा ।
३. सभी पुत्रोंको एक साथ भोजन कराइये, वे जब भोजनमें लीन हों, एक खूंखार कुतेको छोड़ दीजिए। जो पुत्र निर्भय होकर भोजन करता रहे और कुत्तेको भी खिलाता रहे, वही राजा होगा ।
४. जिस समय नगर में आग लगे, उस समय जो पुत्र सिरपर क्षेत्र, चमर धारणकर निकले, वही पुत्र मगधका भावी सम्राट् होगा ।
५. भोजन और जलसे परिपूर्ण वर्त्तन दोजिए, जो पुत्र इन वर्तनोंका मुँह खोले विना ही भोजन और जल ग्रहण कर ले, वही मगधका अधिकारी होगा ।
उपश्रेणिकने उपर्युक्त रूपोंमें अपने सभी पुत्रोंकी परीक्षा की। कुमार श्रेणिक अपनी अद्भुत प्रतिभाके कारण सभी परीक्षाओंमें सफल हुए । उन्होंने घड़ेको ओससे भर दिया। एक मोटा वस्त्र लेकर जिस स्थानकी घास भींगी हुई थी, उस वस्त्रको उस घासपर रखकर कई बार घुमाया और मींगे हुए वस्त्रका जल घड़े में निचोड़ दिया। इस प्रकार कुछ ही घंटोंमें भससे घड़ेको भर दिया ।
भोजन करते समय खूंखार कुत्तेके आनेसे अन्य पुत्र तो भाग गये, पर श्र ेणिकने अपनी थाली मेंसे कुछ भाजन कुत्तेके सामने भी रख दिया, जिससे कुत्ता शांत होकर भोजन करता रहा ! कुमार श्रेणिक भी निश्चिन्त होकर भोजन करता रहा ।
इस प्रकार श्रेणिक बिम्बसार अपनी अद्भुत मेधाके कारण सभी परीक्षाओंमें सफल हुए, जिससे उपक्ष निकने यह निश्चयकर लिया कि मगधका भावी सम्राट् श्रेणिक हो होगा। पर उपश्रेणिक वचनबद्ध होनेके कारण अशांत था । वह सोच रहा था कि मैंने चिलातीपुत्रको राज्य देनेका संकल्प किया है । मेरा यह संकल्प कैसे पूरा होगा ? श्रेणिकके रहते हुए चिलातीपुत्र राजा नहीं हो सकता है । अतएव श्रेणिकका मगधसे निष्कासन आवश्यक है । उपश्रेणिकने श्रेणिकको मगध छोड़कर चले जानेका आदेश दिया । कुमार तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना २०५
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श्रेणिक राजगृह छोड़कर नन्दग्राम पहुँचा और यहाँ अपनी विद्या-बुद्धिके प्रभावसे आजीविका अर्जित करने लगा। इसकी विद्वत्ता और प्रतिभासे सोमशर्मा ब्राह्मणकी पुत्री नन्दश्री अत्यन्त माकृष्ट हुईं और श्रेणिकके साथ पाणिग्रहण करनेका अभि
श्रेणिकका विवाह नन्दीके साथ सम्पन्न हो गया और इसीसे अभयकुमार नामक बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ। इस नगर में श्रेणिकने राजा वसुपालके हाथीको निर्मदकर वशमें किया, जिससे राजा अत्यधिक प्रसन्न हुबा । श्रेणिकके परामर्शसे राजाने सात दिनों तक अहिंसा धर्मके पालन करनेकी घोषणा की और हिंसाको बन्द कर दिया ।
उपश्रेणिने अपने संकल्पानुसार चिलातीपुत्रको मगधका शासक नियत किया, पर चिलातीपुत्र अपनी योग्यताओं और असमर्थताओंके कारण राज्यसंचालन में असमर्थ रहा। उपश्रेणिककी मृत्युके अनन्तर चिलातीपुत्रने प्रजापर अत्याचार करना आरम्भ किया, जिससे प्रजा " त्राहि', 'त्राहि करने लगी । मन्त्रियोंने राज्यकी दुरवस्थापर विचार किया और निश्चय किया कि चिलातीपुत्रसे राज्य नहीं चल सकता है। अतएव श्रेणिक की तलाश करनी चाहिए। शिशुनागवंशमें श्रेणिक बिम्बसार ही ऐसा योग्य व्यक्ति है, जो मगघ - शासनको सुदृढ़ कर सकता है । फलतः श्रेणकको ढूँढ़कर मगधमें लाया गया और ई० पू० ५७९ में इसका राज्याभिषेक सम्पन्न हुआ ।
चिलातीपुत्र स्वयं ही राज्यभार छोड़कर चला गया और वैभारगिरिपर मुनियोंके निकट पहुँचा और वहाँ दिगम्बरी-दीक्षा ग्रहण कर ली। उसने घोर तपश्चरण कर सर्वार्थसिद्धि विमान प्राप्त किया ।
श्रेणिकने मगध-शासक बन राज्यका विस्तार किया और ई० पू० ५५९ में इसने अपना प्रधानमन्त्री अभयकुमारको नियत किया । केरलनरेश मृगांकने अपनी कन्या विलासवतीका विवाह श्रेणिक बिम्बसार के साथ सम्पन्न किया ।
बिम्बसारका एक अन्य विवाह वंशालीके राजा चेटककी पुत्री चेलना के साथ भी सम्पन्न हुआ, जिससे इनके धार्मिक जीवनमें आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ ।
बिम्बसार के साथ चेलनाका विवाह भी एक घटना है। कहा जाता है कि भरत नामक चित्रकार चेटककी पुत्री चेलनाका सुन्दर चित्र अंकितकर राजगृहमें उपस्थित हुआ । बिम्बसार चित्रके दर्शनमात्रसे मन्त्रमुग्ध हो, चित्राङ्कित नारी चेलनाको प्राप्त करनेके लिए उत्कंठित हो गया । बिम्बसार मगध छोड़नेके अनन्तर बौद्धधर्म में दीक्षित हो गया था और इसी धर्मका वह पक्का श्रद्धालु था । चेटकी यह् प्रतिज्ञा थी कि चह 'साधमके साथ ही अपनी कन्याका विवाह
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करेगा । निम्बसार बौद्धधर्मानुयायी था। किन्तु चेतनाके साथ विवाह करनेके लिए वह छलसे जैन धर्मानुयायी बन गया । फलतः 'चेटकने चेलनाका विधाह विम्बसार के साथ ई०पू० ५५८ में कर दिया ।
जब चलता राजगृह में आयी तो बिम्बसारको जैनधर्मद्वेषी और बौद्धधर्मका अनुयायी शालकर उसे आन्तरिक वेदना हुई। वह सोचने लगी- "वह नारी क्या, जो अपने जावन-साथीको अनुकूल नहीं बना सकती ? जो कार्य अस्त्रशस्त्रोंसे सम्पन्न नहीं होते, वे बुद्धिद्वारा सम्पन्न हो जाते हैं । मैं अपनी सेवा, त्याग और तपश्चर्या द्वारा बिम्बसारके हृदयको परिवर्तित कर दूंगी।"
चेलनासे ई० पू० ५५७ मार्चमें अजातशत्रु या कुणिकका जन्म हुआ। वह बड़ा तेजस्वी और प्रतापी था। बड़ा होनेपर ई० पू० ५३५ में वह चम्पाका शासक नियुक्त हुआ और षड्यन्त्रद्वारा श्रेणिकको बन्दीगृहमें बन्दी बनाकर ई० पू० ५२६-५०३ में मगधका शासक बना |
श्रेणिक : मिथ्यात्व तिमिरका ध्वंस : सम्यक्त्वका प्रकाश
बिम्बसारको बौद्धधर्मका अहंकार था और वह जैन साधुओं को कष्ट पहुँचानेमें आनन्दका अनुभव करता था। एक दिन पाँच सौ शिकारी कुत्तोंको लेकर एक वनमें आखेटके लिए गया । वहाँ उसे एक साधु ध्यान-संलग्न दिखाई पड़ा । वह जैन साधु थे और नाम था यमघर । बिम्बसारके मनमें जैन साधुओं के प्रति पहलेसे ही द्वेषाग्नि प्रज्वलित थी । यमधरको देखते ही उसका क्रोध बढ़ गया । उसने अपने सभी कुत्तोंको संकेत किया और वे यमधरकी ओर झपटे। पर यमवर वीतराग थे, उन्हें किसीसे राग-द्वेष क्या ? वे अपने कर्मावरणको तोड़तेमें सचेष्ट थे । उनको वीतरागताकी साधना उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी । वे गम्भीरतापूर्वक अपने आत्म-निरीक्षण में रत थे !
शिकारी कुत्तोंके झपटने पर भी वह अपने स्थानपर हिमालयकी भाँति अडिग थे । उनके ऊपर न किसीका भय था और न आतंक हो । निर्भय होकर ध्यान में लीन थे । महान् आश्चर्यकी घटना घटित हुई कि शिकारी कुत्ते यमधर के पास पहुँचकर पूँछ हिला-हिलाकर धरतीपर लोटने लगे । यमधरकी अहिंसा और क्षमाशीलता के समक्ष शिकारी कुत्ते भी सरल सीधे हो गये । उनके हृदय में विषके स्थानपर अमृत उत्पन्न हो गया। वे अपनी खूंखारतर भूल गये तथा मुनिके चरणों में नतमस्तक हो गये ।
बिम्बसार ने इस घटनाको विस्मयकी दृष्टिसे देखा, पर क्षमा और शांति के स्थानपर उसके हृदय में मुनिराजके प्रति द्वेषाग्नि और अधिक उद्दीप्त हो गयी । वह मन ही मन सोचने लगा कि यह साधु अवश्य ही मायावी है। इसने मांगा करके
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शिकारी कुत्तोंको अपने देशमें कर लिया है। अब में इसकी खबर लिये बिना नहीं भानुंगा
इस प्रकार बिचारकर बिम्बसारने तरकसे बराण निकाला और यमघर मुनिपर चलाना आरम्भ किया। पर यहाँ भी अत्यन्त विश्मयकारी घटना घटित हुई । बिम्बसारके बाण धमवर मुनिराज तक पहुंचते ही नहीं थे। बलपूर्वक चलाये गये बाण भी उनको प्रदक्षिणा देकर वापस लौट जाते। बाणोसे मुनिराजकी कुछ भी हानि नहीं हुई ।
इस घटना से बिम्बसारका मन कोपज्वालासे जल उठा । उसकी द्वेषाग्नि और अधिक भभक उठी। अतएव उसने एक मृत सर्प यमधर मुनिके गले में डाल दिया । सर्पके पद भी मुनिराज पहले समान ही गम्भीर और बटल बने रहे ।
बिम्बसार जब लौटकर अपने राजभवन में पहुंचा, तो उसने बड़े गर्व के साथ राजमहिषी चेलनाको बतलाया कि आज उन्हें किस प्रकार एक मुनिका दर्शन हुआ । अपने शिकारी कुत्तोंको छोड़ा, पर वे मुनिकी प्रदक्षिणा कर शान्त हो गये । मुनिको आहत करनेके लिए उसने बाण चलाये, पर वे भी विफल हो गये । जब मुनिको प्रत्यक्ष रूपसे किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचा सका तो मृतसर्प उनके गले में डालकर वहांसे वापस चला आया । राजमहिषी चेलनासे अहंकारपूर्वक उक्त बातें कहते हुए वे बोले-''देवी ! लगता है कि तुम्हारा गुरु बड़ा मायावी या मान्त्रिक है। उसने कुत्तोंको तो वशमें कर ही लिया, मेरे बाणोंको भो असफल कर दिया । "
राजमहिषी चलना - "स्वामिन्! अहिंसा की पूर्ण साधना करनेवाले जैन भुनि वीतराग होते हैं। राग-द्वेषसे रहित होने के कारण उनके समक्ष हिंसाकी क्रियाएं असफल हो जाती है। शरीरसे ममत्वका त्याग करनेके कारण ये समदर्शी होते हैं । भापने इन्हें दुःख देकर बड़ा पाप किया है। आपको अपने बुरे आचरण के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
बिम्बसारने राजमहिषी चेलनाकी बातोंको हँसीमें उड़ा देना चाहा; पर जब चेलनाने अपने तर्कों द्वारा राजाको प्रभावित किया तो उन्हें मुनिराज यमघरको सेवामें उपस्थित होने के लिए बाध्य होना पड़ा ।
यमघर ध्यानमें संलग्न थे। उनके मुँहपर दिव्य तेजकी छटा विद्यमान थी । शरीरपर लाखों चींटियां चढ़ी हुई थीं। चींटियोंने काट-काटकर उनके शरीरको क्षत-विक्षत कर दिया । किन्तु शरीर से इतने अनासक्त थे कि उन्हें इस वेदनाका तनिक भी अनुभव नहीं हो रहा था । उनकी चेतना अखण्ड अनन्त आनन्दसे परिपूर्ण थी । उनके आध्यात्मिक विकासके समक्ष भौतिक विकास
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नगण्य और श्रीहीन थे । संयमको साधनाने उनकी आत्मामें अपूर्व सेब उत्पन्न कर दिया था।
भुनिराजको चींटियोके उपसर्गसे आक्रान्त देखकर चेलनाकी आंखें सजल हो उठी। उसने अपने हाथोंसे यमधरके शरीरपर बढ़ी हुई चोटियोंको हटाया और उनके शरोरपर चन्दनका लेप किया। उपसर्गके दूर होते ही मुनिने आंखें खोल दी। बिम्बसार अपनी राजमहिषी चेलनाके सामने खड़े थे। मुनिने एक साथ दोनोंको धर्मवृद्धिका आशीर्वाद दिया; अतः उनकी दृटिसे उपकार और अपार मारलेवारगेई कार नहीं था।
मुनिराजके इस व्यवहारसे बिम्बसार बहुत प्रभावित हुए। उनके हृदयकी ग्रन्थि खुल गयी । हृदय परिवत्तित हो गया। प्रतिहिंसाकी अग्नि शान्त हो गयी और अजित मिथ्यात्व विगलित होने लगा। भात्म-कल्याणका दुवर्षे माग दृष्टिगोचर होने लगा । जीवनका मंगलघट आत्मसौरभसे भरने लगा। बिम्बसारको आज ऐसा अनुभव हआ-मानो उसका नया जन्म हआ हो। उनका अभानतम ढल चुका था और सच्चे ज्ञानकी किरणें फूट रही थीं। उनके जीवनके इतिहासमें यह घड़ी सदा अविस्मरणीय रहेगी।
मंगल-प्रभातका दर्शन होते ही बिम्बसारकी आत्मा मृदुल हो गयी और उसमें उपदेश ग्रहण करनेका पात्रत्व विकसित हो गया। यमघर मुनि कहने लगे"वत्स! यह संसार नाशवान है, शरीर क्षणस्थायी है, आत्मा अजर-अमर है। जो यनन्त चैतन्यको प्रबुद्ध करनेकी साधना करता है, उसीका मानव-शरीर प्राप्त करना सार्थक है । जीवनमें कुछ ऐसे प्रसंग आते हैं, जो जीवनको धाराको मोड़ देते हैं । अतएव अब तुम तोश्रीकर महावीरके समवशरणमें जाओ । वह समवशरण विपुलाचलपर स्थित है।"
महावीरके दर्शन-मात्रसे बिम्बसारका जीवन कृतार्थ हो गया । वह महावीरके उपदेशोंका प्रमुख श्रोता था। उसने साठ हजार जोवन और जगत्सम्बन्धी प्रश्न पूछे, जिनका महावीरने उत्तर देकर श्रोणिकको सन्तुष्ट किया । इतिहासकारोंको दृष्टिमें श्रेणिक ___इतिहासकारोंने श्रेणिकका उल्लेख बिम्बसारके नामसे किया है। बौद्धग्रन्थोंमें भी श्रेणिकका विस्तृत जीवन-परिचय प्राप्त होता है। बताया गया कि २२ वर्षको अवस्थासे ५२ वर्ष तक श्रेणिकने राज्य-शासन किया था। गिलगिटसे प्राप्त मैन्युस्क्रिप्टमें श्रेणिकका उल्लेख है ।' बौद्धसाहित्यमें थेणिक
१. वीपवंश ३-५६-१०
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का वृत्त उसी अवस्था तक है। जब तक वह मौवधर्मावलम्बी रहा था। जैनधर्मको ग्रहण करनेके पश्चात्की घटनाओंका उल्लेख बौद्धसाहित्यमें नहीं मिलता है ।
सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ विसेन्ट स्मियने 'ऑक्स फोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया' में श्रोणिकका निर्दश किया है तथा इनके राज्य-विस्तारका भी वर्णन दिया है।' श्रीकाशीप्रसाद जायसवालने बिहार रिसर्च सोसाइटीके जर्नल भाग एकमें बताया है कि श्रेणिकका राज्यकाल ५१ वर्षका था। कौशाम्बीके परन्सप शतानीक और श्रावस्तीके प्रसेनषित इनके समकालीन राजा थे। श्रीजयचन्द्र विद्यालंकारने अपने 'भारतीय इतिहासकी रूपरेखा' प्रन्यमें श्रेणिकका विशेष वर्णन किया है। इन्होंने बौद्ध एवं जैन ग्रन्थोंके आधारपर मगध साम्राज्यका सर्वप्रथम शासक श्रेणिकको ही स्वीकार किया है। बताया गया है कि चेटक, बिम्बसार आदि राजाओंके समकालीन महात्मा बुद्ध थे। श्रेणिकका उत्तराधिकारी अजातशत्रु हुमा, जिसने अपने राज्यका बहुत विस्तार किया । ___डॉ० रमाशंकर त्रिपाठीने लिखा है-"बिम्बसार एक सामान्य सामन्त भट्टियका पुत्र था और उसका विरुद सेनिय अथवा श्रेणिक था। पहले तो उसकी राजधानी भी प्राचीन गिरिधाशमा बादरें जगले पो नासाको सदि राजधानी बसाकर उसने उसका 'रामगृह' नाम सार्थक किया। विम्बसारने आरम्भमें अपने प्रभावको वैवाहिक सम्बन्धोंकी नीतिसे बढ़ाया। उसकी प्रधान महिषी कोशलदेवी राजा 'पसेनदि'की भगिनी थी; दूसरी रानी चेलना विख्यात लिच्छवि राजा 'चेटक' की कन्या थी और सीसरी रानी क्षेमा मद्र (मध्य पंजाब) की राजकुमारी थी। इन विवाहोंसे न केवल बिम्बसारका समसामयिक राजकुलोपर प्रभाव विदित होता है, वरन् यह भी सत्य है कि इन्होंकी पृष्ठभूमिपर मगधके प्रसारको अट्टालिका रूड़ी हुई । उदाहरणतः केवल कोशलदेवीके विवाहदहेजमें ही काशीको एक लाखकी वार्षिक आय मगधको प्राप्त हुई । बिम्बसारने अपनी विजयोंसे भी राज्यका विस्तार किया। अंगके राजा ब्रह्मदत्तको परास्त कर उसके जनपद-राज्यको मगधमें मिला लिया" । श्रेणिक : प्रधान घोता
तीर्थकर महाबीरके समवशरणका वैभव अनिर्वचनीय था। मुनिराज यमघरके उपदेशसे और महारानी चलनाके कार्यों द्वारा हृदय परिवर्तित होनेसे श्रेणिक विपुलाचलपर स्थित समवशरण में प्रधान श्रोता थे। वे इन्द्र द्वारा लाये गये
? »xford History of India P. 45. २ Journal of Bihar Research Society VIP.J14.
३ प्राचीन भारतका इतिहास, सन् १९५६, बनारस, पृ०७३-७४. २१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्पर।
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इन्द्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति, आदिको अध्यर्थना हेतु उपस्थित थे । वज्जि और लिच्छवी राजा भी समवशरणमें श्रोताके रूपमें उपस्थित थे । चारों ओर हर्ष और उल्लासकी लहर व्याप्त थी । यों तो समवशरणकी व्यवस्था हो ऐसी थी कि सभी श्रोता जीव-जन्तु अपने-अपने नियत स्थानपर बैठते चले जा रहे थे। पर महाराज श्रेणिक अपनी ओपचारिकता प्रदर्शित करनेके लिये सभीकी भावभीनी अभ्यर्थना करते हुए यथास्थान बैठनेका निवेदन कर रहे थे ।
श्रोणिक युगविभूति तीर्थंकर महावीरके प्रति अपनी अपार भक्ति दिखला रहे थे | इस समय श्रमिकको देखकर ऐसा तनिक भी आभास नहीं होता था कि ये कभी दृष्टि रहे हैं । श्र णिकके हृदय में भक्ति के साथ आत्म-चिन्तनकी आकुलता भी समाहित थी। उनके मन में त्रिषष्टिशलाका-पुरुषोंके जीवनवृत्तको अवगत करने की प्रबल इच्छा थी । अतएव उन्होंने समवशरण में त्रिषष्टिशलाका-पुरुषोंके चरितको ज्ञात करने की इच्छा व्यक्त की। आज जितने जेन पुराण उपलब्ध हैं, वे सभी श्रेणिकके प्रश्नोंके उत्तरके रूपमें ग्रथित किये गये हैं । समवशरणमें यों तो सभी श्रोताओंको प्रश्न करनेका अधिकार था, पर श्रेणिकको यह अधिकार सबसे अधिक प्राप्त था 1 जिस प्रकार इन्द्रभूति गौतमको महावीरके पट्टगणधर होनेका सौभाग्य प्राप्त है, उसी प्रकार श्रेणिकको प्रधान श्रोता होनेका गौरव उपलब्ध है ।
समवशरण में दिव्यध्वनि के प्रादुर्भावहेतु गौतम गणधर जैसे व्याख्याताकी आवश्यकता थी, उसी प्रकार जनहित के लिये थे कि जैसे प्रश्नकर्ताकी भी । तीर्थंकर महावीरके उपदेश जनकल्याणके हेतु सरल और सुबोध शैलीमें होते थे । उनमें न आडम्बर था, न ढकोसला था, न दुराव था, न कोई छल-कपट ही । रोहा : बबला जीवन एक प्रवचनने
रोहाका पिता मृत्युशय्यापर पड़ा है। वह अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा है । पर न मालूम किस आशामें उसके प्राण अटके हुए हैं। रोहा पिताकी सेवा में उपस्थित हुआ और करबद्ध प्रार्थना करता हुआ कहने लगा- पूज्य तात ! आपकी अन्तिम इच्छा क्या है ? पुत्रका कर्त्तव्य है कि वह पिताकी इच्छाओंको पूर्ण करे | अतएव में आपकी अन्तिम इच्छाको पूर्ण करनेके लिये प्रस्तुत हूँ ।" पिता -- " वत्स ! में तो कुछ ही क्षणोंका मेहमान हूँ, पर तुझे मेरी अन्तिम इच्छा पूर्ण करनी है ।"
रोहा - "तात ! शीघ्र आज्ञा दीजिये। मैं सभी तरहसे तैयार हूँ ।"
पिता - " वत्स ! तीर्थंकर महावीर नामका एक अद्भुत जादूगर है। उसकी वाणीका प्रभाव विचित्र रूपमें पड़ता है । वह सदाचार, धर्म और ज्ञानका उपदेश देता है, उसके उपदेशने मेरे कितने ही साथियोंके हृदय परिवर्तित कर
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दिये हैं। वे चौर-कर्म छोड़कर सद्गृहस्थका जीवन व्यतीत करने लगे हैं । अतएव तुम तीर्थंकर महावीरका उपदेश सुननेके लिये कभी मत जाना और जिस रास्ते में उनकी समवशरण सभा जुटी हो, उस रास्ते से भी अलग रहना !"
रोहा - "पूज्यचरण ! आपकी आज्ञा स्वीकार है ।"
पिताको मृत्युके अनन्तर रोहा अपने पैतृक व्यवसाय चीर्य-कर्मको सुचारु रूपसे सम्पादित करने लगा। एक दिन वह किसी गाँवसे चोरी करके लोट रहा था कि मार्ग में तीर्थंकर महावीरका समवशरण दृष्टिगोचर हुआ । वह सोचने लगा-' - "कोई दूसरा मार्ग भी नहीं है। में कहाँ आकर फँस गया हूँ । दिव्यध्वनिका एक भी शब्द सुनायी न पड़े, इस उद्देश्यसे उसने अपने कान बन्द कर लिये और तेजी से दौड़ने लगा। दौड़ता हुआ जब वह समवशरण के समीप पहुँचा, तो उसके पैरमें एक काँटा गड़ गया । अब तो उसका चलता ही बन्द हो गया | अतः कानोंपरसे हाथ हटाकर काँटा निकालने लगा । इसी समय तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनि द्वारा देवलोकका वर्णन किया जा रहा था - "देवोंकी प्रतिच्छाया नहीं पड़ती। उनके नेत्रोंके पलक नहीं गिरते । वे धरतीपर पाँव नहीं रखते । चार अंगुल ऊपर आकाशमें ही चलते हैं । उनकी पुष्पमाला म्लान नहीं होती ।"
विना इच्छा के रोहाके कानोंमें ये प्रवचन प्रविष्ट हो गये और वह इन प्रवचनोंको भूलनेके लिये नाना प्रकारकी गालियाँ बकने लगा । किन्तु संसारका यह नियम है कि जिस बातको भूलने का प्रयास किया जाता है, वह बात और अधिक याद आती है। रोहाने भी महावीरके प्रवचनोंको भूलने का पूरा प्रयास किया, पर वह उन्हें भूल न सका ।
रोहाके चौर्य-कृत्योंसे राजगृह निवासी बहुत तंग हो गये थे। चोरीसे परेशान नागरिकोंने सम्राट् श्रेणिक के समक्ष प्रार्थना प्रस्तुत की और श्रेणिकने मंत्री अभयकुमारको चोरको पकड़ने और उचित दण्ड देनेका अधिकार दे दिया। अभयकुमारने गुप्तरूपसे चोरोंके अड्डोंका निरीक्षण किया और चन्द्रसेना नामक वैश्याको चोरके पकड़ने के लिये षड्यन्त्रहेतु तैयार किया ।
रोहा वेश्यागमन के हेतु चन्द्रसेना के यहाँ गया । चन्द्रसेना रोहाकी भाव-भंगिमासे समझ गयी कि यह चोर है। अतः उसने मदिरा पान द्वारा रोहाको बेहोश कर अभयकुमारको सूचना दी। अभयकुमार के आदेशानुसार, रोहाके रहस्यका पता लगानेके लिये उसे एक सुवासित भवनमें सुला दिया गया और उसके चारों ओर चार सुन्दरियाँ दिव्य वस्त्रालंकार धारणकर खड़ी हो गयीं। जब रोहाकी मूर्च्छा दूर हुई, तो अपनेको एक सज्जित, सुवासित और दिव्यभवन में प्राप्तकर उसे आश्चर्य हुआ । वे चारों सुन्दरियाँ हाथ
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जोड़कर कहने लगी- "यह स्वर्ग है और हमलोग देवाङ्गनाएं हैं। आपकी सेवाके लिये प्रस्तुत हुई हैं।"
रोहा सोचने लगा- "तीर्थंकर महावीरने बतलाया था कि देवांगनाओोंकी प्रतिच्छाया नहीं पड़ती । नेत्रोंके पलक नहीं झपकते । धरतीपर पाँव नहीं पड़ते । पर इन सुन्दरियों में ये लक्षण नहीं घटित हो रहे हैं। अवश्य ही मुझे पकड़ने के लिये यह षड्यन्त्र किया गया है। अतः मुझे कपटपूर्वक उत्तर देना चाहिये । वह बोला मैं अत्यन्त धर्मात्मा हूँ। मैंने दान-पुण्य के अनेक कार्य किये हैं। उन्हींके फलस्वरूप यह स्वर्ग मिला है।"
प्रमाण न मिलनेसे अभयकुमारने लाचार होकर रोहाको छोड़ दिया । बन्धनमुक्त होनेपर हा विचारने लगा - "यह संसार स्वार्थी है। मेरे पिताने स्वार्थसे प्रेरित होकर ही तीर्थंकर महावीरका उपदेश न सुननेके लिये प्रतिज्ञा करायी थी । आज मेरे प्राणोंको रक्षा महावीरके प्रवचनोंसे ही हुई है। महावीर सर्वज्ञ, हितोपदेशी और वीतराग है। अतः मेरे लिये उनका शरण ही कल्याणकारक हो सकता है। मैंने उनके प्रति अपशब्दोंका व्यवहारकर पाप-बन्ध किया है । अत: मैं क्षमा याचनाकर इस चौर्य-कर्मको त्यागकर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करूँगा । इस संसार में कोई किसी का नहीं है। सब स्वार्थवश हितैषी बनते हैं ।"
इस प्रकार ऊहापोहकर रोहा चोर महावीरके समवशरण में उपस्थित हुआ पश्चात्तापके कारण उसका हृदय शुद्ध तथा निर्मल बन गया और उसने दिगम्बरदीक्षा ग्रहण कर ली ।
वास्तवमें महावीर ऐसे पारसमणि थे, जिनके सम्पर्कसे रोहा चोर जैसे कितने ही पापी स्वर्ण बन गये । उनके प्रवचन में हृदय परिवर्तनकी अपूर्व क्षमता थी | दुष्ट-से-दुष्ट और दुराचारी से दुराचारी भी उनके निकट सम्पर्क में आनेपर परिवर्तित हुए बिना नहीं रह सकता था । उनको वाणीका प्रभाव जादू जैसा था। उन्होंने अपनी अहिंसाकी मधुर वीणाद्वारा लोगोंके हृदयको द्रवीभूत कर दिया । वे अपने युगके सर्वश्रेष्ठ धर्मनायक और जनहितेषी थे । मेघकुमार : विलासका विराग
कहा जाता है कि मेघकुमारका जीवन बड़ा ही विलासी या । उसे भोगोपभोगकी वस्तुओंसे विशेष रुचि थी । सुस्वादु और सुन्दर भोजन करना, नृत्यका अवलोकन करना और संगीतद्वारा चित्तका अनुरंजन करना उसका प्रतिदिनका कार्यं था। जिसने भी मेघकुमारके वैभव और विलासको देखा, उसने कभी यह कल्पना भी नहीं कि यह व्यक्ति कभी विरक्त हो सकता है । विलासका परिणमन वीतरागता में शायद ही कभी होता है। जो इन्द्रिय-सुखोंका
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दास बन चुका है, क्या वह कभी आत्माका आराधक हो सकता है ? दाससे स्वामी बनना सहज नहीं है। मानवताके इतिहासमें मेघ कुमारका ऐसा उदाहरण है, जो जीवनको परिवर्तित करनेकी क्षमता रखता है।
श्रेणिकके साथ मेघकुमार भी महावीरके समवशरण में पहुँचा। उसने बड़े भक्तिभावसे प्रभुका चरण-वन्दन किया और अपने स्थानपर बैठकर तीथंकर महावीरका उपदेश श्रवण करने लगा। दिव्यध्वनि द्वारा सम्यक्त्वका विवेचन किया जा रहा था । आत्मोत्यानका साधन सम्यग्दर्शनको प्रतिपादित किया जा रहा था। प्रत्येक आत्मामें परमात्मज्योति विद्यमान है और प्रत्येक चेतनमें परमचेतन सामाहित है । चेतन और परमचेतन दो नहीं हैं, एक हैं । कर्माकरणके कारण यह आत्मा संसारमें परिभ्रमण कर रही है, पर जब यह संसारके बन्धनोंसे मुक्त हो जायगी, तो सिद्धावस्थाको प्राप्त कर लेगी तथा यही भिखारीसे भगवान् बन जायगी। ___ सम्यग्दर्शनके उक्त माहात्म्यको सुनकर मेधकुमार सोचने लगा---"कामना
ओंकी दासता ही सबसे बड़ी दासता है । इन्द्रिय-सुखोंके अधीन रहनेवाला व्यक्ति कभी निराकुल नही हो सकता है। मैंने अपनी इस युवावस्था में सभी प्रकारके इन्द्रिय-सुखोंको एकत्र किया है, पर मुझे कभी इन सुखोंसे तृप्ति प्राप्त नहीं हुई है। दिव्यध्वनिमें आत्मनिष्ठाका और संसारके विषयोंकी असारताकर सतर्क विवेचन किया गया है । अतएव में शुद्ध निरंजन निर्विकारी पद प्राप्त करनेके लिए प्रभुचरणों में दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण कहेंगा । अब न तो मुझे राज्य करनेकी इच्छा है और न राजसी वैभवको भोगनेकी ही आकांक्षा है । यह जगत् मुझे धधकती चिताके समान सन्ताप-कारक प्रतीत हो रहा है । अतएव में माता-पिताकी अनुमति लेकर अब दिगम्बर-दीक्षा धारण करूंगा।"
समवशरणसे लौटने के पश्चात् भेषकुमारने माता-पितासे अनुरोध किया"मेरा मन संसारके विषयोंसे ऊब गया है और मुझे यह निश्चय हो गया है कि ये विषयचाहको दाह बढ़ानेवाले हैं। जैसे अग्निमें जितना अधिक ईधन डालते आइये, अग्नि उतनी ही अधिक प्रज्वलित होती जायगी । अग्निको शांति करनेके लिए जलकी आवश्यकता होती है। इसी प्रकार इन्द्रिय-विषयोंको शमन करनेके लिए त्याग और वैराग्यकी आवश्यकता है। संयम ही एक ऐसा साधन है, जो भोगेच्छाओंको नियन्त्रित कर सकता है। पूज्यवर ! आप दोनोंके उपकार मेरे ऊपर अधिक है। आपने मेरी समस्त सुख-सुविधाओंका ध्यान रखा है तथा मेरा भरण-पोषण सभी प्रकारसे किया है।
बद मेरी अन्तरंग इन्छा दिगम्बर-दीक्षा धारण करनेकी है। मेरी विल२१४ : तोयंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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सितामें वीतरागताका गुणात्मक परिवत्तंन हो गया है । विगत विलासी-जीवनका स्मरण आते ही मेरा मन पश्चात्तापसे भर जाता है । अतएव आप महानुभाव मुझे दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति प्रदान कीजिए; जिससे मैं तीर्थंकर महावीरको शरणमें जाकर व्रत ग्रहण कर सकूँ ।" ___ श्रेणिक मेघकुमारकी उदासीनता और उक्त भावनाको अवगत कर अत्यंत आश्चर्य चकित हुए और उन्हें इस बातकी चिन्ता हुई कि मेघकुमारके दीक्षित होनेसे त्रुटि आयेगी और शासन-व्यस्था सम्यकपसे नहीं चल पायेगी। वह सोचने लगे_ "मेषकुमार सुकुमार प्रकृतिके हैं, इनसे क्या कठोर दिगम्बर-दीक्षाका निर्वाह हो सकेगा? तपस्या करना बड़ा कठिन है । क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण आदिकी बाधाओंको सहन करना सरल नहीं है। इन्द्रिय और मनका निग्रह करने के हेतु बड़े साहस और धैर्यको आवश्यकता है । अतः मेघकुमार दिगम्बर मुनिके असिधारा-व्रतका पालन किस प्रकार कर सकेगा ?"
बहुत सोच-विचार करनेके पश्चात् श्रेणिकने मेघकुमारको सम्बोधित कर कहा-"वत्स ! त्याग और संयमके कठोर मार्गका तुम अनुसरण कर सकोगे? अभी तुम्हें घरमें रहकर ही आत्म-साधना करनी चाहिए । इसके साथ चिन्तन, मनन, प्राणिमात्रकी हितैषिता एवं सर्वप्राणि-समभावको उदात्तवृत्तियोंको भी आत्मसात् करना चाहिए | परिग्रह और ममताके घटने या नष्ट होनेपर ही गृहत्याग करना उचित होगा।"
मेघकुमार--"पूज्यवर तात ! आपका उक्त कथन यथार्थ है । पर मैंने यह अनुभव कर लिया है कि पाप कभी सुखका कारण नहीं बन सकते | इनके सेवन. से अन्तरात्मा कलुषित हो जाती है और व्यक्ति अपने निज स्वरूपको भूले रहता है। यह मोहोदयका परिणाम है कि आपके मुखसे इस प्रकारको बातें निकल रही हैं। सात्विक वृत्तिको प्रत्येक समझदार व्यक्ति सुखप्रद मानता है। पापका सेवन करनेवालेको लोक, परलोकमें सभी प्रकारकी यातनाएँ भोगनो पड़ती हैं। अस: मेरा निश्चय अटल है। आप संयम ग्रहण करनेकी अनुमति दीजिए।" ___ मेघकुमारके उक्त कपनको सुनकर माताको ममता उमड़ पड़ी और वह कहने लगीं-"वत्स ! तुम मेरी आँखोंके तारा हो । तुम्हारे विना में कैसे प्राण धारण कर सकूँगी । क्या मछली जलसे विमुक्त होनेपर जीवित रह सकती है ? अतः मांका बाग्रह स्वीकार कर तुम्हें अभी गृहवास ही करना चाहिए ।
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ज्मेष्टपुत्र होनेके कारण तुम्हीं राज्यके अधिकारी हो, अतः राज्यसुखका उपभोग किये बिना तुम्हें दीक्षा धारण नहीं करनी चाहिए।'
उपर्युक्त कथनसे प्रभावित हो श्रेणिक कहने लगा-"वत्स ! तुमने यदि दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय कर लिया है, तो कोई बात नहीं। पर मेरा एक अनुरोध स्वीकार करो तुम ज्येष्ठ पुत्र हो, अतः एक दिनके लिए राज्य-शासन स्वीकार करो, तदनन्तर दीक्षा ग्रहण करना।"
मेधकुमारने पिता थेणिकका मादेश स्वीकारकर एक दिनके लिए मगधका राज्यशासन ग्रहण किया और बड़ी सतर्कना "वं कुशलतापूर्वक राज्यका संचालन किया। इसके द्वारा की गयो राज्यव्यवस्थाने श्रेणिकको आश्चर्य चकित कर दिया। एक अनुभवी सम्राट् जिस प्रकार राज्यशासनकी व्यवस्था करता है, उसी प्रकार मेषकुमारने राज्यको व्यवस्था की। मन्त्रिवर्ग भी उसकी बुद्धि एवं राजनीतिज्ञताको देखकर प्रभावित था।
जब दिन समाप्त हो गया तो श्रेणिकने मेधकुमारसे प्रश्न किया कि अब क्या विचार है ? श्रमण-दीक्षा ग्रहण करोगे अथवा राज्य-संचालन? मेघकूमारने विनीत भावसे उत्तर दिया-सास ! मैं अपने निश्चयपर अटल हूँ। मुझे राज्य-सुख नीरस प्रतीत हो रहा है। इन भयंकर विषय-भोगरूपी सौकी फुफकारसे में जला जा रहा हूँ। अतएव अब मुझे शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति मिलनी चाहिए।"
श्रेणिकको मेघकुमारके दृढ़ निश्चयका बोध हो गया । अतः उसने प्रसन्नतापूर्वक दीक्षा धारण करनेकी अनुमति प्रदान की। ___ माता-पितासे अनुमति प्राप्तकर मेधकुमार अपनी आठ पत्नियोंके मध्य दीक्षाकी स्वीकृति लेनेक लिए उपस्थित हुआ । उसने अपनी पत्नियोंसे मात्ता पिताकी अनुमति प्राप्तिकी चर्चा की और कहा-"तीर्थकर महावीरकी देशना सुननेसे मेरे हृदयको कालिमा दूर हो गयी है। मेय हृदय चन्द्रमाके समान निर्मल और घवल हो गया है । सत्यकी वास्तविकता और संसारको असारताका चित्र नेत्रों के समक्ष साकार हो उठा है। अतएव अब आप लोग भी मुझे आत्म-कल्याण करनेके लिए अनुमति दीजिए।"
पत्नियां कहने लगीं-"नाथ! हम लोग आपके वियोग में जीवित भी नहीं रह सकेंगी। आपके यहाँसे चले जानेके पश्चात् हमारे प्राण भी आपके साथ ही चले जायेंगे । शरीरका चलना सो हमारे हाथमें नहीं है, पर प्रामोंका चलना तो हमारी इच्छाके अधीन है। आप जानते ही हैं कि नारीके लिए पति ही गत्ति है, पत्ति ही शरण है और पति ही सर्वस्व है। पतिके न रहने पर नारीका २१६:तीपंकर महावीर और उनकी बाचार्य परम्परा
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जीवन विपन्न हो जाता है। अतः अभी हम लोग आपको दीक्षित होनेको अनुमति नहीं देंगी।" ____ मेघकुमारके विरक्तिमय भावोंको परिवर्तित करनेकी दृष्टिसे वे नानाप्रकारके हाव-भाव और कटाक्षोसे उसे पथ-विचलित करने लगी। जितेन्द्रिय मेघकुमारके मनपर इस प्रकारके विकारो भावोंका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । लास्त्र चेष्टाएँ करनेपर भी वे उन्हें पथभ्रष्ट न कर पायौं ।
जब मेघकुमारकी रानियोंको उसकी दृढ़ताका परिचय प्राप्त हो गया, तो वे भी लाचार हो गयीं और उन्हें भी पराभूत होकर मेघकुमारको अनुमति देनी पड़ी।
परिवारके सभी सदस्योंसे स्वीकृति प्राप्तकर मेघकुमार अत्यधिक प्रसन्न हुआ और वह सीधे चलकर राजगहमें अवस्थित महावीरके समवरणमें पहुंचा। उसने गौतम स्वामीसे निवेदन किया-"प्रमो! मैंने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण करने को अपने परिवारसे अनुमति प्राप्त कर ली है । अतएव अब मुझे भी आरम-कल्याण करनेका अवसर दिया जाय । तीर्थकर महावीरकी शरण हो मेरे लिए सर्वस्व है।"
मेधकुमारने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली और वह अन्य मुनियोंके समान आत्म-शोधनमें प्रवृत्त हुआ।
मेघकुमार बिहार में अन्य मुनियोंके साथ भूमिपर शयन करते थे। सबसे बादमें दीक्षित होनेके कारण ये लघुमुनि कहलाते थे। इन्हें सोनेके लिए द्वारके पास स्थान प्राप्त होता था। द्वारसे होकर मुनियोंका आवागमन लगा ही रहता था। इससे मेघकूमारको प्रायः अन्य मनियोंके टकरा जानेका कष्ट उठाना पड़ता था इनकी नींद समाप्त हो गयी थी और मनमें पश्चात्तापकी भावना उत्पन्न हो गयी थी। __जब मेघकुमार राजकुमारके पदपर प्रतिक्षित थे, उस समय सभी मुनि उनका आदर-सत्कार करते थे। पर आज वे ही अपने पैरोंको धूलि उड़ाते हुए उनके पाससे निकल जाते हैं। आदर-सम्मान प्रकट करनेको कौन कहे, कोई उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता, मेघकुमारके हृदयमें विचारोंका तूफान उठ रहा था। उनके हृदयमें राग, द्वष और अमर्षके भाव जागृत हो उठे थे । अतः उन्होंने निश्चय किया कि अब इस संघमें रहकर अपमान सहना उचित नहीं । इन्द्रभूति गोप्तम गणधरको सूचितकर और उनसे अनुमति लेकर यहाँसे चले जाना ही श्रेयस्कर है। मेघकुमार तीर्थकर महावीर और उनके प्रमुख गणघर इन्द्रभूतिकी सेवा
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में उपस्थित हुए । मन:पर्ययज्ञानी गौतमने मेघकुमार के अन्तस्को जान लिया और कहा- "मेघकुमार, तुम मुनियोंके व्यवहारसे उदासीन होकर घर जाना चाहते हो ? तुम्हें मुनियोंके आवागमनसे कष्ट हो रहा है ? तुम्हारे सोनेका स्थान सबके अन्तमें है, यह सब तुम्हारे लिए अपमानका कारण है । जब तुम राजकुमार अवस्थामें थे, तब सभी मुनि तुम्हारा आदर करते थे, पर अन दीक्षा में लघु होने के कारण समस्त मुनियोंको तुम्हें ही 'नमोऽस्तु' कहना पड़ता है। सभी साधुवर्ग मौन होकर साधना में संलग्न हैं, अतः तुमसे कोई बात-चीत भी नहीं करता । तुम्हें इन सब बातोंके कारण आन्तरिक वेदना हो रही है ।" मेघकुमार उक्त वातोंका क्या उत्तर देता ? तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के समक्ष उनका मस्तक नत हो गया । इन्द्रभूति द्वारा कही गयीं सभी बातें यथार्थ थीं।
इन्द्रभूति तोर्थंकर महावीरको दिव्यध्वनिका आधार ग्रहणकर कहने लगे - " वत्स, सभी मुनि तुम्हारे साथी हैं, साधनापथमें वे सभी तुम्हारे सहयात्री हैं | साधना कालमें मौन रहना आवश्यक होता है और यह भी अनिवार्य माना जाता है कि व्यर्थको बात-चीतकर समय नष्ट न किया जाय। विकथाओंकी चर्चा करना हेय माना गया है ।"
"साघना - व्रती के लिए मौन सबसे बड़ा बल माना गया है। मौनसे हृदयके भीतर एक ऐसी आग उत्पन्न होती है, जिसमें मनकी कलुषता जलकर भस्म हो जाती है । मौन मनके विकारभावोंको नियन्त्रित करनेका साधन है ।"
"अन्य मुनिवर्ग तुम्हारे प्रति इसीलिए उदासीन रहते हैं कि तुम अपने हृदयमें समभावको स्थिर रख सको। तुमने दीक्षा ग्रहण को है और तुम साधनापथपर चल रहे हो । अतः तुम्हारा किसीके द्वारा सम्मान किया जाय या न किया जाय, इससे क्या बनता - बिगड़ता है। आत्म-साधकको सो अपने प्रति सदा जागरूक रहना चाहिए। जिसे मान-अपमानका खयाल है, उससे आत्मसाधना संभव नहीं है । साधनाका उद्देश्य वीतरागता की प्राप्ति है। वीतराग ही निर्वाण-लाभ करता है ।"
इन्द्रभूति गणधरके उक्त वचनोंको सुनकर मेघकुमारके नेत्र खुल गये। उन्हें अपनो भूल ज्ञात हो गयी । उनकी वाणीने मेघकुमारके भीतर अमृत रस घोल दिया और वे मन-ही-मन पश्चात्ताप करने लगे ।
इन्द्रभूति पुनः कहने लगे - " वत्स ! तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो ? क्या थे ? पर मैं तुम्हारी पूर्वपर्यायोंको भलीभांति जानता हूँ । आजसे तीसरे भवमें तुम एक हाथी थे ।
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महमा भाग
एक नि गये। बड़े जोरका तूफान व्याया । घरती आकाश सभी कुछ धूलसे भर गये। चारों ओर अन्धेरा छा गया । जीवजन्तु व्याकुल होकर इधर-उधर भागने लगे तुम्हें भी अपने प्राणोंकी चिन्ता हुई। तुम भी उस अन्धेरेमें भाग खड़े हुए। कहाँ जा रहे थे, कुछ पता नहीं, यतः सभी दिशाएँ तिमिराच्छन्न थीं। हाथों-हाथ दिखलायी नहीं पड़ता था ।"
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"आखिर तुम एक दल - दलमें जा फँसे । तुमने उस दलदल से बाहर निकलनेका अथक प्रयत्न किया, पर तुम निकल न सके । अब वर्षा बन्द हो गयी, बादल छूट गये और आंधी शांत हो गयी, तब दिशाएँ स्वच्छ हुई। अब तुम्हें ज्ञान हुआ कि तुम बड़ी कठिनाई में फँस गये हो । यहाँ उद्धार होना भी सम्भव नहीं । वनके हिंसक जीव-जन्तुओंने जब तुम्हें दल-दल में फँसा हुआ निस्सहाय देखा, तो मे तुम्हारे ऊपर टूट पड़े। तुम्हारा सारा शरीर उन्होंने नख और दाँतों क्षत-विक्षत कर दिया । तुमने प्राणोंका त्याग किया और यह दुर्भावना उत्पन्न की कि इन शत्रुओंसे प्रतिशोध लिया जाय । इस निदान के फलस्वरूप तुम पुनः विन्ध्याचल पर्वत पर हाथी के रूपमें उत्पन्न हुए ।"
"तुम्हारा शरीर भारी-भरकम था । तुम्हारे पदाघातसे धरती कांपती थी । वनके बड़े-बड़े हिंसक जीव-जन्तु भी तुम्हें देखते ही भयभीत हो जाते थे और तुम्हारा मार्ग छोड़कर एक ओर खड़े हो जाते थे । एक दिन तुम पुनः महाविपत्तिके आवर्त में फँस गये । उस वन में भीषण दावाग्नि लग गयी। पेड़-पौधे जलकर भस्म होने लगे । वनके साथ-साथ सहस्रों जीव-जन्तु भी समाप्त होने लगे ।"
"दावाग्नि के कारण वनके जीव-जन्तु अपनी रक्षा के लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ने लगे। तुम भी प्राणभयसे भागकर एक सुरक्षित स्थानपर खड़े हो गये । यह स्थान तुमने पहले से ही निरापद बनाया था । यहाँके पेड़-पौधे उखाड़कर सुँड़से जल छींटकर चौरस बना दिया था । अतः दावाग्निका प्रभाव इस स्थानपर नहीं था । यहाँ पर बहुत से पशु पहलेसे ही एकत्र थे । इस समय सभी पारस्परिक वैर-विरोध भाव छोड़कर अपने-अपने प्राण बचानेके लिए उपस्थित थे ! "
"तुम भी उस निरापद स्थानपर पहुँचकर एक ओर खड़े हो गये । बनके लघुकाय जीव तुम्हारे विशाल शरीरको आश्चर्य के साथ देख रहे थे। तुम हिमालयके तूहके समान खड़े हुए थे। तुम्हें देखकर भी वे प्राणी भयभीत नहीं हुए और न तुम्हारे मनमें ही अहंकार उत्पन्न हुआ । यतः उस समय सभीको स्थिति समान थी !"
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"अग्निदाहके कारण सहसा तुम्हारे एक पैरमें खाज पैदा हो उठी और तुम झुककर दूसरे पैरको खुजलाने लगे। जब खुजला चुके, तो फिर उठे हुए पैरको धरती पर रखने लगे, तो देखा कि एक खरगोशका छोटा-सा बच्चा तुम्हारे पैरको भूमिपर स्थित है। यदि इस समय तुम पृथवीपर पैर रख देते, तो निश्चय ही उस निरीह खरगोशका प्राणान्त हो जाता।"
वह कांप रहा था, भयभीत दृष्टिसे इधर-उधर देख रहा था । उसे देखकर तुम्हारे मनमें दया उत्पन्न हो गयी, अतः तुम घरतीपर अपना पैर न रख सके और तूफान शान्त होने तक अपने पैरको पर उठाकर तीन पैरोंपर ही खड़े रहे। दावाग्निक शान्त होनेपर अब बनके जीव-जन्तु अपने-अपने स्थानपर चले गये, तो उनके साथ ही वह खरगोशका बच्चा भी चला गया। अब तुमने अपने पैरको धरतीपर रखा। बहुत समय तक तीन पैरोंसे खड़े रहने के कारण तुम्हारे अंग जकड़ उठे। समस्त शरीरमें पीड़ा हो रही थी और अब खड़ा रहना भी सम्भव नहीं था ।अतः तुम गिर पड़े और तुम्हारा प्राणान्त हो गया ।"
"मृत्युके समय तुम्हारे परिणाम शान्त थे और तुम आत्म-चिन्तनमें लीन थे, अतः तुम्हें यह मनुष्य-पर्याय प्राप्त हुई। पशु-योनिमें खरगोश-शिशुके प्रति कष्ट उठाकर तुमने दया प्रदर्शित की थी, अतएव तुम्हें राजकुमारका पद प्राप्त हुआ तथा तुम्हारे हृदय में उज्ज्वल भावनाएं उत्पन्न हुई।"
अब तुम कल्याण-मार्गके निकट आकर क्यों पीछेको ओर मुड़ना चाहते हो ? पशुयोनिमें तुमने जो समभाव रखा और खरगोशके शिशुके प्रति जो दया दिखलायी, उससे तुम्हें यह फल प्राप्त हुआ । तुम्हारा नाम मेघ है, जिस प्रकार मेध समानरूपसे बिना किसी भेदभावके जलको वर्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम्हें भी सभीको समान समझना चाहिए। इस विश्वमें न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। कैच-नीच, उन्नत-अवनस, छोटे-बड़े सभी अपने-अपने कर्मोसे ही बनते हैं । अतः सत्कर्मोके प्रति अनुराग रखना आवश्यक है।"
"देवानुप्रिय ! तुम संयमके महत्त्वको समय गये होगे । भवरोगोंसेछूटनेके लिए संयम ही संजीवनी-बूटी है । जिस व्यक्तिने अपने जीवनमें संयमका अवलंबन ग्रहण कर लिया है, वह नियमतः इस भवबन्धनसे छुटकारा प्राप्त कर लेता है।"
मान-अपमान, आपत्ति-विपत्तिसे भयभीत होना तो कायरपुरुषोंका कर्म है। जो क्षात्रतेजसे सम्पन्न हैं, वे कभी किसी भी सांसारिक बातसे घबड़ाते नहीं । जीवनका लक्ष्य त्याग है, भोग नहीं । भोग तो अनादिकालसे प्राप्त होते २२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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आ रहे हैं, पर उनसे कभी तृप्ति नहीं हुई । अतः तुम अपनी महत्ताको समझ कर शाश्वत सत्यको प्राप्त करनेका प्रयास करो ।”
मेघकुमारके ज्ञान-वक्षु उद्घाटित हो गये । उसे अपनी पूर्वभवावको स्मृत हो गयी । जातिस्मरणकै कारण उसका चंचल मन स्थिर हो गया । वह सोचने लगा - "जो मानव सच्चे मनसे धर्माचरण करता है, अपने भीतरकी विकृतियोंपर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने सोये हुए दिव्य भावको जगा लेता है, वह स्वर्गके देवताओंके द्वारा भी वन्दनीय हो जाता है। अहिंसा, संयम और तपकी ज्योति ही जीवनको आलोकित कर सकती है। निस्सन्देह भोगसे त्याग पराजित नहीं होता, त्यागसे ही भोग पराजित होते हैं।"
इस प्रकार स्थिर विचार होकर मेघकुमारने तीर्थंकर महावीरके पादमूलमें रहकर आत्म-साधना की और कर्म- कालिमाको नष्ट कर निर्वाण-लाभ किया । महावीर के सान्निध्यसे अनेक भव्य जीवोंने अपने भीतर ज्ञान दीप प्रज्वलित किया । वारिषेण: सौरभ
तीर्थंकर महावीरके उपदेशसे कल्याण करनेवालोंमें वारिषेणकी भी गणना है । वारिषेण थे तो राजकुमार पर श्रद्धा और विवेक में वे बहुत आगे थे । सम्राट् श्रेणिक इनके पिता और महारानी चेलना इनकी माता थीं। ये अत्यन्त गुणी और सम्यग्दृष्टि थे । निःशंक होकर व्रत-उपवासमें रत रहते थे । ये लौकिक कार्योंसे दूर और आत्म-चिन्तनमें समय यापन करते थे ।
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चतुर्दशीको श्याम रात्रि थी। चारों ओर घना अन्धकार आच्छादित था । वारिषेण उपवास ग्रहण कर श्मशान में सामायिक करनेके लिये इसी काली रात्रिमें पहुँच गये और एकान्त स्थानपर बैठकर आत्म ध्यानमें लीन हो गये ।
इसी रात्रिमें नगर में ऐसो घटना घटित हुई, जिससे वारिषेणकी जीवनधारा ही परिवर्तित हो गयी। बात यह हुई कि नगर में विद्युत नामका चोर रहता था । विद्युतकी एक प्रेमिका थी -- वारवधू । विद्युत उसे हृदयसे प्रेम करता था | वह जो कुछ कहती, विद्युत प्राण देकर भी उसे पूर्ण करनेका प्रयत्न करता था ।
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संयोगको बात, उस दिन रातमें जब वारवचूके घर गया, तो वह हावभाव प्रकट करती हुई कहने लगो - "यदि तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो, तो आज ही महारानी चेलनाका रत्नजटित स्वर्णहार चुराकर मेरे लिये ला दो। उस हारके विना मेरा गला सूना है ।"
महारानीका स्वर्णहार ! विद्युतके शरीर से पसीना निकलने लगा । स्वर्णहारको चुराकर लाना असम्भव है । राजभवन में दिन-रात संतरियों और सिपा
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हियोंका पहरा रहता है। संतरियों और सिपाहियोंको आँख बचाकर वह राजभवन में कैसे प्रवेश कर सकेगा ? यदि कहीं वह पकड़ा गया, तो अवश्य ही उसे प्राण- दण्ड प्राप्त होगा ।
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विद्युतके प्राण काँप उठे । उसने वारवधूको बहुत समझाया कि वह उसके लिये अच्छे से अच्छा हीरक जटिल स्वर्णहार ला देगा। महारानीके स्वर्णहारका छोड़ दे पर वारवधू उसकी बातको स्वीकार ही नहीं करती। उसने स्पष्ट कह दिया कि यदि वह महारानीका स्वर्णहार लाकर न देगा, तो वह उससे अपना संबन्ध तोड़ लेगी ।
विद्युत हर मूल्यपर बारवधूको प्रसन्न रखना चाहता था ! वह उसके लिये संभव असंभव सब कुछ करने को तैयार था । आखिर वह प्राण हथेलीपर रखकर राजभवनकी ओर चल पड़ा। रात्रिका समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था । विद्युत बड़े साहस और कौशल के साथ राजभवन में प्रविष्ट हुआ । वह धीरे-धीरे महारानीके कमरेमें घुसा और स्वर्णहार लेकर राजभवन से बाहर निकल गया । राजपथपर उसे जाते हुए नगर कोतवालने देख लिया । हारकी चमक-दमकने विद्युतको आलोकित कर रखा था । अतः नगर कोतवालनं उसे उपटते हुए कहा - "खड़ा रह, कहाँ जा रहा है, तेरे हाथमें क्या है ?"
विद्युतने सोचा कि कोतवालने महारानीका स्वर्णहार देख लिया है। अतः वह भाग खड़ा हुआ | कोतवालने सिपाहियों सहित चोरका पीछा किया । विद्युत भागता - भागता श्मशान में पहुँचा और ध्यान में लीन चारिषेणके पास स्वर्णहार फेंककर चलता बना | नगर कोतवाल भी कुछ क्षणोंके पश्चात् वारिषेणके पास जा पहुँचा । वारिषेण ध्यानमें मग्न थे और स्वर्णहार उनके पास पड़ा हुआ था | कोतवालने स्वर्णहार उठा लिया और साथमें वारिषेणको भी बन्दी बना लिया । कोतवाल सोचने लगा- " अवश्य ही इसने स्वर्णहार चुराया है और अपनी चोरीको छिपाने लिये तपस्याका ढोंग रचे हुए है। चोर अनेक प्रकारके अभिनय करते हैं । यह भी इसी कोटिका चोर है ।"
नगर- कोतवालने स्वर्णं हार के साथ वारिषेणको न्यायालय में उपस्थित किया । श्रेणिक बिम्बसार स्वयं न्यायके आसनपर विराजमान थे। महारानी चेलनाके स्वर्णहारके चोरके रूपमें अपने पुत्र वारिषेणको देखकर वे विचारमग्न हो उठे । क्या यह संभव हो सकता है कि वारिषेण जैसा निर्लिप्त राजकुमार अपनी माताके ही स्वर्णहारकी चोरी करेगा ? कुमार वारिषेणकी यह प्रवृत्ति तो रही नहीं, पर जितनी गवाहियाँ वहाँ प्रस्तुत की गयीं, वे सब वारिषेणके विरुद्ध में थीं | सभी प्रमाणों और साक्षियोंसे यही सिद्ध होता था कि वारिषेणने हो स्वर्ण२२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य- परम्परा
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हार चुराया है । फलतः श्रेणिक बिम्बसार ने विवश होकर वारिषेणको अपराधी घोषित किया और उसे मृत्यु दण्डको बाशा दी ।
चाण्डाल वारिषेण को लेकर श्मशान भूमि में पहुंचे और इसे बघस्थलपर बड़ा करके उसपर शस्त्रहार करना चाहा पर यह क्या चाण्डलोंके शस्त्र हो नहीं उठ रहे थे। उन्होंने अनेक प्रयत्न किये, पर वे सभी विफल रहे । सहसा वारिषेणपर अकाशसे पुष्पवर्षा होने लगी। चारों ओर यह वृत्तान्त बिजली की शक्तिके समान व्याप्त हो गया । जनताके झुण्ड के झुण्ड वारिषेणके दर्शनार्थं उमड़ पड़े । श्रेणिक बिम्बसार भी रानी चेलना सहित वहाँ उपस्थित हुए और कहने लगे - " वत्स ! मैं पहले हो यह जानता था कि तुम निरपराध हो, पर मैं क्या करता ? मैं न्यायके आसनपर था और था अपने कर्तव्यसे विवश | भूल जाओ पिछली बातोंको । अब चलो, घर लौट चलो। यह तुम्हारे सत्यकी विजय है ।"
वारिषेण लोटकर घर न गया। उसने उत्तर दिया- "घर कौन-सा घर ? मेरा कोई घर नहीं । न में किसीका पुत्र हैं और न मेरा कोई पिता है । ये लौकिक सम्बन्ध है । यह समस्त जगत प्रपंच है । सब कुछ नश्वर है । मैं सब कुछ त्यागकर तीर्थंकर महावीरकी शरण में जाऊँगा और मुनिजीवन व्यतीत करूंगा ।"
वारिषेणके उक्त विचारोंको सुनकर श्रेणिक विम्बसार अत्यन्त प्रसन्न हुए । महारानी चेलना और बिम्बसार दोनोंने ही पुत्रको दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति दे दी । वारिषेण तीर्थंकर महावीरके समवशरण में आया और इन्द्रभूति गौतम गणधर को अपने मुनि बनने की इच्छा प्रकट की । वारिषेणका धर्म-सौरभ महावीरके पादपद्मों में विकसित हुआ ।
जिस प्रकार पावस- कालमें मेघ-पटल जलकी वर्षा करते हैं, उसीप्रकार तीर्थकर महावीरकी बाणोकी अमृत वर्षा भी होती थी और त्रस्त भव्य जीव इस वाणीका पानकर आनन्दानुभव प्राप्त करते थे | धर्मदेशनाके श्रवण से परिणामों के परिवर्तन में विलम्ब नहीं होता था । जो भी तोर्थंकर वाणीका श्रवण करते वे व्रत-उपवास ग्रहणकर आत्म-कल्याण में प्रवृत्त हो जाते । वारिषेण भी तीर्थंकर महावीर के सम्पर्कसे आत्म-साधक बन गये ।
पुरानी स्मृतियाँ: नयो व्याख्याए
एक दिन वारिषेण चर्याके हेतु पोलासपुरकी ओर जा रहे थे कि उन्हें राजमंत्री का पुत्र सोमदत्त, जो उनका बालसखा था, मिला । मूनि वारिषेणको
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देखकर उसका सखाभाग जागृत हो उठा। उसने बड़े भक्ति भावपूर्वक उन्हें आहार दिया | वारिषेणने भी मित्रका सच्चा हित साधा। उनके उपदेवासे वह साधु हो गया । सोमदत्त भुनि तो बन गया और दिगम्बर- दीक्षा भी उसने ग्रहण कर ली, पर उसका मन ममता में फँसा रहा। वह बोला - "मित्र ! स्मरण है यह लता-कुंज, जहाँ हम और आप मिलकर केलि करते थे। मधुर संगीत आलाप कर आनन्द-विभोर हो जाते थे। क्या महावीरके संघमें केलि-क्रीड़ाजन्य मानन्द है ?"
वारिषेण मुस्कुराकर कहने लगे- "सोमदत्त ! यह तो तुम अभी कलकी बात कह रहे हो । पर याद करो, न जाने कितने अनन्त जन्मोंमे श्रोत्र - इन्द्रियको प्रिय लगनेवाली संगीत- लहरी हमने तुमने सुनी होगी। क्या उससे तृप्ति हुई ? नहीं, उसको सुननेसे ही केवल तृष्णा बढ़ी है। आशा और तृष्णा हो तो संसारपरिभ्रमणका कारण है । इन्हींसे मन दुषित होता है और दूषित वस्तुमें आनन्द कहाँ ?"
"महावीरका संघ कल्याण धाम है, शान्ति-निकेशन है और है जन्म-मरणकी परम्परासे छुड़ानेका साधन । वे दोनों मुनि तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें लौट आये। सोमदत्तका मन पवित्र हो गया। उसके विकार क्षीण होने लगे, मोह गलने लगा और आत्म-शान्तिकी प्रतीति होने लगी। वह सोचने लगावारिषेणका कथन यथार्थं था । वीरप्रभुकी निकटता संसार-तापको दूर करनेबाली है।"
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"दोनों मुनियोंने बड़े भक्ति-भावसे तीर्थंकर महावीरकी वन्दना, स्तुति की और संघ के समस्त साधुओंको 'नमोस्तु' किया ! वारिषेण अपने योग्य आसनपर आसीन हुए और सोमदत्त भी उनके पास ही बैठ गया। एक वरिष्ठ साधुने सोमदत्तको सम्बोधित करते हुए कहा- "तुम बड़े पुष्पात्मा और विशुद्ध हृदय हो, जो तुम्हें तीर्थंकर महावीरका समवशरण प्राप्त हुआ। महती तपस्या करने की तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो !"
"पाश्व में स्थित एक अन्य साधुको यह कथन असा प्रतीत हुआ । अतः वह क्रुद्ध होकर कहने लगा- "यह मूढ़ क्या तपस्या करेगा ? इसे आगमका सामान्य ज्ञान भी नहीं है । यह तो अपनी काली-कलूटी स्त्रीकी यादमें दुबला होता जा रहा है। विषय-वासनाओं के विकारका त्याग किये बिना कोई साधु नहीं हो सकता है। जिस प्रकार केंचुलका त्यागकर देनेपर भी विष-विकारके अस्तित्व के कारण सर्प शान्त नहीं माना जा सकता है, उसी प्रकार बहिरंग परिग्रहका त्याग कर देनेपर भी अन्तरंग विकारोंके सद्भावके कारण कोई २२४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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मुनि नहीं माना जा सकता है।" इसी बीच कहींसे किन्नर-किन्नरीकी गीत-ध्वनि सुनायी पड़ी, जिससे सोमदत्तका मन चंचल हो उठा और उसे रह-रहकर अपनी पत्नीकी याद सताने लगी। राग और मोहने उसके विवेकको अन्धा बना दिया । घर जानेके लिये उसनानपत्रल इला
वारिषेणने जब सोमदत्तको विह्वल देखा, तो उसने उसे रोका नहीं । बल्कि कहा-"सोमदत्त ! घर जाना चाहते हो, तो चलो, पर पहले हमारे घर होकर, तुम्हें अपने घर जाना होगा। सोमदत्तने चारिषेणकी बात स्वीकार कर ली। राजप्रासादमें दोनों मुनि पहुँचे । महारानी चेलना मुनियोंको आया हुआ जानकर आश्चर्य चकित हुई। यतः दिगम्बर मुनि आहार-बेलाके अतिरिक्त किसी भी गुहस्थके घर नहीं जाते । परीक्षाके लिये चेलनाने दो आसन बिछाये-एक प्रासुक और दूसरा रत्न-जटित । वारिषेण प्रासुक आसनपर स्थित हो गये, पर सोमदत्तके पास यह विवेक नहीं था। अतः वह रत्नजटित आसनपर स्थित हो गया । अनन्तर वारिषेणने कहा-“मौ! हमारी पत्नियोंको श्रृंगार करके यहां बुलाइये।" चेलनाने हाँ तो किया, परन्तु उसका हृदय सशंक हो घड़कने लगा-क्या उसका पुत्र मुनिधर्मसे पतित हो रहा है ?
चेलनाने धर्म में दृढ़ करनेके हेतु वारिषेणको धर्म-कथा सुनायी। वह कहने लगी-"सुभद्रा ग्वालिनका पुत्र सुभद्र था । वह गाय चराकर अपनी आजीविका सम्पन्न करता था। एक दिन उसके साथी ग्वालोंने उसे खीर खिलायी । सुभद्रको यह खीर बहुत अच्छी लगी । उसने घर आकर अपनी मांसे आग्रह किया कि में खीर अवश्य खाऊँगा। गरीब माने पुत्रके दुराग्रहको पूरा करनेके लिये इधर-उधरसे सामान एकत्र किया और खीर बनायी। रसनालोलपी सुभद्रने खूब खीर खायी और इतनी अधिक खायी, जिससे उसे वमन होने लगा। वह खीर खाता जाता और वमन करता जाता था। अब खीर समाप्त हो गयी और मकि पास खिलानेके लिये अवशिष्ट न रही, तो वमन की गयी खीरको ही उसके सामने रख दिया । रसना-लम्पटीने उसे भी खा लिया । मुनिवर ! क्या सुभद्रने यह ठीक किया ?"
वारिषेण चेलनाके अभिप्रायको समझ गया। उसकी धार्मिकता और विनयभावनासे प्रसन्न होकर वारिषेण कहने लगा--"उज्जयिनीमें वसुपाल राजा रहता था और वसुमती नामको उसकी रानी थी । दोनोंमें प्रगाढ़ प्रेम था। एक दिन रानीको सर्पने डंस लिया। मंत्रवादी बुलाये गये। एक मंत्रवादीने उस सर्पको बुला लिया, जिसने रानीको डंसा था। परन्तु वह सर्प इतना क्रोधी था कि उसने रानीको निर्विष नहीं किया । उसने स्वयं अग्निमें जल मरना उचित
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समझा। अब विचार कीजिये कि उस सपंका हठ कहाँ तक उचित था? अभंपालनके लिये दृढ़ता दिखलाना सो उचित है, पर विकारोंकी वृद्धि के लिये हठ करना कहाँ तक उचित है ?"
महारानी चलना और यारिषेणका कथा-प्रसंग चल रहा था; इसी समय अन्तःपुरसे शृंगार किये हुए वारिषेणकी सभी पत्तियां आ गयीं। वे अनुपम सुन्दरी थीं। पति-आगमनको प्रसन्नताने उनके सौन्दर्यको कई गुणा विकसित कर दिया था। वे आयीं और नमस्कार कर बैठ गयीं । वारिषेणने सोमदत्तसे कहा--"मित्र देखते हो, ये रमणियों कैसी सुन्दर हैं ? ये तम्हारी पत्नीसे अधिक सुन्दर हैं या नहीं? यदि प्रणय वासना जागृत हो गयी है, तो इन्हींके साथ रमणकर तुम अपने कषायभावको शान्त करो। घर जाफर क्या करोगे ? इतनी सौन्दर्य-राशि तुम्हें घर में नहीं मिल सकती है।" वारिषेणका तीर काम कर गया। सोमदत्तके पैरों तरू से सीखिसक जी । वह लेना और पश्चातापसे गलने लगा । वारिषेणके त्यागने उसके विवेक-नेत्रोंको खोल दिया। यह बोला-"आप धन्य हैं। आपका धैर्य और त्याग श्रेष्ठ है। आप सत्यवीर है, शीलसम्पन्न हैं और हैं इन्द्रियजयी । आप जैसे मित्रने आज मेरे हृदयके कपाट खोल दिये हैं। मेरी ममता-मूर्छा गल गयी और मेरा मिथ्यात्व नष्ट हो गया। अब मुझे सम्यकत्वकी प्राप्ति हो गयी है। मेरा चंचल मन स्थिर हो गया है । अब आप शीघ्र ही यहाँसे चलिये । एक क्षण भी यहाँ ठहरना कठिन है।"
दोनों मुनि तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें आये और वहां उन्होंने वारिषेणके स्थितिकरणकी कथा सुनी। नवदीक्षित मुनि सोमदत्त अपना विवेक खो बैठे, यह कोई नयी बात नहीं। इन्द्रियोंके विषय इन्द्रायनफल जैसे सुन्दर और मोहक होते हैं । परन्तु उनका परिपाक कटु होता है। मुढद्धि तत्त्वको नहीं पहचान पाता है और विषयों में आसक्त हो जाता है । वारिषेणने धर्मका आदर्श रूप उपस्थित किया है। उन्होंने गिरतेको गिरनेसे रोका है और गिरे हएको उठाया है । यही सम्पदृष्टिका लक्षण है। स्थितिकरण और उपबृंहण सम्य. कत्वके अंग हैं । सम्यकदृष्टि पापसे घृणा करता है, पापीसे नहीं । उसके हृदयमें साधर्मीके प्रति अपार वात्सल्य रहता है। लोक-कल्याणको भावना भी उसीमें रह सकती है, जिसका हृदय उदार और विशाल है।
सोमदत्तने गुरुदेवसे प्रायश्चित्त ग्रहण किया और मुनिधर्मके पालन करने में वह दृढ़ हो गया।
तीर्थकर महाबीरके समवशरणने अनेक राजा-महाराजा और सम्भ्रान्त २२६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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व्यक्तियोंको प्रभावित किया । जो भी उनके समवशरण में सम्मिलित होता, वही उनसे प्रभावित हो जाता। उनका यह समवशरण विहार और मगधके विभिन्न प्रदेशों में परिभ्रमण करता रहा। तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनिने लोक- हृदयको एक अपूर्व दिव्यता प्रदान की और जन-जनके ज्ञानचक्षु खोल दिये । अज्ञानके बादल फट गये और ज्ञानका सूर्योदय हो गया । रुढ़ियाँ, दुराग्रह एवं हठवादिता समाप्त होने लगी । इनके समवशरण के प्रभावसे संघर्ष समाप्त हुए और शान्तिकी जलधारा प्रवाहित हुईं।
अभयकुमार
अभयकुमार अपने बुद्धिकौशल के कारण अपूर्व ख्याति प्राप्त कर चुके थे । उनका प्रत्युत्पन्नमतित्व अनुपम था। बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान चुटकियों में कर दिया करते थे । ये शान्तप्रकृतिके तो थे ही, पर एकान्तप्रिय भी थे। ये निरन्तर चिन्तनमें ही लगे रहते थे और गूढ तत्त्व चर्चायें भी किया करते थे। तत्त्व-सम्बन्धी बड़ी से बड़ी शंकाएँ तत्त्वजिज्ञासु उनसे करते और बातों ही बातों में उनका समाधान कर देते थे । मेधावी अभयकुमार संसारकी स्वार्थपरताओं और छल छिद्रोंसे ऊब गये थे तथा शान्तिका मार्ग प्राप्त करनेके लिए सचेष्ट थे । रोहा चोरके हृदय परिवर्तनको घटनाका प्रभाव उनके हृदयपर बहुत गहरा पड़ा था और ये सत्योपलब्धिके लिए सचेष्ट थे ।
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तीर्थंकर महावीरका समवशरण विपुलाचल से इधर-उधर ग्राम और नगरोंमें हुआ करता था । यह एक प्रकारसे चलता-फिरता विश्वविद्यालय था और जहाँ भी होता जनकल्याणका अमृतवर्षण करता । समवशरण के प्रभावसे चारों ओर बहुत दूर तक करुणा और मैत्रीकी दुन्दुभि बजने लगी । लोकमानस उनके अभिनन्दनके लिए पलक पांवड़े बिछाने लगा । भारतकी अन्तरात्मा निर्मल हो गयो । इतिहासका कालुष्य घुल गया और उज्ज्वलताकी लेखनी द्वारा अहिंसा एवं सत्यके पृष्ठोंपर भारतका नया इतिहास लिखा जाने लगा ।
महावीरका समवशरण पुनः तीसरी बार राजगृहमें अनुमानतः ई० पू० ५३० - ३२ में हुआ तथा उनके उपदेशामृतकी चर्चा सर्वत्र व्याप्त हो गयी । जनसाधारण के साथ सेठ साहूकार और सामन्त भी समवशरण सभा में सम्मि लित होने लगे ।
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अभयकुमार भी समवशरण में दिव्यध्वनि सुनने के लिए उपस्थित हुआ । वे विरक्त तो पहले से ही थे, पर तीर्थंकर महावीरके वीतराग प्रवचनको सुनकर उनका वैराग्य कई गुना बढ़ गया। वे सोचने लगे - "मनुष्य जीवनकी उपयोगिता
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इसी बात है कि इसे प्राप्त कर जसे छुटकारा प्राप्त बिमा दाष: मानव-जीवन दुर्लभ हैं, अनुपम है और है यह मूल्यवान पर्याय । तीर्थंकरके पादमूलको प्राप्तकर भी यदि इस जीवन में साधना नहीं की गई, तो फिर शायद ही कभी अवसर प्राप्त होगा। जो व्यक्ति वासनासवत है, वह अपने स्वरूपको नहीं समझ सकता है। उसे आत्मबोध और आत्मविवेक प्राप्त होना कठिन है। अतएव मुझे क्रोध, मान, माया, आदि विकारोंको जीतने के लिए सचेष्ट होना चाहिए ।"
अभयकुमार संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त हो दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करनेके लिए प्रभुके चरणों में प्रार्थना की। महावीरने अभयके पूर्वजन्मोंका वृत्तान्त प्रकटकर उसके हृदयकी गाँठ खोल दी। उन्होंने बतलाया:--"अभय पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण-पुत्र था, वेदाध्ययनकी ओर उसकी विशेष रुचि थी; पर विद्वान् होनॅपर भी वह मूढ़ताओ में आबद्ध था । उसकी मिथ्याभिरुचि उसे पथभ्रष्ट कर रही थी ।"
पांच मूढ़ताएँ प्रमुख पी :
(१) पाखण्ड मूढ़ता ।
(२) देवमूढ़ता - सभी प्रकारके देवोंमें अन्धविश्वास ।
(३) तीर्थ मूढ़ता -- तीर्थों में अन्धभक्ति ।
(४) जाति बन्धन |
(५) क्रियाकाण्ड एवं हिंसकधर्म में विश्वास ।"
"इन मूढ़ताओं में जकड़े हुए इस ब्राह्मण पुत्रका एक श्रावक से साक्षात्कार हुआ । श्रावकने उसे सत्यज्ञानका उपदेश दिया । बतलाया कि मनुष्य अपने सत्कर्मसे ही उन्नत होता है । अतः सत्कर्म ही पूजा है, सत्कर्म ही तीर्थ और सत्कर्म ही महान है । सत्कर्म वही है, जो जगत् के समस्त प्राणियोंको सुख और शान्ति प्रदान कर सके । जातिवाद अतात्त्विक है । संसारके सभी मनुष्य समान हैं, न कोई छोटा और न कोई बड़ा है। मनुष्यकी श्रेष्ठता आचारमूलक है । जिस व्यक्तिका अहिंसामूलक आचार रहता है, वही व्यक्ति अपना और संसारका हित साधन करता है ।"
"श्रावकके उक्त उपदेशसे ब्राह्मण-पुत्र प्रभावित हुआ और वह अहिंसाके आचरण में संलग्न हो गया । मृत्युके पश्चात् सत्कार्योंके परिणामस्वरूप उसने राजाके यहाँ जन्म ग्रहण किया और राजकुमार पद प्राप्त किया । यह राजकुमार ही अभयके रूपमें उपस्थित है ।"
अभयकुमार अपने पूर्वजन्मके वृतान्तको सुनकर अधिक प्रभावित हुआ ।
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उसके मनमें उत्पन्न हुई विरक्ति और सबल हो गयी । वह सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान और सम्यकचारित्रकी प्राप्तिके लिये लालायित हो गया । उसका मन आत्मनिष्ठासे भर गया तथा जाम धि निर्मल और उज्वल हो गयी ! अतः उसने प्रार्थना की--"प्रभो ! मुझे दीक्षा देकर आत्म-साधनाका अवसर दीजिये।"
इन्द्रभूति गौतम गणधरने अभयकुमारको सम्बोधित करते हुए कहा"तुम्हारी तभी दिगम्बर-दीक्षा हो सकती है, जब तुम अपने माता-पिताकी अनुमति प्राप्त कर लो। यतः तुम राज्यके एक उत्तरदायी पदपर प्रतिठित हो।"
अभयकुमार गौतम गणधरके अदेशानुसार अपने पितासे अनुमति प्राप्त करने के लिए राजसभामें उपस्थित हुआ ! उसने सिंहासनासीन श्रेणिकको बड़ी श्रद्धासे प्रणाम किया । अपनी इच्छा पिताके सम्मुख व्यक्त करनेके पूर्व भूमिकाके रूपमें तत्त्वोंका विवेचन किया। उसके सारगर्भित विवेचनको सुनकर श्रेणिक और राजसभाके अनेक विद्वान आश्चर्य चकित हो गये । ____ अभयकुमारने अपनी भूमिका समाप्त करनेके अनन्तर अपना मन्तव्य भी पिताके समक्ष प्रस्तुत किया। उसने विनीत शब्दोंमें निवेदन किया-"पूज्यवर ताप्त ! संसारके ये विषय-सुख मुझे नीरस प्रतीत हो रहे हैं । राजनीतिक दाँवपेंचाऔर षड्यन्त्र मझे अब नागफनी जैसे प्रतीत हो रहे हैं। मेरी अन्तरात्मा ज्ञानज्योतिसे आलोकित हो गयी है। अतएव अब में दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण कर महावीरके संघमें सम्मिलित हो आत्मकल्याण करना चाहता हूँ।" ___ अभयकुमारके उक्त विचारोंको सुनकर सम्राट श्रेणिक स्तब्ध हो गये । वे नहीं चाहते थे कि अभयकुमार घर-द्वार, राज्य, धन, दौलत आदि छोड़कर मुनिपद ग्रहण करे। वह अभयकुमारको समझाते हुए कहने लगे-"वत्स ! मगधका यह विशाल राज्य तुम्हारे बुद्धिकोशलसे ही चल रहा है । तुम्हारे कारण राज्यको सीमाका-विस्तार हुआ है और कई राजाओंने अधीनता प्राप्त की है अभी तुम्हारी वय ही क्या है ? दीक्षाके लिये अवसर आने दीजिये, तब दीक्षाग्रहण करने में किसी प्रकारकी कठिनाई नहीं है। अभी मेरा मन तुम्हें अनुमति देनेके लिये तैयार नहीं हैं।"
अभयकुमार-"तात ! अब सत्कर्ममें मुझे रस आ गया है, आनन्दको उपलब्धि हो गयी है और संसारके विषय-सुख नीरस प्रतीत हो रहे हैं। अतएव दीक्षा ग्रहण करनेके लिये अवश्य अनुमति दीजिये।" श्रेणिकने जब अभयकुमारफा वृढ़ निश्चय ज्ञास्त कर लिया, तो उन्हें अनु
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मति देनी पड़ी। अभयकुमारने अपनी मातासे भी अनुमति प्राप्त कर ली । अतः वह गौत्तम गणधर के निर्देशानुसार तीर्थंकर महावीरके समवशरण में पहुँचा और बहाँ दिगम्बर- दीक्षा ग्रहण कर ली । श्रेणिक भी पुत्र के दीक्षित होनेसे प्रसन्न हुआ और उसने राजगृहमें उत्सव सम्पन्न किया ।
अभयकुमारने दिगम्बर-दीक्षा धारण कर उग्र तप किया । उसने विकार और वासनाओंका निरोधकर कर्मोंकी निर्जरा की । साक्षात् तीर्थंकर महावीरका उपदेश श्रवणकर अभयकुमारने अपने कर्मोकी अनन्तगुणी निर्जरा आरम्भ की। उन्होंने चार घातियाकमको ननुकर वी. राग हो । अर्हन्तपद प्राप्त किया । समवशरण में जीव और कर्म के सम्बन्धमें ज्ञात कर अपनेको शुद्ध बुद्ध और ज्ञानस्वरूप बनाया ध्यानके प्रभाव से अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की उपलब्धि की । जो आत्मा बन्धका कर्त्ता है, वही आत्मा बन्धनसे मुक्ति प्राप्त करनेवाला है । पर इस मुक्तिकी प्राप्ति तभी होती है, जब अपने भीतर के परमात्मासे साक्षात्कार हो जाता है । इस परमात्मा पदके प्राप्त होते हो आत्मा सुख-दुःख, पुण्य-पाप आदिसे मुक्त हो जाती है ।
आर्यिका संघको प्रमुख आचार्या : चन्दना
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महावोरके संघ में मुनि और श्रावकोंके साथ बारिका और श्राविमयोंके भी संव थे । वीरसंघको व्यवस्था महिलाओं के सहयोग के बिना सम्भव नहीं थी । महावीरके संघ में छत्तीस हजार आर्यिकाएँ और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। महाराज चेटककी पुत्री चन्दना कोशाम्बी में व्रात्य जीवन व्यतीत कर रही थी और वह वीर तीर्थप्रवत्तं नक्की आशा लगाये हुई थी । जब महावीरका धर्म प्रवर्तन आरम्भ हुआ, तो चन्दना समववरण भूमिमें पहुँची और अनुरोध करने लगी- "स्त्रीपर्यायी माया प्रसिद्ध है । इस मायाका विनाश आर्यिका बनकर साधनाद्वारा नारी भी कर सकती है । पुरुष-पर्याय हो या नारी-पर्याय, सभी बन्धन हैं। सोनेका बन्धन लोहे के बन्धन से अच्छा नहीं हो सकता है। दोनों ही प्रकारके बन्धन व्यक्तिकी स्वतन्त्रतामें बाधक है । जो भव्य हैं, अपना और परका हित चाहते हैं, वे किसी से द्व ेष नहीं रखते, किसीको बुरा नहीं कहते । व्यक्तिके शुभ और अशुभ-संस्कार ही द्रष्टव्य हैं। अच्छे संस्कार उपादेय होते हैं और बुरे संस्कार हेय । जो व्यक्ति अपने संस्कारोंका निर्माण करता है, वही साधनाका अधिकारी बनता है 1"
चन्दना के अनुरोधका समर्थन इन्द्रभूति गौतमने भी किया और कहा" संघका संचालन प्रमुख विदुषी आर्यिका के अभाव में संभव नहीं है । अतः चन्दना के विरक्त भावोंका समादर होना आवश्यक है ।"
चन्दनाको आर्यिका दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति प्राप्त हो गयी । उसने
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द्वादश अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन किया और पञ्चमुष्टि लोंचकर श्वेत शाटिका धारण की।
चन्दनाकी दीक्षा होते ही हर्ष-ध्वनि हुई और देवोंने भी इसका अनुमोदन किया। चन्दना तीर्थकर महावीरके आर्यिका-संघकी गणिनी बन गयी । घेलना : भक्ति और त्याग
वीरसंघकी साध्वी-रमणियों में देलनाकी भी गणना की गयी है। इनका धर्माचरण दैनिक जीवन में अनुस्यत था। चेलनाने हो सम्राट श्रेणिक बिम्बसारको महावीरका अनुयायी बनाया था । इनका भवन मनि और त्यागियोंकी चरण-रजसे पवित्र होता रहता था। यह चारों प्रकार का दान देती, देवार्चन करती और स्वाध्यायद्वारा अपने अन्तरंगको पावन बनाती धर्ममार्गसे च्यत होनेवाले व्यचियोंके स्थितिकरणम सलग्न रहतो ।
एक समयकी घटना है कि नेलना द्वारापेक्षण कर रही थी। सौभाग्यवश एक कृशकाय द्विमासोफ्वासी तपस्वी विशाख चर्याक लिए पधारे । रानीने भक्तिपूर्वक मुनिराजको पड़गाहा और आहार-दान देने की तैयारी करने लगी । इसी समय उसने देखा कि कोई अदृश्य शक्ति मुनिराजपर उपसर्ग कर रही हैउनका इन्द्रिय-वर्द्धन होता जा रहा है। यदि मुमिराज अपने इस इन्द्रिय बद्धनका देखते तो अन्तराय मानकर बिना आहार लिए लौट जाते । अत: चेलनाने मुनिराजका निरन्तराय आहार सम्पन्न करानेके हेतु ऐसा उपाय किया, जिससे मुनिराजको उक्त उपसर्गका अनुभव ही नहीं हुआ ।
मुनिराज आहार-ग्रहणकर विपुलाचलपर्वतपर गये और ध्यानस्थ हो गये । उन्होंने शुक्लध्यान आरम्भ किया, जिससे धतियाकर्म नष्ट होने लगे। गुणस्थानारोहणके क्रमसे उन्होंने सयोगकेवली गुणस्थानमें पहुँचकर अनन्तचतुष्टयको प्राप्ति की और केवल ज्ञान उपलब्ध किया । सूर, असुर, नर, नारी, सभी केवलीको वन्दनाके लिए आने लगे । बेलना भी वहाँ उपस्थित हुई और उसने केवलीसे उस परोक्ष उपसर्गका कारण पूछा।
केवली-"मुनि होनेके पहले मैं पाटलिपुत्रका राजकुमार था मेरा नाम विशाख था । मेरी पत्नी कनकधी अत्यन्त रूप-लावण्ययुक्त थी। मेरा विवाह हुए अभी एक महीना भी नहीं हुआ था कि मैने अपने बालसखा मुनिराज मुनिदत्तको देखा। वे अपनी चर्याके लिए भ्रमण कर रहे थे। मैंने भक्तिभावपूर्वक मुनिदत्तको आहार दिया। मुनिराजने मुझे संसारका स्वरूप बतलायातथा आत्मोत्थानके लिए प्रेरणा दी। महाराजके उपदेशसे मुझे बड़ी शान्ति
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मिली तथा मेरे मनमें संसारके प्रति अरुचि उत्पन्न हो गयी । फलतः सर्वारम्भपरिग्रहका त्यागकर में भी मुनि बन गया ।" । ____ कनकनीको मेरा मुनि बनना अच्छा न लगा । अतः वह क्रोधावेशमें मुझे गालियाँ देने लगी तथा उसकी स्थिति उन्मत्त जैसी हो गयी और कुछ ही दिनों में उसका शरीर छूट गया । कनकधी कुभावनाके प्रभावसे व्यन्तरी हुई। उसने विभंगावधिसे मेरे सम्बन्धमें जानकारी प्राप्त की और प्रतिशोधके रूपमें उसने मेरी तपस्थामें विघ्न करना आरम्भ किया। मैं जब-चर्याके लिए निकलता वह मेरी इन्द्रिय-वृद्धि कर देती, जिससे अन्तरायके कारण मैं विना आहार लिए ही लौट जाता। इस प्रकार अन्तराय होनेसे मैंने द्विमासोपवास ग्रहण किया । जब में चर्याके लिए राजगृहमें आया, तो कनकनीके जीव उस व्यन्तरोने पुनः अन्तराय उपस्थित करनेका प्रयास किया, किन्तु तुमने उस उपसर्गको जानकारी मुझे नहीं होने दी। मैं तुम्हारे द्वारा शुद्धरूपसे दिये गये आहारको ग्रहण कर यहाँ आया और मुझे उत्कृष्ट ध्यानकी प्राप्ति हुई, जिसके फलस्वरूप केवलज्ञान मिला।" हुया आस्मोक्य ___चेलनाने उपगृहन अंगका पालनकर अपने सम्यक्त्वको दृढ़ किया | चेटककी पुत्री ज्येष्ठा आर्यिका बनकर धर्मसाधना कर रही थी और इनके पति सात्यकि भी मुनिपद ग्रहण कर आत्म-साधना कर रहे थे | चारित्रमोहोदयसे ये दोनों तपसे भ्रष्ट हए । चेलनाने इनका स्थितिकरण कर इन्हें पुनः धर्माराधनमें प्रवृत्त किया और तीर्थकर महावीरके समवशरणमें इन्हें प्रविष्ट कराया। प्रायश्चित्त कर ये दोनों आर्यिका और मुनि व्रत पालन करने में दृढ़ हुए।
चेलना आर्यिका चन्दनाकी वन्दनाके लिए गयो। चन्दनाके धर्मोपदेशका उसपर जादू जेसा प्रभाव पड़ा । फलतः उसके परिणाम भो विरक्तसे आप्लावित हो गये । श्रेणिकके अभावके कारण उसकामन भी सांसारिक कार्यो में नहीं लग रहा था । उसे संसारकी असारताकी अनुभूति हो गयी। फलतः चेलनाने भी चन्दनासे आर्यिका-दीक्षा धारण कर ली। __ चेलना तीर्थंकर महावीरके संघमें रहकर आत्म-साधना करने लगी। वह स्त्री-पर्यायका छेदकर पुरुष-पर्याय द्वारा कैवल्य प्राप्तिके लिए सोष्ट थी। तीर्थंकर महावीरके दर्शन-वन्दनसे चेलना और ज्येष्ठाका कल्याण हुआ। अन्य अनेक राजाओंद्वारा महावीरकी भक्तिचन्दना
तीर्थकर महाबोरकी वन्दना अनेक राजा-महाराजाओंने की और उनके २३२ : तीर्थकर महावीर और उनका प्राचार्य परम्परा
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दर्शन-अर्चनसे अपनेको धन्य बनाया । वैशालीनरेश चेटक, मगधनरेश कुणिक अजातशत्रु, हस्तिशोर्षनरेश अदीनशत्रु, सौगन्धिका-नरेश अप्रतिहत, वाराणसीनरेश जितशत्रु, सिन्धुसोचीर-नरेश उद्रामण, श्रावस्ती-नरेश जितशत्रु, चम्पानरेश दधिवाहन, उज्जयिनी-नरेश चण्डप्रद्योत एवं कौशाम्बी-नरेश शतानीक प्रसिद्ध हैं । इन सभी नरेशोंने तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें पहुंचकर शान्तिलाभ किया था। देशनामें आत्मशुद्धिके हेतु कर्मोसे संघर्ष करनेका संकेत विद्यमान था । जीवन जितना कठोर एवं संयमी होता है, व्यक्ति उत्तना ही ऊंचा उठ जाता है। जो विषय-वासनामि पड़ा रहता है, तपस्याक लिए प्रयास नहीं करता, वह जीवनमें कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता है। नदी, सरोवर और गड्ढोंमें पड़ा भूतलका जल संघर्ष करता है-सूर्य-किरणोंसे संतप्त होता है, सो वह रश्मियोंके सहारे ऊपर उठ जाता है, सारी गन्दगी और मेल नोचे रह जाते हैं। राजा हो या रंक, ब्राह्मण हो या शूद्र, विद्वान् हो या मूर्ख जो श्रम करता है, तपश्चरण करता है, वह महान् बन जाता है। ___ महावीरके उपदेशने कितने ही व्यक्तियोंके हृदय परिवर्तित कर दिये। उनके उपदेशसे प्रभावित होकर किसीने अणुव्रत ग्रहण किये और किसीने महानत । समाज-व्यवस्था और राष्ट्र-व्यवस्थाको महत्त्वपूर्ण बातोंकी जानकारी भी प्राप्त हुई।
दिव्यध्वनि या देशनाको भाषा
तीर्थकरकी दिव्यध्वनि अन्नक्षरात्मक होती है या अक्षरात्मक, इस सम्बन्धमें आगम-ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। कसायपाहुड और तिलोयपण्णत्तीमें दिव्यध्वनिको साल, दन्त, ओष्ठ तथा कण्ठके हलन-चलनरूप व्यापारसे रहित होकर एक ही समयमें भव्यजनोंको आनन्द देनेवाली बताया है । हरिवंश-पुराणसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है । इस ग्रन्थमें लिखा है कि ओठोंको विना हिलाये ही निकली हुई तीर्थकर-वाणीने तियंञ्च, मनुष्य और
१. अट्ठारस महाभासा खुरुलयभासा वि सत्तसयसंखा !
अक्सरमणक्खरप्मय सण्णोजीवाण सयलभासाओ ।। एवासिं भासाणं वालुवईतोट्टकंठवावारं । परिष्हरिय एक्ककालं भवजणाणेदकरभासों ।।
-तिलोयपग्णसी १२६१.६२. द्वीपंकर महावीर और उनकी देशना : २३३
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देवोंका दृष्टिमोह नष्ट कर दिया ।"
तत्त्वार्थवात्तिक में मुखसे दिव्यध्वनिकी उत्पत्ति बतलायी गयी है । बताया है कि सकलज्ञानावरणके क्षयसे उत्पन्न अतीन्द्रिय केवलज्ञान से युक्त केवली जिह्वाइन्द्रियके आश्रयमात्र से वक्तृत्वरूपमें परिणत होकर सकलश्रुतविषयक अर्थोंका उपदेश करता है । "
हरिवंशपुराण में भी बताया गया है कि दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में दिखनेवाले चारों मुखों से निकलती है ।
महापुराणके आधारपर कहा जा सकता है कि वा मुखरूप कमलसे बादलोंकी गर्जनाका अनुकरण करनेवाली अतिशययुक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी और वह भव्यजीवोंके मनमें स्थित मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करती हुई सूर्यके समान सुशोभित हो रही थी। इस दिव्यध्वनिमें सभी अक्षर स्पष्ट थे और ऐसी प्रतीति हो रही थी, मानो गुफाके अग्रभागले प्रतिध्वनि ही निकल
१. ( क ) जिनभाषाऽधरस्पन्दमन्तरेण विजृम्भिता । तिर्यग्देवमनुष्याणां दष्टिमोहमनीनशत् ॥ - हरिवंशपुराण २।११३. (ख) लोक्ये जिनशासनोरूपदवीशुश्रूषयावस्थिते, सम्पृष्टः प्रथमेन तत्र गणिना विश्वाविद्योतनः । भूयो भेदविवृत्तयाधरपरिस्पन्दोसितस्थात्मना मोहध्वान्तमकरोदय जिनो भानुः स्वभाषाश्रिया ।।
- वही, ९।२२४.
(ग) भाषाभेदस्फुरन्त्या स्फुरणविरहितस्वाधरोद्भाषमा च । - हरिवंशपुरण ५६।११७.
२. सकलज्ञानावरणसंक्षयाविर्भूतातीन्द्रियकेवलज्ञान: रसनोपष्टम्समात्रादेव वक्तृत्वेन परिणतः सकलान् श्रुतविषयानर्थानुपदिशति ।
--तस्वार्थवार्तिक २।१९।१० १० १३२ ( - ज्ञानपीठ-संस्करण)
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३. सरप्रश्नानन्तरं धातुश्चतुर्मुख विनिर्गता । चतुर्मुखफला सार्या चतुर्वर्णामाश्रया ।।
-हरिवंश ५८ ३
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रही हो।
दिव्यध्वनिके सम्बन्धमें कुछ आचार्योका अभिमत है कि यह सर्वहित करनेके कारण वर्णविन्याससे रहित है। पर कुछ आचार्य इसे अक्षरात्मक ही मानते हैं, यतः अक्षरोंके समूहके विना लोकमें अर्थका परिज्ञान नहीं हो सकता है । भाषात्मक शब्द दो प्रकारके माने गये हैं--(१) अक्षरात्मक और (२) अनक्षरात्मक ! अक्षरात्मक शब्द संस्कृतादि भाषाके हेतु हैं और अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादिके शब्दरूप होते हैं ।
दिव्यध्वनिको अनक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि वह जबतक सुननेवालेके कर्णप्रदेशको प्राप्त नहीं होतो, तबतक अनक्षरात्मक है और जब कर्णप्रदेशको प्राप्त हो जाती है, तब अक्षररूप होकर श्रोताके संशयादिको दूर करती है। अतः अक्षरात्मक कही जाती है । ___ वस्तुतः दिव्यध्वनि शब्दतरंगरूप होती है । तरंगें संप्रेषित होती हैं और श्रोता अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार उन्हें ग्रहण कर लेता है। अतः अनक्षरात्मक होते हुए भी अक्षरात्मक दिव्यध्वनि मानी जाती है । आजका विज्ञान भी कहता है कि ध्वनिमात्र प्रकम्पनकी प्रक्रिया है ! शब्दोत्पादक सभी वस्तुएं कम्पन करती हैं। कम्पनके अभावमें ध्वनि पैदा नहीं होनो । केवली बोलनेका प्रयत्न नहीं करते, अपितु तीर्थकरनामकर्मोदयके कारण कण्ठ, तालु आदिको प्रकम्पित किये बिना हो शब्द-वर्गणाओंके कम्पनके साथ ध्वनि होती है। यह ध्वनि पौद्गलिक है। काययोगसे आकृष्ट कर्म-पुद्गलस्कन्ध स्वयं शब्दका आकार लेते हैं, भाषारूपमें परिणत होते हैं।
१. (क) दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेपरवानुकृति निरगच्छत् । भव्यमनोगतमोहतमोमनातवेष यथव तमोऽरिः ।।
- महापुराण २३२६९. (ख) ताल्योमपरिस्पन्दि नछायान्तरमानने ।
अस्पृष्टफरणा वर्णा मुखावस्य विनिर्ययुः॥ स्फुरगिरिगृहोद्भूतप्रविशुष्यनिसन्निभः । प्रस्पष्टवर्णो निरगाद् ध्वनिः स्वायम्भुवाम्मुखात् ।।
वही, २४।८२-८३. २. पञ्चास्तिकाय-वात्पर्यवृत्ति १।४।९. ३. वही, ७९।१३५।६. ४. गोम्मटसार-जीवकाण्ड-जी०प्र० २२७॥४८८१५.
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शब्दोत्पत्तिकी प्रक्रिया दो प्रकारकी है-प्रायोगिक और वनसिक । प्रयत्नजन्य शब्दोंको प्रायोगिक कहा जाता है और सहज निष्पन्न शब्द वैनसिक कहलाते हैं । शब्द ध्वन्यात्मक होते हैं, पर सभी शब्द भाषात्मक नहीं होते । वस्त्रसिक शब्द अभाषात्मक माने जाते हैं। मेघकी गर्जना सहज उत्पन्न होती है, पर उसमें कोई भाषा नहीं प्रायोगिक शब्द अभाषात्मक और भाषात्मक दोनों प्रकारके होते हैं। भाषात्मक ध्वनि अर्थविशेषको अभिव्यक्त करती है, अभापारमक ध्वनि अर्थशून्य होती है। तीर्थंकरकी दिव्यध्वनि प्रयोगकालमें अनक्षरात्मक होते हुए श्रोताके श्रवणके समय अक्षरात्मक रूपमें परिवर्तित हो जाती है । इस दिव्यध्वनिकी यह प्रमुख विशेषता है। दिव्यध्वनि जिन पुद्गलस्कन्धोंको प्रेषित करती है; वे गतिशील होते हैं। उनमें शब्दरूप-परिणमन करनेकी क्षमता होती है। आवर्तन-परावर्तन और विवर्तनकी क्रियाएँ भी होती रहती हैं। यह ध्वनि चलनेमें किसीको माध्यम नहीं बनाती । साधारणत: ध्वनि-प्रसारके लिये वायुका माध्यम अपेक्षित होता है । पर तीर्थकरकी ध्वनिमें ऐसी सहज स्वाभाविक शक्ति विद्यमान रहती है, जिससे वह सभी जातिके प्रोताओंके कर्णप्रदेशमें पहुंचकर तत्तद् भाषारूपमें परिणत हो जाती है ।
हरिवंशपुराणके एक पद्यमें बताया गया है कि जिस प्रकार आकाशसे वर्षाका पानी एकरूप होता है, परन्तु पृथ्वीपर पड़ते ही वह मानारूपोंमें दिखलायी पड़ने लगता है । उसी प्रकार तीर्थंकरको दिव्यध्वनि एकरूपमें रहते हुए भी सभामें स्थित पशु-पक्षी, देव-गंधर्व, मनुष्य आदिको अपनी-अपनी भाषामें अवगत होती है।' विध्यध्वनि : सर्वभाषा
दिव्यध्वनिको सर्वभाषात्मक माना गया है। आचार्य समन्तभद्रने अपने स्वयंभू-स्तोत्रमें तीर्थकर महावीरको दिव्यध्वनिको सर्वभाषात्मक कहा है और १. अमानारमापि तवृतं नाना पात्रगुणाश्रयम् । सभायां दृश्यते नाना विस्यमम्बु यथाथनौ ॥
-हरिवंशपुराण ५८।१५.
एकरूपापि तद्भाषा श्रोतून प्राप्य पृथविधान् । भेजे नानात्मतां कुल्पाजलस्मृतिरिवाध्रिपान् ॥
आदिपुराग १११८७. २, स्वयंभू-स्तोत्र, पा ९५. २३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी शाघार्य-परम्परा
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बतलाया है कि तीर्थकरका वचनामृत संसारके समस्त प्राणियोंको अपनी-अपनी भाषामें तृप्त करता है। अलंकार-चिन्तामणिमें भी इसे सर्वभाषात्मक, असीम सुखप्रद और समस्त नयोंसे युक्त बतलाया है।'
घवलाटीफामें आचार्य वीरसेनने लिखा है-"योजनान्तरदूरसमीपस्थाष्टादशभाषा - सप्सहतशतकुभाषायुत-तिर्यग्देवमनुष्यभाषाकारल्यूनाधिक-भावातोतमधुरमनोहरगम्भीरविशदधागतिशयसम्पनः भवनवासिवाणव्यन्तर-ज्यो. तिष्क-कल्पवासीन्द्र - विद्याधर-चक्रवर्ति-बल-नारायण-राजाधिराज-महाराजार्घमहामण्डलीकेन्द्राग्नि-वायु-भूति-सिंह-व्यालादि-देव - विद्याधर-मनुष्यषि - तियंगिन्द्रेभ्यः प्राप्तपूजातिशयो महावीरोऽर्थकर्ता।" ___ अर्थात् एक योजनके भीतर दूर अथवा समीपमें बैठे हुए अठारह महाभाषा और सात-सौ लघु भाषाओंसे युक्त तिर्यंच, मनुष्य और देवोंकी भाषाके रूपमें परिणत होनेवाली तथा न्यूनता और अधिकतासे रहित मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद भाषाके अतिशयोंसे युक्त तीर्थकरकी दिव्यध्वनि होती है।
महापुराणमें आचार्य जिनसेनने भी इसे अशेषभाषात्मक कहा है । अतिशयविशेषके कारण यह दिव्यध्वनि समस्त भावरूपों परिणमन करती है। स्याद्वादरूपी अमृतसे युक्त होनेके कारण समस्त प्राणियोंके हृदयान्धकारको नष्ट करती है।
महापुराणमें यह भी बताया गया है कि दिव्यध्वनि एकरूपमें होती हुई भी तीर्थंकर-प्रकृतिके पुण्य प्रभावसे समस्त मनुष्यों और पशु-पक्षियोंको संकेतात्मक भाषामें परिणत हो जाती हैं ।
निष्कर्ष यह है कि दिव्यध्वनि, ध्वनिरूप होती है और अगरह महाभाषा तथा सात-सौ कुभाषारूप परिणमन करती है। यह अक्षर और अनक्षर स्वरूप १. अलंकार-चिन्तामणि, भारतीय ज्ञानपीठ-संस्करण १।१०२. २. षट्खण्डागम, यवलाटीका-समन्वित, अषम जिल्द, १० ६१. ३. त्वरिव्यवागियमघोषपदार्थगर्भा भाषान्तराणि सकलानि नियन्ती । सत्शवयोषमचिरात् कुरुते बुधानां स्यादादनीतिविहतान्धमतान्धकारा ।।
-आदिपराण २३॥१५४: ४. एकतयोऽपि च सर्वनभाषा: स्रोऽन्तरनेष्टबहप कुभाषाः । अप्रपिपत्तिमपास्य व तस्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना ।।
--आदिपुराण २३१७०. तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २३७
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बीजपदोंसे युक्त है। अतः सभी प्राणियोंको अपनी-अपनी भाषामें प्रवचन सुनायी पड़ता है ।
कहा जाता है कि तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा में होती थी । वैयाकरणोंने इसे आषं प्राकृत कहा है । अर्धमागधीशब्द की व्युत्पत्ति 'अघं मागध्या' अर्थात् - जिसका अर्धांश मागधी हो और शेष अद्धीश अन्य भाषाओंसे निर्मित हो, वह अर्धमागधी है । इस व्युत्पत्तिका समर्थन ई० सन् सातवीं शताब्दीके विद्वान् जिनदासगण महत्तरके 'निशीथचूणि' नामक ग्रन्थ में उल्लिखित "पोराणद्धमागहभासा निययं हवई सुत्तं" द्वारा भी होता है । अर्थमागधीशब्दकी व्याख्या - " मगहुद्धविसयभासानिवज्रं अद्धमागही " — अर्थात् मगधदेशके अर्धप्रदेशकी भाषा अर्धमागधी कही जाती है । अर्धमागधो में अठारह देशी भाषाओं का मिश्रण माना गया है। बताया है- "अट्ठारस देसी भासा निययं वा अद्ध-मागहं" । जिनसेनने भी इसे सर्वभाषात्मक कहा है ।
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अर्धमागधीका मूल उत्पत्ति स्थान मगध और शूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती प्रदेश है। तीर्थं करोंके उपदेशकी भाषा अर्धमागधी ही मानी गयी है । आदितीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के निवासी थे । अतः अयोध्या के पाश्र्ववर्ती देशको मापन ही होगी।
एक धारणा यह भी प्रचलित है कि भगवान् महावीर अर्धमागधीमें उपदेश देते थे । इनका जन्मस्थान वैशाली था, इनके विहार और प्रचारका मुख्य क्षेत्र पूर्व में राढ़ भूमिसे लेकर पश्चिम में मगधको सीमा तक, उत्तर में वैशालीसे लेकर दक्षिण में राजगृह और मगधके दक्षिणी किनारे तक था। यों तो महावीरका समवशरण देशके प्रत्येक भागमें गया था, पर उनकी तपस्या और वर्षावासोंका सम्बन्ध उक्त प्रदेशके साथ विशेषरूपसे है । अतः अर्धमागधी इसी क्षेत्रकी भाषा रही होगी। यह भी ज्ञातव्य है कि इन क्षेत्रोंमें बोली जानेवाली अन्य बोलियों का प्रभाव भी अवश्य पड़ा होगा | आर्यभाषाके अतिरिक्त इन क्षेत्रों में मुण्डा एवं द्रविड़वर्गको भाषाएँ भी प्रचलित थीं । अतः इन दोनों वर्गकी भाषाओंका प्रभाव भी अर्धमागधीपर अवश्य पड़ा है। अर्धमागधीमें संस्कृतके
१. सर्वार्धमागधी सर्वभाषासु परिणामिनीम् ।
सर्वेषां सर्वतो वाचं सार्वशी प्रणिदध्महे ॥
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- वाग्भट - काव्यानुशासन, पृ० २.
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"भगवं चणं अद्धमाहीए भालाए घम्ममाइक्लद्द " – समावायाङ्गसूत्र, पद्म ६० २. महापुराण ३३।१२०, ३३१४८.
२३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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स्वार्थिक 'क' प्रत्ययके स्थानपर 'ह' प्रत्यय भी पाया पाया जाता है । यह 'ह' प्रत्यय मुण्डा वर्ग की भाषासे गृहीत है । 'अरिहा शब्द उदाहरणार्थ लिया जा सकता है । 'बार्य' शब्दसे प्राकृतमें 'अय्य' और 'अरिया' शब्द निष्पन्न होगें । तब यह 'अरिहा' शब्द किस प्रकार बनेगा | आर्यशब्दसे स्वार्षिक 'क' प्रत्यय जोड़कर 'अरिय' या 'अरिया' बन सकते हैं। पर 'अरिहा' शब्दका बनना सम्भव नहीं है । यहाँ मुण्डा भाषाका स्वाधिक 'ह' प्रत्यय विद्यमान है। यही कारण है कि उत्तरकालीन प्राकृतवैयाकरणोंने इस समस्याके समाधानार्थं 'क'के स्थानपर 'ह' प्रत्ययका विधान स्वीकार किया।
तीर्थंकर महावीर अर्धमागधी में उपदेश देते थे और उनकी वह दिव्यध्वनि मनुष्य, पशु आदिकी भाषामें परिणत हो जाती थी । समवायांगसूत्रमें लिखा है -- "भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्मं आइक्वइ । सा वि य णं अद्धमागही भास भासिज्ज माणी तेसि सव्वेसि आरियमनारियाणं दुप्पयच उप्पयमयपसुपविखसरिसिवाणं अप्पप्पणो हियसिवसुहृदायभासत्ता परिणमइ' ।"
अर्थात् भगवान् महावीरकी देशना अर्धमागधीमें होती थी । यह शान्ति, आनन्द और सुखदायिनी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु-पक्षी और सरिसृपोंके लिये उनकी अपनी-अपनी बोलीमें परिणत हो जाती थी ।
ओवाइयसुत्तसे भो उक्त तथ्यको पुष्टि होती है- "तए णं समणे भगवं महाबीरे कूणियस्स रण्णो भिभिसारपुत्तस्स अद्धमागहए भाषाए भासइ । अरिहा धम्मं परिकहेछ । सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसि आरियमणारियाणं अप्पणी सभासाए परिणामेणं परिणमइ ।"
उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि अर्धमागधी भाषा में आयें और आर्येतर भाषाओं का सम्मिश्रण है ।
सर्वमान्य सिद्धान्त है कि अर्धमागधीका रूप-गठन मागधी और शौरसेनीसे हुआ है । हार्नलेने समस्त प्राकृतभाषामों को दो वर्गों में बाँटा है 1 एक वर्गको उसने शौरसेनी प्राकृत बोली और दूसरे वर्गको मागधी प्राकृत बोली कहा हैं । इन बोलियोंके क्षेत्रोंके बीचों-बीचमें उसने एक प्रकारकी एक रेखा खींची, जो उत्तर में खालसी से लेकर बैराट, इलाहाबाद और फिर वहाँसे दक्षिणको रामगढ़ होती
१. समदायाङ्ग ( अहमदाबाद, सन् १९३८ ई०), सूत्र ९८. २. कम्परेटिव ग्रामर, भूमिका, पृ० १७ तथा उसके बाद के पृष्ठ |
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हुई जोगढ़ तक गयी है। ग्रियर्सन उक्त मतसे सहमत होते हुए लिखते हैं कि उक्त रेखाके पास आते-जाते शन-शनैः ये दोनों प्राकृतें आपसमें मिल गयीं और इसका परिणाम यह हुआ कि इनके मेलसे एक तीसरी बोली उत्पन्न हुई, जिसका नाम अर्धमागधी पड़ा।
इस कथनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि भाषाकी सहज प्रवृत्तिके अनुसार अड़ोस-पड़ोसकी बोलियोंके शब्द धीरे-धीरे आपसमें एक दूसरेकी बोलीमें धुलमिल जाते हैं और उन बोलियों के भीतर इतना घर कर लेते हैं कि बोलनेवाले यह नहीं समझ पाते कि वे किसी दूसरी बोलीके शन्दोंका प्रयोग कर रहे हैं। अतः शौरसेनी और मागधी के संयोगसे अर्धमागधीके रूपका गठित होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है।
वस्तुतः प्राचीन भारतमें दो ही प्रकारको प्राकृत भाषाएं मान्य थीं-शौरसेनी और मागधी । शौरसेनी पश्चिम प्रदेशको भाषा थी और मागधी पूर्वको।
वर्तमानमें श्वेताकर आगम-साहित्यके जो ग्रन्थ अर्धमागधीमें उपलब्ध होते हैं, वह अर्धमागधी तीर्थकर महावीरकी दिव्यध्वनिकी भाषा नहीं हैं। इसका रूप तो चौथी-पांचवीं शताब्दीमें गठित हुआ है। तीर्थ कर महावीरकी दिव्यध्वनिका अध्ययन करनेपर उसके स्वरूपके सम्बन्धमें निम्नलिखित निष्कर्ष उपलब्ध होते हैं
(१) दिव्यध्वनि ध्वन्यात्मक होती है और ध्वनिके अक्षरात्मक और अनक्ष. रात्मक दोनों ही भेद हैं। सरंग रूपमें परिणत होती हुई ध्वनि श्रोताओंके कर्णप्रदेशमें भाषात्मक रूपमें उपस्थित होती है ।
(२) दिव्यध्वनिका यह भाषात्मक रूप आर्य-अनार्य आदि वर्गकी विभिन्न भाषाओं द्वारा ग्रथित होता है । यही कारण है कि आचार्योने अठारह भाषाओं और सातसो कुभाषाओंका मिश्रण इसमें माना है। भाषाका यह रूप सभी स्तरके प्राणियोंको बोध्य था । पशु-पक्षी संकेतात्मक भाषाको समझते हैं । उनके पास वाणी नहीं होती, पर वे अनुभव सभी बातोंका करते हैं। तोर्थंकरोंकी यह दिव्यध्वनि अनुभवके तलपर पशु-पक्षियोंको भी उद्बोधित करती थी । पशु-पक्षियोंका अनुभव मूक रूपमें होता है। वे भाषासे दूर रहकर भी अनुभूतिके स्तरपर तरंगरूप ध्वनियोंको संकेतात्मक रूपमें ग्रहण करते हैं। अतः अनुभव और भाबके रूपमें पशु-पक्षी दिव्यध्वनिसे लाभान्वित होते हैं। मानव
१. चण्डके प्राकृत-लक्षणको भूमिका, पु. २१. २. सेवन ग्रामर्स ऑफ दी इलेक्ट्स एण्ड सब हाइलेक्ट्स, ऑफ दी बिहारी
लैंगवेज, खण्ड १, पृ० ५, (कलकत्ता १८८३ ई०). २४० : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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जगतके प्राणी अनेक बोलियोंके बोलनेवाले होते हैं। अतः उन्हें लाभान्वित करनेके लिये ऐसी वाणी कार्यकारी हो सकती है, जो सभी भाषाओंका मिश्रण हो। जिस प्रकार आजकल एक ही भाषा विभिन्न अनुवादक-यन्त्रोंके द्वारा अनेक भाषाओं में सुनी जाती है, उसी प्रकार दिव्यध्यान भी अपनी विशेषताओं के कारण समस्त मानव-जगतको अपनी-अपनी बोली में सुनायी पड़ती थी ।
देव भी दिव्यध्वनिको समझते थे। इस जगतकी भाषाका क्या रूप है, यह सो अभी तक निर्धारित नहीं हो पाया है। दिव्यध्वनिका देव-जगतके भावोंके साथ सीधा सम्बन्ध है। भाव-सम्प्रेषणके लिये किसी माध्यमकी आवश्यकता नहीं थी । उदाहरणार्थ आजके वायरलेसको लिया जा सकता है। वायरलेसमें कोई माध्यम नहीं है। विचारोंका सीधा सम्प्रेषण होता है। दिव्यध्वनि इसी कारण अनक्षरात्मक मानी गयी है कि देव-जगतके साथ तरंगावली या भाव. धाराका सीधा सम्प्रेषण हो । कहा जाता है कि मौनरूपमें स्थित रहकर अनुभवका जितना ज्यादा और सीधा सम्प्रेषण होता है, उतना वाणीके द्वारा नहीं।
दिव्यध्वनिकी तरंगे देव-जगतके तलपर पहुँचती हैं। यह अनुभवकी बात है कि मनुष्य जिस तथ्यको शब्दोंके द्वारा प्रतिपादित नहीं कर पाता है, उस तथ्यको वह मौन साधना द्वारा व्यक्त कर देता है।
(३) दिव्यध्वनिको भाषात्मक मानकर हो उसे अर्धमागधो कहा गया है और यह अर्धमागधी आयं एवं आर्येत्तर भाषाओंका सम्मिलित रूप थी। समवशरण-विहार
तीर्थकर महावीरने धर्मामतकी वर्षा केवल राजगृहके आस-पास ही नहीं की, अपितु उनके समवशरणका विहार भारतके सुदूरवर्ती प्रदेशों में भी हुआ। हरिवंश-पुराणमें बताया गया है कि जिस प्रकार भववत्साल तीर्थंकर ऋषभ
१. काशिकौशलकौशल्यफुसन्ध्यासदारनामकान् ।
साल्वत्रिगतपच्चालभद्रकार पटना ।। मोकमत्स्यकनीयांश्च सूरसेनकार्थपान् । मध्यदेशानिमान मान्यान् कलिंगकुरुजांगलान् । कैकेयायकाम्बोज बाहलीकय समश्र तोन् । सिन्धुगान्धारसौबीरसरमी रुदेसराम न् ।। वाइवानभरद्वाजक्वाथतोयान् समुद्रजान् । उत्तरांस्तार्णकाणीश्च देशान् प्रमालनामकान् ।।
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देवने अनेक देशोंमें विहारकर उन्हें धर्मसे युक्त किया था, उसी प्रकार अन्तिम तीर्थ कर महावीरने भी वैभवके साथ विहारकर मध्यके काशी, कौशल, कौशल्य, कुसन्ध्य, अस्वष्ट, शाल्व, विगतं, पांचाल, भद्रकार, पटम्बर, मौक, मत्स्य, कनीय, शरसेन एवं कार्थक नाम : राम-ततके कलिंग. कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, काम्बोज, बाल्हिक, यवनश्रुति, सिन्धु, गान्धार, सूरभीरु, दशेरुक, बाड़वान, भारद्वाज और वाथतोय देशोंमें एवं उत्तर दिशामें तार्ण, प्रच्छाल आदि देशोंमें विहारकर उन्हें धमकी ओर उन्मुख किया था। तीर्थंकर महावीरका यह समवशरण-विहार विभूतिसहित होता था, जिसके कारण मानवताका विशेष प्रचार हुआ। महावीरने वैशाली, वणिय-ग्राम, राजगृह, नालन्दा, मिथिला, भद्रिका, अलामिका, श्रावस्ती और पावामें विशेष रूपसे धर्मामृतकी वर्षा की थी। विपुलाचल और वैभारगिरिपर महावीरकी दिव्यध्वनि कई बार हुई थी। अनेक राजा-राजकुमार और राजकुमारियोंने आत्म-कल्याणका मार्ग ग्रहण किया। __ मगवती-सूत्रमें तीर्थकर महावीरके नालन्दा, राजगृह, पणियभूमि, सिद्धार्थनाम, कूर्मग्राम आदि स्थानोंमें पधारनेका उल्लेख है। उवासगदसासूत्रमें वणिजनाम, चम्पा, वाराणसी, आलभी, काम्पिल्यपुर, पोलासपुर, राजगृह और श्रावस्ती में तीर्थकर महावीरके समवशरण-विहारका कथन आया है। वाणिज-ग्रामकी धर्मसभामें आनन्द श्रावक और उसकी भार्या शिवानन्दा इनके उपासक बने थे। चम्पामें श्रावक कामदेव और श्राविका भद्रा; वाराणसीमें श्रावक चूलनिप्रिय एवं सूरदेव तथा श्राविका श्यामा और धन्या; आलभीमें श्रावक चुल्लशतक और श्राविका बहुला, कम्पिल्यपुरमें कुण्डको लिय और पुष्पा दम्पति, पोलासपुरमें सर्दलमित्र और अग्निमित्रा, राजगृहमें श्रावक महाशतक और विजय एवं श्रावस्तीमें नन्दिनीप्रिय और शलतिप्रिय उपासक बने थे। ___ महावीरके वचनामृतने ऊंच-नीच और जाति-पांतिके भेद-भावको मिटा. कर मानवताकी प्रतिष्ठा की थी। हम यहाँ तीर्थंकर महाबीरके समवशरणविहारका संक्षिप्त निर्देश प्रस्तुत करेगें। वैशाली : चेटक एवं सेनापति सिंहका धर्म-श्रवण __ राजगृहसे भगवान महावीरके समवशरणने वैशालीमें विहार किया । यहाँके गणनायक महाराज चेटक थे, जिनकी रानीका नाम सुभद्रा था । चेटक
धौ णायोजयद् वीरो बिहरन् विभवान्वितः ।
यथव भगवान् पूर्व वृषभो भब्यवत्सलः ।।-हरिवंशपुराण ३।३-७ २४२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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ऋषभदेव आदि तथंकरोंके धर्मके आराधक थे। जिनेन्द्रप्रभुकी पूजा और अर्चामें विशेष भाग लेते थे। इनके धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, सुकुम्भोज, अकम्पन, सुपतंगक, प्रभंजन और प्रभास ये दश पुत्र थे।
सिंहभद्र वृजिगण-सेनाका पराक्रमी सेनापति था। चेटक चोर, पराक्रमी और रणकुशल था | जब चेटकको वैशालीमें महावीरके समवशरण के पधारनेका समाचार प्राप्त हुआ तो वह परिवार-सहित तीर्थकर महावीरको बन्दना करनेके लिये गया। उसने महावीरके मुलसे सुना--"मनुष्य सहस्रों दुन्ति शत्रुओंपर सगर खारे विजय प्रा कर सकता है, पर अपने ऊपर विजय प्राप्त करना कठिन है, बाह्य शत्रुओंसे लड़ना जितना सुकर है अन्तरंग काम, क्रोधादि शत्रुओंसे लड़ना उतना ही कठिन है । शत्रुओंके परास्त करनेसे सुखशान्ति प्राप्त नहीं हो सकती । सुख-शान्ति तो अहिंसामय वातावरणमें ही उपलब्ध होती है।" महावीरने जिनदत्त और सुरदत्तका इतिवृत्त सुनाकर संसारविरक्तिको ओर उन्हें आकृष्ट किया। महावीरने आध्यात्मिक उत्क्रान्तिका विवेचन करते हए गुणस्थान और मागणाओंका स्वरूप बतलाया। चेटकके अधीन नौ लच्छवी, नी मल्ल इस प्रकार काशी-कोशलके अठारह गणराजा थे। इनके चेटक नाम होनेका कारण यही था कि ये शत्रुओंको अपना चेटक-सेवक बनाते थे। हरिषेण-कृत कथाकोशमें इनके पिताका नाम केक और माताका नाम यशोमतो बताया गया है।
महावीरके उपदेशसे चेटक विरक्त हुआ और वह उनका भक्त हो गया तथा उनके चरणोंमें दाक्षा ग्रहण कर ली । कहा जाता है कि चेटकने दिगम्बर-दीक्षा धारणकर विपुलाचल पर्वतपर तपश्चरण किया। चेटकके मुनि होनेपर वैशालीका आधिपत्य उनके पुत्रको प्राप्त हुआ।
किसी समय सेनापति सिंहभद्र भी तीर्थकर महावीरकी बन्दनाके लिये समवशरणमें पहुंचा और विनयपूर्वक चोला-"प्रभो! लिच्छवी-राजकुमार शाक्य मुनि गौतमबुद्धकी प्रशंसा करते हैं, उनके मतको अच्छा बताते हैं, इसका क्या कारण है ?"
१. उत्तरपुराण ७५.३. २. बथ वनविवे बेमे विशालीनगरीनर: । अस्यां ककोऽस्य भार्यासीत् यशोमितिरिनप्रभा ।।
--बृहत्कथा-कोश. पृ० ८३, इलोक १६५.. ३. सो चेडवो साबो ?--अ [वश्यकचूणि, उसराद्ध, पत्र १६४.
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तीर्थंकर महावीरकी वाणीकी व्याख्या करते हुए इन्द्रभूति गणधर कहने लगे — "गौतमबुद्धके बचन मनको लुभानेवाले इन्द्रायण फलके समान सुन्दर है । पर तुम तो कर्म सिद्धान्तके श्रद्धालु हो। तुम्हें अक्रियावादी गौतमके मतसे क्या प्रयोजन ? मुग्ध लिच्छवी कुमार इस भेदको नहीं जानते, जो कर्मों के फलको भोगनेवाली आत्मा के अस्तित्वको भी स्पष्टतः स्वीकार नहीं करते । वे पुनजन्म और कर्मफलकी व्यवस्था स्वीकार करने में असमर्थ है। जिसे ग्रा
त्वमें विश्वास है, वही हिंसाका त्यागी हो सकता है । सहृदय व्यक्ति कभी किसीके प्राणों का बध नहीं कर सकता । अतएव द्रव्यहिंसा और भावहिंसा के स्वरूपको ज्ञात कर हो व्यक्ति अहिंसा धर्मका पालन कर सकता है। जो प्रमादवश क्रोध, मान, माया, लोभके वशीभूत है, वह प्राणिवध न करनेपर भी हिसाका भागी है । इन्द्रभूति गणधरने संकल्पो, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी हिसाबका स्वरूप सेनापति सिंहद्रको बतलाया। साथ ही यह भी कहा कि देशरक्षाके हेतु प्राणियों का वध भी हिंसा के अन्तर्गत नहीं है । जो भावहिंसक है, वह द्रव्यहिंसा न करनेपर भी हिंसाका पातकी बनता है । भावोंकी पवित्रता और लोकोपकारिताकी वृत्ति अहिंसा में सम्मिलित हैं । जो संग्राम स्वार्थ, द्वेष, लोभ और अहंकारवश किया जाता है, वह संग्राम अहिंसा धर्म की दृष्टिसे वर्जित है, पर देशोत्थानकी कामनाकी दृष्टिसे किया जानेवाला संग्राम अहिंसा धर्म में बाधक नहीं है ।" सिंह सेनापति तीर्थंकर महावीरके समवशरण में इन्द्रभूति गणधरके वचनोंसे अधिक प्रभावित हुए और उन्होंने श्रावक के व्रत स्वीकार किये |
बाणिज्यग्राम जितशत्रुका नमन
वैशालीके निकट ही वाणिज्यग्राम अवस्थित था। तीर्थंकर महावीरका समवशरण यहाँ भी आया । जितशत्रु राजा उनकी वन्दनांके लिये चला | वह महावीरकी दिव्यध्वनिको सुनकर बहुत प्रभावित हुआ तथा उनका मत बन
गया' |
पोलासपुर : विजयलेन और सद्दालपुत्रका मोहभंग
उत्तर भारतका यह भी एक प्रसिद्ध नगर है । इस नगर के बाहर सहस्रान नामक उद्यान था । यहाँके राजाका नाम विजयसेन था। राजा विनय और श्रीदेवीके पुत्र अतिमुक्तक राजकुमारने बाल्यावस्थामें हो मुनिदीक्षा ग्रहण
१. वाणियगामे नयरे जियसत्तू नामं शया होत्या- उषासगदाओ ( पी० एल० वैद्य सम्पादित), पृ० ४.
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कर लो पो। विजयसेनने जब तीर्थकर महावीरके मुखसे धर्मामृत सुना और आत्माके अहितकारक विषय-कषायोंका परिज्ञान हुआ. तो उसने विरत हो श्रावकके व्रत ग्रहण कर लिये । __इसो नगरमें सद्दालपुत्त नामक एक प्रसिद्ध कुम्भकार भी निवास करता था। जिसने तीन करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ मिट्टोके वर्तन बनाकर अर्जित की थी। इसकी पांच सौ दुकानें अनेक नगरोंमें चलती थीं। यह भारतका प्रसिद्ध शिल्पी था । महवीरके उपदेशसे प्रभावित होते ही इसके मोहका भंग हो गया और मुनिदोक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकार पोलासपुर में तीर्थंकर महावीरके समवशरण द्वारा अनेक प्राणियोंका कल्याण हुआ। कुछ व्यक्ति पोलासपुरको अवस्थिति मगध और विदेहके मध्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि पोलासपुर उस समयका प्रसिद्ध नगर था । इस नगरमें तीर्थंकर महावीरका समवशरण कई बार बाया था। पम्पा : कुणिक अजातशत्र, वषिवाहन और करकण्डको दीक्षा
चम्पाको अंगदेशको राजधानी बताया गया है। तीर्थकर महावारका समव. शरण यहां मो आया था। यहाँके समय-समयपर होनेवाले कई राजा महावीरके समवशरणसे प्रभावित हुए हैं। तीर्थकर महावीरका समवशरण जब चम्पामें पहुंचा तो उस समय चम्पाका राजा कुणिक अजातशत्रु था । इसने भक्ति-भावपूर्वक महावीरकी वन्दना की। कहा जाता है कि आरम्भमें अजातशत्रु उदार और सहिष्णु था, पर बादमें देवदत्तके बहकानेसे उसको श्रद्धा बौद्धधमंकी ओर हो गयी। इसने जैनधर्मके प्रचार और प्रसारके लिए जो कार्य किए हैं, वे इतिहासमें अजर-अमर हैं।
वन्दना करनेके अनन्तर सम्राट अजातशत्रुने पूछा-"प्रभो ! विश्वके लोग लाभके हेतु ही कोई उद्योग करते हैं। साधु भो किसी अच्छे लाभके लिए ही घर छोड़ते होंगे? इस सम्बन्धमें संसारके विभिन्न विचारकोमें मत-भिन्नता है। कौन-सा मत सत्य है ? यह बतलानेकी कृपा कीजिए।" __उत्तरमें धर्मदेशना हुई—"राजन् ! यह सत्य है कि मनुष्यका उद्योग लाभके लिए होता है। परंतु लाभ दो प्रकारका है. लौकिक और पारलौकिक । लौकिक लाभ-घन,सम्पत्ति, पुत्र, स्त्री-विषयक हैं और यह नाशवान हैं। ये सब प्रकट पदार्थ हैं और पुद्गलांशोंसे इनका निर्माण हुआ है । इनके द्वारा शाश्वत सुख किसीको प्राप्त नहीं हो सकता है। इनमें स्वयं सुख है ही नहीं। बतएव साखु शाश्वत सुख प्राप्तिके लिए मोक्ष-पुरुषार्थकी साधना करते हैं।
पीपंकर महावीर और उनकी वेशमा : २४१
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उन्हें लौकिक सुखकी चाह नहीं है। उनका लाभ अनन्त कालके लिए स्थायी होता है । यह मोक्ष-सुख ही सर्वदा आनन्ददायक है। निर्ग्रन्थ अमण संवर और निर्जरा द्वारा अपने पापोंको दूर करते हैं।" ___ अजातशत्रुने उपर्युक्त धर्मामतको सुनकर अपना जन्म कृतार्थ समझा । वह जिज्ञासुके रूपमें पुनः निवेदन करने लगा-'आपका कहना यह सत्य है कि मोक्ष-सुख सर्वोत्तम सुख है, पर इस सुखका क्या स्वरूप है, कैसा है ? यह तो ज्ञात नहीं। आत्मा और मोक्ष-सुखका भी अस्तित्व कैसे जाना जा सकता है?" ___ व्यवस्था करते हुए गौतम गणधरने कहा-"राजन् मोक्षका सुख आकाशकुसुमवत् नहीं है और न था, इन्धित द्वारमा ही है । यह तो जीवन मुक्तावस्था है । निरपद और शाश्वत सुखरूप है। आत्माकी स्वतन्त्रता ही सुखदायक है और मोक्षमें यही स्वतंत्रता उपलब्ध होती है। आत्म-सुख अनुभूतिगम्य है। इसकी तुलना सासारिक सुखोंसे नहीं की जा सकती है।" इतना ही नहीं, अनेकान्तवादकी व्याख्या भी प्रस्तुत की गयीं। अजातशत्रु कुणिक इस देशनाको सुनकर प्रभावित हुआ और उसने इन्द्रभूति गौतमके निकट श्रावकके व्रत ग्रहण किये। चम्पा : अनेकबार समवशरणका सौभाग्य
चम्पा नगरीमें दूसरी बार जब भगवान् महावीरका समवशरण पहुंचा, तो उस समय जितशत्र राज्य करता था। उनका यह समवशरण पूर्णभद्र उद्यानमें स्थित हआ। समवशरणके पहंचते हो सभी दिशाओंमें तुमुल जयघोष आरम्भ हो गया | धनी-मानी राजा-महाराजाओंके साथ सामान्य और उपेक्षित जनता भी उनका धर्म श्रवण करनेके लिए पहुँचने लगी। जिसके भी कानोंमें तीर्थकर महावीरको वाणी पड़ जाती थी, वही धन्य हो जाता था। राजा जितशत्रु भी तीर्थकर महावीरको बन्दनाके लिए चल पड़ा और उनकी देशना सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुआ । उसे अनुभव हुआ कि समाज, देश और राष्ट्र-व्यवस्थापकके रूपमें तीर्थंकर महावीरसे बढ़कर अन्य कोई व्यक्ति नहीं है । ये जन्म, जरा और मरण-रोगके चिकित्सक तो हैं ही, पर समाजमें उत्पन्न हुए अर्थजन्य वैषम्यको भी मिटानेवाले हैं। यज्ञवाद, जातिवाद, बहुदेववाद आदिको समीक्षाकर समाजको नई क्रान्ति देनेवाले हैं। इन्होंने भारतकी सांस्कृतिक विरासतको ऊर्ध्वमुखी बनानेके लिए पूरा प्रयास किया है। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे जाव समोसरिए । परिसा निग्गमा । कूणिए राया जहा तहा जितसत्तू निग्गच्छइ-निग्गच्छत्तिा भाव पज्जुवासइ ।
-उवासगदसाओ ( पी० एल० वद्य-सम्मादित); पृ०२५. २४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इस प्रकार विचार-विनियम करते हुए राजा जितशत्रुने तीर्थंकर महावीरको शरण स्वीकार की और श्रावकके नत ग्रहण किये ।' करकण्ड जन्म और वीक्षा
तीसरी बार जब महावीरका समवशरण चम्पा में पहुंचा, तो उस समय इस नगरीके राजा दधिवाहन अपने पुत्र करकण्डुको राज्य देकर दीक्षित हो गये। बताया जाता है कि दधिवाहनकी पत्नीका नाम पद्मावती था। यह वैशालीके महाराज चेटककी पुत्री थी। दधिवाहनकी दूसरी पत्नीका नाम धारिणी था। पद्मावती जब गर्भवती हुई, तो उस समय गर्भके प्रभावसे उसे यह दोहद हुभा"मैं पुरुषवेश धारणकर, हाथ पर चढ़े और राजा मेरे मस्तकपर छत्र लगाये। मन्द-मन्द वर्षा हो । इस प्रकार मैं आराम आदिका परिभ्रमण करूं।"
रानी लजावश अपने इस दोहदकी चर्चा किसीसे न कह सकी। फलतः वह दिनानुदिन कृषकाय होने लगी । एक दिन राजाने बड़े आग्रहके साथ उससे पूछा, तो रानीने अपने मनको बात कह दी ।
दधिवाहनने कृत्रिम वर्षाकी योजना को और रानीको हाथीपर बैठाकर, उसके मस्तकपर छत्र लगा सेनाके साथ नगरसे बाहर निकला। वर्षा बारम्भ को । मन्द-मन्द फुहार पड़ रही थी और शीतल हवा चल रही थी। अतः हाथीको विन्ध्य-क्षेत्रको अपनी जन्मभूमिका स्मरण हो आया और वह वनकी ओर भागा । सैनिकोंने रोकनेकी चेष्टा की, पर निष्फल रहे।
हाथी वनकी ओर भागा जा रहा था कि राजाको एक वटवृक्ष दिखलायो पड़ा । राजाने रानीसे कहा-"सामने वटवृक्ष आ रहा है, जब हाथी वहाँ पहुंचे, तो तुम उसकी शाखा पकड़ लेना।" हाथी वृक्षके नीचेसे निकला। राजाने तो वृक्षको डाल पकड़ ली, पर रानी उसे पकड़ने में चूक गयी। १. (अ) तेणं कालेणं तेणं समएणे बंपा नाम नगरी होत्था । जियसत्तू राया।
--उबासगदसाओ, ( पी० एल० वंद्य सम्पादित), १० २२. (मा) चम्पा नाम नयरी"जियसस नाम राया।
-नायाधम्मकहाओ, अध्ययन १२, पृ० १३५ ( एन वी वंद्य ) सम्मादित. २. चंपाए नयरीए दहिवाहणो राया । सस्य चेडग-धूया पउमावई देवी । अन्नया य तीसे
दोहलो जालो । किहाहं राय-नेवत्येण नेवत्थिया महाराया-परीय-छत्ता 1 उजाणकाणणाणि हस्थि-संध-वर गया विहरेज्जा । सा ओलुग्गा जाया । राणा पुच्छिया । कहियो सम्भावो। ताह राणा साय जयहत्पिम्मि आबाई। उत्तराध्ययन सुखबोष-टीका, करकण्डफषा !
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स्वस्थ मन होने पर राजा दधिवाहन तो चम्पा लौट आये, पर हाथी रानी - को एक निर्जन जंगलमें लेकर प्रविष्ट हुआ । सरोवर में अवसर देखकर रानी किसी प्रकार हाथोपरसे उत्तर आयी और तैरकर किनारे आ गयी । रानी उस वनको भयंकरता देखकर विलाप करने लगी। पर अपनी असहाय अवस्था जानकर साहस बाँध एक ओर चल पड़ी। कुछ दूर जानेपर उसे एक तापस मिला । रानीने तापसको प्रणाम किया और उसके पूछने पर अपना परिचय दिया । तापसने रानीको आश्वासन देते हुए कहा- "मैं चेटकका सगोत्री हूँ । अतः अब चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं ।" उस त सने बनके फल खिलाकर रानीकी क्षुषा शान्त की और उसे कुछ दूर जाकर विका मार्ग दिखला दिया और कहने लगा- " पुत्री ! हल चली भूमिपर में नहीं चल सकता । अतः तुम अकेले सीधी चली जाओ । आगे दन्तपुर नामक नगर है बहाँ दन्तवक्र नामक राजा है। वहांसे किसी के साथ चम्पा चली जाना ।"
पद्मावती रानी दन्तपुर पहुँची और साध्वियोंके उपाश्रयकी तलाश करती हुई भ्रमण करने लगी। रानी साध्वियोंके उपदेशसे विरक्त हुई और उसने क्षुल्लिका - दीक्षा ग्रहण कर ली। रानीका गर्भं वृद्धिंगत होने लगा । उसने प्रमुख साध्वीको अपना समाचार कह सुनाया । जब प्रसव हुआ, तो नवजात शिशुको रत्नकम्बल में लपेटकर पिताकी नाम-मुद्राके साथ श्मशानमें छोड़ दिया | बच्चेकी रक्षा के लिये रानी इमशान में ही एक जगह छिपकर बैठ गयी। इतनेमें श्मशानका मालिक चाण्डाल आया, उसने बच्चेको उठा लिया और अपनी पत्नीको पालन-पोषण करने के लिये सौंप दिया। रानीने छिपकर चाण्डालका घर देख लिया | रानीने उपाश्रय में आकर साध्वियों से कहा- "मृत पुत्र हुआ था, उसे मैंने छोड़ दिया ।" रानी पुत्रस्नेहके कारण चाण्डाल के घर जाती और भिक्षा में मिली अच्छी वस्तुओंको पुत्रको देती ।
जब बालक बड़ा हुआ, तो अपने समवयस्क बच्चोंमें राजा बनता । एक दिन वह श्मशान में था कि दो साधु चले जा रहे थे। एक साधुने एक बाँसको दिखाकर कहा कि चार अंगुल बड़ा हो जानेपर जो इसे धारण करेगा,
वह
राजा बनेगा |
एक ब्राह्मण भी इस कथनको सुन रहा था। उसने वह बाँस जमीनसे नीचे चार अंगुल तक खोदकर काट लिया। जब चांडालके घर में पले-पुसे लड़केने ब्राह्मणको बाँस काटते देखा तो वह उससे झगड़ पड़ा और अन्तमें उसे राज्य मिलने पर एक गाँव का वचन देकर वह बाँस ले लिया । ब्राह्मणने बांस तो दे दिया, पर षड्यन्त्रकर उस चांडाल परिवारको मारने का प्रयास करने लगा ।
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अतः वह चांडाल परिवार कांचनपुर चला गया । जिस दिन यह परिवार वहाँ पहुँचकर विश्राम कर रहा था, उस दिन बहके राजाका स्वर्गवास हो गया था । उसका कोई पुत्र नहीं था । अतः राजा निर्वाचन करनेके निमित्त अभिमन्त्रित अश्व छोड़ा गया । अवने करकण्डुकी प्रदक्षिणा को और उसके निकट ठहर गया । करकण्डु कांचनपुरका राजा बन गया और जब यह समाचार उस ब्राह्मणको प्राप्त हुआ, जिसने बाँस काटा था, तो वह करकण्डुको सेवामें उपस्थित हुआ और उससे चम्पा में एक ग्राम देनेका अनुरोध किया । करकण्डुने दधिवाहनके नाम एक पत्र लिखा और चम्पामें से कोई एक गांव उस ब्राह्मणको देनेका निवेदन किया तथा इसके बदले में काञ्चनपुरसे अन्य गांव देनेका आश्वासन दिया ।
दधिवाहन इस पत्र को पढ़कर अत्यन्त कुपित हुआ और कहने लगा"चांडाल - पुत्रका इतना साहस कि वह मुझे चम्पाके राज्यसे एक गाँव देनेके लिये लिखता है | अतः उसने स्पष्ट रूपमें ग्राम देने से इनकार कर दिया । " हुआ और दधिवाहनको
करकण्डु दानवाहुनका समाचार प्राप्त कर
उदण्डता समझकर चम्पापर आक्रमण करनेकी तैयारी की ।
करकण्डुने चम्पा नगरीको चारों ओरसे घेर लिया और दोनों नरेशों की सेना के बीच तुमुलयुद्ध होने लगा । पिता-पुत्र दोनों ही परस्पर में अपरिचित रहकर तीव्र वाण-वर्षा कर रहे थे। रानी पद्मावती को जब इस आक्रमणका समाचार मिला, तो वह पिता पुत्रका पारस्परिक परिचय करनेके हेतु वहाँ उपस्थित हुई । उसने महाराज दधिवाहन से हाथी द्वारा अपहृत किये जानेसे लेकर चम्पाआक्रमण तकको समस्त कथा कह सुनायी और पिता-पुत्रका परिचय कराया ।
परिचय प्राप्त होते ही युद्ध बन्द कर देनेकी घोषणा की गयी । राजा दधिवाहनको विरक्ति हुई और वह तोर्थंकर महावीरके समवशरण में उपस्थित हुआ । चम्पाका राज्यभार वह करकण्डुको सौंप चुका था । दधिवाहह्नने इन्द्रभूति गौतमसे निवेदन किया- "प्रभो ! मैं इस संसार के दुःखोंसे ऊब गया हूँ । अतएव मुझे शाश्वत सुख प्राप्तिका मार्ग बतलाइये। मैं दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करनेके लिये लालायित हूँ । अतएव शीघ्र ही मुझे दीक्षित कीजिये ।"
इस प्रकार राजा दधिवाहनते तीर्थंकर महावीरके समवशरण में दीक्षा वारण की । कालान्तरमें करकण्डु भी विरक्त होकर दीक्षित हो गया । श्रावस्ती : प्रसेनजितकी भक्ति
१
कोशलदेशकी राजधानी श्रावस्ती थी । आजकल इस नगरीके खंडहर १.''''सावत्थी नयरी'' जियसत्तू राया - उपासगदसामो (पी० एल० वैद्य), पु०६९. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २४९
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गोंडा-बहराइच जिलोंकी सीमापर 'सहेत महेत' नामसे बड़े विस्तार में बिखरे पड़े हैं। श्रावस्ती नगरीकी स्थापना श्रावस्त नामक सूर्यवंशी राजाने की थी । इस नगरी में संभवनाथ तीर्थंकरका जन्म हुआ था । महावीरका समवशरण चम्पासे श्रावस्तीको गया था । यहाँ उनकी देशना प्राणिमात्रको मात्मवत् समझना, अपने-परायेको समान दृष्टिसे देखना, आत्म-नियन्त्रण करना, अहिंसासंयम तपके महत्त्वको स्वीकार करना आदि तथ्योंपर प्रकाश डाल रही थी । श्रोतागण मन्त्रमुग्ध होकर तीर्थंकरके उपदेशामृतका पान कर रहे थे। जब कोशलाधिपति प्रसेनजितको तीर्थंकर महावीरके समवशरणका समाचार ज्ञात हुआ, तो वह भी भक्ति-विभोर हो गया। वह विचार करने लगा - " निष्कामभक्ति ही सुख-शांतिका साधन है । वीतरागकी उपासना करनेसे आत्मामें वीतरागता जागृत होती है। सच्ची सुख-शांति निराकुलतामें है । आकुलतासे क्रोध, मान, माया और लोभ आनंद वृत्तियोंका प्रादुर्भाव होता है । ये वृत्तियाँ हमारे मन में जितनी गहराई में प्रविष्ट होती जाती हैं, हमारा मन उतना ही अधिक अशांत हो जाता है। अतएव तीर्थंकर महावीरकी शरण स्वीकारकर आत्म-कल्याण में प्रवृत्त होना ही उपादेय है । "
प्रसेनजित भक्तिभावपूर्वक तीर्थकरके समवशरण में प्रविष्ट हुआ और भावविभोर होकर उनकी स्तुति करने लगा। उसने नियति या भाग्यवाद के संबंधमें अपनी शंकाएं उपस्थित कीं । भगवान्के दिव्योपदेशसे प्रसेनजितकी शंकाओंका निराकरण हुआ और इसे अपने पुरुषार्थपर विश्वास हो गया । देशनामें एकान्तरूपसे भाग्य एवं पुरुषार्थवादकी समीक्षा की गयी थी और अनेकान्तद्वारा भाग्य एवं पुरुषार्थका समर्थन विद्यमान था । प्रसेनजित तीर्थंकर महावीरका भक बनकर धर्मपुरुषार्थी हो गया। शंख भी तीर्थंकर महावीरका भक्त बन गया । कौशाम्बी : रानी मृगावती की दीक्षा एवं वृषभसेनका दिगम्बरस्व
तीर्थंकर महावीरका समवशरण विभिन्न जनपदोंसे होता हुआ, कौशाम्बी'में आया । उस समय कौशाम्बी संकटग्रस्त थी । उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योतने अपनी विशालवाहिनीके साथ कौशाम्बीपर आक्रमण कर दिया था । उसके पास अनुपम सैन्यबल था । राजा उदयन अभी बालक था, अत: शासनका संचालन महारानी मृगावती कर रही थी। सभी भयभीत थे । अत्यधिक क्रोधी होनेके कारण ही उज्जयिनीनरेश चण्डप्रद्योत कहलाते थे। युद्धका कारण यह था कि वह रानी मृगावतीको अपनी पत्नी बनाना चाहता था । वासना
१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, १०१८३१७६.
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की पूर्ति के लिए उसने निर्दोष प्रजाका रक बहाने के हेतु कौशाम्बीपर आक्रमण किया था।
मृगावती अपने चातु से इस युद्धको टालना चाहती थी। उसने अपनो शील- रक्षा एवं युद्धको रोकनेका एक उपाय सोचा । उसने प्रद्योतके पास अपना सन्देश भेजा ---"अभी पतिशोक ताजा है। मुझे राज्य व्यवस्था भी करनी है तथा बालक उदयनको अवस्था छोटी है । अतएव सोचने-समझने के लिए अवसर दीजिए 1"
प्रद्योत रानी मृगावतीके इस सन्देशको अवगतकर प्रसन्न हुआ और वह अपनी सेनाको व्यवस्थित कर उज्जयिनी लोट गया ।
प्रद्योत मृगावतीके निमन्त्रणको प्रतीक्षा करते-करते थक गया । उसने कौशाम्बी कई पत्र लिखे, पर कोई उत्तर नहीं मिला । आखिर क्रोधित हो उसने कौशाम्बीपर पुनः आक्रमण कर दिया । रक्तपात होने ही वाला था कि महावीरके समवशरणकी धूम मच गयी। आबाल-वृद्ध सभी कौशाम्बी निवासी समवशरण में धर्मोपदेश सुनने के लिए जाने लगे । समवशरण कौशाम्बीके बाहर उद्यानमें अवस्थित था ।
रानी मृगावतीने विचार किया कि करुणासागर तीर्थंकर महावोरके समवशरणकी शरण ही इस युद्धकी विभीषिकासे रक्षा कर सकती है। अतः उसने नगरके द्वार खोल दिये और उनके दर्शनार्थ चल पड़ी ।
समवशरण में देशना हो रही थी । महाराज प्रद्योत भी तीर्थंकरकी वाणी सुन रहे थे। महावीरने वातावरणको शांत बनानेका सामयिक उपदेश दिया । क्रोध, मान आदि आन्तरिक शत्र ओपर विजय पाना ही सच्चा विजेता बनना हैं और यह विजय ही आत्माको विजय है । संसारमें अमृत और विष दोनों हैं, यह हमपर निर्भर है कि किसे ग्रहण करें । धर्मं अमृत प्राप्तिमें सहायक है, किन्तु आज धर्म और संस्कृतिकी बातको पाखण्डने आवृत कर दिया है । क्रियाकाण्ड, हिंसा, शोषण या जाति-वर्गभेद कभी धर्मके अंग नहीं हो सकते । धर्मका कार्य शांति और सुख प्रदान करना है ।
इस उपदेशका प्रभाव महारानी मृगावतीपर भी पड़ा और उसके हृदयमें त्यागवृत्ति जागृत हुई । उसने खड़े होकर राजा प्रद्योतसे संयमाराधना की अनुमति माँगी महाराजने सहर्ष आर्यिका दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति प्रदान की । रानी हर्षविभोर हो कहने लगी- "आप मुझे प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दे रहे है, तो मेरे पीछे मेरे पुत्र उदयनका दायित्व भी आपको लेना
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होगा। वह अभी अबोध है। अत: उसको शिक्षा-दीक्षा आपको अपने पुत्रके समान करनी होगी तथा राज्यशासनके संचालनमें भी सहयोग देना होगा।"
तीर्थंकर महावीरकी वाणीके सुननेसे प्रद्योतकी आत्म-परिणति निर्मल हो चकी थी, अतः उन्होंने रानी मगावतीकी सभी बातोंकी स्वीकृति प्रदान की। रानीने आर्यिका-दीक्षा ग्रहण की। मृगावती वैशालीनरेश चटेककी पुत्री था
और इसका विवाह कौशाम्बीनरेश शतानीकसे हुआ था। कहा जाता है कि शतानोक भो तीथंकर महावोरके उपदेशसे प्रभावित हुआ था, पर इसको मृत्यु रोगविशेषके कारण हो गयी थी।
इस नगरका सेठ बृषभसेन विपुल सम्पत्तिका स्वामी था। चन्दनाको प्रश्य इसीके यहाँ प्राप्त हुआ और यहीं पर महावीरका अभिग्रह पूर्ण हुआ तथा उन्ह न आहार ग्रहण किया। महाबीरको देशनासे प्रभावित होकर वृषभसेन अनेक व्यापारियों सहित मुनि बन गया। वत्सदेशकी कौशाम्बी नगरीमें तीर्थंकर महावीरका समवशरण कई बार आया था । हस्तिशीर्ष : अदीनशत्रुके पुत्र सुबाहुका व्रतग्रहण
संभवतः यह नगर कुरुदेशके पश्चिमोत्तर प्रदेश में कहीं अवस्थित था । इस नगरके बाहर पुष्पकरण्डक नामका उद्यान था, जहाँ कृतवनमालप्रिय यक्षका मन्दिर था । इस नगरमें अदोनश नामक राजा राज्य करता था । इसकी पट्टमहिषोका नाम धारिणीदेवी था। धारिणोदेवोने एक रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वप्न में सिंह देखा । समय आनेपर उसे पुत्रलाभ हुआ और उसका नाम सुबाहु रखा।
सुबाहुकुमार जब युवा हुआ तो उसका विवाह पूष्पचला नामक कन्यासे सम्पन्न हुआ। एक बार तीर्थंकर महावीरका समवशरण विहार करता हुआ हस्तिशीर्षनगर में आया और नगरके उत्तर-पश्चिम स्थित उद्यानमें सभामण्डर निर्मित हुआ । देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी तीर्थंकरको वाणी सुननेके लिए आने लगे । राजा अदीनशत्रु भी समवशरण में गया और धर्मोपदेश सुनकर आनन्दित हुआ।
राजकुमार सुबाहु भी रथपर आरूढ़ होकर समवशरणमें सम्मिलित हुआ। परिषद्के सदस्य देशना सुनकर चल गये, पर सुबाहुकुमार वहीं स्थित रहा । १. विपाकसूत्र-(पी० एल० वैद्य सम्पादित ), श्रु० २ अ० ५, पृ० ७९-७८. २. श्रमण भगवान् महावीर : मुनि कल्याणविजय, १० ९८. २५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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वह 'स्व' को उपलब्धि और स्वनिष्ठ आनन्दका चिन्तन करने लगा-"जीवन महत्त्वपूर्ण है, उसका कोई विशिष्ट प्रयोजन है । यह आधि-व्याधिके दुःखों और क्लेशोंसे नष्ट होने के लिए नहीं है और न भोग-विलासके पंकमें लिप्त होने के लिए ही है । इसका महान उद्देश्य है । अतएव मुझे इस उद्देश्यकी पूर्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।"
उसने इन्द्रभूति गौतम गणधरसे निवेदन किया-"प्रभो ! मैं घरमें रहकर ही अभी साधना करना चाहता हूँ। अतएव मुझे अणुव्रत और शिक्षावतोंके नियम देनेकी कृपा कीजिए । तीर्थकर महावीरके चतुर्विध संघमें 'श्रावक' भी एक संघ है । श्रावक-धर्मके अभावमें मुनिधर्मका निर्वाह नहीं हो सकता है।"
इन्द्रभूति गौतमने सुबाहुकुमारको तीथंकर महावीरके समक्ष श्रावकके द्वादश व्रतोंके नियम दिये।
कालान्तरमें एक बार मध्यरात्रि जाग जानेके कारण सुबाहुकुमारके मनमें यह संकल्प उठा कि वे राजा और राजकुमार धन्य हैं, जो दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण कर आत्म-साधनापथपर विचरण करते हैं । अत्तः अबकी बार तीर्थंकर महावीरका समवशरण आनेपर में मुभिदीक्षा ग्रहण करूंगा।
महावीरका समवशरण पुनः हस्तिशीर्ष में आया और पुष्पकरण्डक उद्यानमें धर्मसभा हुई। राजा अदीनशत्र एवं सबाहुकुमार आदि भी धर्मपरिषद्में सम्मिलित हुए और सुबाहुकुमारने विलत होकर अपने पितासे नुनिदीक्षा धारण करनेकी अनुमति मांगी। अनुमति प्राप्त होते ही उसने दिगम्बरी-दीक्षा ग्रहण कर द्वादशांग-वाणीका अध्ययन आरम्भ किया। अनशन, ऊनोदर, बत्तिसंख्या, रसपरित्याग आदि बारहवतोंका आचरण करते हुए वह कर्मनिर्जरामें प्रवृत्त हुआ। सौगन्धिका नगरी' : अप्रतिहतकी जागी सषप्तचेतना
सौगन्धिका नगरीके समीप नीलाशोक उद्यान था, जिसमें सुकालयक्षका चेत्य था। महावीरके समयमें इस नगरीमें अप्रतिहत राजा राज्य करता था। इसकी महारानी सुकृष्णा थी । इनका पुत्र महाचन्द्र हुआ। महाचन्द्र अत्यन्त प्रतिभाशाली और निकाटभव्य था । यह आरम्भसे ही संसारसे विरक्त था। वह सोचता-"मनुष्य स्वयं अपने भाग्यका विधाता है। समाजमें ऊँच-नीच, आर्थिक संघर्ष एवं राजनीतिक दासताका अन्त आवश्यक है। मनुष्य अपनी आत्माका पूर्ण विकास कर सकता है और इस विकासका आधार अहिंसा है, जो जितना अहिंसक है, उसकी आत्मा उतनी ही विकसित है।"
उसने अपने मन में निश्चय किया कि तीर्थंकर महावीरके समवशरण में जाकर संयम ग्रहण करनेकी इच्छा व्यक्त करूंगा। १. विपाकसूत्र-पी० एल० वंद्य-सम्पादित, श्रु० २ ० ५, पृ० ८२.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २५३
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सौभाग्यसे तीर्थंकर महावीरका समवशरण सौगन्धिकामें आ पहुंचा । सभी आबालवृद्ध उनको बन्दनाके लिए जाने लगे। गले मार, र तिहतका भी समवशरणके आनेका समाचार मिला। राजा अप्रतिहत भो आसन्नभव्य था। अतः यह भी अपने परिवारसहित समवशरणमें सम्मिलित हुआ। वह तीर्थकरको स्तुति करता हुआ निवेदन करने लगा-"प्रभो ! आपका जीवन मानव-समाजका आमूलचूल सुधार करने के लिए है । आप घोरतपस्वी हैं, वीतराग हैं, हितोपदेशी हैं। अपका उदेशामृत सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नतिका प्रबल साधन है । बड़े भाग्योदयके होनेपर ही मनुष्य आपकी धर्मपरिषदें सम्मिलित होता है। आपके दर्शनमात्रसे मेरे मानसचक्षु उद्घाटित हो गये हैं और मेरी आत्माको मूछित चेतना जागृत हो गयी है। अतएव आपके उपदेशके फलस्वरूप में कल्याणमार्ग ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हूँ।"
राजा अप्रतिहत्तने इन्द्रभूति गणधरसे व्रत ग्रहण करनेकी इच्छा व्यक्त की। कुमार महाचन्द्र तो पहलेसे ही संसारके प्रति अनासक्त था। कामिनी और काञ्चन इन दोनोंके आकर्षणका पहलेसे ही त्याग कर चुका था । वह अपनी भोगतष्णाको संयमितकर श्रावकके व्रताचरण में निरत था । वह संसारके वैभव और विषयसुखोंको विष मान रहा था। अतः महाचन्द्रने चैराग्य भावनाके उदित होते ही संसारकी मोह-ममतासे अपना नेह तोड़ दिया। उसने दिगम्बरी दीक्षा धारण करने की अपनी इच्छा व्यक्त की। फलतः माता-पितासे अनुमति लेकर वह दीक्षित हो गया और पूर्ण संयमको आराधना करने लगा।
सौगन्धिकाकी धर्मसभाने अप्रतिहतके जागरणके साथ महाचन्द्रको भी आत्मशोधनमें प्रवृत्त किया। माया, मिथ्यात्व और निदानका दमनकर समत्वभावको प्राप्त हो महानन्द्र आमहितका पथिक बना । हेमाङ्गद बेश : जीवन्धर : निर्वाणमार्गके पथिक
तीर्थकर महावीरका समवशरण हेमांगद देशमें पहुँचा । यह प्रदेश वर्तमान में दक्षिणभारतमें कर्णाटकमें अवस्थित है। यहाँके सुरमलय उद्यानमें धर्मसभा जुड़ी थो' । जीवन्धरने आनन्द-भेरी बजवाकर अत्यन्त समारोह पूर्वक १. जिनपूजा विधायानु यर्धमानविशुद्धिकः ।
सूरादिम लयोद्यानायानं वीरजिनेशितः ।। श्रुत्वा विभूतिमद् गत्वा संपूज्य परमेश्वरम् । महादेवीतन्जाय दत्वा राज्यं यथाविधि: 11 वसुन्धरकुमाराय वीतभोहो महामनाः ।
मातुलादिमहीपालैनन्दायमधुरादिभिः ॥---उत्तरपुराण ७५॥६७९-६८१. २५४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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वीरसंघका स्वागत किया। तीर्थकरके समवशरणमें भव्यजीव धर्मामतका पान करने के लिए जाने लगे । जीवन्धर भी गन्धर्वदत्ता आदि देवियोंके साथ समवशरणमें प्रविष्ट हुए। ताथंकर महावीर के उपदेशस इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने महारानी गन्धर्वदत्ताके पुत्र वसुन्धरकुमारको राज्य देकर नन्दाढ्य, मधुर आदि भाइयों और मामाके साथ दिगम्बर-दीक्षा धारण की । समयशरणमें पहुँचते ही जीवन्धरकुमारका मोह शान्त हो गया, मन निर्मल बन गया और सम्यक्त्व सुदढ हो गया। इस प्रसंगमें जीवन्धरकुमारका संक्षिप्त जोवनवृत्त देना भी अप्रासंगिक नहीं होगा।
हेमांगददेशको राजपुरीमें सत्यन्धर राजा अपनी रानी विजया सहित शासन करता था। राजा विषयासक्त हो अन्तःपुरमें अपना समय यापन करता था । अतः उसने काष्ठांगार नामक मन्त्रीको राज्यका अधिकारी बना दिया। रानी विजया गर्भवती हुई और उसे एक रात्रिके पिछले भागमें तीन स्वप्न दिखलाई पड़े । सत्यन्धरसे उसने स्वप्नोंका फल पूछा । प्रथम स्वप्नका अनिष्ट फल जानकर राजा कुछ सावधान हुआ और उसने एक मय राकृति यन्त्र बनाया। काष्ठांगारने एक दिन बगावतकर राजा सत्यन्धरको मारने के लिए सेना भेजी। राजाने वंश रक्षाके लिए गर्भवती महारानीको यन्त्रमें बैठाकर आकाशमें उड़ा दिया और स्वयं युद्ध करते करते मारा गया । चालकके अभावमें यन्त्र राजपुरीको श्मशान भूमिमें गिरा । रानीने वहीं पुत्रको जन्म दिया। पुत्रके पालन-पोषणका साधन न देखकर उस पुत्रको राजनामांकित मुद्रिका पहनाकर श्मशानके एक हिस्से में रख दिया ।
उस नगरीके सेठ गन्धोत्कटके यहाँ उसी दिन पुत्र जन्म हुआ, पर थोड़ी देरके भनन्तर उसकी मृत्यु हो गयी । फलतः वह मृतसंस्कारके लिए उस पुत्रको वहाँ लाया और यहीं उसे वह नवजात शिशु मिला । उसने उसे उठा लिया। पासमें छिपी विजयाने पुत्रको आर्शीवाद दिया-'जीव', अतः इस शब्दके आधारपर 'जोवक' या 'जीवन्धर' नाम रखा गया। गन्धोत्कटने घरपर जाकर पत्नीसे कहा-"तुमने जीवित पुत्रको मत कैसे घोषित कर दिया ।" सुनन्दा सेठानी पुत्रको प्राप्तकर बड़ी प्रसन्न हुई और अपना ही पुत्र समझ सावधानीपूर्वक पालन करने लगी। गन्धोत्कटने पुत्रप्राप्तिके उपलक्ष्यमें बहुत बड़ा उत्सव सम्पन्न किया। महारानी विजया पुत्र-व्यवस्थाके पश्चात् दण्डकवनमें तपस्वियोंके आश्रममें पहुँची । कुछ दिनोंके पश्चात् सुनन्दाको एक पुत्र और हुआ जिसका नाम 'नन्द' रखा गया | पाँच वर्षको अवस्थामें जीवन्धरका विद्यारम्भ संस्कार सम्पन्न हुआ।
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जीवन्धरने आर्यनन्दी गुरुसे समस्त विद्याओं का अध्ययन किया । आर्यनन्दीने एक अपना आत्मवृत्तान्त जीवन्धरको सुनाया और इसी प्रसंगमें उससे यह भी कहा कि तुम सत्यधर महाराजके पो. और हार : उस नागारिने हड़प लिया है। जोवन्धरद्वारा लोध प्रदर्शित किये जानेपर उन्होंने एक वर्ष तक युद्ध न करनेकी प्रतिज्ञा करायी । राजपुरो नगरीके नन्दगोपी गायोंको एक दिन वनमें व्याधोंने रोक लिया । नन्दगोपने राजा काष्ठांगारसे प्रार्थना की कि गायें वापस दिलानेको व्यवस्था करें 1 काष्ठांगारने व्याधोंसे लड़नेके लिए संना भेजी, पर सेगा फूछ न कर सकी। फलतः नन्दगोपने नगरमें घोषणा करायी कि जो व्यक्ति भीलोंसे गायोंको छुड़ा लायेगा, उसे स्वर्णको सात पुत्तलियां दहेजमें देकर अपनी गोविन्दा नामक पुत्रीका विवाह कर दूंगा। जीवन्धर भीलोंसे गायोंको छुड़ा लाया और अपने मित्र पद्मास्यके साथ गोविन्दाका विवाह करा दिया।
राजपुरी नगरीका श्रीदत्त सेठ जहाजी बेड़ा लेकर व्यापारके लिए गया । वह सामान लेकर लौट रहा था कि उसका जहाज समुद्र में डूबने लगा। उसे वहाँ एक स्तुप मिला, जहाँ एक व्यक्ति छिपा हआ था, उसने कहा-"यह गान्धार देश है। यहां की नीलालोक नगरीमें गरुडबेग विद्याधर राजा रहता है। इसकी पुत्री मन्धवंदत्ता है। जन्मके समय ज्योतिषियोंने भविष्यवाणी की है कि राजपूरी नगरी में जो इसे वीणावादन कर पराजित करेगा, वही इसका पति होगा। आपका जहाज डूबा नहीं है, यह भ्रम है। आप गन्धबंदत्ताको अपने जहाजमें बैठाकर राजपुरी ले जाइये।" श्रीदत्तने गन्धर्वदत्ताको अपने जहाजमें बैठा लिया और राजपुरी में आ गया। यहाँ काष्ठांगारकी स्वीकृतिसे स्वयंवर योजना को गयी, जिसमें राजकुमारोंने वीणावादन किया । पर सभी राजकुमार गन्धर्वदत्तारो हार गये। अन्त में जीवन्धरने अपनी घोषवती चीणा बजायो और गन्धर्वदत्ताको पराजित कर उसके साथ विवाह किया।
वसन्त ऋतुमें जलक्रीडा सम्पन्न करने के लिए नगरवासियों के साथ जीवन्धरकुमार भी गया। वहाँ वैदिकोंके द्वारा घायल किये गये एक कुत्ते को उन्होंने 'णमोकार' मंत्र सुनाया, जिमसे उसने यक्ष-पर्याय प्राप्त को : कूत्तके जीव उस पक्षने अपने ज्ञानवलसे उपकारीको जान लिया, अत: वह जीवन्धरके समक्ष अपनी कृतज्ञता प्रकट करने आया । वह समय पड़नेपर सेवामें उपस्थित होनेका वचन देकर चला गया। इस उत्सवमें गुणमाला और सुरमंजरी नामकी दो सखियाँ मो सम्मिलित हुई थीं। उन्होंने 'स्मानीय चूर्ण' तैयार किये। उनके चूर्णांकी परीक्षा जीवन्धरकुमारने की और गुणमालाके चूर्णको श्रेष्ठ सिद्ध किया। इससे
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सुरमंजरी रूठकर चली आयो और जीवन्धरकुमारसे विवाह करनेका अनुबन्ध किया । गुणमाला स्नानकर उत्सवसे लौट रही था कि काष्ठांगार के मदोन्मत हाथीने उसे घेर लिया। प्रियंवदा सखीको छोड़ अन्य सभी व्यक्ति भाग गये। जीवन्धरने हाथीको भगा दिया। गुणमालाका जीवन्धर के साथ विवाह भी हो गया ।
हाथीको ताड़ित करनेके कारण राजा काष्ठांगार जीवन्धरपर बहुत रुष्ट हुआ और उसे अपनी सभामें पकड़वाकर बुलाया । चन्वोत्कटने कुमारको सभा में उपस्थित कर दिया । राजा काष्ठांगारने उसके बधका आदेश दिया । कुमारने यक्षका स्मरण किया । यक्ष कुमारको चन्दोदय पर्वतपर ले गया। वहाँ उसने उनको तीन मन्त्र दिये और एक वर्ष में राजा होनेकी भविष्यवाणी की । जीवन्धरकुमार वहाँसे चलकर दबा जहाँ मानिसे बहुतसे हाथो जल रहे थे। कुमारने जिनेन्द्र-स्तवनद्वारा मेघवृष्टिकर दावाग्निको शान्त किया ! तीर्थवन्दना करते समय कुमार चन्द्रप्रभा नगरी में आया, यहाँ घनमित्रकी पुत्री पद्मासे विवाह किया |
चन्द्रप्रभा नगरीसे चलकर कुमार दक्षिण देश के सहस्रकूट चैत्यालय में आया और वहाँ चैत्यालय बन्द किवाड़ोंको अपने स्तुतिबलसे खोला, जिससे क्षेमपुरीके सुभद्र सेठकी पुत्री क्षेमश्री के साथ उसका विवाह सम्पन्न हुआ ।
क्षेमपुरीमें कुछ दिनों तक रहनेके पश्चात् कुमार जीवन्धर मायानगरी के समीप पहुँचा और वहां दृढ़मित्र राजाके पुत्रोंको धनुविद्या सिखलायी । राजाने प्रसन्न होकर अपनी कन्या कनकमालाका विवाह जीवन्धर के साथ कर दिया ।
क्षेमपुरीमें जोवन्धरका साक्षात्कार नन्दभाईसे हुआ। वह सुनाता है कि गन्धर्वदत्ताने अपने विद्याबलसे मुझे यहाँ भेजा है तथा वह गन्धर्वदत्ताका पत्र भी देता है । इसी समय पश्चास्य आदि मित्र भो कुमारसे मिलते हैं और दण्डकारण्य में माता विजया के निवास करनेका समाचार देते हैं । कुमार माताजोके दर्शन करता है और उन्हें अपने मामा के यहाँ भेज देता है । वह राजपुरी में लौट आता है और वहाँ सागरदत्तको कन्या विमलाके साथ विवाह करता है ।
कुमारका मित्र बुद्धिषेण कहता है- 'पुरुषोंकी छायासे घृणा करनेवाली सुरमंजरी के साथ विवाह करो, तभी तुम्हारी विशेषता मानी जा सकती हैं ।" कुमार यक्षद्वारा प्रदत्त विद्याबलसे वृद्ध ब्राह्मणका वेश धारणकर सुरमंजरीके तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २५७
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यहाँ गया और उसे प्रभावित कर कामदेव के मन्दिरमें ले आया । यहाँ कामदेवकी पूजा करते समय उसने कुमार जोवन्धरको प्राप्त करनेकी याचना की । कुमारने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और सुरमंजरीका कुमारके साथ विवाह सम्पन्न हो गया ।
सुरमञ्जरीसे विवाह होनेके उपरान्त कुमार अपने धर्ममाता-पिता सुनन्दा और गन्धोत्कटके यहाँ आया और परिवारसे मिलकर प्रसन्न हुआ । जीवन्धरने राज्यप्राप्तिके लिए उनसे सलाह को । पश्चात् यह धरणीतिलका नगरीके राजा अपने मामा गोविन्दराजके पास गया । मामा गोविन्दराजने राजपुरीको ससैन्य प्रस्थान किया और वहाँ नगर के बाहर मण्डप तैयारकर चन्द्रक यन्त्र बनवाकर घोषणा की कि जो व्यक्ति इस यन्त्रका भेदन करेगा, उसके साथ लक्ष्मणाका विवाह किया जायगा | अनेक राजकुमारोंने प्रयास किया, पर सभी असफल रहे । अन्त में जीवन्धरने यन्त्रका भेदन किया । गोविन्दराजने समस्त व्यक्तियोंको कुमार जीवन्धरका परिचय कराया। काष्टांगार जीवन्धरकुमारसे बहुत अप्रसन्न हुआ और उसने युद्ध के लिए कुमारको ललकारा। काष्ठांगार युद्धमें मारा गया । जीवन्धरकुमार राजा हो गया और उसने अपने धर्मभाई सेठपुत्र नन्दकुमारको युवराज नियत किया। कुमारका विवाह भी लक्ष्मणाके साथ सम्पन्न हो गया ।
जीवन्धरकुमार अपनी आठों स्त्रियों सहित जलक्रीडाके लिए गया । वहाँ एक वानर-वानरोके प्रेमकलहको देखकर उसके मन में विरक्ति हुई । तीर्थंकर महावीरके समवशरणका सम्पर्क प्राप्तकर जीवन्धरकुमारने मुनिदीक्षा धारण को' ।
महावीरको धर्मराभाने उसके जीवन में मंगल प्रभातका उदय किया । सम्यक् श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी उपलब्धि हुई । तीर्थंकरके निर्वाणपट्टपर जीवन्धरके नये हस्ताक्षर शोभित हो रहे थे। जीवन संग्राम में जूझनेकी जिस कलाका अनुभव जीवन्बरकुमारने किया था, उसीका क्रियात्मक प्रयोग तपस्याकालमें किया । अहिंसा, मैत्री, अपरिग्रह और सत्यकी उदात्त भावनाएँ उनके जीवनको उत्तरोत्तर निर्मल बनाती रहीं ।
हेमपुरीका यह समवशरण जोबन्धरकुमारके आत्मोथानका प्रबल सावन
बना ।
१. गद्यचिन्तामणि और जीवम्धर चम्पू - सम्पादक पं० पन्नालाल, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, उत्तरपुराणान्दनंत जीवन्धरचरित्र अध्याय ७५ पं० दौलत रामकृत 'जोवन्धरचरित; वोरवाणी, जयपुर, अंक ३-४, सन् १९६६.
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कलिंग : बोरघेणो और चित्रवेणीका प्रसग्रहण
तीर्थकर महाबीरका कलिंगदेशमें विहार हुआ। यह कलिंग स्य र्वी समुद्रतटपर तामलुकसे गंजम पर्यन्त व्याप्त था। इसकी उत्तरी सीमा गंगा नदीको स्पर्श करती थी। दक्षिणमें मध्य गंजमके उपरान्त घने वन फैले हुए थे। पूर्व में भारतीय महासागर था और पश्चिमी सोमा मध्यप्रान्तकी अमरकंटक पर्वतमाला तक फैली थी। दक्षिण कोसल या महाकोसल प्रदेश भी इसीके भीतर था। कलिंगको विकलिंगदेश भी कहा गया है, क्योंकि इसमें उत्कल, कंगोद और कोसल ये तीन देश सम्मिलित थे। कलिंगमें तीर्थकर महावीरके समवशरणका बिहार हुआ और कुमारीपर्वतपर समवशरण स्थित हुआ। कुमारीपर्वत आजकल उदयगिरि कहलाता है| डॉ० ज्योतिप्रसादने भी लिखा है-"तीर्थकर पार्श्वका विहार कलिंगदेशमें हुआ था। भगवान महावीर भी वहाँ पधारे थे और राजधानी कलिंग नगरके निकट कुमारीपर्वसपर उनका समवशरण लगा था। उपर्युक घटनाओंको स्मृतिमें उक्त स्थानपर स्तूपादि स्मारक बने थे और मुनियोंके निवासके लिये गुफाएं भी निर्मित हुई थी, जो खारवेलके समयके बहुत पहलेसे वहाँ विद्यमान थीं।"
सीर्थंकर महावीरके समय कलिंगदेशपर जितशत्रु नामका राजा राज्य करता था, जो महावीरके पिता राजा सिद्धार्थका मित्र और बहनोई था । इन्हींकी कन्या यशोदाके साथ महावोरके विवाहकी बात चली थी, पर महावीरने विवाह करनेसे इनकार कर दिया और वे आजन्म ब्रह्मचारी बने रहे। __ जब कलिंगनरेश जितशत्रुको तीर्थकर महाबोरके समवशरणके आगमनका समाचार मिला, तब वह प्रसन्नतापूर्वक जय-जयध्वनि करता हुवा कुमारीपर्वसपर धर्मसभामें सम्मिलित हुआ। महावीरके धर्मामतका उसपर अपूर्व प्रभाव पड़ा और उसकी आत्मा संसारके प्रपंचोंसे दूर हटकर कल्याणके हेतु मचल उठी। वह चेतन-आनन्दको खोजमें सलग्न होनेके लिये चिन्तन करने लगा! निजानुभूतिकी गहराईमें उतरते ही उसका मिथ्यात्व गल गया, मोह नष्ट हो गया और वह दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करने के लिये कृतसंकल्प हो गया । जितशत्रुने निम्रन्थ मुनि-दोक्षा ग्रहणकर कर्मक्षपणका प्रयास किया ।
१, महावीर जयन्ती-स्मारिका, सन् १९७३, पृ. ३९. २. हायो गुम्फा अभिलेख, पंक्ति १४. ३. भारतीय इतिहास एक दृष्टि, प्रथम संस्करण पृ० १८१. ४. वाब कामता प्रसाद जैन, भगवान महावीर, प्रथम संस्करण, प० १३३.
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कलिंग देशके वसन्तपुर नगरके राजा वीरश्रेणीका राजकुमार चित्रश्रेणी इतना सुन्दर था कि उसके रूपको देखकर उस नगरकी स्त्रियाँ अपनेको भूलफर उसपर मोहित हो जाती थीं। जनताने राजासे निवेदन किया कि कुमारका नगर-परिभ्रमण स्त्रियोंके कप्रका कारण होता है, अतएव कुमारके नगरपरिम्रमणपर बन्धन लगा देना चाहिये। कुमारका अपराध न होमेपर भी राजाने प्रजाको संतुष्ट करनेके हेतु राजकुमारको देशसे निष्कासित कर दिया । वह रत्नपुर नगरीमें आया । वहाँके राजाकी पुत्री पद्मावती अनिन्द्य सुन्दरी थी । अतएव अनेक राजकुमार उसके साथ परिणय करनेके हेतु वहां आते, पर वे सभी निराश होकर लौट जाते। पद्मावसोने यह संकल्प किया था कि जो रूप-लावण्यमें उससे अधिक सुन्दर होगा, उसीके साथ वह विवाह करेगी।।
जब कुमार चित्रश्रेणी ग्लएर नगरीमें पहुँचा तो उसके सौन्दर्यको चर्चा समस्त नगरमें व्याप्त हो गयी और नगरवासी युवक-युवतियाँ उसे देखने के लिये आने लगे। चित्रश्रेणीको देखकर पद्मावतीका पिता बहुत प्रसन्न हुआ
और अपनी रूपसी कन्या पद्मावतीका विवाह चित्रश्रेणीके साथ कर दिया। चित्रश्रेणी कुछ दिनों तक सांसारिक ऐश्वर्य और भोग-विलासोंका उपभोग करता रहा, पर जब उसे कुमारीपर्वतपर तीर्थकर महावीरके समवशरणके पधारनेका समाचार प्राप्त हुआ, तो वह उनके समवशरणमें धर्मामृत सुननेके लिये पहुँचा । संयोगवश महाराज वीरश्रेणी भी वहाँ उपस्थित थे। वीरश्रेणीने चित्रणीके विरक्त भावोंको अवगतकर स्वयं भी दीक्षित होनेकी इच्छा व्यक्त की। वे धर्मोपदेश सुनकर नगर में पधारे और चित्रश्रेणीका राज्याभिषेककर पुनः तीर्थंकर महावीरके निकट जाकर मुनि-दोक्षा ग्रहण की।
चित्रवेणी और पद्मावतीने प्रभुके पादमूलमें श्रावकवत ग्रहण किये । बहुत समयतक प्रजाका पालनकर चित्रवेणी और पद्मावतीने भी मुनि एवं आयिका दीक्षाएं धारण की ।
कलिंगको ओरसे ही पुण्ड्र, वंग और ताम्रलिप्त आदि देशोंमें भी तीर्थंकर महावीरके समवशरणका विहार हुआ और वहाँकी जनताको अहिंसा-धर्मका उपासक बनाया । महावीरका समवशरण जिस स्थानपर जाता, उसी स्थानका
१. कथानकके लिये देखिये, चित्रवेणी पपावती परित तथा Dr. Kamata prasad
द्वारा लिखित Religion of Tirhankaras' {world jain mission, Ali
G. Jug. पृ० १५१. २. जैन सिद्धान्त-भास्कर, भाग १२, किरण १, पु. १६-२२.
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प्राणीवर्ग परस्परके वैर-विरोधको छोड़कर शान्ति और सुखका अनुभव करता। महावीरके प्रभावसे चारों ओर सुभिक्ष और शान्ति व्याप्त हो जाती थी। . वंगदेश : सिंहरथ-आतिस्मरण एवं नग्गतिका प्रत्येकबुद्धत्व
तीर्थकर महावीरका समवशरण बंगदेशके पुण्ड्रबर्द्धन' नगरमें पधारा । इस नगरकी स्थिति वर्तमान में मालदह जिले में मालदहसे छह मील उत्तरकी ओर बंगालमें मानी जाती है। वर्तमानका पाहुआ अथवा पांडुआ, पुण्डका अपभ्रंश रूप है | पुराने पुण्ड्रवर्द्धनमें दोनाजपुर, रंगपुर, नदिया, वीरभूमि, जंगलमहल और चुनार जिले शामिल थे।
इस नगरमें सिंहस्थ नामका राजा राज्य करता था | एक बार उत्तरापथके किसी राजाने सिंहरथको अश्व भेंट किये। उनमें एक अरव वक्रशिक्षावाला था। राजा उस चक्रशिक्षिावाले अश्वपर सवार हुआ और उनका कुमार दूसरे अश्वपर । इस प्रकार राजा सिंह रथ अपनी सेनाके साथ नगरके बाहर कोड़ा करनेके लिये चल पड़ा।
घोड़ेको चाल तेज करनेके लिये राजाने उसे चाबुक लगाया । घोड़ा तेजीसे भागा। राजा घोड़ेको रोकनेके लिये जितनी ही लगाम खींचता, घोड़ा उत्तना हो तेज होता जाता। इस प्रकार भागता-मागता घोड़ा राजाको बारह योजन दूर तक जंगल में ले गया। लगाम खींचनेसे राजा थक गया था । अत: उसने घोड़ेकी लगाम ढीली कर दी । रास ढीली होते ही घोड़ा रुक गया । घोड़ेके रुक जानेसे राजाको यह ज्ञात हो गया कि यह अश्व वक्रशिक्षावाला है। राजाने घोडाको वृक्षसे बांध दिया और फल-पुष्प खाकर अपनो क्षुधा शान्त की । रात्रि व्यसीत करनेकी दृष्टिसे राजा पहाड़के ऊपर चढ़ा। उसे सातमंजिल ऊंचा भवन दिखलायी पड़ा । राजा उस भवनमें भीतर गया और उसे एक अत्यन्त रूपवती कन्या मिली । कन्याने राजाको उच्चासन दिया और उसका परिचय पूछा । राजाने भी कन्याके सम्बन्धमें जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा-"तुम कौन हो और यहाँ एकान्त स्थानमें क्यों रहती हो?" ___कन्याने उत्तर दिया--"पहले मेरे साथ आपका विवाह हो जाय, तत्पश्चात् मैं आपको सारी बात बताऊँगी।" विवाहके अनन्तर उस कन्याने कहना बारम्भ किया___"क्षितिप्रतिष्ठ नामक नगरमें जितशत्रु नामका राजा रहता था। एक समय १. श्रमण भगवान् महावीर, मुनि कल्याणविजय, पृ० ३७६ तथा तीर्थकर महावीर, भाग २, ५० ५६९.
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उसने अपनी चित्रशाला बनवायी और नगरके चित्रकारोंको बुलाकर सबको बराबर भाग बाँटकर उस चित्रसभाको चित्रित करनेका आदेश दिया । चित्रकारोंमें चित्रागद नामका एक अत्यन्त वृद्ध चित्रकार था । इसे पुत्र नहीं था, केवल एक कनकमंजरी नामको कन्या थी । वह प्रतिदिन अपने पिता के लिये चित्रसभा में भोजन लेकर आती । एक दिन वह भोजन लेकर चित्रसभा की ओर आ रही थी कि राजमार्गपर घोड़े दौड़ने से वह भयभीत हो गयी और कुछ बिलम्बसे भोजन लंकर पिताके पास पहुँची । जब पिता भोजन कर रहा था, तब कनकमंजरीने एक मयूरपिच्छ बना दिया। उस दिन सभागार देखने राजा आया और मयूरपिच्छ देखकर उसे उठाने लगा, पर वह तो चित्र था, आघातसे जंगलीकर नख टूट गया ।
राजाको ध्यानपूर्वक चित्र देखते हुए देखकर कनकमंजरी कहने लगी"अबतक तीन पांव वाला पलंग था । आज चतुर्थ मूर्खके मिल जानेसे पलंग चारों पांव पूरे हो गये ।"
राजा कहने लगा- " शेष तीन कौन है ? और मैं चौथा किस प्रकार हूँ ?" कन्या कहने लगी- " में चित्रांगद नामक चित्रकारकी पुत्री हूँ। मैं सर्वथा अपने पिताके लिये भोजन लेकर आती हूँ । आज जब मैं राजमार्गसे भोजन लेकर आ रही थी, तो एक घुड़सवार बड़ी तेजीसे घोड़े को दौड़ाता हुआ राजपथसे आ रहा था। भीड़-भाड़की जगह में तेजीसे घोड़ा चलाना बुद्धिमानी नहीं है । अतः वह मूर्खरूपी पलंगका पहला पावा है ।
दूसरा मूर्ख इस नगरका राजा है, जिसने चित्रकारोंकी शक्ति और योग्यताको बिना जाने ही सभी चित्रकारोंको समानभाग चित्र बनानेको दिया है ! घरमें अन्य सहयोगी होनेसे दूसरे चित्रकार तो अपने कार्यको अल्प समयमें समाप्त करने में समर्थ हैं, पर मेरे पिता तो पुत्र रहित है, वृद्ध वे अकेले दूसरोंके समान कैसे काम कर सकते हैं ? अतएव मूर्खरूपी पलंगका दूसरा पावा यहांका राजा है ।
तीसरे मूर्ख मेरे पिता है। उनका भर्जित धन समाप्त हो चुका है, जो बचा है उससे ही किसी प्रकार भोजन बनाकर नित्य में लाती हूँ। जब में भोजन लेकर आती हूँ, तब वे शौचादि क्रियाओंसे निवृत्त होनेके लिये जाते हैं । मेरे मानेके पूर्व वे इन क्रियाओंको सम्पन्न नहीं करते। इतने में भोजन ठण्डा और नीरस हो जाता है । अतएव मूर्खरूपी मंचेकै वे तीसरे पाये हैं।
चतुर्थ मूर्ख आप है । जब यहाँ मोरके आने की कोई सम्भवना नहीं, तब फिर २१२ : सीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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मयूर पंख यहाँ कहाँसे आयेगा ? यदि कोई मयूर पंख ले भी आये, तो उसे हवासे उड़ जाना चाहिये । इनकी जानकारीके बिना आप उसे लेनेके लिये तैयार हो गये | अतः चौथे पावे आप हैं।"
राजाने उस चतुर सुन्दरी कन्यासे विवाह कर लिया और जन्मान्तरमें वह कनकमंजरी तोरणपुर नामक नगर में दृढ़शक्ति राजाकी पुत्री हुई और उसका नाम कनकमाला रखा गया। वह चित्रकार मरकर व्यन्तरदेव हुआ । कनकमालाने उस देव से पूछा - "इस भवमें मेरा पति कौन होगा ?" देवने कहा" पूर्व में जो जितशत्रु नामक राजा था, वही इस भव में सिहरथ नामक राजा होगा और घोड़े पर सवार होकर यहाँ आयेगा । "
इस आख्यानको सुनकर सिंहथको भी जाति-स्मरण हो गया । कुछ दिनों तक राजा वहाँ रहा और पश्चात् राजधानीमें लौट आया । वह प्रायः पर्वतपर कनकमाला के यहाँ जाया करता था और वहाँ रहनेके कारण ही उसका नाम नग्मति पड़ा ।"
कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन राजा ससैन्य भ्रमण करने निकला और बही नगरके बाहर एक आम्रवृक्षको देखकर वह प्रतिबोधको प्राप्त हुआ और प्रत्येकबुद्ध हो गया ।
नगत प्रत्येकबुद्ध होनेपर भी तीर्थंकर महावीरके समवशरण में गये और वहाँ ही उन्होंने प्रत्येकबुद्धत्व की योग्यता अर्जित की। सिंहरथको तीर्थंकर महावीरके सम्पर्कने ही जितशत्रुकी पर्याय में प्रत्येकबुद्धत्वप्राप्तिको योग्यता समाहित की ।
सुश्मकवेश' ( दक्षिणभारत) : विद्रवाजकी दीक्षा
इस देशको राजधानी पोदनपुर थी। तीर्थंकर महावीरका समवशरण यहाँ आया । समवशरण के आनेका समाचार प्राप्त करते ही सभी नर-नारी उनकी वन्दना के लिये समाहित होने लगे । राजा विद्वदाज भी अपने मंत्रियों सहित तीर्थंकरकी वन्दना लिये गया। महावीरका कल्याणकारी उपदेश सुनकर उसकी मात्म-ज्योति प्रज्वलित हो गयी । वह मानव-जीवन के महत्त्वको समझने लगा- -"जो मानव सच्चे मनसे धर्माचरण करता है, वह अपने भीतरकी
१. तओ कालेन जम्हा नगे अईह तुम्हा 'नगइ एस' त्ति पट्टियं नामं लोएन राइगो । - उतराष्ययन ( नेमिचन्द्र टीका), पत्र १४४२.
२. महावीर जयन्ती स्मारिका सन् १९७३, पृ० ४०.
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विकृतियोंपर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने सोये हुए दिव्यभावको जागृत कर लेता है तथा स्वर्गके देवताओंके लिये भी वन्दनीय हो जाता है । अहिंसा, संयम और सपकी ज्योति आत्माको आलोकित कर देती है ।" अतएव उसने अपने पुरुषार्थको जागृत कर दिगम्बर-दीक्षा धारण करनेका संकल्प लिया। वह अपने प्रधान आमात्य सहित मुनि बन गया |
मत्स्यदेश: नन्दिवर्द्धनका अन-बन्दन
मत्स्यदेशकी स्थिति वर्त्तमान में अलवर, धौलपुर, भरतपुर और जयपुर के प्रदेशों में सीमित हैं। साढ़े पच्चीस आर्यदेशोंमें इसकी गणना की गयी है । मत्स्यदेशकी राजधानी विराटनगरी थी । जो वर्तमान जयपुरसे उत्तर-पूर्व में बयालीस मील पर है। मत्स्य जनक कुरुराषके दक्षिण और पश्चिम था । तीर्थंकर महावीरका समवशरण यहाँ आया और यहाँके राजाओंने अत्यन्त हर्षोल्लासके साथ उनके धर्मोपदेशको सुना । तीर्थंकर महावीरके यहाँ पहुँचनेका प्रभाव आज भी विद्यमान है ।
प्रसिद्ध इतिहासकार ओझाजी के शब्दों में मेवाड़ राज्यमें सूर्यास्त के अनन्तर रात्रि भोजनकी आज्ञा न थी। टॉड साहबका कथन है कि कोई भो जैन यति उदयपुर में पधारे, तो रानी महोदया आदरपूर्वक राजमहल में लाकर सम्मानपूर्वक उहाती और आहारका प्रबन्ध करती थी।
आवूके राजा नन्दिवर्द्धनने जब महावीरके समवशरणको चर्चा सुनी, तो उसका मनमयूर भी हर्षोन्मत्त हो नृत्य करने लगा । वह सोचने लगा कि तीर्थंकरोंका सम्पर्क भव्यव्यक्तियोंको ही प्राप्त होता है। जो जन्म-मरण के दुःखोंसे छुटकारा प्राप्त करना चाहता है, उसके लिये तीर्थंकर वाणी ही कल्याणप्रद है । संसारके शत्रुओंसे युद्ध करना सरल है, पर इन्द्रियोंके साथ युद्ध करना कठिन है । जो इन्द्रियजयी हैं, वही संसार में महान है। ज्ञान मानवताका सार है । पर ज्ञानका भी सार सम्यक्त्व या सच्ची श्रद्धा है। ज्ञान, दर्शन और चारित्रके परिपूर्ण होनेसे ही आत्मा शाश्वत सुखको प्राप्त कर सकती है। जिसने मनुष्य शरीर प्राप्तकर, सद्धर्मका श्रवण नहीं किया, और सद्धर्म श्रवणकर भी जिसने संयम और तप धारण नहीं किया, उसका धर्म-श्रवण कोई महत्त्व नहीं रखता । अनादिकाल से यह प्राणी मनोरम काम भोगों में आसक्त है । स्वर्गका वैश्व सहज में प्राप्त हो सकता है, पुत्र- मित्रादिका संयोग भी सुलभ है, पर एक धर्मकी
१. ओक्षाफीकृत अनूदित, टोंड राजस्थान, जागीर-प्रथा, पृ० ११. २. रा० रा० वासुदेव गोविन्द आप्टे, जैनधर्मका महत्त्व, सूरत, भाग १, पृ० ३७.
२६४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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प्राप्ति होना दुर्लभ है । मुझे इस समय बहुत ही अच्छा संयोग प्राप्त हुआ है । इस संयोगका लाभ उठाना चाहिये ।
इस प्रकार विचारकर राजा नन्दिवर्द्धन तीर्थंकर महावीरके समवशरण में गया और वहाँ उसने श्रावकके द्वादश व्रत ग्रहण किये। महावीरकी स्मृतिमें उसने एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया । जिसका पता खुदाईसे प्राप्त एक अभिलेख द्वारा मिलता है ।
अवन्ती : चण्डप्रद्योतका नमन
तीर्थंकर महावीरका समवसरण विभिन्न स्थलोंपर बिहार करता हुआ अवन्तिदेशको उज्जयिनी नगरी में पहुँचा । यहाँ चण्डप्रद्योत शासन करता था । यह प्रतापशाली और क्रोधी स्वभावका था। बताया गया हैं कि इसके पास चार रत्न थे :- १. लोहजंग नामक लेखवाहक, २. अग्निभीरु नामक रथ, ३. अनलगिरि नामक हस्ति और ४ शिवा नामक देवी शिवा देवी वैशालींके राजा चेटककी बेटी थी । चण्डप्रद्योतकी आठ रानियाँ थीं। उनमें एकका नाम अंगारवती था । यह अंगारवतो सुंसुमारपुरके राजा धुन्धुमारकी पुत्री थी । इस अंगारवतीको प्राप्त करने के लिए प्रद्योतने सुंसुमारपुरपर घेरा डाला था । अंगारवती श्राविका के व्रतोंका पूर्णतया पालन करती थी ।
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चण्डप्रद्योतका सम्बन्ध राजगृह, वत्स, वीतभय और पांचाल आदि देशोंके साथ भी था | चण्डप्रद्योत अपने समयका प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, पुरुषार्थी, शूरवीर और वासना - प्रिय था ।
जब तीर्थंकर महावोरका समवशरण उज्जयिनी में पहुंचा, तो उज्जयिनी - के सभी नर-नारी उपदेशामृत पान करनेके लिये समवशरण में सम्मिलित हुए 1 राजा प्रद्योत भो धर्म-श्रवणको इच्छासे समवशरणमें सम्मिलित हुआ। वह सोचने लगा कि तीर्थंकरका दर्शन सौभाग्योदयसे ही होता है । मैंने अपने जीवनमें अनेक युद्धकर विजयलाभ किये हैं | अब तक के जीवनपर दृष्टिपात करनेसे ज्ञात होता है कि मैंने जो कुछ भी किया है वह शरीर और संसारके लिये किया है, आत्माके लिये कुछ नहीं किया है अब समय आ गया है अतः आत्मशोधन के लिये प्रवृत्त होना आवश्यक हैं ।
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१. जैनमित्र (सुरत) १५३११९३१.
२. मूर्तिका प्राचीन इतिहास ( फलोषि), पृ० १३६ तथा महावीर जयन्ती स्मारिका, सन् १९७३, पृ० ४०.
३. आवश्यकचूर्णि भाग २ पत्र १६० तथा त्रिषष्ठिशसा कापुरुषचरित १०।११।१७३.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २६५
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महावीर क्रियाकाण्ड और यज्ञका विरोध, वार्मिक जड़ता एवं आर्थिक अपव्ययको रोकने के लिए ही कर रहे हैं। मनुष्य मनुष्य के बीच भेद-भावकी खाई जातिवादके कारण उत्पन्न हो रही है । ईश्वरके नामपर जनता पुरुषार्थको भुली हुई है। यही कारण है कि तीर्थंकर महावीरने आत्माको हो ईश्वर बताया है और आत्माके लिए जोर दिया है। संतुलित और संघर्ष - विहोन जीवन-यापन के लिये आचार, विचार-सहिष्णुता एवं वाणीकी उदारता आवश्यक है । मानव जीवन के मूल्योंमें शांति, संयम, क्षमा और सुखको प्रधान स्थान दिया गया है। अतएव मैं तीर्थंकर महावोरके चरणों में नमनकर धार्मिक आचार-व्यवहारकों ग्रहण करूँगा | तीर्थंकर महावीरकी सुदृढ़ भक्ति ही आत्मोस्थानका कारण है ।" इस प्रकार विचारकर चण्डप्रद्योतने इन्द्रभूति गौतम गणधर से श्रावक के व्रत ग्रहण किये ।
पांचाल जनपद : जन-अभिनन्दन
पांचाल जनपदकी राजधानी काम्पिल्य नगरी थी। यह नगरी गंगा के तट पर बसी हुई थी । काम्पिल्यके नामकरण के सम्बन्ध में कई मत हैं। पांचाल के राजा भृम्यश्व के एक पुत्रका नाम कपिल या कथा | इसी नगर नगरीका नाम कम्पिल्य पड़ा होगा। पौराणिक इतिवृत्तों ज्ञात होता है कि पंचाल राज्य दो भागों में विभक्त था । इन दोनों भागोंकी सोमा गंगा नदी थी। गंगा के उत्तरका भाग उत्तरी पंचाल कहलाता था, जिसकी राजधानी अहिच्छत्रा थी । दक्षिणवाला भाग दक्षिण पंचालके नामसे प्रसिद्ध था, जिसकी राजधानी काम्पिल्य थी | पंचालके निर्बल हो जानेपर कौरववंशी शासकोंने यहाँ अघि
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पत्य जमाया ।
काम्पिल्य जैन तीर्थंकरोंकी विहारभूमि रहा। भारतवर्षको प्रसिद्ध दस राजधानियों में काम्पिल्यको गणना है ।
?. Malva was blessed by the auspicious visit of Tirthankar Mahavira, in whose time king pradyota was rules of ujjain a great devotee of the lord in deed.—The religion of Tirthankaras, P. 167.
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२. जम्बूदीवे भरवासे दस रायहाजिओ पं० [सं० - चंपा १, महरा २, वाराणसी ३, सावत्थी ४, सहत सातेतं ५ हृत्वियणावर ६, कंपिल्ल ७ मिहिला ८ को संबि ९, रायगिहूं - ठाणांगसूत्र, ठाणा १० उद्देशः ३, सूत्र ७१९ पत्र ४७७-२. अस्थि रहेन जंबूद्दीने दक्षिण भारह खण्डे पुष्यदिसाए पंचाला नाम जणवओ । तत्थ गंगानाम महानई तरंगभंगिपक्वाफिज्जमान पामार भित्तिअं कं पिस्लपुरं नाम नगरं
विविभतीर्थकल्प,
१०५०.
२६६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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काम्पिल्य नगर में संजय या जय नामक एक राजा राज्य करता था ।' एक दिन वह सेना और बाहन आदिसे सत्रित होकर आखेट आदिके लिए निकला और घोड़ेपर आरूढ़ राजा केसर नामक उद्यानमें मृगोंका शिकार करने लगा । इस उद्यानमें एक परमतपस्वी मुनि द्राक्षा और नागवल्ली आदि लताओंके मण्डपमें ध्यानस्थ थे। राजा मुनिके समीप पहुंचा और घोड़ेसे उतरकर मुनिराजके चरणोंमें 'नमोऽस्तु' कर अपने अपराधकी क्षमा याचना करने लगा। मुनिराज कहने लगे--" शिव ! तु भाय है । गुना और भारत उत्पन्न करना छोड़ अभय देनेवाले बनो और हिंसाके मार्गको छोड़ो । प्राणियोंको दुर्गतिमें ले जानेवाली हिंसा है। जो व्यक्ति यह लोक और परलोकके सुखको कामना करता है उसे हिंसाका त्याग कर देना चाहिए । स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य आदि पदार्थ क्षणविध्वंसी हैं 1 जो आत्मोत्थानका इच्छुक है वह संसारके विषय-सुखोंमें आसक्त नहीं रहता। अतएव हे राजन् ! आपको यात्मकल्याणके लिये प्रवृत्त होना चाहिए।"
संजय तीर्थकर महावीरके समवशरणमें प्रविष्ट हुआ और यहाँ उसने निम्रन्थदीक्षा ग्रहण की। इसो नगरका कुण्डकोली भी अपनी पत्नी सहित महावीरके समवशरणमें धर्मसाधनमें प्रवृत्त हुआ। काम्पिल्य नगरीके जन-समुदायने वहे भक्ति-भावके साथ तीथंकर महावीरका अभिनन्दन किया और उनके प्रति अपार भक्ति प्रदर्शित को।
अहिच्छत्रामें भी तीर्थकर महावीरका समवशरण पहुंचा था और वहाँके निवासियोंने धर्मामृतका पानकर अपनेको कृतार्थ माना था।
सम्भवतः पंजाबमें ही गान्धारदेशकी राजधानी तक्षशिला भी भगवान् महावीरके समवशरणसे पवित्र हुई थी। यहाँके निकटमें कोटेरा ग्रामके पास एक पहाड़ोपर तीर्थकर महावीरके शुभागमनको सूचित करनेवाला एक ध्वस्त मन्दिर अवशिष्ट है । जेन साहित्यमें पंचालको गणना सोलह जनपदोंमें की गयी है । इसमें सन्देह नहीं कि तीर्थकर महावोरके समवशरणसे पंचालके सभी नगर पवित्र हुए हैं।
१. तीर्थकर महावीर, भाग २, पृ० ६६०; प्रवण भगवान महावीर, प्रथम संस्करण,
पृ० ३६१, तथा भगवान् महावीर, कामता प्रसाद, प्रथम संस्करण, पृ. १३५. विशेष जानने के लिए देखें-उत्तराध्ययन, सुखबोपटीका, अध्ययन १८, २२८१, २५९।२.
तीर्थकर महावीर और उनको देशना : २६७
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शाण : क्शाणभद्रका' निन्थत्व
भोपाल राज्य सहित पूर्व मालव प्रदेश पहले दशाणं कहलाता था । मौर्यकालमें इसकी राजधानी चैतगिरि में और उसके पश्चात् विदिशा या भेलसामें थी। जन सूत्रोंमें इस देशकी गणना आर्यदेशों में की गई है और इसकी राजधानीका नाम मृत्तिकावती लिखा गया है। मृत्तिकावती वत्सभूमिके दक्षिणमें प्रयागके पार्वतीय प्रदेशोंमें अवस्थित यो। ___यहाँका राजा दशाणभद्र था। उसे एक दिन चरपुरुषोंद्वारा यह सूचना प्रास हुई कि फैल जात; दशार्णदुर सार्थकर महावीरका समवशरण आनेवाला है। चरपुरुषको बात सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने अपनी सभाके समक्ष निवेदन किया-"कल प्रातःकाल में तीर्थकर महावीरकी वन्दना ऐसी समृद्धिसे करना चाहता हूँ जैसी समृद्धिसे कभी किसीने न की हो।" ___ वह अन्तःपुरमें गया और अपनी रानियोंसे भी तीर्थकर-वन्दनाकी बात करने लगा। दसार्णभद्र रात्रिभर तीथंकर महावीरके स्वागत के लिये कल्पनाएँ करता रहा । सूर्योदयसे पूर्व ही नगरके अध्यक्ष को बुलाकर नगर सजानेका आदेश दिया। नगर ऐसा सजाया गया, जेसे वह स्वर्गका एक खण्ड ही हो । राजाने स्नान किया, अंगराग लगाया, पुष्पमालाएं पहनीं, उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण धारण किये और उत्तम गजपर सवार होकर तीर्थंकर महावीरके समदशरणको ओर ऋद्धिपूर्वक चल पड़ा ।
उसका अहंकार देखकर इन्द्रके मनमे दशार्णभद्रके गर्वहरणकी इच्छा व्याप्त हुई । अतः इन्द्रने जलमय एक विमान बनाया। उसे नाना प्रकारके स्फटिक मणियोंसे सुशोभित किया । उस विमानमें कमल आदि पुष्प विकसित थे और नानाप्रकारके पक्षी कलरव कर रहे थे। उस विमानमें बैठकर इन्द्र अपने देवसमुदायके साथ समवशरणकी ओर चला।
इन्द्र अतिसज्जित ऐरावत हाथीपर बैठकर पृथ्वीपर पहुंचकर देव-देवियोंके साथ समवशरणमें आया । इन्द्र की इस ऋद्धिको देखकर दशार्णभद्रके मनमें अपनी ऋद्धि-समृद्धि क्षीण लगने लगी और उसने वस्त्राभूषण उतारकर दिगम्बर-दीक्षा धारण कर ली।। १. दसण्णरज्जं मुइय, चइत्ताणं मुणीचरे । दसण्णमहो निक्षतो, सक्त्रं सक्कण चोइलो ।।
-उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य-टीका, अध्ययन १८, श्लोक ४४, पत्र ४७-२. दशार्णभद्रो दशार्णपुरनगरवासी विश्वंभराविभुः यो भगवन्तं महाबीर दशार्णकरनगरनिकटसमयसृतमुद्यान-ठाणांगसूत्र सटीक, पत्र ४८३-२. २६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परर
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दशार्णभद्रको दीक्षित होते देखकर इन्द्रने अपने पराजयका अनुभव किया । बहु दशार्णभद्र के पास गया और उसके त्याग और वैराग्यको पुनः पुनः प्रशंसा करने लगा । दशार्णभद्रने तीर्थंकर प्रभुके समवशरण में अपने मिथ्यात्व और मोहका दलनकर, सम्यक्त्व लाभ किया ।
सुम : कण-कण पुलकित
वर्तमान में हुगली और मिदनापुरके बोचके प्रदेशको 'सुह्य' माना जाता है । यह उड़ीसा की सीमा पर फैला हुआ दक्षिण बंगका प्रदेश है । कुछ विद्वान् 'दक्षिण बंगको' सुम मानते हैं और इसकी राजधानी ताम्रलिति बतलाते हैं । एक अन्य मान्यता के अनुसार हजारीबाग, संथाल परगना के जिलोंको गणना सुह्यके अन्तर्गत है । वैजयन्तीकार सुझको राढका ही नामान्तर मानते हैं ।
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तीर्थंकर महावीरका समवशरण ताम्रलिप्त, राढ़ और सुह्यकी भूमिमें पहुँचा था । प्राकृत चरितकाव्यों में समुद्रतटवर्ती ताम्रलिन्तिमें समवकारणके पहुँचनेका निर्देश आया है । महावीरके धर्मोपदेश यहाँकी भूमिका कण-कण व्यानन्दसे विभोर था | प्रजा दर्शन के लिए नदी नालोंके समान उमड़कर जा रही थी | महावीर धर्मका स्वरूप प्रतिपादित कर रहे थे और जनता उत्सुक होकर धर्मामृत पान कर रही थी। विश्वबन्धुत्व और विश्वमैत्रीका उपदेश सभीको प्रभावित कर रहा था। इस धरतोकी मानसिक और सांस्कृतिक पता समाप्त हो रही थी । स्वस्थ चिन्तनको सुमधुर और सुरभित वायु लोकजीवनको आनन्दित कर रही थी। सुह्य देशको भूमि आज कृतार्थ हो गयी थी, उसका कण-कण पुलकित था ।
व्यस्मक पोतनपुर : प्रसन्नचन्द्र की दीक्षा
अस्मक देशको राजधानी पोतनपुर थी । बौद्ध ग्रन्थोंमें भी पोत नगरको अस्सककी राजधानी बताया गया है। जातक-ग्रन्थोंसे ज्ञात होता है कि पहले अस्सक और दन्तपुरके राजाओं में परस्पर युद्ध हुआ करता था । यह पोतन कभी काशीराज्यका अंग भी रह चुका था। वर्तमान पैठनकी पहचान पोतनसे की जाती है। सातवाहनको राजधानी प्रतिष्ठान यही पोतनपुर है ।
एक बार महावीरका समवशरण विहार करता हुआ पोतनपुर नगरमें पधारा | इस नगर के बाहर मनोरम नामक उद्यान में धर्मपरिषद् एकत्र हुई 1 समवशरणके आनेका समाचार प्राप्त करते ही पोतनपुरनरेश प्रसन्नचन्द्र र तत्काल
१. ज्यागरंकी आँच मल बुद्धिज्म, पृ० २१. २. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित, पर्व १०
सर्ग ९. पद्म २१-५०.
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तीर्थकरको वन्दनाके लिए चल दिया । यहाँ वह महावीरको देशनासे अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसके राग-द्वेष विभाजित होने लगे । उसके हृदय में विभिन्न प्रकारको अनुभूतियोंका संघर्ष हो रहा था । कभी वह अपने विशाल राज्यको ओर सोचता और अपने उत्तराधिकारीको अल्पवयका चिन्तनकर मोहाभिभूत हो जाता ! 'मेरे द्वारा दीक्षा ग्रहण कर लेनेपर इतने विशाल साम्राज्यका संचालन कैसे हो ? अभी मेरा तुमसोटा है, परियों के ऊपर इतने बड़े राज्यका दायित्व सौंप देना उचित नहीं है।' अत: उसके दीक्षाके भावोंपर मोहके पयोधर आच्छादित हो जाते ।
कुछ क्षणके पश्चात् वह सांसारिक सम्बन्धों, अस्थिरताओं, वासना-जन्य विकृतियों और जगत्के प्रपञ्चोंके विषयों में सोचता, तो उसका हृदय विकिसे परिपूर्ण हो जाता। संसारके सभी संयोगीभाव उसे कष्टकर प्रतीत होने लगते ।
शुभ परिणामोंकी तीव्रता और सधनताने उसके मिथ्यात्वभावको गला दिया और सम्यक्त्वके सूर्योदयने आत्माको अलोकित कर दिया । अतः उसने दिगम्बर-दीक्षा धारण करनेका निश्चय किया।
द्वादश अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनसे परिणामोंमें निर्मलता बढ़ती जाती और वह आरम्भ एवं परिग्रहका त्याग करनेके लिए कृत-संकल्प होता जाता । फलतः समस्त वस्त्रोंका त्यागकर केशलुम्चन करनेके लिए वह प्रवृत्त हुआ । पञ्चमुष्टी केश-लुच करते ही मनको ग्रन्थियाँ खुल गयीं। राजा प्रसन्नचन्द्रका चारों ओर जयघोष सुनायी पड़ रहा था । इन्द्रभूति गौतम गणधरके तत्त्वावधान में और अन्तिम तीर्थंकर महावोरके पादमूलमें सम्पन्न यह दीक्षा सभीको चर्चाका विषय थो।
प्रसन्नचन्द्रने अपने अल्प-वयस्क पुत्रको प्रधान अमात्यके संरक्षण में राज्यभार सौंप दिया । प्रसन्नचन्द्र दीक्षित होकर महाबोरके संघमें उग्र तपश्चरण करने लगा।
एक दिन समवशरणमें श्रेणिकने प्रसन्नचन्द्रके सम्बन्धमें प्रश्न किया । इन्द्रभूतिने प्रसन्नचन्द्र के परिवारकी कथा सुनायी। कालक्रमानुसार प्रसन्नचन्द्रने केवलज्ञान प्राप्त किया। केकयाचजनपद-श्वेताम्बिका : प्रदेशोका मोह-प्रन्थि-भेदन । ___ जैन ग्रन्थों में प्रतिपादित साढ़े पच्चीस आर्यदेशोंमें इसकी गणना की गई है। केकयगज्यका उपनिवेश होनेके कारण यह केकयार्द्ध कहलाता था। १. परिशिष्ट पर्ष, याकोबी-सम्पादित द्वितीय, संस्करण, सर्ग १, पद्म १२-१२८. २७० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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ताम्बिका इस जनपदकी राजधानी थी। इसके ईशान कोण में नन्दनवनके समान मृगवन नामक उद्यान था । यहाँका राजा प्रदेशी' अधार्मिक, नास्तिक और अधर्मानुकूल आचरण करनेवाला था । उसके शील- आचार में धर्मका किञ्चिन्मात्र भी स्थान नहीं था । एक दिन प्रदेशीका साक्षात्कार पावपत्य केशीकुमार से हुआ । केशीकुमारने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहसम्बन्धी विचारोंका महत्त्व बतलाते हुए प्रदेशीको आस्तिक बनानेका प्रयास किया। प्रदेशी केशोकुमारके आचार-सम्बन्धी विचारोंसे अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसे मानव जीवन के रहस्यका बोध हो गया । जीवनमूल्यांकी पहचान उसे प्राप्त हो गयी ।
प्रदेशीने यह अनुभव कर लिया कि भौतिक शरीरसे ज्ञान-दर्शनरूप आत्मा भिन्न है - आत्मा देह या पञ्चभूतरूप नहीं हैं। जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप चतुर्भूतसे आत्माको उत्पन्न मानते हैं, वे अज्ञानी हैं - आत्म-स्वरूपके बोधसे रहित हैं । प्रदेशीने अपनी शंकाका समाधान करनेके लिए केशोसे प्रश्न किया- "मेरे पिता निर्दयी थे और मरकर नरक गये, जहाँ वह दुःख भोग रहे हैं, फिर वह उन दुःखोंसे बचने के लिए मुझे क्यों सम्बोधित नहीं करते ?”
केशीकुमार - " राजा अपराधीको दण्ड देता है, उस दण्डको भोगते समय जैसे अपराधी अपने पुत्र कलत्र के पास नहीं जा सकता, उसी प्रकार नारकी जीव अपने अशुभ कृत्योंका फल भोगते समय वहांसे तब तक नहीं निकल सकता है, जब तक सम्पूर्ण कमका फल भोग नहीं लेता ।"
प्रदेशी -- "अच्छा यह मान लिया, पर यह बतलाइये कि मेरी धर्मात्मा दादी स्वर्ग गयी हैं, वह मुझे सम्बोधित करने क्यों नहीं आती ?"
केशी - " जो मनुष्य देवदर्शनके लिए शुद्ध होकर मन्दिर गया है, वह अशुद्धिके भय से दूसरे कामके लिए बुलाये जानेपर भी नहीं आता । देवगतिके जीव शुद्ध है, उन्हें मनुष्यगतिकी अशुचिता असह्य है। अतः उपर्युक्त भक्तके समान वे नहीं आते। पर जिन जीवोंका पारस्परिक मोह प्रबल होता है और वे इष्टमित्रोंका उपचार करना चाहते हैं, वे कष्ट सहकर भी आते हैं । आगमग्रन्थों में इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं। सीताजीका जीव अपने एक बन्धुको सम्बोधित करने के लिए नरक गया था ।"
प्रदेशीको जिज्ञासा अभी भी शान्त नहीं हुई। उसके मनमें आत्माके अस्तित्व सम्बन्ध में अभी भी आशंका अवशिष्ट थी । अतः वह कहने लगा
१. पएसिकहा, रायपसेणी सटीक, पत्र २७३.
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना २७१
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'एक मरनेवाले व्यक्तिको सन्दूक में बन्द कर दिया जाता है तथा सन्दुकको भी चारों ओरसे इस प्रकार बन्द कर दिया जाता है, जिससे उसमें हवा भी नही जाती । पर मरते समय वह आत्मा न तो सन्दुकके भीतर दिखलायी पड़ती है और न कहीं बाहर हो । यदि आत्मा है, तो उसे अवश्य दिखना चाहिए।" __केशी-"राजन् ! भवनके भीतर सब दरवाजों और खिड़कियोंको बन्द करके जब संगीतको मधुरध्वनि आरम्भ होतो है, तब उसे भवनके बाहर निकलते हुए कोई नहीं देखता, पर वह निकलकर श्रोताओंके कानोंसे टकराती है और उन्हें आहलादित करती है। सूक्ष्म शब्द तो पोद्गलिक हैं, फिर भी नेत्रोंसे नहीं दिखते । अव विचार कीजिए कि अरूपी यह आत्मा नेत्रोंसे किस सकार विकसपी डेमो ?'
प्रदेशोकी जिज्ञासा अभी शान्त नहीं हुई थी । अतः वह पुनः प्रश्न करता हुआ कहने लगा-"मनुष्य-शरीरके टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें एक ऐसे सन्दूकमें भर दिया जाय, जिसमें कोई दूसरी वस्तु प्रवेश न कर सके। यहाँपर शरीरके वे टुकड़े सड़ जाते हैं और उनमें कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। अब प्रश्न यह है कि जीव यहाँपर कहाँसे आता है ?"
केशी-"राजन् ! जब आत्मा निकलते हुए महीं दिखलायी पड़ती तो प्रवेश करते हुए किस प्रकार दिखलागी पड़ेगो ? अमूत्तिक आत्माका दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है।"
इस प्रकार केशीकुमारने प्रदेशोको आत्माके अस्तित्वका बोध कराया और उसके परिणामोंमें परिवर्तन किया।
ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ तीर्थंकर महावीरका समवशरण कैकेयी'. को राजधानी श्वेताम्बिकामें आया । प्रदेशी परिजन-पुरजन सहित महावीरकी वन्दनाके लिए गया। भगवानकी दिव्यचनि प्रारम्भ हई, सभी श्रीता धर्मश्रवणकर आनन्दित हो रहे थे। अवसर प्राप्तकर प्रश्न किया-"संसारका कारण क्या है ? और मुक्ति किस प्रकार प्राप्त की जाती है ? लोकके प्राणी किस प्रकार सुखी होते हैं ?"
इन्द्रभूति गणधरके निमित्तसे धर्मको प्रतिपादित करते हुए तीर्थंकर महावीरने कहा-"षट् द्रव्यों से जीव और पुद्गल द्रव्यमें दो प्रकारको परिणमन शक्तियाँ हैं--(१) स्वभाव और (२) विभाव । शेष द्रव्योंका परिणमन स्वभाव
___ कैकयोय"हरिवंशपुराण ३५
२७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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रूप ही होता है।' ये दोनों द्रव्य विभावरूप परिणमन करनेके कारण अनादि का उसे सम्बद्ध हैं । शरीरमें बंधा हुआ जोव शुभाशुभ कर्म कर रहा है । जीवने पूर्व जन्ममें कर्म किये हैं और इस जन्म में भी कर्म संचित कर रहा है । इन संचित कर्मों के शुभाशुभ फलको भोगता हुआ जीव सुख-दुःखी होता है। यदि व्रतोपवास, संयम, तपस्या आदिके द्वारा इन कर्मोकी निर्जरा कर ले, तो शरीरबन्धनसे मुक्त हुआ जा सकता है । मन, वचन, काय द्वारा आस्रव निरोधकर संवरका पालन किया जाय, तो नवीन कमका बन्धन नहीं होता और तपस्यासे संचित कमका नाश हो जानेपर भवभ्रमणका अन्त हो जाता है । निस्सन्देह कर्मक्षयसे ही दुःखक्षय होता है ।"
तीर्थंकर महावीरके कार्य-कारण सिद्धान्त पर आधूत उपदेशने अन्य श्रोताओं के साथ राजा प्रदेशीको बहुत प्रभावित किया । इस सन्दर्भ में सप्ततत्त्व, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय, छः द्रव्य, चार कषाय और अष्टकमौके स्वरूपको समझा । आत्म-परिणति के निर्मल होते ही प्रदेशीके राग-द्वेष गल गये, उसकी आत्मा आलोक आपूरित हो गयी और उसने मुनिदीक्षा धारण कर ली । कुरुदेश - हस्तिनापुर शिवराजवि द्रवीभूस
हस्तिनापुरकी अवस्थिति मेरठसे २२ मील पूर्वोत्तर और बिजनौरसे नैर्ऋत्यमें बूढ़ी गंगाके दक्षिण तटपर मानी जाती है। इस नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशामें सहस्राम्रवन नामका उद्यान था । वह उद्यान सब ऋतुओंके फल-पुष्पोंसे समृद्ध था और नन्दनवन के समान रमणीय था ।
उस समय हस्तिनापुरमें शिव नामका राजा राज्य करता था । इसकी पट्टरानीका नाम धारिणी था । इस दम्पतिके शिवभद्र नामक पुत्र था ।
एक दिन राजाके मनमें रात्रिके पिछले प्रहर में विचार आया कि हमारे पास जो विपुल धनसम्पत्ति है, वह सब पूर्वापाजित पुण्यका फल है। अतः पुनः पुण्यार्जन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अपने उक्त विचारको कार्यरूपमें परिणत करने के उद्देश्यसे उसने अपने पुत्र शिवभद्रको राज्यपदपर प्रतिष्ठित कर दिया और स्वयं तापस दीक्षा लेकर गंगातटपर व्रतोपवास करना आरम्भ किया |
शिवराज ने घोर तपश्चरण किया और दिक्चक्रवाल तपके प्रभावसे उसने विभंगावधि प्राप्त किया। उसे अपने इस कुअवधिके कारण अधिकांश वस्तुएं विपरीत दिखलायी पड़ने लगीं। उसे सात द्वीप और सात समुद्र दिखलायी पड़ने लगे ।
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तीर्थकर महावीरका समवशरण हस्तिनापुरके निकटवर्ती सहसाम्रयनमें पहुँचा। समवशरणके प्रभावसे इस आम्रवनका सोन्दर्य कई गुना बढ़ गया । समवशरणसभाको चर्चा समस्त फुरुदेशमें व्याप्त हो गयी। नर-नारियाँ विभिन्न प्रकारकी केश-भूषामें सजकर महावीरके समवशरण में सम्मिलित हुई । स्वार्थी, भोगी, उत्तळ ग्वल पुरुष अपनी विभि-लालसाओंसे विवश होकर इस धर्मसभामें सम्मिलित न हो सके, पर चिभिन्न दिशाओं और विदिशाओंसे अगणित नर-नारी धर्म-प्रवचनके श्रवणके लिये एकत्र हुए। समवशरण हरित-श्याम वर्णकी मणियोंसे सुशोभित था और स्थान-स्थानपर मणि-मुक्ताओंके झालरतोरण लगे थे। उद्यानको उपत्यकामें विभिन्न प्रकारके पक्षी कलरव कर रहे थे। विभिन्न सरोवरोंमें कमल विकसित थे और मंगलवाद्योंकी उछाहारी रागनियोंसे विशाल उद्यान-प्रान्त गुजित था। तोरण, द्वार, गोपुर, मण्डप और वेदिकाओंसे तटभूमि रमणीय थीं। जब देशना आरम्भ हुई, तो किसीने प्रश्न किया--"प्रभो! शिवराजपि इस लोक में सात ही द्वीप और सात ही समद्र बतलाता है। क्या उनका यह कथन सत्य है ?" __महावीरने कहा-' गौतम ! इस तिर्यक् लोक में रवयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप और समुद्र है। शिन्त्रका उक्त कथन सत्य नहीं है ।" ___ आजकी दिव्यध्वनिका विषय लोक-वर्णन था । लोकका स्वरूप, विस्तार, द्वोप, समुद्र, क्षेत्र आदिके सम्बन्धमें उपदेश हो रहा था। जब शिवराजर्षिको तीर्थकरके उपदेशका परिज्ञान हया, तो उसका विभंगज्ञान नष्ट हो गया और वह सोचने लगा कि काय-कटेश सहनकर मैंने जो पुण्यार्जन किया है, वह तो संसार परिभ्रमणका ही कारण है। राग-द्वेषकी निवृत्तिके बिना जन्म-मरणके दुःखोसे छुटकारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वह जितना अधिक अपना आत्मालोचन करता, उतना ही उसकी आत्मा में प्रकाश फैलता जाता। राशि-राशि सौन्दर्य उसके चरणों के समक्ष विद्यमान था । अतएव बह तीर्थकर महावीरके समवशरणमें आकर जिम-दीक्षा धारण करना चाहता था। मोहका परदा हटते हो, उसकी आत्मा द्रवीभूत हो गयी। मिथ्यात्वका पंक घुल गया और सम्यक्त्वको ज्योति प्रज्वलित हो गयी।
शिवराजर्षिने त्रिवार 'नमोस्तु' किया और गौतम गणधरके निकट बैठकर अपनी श्रद्धा और भक्ति प्रकट की । उसकी आत्मासे ज्ञान और दर्शनको किरणे निःसृत होने लगी। उसने अनुभव किया कि कर्मावरणको सघनता छूट रही है और आध्यात्मिक अनुभूति बढ़ती जा रही है। सम्यक्त्वके साथ सम्यक विवेक भी उत्पन्न हो गया है और आत्मा चारित्र ग्रहण करनेके लिये उत्सुक है। २७४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-गरम्पग
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शिवराजर्षिने इन्द्रभुति गौतमसे निवेदन किया--"स्वामिन् ! अज्ञानतापूर्वक तो मैंने बहुत तप किया है, पर अब मैं ज्ञानपूर्वक तीर्थकर महावीरकी शरणमें रहकर संयम और तपको आराधना करना चाहता हूँ। कृपया मुझे निर्ग्रन्थ मुनिके व्रत दीजिए।"
शिवराजषिने पंचमुष्टि लोंचकर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की।' पुरिमताल : महाबलका'-वन्दन
प्रयागका ही प्राचीन नाम पुरिमताल बतलाया जाता है। जैन ग्रन्योंके आधारपर यह अयोध्याका एक शाखानगर रहा होगा। यह निःसन्देह है कि पुरिमताल प्राचीन नगर था। इस नगरके शकटमुख उद्यानमें बम्गुर श्रावकने तीर्थंकर महावीरकी अर्चा की थी। पुरिमतालके अमोघदर्शी उद्यान में तीर्थकर महावीरका समवशरण आया हुआ था । भव्य नर-नारी इस समवशरणमें सम्मिलित होकर धर्मामृत का पान कर रहे थे।
जब इस नगरके नृपति महाबलको तीर्थंकर महावीरके समवशरणके पधारनेकी सूचना प्राप्त हुई, तो वह भी अपने दल-बल सहित वन्दनाके लिये चला। जब वह समवशरणमें प्रविष्ट हुआ, तो उसे विजयचौर सेनापतिके पुत्र अभग्नसेनके पूर्व भवोंका वर्णन सुनायी पड़ा । इस पूर्व भवावलिको सुनकर महाबल प्रभावित हुआ और उसे संसार, शरीर एवं भवोंसे विरति होने लगी। पर उसके मनमें राज्य संचालनको आकांक्षा अवशिष्ट थी। अतः धार्मिक प्रवृत्तिके रहते हए भी, वह तीर्थकर महावीरकी केवल वन्दना कर नगरमें लौट आया । महाबल अपने समयका प्रसिद्ध शासक था और तीर्थकर महावीरके प्रति अपार श्रद्धा रखता था । बळमानपुर : विजयमित्रका धर्मश्रवण
वर्द्धमानपुरकी स्थिति आधुनिक बंगाल में होनी चाहिये। यदि इसका सम्बन्ध आधुनिक वर्दवान नगरसे जोड़ा जाय, तो आश्चर्य नहीं | इस नगरके बाहर विजयवर्द्धन नामक उद्यान था । यहाँ मणिभद्र यक्षका विशाल मन्दिर
१. समणेगं भगवसा महावीरेणं अट्ठ रायाणो मुंहे भवेत्ता आगारातो अणगारिस
पवाविता, तं0-बीरंगय, संजय एणिज्जते य रायरिंसी। सेय सिवे उदासणे [ तह संखे कासिंवद्धणे ]-स्थानांगसन, सटीक, स्थान ८, सूत्र ६२१ पत्र ( उत्त
राई ) ४३०-२. २. विपाकसूत्र (पी० एल० वैद्य द्वारा सम्मादित) सू० १, ४० ३. प. २६-२७,
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २७५
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था । इस नगरमें विजयमित्र' नामक राजा राज्य करता था । सीर्थकर महावीरका समवशरण ग्रामानुग्नाम विहार करते हुए वर्दमानपुरमें आया। अन्य जनताके समान विजयमित्र भी तीर्थकर महावीरके समवशरणमें धर्मश्रवण करने के लिए गया। यहां उसने देखा कि विश्वकल्याणके हेतु तीर्थंकर महावीरका धर्म-प्रवचन हो रहा है । वह मनोयोगपूर्वक उनके उपदेशको सुनता रहा। उसे तीर्थंकर महावीरका व्यक्तित्व विकसित पुष्पके सौरभके समान प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि चारों ओरका वातावरण सुरभित हो रहा है। सरलता, सत्यनिष्ठा, संयम, इन्द्रिय-निग्रह आदि जीवनमूल्य विविध प्रकारसे जीवनको प्रेरित कर रहे थे। वह तीर्थकरकी वाणीसे भक्ति-विभोर हो गया
और विनयपूर्वक उनकी वन्दना की । वाराणसी : जितशत्रुका नमन
प्राचीन समयमें काशीराष्ट्र अत्यन्त प्रसिद्ध था। इस राष्ट्रकी राजधानी वाराणसी नगरी थी। इसके बाहर कोष्ठक नामक चैत्य था। यहां कई बार तीर्थंकर महावीरका समवशरण आया । यहाँके तत्कालीन राजाका नाम जितसत्र था। इस नगरीके चलनी पिता और सूरादेव नामक धनाढय गहस्थ महावीरके दश श्रमणोपासकोंमें थे। यहाँके राजा लक्षको काममहावन चैत्यमें सीर्थकर महावीरने अपना शिष्य बनाया था।
तीर्थकर महावीरके समवशरणका समाचार अवगतकर जितशत्रु उनकी वन्दनाके लिये पहुंचा और उसने अत्यन्त भक्ति-भाव-विभोर होकर उनकी अर्धा की। फाकन्दी : पन्य एवं सुनक्षत्रका मोह छिन्न
काफन्दो उत्तर भारतकी प्राचीन और प्रसिद्ध नगरी थी। यह नूनखार स्टेशनसे दो मील और गोरखपुरसे दक्षिणपूर्व तीस मील किष्किन्धा अथवा खुखुम्दक नामसे प्रसिद्ध है।
१. विपाकसूत्र, पी० एल० वैद्य-सम्पादित, १० १,०१०, पृ०७२. २-३. वाराणसी नाम नगरी .......... जियससू राया ।-उवाटगदसाओ, पी० एल०
वंद्यसम्पादित, पृ. ३२, ४. श्रवण भगवान् महावीर, मुनि कल्याणविजय, पृ० ३६१. करगन्दी नामं नयरी होत्या ..."जियसत्तू राया।
-अणुत्तरोववारयदसामो, एन. बी. वंध सम्पावित, पृ० ५१. २७६ : तीभंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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बताया जाता है कि काकन्दीके बाहर सहस्राम्रवन नामक उद्यान था । इस उद्यानमें तीर्थंकर महावीरका समवशरण एकाविक बार आया था। राजा जितशत्रने भक्ति-भावसे तीर्थकरकी वन्दना की थी। जब समवशरणमें गृहस्थधर्मका वर्णन किया जा रहा था, तब क्षेमक और धृतिघरने इन्द्रभूति गौतम गणधरसे श्रावकके द्वादश नत ग्रहण किये थे।
जिस समय तोयंकर महावीर आत्म-धर्मका प्रवचन कर रहे थे और कषाय एवं विकारोंको पर-संयोगजन्य होनेके कारण हेय बतला रहे थे, उस समय भद्रा सार्थवाहीके पुत्र धन्य और सुनक्षत्र बहुत प्रभावित हुए। वे सोचने लगे कि "आत्मा अपने स्वरूपका अनुभव, परिज्ञान और शुद्धाचरण न कर शरीर, घन, सम्पत्ति, परिवार, मित्र आदि पदार्थोंको अपना समझ उनसे राग-मोह करती है। राग-मोह और द्वेषके कारण ही संसारका सारा जंजाल जीवके समक्ष उपस्थित होता है । अतएव राग-यानः २. सः पर्सनरूप चैतन्य आत्माकी अनुभूति करना ही आत्महितका साधन है ।" - धन्य और सुनक्षत्रने आत्म-प्रकाश प्राप्तकर इन्द्रभूति गौतमसे दिगम्बरदीक्षा ग्रहण करनेकी अभिलाषा प्रकट की। वास्तविक विरक्ति अवगतकर गौतम गणधरने इन दोनोंको दिगम्बर-प्रवज्या प्रदान की 1
तीर्थकर महावीरका समवशरण बम्बईके भरुच नगरमें भी गया और यहाँ का तत्कालीन राजा वसुपाल अधिक प्रभावित हुआ। नगरसेठ जिनदत्त सपा उसकी पत्नी जिनदत्ता एवं पुत्री नीलीने श्रावकके व्रत ग्रहण किये। सिन्धु-सौवीर : उदायनका सम्यक्त्व-रोष
जैन आगम-ग्रन्थोंमें साढ़े पच्चीस देशोंमें सिन्धु-सौवीरका नाम भी सम्मिलित है ।महावीरके समयमें यह एक संयुक्त राज्य था, पर बादमें सिन्धु-सिन्धके नामसे और सौवीर पृथक् नामसे प्रयुक्त होने लगा । भारतीय साहित्यमें सिन्धुसौवीरका विशेष महत्त्व दिखलायी नहीं पड़ता। बोद्धायनमें सिन्धु सौवीरको अस्पृश्य देश कहा गया है और वहां जानेवाले ब्राह्मणको पुनः संस्कारके योग्य बताया है । बौद्ध साहित्यमें गान्धार और कम्बोज राज्योंके उल्लेख तो हैं, पर सिन्धु-सोवोरके नहीं।
१. से गं उदायगे राया सिंधुसोवीरप्पमोक्खाणं सोलसण्ठं जणषयाणं बीतीभयप्पामो
खाणं तिण्इं तेसट्ठीणं नारागरसयागं सहसेणाप्पमोक्तार्ण दसम्हंराइणं समयगाणं-भगवतीसूत्र सटीक, शतक १३, उद्देस ६, पत्र ११३५.
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तीर्थकर महावीरका समवशरण इस जनपदमें आया था। उस समय इस जनपदका राजा उदायन था और इसकी रानी प्रभावती महारज चेटककी पुत्री थी। तीर्थंकर महावीरके उपदेशोंसे उदायन बहुत प्रभावित हुआ और वह उनका भक्त बन गया। उसने महावीरके जीवनकालमें ही उनका मन्दिर बनवा कर चन्दनकी प्रतिमा स्थापित की थी और वे दोनों ही उस प्रतिमाकी पूजा किया करते थे।
इस अतिशयपूर्ण प्रतिमाके चमत्कारोंको सुनकर उज्जयिनो-नरेश महाराज चण्डप्रद्योतने उसे चोरीसे अपने यहाँ मंगा लिया। उदायनने मूर्तिको वापस करने के लिये कहा, पर चण्डप्रद्योतने मत लौटानेसे इनकार कर दिया । उदा. यन विशाल सेना लेकर उससे लड़ने गया । घमासान युद्ध हुआ। चण्डप्रद्योतको बन्दी बनाकर कारागृहमें बन्द कर दिया और तीर्थकर महावीरकी उस चन्दनकी प्रतिमाको सिन्छके मन्दिरमें प्रतिष्ठित कर दिया गया। उदायन सम्यक्दृष्टि श्रावक था और उसकी रानी प्रभावती भी धर्मश्रद्धालु थी। किसी पर्वके अवसरपर रानी प्रभावतीके कहनसे उदायनने चण्डप्रद्योतको कारागृहसे मुक्त किया और उसे उसका राज्य भी वापस कर दिया । ___ महावीरफा समवशरण जब सिन्धमें आया, तो महाराज उदायन और रानी प्रभावती इस समवशरणमें प्रसन्नतापूर्वक सम्मिलित हुए। उनके धर्मोपदेशसे प्रभावित होकर उदायन और प्रभावतीने श्रमणव्रत ग्रहण कर लिया। राजा उदायन दिगम्बर मुनि बन गया और प्रभावती आर्यिका । कुसाध्य
हरिवंशपुराणमें तीर्थंकर महावीरके समवशरण-विहारका निर्देश करते हुए कुसन्ध्य देशका वर्णन किया गया है। इसी पुराण में एक कुशोदय देश भी पाया है, जिसकी राजधानी शोर्यपूर थी। आजकल यह स्थान आगरा जिलेके बटेश्वरके अन्तर्गत है। सम्भव है कुसद्य और कुसन्ध्य देश एक ही हैं। शौर्यपुर और कान्यकुब्जके मध्यमें शंकासा (शंकास्था) नगरी है। यह फर्रुखाबाद जिलेमें पड़ती है। ऐसा अनुमान होता है कि यह समस्त प्रदेश कुसद्य या कुसन्ध्यके नामसे प्रसिद्ध रहा है। संक्षेपमें आगरासे कन्नौज तक फैला हुआ प्रदेश कुसन्ध्य या कुसध है। १. उदायणस्स रग्लो महादेवी चेटगरामधूया समणोवासिया पभावई ।
-उत्तराध्ययन, नेमिचन्द्राचार्यको टीका सहित, पत्र २५३--१. २. दीर, वर्ष ९, १० ११३-११५. २७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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अश्वष्ट
इस नामसे सादृश्य रखनेवाले दो स्थान उपलब्ध हैं :-(१) अश्वक और (२) अष्ठकन । अश्वक प्रदेश पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्तसे परे काबुल नदीके उत्तरभागमें स्थित था। यूनानियोंने इसे–'Aspasioi' नामसे बताया है।' __ अश्वष्टसे अश्वकका सादृश्य अधिक है । अष्टकप्रका उल्लेख टोलमीने किया है, जो हस्तकवप्रका अपभ्रंश है । यह गुजरातमें था ।
इस प्रदेशके सम्बन्धमें निश्चित रूपसे कोई जानकारी नहीं है । दक्षिण भारतके राजाओंमें सालुब नामक एक राजवंशका उल्लेख मिलता है । साल्वमल्ल जिनदास तुलबदेशपर शासन करते थे।
दक्षिणके एक अभिलेखमें बताया गया है कि सालुब राजा पूर्वी प्रदेशसे वहाँ आये थे । अत: साल्ब देशको स्थिति दक्षिण भारतमें कहीं सम्भव है। विगत
आचार्य हेमचन्द्रने अभिधानचिन्तामणिमें विगतका उल्लेख जालन्धरके साथ किया है । रावी, व्यास और सतलज नदियोंका मध्यवर्ती प्रदेश विगत कहलाता था। इसके जालन्धर और कोटकांगड़ा प्रमुख नगर थे। पाटल्चर
निश्चित रूपसे इस नगरके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा जा सकता है। यनानियोंने पाटलिनके नामसे सिन्धुका उल्लेख किया है। बहुत संभव है कि पाटच्चर सिन्धुका पार्श्ववर्ती प्रदेश हो । मौक
कनिघमने पंजाबमें जलालपुरके पास राजा मोघ द्वारा स्थापित मोगका निर्देश किया है। यदि यह मोग ही मौक हो, तो जलालपुरके पास इसकी स्थिति मानी जा सकती है। १. कनिषम : ऐशिएन्ट धौमाफी ऑफ इन्डिया, पृ० ६६७. २. कनिंघम : Ancient Geography of India, Fage 699. ३. Jainism and Karnataka culture (Dharwar). Page 52. ४. Mysore and Kurga, Page 152-53. ५. कनिंघम-ऐशिएंट जागरफी माँव इण्डिया, पु. ६८२. ६. जैनसिधान्त-भास्कर, भाग १२, किरण १, पृ० २०. ७. वही, १० २०.
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कम्बोज
यह गान्धारका पाश्र्ववर्ती प्रदेश था।आजकल कंधारके निकटवतीं प्रदेशको कम्बोज माना जाता है। अशोकके पञ्चम अभिलेखमें बताया गया है कि उसने अपने धर्ममहामात्योंको यवन और काम्बोज लोगांके साथ-साथ गन्धार-निवासियोंके प्रदेशमें भी नियुक्त किया था। यह जनपद गन्धारसे लगा हुआ, संभवतः उसके पश्चिमका प्रदेश था। डॉ० राधाकुमुद मुकर्जीने इसे काबुल नदीके तटपर स्थित प्रदेश माना है। पर वस्तुत: इसे बिलोचिस्तानसे लगा ईरानका प्रदेश मानना ही अधिक उचित है ।
बौद्ध साहित्यसे अवगत होता है कि यवन और कम्बोज में आर्य और दास दो ही वर्ण थे । डॉ० मोतीचन्द्रनं कम्बोजको पामीर प्रदेश मानकर द्वारकाको आधनिक दरवाज नामक नगरसे मिलाया है, जो बदखशांके उत्तर में स्थित है। जातककथाओंमें कम्बोजक सुन्दर घोड़ोंका उल्लेख आया है। वाल्हीक
इस जनपदकी अवस्थिति के सम्बन्धमें दो मत हैं:-(१) कुछ विद्वान इसकी अवस्थिति उत्तरापथमें और कुछ (२) वैकटियन देशकी राजधानी वलखके रूपमें स्वीकार करते हैं। पाणिनिके “वाहीकनामेभ्यश्य" (४।२।११७) तथा "आयुधजीविसंघाच्यड्वाहीकेश्वब्राह्मणराजन्यात्” (५३६११४) में वाहीक जनपदका उल्लेख आया है । इसे भाष्यकार पतञ्जलि पंजाबमें स्थित मानते हैं। इसकी अवस्थिति व्यास और सतलज नदियों के बीच निश्चित की गयी है । इस वाहीक राष्ट्रको शतपथ ब्राह्मणमें (१२।९।३।१-३) वाल्हीक कहा गया है। वाल्हीक लोग मूलतः वैक्ट्रियाकी राजधानी वलखके निवासी थे तथा भारतमें चिनाव और सतलज नदियोंके बीचके मैदान में बस गये थे। महाभारतके सभापर्वमें भी वाल्हीक लोगोंका वर्णन आया है और उनके प्रदेशको भी मूलतः बलख और बादमें भारत के उत्तर-पश्चिम भाग तथा पंजाबको माना है ।
कुछ विचारक वाल्हीकको अफगानिस्तानके उत्तरमें बतलाते हैं। पालि साहित्यमें वायि राष्ट्रका जो वर्णन आता है, उसकी दृष्टिसे इस राष्ट्रको व्यास और सतलज नदियों के बीच प्रदेश तक सीमित नहीं रख सकते । इस वर्णनसे यह राष्ट्र सिन्धु नदीके इस पार या उस पार भी संभव है। महारौलीके लोह
१. अशोक ( गायकवाड़ लेक्चर्स ), पृ० १६८. २. डॉ. मोतीचन्द्र : ज्योग्रेफोकस एण्ड इकोनोमिक स्टडीज इन दि महामारत, पृ. ९१. ३. भरतसिंह उपाध्यायः युद्धकालीन भारतीय भूगोल, प्रयाग सं. २०१८, पृ० ४८०. २८० : सीकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा
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स्तम्भ-लेखमें चन्द्रद्वारा सिन्धुके सात मुहानोंको पारकर बाल्हीकको जीतनका निर्देश किया गया है।
आदिपुराणमें प्रतिपादित वाल्हीककी स्थितिसे भी यह स्पष्ट है कि सिन्धुके पार उत्तर-पश्चिम महोश मना रहा है......... ... .. ..
तीपंकर महावीरका समवशरण इस जनपदमें गया था और यहाँकी जनता. ने उनका उदार हृदयसे स्वागत किया था। यवनति
यह प्रदेश यूनान और उसके पायवर्ती भूभागका द्योतक है । यूनानी लोग प्राचीन भारत में 'पवन' नामसे उल्लिखित होते थे। पश्चिमी भागोंमें यवन जनपदकी स्थिति सम्भव है । यों तो 'यवन' शब्दका प्रयोग आधुनिक यूनानके लिए पाया जाता है। महाभारतमें बताया गया है कि नन्दिनीने योनिदेशसे यवनोंको प्रकट किया तथा उसके पाश्वंभागमें यवन जातिकी उत्पत्ति हुई। कर्णने दिग्विजयके समय पश्चिममें यवनोंको जीता था। काम्बोजराज सुदक्षिण यवनोंके साथ एक अक्षौहिणी सेनाके लिए दुर्योधनके पास आया था। ___ यवन भारतीय जनपद है । यवन पहले क्षत्रिय थे, परन्तु ब्राह्मणोसे द्वेष रखने के कारण शूद्रभावको प्राप्त हो गये थे। आदिपुराणमें जिनसेनने (आदिपु० १६।१५५) बताया है कि तीर्थंकर ऋषभदेवने यवन देशकी प्रतिष्ठा की थी।
हरिवंशपुराण के अनुसार महानोरका समवशरण यवन प्रदेशमें गया था। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहके सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया गया था । इस जनपदको जनताने श्रद्धा और भकिके साथ तीर्थकर महावीरका उपदेश सुना था। गान्धार
प्राचीन भारतके सोलह जनपदों में गान्धारका उल्लेख आया है। इस जनपदका निर्देश अशोकके पञ्चम अभिलेखमें भी पाया जाता है । मज्झिम-निकायको अट्ठकथामें गान्धार जनपदको सीमान्त जनपद कहा गया है। गान्धारको १. हॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री : आदिपुराणमे प्रतिपादित भारत, वर्णागम्यमाशा, वाराणसी,
पु० ६७. २. हिस्टॉरीकल लीङ्ग्-विस्, १० ७०-७८. ३. महाभारत, बादिपर्व १७४५३६-३७. ४. वही, वनपर्व २५४।१८।१५०. ५. वही, अनुवासन पर्व ३५।१८।१५२. १. मजिममनिकाय, जिरुप दूसरी, १० ९८२ (पपंचसूनी).
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स्थिति स्वात नदीसे झेलम नदी तक थी। इस प्रकार इस जनपदमें पश्चिमी पंजाब और पूर्वी अफगानिस्तान सम्मिलित थे । गान्धारकी राजधानी तक्षशिला नगरी थी। तक्षशिला शिक्षा और व्यापार इन दोनों ही दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण थी। जीववैद्य तक्षशिलाका प्रसिद्ध शासक था। छान्दोग्य उपनिषद्' और शतपथ ब्राह्मण में गान्धारका उल्लेख आया है। ___तीर्थकर महावीरका समवशरण सिन्धुसे गान्धार गया था और यहाँकी जनताने उनका स्वागत-अभिनन्दन किया था। वीतरागवाणीका श्रवणकर अगणित व्यक्तियोंने आत्मोत्थानकी प्रेरणा प्राप्त की थी। सूरभीर ___ यह समुद्रतटवर्ती प्रदेश था, जो संभवत: 'सुरभि' नामक देशका बोधक है। यह सुरभि देश मध्य एशियाके क्षीरसागर (Caspian sea )के निकट (oxus) ऑक्स नदीके उत्तरको ओर स्थित था। आजकल खीव (khiva) प्रांतका खनत अथवा खरिस्म प्रदेश है । हरिवंशपुराणके वर्णनानुसार यहाँ भी महावीरका समवशरण गया था। स्वागतोय
समुद्रक किनारे होनेके कारण अथवा समुद्रसे वेष्टित होनेसे इस जनपदका नाम यह पड़ा होगा। यह जनपद उस समुद्रके तटपर अवस्थित था, जिसका अल क्वाथ-काढ़े (अनेक औषधियोंको जल में डालकर गर्म करनेपर हुए लाल वर्ण)के समान था। बहत सम्भव है कि यह लाल समुद्र (Red sca) के निकट रहा होगा। इस लाल समुद्रके तटपर अबीसीनिया, अरब, इथ्यूपिमा आदि देश अवस्थित हैं। इन प्रदेशोंमें जैनधर्मका प्रचार हुआ था। अतः हरिवंशपुराणमें प्रतिपादित क्वाथतोय लाल समुद्र (Rcd sea) का तटवर्ती प्रदेश है।
ताणं
सम्भवतः यह तूरानके लिए घ्यवहृत है । कार्ण
हरिवंशपुराणमें इस जनपदको उत्तर दिशामें बताया गया है । सम्भवतः यह काफिरिस्तान है। --- - - - -- -- १. छान्दोग्य उपनिषद् (गीताप्रेस) ६.१४१११८. २. इण्डियन हिस्टोकल क्वारटी, भाग २, पृ० २९, ३. भगवान पार्श्वनाष, पृ. १७३-२०२. २८२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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करणाको परम ज्योति प्रज्वलित
तीर्थकर महावीर उनतीस वर्ष, पाच माह और बीस दिन तक सपना देशना द्वारा जन-जनको ज्ञान देते रहे। उनकी देशना सुनते ही मिथ्यात्व भंग हो जाता, मोह छिन्न हो जाता और हृदयकी समस्त गाँठे खुल जातीं । उन्होंने मुनि-आयिका, श्रावक और श्राविकाओंके साथ विहार किया । गृहस्थ, नृपति, राजकुमार, राजकुमारियां, श्रेष्टि, सार्थवाह, विद्वान एवं बुद्धिजीवी-वर्गको प्रतिबोधित किया । उनको धर्मामृत-वर्षा काशी, कर्ममार-ग्राम, कोल्लाग-सग्निवेश, मोराक-सन्निवेश, नालन्दा, चम्पा, श्रावस्ती, वैशाली, विपुलाचल, वेभारगिरि, मगरके विभिन्न ग्राम-नगर, कोशाम्बो, मिथिला, विदेह, पंचाल, बंग, पुण्ड, ताम्रलिप्ति, हस्तिनापुर, साकेत, मथुरा, हेमांगद, कम्बोज, कुसन्ध्य, अश्वष्ट, शाल्व, त्रिगत, भद्रकार, पट्टच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, वकार्थक, कुरु-जांगल, कैकेय, आत्र य, वाल्होक, यवन, सिन्ध, गान्धार, सौवीर, सूरभारु, दरोरुक, बाड़वान, भरद्वाज, क्वाथतोय, ताण, कार्ण एवं प्रच्छाल आदि देशों और नगरोंमें हुई थी। __राजगृह, विपुलाचल, वैभार, चम्पा, वैशाली और नालन्दाको तो एकाधिक बार धर्मामृत-श्रवणका अवसर प्राप्त हुआ था। महावीरने अपनी देशना द्वारा लोक-हृदयको अपूर्व दिव्यता प्रदान की और जन-जनके ज्ञानचक्ष उम्मीलित कर दिये । अज्ञानका सधन अन्धकार समाप्त हो गया और ज्ञानका सूर्योदय अपनी भास्वर रश्मियोंसे आलोक प्रदान करने लगा 1 रूढ़िग्रस्त धर्म और समाजने मुक्तिको सांस ली । जनताका संदेह और भ्रम समाप्त हो गया।
उनका समवशरण चलता-फिरता एक विश्वविद्यालय था, जो स्पष्ट और प्राञ्जल ज्ञान-विज्ञानका प्रसार करता था | जहां भी उनका समवशरण जाता वहाँ करुणा और मैत्रीको सरिताएं प्रवाहित होने लगतीं । अन्तरात्माका कालुष्य धुल जाता । इतिहासको गरिमा व्यक हो जाती और संस्कृतिपर उत्पन्न हुए दुराग्रह छिन्न हो जाते । उज्ज्वलताकी लेखनीसे मानवताका इतिहास लिखा जाने लगा । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, समत्व, संयम, मैत्री, पारस्परिक विश्वास एवं प्राणीमात्रकी समता अनेकान्तसिद्धान्तके रूप में प्रतिपादित हो रहे थे। उनका लोक-कल्याणकारी समवशरण पूर्वोक्त प्रदेशोंमें भ्रमणकर राजभवनसे जन-सामान्यकी झोपड़ी तक पहुंच चुका था। भारतका कोनाकोना तो उनके उपदेशसे आलोकित हुआ ही, पर ईरान, फारस, अफगानिस्तान, कम्बोडिया, अरब आदि देशोंकी प्रजाने भी उनकी उपदेश-सुधाका पान किया था। जहाँ भी तीर्थकर महावीर पहुँचे, जन-जनके हृदयसे उनके प्रति श्रद्धाको मन्दा
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २८३
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किनी फूट पड़ी । कोटि-कोटि जन उन्हें भगवान्, तीर्थकर, पुरुषोत्तम, सर्वन, अर्हत्, जिन, स्वयंभू आदि मानकर अपनी श्रद्धा सुमन उनके चरणों में अर्पित करते थे।
निश्चयतः तीर्थंकर महावीर लोकभाषामें हिस-मिस-प्रिय देशना देते हुए ग्राम और नगरोंमें विचरण कर रहे थे। उनकी दिव्य देशना उत्तरसे दक्षिण और पूर्वसे पश्चिम इन चारों दिशाओं तथा चारों हो विदिशाओं में प्रकाश-पुञ्जका सृजन कर रही थी । सभी ओर उपदेशामृत्तकी धूम थी । युगोंसे चली आयी शारीरिक और मानसिक दासतासे मुक्ति प्राप्त हो रही थी। धर्मके मामपर प्रचलित रूढ़ियाँ और दर्शनके नामपर पनपते हुए दुराग्रह शान्त हो रहे थे। स्यावादमय यह दिव्यध्यनि विश्वधर्म और मानव-धर्मका ऐसा रूप प्रस्तुत कर रही थी, जिसकी आवश्यकता मानवमात्रको थी । अहिंसा और करुणाका मधर संगीत प्राणिमात्रको आहज्ञादित और निर्भय बना रहा था। मानव सदियोंसे मुले हुए अपने पुरुषार्थको जागृत कर रहा था। जाति-पातिकी झूठी मर्यादाएँ टूट रही थीं और यज्ञ-यायागादिके, बोशिल कर्मकाण्ड समाप्त हो रहे थे।
तीर्थकर महावीरने धर्मकी समस्त विकृतियोंको चुनौती दी । इतना ही नहीं उन्होंने धार्मिक जड़त्ता और आर्थिक अपव्ययको रोकने के लिये यज्ञ-विधियोंका विरोध किया । मनुष्यको मनुष्य के समीप बैठानेके लिये जन्मना वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया और गण कर्मके आधारपर समाज-व्यवस्था प्रचलित की। सुखपूर्वक शान्तिकी श्वास लेनेके लिये अनेकान्तको वर्णमाला और व्रतोंके आचार-विचार प्रस्तुत किये । मनुष्यको स्वावलम्बी और स्वसन्त्र बनानेके हेतु नियतिवाद और ईश्वरवाद जैसे सिद्धान्तोंको समीक्षा की। उन्होंने बताया कि ईश्वर कहीं बाहर नहीं, वह प्रत्येक आरमाके भीतर है, जो अपने आपको पहचान लेता है, वही ईश्वर बन जाता है । ___ उनको दिव्यवनिका मधुर संगीत प्राणिमात्रको अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था और 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उद्घोष भी जनताके लिये सरल-सहज मार्गका उद्घाटन कर रहा था । लोक-जीवन और लोक-शासन पावनताका अनुभव कर अपनेको निर्विकार और स्वतन्त्र समझ रहे थे । ____ महावीर वस्तुतः प्रबुद्ध थे, जागृत थे, तीर्थकर थे और थे पक्षपात एवं कालिमासे रहित । अतः उन्होंने अपने अनेकान्त-सिद्धान्त द्वारा जनसाके वैषम्मको दूर किया और राष्ट्रीयताको भावनाको जागृत किया । इनके उपदेशने विश्वशान्तिको सम्भावनाओंको सर्वाधिक स्पष्ट किया। इनका उपदेश प्राणि. मात्रके लिये हितकारी था । अहिंसाका अवलम्बन लेकर जनसाने अन्तरंग और २८४ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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बहिरंग शौर्यका अनुभव किया। जो पलायनवादी हैं। जीवन-संग्रामसे भागनेवाले हैं, वे अहिंसक नहीं हो सकते । अहिंसक निर्भय होकर जीवनसे जूमता है। कमियोंको दूर करता है और बनाता है सशक्त अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियोंको । वैर-विरोध, घृणा, हिंसा आदि पतनके कारण हैं। इन्हीं विकारोंसे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिका शत्रु बनता है, विरोधी बनता है और बनता है समाजका विघटन-फर्ता।
तीर्थकर महावीरके धर्मामृतने जन-जनमें नधे प्राण फूक दिये । लोक-चेतना. का कायाकल्प हो गया । अहंकारजन्य भेद-भावका विसर्जन किया और आत्मस्वरूपको समझने अनुभव करनेके लिये नये क्षितिज उद्घाटित किये। उनका उपदेश प्राणिमात्रके लिये समान रूपसे हितकर था।
उन्होंने गांव-गांव, नगर-नगर, जनपद-जनपदकी धरतोके एक-एक कणको पुलकित किया । जहाँ भी लोकभाषामें उनका प्रवचन होता, दम्भ और मिथ्यात्व वहाँसे लुप्त हो जाता था। वीतरागता मनके कालुष्यको धो डालती थी। मनके सारे विकार समाप्त हो जाते थे और हृदय पावनता एवं नम्रतासे भर जाता था । ज्ञानामृतको अपूर्व वर्षा मन:-श्रवण और मनः चक्षुका उद्घाटन कर देतो थी। उनके उपदेशोंमें न आडम्बरका समावेश था और न औपचारिकताका ही। वे इतने सरल, सुबोध और हृदयग्राही थे कि जिससे विज्ञ और अविज्ञ, अन्ध और बधिर, विकसित और अविकसित, ऋजु और वक्र एवं मानी और अमानी सभी समान रूपसे अपने कालुष्यको प्रक्षालित करते थे।
ती कर महावीरके मंगलकारी उपदेशको प्राणिमान श्रद्धापूर्वक नतमस्तक हो श्रवण करता था। उनकी उपकारी वाणी प्राणियोंके हृदयका सहज कालुष्य दूर करती थी और विश्वास, सहयोग और सहकारिताकी भावना वृद्धिंगत होती जा रही थी 1 जनताने सहस्राब्दियों के बाद पहलीबार धर्मको व्यापक लोकोपयोगिता शमझो थी। तीर्थकर पाश्चनाथने जिस अहिंसा-मार्गका निरूपण किया था, महावीरने उसी धरातल पर स्थित हो लोकमानसको क्रान्तिका एक अभिनव मोड़ दिया। शोषण और वर्गभेदको प्रवृत्ति समाप्त हो गयी तथा अहिंसा और संयमकी अपराजित शक्तियाँ विकसित हुई। चारों ओर सर्वोदयको सम्भावनाएँ स्पष्ट होने लगीं।
इस प्रकार तीर्थकर महावीरने लगभग तीस वर्षों तक धर्मामृतका वर्षणकर तत्कालीन समाजको उर्वर किया । निर्वाणकी ओर मानव जीवनका चरम लक्ष्य है निर्वाण प्राप्त करना । आरमाको परमात्मा
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बना देना । पर प्रश्न यह है कि मनुष्य निर्वाणको प्राप्त किस प्रकार करे ? उसे अपने स्वरूपकी उपलब्धि कैसे हो? अनुष्ठान-विधान, तीर्थ यात्रा, मन्दिरमूर्तियोंके दर्शन एवं अन्य आडम्बरपूर्ण क्रियाएँ क्या मन और आत्माको परिष्कृत कर सकती हैं ? क्या बाह्य साधन कुछ सहायता कर सकते हैं? यदि मनमें कालुष्य हो, आत्मा मलिन हो और अपने स्वरूपको पहचान न हो, सब क्या बाह्य साधनोंसे निर्वाण प्राप्त हो सकता है ?
तीर्थंकर महावोरने बताया कि यह आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है । यही अपना मित्र भी है और अपना शत्रु भी है । आत्मापर अनुशासन करनेसे स्वयंपर विजय प्राप्त होती है और जो स्वयंपर विजय प्राप्त करनेवाला है, वह सभी प्रकारके दुःख-बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ।
आध्यात्मिक सम्पदासे सम्पन्न होनेको अभिलाषासे धर्म-रुचि जागृत होती है और इस प्रकारकी रुचिसे सम्पन्न व्यक्ति धर्मके व्यावहारिक भेदों, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, समा-मादव, आर्जव प्रभूतिको जीवनमें उतारनेकी चेष्टा करता है और अभ्यासपरायण रहकर धीरे-धीरे बती हो जाता है। प्रतोंका नियम-निष्ठासे पालन, उनमें शुचिसा, सम्यक्त्व और आत्मोद्वारकी भावनाको उत्कट करनेसे सहायता प्राप्त होती है। इस प्रकार संयम और धर्मको अग्रगामी बनाकर आहार-विहार, गमन-आसन, मोन-भाषण आदि समस्त क्रिया-कलापोंका निर्वहन व्यक्तिको चारित्रके समीप लाता है ! चारित्रका बहिरंग व्यवहाररूप है और अन्तरंग निश्चयपरफ। अब सम्यक चारित्रकी उपलब्धि हो जाती है, तो श्रद्धा और ज्ञानके सम्यक् रहने के कारण व्यक्ति राग-द्वेष और मोहसे छूट जाता है ।
तीर्थकर महावीरने अथक तप, संयम और साधनाके मार्गपर चलकर योग और कषायोंके निरोध द्वारा निर्वाणकी भूमिका तैयार की। निर्वाण प्राप्त करनेकी इन सोढ़ियोंको गुणस्थानारोहण कहा जाता है। ये सीढ़ियाँ एक ही दिशाको ओर इंगित करती है-कामनाओंको जीतो, आत्माको निष्कलुष बनाओ। तीर्थकर महावीरने मनुष्यको ऊंचा उठाने के लिये, जो कुछ कहा, जो कुछ किया, उसमें मन और आत्माको ही वशमें करनेकी प्रेरणा थी।
प्रायः देखा जाता है कि जन-सामान्य बाह्य जगतमें बड़ी-बड़ी क्रान्तियाँ करके विश्वमें ख्याति प्राप्त करता है, पर अन्तर्जगत में क्रान्तिका शंखनाद करनेवाला कोई एकाध ही महावीर होता है 1 बल, पराक्रम और पुरुषार्थ दिखाकर वीर बन जाना सरल है, पर इन्द्रियों और मनपर विजय प्राप्त कर महावीर बनना कठिन है। २८६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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तीर्थंकर महावीर स्वयं कामनाओंसे लड़े। विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त की, हिंसाको पराजित किया । असत्यको पराभूत किया जात्यभिमान, वर्गाभिमान एवं कर्माभिमानको पीछे की ओर फेंककर निर्वाणका पक्का मार्ग तैयार किया | साधना द्वारा उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया, उसे बड़ी उदारता साथ जनकल्याणके हेतु मानव समाजको दे डाला। मानव ही नहीं, समस्त प्राणीवर्ग उनके द्वारा प्रदत्त आलोक में सुख-शान्तिका मार्ग ढूँढ़ने लगा। महावीर स्वयं सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी तो थे ही, पर वे समस्त प्राणीवर्गको अपने ही समान विकार और विषयोंके विजेताके रूपमें देखना चाहते थे ! उनके द्वारा निर्मित निर्वाणकी साढ़ियां प्राणिवगंके लिये सहज और सुलभ थीं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि भौतिक कामनाओं में उलझे हुए मनुष्य में इतना सामर्थ्य कहाँ कि वह उन सीढ़ियोंकर आरोहण कर सके । यों तो उनकी दिव्य-देशना प्राणिमात्र के लिये हितकर थो और प्राणिमात्रको ही सुख और शान्तिको ओर इंगित करती थी। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि धर्म वही है, जिसमें अहिंसाका आचरण हो, मन, वचन और कायकी कियाएँ अहिंसक होनेपर ही धर्मका रूप ग्रहण कर सकती हैं 1 अहिंसाको साधना तितिक्षा और संयम विना सम्भव नहीं है । अत: जहाँ अहिंसा है, वहाँ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह भी विद्यमान है। जो व्यक्ति सांसारिक सुख-समृद्धि के लिये अथवा पूजा-प्रतिष्ठा के लिये धर्माचरण करता है, वह अहिंसक नहीं । धर्माचरणका उद्देश्य आत्माकी पवित्रता होना चाहिये। जिसको दृष्टिमें समता और विचारोंम उदारता समाहित हो गयी है, वही व्यक्ति निर्वाण मार्गका पथिक बनता है। आत्माकी शुद्धि न गाँवमें होती है, न नगरमें होती है और न वनमें । इसकी शुद्धि तभी होती हैं, जब स्वयं आत्मा अपनेका अनुभूति कर लें । सुख-दुःख अपने ही द्वारा अर्जित है । स्वर्ग और नरक भी मनुष्यके हाथमें है। शुभोपयोग द्वारा सम्पादित कर्म अच्छा फल देते हैं और अशुभोपयोग द्वारा सम्पादित कर्म अनिष्ट फल । जो इन दोनों प्रकारके उपयोगोसे ऊपर उठकर शुद्धोपयोगका आवरण करता है, उसे ही निर्वाण प्राप्त होता है, उसीकी आत्मा शुद्ध होती है और वही धर्मात्मा माना जाता है ।
जिस प्रकार शर ऋतु के निर्मल जल में रहनेपर भी कमल, जलसे पृथक् और अलिप्त रहता है, उसी प्रकार शुद्धोपयोग में विचरण करनेवालो आत्मा संसारसे अलिप्त और बन्धनरहित रहती है । राग-द्वेष कर्मके बीज हैं और मोह उनका जनक है। जिसके राम-द्वेष और मोह विगलित हो गये हैं, वही शुद्धोपयोगका आचरण कर सकता है।
मुक्तिका अर्थ है -- मोक्ष, बन्धनों का विगलन, निर्बन्ध होना, छुटकारा प्राप्त तोर्थंकर महावोर और उनकी देशना : २८७
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करना । संसारके कोटि-कोटि जनको यह मुक्ति या बास्माको स्वतन्त्रता तो अभीष्ट है, पर स्वतन्त्रताको प्राप्त करनेको पेष्टा या प्रयत्न अभीप्सित नहीं है। चाहनेपर भी पुरुषार्थकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती 1 परमत्वको उपलब्धिके लिये शील, संयम, तप, त्यागरूप सम्यक्चारित्रका आचरण करना होगा। जिसके हाथमें सम्यवाद्धा और ज्ञानके साथ सम्यक्यारित्र-यालनरूपी तीक्ष्ण खंग है, वही प्रलोभनों और विकारोंपर विजय प्राप्त कर सकता है। अतः मुक्तिश्रीके अभिलाषीको सम्यग्ज्ञान-दर्शनपूर्वक सम्यकचारित्रकी डोर थामनी होगी। वस्तुतः चारित्र नौका है, और सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान-ये दो केवट है, जो चारित्रकी नौकापर आरूढ़ है, उसे भवसागर पार करनमें बिलम्ब नहीं है। पर चारित्रकी सफलता सब है, जब वह आत्माका सर्वस्व बन जाय | ऊपरसे मोढ़ा हुआ चारित्र तो किसी भी समय उतारकर फेंका जा सकता है। अग्नि और उष्णताके समान चारित्र और चारित्रवान्में तादात्यभाव होना चाहिये । उष्णता अग्गिरो जातिमाज्य है. गारिग भी मजिदारसे अपचन है। मुक्तिपर्व-पावापुरकी ओर
तोशंकर महावीर इस धरतीपर शानका अमृत प्रवाहित करने आये थे। उन्होंने निरन्तर तीस वर्षों तक विहारकर धरतीके फ्लेशोंका अपहरण किया। मानव-समाजको दुःखोंसे छुड़ाया, उसके हृदयमें ज्ञानदीप प्रज्ज्वलितकर सुख, शान्ति और कल्याण-मार्गको आलोकित किया।
यों तो संसारके रंगमंचपर अनेक क्रान्तियां हो चुकी हैं, पर उन सभी क्रान्तियोंका प्रभाव बाह्य जगत तक सीमित रहा है। तीर्थकर महावीरने अपनी क्रान्ति द्वारा संक्लिष्ट मनको उद्बुद्ध किया । वे जाति, सम्प्रदाय एवं वर्गकी सोमाके घेरेको तोड़कर बाहर निकले । उन्होंने देश और जनपदोंके सीमाबन्धनको भी अतिक्रान्त किया और विश्वके समस्त मानवोंको विषमताकी वाइयोंसे निकालकर समताके धरातलपर उपस्थित किया। उन्हें जो दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने विश्वके प्राणि-जगतमें बाँट दिया।
महावीर इस धरतीको ज्ञानामृतसे सिंचन करते हुए पावापुर' नामक स्थान
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१. जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य सन्सतं समन्ततो भब्यसमहसम्ततिम् । प्रपद्य पावानगरी गरीयसी मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥
-हरिवंशपुराग, ज्ञानपीठ-संस्करण, ६६।१५. क्रमास्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनासरे। बहूनां सरसा मध्ये महामगिशिलातले ।।
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में पधारे और वहाँके मनोहर नामक वनके मध्य अनेक सरोवरों के बीच में मणिमय शिलापर विराजमान हुए। बिहार छोड़कर उन्होंने कोंकी निर्जराको वृद्धिंगत किया।
यहाँपर मन, वचन और काय योगका निरोधकर क्रियारहित हो मोक्षक लिए आवश्यक अघातियाकोको नष्ट करनेवाले प्रतिमायोगको धारण किया। दिव्यध्वनि बन्द हो गयी और वचनयोगका भी पूर्णतया निरोध हो गया ।
इस योगद्वारा देवगति, पाँच शरीर, पांच संघात, पांच बन्धन, तीन अंगो. पांग, छह संस्थान, छह संहनन, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूळ, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास, दो विहायोगतियाँ, अपर्याप्ति, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, सुस्वर, अनादेय, अयशःकोति, असातावेदनीय, नीपगोत्र एवं निर्माण इन बहत्तर कर्मप्रकृतियोंका अयोगी गुणस्थानके उपान्त्यमें क्षय किया । अपने शक्तिबलसे शुक्लष्यानके चतुर्थ भेद व्युपरतक्रियानितिका आलम्बनकर आदेय, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, पञ्चेन्द्रियजाति, मनुष्य-आयु, पर्याप्ति, अस, वादर, सुभग, यशःकीति, सातावेदनीय, उच्चगोत्र एवं तीर्थकर नामकर्म इन सेरह प्रकृतियोंका अन्त समयमें क्षपण किया।
महावीरने योगनिरोधार्थ षष्ठोपवास धारण किया और कायोत्सर्ग द्वारा कर्म-प्रकृतियोंका विनाश किया।'
अन्य आगम ग्रन्योंसे भी अवगत होता है कि तीर्थकर महावीरने आयुके
स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जरः । कृष्णकार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निधारयये ।। स्वातियोगे तृतीया शुक्लध्यानपरायणः । कृतत्रियोगसंरोधः समुच्छिन्नक्रियं श्रितः ।। हतापातिचतुष्कः सम्मशरीरो गुणात्मकः । गन्ता मुनिसहाग निर्वाण सर्ववाञ्छितम् ।।
... उत्तरपुराण, ज्ञानपीठ-संस्करण, ६७१५०१-५१२ १. एभिः समं त्रिभुवनाधिपतिविहत्य,
त्रिशत्समाः सकलसस्वहितोपदेशी । पावापुरस्य कुसुमाचितपादपानां, रम्य नियोपयनमाप ततो जिनेंद्रः ।।
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दो दिन अवशिष्ट रहनेपर विहाररूप काययोग, धर्मोपदेशरूप वधनयोग एवं क्रियारूप मनोयोगका निरोधकर प्रतिमायोग धारण किया और पावापुर के बाहर अवस्थित सरोवरके मध्य में कायोत्सर्ग ग्रहणकर अघातिया कोकी पचासी कर्म-प्रकृतियोंका क्षय किया।' कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिके अन्तिम प्रहरमें स्वाति नक्षत्रके रहते हुए ई० पू० ५२७ में मोक्षपद प्राप्त किया।
श्वेताम्बर-ग्रन्थोंकी मान्यता अनुसार तीर्थंकर महावीर पावा नगरीके राजा हस्तिपालक रजक सभा-भपन समावस्याको समरस :नि पशिला करते हुए मोक्ष पधारें। अगणित देव-मानवों द्वारा निर्वागकल्याणक-पूजन
कात्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी पावन रात्रि अपना घूघट उठाकर मानवताके उन्नायक तीर्थकर महावीरका निर्वाणोत्सव मनानेके लिये समक्ष थी। देवमानवोंमें हर्षका सागर उमड़ पड़ा और सभी महाबीरका निर्वाणोत्सव सम्पन्न करने के लिये चल पड़े। पावापुरका कोना-कोना सज उठा । घरघरमें मंगलगान हए । द्वार-द्वारपर मंगलदीप जलाये गये। जन-जनके हदयसे आनन्दका स्रोत फूट पड़ा, उल्लासकी लहर दौड़ गयी और सभी निर्वाण-पूजनके लिये अर्चन-सामग्री लेकर प्रस्तुत हुए।
पौ फटने जा रही थी। चन्द्रमा स्वाति नक्षत्रके साथ विचरण कर रहा था और इन्द्र के जय-जयकारसे नभोमंडल ध्वनित था । यों तो महाबीरके परिनिर्वाणसे शन्यता और स्तब्धता व्याप्त थी। पर मोक्ष-लक्ष्मीको प्राप्तिके कारण देवगण उत्तमोत्तम सामग्नी लेकर निर्वाण-कल्याणके अर्चन हेतु भा रहे थे।
कृत्वा योगनिरोषमुज्विातसभः षष्ठेन तस्मिन्वने । व्युत्सर्गेण निरस्य निर्मलक्षषि कर्माण्यशेषाणि सः । स्थित्वेन्दावपि कार्तिकासितचतुर्दश्यां निशान्तें स्थिते। स्वाती सन्मतिराससाद भगवान्सिद्धि प्रसिद्ध श्रियम्॥
-असगकवि-विरचित बर्द्धमानचरित, सर्ग १८, पच ९७-९८. १. 'षष्ठेन निष्ठितकृतिजिनवर्षमानः ।' टोका-'षष्ठेन दिनदयेन परिसंख्याते वायुषि
सति निष्ठितकृतिः। निष्ठिता विनष्टा कृतिः द्रव्यमनोवाक्कायक्रिया यस्यासी निष्ठित
कृतिः, जिनवर्धमानः ।' -पूज्यपादकृत सं० निर्वाण-मनि, श्लोक २६. २. मुनिश्री कल्याणविजयगणि-लिखित श्रमण भगवान महावीर, पृ. २०६, २०७. २९० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सुर-असुरोंने मिलकर पिपंक्तियाँ प्रज्वलित की, जिससे पावानगरीमें आलोक व्याप्त हो गया।' श्रेणिक आदि राजाघोंने प्रजाके साथ मिलकर निर्वाणकल्याणकका महोत्सव सम्पन्न किया| धरती-गगन सभी आलोकसे व्याप्त हो गये।
पावाकी शोभा निराली ही थी। नौ लिच्छिवि, नौ मल्ल इस प्रकार अठारह काशी-कोशलके गणराजा तीर्थंकर महावीरके निर्वाणके समय उपस्थित थे। गांव-नगर सर्वत्र दीपोंको जगमगाहट शोभित थी। उत्सबने प्रकाशपर्वका रूप ले लिया था और काली रात्रि पूणिमाके रूपमें परिवर्तित हो गयी थी। याघ्यात्मिक आभा सर्वत्र छायी हुई थी। यह लोकविभूतिका ऐसा महान् पर्व था, जिसमें प्रकाशकी राशि दिखलाई पड़ रही थी । वैशालीके प्रांगण में कीड़ा करने वाले, माता त्रिशलाकी ममताको उभाड़नेवाले तीर्थकर महावीर आज प्रजम्यों के मो प्रणम्य बन गये थे । वैषम्यको समतामें, विरोधको समन्वयमें और तमको प्रकाशमें परिवर्तित कर महावीरने सत्य-अहिंसाकी एक नयी लिपि प्रदान की। निर्वाम-तिथि
सीर्थकर महावीरका निर्वाण मंगलवार १५ अक्टूबर ई०पू०५२७ या विक्रमपूर्व ४७० तथा शक-पूर्व ६०५ प्रातःकाल सूर्योदयके पूर्व हुआ। इस तिथिको प्रामाणिकताके सम्बन्धमें यह कहा जा सकता है कि इतिहासके क्षेत्रमें सम्राट चन्द्रगुप्तका राज्यारोहण ई० पू० ३२२ माना जाता है। और इसी तिथिक आधारपर चन्द्रगुप्त मौर्यसे पूर्व एवं उत्तरकालीन तिथियोंकी प्रामाणिकसाकी परीक्षा की जाती है। जेनपरम्परा अवन्तीमें चन्द्रगुप्तका राज्यारोहण महाचोर१. ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्सतः प्रदीपिताकाशप्सला प्रकाशते ।।
-हरिबंशपुराण, ६६३१:. पावापुरस्य बहिरुन्तभूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये । श्रीवर्धमानचिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा ।।
--सं० निर्वाणभक्ति, श्लो. २४. २. तथैव च बेणिकपूर्वभूभुजः प्रकृत्य कल्पापमहं सहप्रजाः । प्रजग्मुरिन्द्राश्च मुरैर्यषामर्थ प्रयाचमाना जिनबोधिषिनः ।।
-हरिवंशपुराण, ६६।२०. ३. Dr. Radha Kumud Mukherjee, Clhandragupla Maurya and
his time, F. 44-46. तथा श्रीनेत्रपाडेय, भारतका बृहत् इतिहास, प्रथम भाग, प्राचीन भारत, चतुर्ष संस्करण, पृ. २४२.
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निर्वाणके २१५ वर्ष पश्चात् मानती है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने पाटलिपुत्र ( मगध ) - राज्यारोहणके १० वर्ष पश्चात् अवन्ती में अपना राज्य स्थापित किया था। इस प्रकार इतिहास और जैन परम्पराके समन्वित्त आलोक में महावीरका निर्वाण ई० पू० ३४५+२१९००१२ होता है।
परम्पराकै आधारपर निर्वाण समयका समर्थन विक्रम, शक, गुप्त आदि संवत्सरोंसे भी होता है। जैन ग्रन्थोंमें बताया गया है कि महावीरके निर्वाण-कालसे ४७० वर्ष बाद विक्रम संवत्का प्रचलन हुआ । इतिहासको यह सर्वसम्मत धारणा है कि विक्रम संवत्का प्रवर्तन ई० पू० ५७ से हुआ है। इस प्रकार महावीरका निर्वाण-संवत् ४७० + ५७ ई० पू० ५२७ आता है ।
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प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ० आर० सी० मजुमदार, डॉ० एच० सी० राय चौधरी और डॉ० के०के० दत्त द्वारा लिखित "एन एडवांस हिस्ट्री ऑव इण्डिया"में महावीरकी निर्वाण तिथि ई० पू० ५२८ मानी गयी है । यद्यपि इन विद्वानोंने इस तिथिको भी निर्विवाद नहीं बताया है और इसकी असंगतियोंकी ओर इंगित करते हुए हेमचन्द्रके उल्लेखोंके साथ विरोध बतलाया है। हेमचन्द्रने चन्द्रगुप्त मौके १५५ वर्ष पूर्व महावीरका निर्वाण बताया है, २१५ वर्ष पूर्व नहीं । इन सब विसंगतियों के रहनेपर भी उक्त विद्वात् तीर्थंकर महावीरकी निर्वाणतिथि १५ अक्टूबर ई० पू० ५२७ ही मानते हैं। इस तिथिका समर्थन इतिहास और परम्परा इन दोनों ही तथ्योंसे होता है ।
१. मुनिश्री नगराजजी : आगम और त्रिपिटिक : एक अनुशीलन, पृ० ८८.
२.
The date 313 B, C. for Chandragupta's accession, if it is based on correct tradition, May refer to his acquisition of Avanti in Malwa, as the Chronological datum is found in verse where the Maury a king finds mention in the list of succession of Palak, the king of Avanti.
- H. C, Ray Choudhuri: Political History of Ancient India P295.
The jain date 313 BC. if based on correct tradition, may refer to acquisition of Avanti (Malwa).
— An Advanced History of India, P. 99. ३. एन एडवान्स हिस्ट्री जॉब इण्डिया ऍसिएन्ट इण्डिया खण्ड.
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'तित्थोगालोयपयन्ना" में बताया गया है कि जिस रात्रिमें अईन महावीर तोर्थकरका निर्वाण हुआ, उसी रातमें अवन्तिमें पालकका राज्याभिषेक हुमा ।
अतः ६० वर्ष पालकके, १५० नन्दोंके, १६० मौयोंके, ३५ पुष्यमित्रके, ६० बल-मित्र-भानुमित्रके, ४० नभसेनके और १०० वर्ष गर्दभिल्लोंके व्यतीत होनेपर शक राजाका शासन हुआ।
उपर्युक्त तथ्योंकी पुष्टि 'तिलोयपण्णत्ती', 'तिलोयसार', 'घवलाटीका'मोर 'हरिवंशपुराण'से' भी होती है। इन ग्रन्योंमें बताया गया है कि निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ माह बीतनेपर शक राजा हआ। इस आधारपर भो महावीर-निर्वाण ६०५ वर्ष, ५ माह-७८ वर्ष = ५२७ ई० पू० है। शक संवत् और ईस्वी संवत्में ७. वर्षका अन्तर है।
तपागच्छ-पट्टालि में लिखा है-६० वर्ष पालक राजा, १५५ वर्ष नवनन्द, १. जं रयणि सिसिगओ, अरहा सित्तफरी महावीरो।
तं रणिमयंतीए, अभिसित्तो पालओ राया ।। पालगरणो सट्टी, पुण पण्णसयं वियाणि गंदागं । मुरियाणं सट्ठिसयं, पणतीसा पूसभित्ताणं (तस्स) ।। बलमित्त-भाणुमित्ता, सट्ठा चला य होति नहसेको। गद्दभसय मेग पुण, पहिवानो सो सगो राया ॥ पंच य मासा पंच य, वासा छच्चेव होंति वाससया । परिनिब्वुअस्सऽरिहतो तो उप्पन्नो (पष्टिवत्रो) सगे राया ।।
-तिस्थोगालीयपयन्ना ६२०-६२३ गाथा तथा हरिवंशपुराण ६०४८७-४९.. २. णिब्वाणे बीरजिणे छन्वास सदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिओ अहवा ॥
-तिलोयपण्णत्ती, भाग १, पृ. ३४१. ३. पणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिबुझ्दो।
सगराजा तो कक्की चदुणवतियमहिय बगमासं । तिलोयसार, गाथा ८५०. ४. पंच य मासा पंच य वासा छम्मेव होति बाससया । सगकालेण य सहिया पावेयम्बो तदो रासी॥
-धवलाटीका, जैनसिद्धान्त भवन बारा, पत्र ५३७. ५. वर्षाणां षट्शाती त्यक्त्वा पञ्चायं मासपञ्चकम् । मुक्ति गते महावीरें शकराजस्ततोऽभवत् ।।
-हरिवंशपुराग, सानपीठ-संस्करण ६.५५१. ६. जं रणि कालगओ, अरिहा तित्थंकरो महावीरो । तं रयणि अणिवई, अहिसित्तो पासओ राजा ॥
तीर्थकर महावीर और उनको देशना : २९३
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१०८ वर्षं मौर्यवंश, ३० वर्षं पुष्यमित्र, ६० वर्षे बलमित्र - भानुमिश्र, ४० वर्ष नहपान, १३ वर्षे गर्दभिल्ल बोर ४ वर्ष एक काल है । अतएव ६० + १५५ + १०८ + ३० + ६० + ४० + १३ + ४० ४७० वर्ष - महावीर निर्वाण ४७० विक्रमादित्यका राज्यप्रातिकाल हुआ । इस आधारपर पूर्ववत् ४७० + ५७ - ५२७ ई० पू० महावीरका निर्वाण काल आता है ।
=
डॉ० वासुदेव उपाध्यायने 'गुप्तसाम्राज्यका इतिहास ग्रन्थ में गुप्त-संवत्पर विचार करते समय जैन ग्रन्थों का आधार स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है':- "अलबेरुनीसे पूर्वं शताब्दियों में कुछ जैन ग्रन्थकारोंके आधारपर यह ज्ञात होता है कि गुप्त तथा शककालमें २४१ वर्षका अन्तर है । प्रथम लेखक जिनसेन, जो ८ वीं शताब्दी में वर्त्तमान थे, उन्होंने वर्णन किया है कि भगवान् महावीरके निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ माके पश्चात् शक राजाका जन्म हुआ तथा शकके अनुसार गुप्तके २२१ वर्ष शासन के बाद कल्किराजका जन्म हुआ । द्वितीय ग्रन्थकार गुणभद्रने (८८९ ई०) उत्तरपुराण में लिखा है कि महावीर निर्वाणके १००० वर्ष बाद कल्किराजका जन्म हुआ। जिनसेन तथा गुणभद्रके कथनका समर्थन आचार्य नेमिचन्द्रके वचनोंसे भी होता है ।"
"नेमिचन्द्र त्रिलोकसारमें लिखते है - 'शकराज • महावोर- निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ मासके बाद तथा शककालके ३९४ वर्ष ७ माहके पश्चात् कल्किराज पैदा हुआ । इनके योगसे (६०५ वर्ष ५ माह + ३९४ वर्ष ७ माह् = १००० वर्ष होते हैं।'
-
सट्टी पायरोपणवन्णसयं तु होइ नंदाणं । मट्टखयं मुरियाणं तीस वि समित्तस्स ।।
मिस - भामित्त सट्टी वरिसरणि बस नवाणे | वह गल्लिरज्जं तेरस वरिस समस्स चट (वरिसा) 11
- तपागच्छ - पट्टावलि, पन्यास कल्याणविजय, पृ० ५०-५२.
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१. वृतसाम्राज्यका इतिहास, भाग १ १० १८२, १८३. २. वीरनिर्वाणकाले च पालकोऽत्राभिषिच्यते । लोकेऽवन्तिसुता राजा प्रजानां प्रतिपालकः ॥ भद्रवाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयम् । एकविंशदच वर्षाणि कालविद्भिरुदाहृतम् ॥ द्विचत्वारिंशदेवातः कल्किरावस्थ राजता । ततोऽजिवमो राजा स्यादिन्द्रपुरस्थितः ॥
-हरिवंशपुराण, ज्ञानपीठ- संस्करण ६००४८७, ४९१, ४९२. ३. उत्तरपुराण, ज्ञानपीठ- संस्करण ७६६४२८-४३१.
२९४ : तोषंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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इन तीनों जैन ग्रन्थकारोंके कथनानुसार शकराज सथा कल्किराजका जन्म निश्चित हो जाता है।"
विद्वान लेखक डॉ. उपाध्यायने शक-संवत्-सम्बन्धी जैन धारणाओंके आवारपर शक और गुप्त संवत्का सम्बन्ध व्यक्त करते हुए लिखा है-"इस समयसे यह ज्ञात होता है कि गुप्तसंवत्को तिथि २४१ जोड़नेसे शक-कालमें परिवर्तन हो जाता है । इस विस्तृत विवेवनके कारण अलबेरुनीके कथनकी सार्थकता ज्ञात हो जाती है। यह निश्चित हो गया कि शक-कालके २४१ वर्ष पश्चात् गुप्त-संवत्का आरम्भ हुआ।'
पूर्वोक अध्ययनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि शकसंवत, गुप्तसंवत्, विक्रमसंवत् आदिकी मीमांसा महावीर-निर्वाण संवत्से की गयी है । अतः
गप्त-संवतका प्रारम्भ ई. सन् ३१९
महाबोर-निर्वाण गुप्त-संवत् पूर्व ८४६ अतएव ८४६ - ३१९ = ५२७ ई० पू० महावीर-निर्वाणकाल आता है।
संक्षेपमें तीर्थंकर महावीरको निर्वाण-तिथि कात्तिक कृष्णा चतुर्दशी रात्रिका अन्तिम प्रहर, स्वातिनक्षत्र, मंगलवार, १५ अक्टूबर ई० पू० ५२७ है । इसी दिनसे यह तिथि 'दीपावलि' के रूपमें प्रचलित हो गयी। निर्वावस्था
तीर्थकर महावीरका निर्वाण मध्यमा पावा अथवा पावापुरीमें हुआ। इस पावापुरीको स्थिति कहाँपर है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। वर्तमानमें अनुसंधानके नामपर कुछ व्यक्ति नये-नये स्थानोंपर पुराने क्षेत्रोंकी कल्पना कर प्रसिद्धि प्राप्त करनेके प्रयासमें हैं। तथ्य कहाँ तक इतिहाससे सम्मत्त है, यह शोषका विषय है । जैन-साहित्यके प्राचीन और अर्वाचीन सभी ग्रन्थों में महावीरका निर्वाण-स्थान पावापुरीमें बताया गया है। कल्पसूत्रमें तीर्थंकर महावीरके निर्वाण-सम्बन्धी सन्दर्भ निम्नप्रकार उपलब्ध हैं :
"सत्य णं जे से पावाए मज्झिमाए हस्थिवालस्स रन्नो रज्जुगसभाए अपच्छिमं अंतरावासं उवागए तस्स णं अंतरावासस्स जे से वासाणं चसत्थे मासे सत्तमे पक्खे कत्तियबहुले सस्स णं कत्तियबहुलस्स पन्नरसी पक्खणं जा सा चारिमारणि तं रणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगये विइक्कते समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधणसिद्धे बुढे मुत्ते अंतगडे परिनिब्बुडे सव्वदुक्खपहीणे चंदे नाम से दिवसे उनसमि त्ति पवुच्चइ देवाणंदा नाम सा रयनी निरइ ति पवुच्चइ अच्चेलवे मुहत्ते पाणू थोवे सिद्ध नागे करणे सध्वट्ठ१. गुप्तसाम्राज्यका इतिहास, भाग १, पृ० १८१.
तीपंकर महावीर और उनको देशना : २९५
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सिद्ध मुहुत्ते साइणा जक्खत्र्तण जोगमुवागएणं कालगए विइपकते जाव सन्यदु
खप्पहोणे ___ अर्थात् महावीर अन्तिम वर्षावास करनेके हेतु मध्यमा पाबाके राजा हस्तिपालके रज्जुकसभा-धर्मगृहम ठहरे हुए थे | चातुर्मासका चतुर्थ मास और वर्षाऋतुका सप्तम पक्ष चल रहा था । अर्थात् कार्तिक कृष्ण अमावस्याकी तिथि थी। रात्रिका अन्तिम प्रहर था। श्रमण भगवान महावीर कालधर्मको प्राप्त हुए--संसारको त्याग कर चले गये । जन्म-ग्रहणको परम्पराका उच्छेदकर चले गये। इनके जन्म, जरा और मरणके सभी बन्धन नष्ट हो गये । भगवान् सिद्ध, बुद्ध, मुहान सब धुखोकी अ धिक नक हुए।
तीर्थकर महावीरके निर्वाणस्थलके सम्बन्धमें दिगम्बर-ग्रन्थोंसे भी प्रकाश प्राप्त होता है । बताया है:पावाए मज्झिमाए हत्थवालिसहाए णमंसामि ।
-प्राकृतप्रतिक्रमण, पृ० ४६. अर्थात् मध्यमा पावाम इस्तिपालवी सभामें स्थित महावीरको नमस्कार करता हूँ। आशाधरजीने अपने क्रियाकलापमें लिखा हैपावायां मध्यमायां हस्तिपालिकामण्डपे नमस्यामि ।
-संस्कृत-क्रियाकलाप, पृ०५६. अतएव यह स्पष्ट है कि तीर्थकर महावीरका निर्वाण मध्यमा पावामें राजा हस्तिपालको रज्जुक-शालामें हुआ था। अभिलेखोंसे ज्ञात होता है कि यह रज्जुकशाला धर्मायतनके रूपमें होती थी। यहांपर धर्मोपदेश अथवा प्रवचन होनेके लिए पर्याप्त स्थान रहता था। सहस्रों व्यक्ति इस स्थानपर बैठ सकते थे। रज्जुकशालामें चौरस मैदानके साथ एक किनारे भवन स्थित रहता था। अतः दिगम्बर-परम्पराके उल्लेखानुसार भी महावीरका निर्वाण स्थल मध्यमा पावा है । यह हस्तिपाल राजा कोई बड़ा राजा नहीं था, सामन्त या जमींदार जैसा था । यतः उस युग में नगराधिपति भी राजा द्वारा उल्लिम्वित्त किया जाता था। अतएव यह आशंका संभव नहीं है कि मगध नृपति थेणिकके रहते हुए निकटमें ही हस्तिपाल राजाका अस्तित्व किस प्रकार संभव है ? महावीरके समरमें प्रायः प्रत्येक बड़े नगरका अधिपति राजा कहा जाता था ।
१. कल्पसूत्र, सूत्र १२३, पृ० १९८. श्रीअमर जैन आगम शोध संस्थान,
शिवाना (राजस्थान) २९६ : तीर्थकर महावीर और उनकी काचार्य-परम्परा
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इस आलोकसे ध्वनित होता है कि पावापुरका हस्तिपाल राजा था और उनकी रज्जुकशाला में महावीरका अन्तिम समवशरण हुआ था ।
महावीर जिस समय कालधर्मको प्राप्त हुए, उस समय चन्द्र नामक द्वित्तीय संवत्सर चल रहा था, प्रीतिवर्द्धन मास, नन्दिवद्धन पक्ष, अग्निवेश दिवस, देवानन्दा नामक रात्रि, अर्थ नामक क्षण, सिद्ध नामक स्तोक, नाग नामक करण सर्वाथसिद्धि मुहूत्तं एवं स्वाति नक्षत्रका योग था । ऐसे समय में तीर्थंकर महावोर निर्वाणको प्राप्त हुए ।
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महावीर के निर्वाणके समय सुर-असुर के साथ अनेक राजा भी उपस्थित थे । बताया है:
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'जं रर्याणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए जाथ सव्वदुक्खप्पहीणो सा रयणी बहूहि देवेहिय देवीहि य ओवयमाणेण य उप्पयमाणेह य उज्जोषिया यावि होत्या || १२४ ॥ '
'जं रयाणि च णं समणे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे तं रर्याणि च णं नव मल्लइ नव लिच्छई कासीको सलगा अट्टारस वि गणरायाणो अमावसाए पाराभोय पोहोचवासं पट्टबसु, गते से भावज्जोए दब्बुज्जोवं करिस्तामी ।। १२७|| "
अर्थात्, जिस रात्रि में श्रमण भगवान् महावीर कालधर्मको प्रप्त हुए, सम्पूर्ण दु.खसे छुटकारा प्राप्त किया, उस रात्रिमें बहुतसे देव और देवियां नीचे आ जा रहीं थीं, जिससे वह रात्रि उद्योतमयी हो गयी थी ।। १२४ ||
जिस रात्रिमें श्रमण भगवान् महावीर कालधर्मको प्राप्त हुए, सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त हुए, उस रात्रिमें नौ मल्ल संघके, नो लिच्छवी संघके अर्थात् काशी- कोशलके अठारह गणराजा अमावस्याके दिन आठ प्रहका प्रोषधोपवास कर वहाँ स्थित थे । उन्होंने यह विचार किया कि भावोद्योत - ज्ञानरूपी प्रकाश चला गया है । अत: अब हम द्रव्योद्योत - दीपावलि प्रज्वलित करेंगे ।
कल्पसूत्र के उपर्युक्त उद्धरणोंसे निम्नलिखित निष्कर्षं प्रस्तुत होते हैं:( १ ) तीर्थंकर महावीरका निर्वाण, राजा हस्तिपालकी नगरी पावापुरीमें हुआ ।
( २ ) निर्वाणके समय नौ मल्लगण, नौ लिच्छवीगण इस प्रकार काशीकोशलके अट्ठारह गण राजा विद्यमान थे ।
( ३ ) अन्धकारके कारण दीपावलि प्रज्वलित की ।
१. कल्पसूत्र, सूत्र १२४ और १२७. (श्रीसमर आगम शोध संस्थान,
शिवना, राजस्थान )
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना २९७
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{४) यह पाचा मध्यमा पावा कहलाती थी।
प्राचीन भारतमें पावा नामकी तीन नगरियो थीं । जैन सूत्रोंके अनुसार एक पावा भंगदेशकी राजाधानी थी। यह देश पारसनाथ पर्वतके बास-पासके भूमि भागमें अवस्थित था। वर्तमान हजारीबाग और मानमूमिके बिले इसीमें शामिल हैं। जैन आगम-ग्रन्थोंमें भंगि जनपदको गणना साढ़े पच्चीस आर्य देशोंमें की गयी है।
बौद्ध साहित्यमें इसे मलय देशको राजधानी बताया है । मल्ल और मलयको एक मान लेनेसे ही पावाको गणना भ्रांतिवश मलय देशमें की गयी है।
दूसरी पावा कोशलसे उत्तर-पूर्व में कुशीनाराको बोर मल्ल राज्यको राजघानी थो । मल्ल जातिके राज्यको दो राजधानियाँ थीं-एक कुशोनारा और दूसरी पावा । सठिाँव--फाजिलनगरवाली पावा सम्भवतः यही है। ___ तोसरी पावा मगधमें थी । यह उक्त दोनों पावाओंके मध्य में थी। पहली पावा इसके आग्नेय कोणमें और दूसरी इसके वायव्य कोषमें लगभग सम अन्तरपर थी । इसी कारण यह पावा मध्यमाके नामसे प्रसिद्ध थी।
इस पावाका सम्बंध राजा हस्तिपालको सभासे भी है । पावामें जैन सूत्रों के अनुसार महावीरका दो बार अवश्य आगमन हुआ था। उनकी दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ इस नगरीके साथ सम्बद्ध हैं। प्रथम बार केवलज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर अगलं हा दिन यहाँ पधारे । देवोंने समवशरणकी रचना की, पर विरतिरूप संयमका लाभ किसीको नहीं हो सका। बात यह है कि उन दिनों मध्यम पावामें, जो जम्भक ग्रामसे लगभग बारह योजन दूर थी, आर्य सोमिल बड़ा भारी यज्ञ कर रहा था। इस यज्ञमें देश-देशांतरके अनेक विद्वान् सम्मिलित हुए थे। महावीरने जाना-यज्ञमें आये हुए विद्वान पण्डित यदि सम्बोषित हो जायं, तो वे धर्मके आधार-स्तम्भ बन जा सकते हैं । अत: मध्यमा पाबाके महासेन उद्यान में वशाख शुक्ला एकादशीके दिन उनका दूसरा समवशरण लगा। उनका उपदेश एक प्रहर तक हुआ । उपदेशकी चर्चा समस्त नगरमें व्याप्त हो गयो | आर्य सोमिलके यज्ञमें सम्मिलित हुए इन्द्रभूति बादि ग्यारह विद्वान् ज्ञानमदसे उन्मत्त हो अपने विद्वान् शिष्योंके साथ महावीरसे शास्त्राचं करने पहुंचे । इनका उद्देश्य महावीरसे विवाद करके उन्हें पराजितकर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना था, पर वहां पहुंचते ही उनका ज्ञानमद विगलित हो गया और उन्होंने श्रमण-दीक्षा स्वीकार की। इसी दिन महावीरले मध्यमा पावाके महासेन उद्यानमें चतुर्विष संघको स्थापना की। २९८ : तीर्थकर महावीर और उनकी पाचार्य-परम्परा
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द्वितीय घटना महावीरके निर्वाणकी है। महावीर चम्पासे विहारकर मध्यमा पावा या अपापा पधारे। इस वर्षका वर्षावास हस्तिपालकी रज्जुकसमामें ग्रहण किया । चातुर्मासमें दर्शनोंके लिए आये हुए राजा पुष्यपालने भगवान् से दीक्षा ली । कार्तिक अमावस्या के प्रातःकाल अपने जीवनकी समाप्ति निकट समझकर अन्तिम उपदेशकी अखण्ड धारा चालू रखी। जो अमावस्याकी पिछली रात तक चलती रही। गौतम गणधर उस समय महावीरको आशासे निकटवर्ती ग्राम में देवशर्मा ब्राह्मणको उपदेश करनेके लिए गये हुए थे । जब वे लौटकर आये, तो उन्हें देवताओंसे ज्ञात हुआ कि भगवान् कालगत हो गये । इन्द्रभूति गौतमको तत्क्षण केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
श्वेताम्बर वाङ्मयके आधारपर प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त विवेचनसे मध्यमा पावाकी भौगोलिक स्थिति स्पष्ट हो जाती है। पहली घटना चतुविष संघस्थापनकी है । मध्यमा पावा और जृम्भक ग्राम में इतना अन्तर होना चाहिए, जिससे एक दिन रात में जृम्भक ग्रामसे मध्यमा पावा पहुँचा जा सके। यह आंतर अधिक-से-अधिक बारह योजन दूरीका हो सकता है। हम पूर्वमें तीर्थंकर महावीरके केवलज्ञान-स्थान जम्भिय ग्रामको अवस्थितिका निर्देश कर चुके हैं। यह ऋजुकूला नदीके तटपर स्थित जमुई गाँव है, जो वर्तमान मुंगेरले पचास मील दक्षिणको दुरीपर स्थित हैं । यहाँसे राजगृहकी दूरी तीस मोल या पंद्रह कोस है । पाचापुर और राजगृहकी दूरी भी अधिक-से-अधिक पच्चीस मोल है । इस प्रकार जमुई से पावापुरकी दूरी दस योजनसे अधिक नहीं है । यदि सठि - आँव वाली पावाको मध्यमा पावा माना जाय, तो जम्भिय गाँबसे यह पावा कम-से-कम सौ - डेढ़ सौ मीलकी दूरीपर स्थित है । इतनी दूरीको वैशाख शुक्ला दशमीके अपराह्न कालसे वैशाख शुक्ला एकादशीके पूर्वाह्न काल तक तय करना सम्भव नहीं है ।
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दूसरी विचारणीय बात यह है कि श्वे० सूत्र - प्रन्थोंमें बताया गया है कि तीर्थंकर महावीर चम्पा नगरीमें चातुर्मास पूर्णकर जम्भीय गाँव में पहुंचे । वहाँसे मेंढ़ीय होते हुए छम्माणि गये । यहाँ एक ग्वालेने महावीरके कानों में काठके कोले ठोंककर उपसर्ग दिया था। छम्माणिसे महाबोर मध्यमा पावा माये । महावीरके इस बिहार- कमका भौगोलिक अध्ययन करनेसे दो तथ्य प्रसूत होते हैं:
( १ ) छम्माणि ग्रामकी स्थिति चम्पा ओर मध्यमा पाचाके मध्य मार्गपर स्थित है | मेढ़ीय ग्रामकी दो स्थितियां मानी जाती हैं। एक स्थिति तो राजगृह और चम्पाके मध्यकी और दूसरी श्रावस्ती और कौशीम्बीके मध्यकी है। यदि महावीरने चम्पासे चलकर श्रावस्ती और कौशाम्बीके मध्यवाले मेढ़ीय ग्राम में धर्मसभा की हो, तो कोई आश्चर्य नहीं है। कहा जाता है कि गोशा
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लकको तेजोलेश्या के प्रयोगके पश्चात् महावीर श्रावस्ती और फौशाम्बीके मध्यवर्सी मेढ़िय ग्रामके शालि-कोष्ठक चैत्यमें पधारे थे | महावीरके विहार-वर्णन में आता है कि मध्यमा पावासे वे अम्भिय गांव गये और वहां उन्हें केवलशान हुआ और वहाँसे राजगृह आये।
(२) बिहार-वर्णनसे पावाको स्थिति चम्पा और राजगृहके मध्यमें होनी चाहिए । अतः चम्पासे मध्यमा पावा होते हुए राजगृह गये और वहसि वैशालो । अतएव तोयंकर महावीरकी निर्वाणस्थली पाचा चम्पा और राजगृहके मध्यमें हानी चाहिये।
कल्पसूत्रमें आया है कि तीर्थकर महावीरके निर्वाणोत्सवमें नव मल्ल बोर नव लिच्छिवियोंने भाग लिया। और अठारह गणराणा काशी-कोशलवंशके थे। नवमल्ल, नवलिच्छिवि और अठारह काशी-कोशलके गणराजा इस प्रकार कुछ विद्वानोंने समस्त गणराजाओंकी संख्या छत्तीस निश्चित की है। पर जैन सूत्रोंके टीका-ग्रन्थोंके अध्ययनसे उक्त अर्थ भ्रान्त सिद्ध हो जाता है। महावीरके निर्वाणोत्सबमें सम्मिलित होनेवाले कुल अठारह ही गणराजा थे, जो वैशालोके अधीन थे । कल्पसूत्रकी संदेह-विषौषधि टीकामें लिखा है:
____ 'नवमल्लई' इत्यादि काशोदेशस्य राजानो मल्लको जातीया नव कोशलदेशस्य राजानो लेख्छकी जातीया नव...' अर्थात् नवमल्ल काशो देशके राजाओंकी जाति थी और नवलिच्छिवि कोशल देशके राजाबोंकी जाति थी।
भगवती-सूत्र (सात क. ९, सूत्र २९९, पत्र ५७६)में युद्धका प्रसंग आया है । इस प्रसंगको यहाँ अभयदेवसूरिकी टोकाके साथ प्रस्तुत किया जा रहा है
"नवमल्लई नवलेच्छई कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो।"
'नव मल्लई ति मल्लकिनामानो राजविशेषाः, 'नव लेन्छई' त्ति लेच्छकीनामानो राजविशेषाः एवं 'कासीकोसलग' त्ति काशी-वाराणसी तज्जनपदोऽपि काशी तत्सम्बन्षिन आद्या नव, कोशला अयोध्या तज्जनपदोऽपि कोशला त्तत्सम्बन्धिनः नव द्वितीयाः। 'गणरायाणो' त्ति समुत्पन्ने प्रयोजने ये गणं कुर्वन्ति ते गणप्रधाना राजानो गणराजा इत्यर्थः, ते ष तदानी चेटकराजस्य वैशालीनगरीनायकस्य साहाय्याय गण कृतवंत इति..." पत्र ५७९-५८०.
अर्थात् नवमल्ल मल्लको नामक राजा विशेष और नयलिच्छिवि लेच्छकी नामक राजाविशेष ये अठारह काशी-कोशलके गणराजा कहलाते थे। इनमें प्रथम नौ कोशल अर्थात् अयोध्या जनपदसे सम्बन्धित थे और द्विसीय नौ मल्ल
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ये काशीसे सम्बद्ध थे। अठारह गणराना वैशालीके नायक चेटककी सहायता करते थे।
उपर्युक टीकासे यह स्पष्ट है कि वैशालीके अधीन अठारह गणराजा थे। इनमें ही काशी-कोशलकी भी गणना सम्मिलित थी। हमारे इस कपनकी पुष्टि निरयावलिकाके एक अन्य सन्दर्भसे भी होतो है। इस सन्दर्ममें बताया गया है कि जब चेटक युद्ध करनेके लिये चला तो अठारह गणराजा भी अपनी सेनाओंके साथ चले। सन्दर्भ निम्न प्रकार है:
___'तते ण ते चेडए राया तिहि दंति सहस्से हिं जहा कूणिए जाद वेसालि नगरि मज्झमशेण निग्गच्छति निग्गष्ठित्ता जेण-वे नवमल्लई नवलेच्छई काशीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो तेणवे उवागच्छति"
तते णं चेडए राया सत्तावनाए दतिसहस्सेहि सत्तावन्नाए आसस. हस्सेहिं सत्तावन्नाए रहसहस्सेहिं सत्तावन्नाए मणुस्स कोडीएहि..''
चेटकके अठारह गणराजा थे, यह बात आवश्यकचूणिसे भी सिद्ध होती है । बताया है:
'त्रेडएणवि गणरापाणो मोलिता देसप्पते ठिता, तेसिपि अट्ठारसण्हं रायीणं सम चेडएणं तओ हस्थिसहस्सा रहसहस्सा मणुस्स कोडीयो सहा चेव, नवरि संखेवो सत्तावण्णो सत्तावष्णो...' विचार-रत्नाकरमें आया है, 'पेटकेनाऽप्यष्टादशगणराजानो मेलिताः', स्पष्ट है कि नौ मल्ल और नौ लिच्छिवि ये अठारह गणराजा ही काशी-कोशल वंशज कहलाते थे । जेकोबीका मत है कि उक्त नव जन लिच्छिवि क्षत्रिय काश्यप गोत्रीय महावीरके मातुल वैशाली-राज चेटकके सामन्त थे ।
जैन ग्रन्थोंके प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि लिच्छिबि क्षत्रिय थे और वे अयोध्यासे वैशालो आये थे। भगवान् महावीरका गोत्र काश्यप था और काश्यप गोत्र तीर्थंकर ऋषभदेवसे प्रारम्भ हुआ । इसी प्रकार मल्लोंका सम्बन्ध काशीके साथ है।
इन गणराजाओंके वर्णनसे पावापुरीको वास्तविक स्थितिके सम्बन्धमें निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं:--
१. महावीरके निर्वाणमें नौ मल्ल और नौ लिच्छिवि ये अठारह गणराजा १. श्रीविजेन्द्र सूरि, तोचकर महावोर, भाग २, पृ. ३१६ पर उद्धृत. २. आवश्यकचूणि, उत्तरार्द्ध, पत्र १७३. ३. उपेन्द्र महारथी, वैशाली के लिच्छिवि, पृ०४ पर उद्धृत.
सोधकर महावीर और उनकी देशना : ३०१
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वैशालीसे पावापुरमें सम्मिलित हुए होंगे। यदि सठियांव वाली पावामें सम्मिलित होते तो दूरी इसनी अधिक हो जाती कि उनका निर्वाणोत्सबमें सम्मिलित होना असम्भव था।
२. हस्तिपाल पावापुरका शासक था और यह राजा सिंहका पुत्र था। यदि इसे हम मल्ल गणके अन्तर्गत मान लें तो भी अनुचित नहीं है : यस: चेटककी सहायता नवमलोंने की थी और यह भी उसी मल्लगणके अन्तगत था।
३. बुद्धने जिस पावामें भोजन ग्रहण किया था और जो कुशीनगरके पास सठियांवके रूपमें भान्य है, उसका नृपति हस्तिमल्ल नहीं है। इस्तिमल्लका किसी भी बौद्ध ग्रन्थमें उल्लेख नहीं आता। जैन ग्रन्थोंमें हस्तिमल्ल महावीरके प्रपम समवशरणमें भी उपस्थित होता है, जिसका संयोजन पावापुरी (नालन्दाके निकटवर्ती) में हुआ था। निर्वाण लाभ करनेके समय महावीरने अपना अन्तिम चातुर्मास इसी पावामें हस्तिमल्लके रज्जुगगहमें किया था। अत: बेन साहित्यके प्रचुर प्रमाणोंके आधारपर वर्तमान पावापुरी ही तीर्थीकर महावीरकी निर्वाणभूमि है। __ जो यह प्रश्न उठाया जाता है कि मगधवासी होनेपर भी अजातशत्र मगध जनपदमें स्थित मध्यम पावामें महावीरके निर्वाणोत्सवमें क्यों सम्मिलित नहीं हुआ? इसका समाधान सोचा और स्पष्ट है। तीर्थकर महावीरके निर्चापोत्सवके अवसरपर श्रेणिक जीवित था। अतएव उसीने मगधका प्रतिनिधित्व किया। हरिवंशपुराणमें स्पष्ट उल्लेख है कि श्रेणिक इस उत्सव में सम्मिलित हुआ। इस पुराणकी रचना शक-संवत् ७०५ वि० सं० ८४० ई० सन् ७८३में हुई है। हरिषेणरचित बृहत्कथाकाशसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है। इस ग्रन्थमें आयी हुई श्रेणिक कथामै बताया गया है कि श्रेणिककी मृत्यु महावीरके निर्वाणके पश्चात् हई। श्रेणिक निर्वाण-प्राप्तिके कई वर्ष पश्चात परलोकबासी हुआ । श्रेणिक-चरितमें महावीरके निर्वाणके पूर्व श्रेणिकके देहायसानको सूचना दी गयी है । पर ये दोनों तथ्य पूर्वोत्तरवर्ती होने के कारण विरोधी नहीं हैं । श्रेणिकचरितको रचना पन्द्रहवीं शताब्दोकी है । अत: उसको अपेक्षा हरिवंशपुराण और हरिषेण-कथाका कथन पूर्ववर्ती होनेसे अधिक प्रामाणिक है।
१. तथैव ष श्रेणिकपूर्वभूभुजः प्रकृत्य कल्याणमहं सहप्रजाः ।
प्रजम्मु रिन्द्राश्च सुरैर्यथार्थ प्रयापमाना जिनघोषिणिनः ।।-ह० ६६।२१. २. बृहत्कथाकोश-हरिषेणकृत, प्रेणिककथा, कथा ५५.
३०२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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दिगम्बरसाहित्य के आलोक में ईस्वी की पांचवी शताब्दी से ही नालन्दाफी निकटतिन पावा ही महावीरकी निर्वाणभूमि मानी गयी है। पूव्यपादने लिखा है:पद्मवनदीर्घिकाकुल विविधद्रुमखण्डमण्डिते रम्ये । पावानगरोधाने व्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः ॥ कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः | अवशेषं सम्प्रापद् व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् ॥ परिनिर्वृतं जिनेन्द्र ज्ञात्वा विबुधा ह्ययाशु चागम्य | देवतरुरक्तचन्दनकालागुरुसुरभिगोशीर्षैः ॥ अग्नीन्द्राज्ञ्जिनदेहं मुकुटानलसुरभिधूपवरमाल्येः । अभ्यच्यं गणधरानपि गता दिवं खं च वनभवने ॥
अर्थात् - तीर्थंकर महावीर कमलवनसे भरे हुए और नानावृक्षोंसे सुशोभित पावानगर के उद्यानमें कायोत्सगं ध्यानमें आरूढ़ हो गये। उन्होंने कार्तिक कृष्णाके अन्त में स्वाति नक्षत्र में सम्पूर्ण अवशिष्ट कर्म-कलंकका नाश करके अक्षय, अजय और अमर सौख्य प्राप्त किया। देवताओंने जैसे हो जाना कि भगवान्का निर्वाण हो गया, वे अविलम्ब वहाँ पर आये और उन्होंने पारिजात, रक्ल कन्दन, कालागुरु तथा अन्य सुगन्धित पदार्थ और धूपमालाएँ एकत्र कीं । अग्निकुमार देवोंके इन्द्रने अपने मुकुटसे अग्नि प्रज्वलितकर जिनेन्द्रप्रभुकी देहका संस्कार किया । देवोंने गणधरोंको भी पूजा की और अपने-अपने स्थानपर चले गये |
हरिवशपुराण, जयघवला टीका, तिलोयपण्णत्ती, उत्तरपुराण आदि सभी ग्रन्थोंसे यह सिद्ध होता है कि तीर्थंकर महावीरका निर्वाण मगध देशकी पात्रा नगरीमें हुआ है।
बौद्ध साहित्य के आधारपर श्री कन्हैयालाल सरावगीनें कुशीनगर के समीपवर्ती सव्याचको तीर्थंकर महावोरकी निर्वाणमूमि पावा सिद्ध करनेका प्रयास किया है। उन्होंने सठियांवकी जो व्युत्पत्ति पावाके साथ घटित की है उसे पढ़कर महान् आश्वयं होता है। उन्होंने लिखा है "श्रीका प्राकृत रूप सरि या सठि होता है । पावाका कालान्तर में यावा यांवा हो गया। इस प्रकार श्रीपाचा > सिरिपावा सठियाचा साठयांचा बन गया ।""
श्रीका सरि रूप बनता है पर प्राकृतके किसी भी नियमके आधारपर 'र' का 'ठ' और 'प' का 'य' नहीं होता । पादाका यांवा रूप और श्रीके सठि रूपकी कल्पना करना भाषा विज्ञान के समस्त नियमों की अवहेलना करना है । १. पावा-समीक्षा, पृ० ४२.
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अतः श्रीपावाका सठियांवा सम्भव नहीं है । पूर्वाग्रह लेकर किसी भी शब्दको कहीं भी घसीटा जा सकता है। यहाँ श्रीसरावगीजीका पूर्वाग्रह ही प्रतीत होता है ।
श्रीसरावगीजीकी एक नयी सूझ भी विचारणीय है । उन्होंने 'मज्झिमाकामव्यर्ती करवत्र्य किंतु बाकरपर किया है ? 'मज्झिमा' विशेषणका सीधा सम्बन्ध 'पाया' के साथ है, अतः देश शब्दका अध्याहार किस प्रकार सम्भव हुआ ? 'मज्झिमा' को विशेषायक विशेषण माना जाय अथवा साभिप्राय विशेषण माना जाय, इन दोनों ही स्थितियों में 'पावा' विशेष्यके रहते हुए 'देश' को बीचमें नहीं डाला जा सकता है ।
प्राचीन टीका-ग्रन्थों में 'पावाए मज्झिमाए' का अर्थ सर्वत्र 'मध्यमा पादा' ही प्राप्त है; मध्यदेशवर्तिनी पात्रा नहीं । अपने कथन की पुष्टिके लिए उन्होंने हरिवंशपुराण में वर्णित 'मध्यदेश' को 'मज्झिम' का बोधक लिखा है । पर इसकी सिद्धिके लिए प्रमाण नहीं दिया है । एक अन्य तर्क यह है कि 'मज्झिमाए पावाए' में मज्झिमा विशेषण स्त्रीलिङ्ग है, इसके 'मध्य' पुंल्लिङ्ग 'देश' शब्दका किस प्रकार अध्यहार संभव है ? मध्याहार साभिप्राय विशेषण के होनेपर लिङ्ग, वचन और विभक्तिके नियमानुसार ही होता है। शब्द गठनमें अनियमित व्यवहार नहीं पाया जाता है ।
शब्दरूपकी दृष्टिसे 'मज्झिमा' -- मध्यमाका रूपान्तर है, 'मध्य' का नहीं । 'मज्झ' से मध्य बनता है, यह विशेषण है और इसको निष्पत्ति 'मन् + यत्नस्यधः' से सम्भव है । मज्झिमा - मध्यमा भव अर्थ में 'म' प्रत्यय होनेसे 'मध्ये भवः – मध्य + म' – मध्यम + स्त्रीत्व टाप् - मध्यमा - मज्झिमा रूप निष्पन्न है । अतएव 'पावाए मज्झिमाए' का अर्थ मध्यमा पावा अथवा मध्यवर्ती पावा है, मध्यदेशवर्तिनी पावा नहीं ।
उल्लिखित तीनों पावाओंकी अवस्थिति पौराणिक भूगोलकी दृष्टिसे मध्यदेश में है । मनुस्मृति, विष्णुपुराण, वामनपुराण आदिके आधारपर मध्यदेशका विस्तार हेमाद्रिसे लेकर सह्याद्रि तक माना गया है। तीर्थंकर महावीरको निर्वाणभूमि 'मध्यमा पावा' थी, जिसकी स्थिति भाग प्रदेशकी पाया और गोरखपुर जिलेमें कुशीनाराकी निकटवत्तिनो पावाके मध्य थो ।
बौद्ध साहित्य में अनेक प्रसंगों में पावाका निर्देश आया है । वर्त्तमानमें कई विद्वान् बुद्धको अन्तिम यात्रामें वर्णित पावाको हो तीर्थंकर महावीरको निर्वाणभूमि बतलाते हैं। भयंकर बीमारीके अनन्तर' बुद्ध वैशाली से मण्डग्राम, अम्बग्राम १. दीघनिकाय २३ महापरिनिव्वाणसुत ।
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(माम्रग्राम), जम्बुग्राम, भोगनगर होते हुए पावा पहुंचे। यहाँ चुन्द कर्मारसुत्रके आम्रवनमें निवास किया । उसने दूसरे दिन बुद्धको भोजनके लिए आमन्त्रित किया और सूकर-मद्दव तथा अन्य भोजन-सामग्री तैयार करायी । बुटने भिसंघके साथ जाकर भोजन किया । सूकर-मइव खानेसे बुद्धको रक्त गिरने लगा। थोड़ी दूर चलकर वे थक गये । उन्हें मरणान्तक कष्ट हुआ।
बुद्ध कुशीनाशकी ओर जा रहे थे। मार्गमें श्रान्त होनेपर वे एक वृक्षके नीचे विश्राम करने लगे ! बुद्धने आनन्दसे जल मांगा । आनन्द समीपसिनी ककुत्थासे जल भरकर लाये और बुद्धको पीने के लिए दिया ।
नवासे कुशोनारा : गव्यति था, किन्तु इतनी दूरीमें बुद्धको पच्चीसवार बैठना पड़ा, मध्याह्नसे चलकर सूर्यास्तके समय कुशीनाश पहुंचे । पावासे पलकर ककुत्या नदी पार की 1 आगे हिरण्यवती नदी मिली, उसके परले तटपर स्थित कुशीनाराके मल्लोंके शालवनमें गये और दो घने शालवृक्षोंके बीच में उत्तरको ओर सिरहाना करके लेट गये और यहीं निर्वाण प्राप्त किया ।
इस सन्दर्भसे यह स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध पाचासे कुशीनगर पहुँचे थे तथा पावा और कुशीनगरकी दूरी १२ मोल रही होगी | ककुत्था नदी भी पावाके निकट थी, जिससे जल लाकर आनन्दने उनको पिलाया था। यह पावा मल्लोंकी पावा है, तीर्थंकर महावीरको निर्वाण-भूमि मध्यमा पावा नहीं। इतिहासज्ञोंने, बुद्धको जहाँ भोजन कर सांघातिक रोग हुआ, पावाकी खोज को | कपिलवस्तुसे लेकर कुशीनारा, पडरौना, फाजिलनगर, सठियांव, सरेया, कुक्कुरपाटी, नन्दवा, दनाहा, आसमानपुर डोह, मोर विहार, फरमटिया और गांगीटिकार तक प्राचीन भवनों, मन्दिरों और स्तूपोंके ध्वंसावशेष बिखरे पड़े हैं । इन अवशेषों के देखनेसे ऐसा अनुमान होता है कि आततायी राजाओं अथवा प्रकृति के बहुत बड़े प्रकोपके कारण ये ध्वंसावशेष हुए होंगे । __ इतिहास बतलाता है कि श्रावस्तीके राजसिंहासनपर आसीन होकर विद डभने अपने पिता प्रसेनजितको मरवाकर शाक्यों और उनके नगरोंको ध्वस्त कर दिया । श्रेणिकके पुत्र अजातशत्र कुणिकने भी अपने पिताको बन्दी बनाकर मगधका सिंहासन अधीन किया और अपने ननिहाल वैशाली-गणसंघ और उनके मित्र मल्लसंघको नष्ट कर दिया। इन दो महत्त्वाकांक्षी राजाओंके प्रतिशोधके परिणाम स्वरूप ही यहाँ डीह-टीले विद्यमान हैं। बुद्धको मृत्युके पश्चात् उनकी अस्थियोंके आठ भाग किये गये, इनमें से एक भाग शक्यिोने और
दो भाग पावा एवं कुशीनगरके मल्लोंने ग्रहण किये। दोनों संघोंने उन अस्थि. भस्मोंपर स्तूपोंका निर्माण कराया। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि
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.कपिलबस्तु, कुशीनारा और पावाका विनाश बुद्धकी मृत्युके आस-पास हुआ और स्तूप इसके उत्तर कालमें ध्वस्त किये गये । अतएव ध्वंसावशेष सठियांवकी प्राचीनताके सूचक हैं |
वर्तमान सठियांव में तालाब और स्तूपोंके ध्वंसावशेष प्रचुर रूपमें विद्यमान हैं। पावा वैशाली - कुशीनारा मार्गपर अवस्थित थी । अतः वह कुशीनारासे दक्षिण-पूर्व होनी चाहिए। पडरौना उत्तर और उतर-पूर्व में बारह मीलकी दूरीपर है, पर यह वैशाली कुशीनारा मार्गपर स्थित नहीं है। इस विवेचन के अनुसार फाजिलनगर सठियांव ही पुरानी पावा है ।
irst atद्ध अनुश्रुतियोंके अनुसार पावा कुशीनारासे बारह मील दूर गण्डक नदी की ओर संभव है। यह कुशीनारासे पूर्व या दक्षिण-पूर्व में अवस्थित है । इस अनुश्रुतिमें कुशीनारा और पावाके वीचमें एक छोटी नदी भी बतायी गयी है, जो 'ककुत्था' कहलाती थी । यहीं बुद्धने स्नान और जलपान किया था । इस नदीका वर्तमान नाम 'घागी' है । यह कसिया से पूर्व, दक्षिण-पूर्वकी ओर छः मील दूर है ।
फाजिलनगरके भग्नस्तुपसे डेढ़ फर्लांग उत्तर-पूर्वमं बहनेवाली 'सोनुआ' 'सोनावा' या 'सोनारा' नामकी नदी है । यही नदी ककुत्था है, यह पावा और कुशीनगरके मध्य बहती है । वर्तमान में सठियांवसे डेढ़ मील पश्चिमको ओर प्राचीन नदीके चिह्न मिलते हैं, जो अन्हेया, सोनिया और सोनाका कही जाती है । इससे दो मील पश्चिम में 'घागी' नामकी एक बड़ी नदी है । पड़रौना से दस मील उत्तर-पश्चिम में सिंघा गांव के पास एक झील है, 'घागी' नदी इसीसे निकलती है । अतएव संक्षेपमें महात्मा बुद्धकी राजगृहसे कुशीनगर तककी यात्राका अध्ययन करनेपर पात्रा भोगनगर (बदरांच) और कुशीनगर के मध्य सठियाँव-फाजिलनगर हैं । परन्तु यह मध्यमा पावा नहीं है । निर्वाणस्थल सम्बन्धी बौद्धागम प्रमाण
बौद्ध वाङ्मयमें महावीरको निर्वाणभूमि पावाके सम्बन्धमं 'सामगामसुतन्त', 'पासादिकसुत', 'संगीतिपरियायसुत्त' आदि ग्रन्थोंमें उल्लेख आये हैं । ये निर्देश विद्वेषपूर्ण साम्प्रदायिक संकीर्णता के परिचायक हैं । यहाँ मूल सन्दर्भ प्रस्तुतकर निर्वाणभूमिसे संबद्ध निष्कर्ष अंकित किये जायेंगे | बताया है
:
एव मे सुतं । एकं समयं भगवा सबकेसु विहरति सामगा मे । तेन खो पन समयेन निगण्ठो नातपत्तो पावार्थ अधुना कालंकतो होति । तस्स कालरियाय भिन्ना निगष्ठा द्वधिकजाता भण्डनभिन्ना निगण्ठा द्वेषिकजाता - पे० भिन्नथूपे अप्पटिसरणे ति । एवं कुत्ते आयस्मा आनंदो चुन्दं ३०६ : तोकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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समणुद्देस एतदवोच 'अत्थि खो इदं आवुसो चुन्द, कथा पामन्तं भगवन्तं दरसनाय 1 अयाम आसो चुन्द, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम । उपसङ्घमित्वा एतमत्थं भगवतो आरोचेस्साम' ति । 'एव भन्ते' ति खो चुन्दो रामणुद्देो मतो स
वे
अर्थात् एक बार भगवान बुद्ध शाक्य देश के सामगाम में विहार करते थे । निगंठ नातपुत्रकी कुछ समय पर्व ही पावामें मृत्यु हुई थी। उनकी मृत्युके अनन्तर ही निगंठों में फुट हो गयो, दो पक्ष हो गये, कलह करते हुए एक दूसरेको मुखरूपी शक्ति से छेदते विहर रहे थे- 'तू इस धर्म - विनयको नहीं जानता, में इस धर्म - विनयको जानता हूँ | तू भला धर्म विनयको क्या जानेगा ? तू मिय्यारूद है, में सत्यारूढ हूँ ।'
इस
निगण्ठ नातपुत्रके श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ शिष्य भी नातपुत्रीय निगंठों में वैसे ही विरक्त चित्त हैं, जैसे कि वे नातपुत्रके दुराख्यात (अस्पष्ट ), दुष्प्रवेदित (अज्ञात), अनेर्याणिक (पार न लगानेवाले), अनुपशम संवर्तनिक ( न शान्ति गामी), असम्यक सम्बुद्ध प्रवेदित ( किसी बुद्ध से न जाने गये), प्रतिष्ठा (आधार) रहित, भिन्नस्तूप, आश्रमरहित धर्मविनय में थे ।
चुन्दसमणुद्देस पावा वर्षावास समाप्त कर सामगान में आयुष्मान आनन्दके पास आये और उन्हें निगष्ठ नातपुत्रको मृत्यु तथा निगठों में हो रहे विग्रहकी सूचना दी। आयुष्मान् आनन्द - "आवुस चुन्द ! भगवान्के दर्शनके लिए यह बात भेंट रूप है । आओ-आबुस चुन्द ! जहाँ भगवान् है, वहीं चलें । चलकर यह बात भगवान्को कहें - अच्छा भन्ते ! चुन्द समजुद्देसने कहकर आयुष्मान् आनन्दका समर्थन किया ।
उपालि-संवाद में बताया गया है कि नातपुत्र नालन्दावासी होनेपर भी पावामें कालगत हुए । उन्होंने सत्यलाभी उपालि गृहपत्तिको दस गाथाओंसे भाषित बुद्धके गुणों को सुनकर उष्ण रक्त उगल दिया । अस्वस्थ अवस्थामें ही उन्हें पावा ले गये और वहीं कालगत हुए ।
'—
इन सन्दर्भों के अध्ययनसे निम्नाति तथ्य प्रसूत होते हैं १. तीर्थंकर महावीरका निर्वाण पायायें हुआ 1
२. उनकी मृत्युके समय ही जैनसंघमें फूट पड़ गयी । ३. इसी समय श्वेताम्बर और दिगम्बर भेद प्रकट हुए ।
१. मज्झिमनिकाय, सामगाम सुत्तन्त ३१९१४.
२. मज्झिमनिकाय अट्टकथा, सामगाम सुत्तवण्णना, खण्ड ४, ५० ३४.
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४. महावीरको मृत्यु रक्तपित्त रोगसे हुई । ५. अस्वस्थावस्थामें : माले उन्हें पात्रा में ले जाया गया ।
इन तथ्योंपर क्रमशः विचार करनेपर अवगत होता है कि महावीरका निर्वाण पावामें हुआ, यह सत्य है । पर यह पावा कौन-सी है ? यह स्पष्ट नहीं होता । मल्ल गणराज्यको पावा तो यह हो नहीं सकती, क्योंकि जैन ग्रन्थोंमें महावीरको निर्वाणभूमि मध्यमा पावा बतलायी गयी है। __ महावीरके निर्वाण-समयमें ही जैनसंघमें फूट पड़ गयी, यह नितान्त भ्रामक है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह स्वीकार करतो हैं कि उक्त संघभेद मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तके समय में हआ। जब मगध जनपद में बारह वर्षका दुष्काल पड़ गया तो श्रुतकेवली भद्रबाहु अपने नेतृत्वमें बारह हजार मुनिसंघको लेकर दक्षिण भारतकी ओर चले गये। कुछ मुनि यहाँ भी रह गये, वे समयके प्रभावसे श्वेतवस्त्रधारी बन गये। फलतः श्वेताम्बर और दिगम्बर संघ-भेद ई० पू० ३००के लगभग उत्पन्न हुआ। अतएव बौद्ध वाङमयमें निर्ग्रन्थोंके सम्बन्धमें जो फूटको चर्चा की गयी है, वह बुद्धके समयको नहीं हो सकतो है। ऐसा मालूम पड़ता है कि साम्प्रदायिक विद्वषवश यह सन्दर्भ बादमें जोड़ा गया है। __ कैम्बिज हिस्ट्री, ऐनशियेन्ट इण्डिया, भारतके प्राचीन राजवंश आदि ग्रन्थोंमें एक मतसे श्वेताम्बर और दिगम्बर भेदको मगधके दुभिक्षके पश्चात् माना गया है। कैम्ब्रिज हिस्ट्री में भद्रबाहुके दक्षिण गमनका निर्देश करते हुए लिखा गया है-'यह समय जैनसंघके लिये दुर्भाग्यपूर्ण प्रतीत होता है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ई० पू० ३०० के लगभग महान् संघभेदका उद्गम हुआ, जिसने जैन संघको श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायोंमें विभाजित कर दिया । दक्षिणसे लौटे हुए साधुओंने, जिन्होंने दुर्भिक्ष कालमें बड़ी कड़ाईके साथ अपने नियमोंका पालन किया था, मगधर्भ रह गये, अन्य अपने साथी सापोंके आचारसे असन्तोष प्रकट किया तथा उन्हें मिथ्याविश्वासी और अनुशासनहीन घोषित किया' ।"
आर० सी० मजुमदारने भी अपने इतिहासमें संघभेदका समय मगधके दुर्भिक्षको ही इगित किया है। उन्होंने लिखा है--"जब भद्रबाहुके अनुयायी मगघमें लौटे, तो एक बड़ा विवाद उठ खड़ा हुआ। नियमानुसार जैन साधु नग्न रहते थे, किन्तु मगधके जैन साधुओंने सफेद वस्त्र धारण करना प्रारम्भ
१. मैम्बिज हिस्ट्री ( सन् १९५५), पृ० १४७. ३०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कर दिया । दक्षिण भारतसे लौटे हुए जैन साधुनोंने इसका विरोध किया, क्योंकि वे पूर्ण नग्नताको महावीरकी शिक्षाओंका बावश्यक भाग मानते थे । विरोधका शान्त होना असम्भव पाया गया और इस तरह श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुए ।"
'भारतके प्राचीन राजवंश' ग्रन्थ में पण्डित श्रीविश्वेश्वर नाथ रेकने उपर्युक्त तथ्य जैसा ही विवेचन किया है। उन्होंने लिखा है- "कुछ समय बाद जब अकाल निवृत्त हो गया और कर्नाटकसे जैन लोग वापस लौटे, तब उन्होंने देखा कि मगवके जैन साधु पोछेसे निश्चित किये गये धर्म-ग्रन्थोंके अनुसार स्वेतवस्त्र पनने लगे हैं । परन्तु कर्नाटकसे लौटनेवालोंने इस बातको नहीं माना । इससे वस्त्र पहननेवाले जैन साधु श्वेताम्बर और नग्न रहनेवाले दिगम्बर कहलाये ।"
अतएव बौद्ध साहित्यमें जो संघभेदकी समीक्षा की गयी है, वह उसकी प्रामाणिकता में सन्देह उत्पन्न करती है ।
साम्प्रदायिक विद्वेषवश बौद्ध साहित्य में महावीरके रक्त-पित्त रोगका कथन और नालन्दासे उनका दावा के जाना ये दोनों ही बातें भी भ्रान्त हैं । यदि मज्झिमनिकाय, अट्ठकथा और सामगामसुत्तवण्णनामें महावोरकी निर्वाणभूमिके लिये आये हुए सन्दर्भपर विचार करें, तो दो तथ्य प्रस्फुटित होते हैं ।
(१) किसी भी रोगीको मरणासन्न स्थितिमें बहुत दूर नहीं ले जाया जा सकता है और साथ ही रोगी ऐसा हो, जो साधु, त्यागी, व्रती है और जिसका संसार में कहीं कोई सम्बन्धी नहीं है, उसे उतनी अधिक दूर ले जाना बुद्धिमत्ता नहीं है | अतः कुशीनगर के निकटवर्ती सठियांव -- पावा तक महावीर नहीं गये होंगे। यह पाचा तो नालन्दाको निकटवत्तनी ही सम्भव है । अतः बोद्ध वाङ्मयके उक्त तर्कसे नालन्दाकी समीपवर्तनी पावा ही निर्वाणभूमि सिद्ध होती है !
( २ ) जैन वाङ्मय में महावीरके अन्तिम समयकी ऐसी कोई घटना नहीं मिलती, जिससे यह सिद्ध होता हो कि महावीर अन्तिम समयमें नालन्दासे पाचा गये । जैन आगमोंमें स्पष्ट उल्लेख है कि चम्पामें वर्षावास समाप्त कर महावीर भ्रमण करते हुए पावा गणराज्य हस्तिपालकी रज्जुकशालामें आये और यहीं अन्तिम चातुर्मास किया ।
१. एनशियेन्ट इण्डिया, पु० १७९.
२. भारतीय प्राचीन राजवंश, भाग २, पु० ४१.
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उपालि द्वारा बद्धकी प्रशंसा सुनकर महावीरका उष्ण रक्त वमन करना इतिहास विरुद्ध मिथ्या कल्पना है। अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि बौद्ध साहित्यके आधारपर महावीरकी निर्वाणभूमि नालन्दाको समीपवर्तिनी पावा ही है, सठियांब वाली पावा नहीं । यदि जैनागमके सबल प्रमाण उपलब्ध हो जायं, तो इस मन्यताको परिवर्तित करने में तनिक भी संकोच नहीं होगा। वर्तमान पाया-सम्बन्धी सामग्री
कुछ विद्वान् भगध जनाको अन्तर्वसिनः में प्राचीन जैन चिह्नोंका अभाव देखकर इसे निर्वाण-भूमि माननेके प हमें नहीं है। वहाँ निर्मित मन्दिर एवं सांस्कृतिक चिह्न आधुनिक हैं। पर इतिहास इस बातका साक्षी है कि १२ वी-१३ वीं शताब्दीमें जैनधर्मका केन्द्र उत्तरी विहारसे हटकर दक्षिणी विहारमें स्थापित हो गया था। राजगृह और पावापुर तो महावीरके समयमें ही जैनतीर्थ बन चुके थे । पावापुरीमें ई० सन्की १३ वीं शताब्दी में एक जैन सम्मेलन हुआ। ई० सन् १२०३ में यहाँ भगवान महावीरकी मूर्ति विराजमान को गयी। इसके पहले भी यहाँ मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई हो, तो इसमें कोई अतिरंजना नहीं है । मदनकोत्तिने अपने समयके छब्बीस तीर्थोंको वर्णन किया है। मदनकोतिका समय ई० सन्को १३वीं शतीका उत्तरार्द्ध है। इन्होंने पावापुरीके वीर जिनका वर्णन किया है । अत: १२वीं शताब्दीके पहले ही मगधवाली पावाकी प्रतिष्ठा महावीरकी निर्वाणभूमिके रूपमें हो चुकी थी। 'तीर्थकल्प' में भी जिनप्रभसूरिने 'पावापुरी' या 'अपापा' के नामसे इस तीर्थका महत्त्व प्रतिपादित किया है । अतएव यह निश्चित है कि वर्तमान पावापुरीको मान्यता जिनसेन प्रथमके पहले ही प्राप्त हो चुकी थी। जिनसेनने इसी कारण श्रेणिकको निर्वाणोत्सवमें सम्मिलित किया है। ___अभी गाँवके मन्दिरकी मरम्मतके समय खुदायीमें एक प्राचीन मन्दिरका अवशेष नीवमें प्राप्त हुआ है। इस ध्वंसावशेषके सम्बन्धमें विशेष जानकारी तो नहीं, पर इतना अवश्य है कि यह ध्वस्त मन्दिर जिसकी बुनियादपर नया मन्दिर निर्मित है, पर्याप्त प्राचीन रहा है। सम्भवतः खुदायोमें अन्य सामग्री भी उपलब्ध हो जाय । अतएव उपलब्ध प्रमाणोंके आलोक में वर्तमान पावापुरी ही महावीरको निर्वाणभूमि है।
जैन प्रमाणोंकी अवहेलना कर नवीनताके व्यामोहमें कोई भले ही सठियांव-फाजिलनगरको तीर्थकर महावीरको निर्वाणभूमि बतलाये, पर यथार्थता १. श्री पूर्णचन्द्र नाहर, जैन लेख-संग्रह, भाग २ (कलकत्ता १९२७), प० २६३. २. मम्पा० में दरबारीलाल कोठिया, शासनपतुस्विशिका, पीर सेवा मंदिर, दिल्ली, ३१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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इससे दूर है । इसमें संदेह नहीं कि राजगृहसे कुशीनगरकी यात्रा करते समय बुद्धने जिस पावामें भोजन ग्रहण किया था, वह पावा सठियांव है। सठियांवका बौद्ध संस्कृतिसे घनिष्ट सम्बन्ध है और यहां अनेक स्तूपावशेष भी है । पर जैन संस्कृतिसे इस स्थानका तनिक भी लगाव नहीं है। न एक भी ऐसा जैन प्रमाण उपलब्ध है, जिसका साक्ष्य देकर इस स्थानको तीर्थंकर महावीरको निर्वाणभूमि माना जा सके। उत्तराधिकार
तीर्थकर महावीरके चतुर्विध संघके सदस्य पांच लाख नर-नारी थे । मुनिसंघ ग्यारह गणधरोंकी अध्यक्षतामें नौ गणों या वन्दोंमें विभक्त था। श्रावकश्राविका संघमें सभी वर्ग और जातिके व्यक्ति सम्मिलित थे। भारतके कोनेकोने में तो उनके अनुयायी विद्यमान थे हो, पर भारतके बाहर गान्धार, कपिशा और पारसीक आदि देशोंमें भी उनके भक थे । ___ महावीरके निर्वाणोपरान्त - उत्तराधिकार ---गमा नाकाह उनके प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतमको प्राप्त हुआ। जिस दिन तीर्थकर महावीरका निर्वाण हुआ, उसी दिन उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर केवलज्ञानी हुए' । उनके मुक्त होनेपर सुधर्म स्वामी केवलज्ञानी हुए और इनके मुक्त होने पर जम्बूस्वामी केवलज्ञानी हए। जम्बुस्वामीके मुक्त होनेपर कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुआ। इन तीनोंके धर्मप्रवर्तनका सामूहिक काल ६२ वर्ष है ।
इन्द्रभूति गौतम गणधरने महावीरके उपदेशोंको श्रृंखलाबद्ध, व्यवस्थित एवं वर्गीकृत रूपमें संकलितकर उनकी वाणीको स्थायित्व प्रदान किया। इन्द्रभूतिने बारह वर्षों तक संघका संचालन किया । ये भी अहंत, केवली और सर्वज्ञ थे। इनसे अगणित प्राणियोंने आलोक प्राप्त किया। १. जादो सिद्धो वीरो तहिवसे गोदमो परमणाणी ।
जावो तस्सि सिद्ध सुधम्मसामी तदो जादो॥ तम्मि कवकम्मणासे जंबूसामि त्ति केवली जादो। तत्थ वि सिक्षिपषपणे केवलिणो णत्यि अणुबद्धा ।। वासट्ठी वासामि गोदमपहुवीण पाणवंताणं । पम्मपयट्टणकाले परिमागं पिंडरूवेणं ॥
-तिलोयषण्णत्ती ४।१४७६.१४७८, २. पुणो सेणियमूदिणा भाष-सुव-पज्जय-परिणदेण मारहंगाणं पोद्दसपुग्वाणं च गंपाणभेषकेण व मुहत्तेग कमेण रयणा कदा ।
-धक्काटीका, १ पुस्तक, पृ. ६५. तोपकर महावीर और उनकी देशना : ३११
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इनका निर्वाण वी० नि० सं० १२ ई० पू० ५१५ में हुआ । इनके पश्चात् लोहाचार्य या सुधर्माचार्य संघनायक हुए। ये भी अहंत्, सर्वज्ञ और केवली थे । इन्होंने बारह वर्षों तक संघका संचालन किया ।
घयलाटीका में बतलाया गया है कि इन्द्रभूति गौतम गणधरने दोनों प्रकारका श्रुतान लोहाचार्यको दिया । लोहाचार्य सात प्रकारको ऋद्धियोंसे युक्त और समस्त श्रुतज्ञानके पारगामी थे। लोहाचार्य या सुधर्माचार्यने अपने उपदेशामृत द्वारा जनसमूहका अज्ञानान्धकार छिन्न किया । इनका निर्वाण विपुला बलपर वी० नि० सं० २४ ई० पू० ५०३ में हुआ ।
सुधर्माचार्यने जिस दिन निर्वाणलाभ किया, उसी दिन जम्बूस्वामीको केवलज्ञान हुआ | जम्बूस्वामी चम्पा नगरीके सेठ अद्दासके पुत्र थे और इनकी माताका नाम जिनदासा था। इनके गर्भ में आनेके पहले माताने गज, सरोवर, शालिक्षेत्र, निर्धूमाग्निशिखा और जम्बूफल ये पांच स्वप्न देखे तथा माता इन स्वप्नोंका फल ज्ञातकर अत्यधिक प्रसन्न हुई । कुमार जम्बू शैशवकाल से भविष्णु, पराक्रमी और वीर थे। इन्होंने एक मदोन्मत्त हाथीको वश किया, जिससे इनकी वीरता और साहससे प्रभावित होकर सागरदत्त सेठने अपनी कन्या पद्मश्री, कुबेरदत्तने कनकश्री, वैश्रवणदत्त सेठने विनयश्री एवं घनदत्त सेठने रूपश्रीका विवाह जम्बूके साथ कर देनेका निश्चय किया ।
जम्बकुमार एक मुनिका उपदेश सुनकर विरक्त हो गये और दीक्षा ग्रहण करनेका विचार किया । माता-पिता पुत्रको परिवारके बन्धनमें बांध रखने के उद्देश्यसे उनका विवाह कर देते हैं। चारों रूपवती पत्नियाँ उन्हें अपनी ममतामें जकड़कर रखना चाहती हैं, और विभिन्न प्रकारकी कथाएं सुनाकर उनके हृदयके विकारोंको उभाड़ती हैं, पर जम्बूकुमार हिमालय के समान अडिग रहते
। माता जिनदासी कुमारको विषयासक्त बनाने के लिए विद्युच्चोरको सहायता भी लेती है; किन्तु विजय जम्बूकुमारकी हो होती है और यह विद्युच्चोर के साथ महावीरकी धर्मसभा में दीक्षित हो जाता है ।
१. अयघवला तिलोय पण्णत्ती और इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में लोहाचार्य के स्थानपर सूनका नाम आता है। यथा-
तो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा सोमृहुत्तेगावहारिमदुवालसंगत्येण तेणेय काळेण कयदुवालसंग गंथरयणेन गुणेहि सगसमा णस्स हुमारि यस्स गंयो बनखाणिदो । -जयघ० अ० पु० ११. २. विहरिसिहरे विसुद्धगुणि निव्वाणु पत्तु सोहम्मु मुणि— जंबूसामिचरित १०१२३.
११२ : सीर्थंकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा
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जैनमुनि बनकर मथुरा नगरीके चौरासी नामक स्थानपर अम्बकुमारने तपश्चरण किया। महावीरको शिष्यपरम्परामें जम्बूस्वामी अन्तिम केवली थे। इनका निर्वाण राजगृहके विपुलाचल पर्वतसे वी० नि० सं० ६२ ई० पु. ४६५ में हुआ' । अड़तीस वर्ष तक जम्बूस्वामो धर्मका प्रवचन करते रहे।
जम्बूस्वामीके मुक्त होने के पश्चात् कोई अनुबद्ध केवलो नहीं हुआ। इन तीनों केवलियोंके धर्मप्रवर्तन का काल ६२ वर्ष है।
इन केवलियोंके पश्चात् नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवद्धन और भद्रबाह ये पांच श्रुतकेवली महावीरके तीर्थमें हुए'। इन पाँचों का सम्मिलित काल सौ वर्ष है। कुछ आगम-ग्रन्थोंमें नन्दिके स्थानपर विष्णुका उल्लेख है। बहुत संभव है कि विष्णु और नन्दि भी एक ही आचार्य हों। इनका कहीं नाम विष्णु लिखा गया हो और कहीं नन्दि । पूरा नाम विष्णुनन्दि रहा होगा |
जम्बूस्वामी केवलोके पश्चात् श्रुतकेवली भद्रबाहु संघनायक हुए । ये युगप्रधानाचार्य थे तथा दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें इन्हें मान्यता प्राप्त थी । इन्हींके समयमें संघभेद हुआ। निस्सन्देह भद्रबाहुका स्थान अखण्ड जैनपरम्पराकी दृष्टिसे बहुत महत्त्वपूर्ण है। ये मौर्यसम्राट् चन्द्रगुप्तके समकालोन है। इनका जन्म स्थान पुण्ड्रवर्धन देश और गुरुका नाम गोवर्धन बताया गया है। श्री कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने लिखा है- "समस्त दिगम्बर जैन साहित्यमें तथा शिलालेखोंमें गोवर्द्धनको चतुर्थ श्रुतकेवली बतलाया है और उन्हें भ्रद्रबाहु श्रुतकेवलीका पूर्वज बतलाया है। तथा भद्रबाहुको पुण्ड्रवर्धन देशके कोटिमत्त नगरका निवासी बतलाया है। अतः यह निर्विवाद है कि बृहत्कथाकोषमें जिस भ्रद्रबाहुका आख्यान दिया है, वे श्रुतफेवली भद्रबाहु ही हैं और उनके समय में चन्द्रगुप्त नामका यदि कोई राजा हुआ है तो वह मौर्यसम्राट् चन्द्रगुप्त ही है । चन्द्रगुप्त नामक अन्य राजा तो बहुत समय १. विउलइरिसिहरि कम्मट्टषत्तु सिद्धालय-सासयमोक्खपत्तु ।
----जंबूसामिचरिउ,१०।२४. २. गंदी य दिमित्तो विदिओ अवराजिदो तइज्जो य ।
गोवद्धणो चउत्यो पंचमओ भदबाहु त्ति ।। पंच इमे पुरिसबरा चउबसपुष्वी जगम्मि विक्लाया । ते बारस अंगषरा तित्थे सिरिवहमाणस्स ।। पंचाण मेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं ।
वीदम्मि पंचमए भरहे सुदकेवली पत्थि ॥-तिलोयपण्णत्ती ४।१४८२-१४८४. ३. जनसाहित्यका इतिहास, पूर्वपीठिका, प्रथम संस्करण, पृ० ३४३.
तीपंकर महावीर और उनको देशना : ३१३
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पश्चात हुए हैं। अतः उनके श्रुतकेवलौ भद्रबाहुके समकालीन होनेका प्रश्न ही नहीं है ।"
मगधमें जब बारह वर्षका महाभिक्ष पड़ा तो भद्रबाहुके नेतृत्वमें जैनसंघ दक्षिणकी ओर गया और कर्णाटक देशके श्रवणबेलगोल नामक स्थानको अपना केन्द्र बनाया । श्रुतके वली भद्रबाहुने दक्षिण भारतमें ही समाधिमरण ग्रहण किया।
पश्चात् एकसौ तेरासी वर्ष में ग्यारह मुनि दश पूर्वके धारक हुए। अनन्तर दोसौ बीस वर्ष में पाँच मुनि ग्यारह अंगके धारी हुए । तदनन्तर एकसों अठारह वर्ष में सुभद्रगुरू, जयभद्र', यशोवाहु और महापूज्य लोहार्य ये चार मुनि आचारांगके धारी हुए।
इनके पश्चात् महातपस्वी विनयन्धर, गुप्तश्रुत्ति, गुप्तऋषि, मुनीश्वर शिवगुप्त, अर्हबलि, मन्दरार्य, मित्रवीरवि, बलदेव, मित्रक, सिंहबल वीरवित्, पद्मसेन, व्याघ्रहस्त, मागहस्ती, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, सुधर्मसेन, सिंहसेन, सुन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिसेन आचार्य हुए । अनन्तर षद्खण्डागमके ज्ञाता, इन्द्रियजयी जयसेन नामक आचार्य हुए। इनके शिष्य प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशाली और सिद्धान्तपारगामी अमितसेन गुरु हुए। ये पवित्र पुन्नाट गणके अग्रणी-- अग्रेसर आचार्य थे। __ जिनेन्द्र शासनके स्नेही परमतपस्वी, सौ वर्षकी आयुके धारक एवं दाताओंमें मुख्य इन अमितसेन आचार्यने शास्त्रदानके द्वारा पृथिवीमें अपनी वदान्यतादानशीलता प्रकट की थी 1 इन अमितसेनके अग्रज धर्मबन्धु कोतिषेण नामक मुनि थे; जो शान्त, बुद्धिमान और तपस्वी थे । इनके शिष्य जिनसेन प्रथम हुए । इस प्रकार पुत्राटसंघी आचार्योको परम्परा चली।
धवलाटीकाके उल्लेखानुसार पांच श्रुतकेलियोंके पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्टिल, क्षत्रिय, जयाचार्य,नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य एकादश अंग और उत्पादपूर्व आदि दश पूर्वोके धारक तथा शेष चार पूर्वोके एकदेश घारक हुए। ___ इसके पश्चात् नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी,ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पांच अचार्य सम्पूर्ण ग्यारह अंग और चौदह पूर्वक एकदेश धारक हुए । अनन्तर १. हरिवंशपुराण ६६।२३-२४. २. वही, ६६।२५-३३. ३१४ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य परम्परा
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सुभद्र, यशोमंद्र, यशोबाहु और लोहार्यं आचारांग के धारक तथा शेष अंग एवं पूर्वोके एकदेश धारक हुए। इसके अनन्तर धरसेन, भूतंबली, पुष्पदन्त आदि आचार्य हुए । '
इस प्रकार संघका विकास देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार होता गया । निर्ग्रन्थ सर्क प्रधान केन्द्र श्रवणर्वतमाला, मथुरा आदि स्थान तथा श्वेताम्बर संघ के उज्जयिनी, बलभी, प्रतिष्ठान प्रभृति स्थान बने । यद्यपि समयके प्रभाव के कारण अनेक विकृतियां उत्पन्न हुईं, पर तीर्थंकर महावीर के सिद्धान्त अक्षुण्ण रहे ।
आचार्योंकी पट्टावली कई रूपों में मिलती है। इन पट्टावलियोंमें समानता के साथ कई विषमताएं भी उपलब्ध होती हैं ।
१. बदलाटीबर १ पुस्तक, पृ० ६६-६७.
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२. विशेषके लिए देखें - आचार्य परम्परा, द्वितीय तृतीय भाग ।
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ३१५
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अष्टम परिच्छेद
देशना-ज्ञेयतत्व विरासतको उपलब्धि और वितरण
तीर्थकर महावीरके पूर्व तेईस अन्य तीर्थकर हो चुके थे, जिनकी विरासत उन्हें सहजरूपमें उपलब्ध हुई थो । तेईसवें तीर्थंकर पार्वनायको हुए अभी अधिक समय नहीं व्यतीत हुआ था। अत: उनकी परम्परा धर्मदेशनाके रूपमें प्राप्त थी । पार्श्वनाथ महावीरसे केवल २५० वर्ष पूर्व हुए थे। पार्श्वनाथके अनकल्याणकारी उपदेशके सम्बन्धमें कोई निश्चित विवरण प्राप्त नहीं होता, पर जैन और बौद्ध ग्रन्थोंसे यह ज्ञात होता है कि इन्होंने चातुर्याम धर्मका उपदेश दिया था। पार्श्वनाथके समयमें बालतप और यज्ञीय हिंसाकी समस्याएं ज्वलन्त थीं, अत: इन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर अपने उपदेश द्वारा उनका समाधान प्रस्तुत किया ।
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पाश्वनाथ अन्य सोथंकरोंके समान अचेल थे। अतः महावीरको उनसे अचेल-श्रम उपलब्ध हुआ था। यदि पार्श्वनाथ स्वयं सचेलक होते और उनकी परम्परामें साधुओंके लिए वस्त्रकी स्वीकृति होती, तो महावीर स्वयं न तो दिगम्बर रहकर साधना ही करते और न नग्नताको साधुत्वका अनिवार्य अंग मानकर उसे व्यावहारिक रूप ही देते। सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदास दोशीने "जैन साहित्य में विकार" ग्रन्थमें स्पष्ट लिखा है--"किसी वैद्यने संग्रहणीके रोगीको दवाके रूपमें अफीम सेवन करनेकी सलाह दो थी, किन्तु रोग दूर होनेपर भी जैसे जो तपकी गा रहता है, लोर मह इसे नहीं छोड़ना चाहता, वैसी ही दशा इस आपवादिक वस्त्र की हुई।" ___ अत: यह संभव है कि पार्श्वनाथकी परम्पराके साघु मृदुमार्गको स्वीकार कर वस्त्र धारण करने लगे हों और इस आपवादिक वस्त्रको उत्सर्ग मार्गमें ग्रहण कर लिया हो। उत्तराध्ययनके केशो-गौतम संबादमें इस आपवादिक वस्त्रको गन्ध प्राप्त होती है । वस्तुतः महावीरको पार्श्वनाथका सर्वसावद्यत्यागरूप दिगम्बर-मार्ग उपलब्ध हुआ। अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह रूप चातुर्यामधर्ममें सर्वप्राणिहितकी भावना समाहित थी । ब्रह्मचर्यका अन्तर्भाव अपरिग्रहमें किया गया था।
तीर्थकर महावीरने भगवान् पार्श्वनाथके इस धर्ममार्गको आगे बढ़ाया। महावीरके समयमें राजनीतिका आधार धर्म बना हुआ था । वर्ग-स्वार्थियोंने धर्मकी आड़में अपने वर्गके संरक्षण हेतु बहुत प्रकारके नियम-कानून बना डाले थे। ईश्वरके नामपर अभिजात वर्ग विशेष प्रभुसत्ता लेकर उत्पन्न होता था। इसके जन्मजात उच्चत्वका अभिमान स्ववर्गके संरक्षण तक ही नहीं फेला था, किन्तु शुद्र प्रभृति निम्न वर्गके व्यक्तियोंके मानवोचित अधिकार भो अपहृत्त किये जा चुके थे । स्वर्मलाभके लिए बड़े-बड़े यज्ञोंका अनुष्ठान किया जाता था। जो धर्म प्राणिमात्रके लिए सुस्त्र-शान्तिका कारण था, यही हिंसा, विषमता, प्रताड़न और शोषणका अस्त्र बना हुआ था । अतएव तीर्थंकर महावीरने धर्मसमाजके क्षेत्रमें मानवमात्रको समान अधिकार दिये । धर्मसाधनमें जाति, कुल, शरीर और आकारके बन्धनको स्वीकार नहीं किया ।
महावीरने अपनी तप, संयम और ध्यानको साधना द्वारा स्वयं दिव्यज्योति प्राप्त की और तदनन्तर उपलब्ध उस ज्योतिके प्रकाशको जनतामें बोट दिया । उनकी साधनाका आरम्भिक और अन्तिम बिन्दु वीतरागता थी। अन्तर केवल
१. जैन साहित्यमें विकार, पृ० ४०.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ३१७
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पूर्णता और अपूर्णताका है । वीतरागताकी चरम परिणति हो पूर्णता है और देशना पूर्णताको स्थितिमें ही संभव होती है। साधनाके समयमें तो महावीर प्रायः मौन रहे। उन्होंने मौन रहकर ही विभिन्न प्रकारके उपसर्ग और परीषहोंको जीता । मौन साधना ही आत्माके आवरणोंको हटाने में समर्थ होती है ।
काम, क्रोध, मद, लोभ और मोहादि अनन्त विकृतियोंके मूल बीज हैंराग और द्वेष । साधना इसी राग-द्वेषसे मुक्त होनेको दिशामें पुरुषार्थ है। जब आत्मा विकृतियोंसे मुक्त होकर अपने विशुद्ध मूलस्वरूपमें पहुंच जाती है, तो वह सदाके लिए परमशुद्ध बन जाती है। समस्त पदार्थोकी त्रिकालवर्ती गुणपर्याएँ प्रतिभासित होने लगती हैं। यही अवस्था सीर्थकर, सर्वज्ञ और वीतरागकी होती है। महावीरने केवलज्ञान प्राप्त कर विरासतके रूपमें मिले धर्मका अनन्त गुणात्मक रूपमें प्रवचन किया। शेयस्वरूप प्रवचन
तीर्थंकर महावीर अपने समयके महान् तपस्वी ही नहीं थे, बल्कि एक उच्चकोटिके विचारक तत्त्वान्वेषी थे। उन्होंने धर्म, और दार्शनिक विचारोंको साधु-जीवनके चरमोद्देश्य मुक्तिके साथ निबद्ध कर क्रियात्मक रूप दिया। बतलाया कि संसारके बन्धनमें पड़ा हुआ जोव अपने पुरुषार्थ द्वारा कोंके भारसे पूर्ण मुक्त होकर शाश्वत सुख मोक्षको प्राप्त कर सकता है। __ महावीरके समय में मुक्तिके साथ जीवस्वरूप, जीवका अस्तित्व, जगत्का नित्यत्व-अनित्यत्व, आत्माका शरीरसे भिन्न-अभिन्नत्व, लोकस्वरूप, आदि प्रश्नोंको चर्चा विद्यमान थी । अतः उन्होंने धर्म-आचारके निरूपण के पूर्व वस्तुस्वरूपका विवेचन आवश्यक समझा, यतः ज्ञेय या वस्तुके स्वरूप परिझानके बिना शेयको ग्रहण नहीं किया जा सकता । हेयोपादेय की प्रवृत्ति ज्ञेयस्वरूपके परिज्ञानसे ही होती है । अहिंसा, सत्य, अवौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका आचरण भी लेयको जानकारीके अभाव में संभव नहीं। अतएव ज्ञेयस्वरूप, ज्ञेयके भेद-प्रभेद, उनका सर्वाविवेचन तथा लोकव्यवस्था आदिके सम्बन्धमें देशना हई । जनसाधारणके सम्मुख उठनेवाले जीवादि-सम्बन्धी प्रश्नोंका समाधान भी शेयके अन्तर्गत समाहित है । अतः तीर्थकर महावीरके मुखसे पहला वाक्य-"उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' निकला। अर्थात् वस्तु-प्रतिक्षण उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव रहती है । ये तीनों ही अवस्थाएँ जिसमें रहती हैं, बहो ज्ञेय है, वस्तु है, पदार्थ है।
आशय यह है कि जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है, वही सत् है और ३१८ : तोपंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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जो सत् है वही द्रव्य है । उत्पाद उत्पत्तिको व्यय विनाशको और नौव्य अवस्थितिको कहते हैं । इन तीनोंका परस्पर में अविनाभाव है- उदके दिना arय नहीं होता, व्ययके विना उत्पाद नहीं होता और धीव्य या स्थितिके विना उत्पाद और व्यय नहीं होते'। दूसरे शब्दों में जो उत्पाद है, वही व्यय है, जो व्यय है बही उत्पाद है और जो उत्पाद व्यय है, वहीं स्थिति है तथा जो स्थिति है वही उत्पाद व्यय हैं । उदाहरणार्थ यों कहा जा सकता है कि जो घटको उत्पत्ति है, वही मिट्टी में पिण्डका विनाश है, यतः भाव अन्य भावके अभावरूपसे दृष्टिगोचर होता है । जो मिट्टी के पिण्डका विनाश है, वही घड़ेका उत्पाद है, क्योंकि अभाव अन्य भावके भाव रूपसे दिखलायी पड़ता है और जो घटका उत्पाद तथा मिट्टी के पिण्डका विनाश है, वही मिट्टीकी स्थिति है, क्योंकि व्यतिरेक अन्वयका अतिक्रमण नहीं करता |
P
यदि उपर्युक्त स्थितिको स्वीकार नहीं किया जाय, तो उत्पत्ति अन्य विनाश अन्य और स्थिति अन्य प्राप्त होंगे। वस्तुमें व्यय और प्रोव्यके बिना केवल उत्पादको ही माना जाय तो घटकी उत्पत्ति संभव नहीं होगी; क्योंकि मिट्टी की स्थिति और उसकी पिण्ड-पर्याय के विनाशके बिना घट उत्पन्न नहीं हो सकेगा । यदि उत्पन्न होगा तो असत्का उत्पाद मानना पड़ेगा | एक बाल यह भी होगी कि जिस प्रकार घट उत्पन्न नहीं होगा, उसी प्रकार अन्य पदार्थ भी उत्पन्न नहीं होंगे ।
असत्का उत्पाद माननेपर आकाश कुसुम जैसी असंभव वस्तुओं का भी उत्पाद मानना होगा |
१. ण भवो भंगविणो भंगो वा पत्थि संभवविहोणो । उप्पादो यि भंगो ण त्रिणा धोवेण
अत्येण ॥
- प्रवचनसार, गाथा १००.
1
२. न खलु सर्गः संहारमन्तरेण न संहारो वा सर्गमन्तरेण न सृष्टिसंहारो स्थितिम न्तरेण न स्थितिः सगं संहारमन्तरेण । य एव हि सर्गः स एव संहारः य एव संहारः स एव सर्गः या वेद सर्गसंहारी सेव स्थितिः, यैव स्थितिस्तावेव सर्गसंहाराविति । तथा हि- ह य एव कुम्भस्य सर्गः स एव मृत्खिण्डस्य संहारः, भावस्य भावान्तराभावस्वभावेनावभासनात् । य एव च मृत्पिण्डस्य संहारः स एव कुम्भस्य सर्ग, अभावस्य भावान्तरभवस्वभावेनावभासनात् । यो च कुम्भपिण्डयोः सर्वसंहारी संघ मृत्तिकाया: स्थितिः, व्यतिरेकमुखेन वान्वयस्य प्रकाशनात् । मैव च मृत्तिकायाः स्थितिस्तावेव कुम्भपिण्डयोः सगं संहारी, व्यतिरेकाणामन्ययानतिक्रमणात् । - प्रवचनसार, गाया १०० की अमृतचन्द्राचार्य-टीका.
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इसी प्रकार उत्पाद और ध्रौव्यके विना कैवल व्यय माननेपर व्ययके कारण
लभाव होनेसे मिट्टी के पिणका विनाश नहीं हो सकेगा । यदि उक्त स्थितिमें विनाश होगा तो सत्के उच्छेदका भी प्रसंग आएमा ।
मिटीके पिण्डका विनाश होनेपर सभी पदार्थोका विनाश नहीं होगा और सत्का उच्छेद होनेसे चैतन्यादिका भी उच्छेद हो जायगा । उत्पाद और व्ययके विना केवल स्थिति माननेपर व्यतिरेक सहित स्थितिरूप अन्वयका अभाव होनेसे मिट्टीकी स्थिति ही नहीं रहेगी अथवा केवल क्षणिकत्वको प्राप्त हो जायगा। मिट्रोकी स्थिति नहीं होनेपर सभी पदार्थों की स्थिति नहीं होगी । क्षणिकनित्यता. में बौद्धसम्मत चित्तक्षण भी नित्य हो जायंगे। अत्तः पूर्व-पूर्व पर्यायोंके विनाश, उत्तरोत्तर पर्यायोंके उत्पाद तथा अन्वयरूप की । स्थितिसे अविनाभूत लक्षण्य ही ज्ञेय-पदार्थका स्वरूप है । यही सत् है और सत् ही द्रव्य है।
उक्त विलक्षणात्मक पदार्थ या द्रव्यके माननेसे वैशेषिक आदि अन्य दर्शनोंके समान गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव नामक पृथक् पदार्थ माननेकी आवश्यकता नहीं है, ये सब द्रव्यको अवस्थाएं हैं।
तीर्थकर महावीरने अपने इस श्रिपदी मातृका-वाक्य द्वारा वस्तुके एकान्तरूप नित्यत्व और अनित्यत्व-क्षणिकत्वको समीक्षा की। उन्होंने उद्घोषित किया कि इस विश्वमें न कोई वस्तु सर्वथा नित्य है और कोई सर्वथा क्षणिक ही । दोनों समस्वभाव हैं। जैसे आकाश द्रव्यरूपसे नित्य है, उसी प्रकार दीपक भो नित्य है और जिस प्रकार पर्यायरूपसे दीपक क्षणिक है, उसी प्रकार आकाश भी -- - ... .. .-. . . . ... १. यदि पुनर्नेदमेवमिध्येत तदान्य: सर्गोऽन्यः संहारः अन्या स्थितिरित्यायाति । तथा
सति हि केवलं सगं मुगयमाणस्य कुम्भस्योत्पादन कारणाभावादभवनिरेव भवेत्, असदुत्पाद एव वा। तत्र कुम्भस्याभवनौ सर्वेषामेव भावानामभवनिरव भवेत्। असदुत्पादे वा न्योमप्रसवादीनामप्युत्पादः स्यात् । तथा केवलं संहारमारभमाणस्य भूपिण्डस्य संहारकारणाभाबादसहरणिरव भवेत्, सदुच्छेद एव वा। तत्र मृत्पिण्डस्यासहरणी सर्वेषामेव भावानामसंहरणिरेव भवेत्। सदुच्छेदे वा संदादोनामप्युच्छेदः स्यात् । तथा केवलो स्थितिम्पगच्छन्त्या मृत्तिकाया व्यतिरेकाक्रान्तस्थिस्यन्वयाभावादस्थानिरव भवेत्, क्षणिनित्यत्वमेव वा। तत्र मुक्तिकाया अस्थानो सर्वेषामेव भावानामस्थानिरव भवेत् । क्षणिकनित्यत्वे का चित्तक्षणानामपि नित्यत्वं स्यात् । तत उत्तरोत्तरध्यतिरेकाणां सर्गण पूर्वपूर्वध्यतिरेकाणां संहारेणान्वयस्थावस्थानेनादिनाभूतमुयोतमाननिर्विघ्नत्रलक्षण्यलाग्छनं द्रव्यमवश्यमनुमन्तव्यम् ।-प्रवचनसार, गाथा १००की
अमृतवन्द्र-टीका. ३२० : तीर्थकर महावीर और उनकी भाचार्य-परम्परा
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क्षणिक है । यतः प्रत्येक सत् उत्पाद-व्यय- श्रीव्यात्मक है' । अतएव आकाश भी उत्पाद, व्यय और धीव्यरूप है, उसमें भी प्रतिक्षण उत्पाद, व्ययकी धारा चल रही है । पर इस धाराके चलनेपर भी आकाशका स्वभाव कभी नष्ट नहीं होता । वस्तु के प्रतिक्षण परिवर्तनशील होते हुए भी उसमें एक प्रवाहित हवी है । इसे ही द्रव्यरूप कहते हैं और परिवर्तनको पर्यायरूप । अतः वस्तु या पदार्थ द्रव्यपर्यायात्मक है ।
उत्पाद, व्यय और धीव्य पर्यायोंमें होते हैं और पर्यायें द्रव्यमें स्थित हैं । तथ्य यह है कि किसी भाव अर्थात् सत्यका अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्यायरूपसे उत्पाद, व्यय और घोष्य युक्त रहते हैं । विश्वमें जितने सत् हैं, वे त्रैकालिक सत् हैं। उनको संख्या में कभी परिवर्तन नहीं होता; पर उनके गुण और पर्यायोंमें परिवर्तन अवश्य होता है, इसका कोई अपवाद नहीं हो सकता है |
प्रत्येक सत् परिणामशील होनेसे उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त है । वह पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्याय धारण करता है। उसके पूर्व पर्यायोंके व्यय और उत्तर पर्यायोंके उत्पादको यह धारा अनादि-अनन्त है, कभी भी विच्छिन नहीं होती। चेतन अथवा अचेतन सभी प्रकार के सत् उत्पाद, व्यय और प्रोव्यकी परम्परासे युक्त हैं । यह त्रिलक्षण पदार्थका मौलिक धर्म है, अतः उसे प्रतिक्षण परिणमन करना ही चाहिए। ये परिणमन कभी सदृश होते हैं और कभी विसदृश तथा ये कभी एक दूसरे के निमित्तसे भी प्रभावित होते हैं। उत्पाद, व्यय और श्रव्यको परिणमन-परम्परा कभी भी समाप्त नहीं होती । अगणित और अनन्त परिवर्तन होनेपर भी वस्तुकी सत्ता कभी नष्ट नहीं होती और न कभी उसका मौलिक द्रव्य ही नष्ट होता है। उसका गुणपर्यायात्मक स्वरूप बना रहता है ।
साधारणतः गुण नित्य होते है और पर्याय अनित्य । अतः द्रव्यको नित्यानित्य कहा जाता है । उत्पाद, व्यय और श्रीव्यात्मक सत् ही द्रव्य है । सत् के सम्बन्धमें चार मान्यताएँ प्रचलित हैं:१. सत् एक और नित्य है 1
१. उत्पादव्ययश्रीव्ययुक्तं सत्-तत्त्वार्थसून ५/३०. २. उप्पादट्ठदिभंगा विज्जेते पज्जएसु पञ्जाथा । दवे हि संति वियदं तम्हा दव्यं हयदि सम्बं ॥
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— प्रवचनसार - गापा १०१.
वीकर महावीर और उनकी देशना : ३२१
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२. सत् नाना और उत्पाद-व्यय-विशरणशील है ।
३. सर और असत् दोनों हैं तथा सत् कारणद्रव्योंकी अपेक्षा नित्य और कार्यद्रव्योंकी अपेक्षा अनित्य है।
४. सत्के वेतन और अवेतन भो ६ हैं। त्रि है और अगन परिणामी नित्य है। __ तीर्थंकर महावीरने सत् या पदार्थके सम्बन्धमें प्रचलित उक्त धारणाओंकी समीक्षा करते हुए पदार्थ या सत्को न तो सर्वथा नित्य कहा और न सर्वथा अनित्य ही। कारणद्रव्यको सर्वश्रा नित्य माननेसे अर्थक्रियाकारित्वका विरोध आयगा और वस्तु निष्क्रिय सिद्ध हो जायगी । कार्यद्रथ्यकी अपेक्षा सर्वथा अनित्य माननेसे भी वस्तु-उच्छेदका प्रसंग आयेगा । अतएव अपनी जातिका त्याग किये विना नवीन पर्यायको प्राप्ति उत्पाद है, पूर्व पर्यायका त्याग व्यय है और अनादि पारिणामिक स्वभावरूपसे अन्वय बना रहना प्रौव्य है। ये उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सत् या द्रवपके निज रूप हैं।
तथ्य यह है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है और उसमें वह परिवर्तन प्रतिसमय होता है। उदाहरणार्थ एक नन्हें शिशुको लिया जा सकता है। इस शिशुमें प्रशिक्षण परिवर्तन हो रहा है, अतः कुछ समय बाद वह युवा होता है
और तदनन्तर बृद्ध । शंशवसे युवकत्व और युबकत्वसे वृद्धत्वको प्राप्ति एकाएक नहीं हो जाती है । ये दोनों अवस्थाएं प्रतिक्षण होनेवाले सूक्ष्म परिवर्तनका हो परिणाम हैं । यह यहाँ ध्यातव्य है कि प्रतिक्षण होनेवाला यह परिवर्तन इतना सुक्ष्म होता है कि हम उसे देखने में असमर्थ हैं। पर इस परिवर्तनके होनेपर भी उस शिशु में एकरूपता बनी रहती है, जिसके फलस्वरूप वह अपनी युवा और वृद्ध अवस्थामै भी पहचाना जाता है। यदि विलक्षणात्मक न मानकर द्रव्यको केवल नित्य मानें, तो उसमें कूटस्थ नित्यता आ जायगी और किसी भी प्रकारका परिणमन नहीं हो सकेगा। यदि अनित्य मान लिया जाये तो आत्माके सर्वथा क्षणिक होनेसे पूर्व में ज्ञात किये गये पदार्थोका स्मरण आदि व्यापार भी नहीं बन सकेगा।
द्रव्यमें गुण नद होते हैं और पर्याय उत्पाद-विनाशशील | अतः उत्पादव्ययप्रौव्यात्मकका अभिप्राय गुणपर्यायात्मकसे है। द्रव्यके इन तीनों लक्षणों से एकके कहनेसे शेष दो लक्षण स्वतः व्यक्त हो जाते हैं, क्योंकि जो सत् है, वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है और गुण-पर्यायका आश्रय भी है तथा जो गुणपर्यायात्मक है, वह सत् है और उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यसे संयुक्त है । ३२२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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महावीरने सत्त्वको त्रयात्मक बताया है। इस त्रयात्मकताको मिद्धि निम्नलिखित उदाहरण द्वारा होती है:
एक राजाके एक पुत्र और एक कन्या थी। राजाके पास एक स्वर्णकलश है । कन्या उस कलशको चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस कलशको तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्रको हठ पूरो करनेके लिए कलशको तुड़वाकर उसका मुकुट बनवा देता है। कलशनाशसे कन्या दुःखी होती है, मुकुटके उत्पादसे पुत्र प्रसन्न होता है। पर राजा तो स्वर्णका इच्छुक है, जो कलश टूटकर मुकुट बन जानेपर भी मध्यस्थ रहता है, उसे न शोक होता है और न हर्ष । असः वस्तु त्रयात्मक है।'
एक अन्य उदाहरण भी मननीय है:
जिसने केवल दूध ही सेवन करनेका त लिया है, वह दही नहीं खाता । जिसने केवल दही खानेका व्रत लिया है, वह दूध नहीं खाता और जिसने गोरसमात्र न खानेका व्रत लिया है, वह न दूध खाता है और न दही; क्योंकि दूध और दही दोनों गोरसको पर्यायें हैं, अतः गोरसत्त्व दोनों में है । अतएव सिद्ध होता है कि वस्तु उत्पाद-व्यय-धौम्यात्मक है।
इस प्रकार तीर्थंकर महावीरने पदार्थका स्वरूप त्रयात्मक कहा। वस्तुतः प्रत्येक पदार्थ मनन्तधर्मात्मक है । इसे संक्षेपमें सामान्यविशेषात्मक भी माना जा सकता है। स्वरूपास्तित्व और त्रयात्मकता ____ अस्तित्व दो प्रकारका है:-(१) स्वरूपास्तित्व और (२) सादृश्यास्तित्व । प्रत्येक द्रव्य या पदार्थको अन्य सजातीय अथवा विजातीय द्रव्यसे असंकीर्ण रखनेवाला और उसके स्वतन्त्र व्यक्तित्वका प्रयोजक स्वरूपास्तित्व है। इस १. पटमानिसुवार्थी नाशोत्पादस्पितिव्वयम् । शोषप्रमोदमाम्यस्थ्यं अनो याति सहेतुकम् ॥
-आप्तमीमांसा, पछ ५९. २. सोयोन सम्पत्ति न पवोत्ति दषिवतः । बोलतो मोय तस्मातत्वं भवात्मकम् ॥
-वही, पच ६.. 1, सम्माचो हि बहाचो गुणेहि सगपाएहि चिहि । दम्पस सव्वकालं उप्पादव्ययधूवत्तेहिं ।।
अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्थ स्वभावः, तत्पुनरन्यसाधननिरंपेक्षरवादनाचनाततया हेतुकर्यकरूपतया वृत्त्या मित्रप्रवृत्तवाविभावधर्मवेलक्षण्याच्च, भावभाववद्मावाला
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना । ३२३
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अस्तित्वके कारण प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें अपनेसे भिन्न किसी भी सजातीय या विजातीय द्रव्यकी पर्यायोंसे असंकीर्ण बनी रहती हैं, जिससे उनका पृथक् अस्तित्व पाया जाता है । यह स्वरूपास्तित्व दो कार्य सम्पन्न करता है:
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(१) प्रत्येक ब्रव्यको इतर द्रव्योंसे व्यावृत - पृथक् करता है । (२) अपने कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें अनुगत रहता है । स्वरूपास्तित्वके कारण अपनी पर्यायों में अनुगतप्रत्यय - अनुगताकारप्रतीति, उत्पन्न होती है और इतर द्रव्योंसे व्यावृत्त प्रत्यय भी । इस स्वरूपास्तित्वको ऊर्ध्वता सामान्य और अवान्तरसत्ता भी कहा जाता है। आशय यह है कि प्रत्येक द्रव्यके जितने अखण्ड प्रदेश हैं, वह द्रव्य उतने प्रदेशोंके साथ अपनी सत्ताको दूसरे द्रव्यसे पृथक् रखता है तथा उसकी इस अवान्तर अथवा पृथक सत्ता में ही गुणपर्यायत्व या उत्पाद-व्यय- धोब्यत्व रहते हैं । जहाँ द्रव्यका अस्तित्व है, वहीं उसके गुण-पर्याय हैं और वहीं उनके उत्पाद, व्यय एवं श्रीव्य हैं। न कोई द्रव्य कभी अपनी सत्ताको छोड़ता है, न गुण-पर्यायोंको और न उत्पाद, व्यय, धौव्यको ही। यहां द्रव्य है, यही अपने क्रमिक पर्यायों द्वारा द्रवित - प्राप्त होता है !
स्वरूपास्तित्वको ही धौव्य माना जाता है। किसी एक द्रव्य के प्रतिक्षण परिणमन करते रहनेपर भी उसका किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपसे परिणमन नहीं होना धौव्य है । इस स्वरूपास्तित्वके ही द्रव्य, श्रव्य अथवा गुण नामान्तर हैं। स्वरूपास्तित्व अथवा धीव्य गुणके कारण ही प्रतिक्षण पर्यायरूपसे परिवर्तन होनेपर भी उसकी अनाद्यनन्त स्वरूपस्थिति बनी रहती है और इसी कारण द्रव्यका समूलोच्छेद नहीं हो पाता । यह काल्पनिक नहीं है, परमार्थ सत्य है |
सादृश्यास्तित्व और त्रयात्मकता
नाना द्रव्योंमें अनुगत व्यवहार करनेवाला सादृश्यास्तित्व होता है । इसे तिर्यक् सामान्य या सादृश्यसामान्य कहते हैं । अनेक स्वतन्त्र सत्तावाले द्रव्यों में
नापि प्रदेशरभेदाभावाद् द्रव्येण सहेकत्वमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् । तत्तु द्रव्यान्तराणामिव द्रव्यगुणपर्यायाणां न प्रत्येकं परिसमाप्यते । यतो हि परस्परसाषित सिद्धिकत्वा तेषामस्तित्वमेकमेव, कार्तस्वरषत् ।
- प्रवचनसार, गाथा ९६ तथा अमृतचन्द्राचार्य टीका.
१. वह विविद्दलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं । उवदिसा खलु धम्मं जिणवरवसहेज पण्णत्तं ॥ --प्रवचनसार, गाया ९७.
३२४ तीर्थंकर महावीर और उनकी जाचार्य - परम्परा
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अनुगत प्रत्ययकी कल्पना सम्भव नहीं, यतः स्वतन्त्र सत्तावाले द्रव्योंमें अनुस्यूत कोई एक पदार्थ हो ही नहीं सकता | इसे पृथक् सत्तावाले द्रव्योंकी संयुक्त पर्याय तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक पर्याय में दो अतिमिनक्षेत्रवर्ती द्रव्य उपादान नहीं होते | जिस व्यकिने अनेक मनुष्योंमें बहुतसे अवयवोंकी समानता देखकर सादृश्यकी कल्पना की है, उसीको उस सादृश्यके संस्कारके कारण 'मनुष्यः मनुष्यः' इस प्रकारको अनुगस प्रतीति होती है। मतएव दो विभिन्न द्रव्योंमें अनुगत प्रतीतिका कारणभूत सादृश्यास्तित्व मानना पड़ता है, इसे ही महासत्ता कहा जाता है।
अभिप्राय मह है कि एक दासी शेयोंम भनुपराजय वा सामान्यसे होता है और व्यावृत्तप्रत्यय पर्यायनामके विशेषसे । दो विभिन्न द्रव्योंमें अनुगतप्रत्यय तिर्यक् सामान्य-सदृश्यास्तित्वसे तथा व्यावृत्तप्रत्यय व्यतिरेकनामक विशेषसे होता है। तिर्यक सामान्यरूप सादृश्यको अभिव्यक्ति यपि पर-सापेक्ष है, किन्तु उसका आधारभूत प्रत्येक द्रव्य अलग-अलग है । यह उभयनिष्ठ न होकर प्रत्येकमें परिसमाप्त है। ___सामान्यविशेषात्मक अथवा अनन्तधर्मात्मक वस्तु या पदार्थमें ध्रौव्यांशको अवंतासामान्य और उत्पाद-व्ययको पर्याय नामक विशेष कहा जाता है। यदि केवल स्वरूपास्तित्वरूप ऊर्ध्वतासामान्यको ही स्वीकार किया जाय, तो वस्तु विकालमें सर्वथा एकरस, अपरिवर्तनशील और कूटस्थ बनी रहेगी। इस प्रकारके पदार्थमें कोई परिणमन न होनेसे जगत्के समस्त व्यवहार उच्छिन्न हो जायंगे । कोई भी क्रिया कार्यकारी नहीं हो सकेगी। पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष आदिको व्यवस्था भी नष्ट हो जायगी । अतः वस्तु या पदार्थ में परिवर्तन स्वीकार करना होगा।
इसी प्रकार यदि पदार्थको पर्यायनामक विशेषके रूपमें ही स्वीकार किया जाय अर्थात् क्षणिक माना जाय, तो पूर्वक्षणका उत्तरक्षणके साथ कोई सम्बन्ध ही घटित नहीं हो सकेगा।
अतएव पदार्थ या वस्तु सामान्य-विशेष, एक-अनेक, विधिनिषेध आदि परस्परविरुद्ध प्रतीत होनेवाले समस्त धर्मोफे समन्वयका पिण्ड है। वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर उसमें उत्पाद-व्यय सम्भव नहीं हैं, अतएव क्रिया कारकको योजना भी नहीं बन सकती है। इसी प्रकार जो सर्वथा असत् है, उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सत् है, उसका कभी नाश नहीं होता। दीपकके बुझ जानेपर भी उसका सर्वथा नाश नहीं माना जाता, यतः उस समय अन्धकार
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रूप पुद्गल-पर्यायके रूप में उसका अपना अस्तित्व रहता है।' दव्य : लक्षण ___जो मौलिक पदार्थ अपनी पर्यायोंको क्रमशः प्राप्त होता है, वह द्रव्य है। अथवा अनेक गणोंके अविष्वग्भावविशिष्ट अखण्ड पिण्डको द्रव्य कहते हैं। द्रव्यके नामान्तर पदार्थ, वस्तु और तत्त्व भी हैं। द्रव्यके 'सद्भाव्यलक्षणं' और 'गुणापर्य यवद् ये दो लक्षण प्रसिद्ध हैं । इन दोनों लक्षणोंमें परस्पर-विरोध नहीं है, किन्तु अपेक्षाविशेषसे दोनों एक ही अभिप्रायके समर्थक हैं।
द्रव्य एक अखण्ड पदार्थ है और वह अनेक कार्य करता है। इस कारणकार्यसे अनुमिस कारणरूप शक्त्यंशोंकी कल्पना की जाती है तथा इन शक्त्यंशोंको ही गण कहते हैं। ये गुण उम अस्खण्ड पिण्ड स्वरूप द्रव्यसे भिन्न सत्तावाले कोई भिन्न पदार्थ नहीं हैं। इन गुणोंका समुदाय ही द्रव्य है और जो द्रव्य है, वही गुण हैं । द्रव्यसे भिन्न गुण नहीं और गुणोंसे भिन्न द्रव्य नहीं है ।
उक्त दोनों द्रव्यलक्षणोंका अभिप्राय द्रव्यका कश्चित् नित्यानित्यात्मक होना है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप सत्में ध्रौव्य नित्यका और उत्पाद, व्यथ उत्पत्ति तथा नाशके सूचक हैं। जिसमें उत्पत्ति और नाश होते हैं, वह अनित्य तथा प्रौव्यके रहनेसे नित्य माना जाता है। इस प्रकार द्रव्य कथञ्चित नित्यानित्य सिद्ध होता है। 'गणपयंगबद्दव्यं' लक्षणमें भी गण नित्य धर्मके सूचक और पर्याय अनित्य धर्मका बोधक हैं। अतएव दोनों लक्षणोंका तात्पर्य
गुण : स्वरूप और भेष
शक्तिविशेषको गुण कहते हैं. इसमें अन्य शक्तिका बास नहीं रहता, इसलिए इसे निर्गुण कहा जाता है । गुणका पर्याय स्वभाव और विशेषको भी माना जाता है। जिस प्रकार आम्रफलमें भिन्न-भिन्न इन्द्रियगोचर स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि अनेक गण दष्टिगोचर होते हैं, उसी प्रकार जोव, पुद्गल आदि प्रत्येक द्रव्यमें अनेक गुण विद्यमान रहते हैं । ये गुण द्रव्यसे भिन्न नहीं हैं । उदाहरणार्थ यो समझा जा सकता है कि जिस प्रकार मूल, स्कन्ध, शाखा, पत्र, पुष्प और फलोंके समुदायको वृक्ष कहते हैं, तथा मूल, स्कन्ध आदि वृक्षसे भिन्न पदार्य नहीं हैं, उसी प्रकार गुणोंका जो समुदाय है, वही द्रव्य है । गुणोंसे द्रव्य कोई भिन्न पदार्थ नहीं है। १. न सर्वथा निस्यमुदेश्यपैति न च क्रियाकारकमा मुकम् ।
नवासप्तो सम्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति । स्वयम्भूस्तोत्र,पय२४. ३२६ । तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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द्रव्यमें अनन्त गुण विद्यमान हैं । इन्हें साधारणतः दो वर्गोमें विभक्त किया जा सकता है:--(१) सामान्यगुण और (२) विशेषगुण ।
जो गण अनेक द्रव्योंमें पाये जाते हैं, वे सामान्य गुण हैं। सामान्यगुणके मुख्य छ: भेद हैं:--(१) अस्तित्व, (२) वस्तुत्व, (३) द्रव्यत्व, (४) प्रमेयत्व, (५) अगसलघुत्व अार (६) प्रदेशवत्व ।
जिस क्ति के निमित्तसे द्रव्यका कभी भी अभाव नहीं होता, सदा अस्तित्व चना रहता है, उसे अस्तित्व कहते हैं।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें अर्थक्रियाकारित्व विद्यमान रहता है, उसे यत्व कहते हैं । इस गुफ कारण ही द्रव्य में अपीयाकी प्रवृत्ति दी है।
जिस शक्तिके निमित्त द्रव्य अर्थात् उसके समस्त गुण प्रतिक्षण एक अवस्थाको त्यागकर अन्य अवस्थाको प्राप्त होते हैं, उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं । इस गुणके कारण द्रव्य परिणामान्तर अर्थात् पर्यायरूप परिणमन करता है ।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य किसी न किसी ज्ञानका विषय हो, उसे प्रमेयत्व कहते हैं । इस गुणको सद्भावसे द्रव्य प्रमाणका विषय बनता है।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यको अनन्त शक्तियां एक पिण्डरूप रहती हूँ तथा एक शक्ति दुसरी शक्तिरूप परिणमन नहीं करती, उस शक्तिको अगुरुलघुल्न गुण कहते हैं ।
जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें आकारविशेष होता है, उसे प्रदेशवत्व गुण कहते हैं।
ये छ: गुण सामान्य हैं, क्योंकि सभी द्रव्योंमें पाये जाते हैं । चेतनत्व, मूतत्व और अभूतत्व आदि विशेषगुण हैं, क्योंकि ये गुण खास द्रव्यों में ही पाये जाते हैं। गुण द्रव्यका सहभावी विशेष है। गण व्यसे पथक नहीं पाये जाते हैं। इन्हें भी द्रव्यके समान कञ्चित् नित्य और कञ्चित् अनित्य माना गया है। उदाहरणार्थ यों कहा जा सकता है कि जीवमें ज्ञान, पुद्गलमें मत्तत्व और धर्मद्रव्यमें अमूर्तत्व गुणोंका अन्वय सदा दृष्टिगोचर होता है। ऐसा समय कभी न तो प्राप्त हुआ है और न प्राप्त होगा, जिसमें ज्ञानादि गुणोंका अभाव रहे । इससे ज्ञात होता है कि ज्ञानादि गुण नित्य हैं और उनकी यह नित्यता प्रत्यभिज्ञानसे सिद्ध है। विषय-भेदसे जीवका ज्ञानगुण परिवर्तित हो सकता है। जब वह घटको जानता है, तब ज्ञान घटाकार हो जाता है और जब' पटको जागता है, तो पटा. कार परिणत हो जाता है। पर ज्ञानकी धारा कभी भी विच्छिन्न नहीं होती।
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अतएव ज्ञानसन्तानकी अपेक्षा ज्ञान गुण नित्य है। इसी नित्यको धौथ्य भी कहा जाता है । अपरिणामी ध्रुवत्व इष्ट नहीं हैं। फलितार्थ यह है कि गुण विविध अवस्थाओंमें रहकर भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ता, इसी कारण वह नित्य कहा जाता है । यथा-हरा आम पकने पर पीत हो जाता है, तो भी उससे रंग पृथक् नहीं रहता है । इससे स्पष्ट है कि वर्ण, नित्य है यही सिद्धान्त समस्त गुणोंके सम्बन्ध है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नित्यताका अर्थ सर्वदा एक-सा बना रहना नहीं है, अपितु परिणमनशीलतायुक्त सततप्रवहमान रहना भी है। किसी भी वस्तु या गुणमें विजातीय परिणमन नहीं होता। जीव बदल कर पुद्गल या अन्य द्रव्यरूप नहीं होता और पुद्गल या अन्य द्रव्य बदलकर जीवरूप नहीं होता। जीव सदा जीव ही बना रहता है और पुद्गल पुद्गल हो । जो द्रव्य जिस रूप में है, उसी रूपमें बना रहता है । जीव चींटीसे हाथी या मनुष्य हो सकता है, पर जीवस्यको कभी नहीं छोड़ सकता । अतएव प्रत्येक वस्तु या गणमें सजासीय परिणमन निरन्तर होता रहता है । प्रायः देखा जाता है कि हमारी बुद्धि विषयके अनुसार सदा परिवर्तित होती है। जो बुद्धि वर्तमानमें पटको जान रही है, वह कालान्तरमें घटको जानने लगती है । इस प्रकार हरा आम कालान्तरमें पीला हो जाता है। अतः इस प्रकार परिणमनोंकी भिन्नताके कारण ही गुणोंको सर्वथा नित्य नहीं माना जा सकसा । इससे सिद्ध है कि गुण कथञ्चित् अनित्य भी हैं ।
तत्त्वतः गुण और पर्याय सर्वथा पृथक्-पृथक् सिद्ध नहीं होते, ये कथञ्चित भेदाभेदात्मक हैं। यदि गुणोंको सर्वथा नित्य और पर्यायोंको सर्वथा अनित्य माना जाय, तो अर्थक्रियाकारित्वका विरोध आता है । गुण और पर्यायोंसे पृथक् द्रव्य नाम की कोई वस्तु नहीं है।
जिस प्रकार वस्तु परिणमनशील है, उसी प्रकार गुण भी परिणमनशील है, अतः निश्चयतः गणमें भी उत्पाद और व्यय ये दोनों होते हैं, उनमें नौव्यकी स्थिति गुणसन्ततिको अपेक्षा प्रत्यभिज्ञानसे सिद्ध है। अतएव गुण स्वयंसिद्ध और परिणामी भी हैं, इसलिए नित्य और अनित्यरूप होनेसे उनमें उत्पाद-व्यय. ध्रौव्यात्मकता भी सिद्ध है।
संक्षेपमें द्रव्यमें भेद करनेवाले धर्मको गुण कहते हैं अथवा जो द्रव्यको द्रव्यान्तरसे पृथक् करता है, वह गुण है । वस्तुफी सहभावी विशेषताका वाचक भो गुण है । द्रव्यके विस्तार-विशेषको भी आचायोंने गुण माना है । गुणके अन्य प्रकारसे तीन भेद हैं:-१. साधारण, २. असाधारण, ३. साधारणासाधारण ।
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वस्तुस्वरूप विवेचनकी दृष्टिसे गुणोंके चार भी भेद हैं:- १. अनुजीवी, २. प्रतिजीवी, ३. पर्यायशक्ति x. आपेक्षिक रूप ।
गुणोंके स्वभाव और विभावकी अपेक्षा से भी भेद संभव हैं ।
भावस्वरूप गुण अनुजीवी कहलाते हैं । यथा – सम्यक्त्व, चारित्र, सुख, चेतना, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि । वस्तुके अभाव स्वरूप धर्मको प्रतिजीवी कहा जाता है । यथा --- नास्तित्व, अमूर्त्तत्व, अचेतनत्व आदि । प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभात्र ये प्रतिजीवी गुणस्वरूप अभावांश होते हैं।
प्रकारान्तरसे सामान्यगुणके दस भेद हैं: - ( १ ) अस्तित्व, ( २ ) वस्तुत्व, (३) द्रव्यत्व, (४) प्रमेयत्व (५) अगुरुलघुत्व, (६) प्रदेशत्व, (७) चेतनत्व, (८) अचेतनत्व, (९) मूर्त्तत्व और (१०) अमूर्तत्व । इन दस गुणोंमेंसे प्रत्येक द्रव्यमें आठ-आठ गुण रहते हैं । यतः जीवद्रव्यमें अचेतनत्व और मूतत्व नहीं हैं तथा पुद्गलमें चेतनत्व और अमूर्तत्व नहीं है । धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यों में चेतनत्व और मूत्तत्वगुणका अभाव है। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्यमें आठ-आठ गुण पाये जाते हैं। आपेक्षिक गुणों में नास्तित्व, एकत्व, अत्यत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व और अभोक्तृत्वकी गणना की जाती है ।
गुणोंके साधारणत्व और असाधारणत्वका निर्देश करते हुए बतलाया है कि ज्ञानादि गुण स्वजातिकी अपेक्षा साधारण होते हुए भी विजातिकी अपेक्षा असाधारण है । ये गुण जीवद्रव्यके प्रति साधारण हैं और शेष द्रव्योंमें न पाये जानेसे उनके प्रति असाधारण है। अमूर्त्तत्व गुण पुद्गल द्रव्यके प्रति असाधारण है, परन्तु आकाशादि अन्य द्रव्योंके प्रति साधारण है । प्रदेशत्व गुण कालद्रव्य और पुद्गल परमाणुके प्रति असाधारण है, परन्तु शेष द्रव्योंके प्रति साधारण है ।
पर्याय : स्वरूप निर्धारण और भेव
द्रव्यकी परिणतिको पर्याय कहते हैं । पर्याय' का वास्तविक अर्थ वस्तुका अंश है। अंशके दो भेद है: -- (१) अन्वयी और (२) व्यतिरेकी । अन्वयो अंशको गुण और व्यतिरेकीको पर्याय कहते हैं । व्युत्पत्तिकी दृष्टिसे जो स्वभाव, विभाव
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१. परि समन्तादायः पर्यायः - जो सब ओरसे भेदको प्राप्त करे, वह पर्याय है ।
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रूपसे परिणमन करती है, वह पर्याय है।' प्रतिसमयमें गुणोंको होनेवाली अवस्थाका नाम पर्याय है । व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय एकार्थक हैं।
पर्याय क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्ययरूप और कथञ्चित ध्रौव्यात्मक होती हैं । २ पर्यायके व्यञ्जनपर्याय और अर्थपर्यायकी अपेक्षा दो भेद हैं 1 प्रदेशत्व गुणकी अपेक्षा किसी आकारको लिए हुए द्रव्यको जो परिणति होती है, उसे व्यञ्जनपर्याय कहते हैं और अन्य गुणोंकी अपेक्षा षड्गुणी हानिवृद्धिरूप जो परिणति होती है, उसे अर्थपर्याय कहते हैं। इन दोनों पर्यायोंके स्वभाव और विभागकी अपेक्षा दो-दो भेद होते हैं । स्वनिमित्तकपर्याय स्वभावपर्याय है ओर परनमित्तकपर्याय विभावपर्याय है। जीव और पुद्गलको छोड़कर शेष चार द्रव्योंका परिणमन स्वनिमित्तक होता है, अतः उनमें स्वभावपर्याय सर्वदा रहती है। जीव और पुद्गलकी जो पर्याय परनिमित्तक है, वह विभावपर्याय कहलाती है। परका निमित्त दूर हो जानेपर जो पर्याय होती है, वह स्वभावपर्याय कही जाती है ।
प्रकारान्तरसे विचार करनेपर द्रव्यको अंश-कल्पनाको पर्याय कहा जाता है। यह अंश-कल्पना दो प्रकारको होती है:-(१) तिर्यगशकल्पना और (२) ऊध्वशिकल्पना । एक समयमें द्रव्यके अखपड़ देशमें विष्कम्भकमसे जो देशांशोंकी कल्पना होती है, उसे तिर्यगंशकल्पना कहते हैं और इसीको द्रव्यपर्याय कहते हैं। अनेक समयोंमें प्रत्येक गुणकी कालकमसे तरतमरूप गुणांशकल्पनाको कवशिकल्पना कहते हैं और यही गुणपर्याय है । ___ शक्ति-गुण दोप्रकारकी होती है:-एक भाववती शक्ति और दूसरी क्रियावती शक्ति । द्रव्यके ज्ञानादिक स्वभावोंको भाववती शक्ति कहते हैं। द्रव्यको उस शक्तिको, जिसके निमित्तसे द्रव्यमें प्रदेशपरिस्पन्दन-चलन होकर आकार. विशेषकी प्राप्ति होतो है, क्रियावती शक्ति कहते हैं। इसका ही दूसरा नाम प्रदेशत्व है। गुणके परिणमनको गुणपर्याय कहा जाता है । गुणके दो मेद होनेसे गुणपर्यायके भी दो भेद हैं:-(१) अथंगुणपर्याय और (२) व्यञ्जनगुण
१. स्वमाषविभावस्पसया याति पर्वति परिणमतीति पर्याय इति ।
--बालापपद्धति अ. ६. २. क्रमसिनो एनिस्या अथ च व्यतिरेकिणश्च पर्यायाः। उत्पाबम्पयरूपा अपि च धौम्मामकाः कथयिन।
-पञ्चाध्यायी, प्रथम अध्याय, पद्य १६५. ३३० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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पर्याय । भाववती शक्तिके परिणमनको अर्थगुणपर्याय और क्रियावती शक्तिके परिणमनको व्यञ्जन-गुणपर्याय कहते हैं।
प्रदेशवत्व गुणके परिणमनका नाम द्रव्य या व्यञ्जनपर्याय है और शेष गुणोंके परिणमनको गुणपर्याय या अर्थपर्याय कहा जाता है ।'
संसारका प्रत्येक पदार्थ द्रव्य, गुण और पर्यायसे तन्मयीभावको प्राप्त हो रहा है ।क्षणभरके लिए भी न तो द्रव्य पर्यायसे रहित मिलता है और न पर्याय द्रव्यसे रहित। यद्यपि पर्याय क्रमवर्ती है, तो भी सामान्यरूपसे कोई न कोई पर्याय प्रत्येक समय में रहती है । इसी द्रव्यपर्यायात्मक पदार्थको सामान्यविशेषात्मक या अनेकान्तात्मक कहा जाता है ।
अतएव ज्ञेय उत्पादादि यात्मक, गणपर्यायात्मक है। ज्ञानका विषय होनेसे यह ज्ञेय कहलाता है । ज्ञेय अर्थ द्रव्यरूप है और द्रव्य गुण-पर्यायरूप है । इस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्यायका त्रिक ही ज्ञानका विषय होनेसे झेय कहा गया है। ___जीवादि द्रव्य अपना-अपना स्वतः सिद्ध अस्तित्व रखते हैं और लोकाकाशमें एक क्षेत्रावगाहरूपसे स्थित होनेपर भी अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ताको नहीं
द्रव्य-निरूपण
गुण और पर्यायोंको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके मूल छ: भेद हैं:-(1) जोध, (२) पुद्गल, (३) धर्म, (४) अधर्म, (५) आकाश और (६) काल । ये छ: द्रव्य ज्ञेय या प्रमेय कहलाते हैं। इनमें जीव, पुद्गल और काल अनेक मेदस्वरूप १. तम्म यतोऽस्ति विशेषः सति च गणानां गणत्ववत्वेऽपि । विविधा तथा स्यात् क्रिमावती शक्तिरव च मागवती ॥ तत्र क्रिया प्रदेशो देषापरिस्पन्दलक्षणो वा स्यात् । भावः शक्तिविशेषस्तत्परिणामोऽथवा निरंशांश: ।। सप्तरे प्रदेशभागास्ततरे द्रव्यस्य पर्यायनाम्ना । पतरे च विशेषाशास्ततरे गुगपर्यया भवम्स्येव ।।
-पञ्चाध्यापी, ११३३-१३५. विष्कम्भःकम इति वा क्रमः प्रवाहस्य कारणं तस्य । न विपक्षितमिह किञ्चित्तत्र तपास्वं किमम्पपात्वं वा ॥ क्रमवर्तित्वं नाम व्यतिरेकपुरस्सरं विशिष्ट । समपति भवति न सोऽयं भवति सपाय पण म भवति ॥ ही, १।१७४-७५.
तीर्थकर महावीर मोर सनकी देखना : ३३१
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हैं और धर्म, अधर्म एवं आकाश ये तीन द्रव्य अनेक भेदस्वरूप न होकर एकएक अखण्ड द्रव्य है । जो गुण अपने समस्त भेदों में रहकर अन्य द्रव्य में न पाया जाय वही विशेषगुण लक्षणस्वरूप होता है, तथा इसीके द्वारा द्रव्यकी पहचान होती है ।
इन छः द्रव्योंमें जीव और अजीव द्रव्य प्रधान हैं, यतः सभी द्रव्य किसी न किसी रूपमें इन दोनों द्रश्योंके हेतु कार्यरत रहते हैं । प्रखमतः जीवद्रव्यका विवेचन किया जाता है:
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जीवद्रव्य स्वरूप
जीव और अजीवका सम्पर्क ही ऐसी विभिन्न शक्तियों का निर्माण करता है, जिनके कारण जीवको नाना प्रकारकी अवस्थाओंका अनुभव करना पड़ता है। यदि यह सम्पर्क धारा अवरुद्ध हो जाय और उपन्न हुए बन्धनोंको जर्जरित या नष्ट कर दिया जाय, तो जीव अपनी शुद्ध बुद्ध और मुक्त अवस्थाको प्राप्त हो सकता है ।
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जीव इन्द्रिय- अगोचर ऐसा तत्त्व है, जिसकी प्रतीति अनुभूति द्वारा ही सम्भव है। जीवको हो आत्मा कहा जाता है । प्राणियोंके अचेतन तत्त्वसे निर्मित शरीर के भीतर स्वतन्त्र आत्मतत्त्वका अस्तित्व है और यह आत्मतत्व ही चेतन या उपयोगरूप है। आत्मा स्वतन्त्र और मौलिक है। उपयोग जीवका लक्षण है और उपयोगका अर्थ चैतन्य परिणति है। चैतन्य जीवका असाधारण गुण है, जिसके कारण वह समस्त जड़ द्रभ्योंसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है | बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्यके ज्ञान और दर्शन रूपसे दो परि
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मन होते हैं । जब चैतन्य स्वसे भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है, उस समय वह ज्ञान कहलाता है और जब चैतन्य मात्र ज्ञेयाकार रहता है, तब वह दर्शन कहलाता है । जीव असंख्यात प्रदेशवाला है और अनादिकालसे सूक्ष्म कार्मण शरीरसे सम्बद्ध है | अतः चैतन्य युक्त जीवकी पहचान व्यवहार में पाँच इन्द्रिय, मन-वचन-कायरूप तीन बल तथा श्वासोच्छ्वास और आयु इस प्रकार दश प्राणरूप लक्षणोंको हीनाधिक सत्ताके द्वारा ही की जा सकती है ।"
यों तो जीव में अनेक गुण हैं, पर उसको कत्तुत्व और भोक्तृत्त्व शक्तियाँ प्रधान हैं । (१) जीव जीव है, (२) उपभोगरूप है. (३) अमूर्तिक है, (४) कर्त्ता है,
१. पंच वि इंदियपाणा मनवचकायेसु तिष्णि अलपाणा ।
आणपाणयाणा आजगपाणेण होंति दस पाणा ॥ गो० जी० १२९.
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(५) स्वदेह परिमाण है, (६) भोक्ता है, (७) संसारी है, (८) सिद्ध है और (९) है स्वभावसे उर्ध्वं गमन करनेवाला | "
संसार में जीवोंकी संख्या अनन्त है । प्रत्येक शरीर में विद्यमान जीव अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है और इस अस्तित्वका कभी संसार अथवा मोक्षमें विनाश नहीं होता। जोव में रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गलके धर्म नहीं पाये जाते हैं । अतएव वह स्वभावसे अमूर्तिक है, फिर भी प्रदेशोंमें संकोच और विस्तार होनेसे वह अपने छोटे-बड़े शरीरके परिमाण हो जाता है ।
वात्मसिद्धि
यह प्रश्न निरन्तर उठाया जा रहा है कि आत्मा शरीरके अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं है । जब आत्म-तत्त्व नहीं, तो फिर संसार, बन्ध और मोक्षकी आवश्यकता हो क्या है ? अतएव पृथ्वी, जल, वायु और आकाशके अतिरिक्त आत्म-तत्त्व नहीं है । इन चारों भूतोंके संयोगसे ही चेतन्यशक्तिकी उत्पत्तिहोती है, जिस प्रकार गुड़, जौ, आदिके संयोगसे मादकशक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार इन चारों भूतोंके संयोगसे इस शरीररूपी यन्त्रका संचालन उत्पन्न हो जाता है ।
देहात्मवाद या अनात्मवादके अनुसार शरीर ही आत्मा है, इससे भिन्न कोई आत्मा नहीं | अतएव पुनर्जन्म और परलोकका अभाव है। यदि शरीरसे भिन्न कोई आत्मा है और मरनेपर यह आत्मा परलोक चली जाती है, तो बन्धुबान्धवोंके स्नेहसे आकृष्ट हो, वह वहाँसि लौट क्यों नहीं आती है। हमें इन्द्रि यातीत कोई आत्मा दिखलायी नहीं पड़ती । अतः भूतचतुष्टय के संयोग से उत्पन्न शक्ति- विशेष ही आत्मा है ।
प्रत्यक्ष द्वारा भौतिक जगत्का ज्ञान प्राप्त होता है । यह जगत् चार प्रकारके भौतिक तत्त्वोंसे बना हुआ है । वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ये चार ही भौतिक तत्त्व हैं । इन तत्त्वोंका ज्ञान हमें इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त होता है । संसारके जितने द्रव्य हैं, वे सभी इन चार तत्त्वोंसे बने हुए हैं।
उत्तरपक्ष
यह जीव अपने शरीरमें सुखादिककी सरह स्वसंवेदनसे जाना जाता है । क्योंकि उसके स्व-संविदित होने में कोई भी बाधक कारण नहीं है और दूसरी
१. जीवो उवओोगमओ बमुति कत्ता सदेह परिमाणो ।
भोत्ता संसारत्नो मुतो सो विस्वसोखगई ॥ द्रव्यसंग्रह, गा० २.
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बात यह है कि बुद्धिपूर्वक कार्य - यार देखा जाता है। स्तः जिस प्रकार अपने शरीर में जीव है, उसी प्रकार दूसरेके शरीर में भी जीव है, यह अनुमानसे उसे जाना जाता है | तत्काल उत्पन्न हुआ बालक जो माताके स्तन पीता है, पूर्वभवका संस्कार छोड़कर अन्य कोई भी सिखानेवाला नहीं है । आत्मा अमूर्ति है और ज्ञानके द्वारा ही जानी जाती है।
भूतचतुष्टयके संयोग से जोन उत्पन्न होता है, यह कथन भी निराधार है, क्योंकि बटलोही में दाल बनाते समय जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी इन चारों तत्त्वों का संयोग है, पर चेतनकी उत्पत्ति नहीं होती है। गुड़ आदिके सम्बन्धसे होनेवाली जिस अचेतन उन्मादिनो शक्तिका कथन किया है, वह उदाहरण चेतन के विषय में लागू नहीं होता ।
भूतचतुष्टयरूप आत्म-तत्वकी सिद्धि सम्भव नहीं है । यतः पृथ्वी, अप, तेज और वायु ये तत्त्व हैं। इनके समुदायसे शरीर, इन्द्रिय और विषयाभिलाष अभिव्यक्त होती है । यह अभिव्यक्ति किसकी है? सत्की या असत्की अथवा सद्-असद्रूपकी ? प्रथम पक्ष में अनादि और अनन्त चेतन्यकी सिद्धि हो जायगी। दूसरी बात यह है कि सद् चैतन्यकी अभिव्यक्ति माननेपर 'परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावः यह भी स्वतः खण्डित हो जायगा । असद् चैतन्यकी अभिव्यक्ति तो मानी नहीं जा सकती, क्योंकि किसी असद वस्तुको अभिव्यक्ति नहीं देखी जाती । कथंचित् सद्-असद् माननेपर परमतका प्रवेश हो जायगा 1
भूतचतुष्टयको चैतन्यके प्रति उपादानकारण माना जाय, या सहकारीकारण ? उपादानकारण तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि चैतन्यके साथ भूतचतुष्टयका अन्वय ही नहीं। जिस वस्तुका जिसके साथ अन्वय रहता है, वही वस्तु उसका उपादान होती है। जैसे मुकुटका निर्माण स्वर्णके होनेपर होता है, अतः स्वर्णका मुकुटके साथ अन्वय माना जायगा, पर भूतचतुष्ट्यके रहने से तो आत्माकी उत्पत्ति नहीं होती। अतः भूतचतुष्टयको आत्माका उपादान नहीं माना जा सकता। दूसरी बात यह है कि संसार में सजातीय कारणसे सजातीय कार्यको उत्पत्ति देखी जाती है, विजातीयकी नहीं। जब भूतचतुष्टय स्वयं बचेतन है, तो चैतन्यकी उत्पत्तिमें यह कारण कैसे हो सकता है ? और यह कहना भी भ्रान्त है कि चैतन्यशक्ति भी शरीरके नाशके साथ ही नष्ट हो जाती है, क्योंकि पूर्वभवको स्मृति आनेसे पुनर्जन्मकी सिद्धि होती है ।
चैतन्य आत्माका धर्म नहीं, शरीरका है; यह कथन भी निराधार है। जो यह कहा जाता है कि पंचेन्द्रिय विषयोंका उपभोग ही जीवन सर्वस्व है, स्वर्गनरक आदिकी स्थिति सिद्ध ही नहीं होती, अतः शरोरसे भिन्न आत्मा नामका
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कोई पदार्थ अनुभवमें नहीं आता है। यह सब कखन भी मिथ्या है, क्योंकि जन्मसे पूर्व और पश्चात् भी आत्माका अस्तित्व सिद्ध है। चेतन आत्माका अस्तित्व सिद्ध हो जानेपर पुण्य-पाप, सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक आदि सभी सिद्ध होते हैं । आत्माके कर्त्ता और मोक्ता होनेसे भोगवादका समर्थन स्वयं निरस्त हो जाता है ।
मनुष्य विषय और कषायोंके अधीन होकर जैसा शुभाशुभ कर्म करता है, उसीके अनुसार वह पुण्य और पाप अर्जन करता है। जब अशुभका उदय आता है, तो प्रतिकूल सामग्रीके मिलनेसे दुःखानुभूति होती है और जब शुभका उदय आता है, तो अनुकूल सामग्रीके मिलनेसे सुखानुभूति होती है। सुख और दुःखका कर्ता एवं भोक्ता यह आत्मा स्वयं ही सिद्ध है। यदि संसार में पुष्य, पाप और शुभाशुभकी स्थिति न मानी जाय, तो एक व्यक्ति सुन्दर, रूपवान और प्रिय होता है, तो दूसरा व्यक्ति कुरूप अप्रिय और नाना विकृतियों से पूर्ण होता है, यह कैसे संभव होगा ? एक हो माता-पिताकी विभिन्न सन्तानों में विभिन्न गुणोंका समावेश पाया जाता है। एक पुत्र प्रतिभाशाली और सच्चरित्र है, तो दूसरा निर्बुद्धि और दुराचारी। एक धनी है, तो दूसरा दरिद्र है । एक दुःखी है, तो दूसरा सुखी है। इस प्रकारकी भिन्नता कर्म वैचित्र्य के बिना सम्भव नहीं है । जिस प्रकार होता है. पह की भोगसामग्री प्राप्त करता है। अतएव जिस प्रकार कृषक खेतमें उत्पन्न हुई फसलमेंसे कुछ धान्य बीजके लिए रख छोड़ता है और शेषको उपभोगमें ले आता है, उसी प्रकार शुभोदयके फलको भोगनेके अनन्तर इस शरीर द्वारा तपश्चरण आदिकर पुनः शुभोदयका अर्जन करना आवश्यक है। भोगोंका त्याग किये बिना साधना सम्भव नहीं और न बिना साधनाके उत्तम भोगोंका मिलना ही सम्भव है | अतएव पुष्प- पाप, स्वर्ग-नरक आदिका विश्वास करना और पुनर्जन्म मानना अनुभव -संगत है ।
तर्क द्वारा भी जीवकी सिद्धि होती है। जीवित शरीर आत्म-सहित्त है, क्योंकि श्वासोच्छ्वास वाला है । जो आत्म सहित नहीं है, वह पूजा श्वासोच्छुवास सहित भी नहीं है, जैसे घटादिक । अथवा जीवित शरीर आत्म-सहित है, क्योंकि वह प्रश्नोंका उत्तर देता है, जो बात्मसात नहीं है उत्तर भी नहीं देता, जेसे घटादिक । इस प्रकार केवल व्यतिरेकी अनुमानप्रमाणसे भी जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है ।
ate अनादिनिधन है । यतः यह अस्तित्ववान होनेपर कारणजन्य नहीं । जो जो पदार्थ अस्तित्ववान होनेपर कारणजभ्य नहीं होते, वे वे अनादिनिधन होते हैं, जैसे पृथ्वी - आदि। और जो अनादिनिधन नही होते वे अस्तित्ववान
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होनेपर कारणजन्य होते हैं जैसे घटादिक । इस प्रकार अनुमान प्रमाणसे जीव पदार्थ सिद्ध है ।
यदि भूतचतुष्टयसे जीव की उत्पत्ति मानते हैं, तो यह मूतचतुष्टय जीवका निमित्त कारण है या उपादान कारण ? यदि निमित्तकारण है, तो भूतचतुष्टय से भिन्न उपादानकारण कोई दूसरा ही होगा और वह उपादानकारण जीव ही हो सकता है । यदि भूतचतुष्टय जीवका उपादानकारण है, तो ये चारों मिलकर जीवके उपादानकारण हैं, अथवा पृथ्वी, अप, तेज और वायु ये चारों पृथक्-पृथक् उपादान कारण हैं ? यदि पृथक्-पृथक् जीवके उपादानकारण हैं, तो पृथ्वीके बने हुए जीव अन्य, जलसे निर्मित्त अन्य पवन से निर्मित अन्य और अग्नि निर्मित अन्य इस प्रकार चार तरहके जीव होने चाहिए । पर चार तरहके जीव प्रतीत नहीं होते । अतएव भूतचतुष्टय भिन्न-भिन्न रीतिसे उपादान कारण नहीं है। चारों मिलकर भी जीवके उपादानकारण नहीं हो सकते, क्योंकि घटपटादि कार्योंका उपादानकारण सजातीय होता है। तथा यद जोवका उपादानकारण भूतचतुष्टय है, तो भूतचतुष्टयके स्पर्श, रस, गंध, वर्णगुण जोव में आने चाहिए। पर ये चारों गुण जीवमें नहीं होते । यदि ये चारों गुण जीवमें होते, तो जीव भी इन्द्रियगोचर होता । परन्तु जीव इन्द्रियगोचर नहीं है । इसलिये जीव भूतचतुष्टयजन्य नहीं है । जीवको स्वतन्त्रसिद्धि
जीव या आत्माका अस्तित्व सिद्ध हो जानेके पश्चात् जीवका स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करना आवश्यक है। जो स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं मानते, उनसे यह पूछा जाय कि जो जीव द्रव्य नहीं है, तो वह जीव गुण है या पर्याय ? इनके अतिरिक्त कोई वाच्य हो नहीं सकता । अतः जिसने बाह्य पदार्थ हैं, वे द्रव्य, गुण, और पर्याय इन तीनोंमेंसे किसी न किसीके वाच्यमें अन्तभूत हैं । यदि जीव गुण है, तो उसका गुणी कौन है ? गुणीके बिना गुण नहीं होता 1 यदि यह माना जाय कि जीवगुणका गुणी जीवद्रव्य है तो जीवद्रव्य स्वतन्त्र सिद्ध होता है । यदि यह कहा जाय कि जीवगुण पुद्गलद्रव्यका है, तो गुण नित्य होता है । इसलिये घटपटादिक समस्त पुद्गल द्रव्योंमें उसकी प्रतीति होनी चाहिये । परन्तु प्रतीति होती नहीं । अतएव जीव पुद्गलका गुण नहीं है ।
यदि जीव पर्याय है, तो पर्याय किसी गुणकी अवस्था - विशेष कही जाती है | अतः जीवपर्याय पुद्गलके किस गुणकी अवस्था विशेष है और उस गुणका नाम क्या है ? तथा उसका लक्षण क्या है ? न तो कोई ऐसा गुण ही हैं और न कोई उसका लक्षण हो है, जिसके आधारपर जीवपर्याय पुद्गलगुणकी मानी जा सके । अतएव संक्षेपमें जीव पदार्थका अस्तित्व स्वतन्त्र रूपमें सिद्ध
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होता है । आत्मा स्वतन्त्र है और शान-दर्शनादि गुण उसकी निजी सम्पत्ति हैं । आनन्द और सौन्दर्यानुभूति उसके स्वतन्त्र अस्तित्वके सबल प्रमाण हैं। राग और द्वेषका होना तथा उनके कारण हिंसा आदिके आरम्भमें जुट जाना भौतिक यन्त्रका काम नहीं है। कोई भी यन्त्र अपने आप चले, स्वयं विगड़ जाय और बिगड़नेपर अपने-आप मरम्मत हो जाय, यह सम्भव नहीं है । अतएव इच्छा, संकल्पति और भावनाएं केवल भौतिक मस्तिष्ककी उपज नहीं है, अपितु चैतन्यके विभाव-शक्तिजन्य विकार हैं।
अवस्थाके अनुसार बढ़ना, जीर्ण होना आदि ऐसे धर्म हैं, जिनका समाधान भौसिकतासे सम्भव नहीं है। अनुभवसिद्ध कार्यकारणभावके द्वारा आरमाका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है । ___ आत्माको शरीर परिणाम माननेपर भी देखनेकी शक्ति नेत्रोंमें रहनेवाले आत्म-प्रदेशों में ही नहीं, सुंघनेकी शक्ति ध्राणमें रहनेवाले केवल आत्म-प्रदेशों में ही नहीं अपितु शरीरान्तर्गत समस्त आत्म-प्रदेशोंमें ये शक्तियां समाहित रहती हैं। बात्मा पूर्ण शरीरमें सक्रिय रहती है। वह इन्द्रियोंके उपकरणों के झरोखों द्वारा गन्धादिका परिज्ञान करती है। वासनाओं आर कम-संस्कारोंके कारण आत्माको अनन्तशक्कि छिन्न-भिन्न रूपमें अभिव्यक्त होती है। जब कर्मवासनाबों और सूक्ष्म कर्म-शरीरका सम्पर्क छूट जाता है, तब यह आत्मा अपने अनन्त चेतन्य-स्वरूपमें लीन हो जाती है। उस समय इस आरमाके प्रदेश अन्तिम शरीरके आकार रह जाते हैं। क्योंकि उनके फैलने और सिकुड़नेका कारण कर्म-संस्कार नष्ट हो चुका है। अतएव आत्म-प्रदेशोंका अन्तिम शरीरके आकार रह पाना स्वाभाविक और युक्ति-संगत है। व्यापक एवं अणु बात्मवाद
वात्माको अमूर्त और व्यापक माना जाता है | व्यापक होनेपर भी शरीर बोर मनके सम्बन्धसे शरीरावच्छिष आत्म-प्रदेशोंमें जानादि विशेषगुणोंकी उत्पत्ति होती है । अमूतं होनेसे यह आत्मा निष्क्रिय और गतिहीन है । शरीर और मनके गतिशील होनेसे सम्बद्ध आत्म-प्रदेशों में ज्ञानाधिककी अनुभूति होती है। व्यापक आत्मवादमें निम्नलिखित दोष घटित होते हैं।
(१) समस्त आत्माओंका सम्बन्ध समस्त शरीरोंके साथ होनेसे अपने-अपने सुख-दुःख वीर भोगका नियम घटित नहीं होगा।
(२) एक अखण्ड द्रव्यमें सगुण और निर्गुणके भेद सम्भव नहीं हैं । (३) अमूर्तत्त्व हेतुके द्वारा आत्माको व्यापक सिद्ध नहीं किया जा सकता
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है, मनके साथ दोष आनेसे मन भी अमूर्त है, अतएव उसे भी व्यापक मानना पड़ेगा !
(४) नित्य होने से भी आत्माको व्यापक मानने में दोष है। यहां भी मनके साथ व्यभिचार आता है ।
(५) आत्माके व्यापक होनेसे एक व्यक्ति भोजन करेगा, तो समस्त नगर, ग्राम, देश एवं राष्ट्रवासियों को तृप्ति हो जायगी । इस प्रकार व्यवहार-सांकर्यं उत्पन्न होगा । मन और शरीर के सम्बन्धसे विभिन्नता की व्यवस्था भी सम्भव नहीं है ।
(६) जहाँ गुण पाये जाते हैं, वहीं उसके आधारभूत उपागा रहता है । गुणोंके क्षेत्र गुणीका क्षेत्र न बड़ा होता है और न छोटा । सर्वत्र आकृति में गुणीके बराबर ही गुण होते हैं । अतएव आत्मा शरीरके बाहर व्यापकरूप में उपलब्ध नहीं है ।
जिस प्रकार आत्माका व्यापकत्व सिद्ध नहीं; उसी प्रकार आत्माका अणुत्व भी सिद्ध नहीं है । अणुरूप आत्माको माननेपर अंगुली के कट जानेसे समस्त शरीरके आत्म-प्रदेशोंमें कम्पन और दुःखका अनुभव होना सम्भव नहीं । अणुरूप आत्मा के माननेपर भी आलात - चक्रवत् उसकी गति स्वीकार करलेने से उक्त दोष नहीं आता । पर जिस समय अणु आत्माका चक्षु इन्द्रियके साथ संबंध होगा, उस समय भिन्न क्षेत्रवर्ती रसना आदि इन्द्रियोंके साथ युगपत् सम्बन्ध होना असम्भव है । जब हम किसी सुन्दर वस्तुको आँखोंसे देखते हैं, तो अन्य इन्द्रियाँ भी उस वस्तुको पानेके लिये गतिशील हो जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि सभी इन्द्रियों के प्रदेशों में आत्माका युगपत् सम्बन्ध है । आपादमस्तक अणुरूप आत्माके चक्कर लगाने में कालभेद होना स्वाभाविक है तथा सर्वांगीण रोमांचादि कार्योंसे ज्ञात होनेवाली युगपत् सुखानुभूतिके विरुद्ध भी है । अतएव आत्मा के प्रदेशोन संकोच और विस्तारकी शक्ति रहने के कारण संसारावस्था में यह शरीरप्रमाण है । संकोच और विस्तारको शक्ति आत्मामें स्वाभाविक रूपसे विद्यमान है ।
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आत्मा के संकोच और विस्तारकी दीपक के प्रकाशसे तुलना की जा सकती है | खुले आकाशमें रखे हुए दीपकका प्रकाश विस्तृत परिमाण में होता है, उसी दीपकको यदि कोठरी में रख दें, तो बहो प्रकाश कोठरीमें समा जाता है। घड़ेगें रखते हैं, तो वह प्रकाश घड़े समा जाता है और ढकनीके नीचे रखनेसे ढकनी में समा जाता है। इसी प्रकार कार्यशरीरके आवरण से आत्मप्रदेशोंका भी संकोच और विस्तार होता है ।
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जो आत्मा शिशु-शरीरमें रहती है, वही आत्मा युवा-शरीरमें रहती है और वहो वृद्ध-शरीरमें भी। स्थूलशरीरव्यापी आत्मा कृशशरीरव्यापी हो जाती है। ___ आत्माको शरीरपरिमाण माननेसे वह अवयव सहित होने के कारण अनित्य नहीं हो सकती है। यतः यह कोई नियम नहीं है कि जो अवयव सहित होता है, वह विशरणशील ही होता है । आकाश सावयव होनेपर भी नित्य है । जो अविभागी अवयव हैं, वे अवयवीसे कभी पृथक् नहीं हो सकते । जीव या आत्मा : ज्ञान-स्वरूप __ यह अनुभव सिद्ध है कि जो जीव है. वह ज्ञानवान है और जो ज्ञानवान है, वह जीव है । जिस प्रकार उष्णत्वके बिना अग्निका अस्तित्व संभव नहीं, उसी प्रकार ज्ञान गणके बिना जीवका अस्तित्व भी असंभव हैं। एकेन्द्रियस मुक्तात्माओं तकमें ज्ञानगणकी होनाधिकता पायी जाती है। जीवका यह ज्ञानगण ही जड़ पदार्थासे उसे भिन्न सिद्ध करता है । अत: शान जीव या आत्माका निज स्वरूप है। ___ ज्ञान और ज्ञानीको परस्परमें सर्वदा एक दूसरेसे भिन्न माना जाय तो दोनों ही अचेतन हो जायेंगे । यदि यह कहा जाय कि ज्ञानसे भिन्न होनेपर भी आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है, तो ज्ञानके समवायसम्बन्धके पूर्व आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी ? समवायसम्बन्धके पूर्व आत्माको ज्ञानी माननेसे जानका समवायसम्बन्ध मानना व्यर्थ है, यतः इस सम्बन्धकी कोई आवश्यकता नहीं । अज्ञानी में ज्ञानका समवाय बन नहीं सकता है । क्योंकि अज्ञानी में ज्ञानके मिलनेसे भी अज्ञानता बनी ही रहेगी तथा अज्ञान और ज्ञानके मिश्रणको क्या कहा जायगा ?'
यह भी नहीं कहा जा सकता है कि जिस प्रकार देवदत्त अपने शरीरसे भिन्न रहनेवाले दात्र--हसियाके द्वारा तृणादिका छेदक हो जाता है, उसी प्रकार जीव भी भिन्न रहनेवाले ज्ञानके द्वारा पदार्थोका शायक हो सकता है। यतः छेदनक्रियाके प्रति दात्र बाह्य उपकरण है और वीर्यान्तराय कर्मके क्षमोपशमसे १. गाणी णाणं च सदा अत्यंतरिदो दु अण्णमण्णस्स । दोहं अवेदणसं पसजदि सम्म जिणावमदं ।। ण हि सो समवायादो मत्थंतरिदो दु णाणदो गाणी । अण्णाणीति य वयणं एगत्तप्पसाधगं होदि ।।
-पञ्चास्तिकाय, गाथा ४८-४९. तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ३३९
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उत्पन्न हुई पुरुषको शक्ति विशेष आभ्यन्तर उपकरण है। इस आभ्यन्तर उपकरण के अभावमें दान तथा हस्तव्यापार आदि बाह्य उपकरण के रहमेपर भी ज्ञानरूप आभ्यन्तर उपकरणके अभावमें जीव पदार्थोंका झाला नहीं हो सकता । बाह्य उपकरण कसे भिन्न रहता है, पर आभ्यन्तर उपकरण उससे अभिन्न रहता है। अतएव ज्ञान-ज्ञानीके प्रदेश भिन्न नहीं है। जो यात्माके प्रदेश हैं, वे ही प्रदेश ज्ञानादि गुणोंके भी हैं, इसलिए उनमें प्रदेशभेद नहीं है ।
ज्ञान ही आत्मा है । यतः ज्ञान आत्माके बिना नहीं रहता, अतः ज्ञान आत्मा ही है ।' आत्माके अनेक गुणोंमें ज्ञानगुण प्रधान है, यह आत्माका असाधारण गुण है। यह आत्माके अतिरिक्त अन्यत्र नहीं पाया जाता, अतएव गुण-गुणी में अभेद विवक्षाकर ज्ञानको ही आत्मा कह दिया जाता है। यों तो आत्मा जिस प्रकार ज्ञानगुणका आधार है, उसी प्रकार अन्य गुणोंका भी आधार है। ज्ञानगुणके आधारको अपेक्षा आत्मा ज्ञानरूप है | कर्तृत्व : विवेचन
परिणमन करनेवालेको कर्ता, परिणामको कर्म और परिणतिको क्रिया कहते हैं। ये तोनों वस्तुतः भिन्न नहीं हैं, एक द्रव्यवी ही परिणति हैं । जीवमें कर्तृत्वशक्ति स्वभावतः पायी जाती है । आत्मा अग्पभूतव्यवहारनयसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय आदि पुद्गलको तया भवन, वस्त्र आदि पदार्थों का कर्ता है | अशुद्धनिश्चयनयसे अपने राग-द्वेष आदि चतन्यकर्मोंभावकर्मोका और शनिश्चयनयकी दृष्टिसे अपने शुद्ध चतन्यभावोंका कर्ता है । ___ जोव और अजीव अनादिकालसे सम्बद्ध अवस्थाको प्राप्त हैं, अतः यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इन दोनोंके अनादि सम्बन्धका क्या कारण है ? जीवने कर्मको किया या कर्मने जीवको किया ? यदि यह माना जाय कि जीवने बिना किसी विशेषताके कर्मको किया, तो सिद्धावस्था में भी कम करने में काई विप्रतिपत्ति नहीं होगी। यदि कर्मने जांचको किया, तो कर्म में ऐसी विशेषता
१. गाणं अप्पत्ति मदं चददिणाणं विणा ण अप्पाणं । तम्हा णाण अण्णा अप्पा गाणं 4 अणं वा ।।
-प्रवचनसार, गाथा २.७. २. पुग्गलकम्मादोणं कत्ता ववहारदो दू णिवयदो । चंदणकम्माणादा, सुरणया सुद्धभावाणं ।।
द्रव्यसंग्रह, गाथा ८.
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कहाँसे आई कि वे जीवको कर सकें- उसमें रागादिभाव उत्पन्न कर सकें । यदि कर्म विना किसी वैशिष्टयके रागादिक करते हैं, तो कर्मके अस्तित्वकालमें सदा रागादि उत्पन्न होने चाहिए ।
इन प्रश्नोंका समाधान विभिन्न दृष्टियोंके समन्वय द्वारा संभव है । यतः जीवके रागादि परिणामोंसे पुद्गलद्रव्य में कर्मरूप परिणमन होता है और पुद्गल के कर्मरूप परिणमनसे उनकी उदधावस्थाका निमित्त पाकर आत्मामें रागादिभाव उत्पन्न होते हैं । यद्यपि इस समाधान में अन्योन्याश्रय दोष दिखलायी पड़ता है, पर अनादि संयोग मानने से इस दोषका निराकरण हो जाता है ।
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कर्तृ- कर्मभावको व्यवस्थाके स्पष्टीकरण के लिए कारकथ्यवहारका विचार कर लेना आवश्यक है।
संसारमें अनादिकाल से समस्त द्रव्य प्रतिक्षण पूर्व - पूर्व अवस्था - पर्यायको त्यागकर उत्तरोत्तर अन्य अवस्थाको प्राप्त होते हैं, इसी परिणमनको क्रिया कहा जाता है। अनन्तर पूर्वेक्षणवर्ती परिणामविशिष्ट द्रव्य उपादानकारण है और अनन्तर उत्तरक्षणवर्त्ता परिणामविशिष्ट द्रव्य कार्य है। इस परिणमनअवस्थापरिवर्त्तन में सहकारीस्वरूप अन्य द्रव्य निमित्तकारण है । निमित्तकारणके दो भेद हैं: - ( १ ) उदासीन निमित्तकारण और ( २ ) प्रेरक निमित्तकारण । इन्हीं कारणों में कारकव्यवहार होता है। क्रियानिष्पादकत्व कारकका लक्षण है और इसके कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये छ: भेद हैं। क्रियाका उपादानकारण कर्त्ता जिसे क्रिया प्राप्त हो वह कर्म; क्रिया में साधकतम अन्य पदार्थं करणः कर्म जिसको प्राप्त हो वह सम्प्रदान, दो पदार्थोंके लिये वियुक्त होनेमें जो ध्रुव रहे, वह अपादान एव आधारको अधिकरण कहा जाता है। इस कारक प्रक्रियाका अभिप्राय यह है कि संसार में जितने पदार्थ हैं, वे अपने-अपने भावके कर्ता हैं, परभावका कर्ता
कोई पदार्थ नहीं है ।
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वास्तवमें कर्त्ता - कर्मभाव उसी द्रभ्यमें घटित होता है, जिसमें व्याप्यध्यापक भाव अथवा उपादान - उपादेयभाव रहता है । जो कार्यरूपमें परिणत होता है, उसे व्यापक या उपादान कहते हैं और जो कार्य होता है उसे व्याप्य या उपादेय । मिट्टीसे धड़ा बना, यहां मिट्टी ध्यापक या उपादान है और घट व्याप्य या उपादेय है। यह व्याप्यव्यापकभाव या उपादान - उपादेयभाव सर्वदा एक प्रम्यमें हो होता है, दो द्रभ्योंमें नहीं; यत्तः एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप त्रिकालमें भी परिणमन नहीं होता है ।
जो उपादानके कार्यरूप परिणमनमें सहकारी है, वह निमित्त है। यथातीर्थंकर महावीर और उनकी देखना: ३४१
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मिट्टीके घटाकार परिणमनमें कुम्भकार और उसको दण्ड-चनादि । इस निमित्तकी सहायतासे उपादान में जो कार्य होता है, वह नैमित्तिक कहलाता है, जैसे कुम्भकार आदिकी सहायतासे मिट्टोमें हुआ घटाकार परिणमन । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि निमित्त-नैमित्तिकभाव दो विभिन्न द्रव्यों में भी घटित होता है, पर उपादाभोपादेय या व्याप्य-व्यापकभाव एक हो द्रव्यमें संभव हैं।
पुद्गलद्रव्य जोरके रागादि परिणामोंका निमित्त पाकर कर्मभावको प्राप्त होता है, इसी प्रकार जीव द्रव्य भी पूगल कमोंके विपाककालरूप निमित्तको पाकर रागादि भावरूप परिणमन करता है. इस प्रकारका निमित्त-नमित्तिक सम्बन्ध होनेपर भो जीवद्रब्ध कर्मम किसी का उत्पादक नहीं, अर्थात् पुद्गलद्रव्य स्वयं ज्ञानाबरणादिभावको प्राप्त होता है। इसी तरह कर्म भो जोबमें किन्हीं गणोंको नहीं करता है, किन्तु मोहनीय आदि कर्मक विपाकको निमित्तकर जीव स्वयमेव रागादिरूप परिणमता है। इतना होनेपर भी पुद्गल और जीवका परिणमन परस्परनिमित्तक है । इससे स्पष्ट है कि आत्मा अपने भावोंके द्वारा अपने परिणमनका कर्ता होता है; पुदगलकमंकृत भावोंका का नहीं है । तथ्य यह है कि पुद्गलके जो ज्ञानावरणादि कम हैं, उनका कर्ता पुद्गल है और जौबके जो रागादि भाव हैं, उनका कर्ता जीव है ।' ___ आत्मा और पुद्गल इन दोनोंमें वैभाविकी शक्ति है । इस शक्तिका कारण ही आत्मा मिथ्यादर्शनादि विभावरूप परिणमन स्वयं करती है और पुद्गल ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन करता है। इस प्रकारके परिणमनको ही निमित्तनैमित्तिकभाव कहा जाता है ।
निमित्त-नैमित्तिकभाव एवं कत्तु कर्मभाव स्वीकार करनेपर द्विक्रियाकारित्वका दोष नहीं आता है। यतः निमित्त अपने परिणमनके साथ उपादानपरिणमनका कर्ता नहीं है।
जीत्र न तो घटका कर्ता है, न पटका कर्ता है और न शेष अन्य द्रव्योंका
१. जीवपरिणामहेहूँ कम्मतं पुम्गला परिणति ।
पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेब जीवो वि परिणम ।। वि कुब्बइ कम्मगुण जोवो कम्म तहेव जीवगुण । अण्णोणणिमिलेण दु परिणाम जाण दोण्हीप ।। एएण कारणेण दु कसा वादा सएण भावेण । पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सवभावाणं ॥
-समयसार-गाथा ८०-८२.
३४२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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हो । जीवके योग और उपयोग ही उनके कर्ता है।"
आत्मा घटादि और क्रोधादिपरद्रव्यात्मक कर्मोंका का न तो व्याप्यव्यापकभावसे है और न निमित्त-नैमित्तिकमावसे हो; पर अनित्य योग और उपयोग ही घट-पटादि द्रव्योंके निमित्तकर्ता हैं। जब आत्मा ऐसा विकल्प करती है कि मैं घटको बनाऊँ, तब काययोगके द्वारा आत्म-प्रदेशों में चञ्चलता आती है और चञ्चलताको निमित्तता पाकर हस्तादिके व्यापार द्वारा दण्डसे चक्रका परिभ्रमण होता है और इससे घटादिकी निष्पत्ति होती है। ये विकल्प और योग अनित्य हैं, अज्ञानवश आत्मा इनका कर्ता हो भी सकती है, परन्तु परद्रश्यात्मक कर्मोका कदापि संभव नहीं।
तथ्य यह है कि निमित्तके दो भेद हैं:-(१) साक्षात् निमित्त और (२) परम्परा निमित्त । कुम्भकार अपने योग और उपयोगका कर्ता है, यह साक्षात् निमित्तकी अपेक्षा कथन है । यतः इनके साथ कुम्भकारका साक्षात् सम्बन्ध है
और कुम्भकारके योग एवं उपयोगसे दण्ड-चक्रादि द्वारा घटकी उत्पत्ति परम्परानिमित्तको सो ! जब मारा-मिपिनो टोनेवाले निमित्त-नैमित्तिकको गौण कर कथन किया जाता है, तब जीवको घट-पटादिका कर्त्ता नहीं माना जाता । किन्तु जब परम्परा-निमित्तसे होनेवाले निमित्त-नैमित्तिक भावको प्रमुखता दी जातो है, तब जीवको घट-पटादिका कर्ता कहा जाता है ।
घटका कर्ता कुम्भकार, पटका कर्ता कुविन्द और रथका कर्ता बढ़ईको न माना जाय तो लोकविरुद्ध कथन हो जायगा 1 पर यथार्थमें वे अपने-अपने योग और उपयोगके ही कर्ता होते हैं। लोकमें उनका कर्तृत्व परम्परा-निमित्तकी अपेक्षा ही संगत होता है।
अभिप्राय यह है कि संसारके सभी पदार्थ अपने-अपने भावके कर्ता हैं, परभावका का कोई पदार्थ नहीं । कुम्भकार घट बनानेरूप अपनी क्रियाका कर्ता है । व्यवहारमें जो कुम्भकारको घटका का कहते हैं, वह केवल उपचार मात्र है। घट बनने रूप क्रियाका कर्ता घट हैं। घटका बननेरूप किया। कुम्भकार सहायक निमित्त है । इस सहायक निमित्तको ही उपचारसे कर्ता कहा जाता है । वस्तुत: कर्ताके दो भेद हैं:-(१) वास्तविक की ओर (२) उपचारित फर्ता। क्रियाका उपादान ही वास्तविक कर्ता है। अतः कोई भी क्रिया वास्तविक कर्ताके विना संभव नहीं । उपचरित क के लिए यह नियम नहीं है । यथा, १. जीवो ण करैदि घई व पडं णेव सेसगे दवे ।। जोगवओगा उप्पादगा य तेसि हवदि कसा॥
-समय०, गाथा १००.
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घटरूप कार्यके बनने में उपचरित कर्ताको आवश्यकता है, पर नदीके बहनरूप कार्यमें उपरित कर्ताको आवश्यकता नहीं है।
जीव परपदार्थाका कर्ता अपनेको नहीं मानता, यत: कर्ता माननेसे 'अहं' भावकी उत्पत्ति होती है तथा परकी इष्टानिष्ट परिणतिमें हर्ष-विषादको अनुभूति होती है और इस अनुभूतिके रहनेपर जीव अपने ज्ञाता-द्रष्टा स्वभावमें स्थिर नहीं हो पाता तथा मोहके प्रभावके कारण अपने स्वरूपसे व्युत होजाता है ! अतएव निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको सर्वथा अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है।
यह सत्य है कि सब द्रव्य स्वभावसे परिणामो-नित्य हैं। प्रत्येक समयमें द्रन्धकी एक पर्यायका व्यय होना और नवीन पर्यायका उत्पाद होना ही उसका परिणाम-स्वभाव है। उत्पाद, व्यय निमित्तके रहनेपर तथा शुद्धावस्था निमित्तके नहीं मिलने पर भी होते रहते हैं । पर्यायरूपसे प्रत्येक ग्धका उत्पन्न होना और नष्ट होना यह उसका अपना स्वभाव है। इसमें षड्स्थानपतित हानि और षस्थानपतित वृद्धिरूपसे बत्तमान अनन्त अगरुलघुगण प्रयोजक हैं। इस प्रकार अशुद्धब्योम निमित्तपूर्वक पाय परिवर्तन होता है और शुद्ध द्रव्योंमें षड्गुणहानिवृद्धिको अपेक्षा पर्याय-परिवर्तन होता है। आत्मा शुनिश्चयनमकी अपेक्षा स्वभावका कर्ता आर निमित्त-नमत्तिकको अपेक्षा रागादिकमाव और पुद्गलद्रव्यके कर्मरूप परिणमनका कर्ता संभव है। अतएव निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धकी सर्वथा अवहेलना नहीं की जा सकती है । नयदृष्टिका अवलम्बन ग्रहण कर ही कतृत्वयभावका निश्चय करना उपादेय है। भोक्तत्वशक्ति : विवेचन
आत्मा फलोंका स्वयं भोक्ता है। यह असद्भूतव्यवहारनयको अपेक्षा पुद्गलकर्मफलोंका भोक्ता है । अन्तरंगमें साता, असाताका उदय होनेपर सुख-दुःखका यह अनुभव करता है। इसी साता-असाताके उदयसे बाहरमें उपलब्ध होनेवाले सुख-दुःखके साधनोंका उपभोग करता है। अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा चेतनाके विकार रागादिभावोंका भोक्ता है और शुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा शुब चैतन्यभावोंका भोक्ता है।'
वस्तुत: यात्माके हो कर्ता और मोक्सा होनेके कारण संसारकी कोई भी परोक्ष शक्ति जीवके लिये किसी प्रकारका कार्य नहीं करती है। जीव स्वयं अपने मावोंका कर्ता-भोक्ता है। किसी दूसरी शक्तिके द्वारा इसे फलकी प्राप्ति १. बबहारा मुहले पुग्गछकम्मप्पा पमुंजेदि।
बाबा जिल्हयगयको पक्षमा वापस ॥ -मसंग्रह, भाषा ९. . m: सीकर महागीर और डीवापा-परम्परा
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नहीं होती । आत्मा स्वयं ही अपने किये गये भावों के अनुसार कर्मोंको बांधता है और स्वयं ही अपने प्रयाससे कर्मसे मुक्त होता है । बन्धन और मुक्ति में परका किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है । अतः स्वभावसे अपने रूपमें चलनेवाले इस जगतका न कोई नियन्ता है और न कोई स्रष्टा है। किसी भी देवी-देवताकी कृपासे इष्टानिष्ट फल प्राप्त नहीं हो सकता । सबसे बड़ा आत्मदेव है । इससे शक्तिशाली अन्य कोई भी नहीं है । हानि-लाभ, सुख-दुःख, अपने ही हाथमें है, अन्य किसीके हाथमें नहीं । जब आत्मा अपनी कर्तृत्व-भोमतृत्वशक्तिका अनुभव करने लगता है, अपने स्वरूपको पहचान लेता है, उस समय जगतके देवी-देवता सभी आत्माके चरणोंमें नतमस्तक हो जाते हैं । अतएव यह जीव स्वतन्त्र है तथा स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता है ।
जीव : भेद-प्रभेद
के मूलतः वेद हैं-- (१) जीव और (२) मुक्त जीव । कर्मबन्धनसे बद्ध एक गति से दूसरी गतिमें जन्म और मरण करनेवाले संसारी जीव कहलाते हैं । जो संसारसे बन्धनमुक्त हो चुके हैं, वे मुक्त जीव कहलाते हैं । संसारी जीवके ज्ञान, दर्शन, सुख, बल आदि गुणोंपर कर्मका आवरण चढ़ा हुआ है, जिससे उनके ज्ञान-दर्शन, सुख आदि गुण होनाधिक रूपमें अभिव्यक्त होते हैं । जब तक जीवके साथ क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायभाव रहते हैं, तबतक जीवके अनन्त ज्ञानादि गुण विकसित नहीं हो पाते। जब संसारी जीव को यह प्रतीति हो जाती है कि यह मेरी दुःखित अवस्था पर-पदार्थके संयोगसे है, तो उस संयोगको हटानेके लिये प्रयत्न करता है । आत्तं और रौद्रध्यानको छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यानका आराधन करता है। अनशनादि तप द्वारा अपनी अन्तरंग मलिनताको दूर करता है। जिस प्रकार सोनेको तपानेसे उसमें मिले हुए रजत, ताम्र आदि परसंयोगरूप मैल और कालिमा नष्ट हो जाते हैं और वह सौ टंचका शुद्ध सोना हो जाता है । इसीप्रकार बात्मध्यान आदि तपोंके द्वारा यह जीव भी अपनी शुद्धि कर लेता है तथा इसके भी क्रोध, मान, अज्ञान आदि असंयमरूपी मेल समाप्त हो जाते हैं ।
बाहरी गन्ध, रंग आदिको तनिक भी मिलावट न होनेपर वर्षाका जल एक समान रहता है, उसी प्रकार पूर्ण शुद्ध आत्मा मुक्त जीव भी सब परस्परमें समान होते हैं । मुक्त जीवके ज्ञान-दर्शन, सुख और वीर्य पूर्णतया विकसित रहते हैं। पर संसारी जीवमें इन गुणोंकी होनाधिक रूपमें अभिव्यक्ति देखी जाती है ।
मुक्त जीव सभी प्रकार आकुलताओं बोर व्याकुलताओंसे छूटकर तीर्थंकर महावीर और उनको देशना ३४५
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आत्माके ज्ञान, सुख आदि गुणोंमें लीन रहते हैं। इन्हें वचनातीत सुख प्राप्त होता है। __ संसारो जीव क्षुधा-तृषा, रोग-शोक, वध-बन्धन आदिके दुःखोंसे व्याकुल रहते हैं और कर्मानुसार उन्हें अनेक प्रकारकी आकुलताएं प्राप्त होती रहती हैं। कर्म-बन्धके कारण जीवकी परतन्त्र दशा ही संसार है । यह जीव अपने ही राग-द्वेष, मोहभावोंसे अपने लिये कर्मोका बन्धन निर्मित करता है और इस कर्म-चक्रके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में भिन्न-भिन्न शरीरोंको धारण करता है । बालक, युवक, वृद्ध होता हुझा अनेक प्रकारसे दुःख उठाता है । संसारी जीव आवागमन-जन्म-मरणजन्य दुःखोंमें लिप्त रहता है।
मुक्त जीव कर्म-बन्धनसे पूर्णतया निवृत्त होकर आत्म-स्वातन्त्र्यको प्राप्त कर लेता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि पूर्ण स्वातन्त्र्य ही सबसे बड़ा सुख है। जब कर्मजन्य जोवकी परतन्त्रता छूट जाती है, तो मुक्त जीव लोकाग्रभाव में स्थित होकर शाश्वत सुखका अनुभव करता है। इस प्रकार कर्म-बन्धन और कर्ममुक्तिकी दृष्टिसे जीवके उक्त दो भेद हैं। संसारी जीव : भेद-प्रभेद ___ संसारो जीवके मूल दो भेद हैं:-(१) अस और (२) स्थावर | द्वीन्द्रिय जीवसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी अस कहलाते हैं। जीवविपाकी असनामकर्मके उदयसे उत्पन्न वृत्ति-विशेषवाले जीव अस हैं। अपने रक्षार्थ स्वय चलने. फिरनेकी शक्ति सजीवोंमें रहती है। त्रसजीव लोकके मध्य में एक राजू विस्तृत और चौदह राजू लम्बो त्रसमालोमें निवास करते हैं।
त्रसजीवोंके दो भेद हैं:-(१) विकलेन्द्रिय और (२) सकलेन्द्रिय । दो-इन्द्रिय, तोन-इन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंको विकलेन्द्रिय माना जाता है। पंचेन्द्रिय जीवोंकी गणना सकलेन्द्रियमें है । द्वीन्द्रिय जीवोंमें स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ, तीन इन्द्रिय जीवोंमें स्पर्शन, रसना और ध्राण ये तीन इन्द्रियाँ और चतुरिन्द्रिय जीवोंमें स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्ष ये चार इन्द्रियां होती हैं । लट, शंख आदि जीव द्वीन्द्रिय, चीटी आदि त्रीन्द्रिय और भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय माने गये हैं।
सकलेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, ध्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। इनके भो दो भेद हैं:--(१) संजी और (२) असंज्ञी । जिनके मन है और सोचने-विचारनेकी विशिष्ट शक्ति है, वे संजो कहलाते हैं और जिनके मन या सोचने-विचारनेकी शक्ति नहीं है, वे असंझी कहलाते हैं । सभी त्रसजीव बादर ३४६ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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होते हैं, पर अनन्तान्त विसोपचयोंसे उपचित औदारिक नवकर्म - स्कंधोंसे रहित वे विग्रहगति सूक्ष्म होते हैं।
स्थावरजीव एकेन्द्रिय होते हैं। स्थावरनामकर्मके उदयसे स्थावरजीवपर्याय प्राप्त होती है। स्थावरजीवोंके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है । इनके पांच भेद है:---
(१) पृथ्वीकायिक--- जिनका शरीर पार्थिव -- पृथ्वीरूप होता है । यथापत्थर, लोहा, सोना, चाँदी आदि खनिज पदार्थं ।
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(२) जलकायिक या अपकायिक – जलके रूपमें जिनका शरीर होता है | यथा - जल, बर्फ, ओस, ओला आदि ।
(३) अग्निकायिक-- अग्निरूप जिनका शरीर होता है । यथा-विद्युत्, दीपक, अंगारा इत्यादि ।
(४) वायुकायिक- वायु या पवनके रूपमें जिनका शरीर रहता है ।
(५) वनस्पतिकायिक – जिन जीवोंका शरीर वनस्पतिके रूपमें हो। यथावृक्ष, लता, वीरुध आदि ।
पृथ्वीकायिक जीवोंकी सिद्धि प्रत्यक्षद्वारा होती है । पर्वत पहले पृथ्वीके तुल्य थे । पश्चात् बढ़ते-बढ़ते ऊँचे होते गये और ये निरन्तर वृद्धिगत हो रहे है । खानोंमेंसे पत्थर निकालते रहते हैं, पर जब उन खानोंको खोदना बन्द कर दिया जाता है, तो उन खानोंके पत्थर पुनः बढ़ने लगते हैं । शरीरकी वृद्धि उसी पदार्थकी होती है, जिसमें जीव रहता है । खानसे पृथक कर देनेपर पत्थरोंका बढ़ना भी रुक जाता है । अतः प्रमाणित होता है कि खनिज पदार्थ खानमें रहते हुए सजीव रहते हैं, अन्यथा उनकी शारीरिक वृद्धि और हास सम्भव नहीं था । जब पत्थरों या लोहादि अन्य पदार्थोंको खोदकर खान से बाहर निकाल लिया जाता है, तब वे निर्जीव हो जाते हैं ।
इसी प्रकार जल जबतक अपने शीतल रूपमें कुएँ, तालाब आदिमें रहता है, सजोब होता है और अग्निसे गर्मकर लेनेपर निर्जीव हो जाता है । अग्नि और वायुके भी इसी प्रकार सजीव और निर्जीव दो-दो रूप हैं ।
पेड़-पौधे, लता आदि जबतक हरे रहते हैं, उनके शरीर में वृद्धि होती रहती है । बीजसे अंकुर, अंकुरसे पौधा और पौधेसे वृक्ष बन जाता है । समय पाकर वह वृक्ष सूख भी जाता है । इस प्रकार वनस्पतिकाय के भी सजीव और निर्जीव दो भेद हैं। जब वनस्पतिकायिक निर्जीव हो जाता है, तो गेहूं, जौ, चना आदि अन्न प्राप्त होते हैं । ये स्थावर जीव स्पर्शन (त्वचा), कार्यबल -- शरीर
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बल, स्वासोच्छ्वास और आयु इन चार प्राणोंसे युक्त हैं । जीवके दश प्राण माने जाते हैं:-(१) स्पर्शन, (२) रसना, (३) घ्राण, (४) चक्षु, (५) कर्ण, (६) कायबल, (७) वचनबल, (८) मनोबल, (९) आयु और श्वासोच्छ्वास । इन दश प्राणोंमेंसे एकेन्द्रिय जीवके चार प्राण, दो इन्द्रियके छह प्राण, तीन इन्द्रियके सात प्राण, चार इन्द्रियके आठ प्राण, असंशी पंचेन्द्रियके नव प्राण और और संजी पंचेन्द्रियके दश प्राण होते हैं । असंज्ञो या असैनी पंचेन्द्रिय जीव मनशक्तिके अभाव में शिक्षा-उपदेश आदिको ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं और संशी पंचेन्द्रिय जीव शिक्षा उपदेश लादिदो ग्रहण करते हैं :
ये सभी त्रस और स्थावर जीव अपने-अपने शरीरके प्रमाण होते हैं। जिस जोवको हाथोका शरीर प्राप्त हुआ है, वह जीव उस शरीरमें फैलकर रहता है । यदि वह हाथी मरकर चींटी हो जाये, तो वह जीव सिकुड़ कर चौंटीके शरीरमें समाहित हो जाता है । जीवका समस्त शरीर आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त रहता है । न तो आत्माके प्रदेश शरीरसे बाहर रहते हैं और न शरीरका कोई भी अंश' आत्मप्रदेशोंसे खाली रहता है।
यों तो जीवसमासको अपेक्षा जीवोंके एकाधिक-अनेक भेद हैं, पर गतिकी अपेक्षा जोधके भेदोंका विचार करना आवश्यक है। जीवको संसारदशा चार गतियोंकी अपेक्षासे जानी जाती है। वे चार गतियां हैं । (१) मनुष्यगति, (२) देवगति, (३) तियंचाति और (४) नरकगति ।
जिस समय जीव मनुष्य-पुरुष या स्त्रीके शरीरमें रहता है, उस समय उसकी मनुष्यगति होती है। मनुष्य घोर पापकर नरक भी जा सकता है, शुभकर्म करके देव भी हो सकता है । अल्प पाप करके पशुशरोर भी प्राप्त कर सकता है और अल्प शुभकर्म करके पुनः मनुष्यभव प्राप्त कर सकता है । प्रबल तपस्या द्वारा कर्म-बन्धन नष्टकर मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है। आशय यह है कि मनुष्यगति वह चौरस-चतुष्पथ है, जहाँसे समस्त गतियोंकी ओर यात्रा की जा सकती है। इसी कारण मनुष्यभवको सबसे उत्तम माना गया है ।
जीव जब देव-शरीरको प्राप्त करता है, तब उसकी देवगति होती है । देवको जन्मसे ही अवधिज्ञान-इन्द्रिय सहायताके विना मूसिक पदार्थोको जाननेको शक्ति होता है। उनका शरीर सुन्दर, स्वस्थ, विक्रियाऋद्धि-सम्पन्न और सुखी होता है। देव यदि पाप संचय करें, तो तिथंच योनिमें जन्म लेते हैं और शभ कर्मोदयसे उनको मानव शरीर प्राप्त होता है। देवतिसे क्युस जीवन तो नरफमें जन्म ग्रहण करता है और न पुनः देव होता है।
नरकमें उत्पन्न होना नरकगति है। नरक दुःखमय स्थान है। यहाँका ३४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य परम्परा
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वातावरण सब प्रकारसे दुःखदायक है । यहाँको प्रकृति भो दुःखदायी रहती है। शीत-उष्णता भयंकर होती है। नारको जीव परस्परमें सदा युद्ध मोर कलह करते रहते हैं तथा आपसमें मार-पीट करते रहते हैं । इस प्रकार नरकमें एक क्षणको भी जीवको शान्ति नहीं मिलती है। यहाँ क्षुधा-तृषाजन्य अपार वेदना भी रहती है । नरकसे निकलकर जीव तिर्यच या मनुष्यर्गात ही प्राप्त करता है। नारकी जीव न तो देवगसि ही प्राप्त कर सकता है और न पुनः नरकति ही प्राप्त करता है। एकाध भवके पश्चात उसे नरक या देवगतिका प्राप्ति होतो है। इन तीनों गतियोंमें सभी प्राणी संशी पंचेन्द्रिय ही होते हैं।
उक्स तोनों गतियोंके अतिरिक्त अन्य जितने प्राणी हैं वे तिर्यंच गसिके हैं। एकेन्द्रिय, वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असेनी पंचेन्द्रिय जीव तो तिथंचगतिमें ही होते हैं, अन्य किसी गतिमें नहीं। सैनी पंचेन्द्रिय पशुओंमें मगर, मत्स्य, घड़ियाल आदि जीव जलचर, तोता, कबूतर, मयूर, चिड़िया आदि आकाशमें उड़नेवाले जीव नभचर एवं गाय-घोड़ा, बंदर, चूहा, सांप, कुत्ता मादि जीव थलचर कहलाते हैं। तियंचगतिके संशो पंचेन्द्रिय जीवोंके जलचर, नभचर ओर थलघर ये तीन भेद किये गये हैं। जीवोंका विचार और भी विस्तारके साथ किया जा सकता है, पर संक्षेपमें जीवोंकी यही मीमांसा है। इस जीवविज्ञानका उपयोग अहिंसा आचरणमें किया जाता है। जो प्राणो उपयोगिताको दृष्टिसे जितना अधिक विशिष्ट होता है, उसकी हिंसामें उतना ही अधिक पापाजेन होता है। यों तो हिंसा और अहिंसाका सबंध भावोंके साथ है। पर प्राणियोंकी उपयोगिताको दृष्टि भी अध्ययनीय है। पुदगल : निरूपण __जिसमें 'पूरण'-बाहरी अंश मिलनेकी शक्ति और 'गलन'-गल जानेको पाक्तिकी क्रिया होती रहता है । अर्थात् जो टूटता-फूटता और मिलता रहता है, उसे पुद्गल कहते हैं । पुद्गलमें रूप-रस-गंध ओर स्पर्श ये चार गुण अवश्य होते हैं। जो द्रव्य स्कंध अवस्थामें 'पूरण'-अन्य-अन्य परमाणुओंसे मिलना और गलन'-कुछ परमाणुओंका बिछुड़ना, इस प्रकार उपचय और अपचयको प्राप्त होता है, वह पुद्गल कहलाता है। यह समस्त दश्य जगत् पुद्गलका ही विस्तार है । मूलदृष्टिसे पुद्गल परमाणुरूप है। अनेक परमाणुओंसे मिलकर जो स्कंध तैयार होता है, वह संयुक्स द्रव्य कहलाता है । पुद्गलपरमाणु जबतक अपनी बन्धशक्तिसे शिथिल या निविडरूपमें एक-दूसरेसे जुटे रहते हैं, तबतक स्कंध कहलाते हैं। इन स्कंधोंका बनाव और बिगाड़ परमाणुओंकी बन्यशक्ति और भेदशक्तिके कारण होता है। परमाणुओंको बन्ध-व्यवस्थाको निम्नलिखित स्थितियाँ हैं:--
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(१) स्निग्ध और रुक्षका संयोग-इसे विषम वैद्युत् प्रकृतिजन्य कारण माना जाता है।
(२) जघन्य या शून्य वैद्युत् प्रकृति के परमाणुओंमें बन्धाभाव ! जघन्य गुणवाले परमाणुओंमें बन्ध नहीं होता ।
(३) सदृश परमाणुओंका गुण साम्य होने पर बन्धाभाव रहता है । पुगलबन्ध-प्रक्रिया
पुद्गलको बन्ध-व्यवस्था बहुत ही विस्तृत हैं । गुणशब्द शक्ति अंशका पर्यायवाची है। पुद्गलके प्रत्येक गुणको पर्याय एक-सी नहीं रहती, प्रतिसमय परिनित होनी रहती है ! सनाट बन्धको योग्यतापर विचार करना आवश्यक है । जिन परमाणुओंमें स्निग्ध और रुक्ष पर्याय जघन्य हो, उनका बन्ध नहीं होता । वे तबतक परमाणु दशामें ही बने रहते हैं, जबतक उनकी जघन्य पर्याय परिवर्तित नहीं हो जाती। इससे स्पष्ट है कि जिनकी जघन्य पर्याय नहीं होती, उन परमाणओंका बन्ध हो सकता है। बन्धकी योग्यता रहने पर भी समान शक्ति अंशवाले परमाणुओंका बन्ध नहीं होता । संक्षेपमें असमान शक्ति अंशवाले सदृश परमाणुओंका और समान शक्ति अंशवाले विशदृश परमाणुओंका बन्ध सम्भव है | यों तो दो शक्ति-अंश अधिक होनेपर एक पुद्गलका दुसरे पुद्गलसे बन्ध होता है । उदाहरणके लिये यों कहा जा सकता है कि एक परमाणुमें स्निग्य या रूक्ष मुणके दो शवित-अंश हैं और दूसरे परमाणु में चार शक्तिअंश हैं, तो इन दोनों परमाणुओं का बन्ध सम्भव है । एक परमाणु में स्निग्ध या रूक्ष गुणके तीन शक्ति-अंश हैं और दुसरे परमाणु में पांच शक्ति-अंश हैं, तो इन दोनों परमाणुओंका भी बन्ध हो सकता है। प्रत्येक अवस्थामें बंधनेवाले पुद्. गलोंमें दो शक्ति-अशोका अन्तर होना चाहिये । इससे न्यून या अधिक अंतरने होनेपर बन्ध नहीं होता । बन्ध सदृश और विशदृश दोनों प्रकारके पुद्गलोका परस्परमें होता है । सदृशका अर्थ समान जातोय और विदेशका अर्थ असमान जातीय है । एव रूक्ष पुद्गलके प्रति दुसरा रूक्ष पुद्गल समान जातीय है और स्निग्ध पुदगल असमान जातीय है। इसी तरह एक स्निग्ध पुद्गलके प्रति दुसरा स्निग्ध पुद्गल समानजातीय है और रूक्ष पुद्गले असमानजातीय है । इस प्रकार परमाणुकी बन्ध-व्यवस्था अबगत करनी चाहिए।
प्रत्येक परमाणु स्वभावतः एक रस, एक रूप, एक गंध और दो स्पर्शगुण हैं । पुद्गलके बीस गण माने गये हैं-पाँच रूप, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श । पाँच रूपोंमें काला, नीला, पीला, श्वेत और लालकी गणना है । तिक्त-- घरपरा, आम्ल-खट्ठा, कटुक्र-कडुवा, मधुर-मीठा और कषाय-कसैला ये पाँच ३५० : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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रस हैं। सुगंध और दुर्गध दो प्रकारके गंध हैं । कठिन, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण; स्निग्ध और रूक्ष ये आठ स्पर्श हैं।
पुद्गलको परमाणु अवस्था-स्वाभाविक पर्याय है और स्कन्ध-अवस्था विभाव-पर्याय है। पुगलके भेद
पुद्गलके (१) स्कन्ध, (२) स्कम्घदेश, (३) स्कन्धप्रदेश और (४) परमाणु ये चार विभाग हैं । अनन्तानन्त परमाणओंसे स्कन्ध बनता है, उससे आधा स्कंध देश और स्कंघदेशका आधा स्कंधप्रदेश होता है । परमाणु सर्वतः अविभागी होता है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, इन्द्रियोंके विषय और श्वासोच्छ्वास आदि सब कुछ पुद्गलद्रव्यके ही विविध परिणाम है । स्कन्धो भेद
अपने परिणमनको अपेक्षा पुदगल स्कन्धोंके छ: भेद हैं! स्कम्य दोसे अधिक परमाणुओंके संश्लेषसे बनता है। व्यणुक आदि स्कन्ध परमाणुओं के संश्लेषसे भी बनते हैं तथा विविध स्कन्धोंके संश्लेषसे भी । अन्त्य स्कंधके अतिरिक्त शेष सभी स्कंध परस्पर कार्यरूप भी हैं और कारणरूप भी । जिन स्कंधोंसे बनते हैं उनके कार्य हैं और जिन्हें बनाते हैं, उनके कारण भी।
१. बादर-बादर-स्थल स्थूल:-जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होनेपर स्वयं न मिल सकें, वे लकड़ी, पत्थर, पर्वत, पृथ्वी आदि बादर-बादर हैं । ऐसे ठोस पदार्थ जिनका आकार, प्रमाण और घनफल नहीं बदलता, बादर-बादर कहलाते हैं।
२. बाबर-स्थूल-जो स्कन्ध छिन्न-भिन्न होनेपर स्वयं आपसमें मिल जायें, वे बादर-स्थूल स्कन्ध हैं । यथा- दूध, घी, जल, तेल आदि द्रवपदार्थ, जिनका केवल आकार बदलता है, घनफल नहीं, वे बादर कहलाते हैं।
३. बादर-सूक्ष्म-स्थूल सूक्ष्म - जो स्कन्ध देखने में स्थूल हों, पर जिनका छेदन, भेदन और ग्रहण न किया जा सके, वे बादर-सूक्ष्म कहलाते हैं। यथा छाया, प्रकाश, अन्धकार आदि | आशय यह है कि जो केवल नेत्र इन्द्रियसे गृहीत हो सक और जिनका आकार भी बने, किन्तु पकड़में न आवें, वे बादरसूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं।
४. सूक्ष्म-बाबर-सूक्ष्म-स्थूल---जो सूक्ष्म होनेपर भी स्थूलरूपमें दिखलायो पड़ें, ऐसे पाँचों इन्द्रियोंके विषय-स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द सूक्ष्म-बादर स्कन्ध हैं । जैसे ताप, ध्वनि आदि कर्जाएँ ।
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५. सूक्ष्म-जो स्कन्ध सूक्ष्म होनेके कारण इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण न किये जा सकते हों, वे कार्मण-वर्गणाएँ आदि सूक्ष्म स्कन्ध हैं ।
६. सूक्ष्म-सूक्ष्म-कार्माणवर्गणासे भी छोटे तथणुक स्कन्ध तक सूक्ष्म-सूक्ष्म
परमाण अत्यन्त सक्षम है, वह अविभागी है, शब्दका कारण होकर भी स्वयं अशब्द है और शाश्वत होकर भी उत्पाद और व्यय युक है। परमाणुमें भी त्रयात्मकता पायी जाती है । पुगलपर्याय
शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, प्रकाश, उद्योत, और गर्मी आदि पुद्गलद्रव्यकी पर्यायें हैं।
शब्द पुद्गलहारा ग्रहण किया जाता है, पुद्गलसे धारण किया जाता है, पुद्गलसे रुकता है, पुद्गलोंको रोकता है और गैद्गलिक वातावरणमें अनुकम्पन उत्पन्न करता है, अतः शब्द पोद्गलिक है। स्कन्धोंके परस्पर संयोग, संघर्षण और विभागसे शब्द उत्सन्न होता है। जिह्वा और तालु आदिके संयोगसे नाना प्रकारके भाषात्मक प्रायोगिक शब्द उत्पन्न होते हैं। शब्दके उत्पादक, उपादानकारण तथा स्थूल निमित्तकारण दोनों हो पौद्गलिक हैं । __ दो स्कन्धोंके संघर्षसे शब्द उत्पन्न होता है, वह आस-पासके स्कन्धोंको अपनी शक्तिके अनुसार शब्दायमान कर देता है, अर्थात संघर्ष के निमित्तसे उन स्कन्धोंमें भी शब्दपर्याय उत्पन्न हो जाती है। शब्द बीची-तरंग न्यायसे श्रोताके कर्णप्रदेशको प्राप्त होता है।
शब्द केवल शक्ति नहीं है, अपितु शक्तिमान् पुद्गलस्कन्ध है, जो वायुस्कन्धके द्वारा देशान्तरको जाता हआ आस-पासके वातावरणको झनझनाता है। शब्दके पौद्गलिकत्वकी सिद्धि अनुभव द्वारा भी होती है। निश्छिद्र बन्द कमरे में आवाज करनेपर वह वहीं गुंजती रहती है, बाहर नहीं निकलती। यन्त्रों द्वारा शब्दतरंगोंको देखा जा सकता है। अतः शब्द अमूर्त आकाशका गुण न होकर पौद्गलिक है । १. नादरवादर बादर बादरसुमं च सुहमयूलं च । सुहमं च सुहमसुहमं च धरादियं होदि छन्भेयं ।
--जीवकाण्ड, गाथा ६०२. २. शब्दबन्धसोक्षायसंस्थान दतमाछायातपोद्योतयन्तश्च ।
-तस्वार्थसूत्र, ५।२४. ३५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आधार्म परम्परा
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शब्दके भाषात्मक और अभाषात्मकदोभेदहाभाषात्मक शब्दके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक ये दो भेद हैं। बोल-चालमें बानेवाली विविध प्रकारको भाषाएं, जिनमें पन्थरचना होती है, वे अक्षरात्मक हैं। द्रौन्द्रिय आदि प्राणियों. के जो ध्वनिरूप शब्द उच्चरित होते हैं, वे अनक्षरात्मक शब्द हैं। अभाषात्मक शब्दके वैससिक और प्रायोगिक ये दो भेद हैं। मेष आदिकी गर्जना वेनसिक शब्द हैं और प्रायोगिक शब्द चार प्रकारके हैं:-तत, वित्तस, धन और सुषिर । चमड़ेसे मढ़े हुए मृदंग, भेरी और ढोल आदिका शब्द तत हैं । सातवाले वीणा, सारंगी सादि वाद्योंका शब्द वितत है। झालर, घण्टा बादिका शब्द घन है और शंख, बांसुरी आदिका शब्द सुषिर है।
विज्ञानके आलोकमें शब्दके दो भेद हैं:-(१) कोलाहल और (२)संगीतध्वनि । इनमेंसे कोलाहल बैनसिक वर्गमें गभित हो जाता है। संगीतध्वनिका उद्भव चार प्रकारसे माना जाता है:-(१) तन्त्रोंके कम्पन, (२) तननके कम्पन, (३) दण्ड और पट्टिकाके कम्पन और (४) जिह्वालके कम्पनसे ।
शब्द आकाशका गुण नहीं है, यह पौद्गलिक है-इसे पुद्गलकी पर्याय माना जाता है । यह स्वयं द्रव्यको पर्याय है, और पर्यायका आधार पुद्गल स्कन्ध है । अमूर्त आकाशका गुण माननेपर शब्द भी अमूर्त हो जायगा । बम्ब : पुदगलपर्याय
एक दूसरेके साथ बंधना भी पुद्गलको पर्याय है। निरन्सर गतिशील और उत्पाद-व्यय-धोव्यात्मक परिणमनवाले मनन्तानन्स परमाणुओंके परस्पर संयोग और विभागसे कछ नैसर्गिक और कुछ प्रायोगिक परिणमन इस विश्वके रंगमंचपर प्रतिक्षण हो रहे हैं । इलेक्ट्रोन और प्रोटोन एटममें अविराम गतिसे चस्कर लगाते रहते हैं, वे सूक्ष्म या अतिसूक्ष्म पुद्गल स्कन्धमें बांधे हुए परमाणुओंका ही गतिचक्र है । सब अपने-अपने क्रमसे जब जैसी कारणसामग्री प्राप्त कर लेते हैं, वैसा परिणमन करते हुए अपनी अनन्त यात्रा कर रहे हैं।
परस्पर श्लेषरूप बन्धके बेनसिक और प्रायोगिक ये दो भेद हैं। प्रयत्नके बिना विजलो, मेघ, अग्नि और इन्द्रधनुष आदि सम्बन्धी जो स्निग्ध और कक्षा गुणनिभिसक बन्ध होता है, वह वैनसिक बन्ध है । प्रायोगिक बन्ध दो प्रकारका है:--(१) अजीवविषयक और (२) जीवाजीवविषयक । लाक्षा-लाख, लकड़ी आदिका बन्धअजीव विषयक प्रायोगिक बन्ध है और कर्म तथा नोकर्मका बन्ध जीवाजीवविषयक प्रायोगिक है । यथार्थतः वस्तुओंका परस्पर मिलकर एक होना बन्ध है।
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सूक्ष्मस्व
और स्थूलश्व : पुद्गलपर्याय
सूक्ष्मता और स्थूलता भी पुद्गलकी पर्यायें है; यतः इनकी उत्पत्ति पुद्गल से ही होती है । जो वस्तु नेत्रसे दिखलायी न पड़े अथवा कठिनाईसे दिखलायी पड़े वह सूक्ष्म कहलाती है । इसके दो भेद है:- १. अन्त्य सूक्ष्मत्र और स्थूलल २. आपेक्षिकत्व और स्कूल ।
परमाणु अन्त्य सूक्ष्मत्वका और जगद्व्यापी महास्कन्ध स्थूलत्वका उदाहरण हैं । बेल, आंवला, और बेर आपेक्षिक सूक्ष्मत्व के और इनके विपरीत बेर आंवला और बेल आपेक्षिक स्थूलत्वके उदाहरण है। सूक्ष्मत्वके उदाहरणमें उत्तरोत्तर सूक्ष्मता और स्थूलत्वके उदाहरण में उत्तरोत्तर स्थूलता हैं । ये दोनों पोद्गलिक हैं ।
संस्थान : पुद्गल पर्याय
संस्थानशब्दका अर्थ आकार या आकृति है । आकार पुद्गलद्रव्यमें ही उत्पन्न होता है, अतः इसे पुद्गलकी पर्याय कहा है । संस्थानके दो भेद हैं:(१) इत्थंलक्षण संस्थान, (२) अनित्थंलक्षण संस्थान ।
जिस आकारका 'यह इस तरहका है, इस प्रकारसे निर्देश किया जा सके, वह 'इत्थंलक्षण' संस्थान है और जिसका निर्देश न किया जा सके, वह 'अनित्थंलक्षण' संस्थान है । गोल, त्रिकोण, चौकोर, आयताकार आदि संस्थानोंके आकारोंका निर्देश करना सम्भव है, अतः यह 'इत्थंलक्षण' संस्थान है । मेध आदिका सस्थान - आकार अवश्य है, पर उसका निर्धारण संभव नहीं, अतः यह 'अनित्थंलक्षण' संस्थान है।
संस्थान पुद्गलस्कन्धों में ही संभव है, पुद्गलस्कन्धों के अभाव में संस्थानकानिर्धारण नहीं होता है । अतएव विभिन्न आकृतियाँ पुद्गलकी पर्याय है | भेद: पुद्गलपर्याय
पुद्गल पिण्डका भंग होना भेद है । पुद्गलके विभिन्न भंग - टुकड़े उपलब्ध होते हैं, अतः भेदको भी पुद्गल पर्याय कहा गया है। भेदके छह प्रकार हैं:१. उत्कर— बुरादा - लकड़ो या पत्थर आदिका करोंत आदिसे भेद
करना ।
२. चूर्ण
आदिका सत्तू या आटा ।
३. खण्ड - घट आदिके टुकड़े-टुकड़े हो जाना खण्ड है ।
३५४ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य मरम्परा
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४. चूर्णिका-दालरूपमें टुकड़े, उड़द, मूंग आदिको दाल ।
५. प्रतर-मेघ, भोजपत्र, अभ्रक और मिट्टी आदिको तहें निकालना प्रतर है।
६. अणुचदन-स्फुलिङ्ग-गर्म लोहे आदिमें घन मारना अथवा शान धरते समय स्फुलिङ्गोंका निकलना ।
भंगके और भी भेद संभव हो सकते हैं, ये सभी पुद्गलको पर्यायों में परिगणित हैं । वस्तुतः यह सारा संसार पुद्गलका ही क्रीड़ा-क्षेत्र है । पुद्गल अनेक रूपों और विभिन्न आकृतियों में अपना कार्य सम्पादित करता है । प्रकाश-अन्धकार : पुद्गलपर्याय
सूर्य, चन्द्र, बिजली, दीपक आदिके सम्बन्धसे पुद्गल-स्कन्धोंमें नेत्रोंसे देखने योग्य जो परिणमन होता है, वह प्रकाश है और सर्य आदिके अभाव में जो पुद्गल-स्कन्ध काले (अन्धकारके) रूपमें परिवर्तित होते हैं, वह अन्धकार है । प्रकाश और अन्धकार मूत्तिक हैं,) यत्तः इनका अवरोध किया जा सकता है। तम और अन्धकार एकार्थक हैं और प्रकाशके प्रतिपक्षी हैं। क्योंकि प्रकाशपथमें सघन पुद्गलोंके आजानेसे अन्धकारकी उत्पत्ति होती है । अतएव ये दोनों पौगलिक है। छाया : पुद्गल-पर्याय
सुर्य, दीपक, विद्युत् आदिके कारण आस-पासके पुद्गलस्कंध भासुररूप धारण कर प्रकाशस्कन्ध बन जाते हैं। जब कोई स्थूलस्कन्ध इस प्रकाशस्कन्धको जितनी जगहमें अवरुद्ध रखता है, उत्तने स्थानके स्कन्ध काला रूप धारण कर लेते हैं, यही छाया है । छायाकी उत्पत्ति पारदर्शक अण्वीक्षोंके प्रकाशपथमें आ जानेसे अथवा दर्पणमें प्रकाशके परावर्तनसे होती है। इस छायांके निम्नोक्त भेद हैं :
(१) वास्तविक प्रतिबिम्ब-प्रकाश-रश्मियोंके मिलनेसे वास्तविक प्रतिबिम्ब बनते हैं।
(२) अवास्तविक प्रतिबिम्ब समतल दर्पणमें प्रकाशरश्मियोंके परावर्तनसे बनते हैं।
छाया पुद्गलजन्य है, अतः पुद्गलको पर्याय है । आतप-उद्योत : पुद्गल-पर्याय
सूर्य आदिका उष्ण प्रकाश यातप कहलाता है और चन्द्र, मणि एवं जुगनू आदिका शीत प्रकाश उद्योत कहलाता है । अग्निसे इन दोनोंमें अन्तर है।
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अग्नि स्वयं उष्ण होती है और उसकी प्रभा भी उष्ण होती है, किन्तु आतप और उद्योतके विषय में यह बात नहीं है । आतप मूलमें ठंडा होता है, पर उसकी प्रभा उष्ण होती है । उद्योतकी प्रभा भी ठंडी होती है और मूल भी । आतपमें ऊर्जाका अधिकांश तापकरणोंके रूपमें प्रकट होता है और उद्योतमें अधिकांश उर्जा प्रकाश-किरणों के रूप में प्रकट होती है !
संक्षेप में बंधना, सूक्ष्मता, स्थूलता, चौकोर, तिकोन, आयताकार आदि विभिन्न आकृतियाँ सुहावनी चाँदनी, मंगलमय उबाकी लाली आदि पुद्गलस्कन्धोंकी पर्यायें हैं । निरन्तर गतिशील और उत्पाद-व्यय- प्रोव्यात्मक परिण मनशील अनन्तानन्त परमाणुओंके परस्पर संयोग और विभाग पुद्गलरूप हैं। पुलके विभिन्न प्रकारके परिणमनोंके कारण ही इस सृष्टिकी व्यवस्था चल रही है । अतः पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आदि भी पुद्गल के अन्तर्गत हैं । प्रकाश, गर्मी, उद्योत, आतप प्रभृति शक्तियाँ किसी ठोस आधार में रहनेवाली हैं और यह आधार पुद्गल स्कन्ध ही है । शक्तियाँ जिन माध्यमोंसे गति करतो हैं, उन माध्यमोंको स्वयं उस रूपसे परिणत करासी हुई हो जाती हैं। अतएव पुद्गल आधारके बिना इनको भी उत्पत्ति संभव नहीं है । पुद्गरुके अम्य भेद
पुद्गल जातीय स्कन्धों में विभिन्न प्रकारके परिणमन होनेसे पुद्गलके २३ वर्गणात्मक भेद है':-(१) अणुवगंणा, (२) संख्याताणुवर्मणा, (३) असंख्याताणुवर्गणा, (४) अनन्ताणुवर्गणा, (५) आहारवगंणा, (६) अग्राह्यवर्गणा, (७) तैजसवर्गणा, (८) अग्राह्यवर्गणा ( ९ ) भाषा वर्गणा, (१०) अग्राह्यवगंणा (११) मनोवगंगा, (१२) अग्राह्यवर्गणा, (१३) कार्मण वर्गणा, (१४) ध्रुववर्गणा, (१५) सान्तरनिन्तरवगंणा, (१६) शून्यवगंणा, (१७) प्रत्येकशरीरवर्गणा, (१८) ध्रुवशुष्पवर्गणा, (१९) बादरनिगोदवगंणा, (२०) शून्यवर्गणा, (२१) सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, (२२) नभोवणा और ( २३ ) महास्कन्धवर्गणा ।
इन तेईस वर्गणाओं में आहारवर्गणा, भाषावगंणा, मनोवगंणा और कामंणवर्गणा ये पाँच ग्राह्मवर्गणाएं हैं । इन वर्गणाओं में ऐसा नियम नहीं है कि जो परमाणु एक बार कर्मवगंणारूप परिणत हुए हैं, वे सदा कसंवर्गणारूप हो रहेंगे, अन्यरूप नहीं होंगे या अन्यपरमाणु कर्मवणारूप न हो सकेंगे। प्रत्येक द्रव्यमें अपनी-अपनी मूल योग्यताओके अनुसार जिस-जिस प्रकारकी सामग्री एकत्र होती
१. गोम्मटसार - जीव काण्ड, गाथा ५९३ और ५९४. २. यही गाथा ५९५.
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जाती है, उस उस प्रकारका परिणमन सम्भव है । जो परमाणु शरीर अवस्थामें नोकjaणा बनकर शामिल हुए थे, वे ही परमाणु मृत्युके अनन्तर शरीरके भस्म कर देनेपर अन्य अवस्थाओं को प्राप्त हो जाते हैं। एकजातीय द्रव्य में उस द्रव्यके विशेष परिणमनोंपर बन्धन नहीं लगाया जा सकता । पुद्गल के स्कन्धों में स्वभावतः परिणमन होता रहता है, जिससे उनकी अवस्थाएं निरन्तर परिवत्तित होती रहती हैं ।
स्कन्ध और परमाणु : उत्पत्ति-कारण
स्कन्धकी उत्पत्ति तीन प्रकारसे होती है:
(१) संघात -- पृथक्-पृथक् द्रव्योंकी एकत्व प्राप्तिसे । (२) भेद -- खण्ड-खण्ड होनेसे ।
(३) भेद- संघात - एक ही साथ हुए भेद और संघात दोनोंसे ।
पृथक-पृथक द्रव्यों की एकत्व प्राप्ति परमाणुओं परमाणुओं की भी होती हैं, परमाणु और स्कन्धों की भी होती है और स्कन्धों स्कंधोंकी भी । जब दो या दो से अधिक परमाणु मिलकर स्कंध बनता है, तब परमाणुओंके संघातसे स्कन्धकी उत्पत्ति मानी जाती है। दो स्कंधोंके मिलनेसे तृतीय स्कंधका निर्माण होता है, तो स्कंध संघातसे स्कंधकी उत्पत्ति मानी जाती है ।
बड़े स्कंध टूटने से छोटे-छोटे दो या दो से अधिक स्कंध उत्पन्न होते हैं, ये भेदजन्य स्कन्ध कहलाते हैं । यथा- पत्थर के तोड़नेपर दो या दो से अधिक टुकड़े होते हैं । इस प्रकारके स्कन्धोंकी उत्पत्ति भेदसे होती है । भेदजन्य स्कंध कसे लेकर अनन्ताणुक तक हो सकते हैं ।
भी
जब किसी स्कन्धके टूटनेपर टूटे हुए अवयवके साथ उसी समय अन्य स्कन्ध मिलकर नया स्कन्ध बनता है, तब वह स्कन्ध भेदसंघातजन्य कहलाता है । भेदसंघातजन्य स्कन्ध भी द्वषणुक से अनन्ताणुक तक संभव हैं । अचाक्षुष स्कन्धभेद और संघातसे चाक्षुष हो जाते हैं ।
अणु उत्पत्ति
अणुकी उत्पत्ति केवल भेदसे होती है, इसका कारण यह है कि अणु पुद्गल द्रव्यकी स्वाभाविक अवस्था है, अतः इसकी उत्पत्ति संघात - - मिलनसे नहीं, भेद - टूटने से ही संभव है ।
परमाणु : गतिशीलता
पुद्गलपरमाणु स्वभावतः क्रियाशील है । इसकी गति तीव्र भन्द एवं तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३५७
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मध्यम आदि अनेक प्रकारकी होती है । परमाणु या अणुमें वजन -भार भी होता है, पर उसकी अभिव्यक्ति स्कन्धावस्थामें ही होती है । जिस प्रकार स्कन्धों में अनेक प्रकार के स्थूल सूक्ष्म, प्रतिघाती और अप्रतिघाती परिणमन अवस्थाभेदके कारण सम्भव होते हैं, उसी प्रकार अणु भी अपनी बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके अनुसार दृश्य और अदृश्यरूप अनेक प्रकारकी अवस्थाओंको स्वयमेव धारण करता है । इसमें जो कुछ भी नियतता या अनियतता, व्यवस्था या अव्यवस्था है, वह स्वयमेव है । बोचके पड़ावमें पुरुषप्रयत्नका प्रभाव पड़ता है, पर योग्यताके आधारपर स्थूल कार्य कारणभाव नियत है ।
पुद्गल : कार्य
शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासका निर्माण पुद्गल द्वारा होता है । शरीरको रचना पुद्गल द्वारा हुई है। ये दो भेद हैं: - (१) भाववचन, (२) द्रव्यवचन | भाववचन बीर्यान्तराय तथा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे एवं अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदयसे होता है । यह पुद्गल सापेक्ष होनेसे पौलिक है। पूर्वोक्त सामर्थ्ययुक्त आत्माके द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल ही द्रव्यवचनरूप परिणमन करते हैं, अतः द्रव्यवचन भी पौलिक हैं ।
मनके दो भेद हैं: - (१) भावमन और (२) द्रव्यमन । लब्धि और उपभोगरूप भावमन है, यह पुद्गल सापेक्ष होनेके कारण पौद्गलिक है । ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे तथा आङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदयसे जो पुद्गल गुण-दोषका विचार और स्मरण आदि कार्योंके सम्मुख हुए आत्माके उपचारक हैं, वे द्रव्यमनसे परिणत होते हैं, अतएव द्रव्यमन भी पौद्गलिक है ।
वायुको बाहर निकालना प्राण और बाहरसे भीतर ले जाना अपान कहलाता है । वायुके पौद्गलिक होनेसे प्राणापान मी पुद्गल द्वारा निर्मित है ।
सुख, दुःख, जोषित और मरण भी पुद्गलोंके उपकार है। सुख-दुःख जीवकी अवस्थाएं हैं, इन अवस्थाओं के होने में पुद्गल निमित्त है, अतः ये पुद्गल के उपकार हैं। आयुष्कर्मके उदयसे प्राण, अपानका विच्छेद न होना जीवन है और प्राण - अपमानका विच्छेद हो जाना मरण है। प्राणापानादि पुद्गल स्कन्धअन्य है, अतः ये भी पुद्गलके उपकार हैं ।
धर्मद्रव्य : स्वरूप विश्लेषण
गतिशील जीव और पुद्गलोंके गमन करनेमें जो साधारण कारण है, वह धर्मद्रव्य है । जीव और पुद्गलके समान यह भी स्वतन्त्र द्रव्य है । यह निष्क्रिय है । बहुप्रदेशीय होनेके कारण इसे अस्तिकाय भी कहा जाता है ।
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यह धर्मद्रव्य 'पुण्यका वाची नहीं है । इसके असंख्यात प्रदेश हैं। यह द्रव्यके मूल परिणामी स्वभाव के अनुसार पूर्वपर्यात्रको छोड़ने और उत्तरपर्यायको धारण करनेका क्रम अपने प्रवाही अस्तित्वको बनाये रखते हुए अनादिकालसे चला आ रहा है और अनन्तकाल तक चालू रहेगा । धर्मद्रव्यके कारण ही जीव और पुद्गलोंके गमनकी सीमा निर्धारित होती है। इसमें न रस हैं, न रूप है, न गन्ध है, न स्पर्श है और न शब्द ही है ।'
यह जीव और पुद्गलोंको गमन करनेमें उसी प्रकार सहायक है, जैसे जल मछलीके गमन करने में । यह एक अमूत्तिक समस्त लोक में व्याप्त स्वतन्त्र द्रव्य है । rai : स्वरूप
जिस प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंको गमन करने में सहायक है, उसी प्रकार अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोंके ठहरने या स्थितिमें सहायक है। धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोके चलने में सहायता करता है और अधर्मद्रव्य ठहरनेमें । चलने और ठहरने की शक्ति तो जीव और पुद्गलों में पायी जाती है, पर बाह्य सहायता के बिना इस शक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।
सहायक होनेपर भी धर्म और अधर्मद्रव्य प्रेरक कारण नहीं हैं, न किसीको बलपूर्वक चलाते हैं और न किसीको ठहराते ही हैं, किन्तु ये दोनों गमन करते और ठहरते हुए जीब और पुद्गलोंकों सहायक होते हैं ।
आकाशद्रव्य : स्वरूप
जो जोवादि द्रव्योंको अवकाश प्रदान करता है, वह आकाश है। आकाश अनन्त है, किन्तु जितने आकाशमें जीवादि अन्य द्रव्योंकी सत्ता पायी जाती है, वह लोकाकाश कहलाता है और वह सीमित है । लोकाकाशसे परे जो अनन्त शुद्ध आकाश है, उसे अलोकाकाश कहा जाता है । उसमें अन्य किसी द्रव्यका अस्तित्व नहीं है, और न हो सकता है, क्योंकि वहां गमनागमन के साधनभूत धद्रव्यका अभाव है ।
स्थिति, गमन और रुकावट ये तीनों क्रियाएँ आकाश द्वारा सम्भव नहीं हैं, १. धम्मत्यिकायमरसं अण्णगंध असहमप्फारसं ।
लोगोगाव
पुट्ठ
पिलमसंखादियपदेसं ॥
२. जड़ हवदि धम्मदव्वं तह णं जाणेह दव्त्रमचम्मखं ।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं करणभूदं तु
पुठवीन ॥
वही गाथा ८६.
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ३५९
- पञ्चास्तिकाय गाथा ८३.
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यतः एक द्रव्य द्वारा अपने शुद्धरूपमें एक ही प्रकारको क्रिया सम्भव मानी जा सकती है। क्रियाओं के परस्पर भिन्न होनेपर तो कारण और साधनभूत सामग्रीको भिन्न- भिन मानना पड़ेगा । अतएव लोकाकाशमें गमन के लिए धर्मद्रव्य कारण, स्थिति के लिए अधर्मद्रव्य और रुकावटके लिए आकाशद्रव्य साधन है। आत गति पील पदार्थ गायक है. जहांतक उन तत्त्वोंकी सत्ता पायी जाती है, उसके बागे यह उनके गमनमें रुकावट उत्पन्न करता है ।
आकाश समस्त जीवादि द्रव्योंको स्थान देता है अर्थात् ये समस्त जीवादि द्रव्य आकाशमें युगपत् पाये जाते हैं। यों हो पुद् गलादि द्रव्यों में भी परस्परमें हीनाधिक रूपमें एक दूसरेको अवकाश देते देखा जाता है, किन्तु समस्त द्रव्योंको एक साथ अवकाश देनेवाला आकाश ही सम्भव है । इसके अनन्त प्रदेश हैं। इसके मध्यभाग में चौदह राजू ऊंचा पुरुषाकार लोक है, इसके कारण हो आकाश लोकाकाश और अलोकाकाश रूप में विभाजित है । लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है और अलोकाकाश अनन्त ।
यह निष्क्रिय और अमूर्तिक है। अवकाशदान इसका असाधारण गुण है । दिद्रव्य स्वतन्त्र नहीं है । आकाश-प्रदेशोंमें सूर्योदयकी अपेक्षा पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओंकी कल्पना को जाती है । यह कोई पृथक् द्रव्य नहीं है । आकाशप्रदेशपकियां सब ओर कपड़े में तन्तुको तरह श्रेणीबद्ध हैं ।
एक पुद्गल परमाणु जितने आकाशको रोकता है, उसे प्रदेश कहते है । इस नापसे आकाशके अनन्त प्रदेश हैं । यदि पूर्व पश्चिम आदि व्यबहार होनेके कारण दिशाको स्वतन्त्र द्रव्य माना जाय, तो पूर्वदेश, पश्चिमदेश, उत्तरदेश आदि व्यवहारोंसे 'देशद्रव्य' की सत्ता भी स्वतन्त्र स्वीकार करनी पड़ेगी। इस प्रकार प्रान्त, जिला और सहसील आदि भी पृथक द्रव्य मानने पड़ेंगे।
आकाशमें शब्दगुणकी कल्पना भी सम्भव नहीं है । शब्द पौद्गलिक है, यह पहले ही बताया जा चुका है।
आकाशको प्रकृतिका विकार भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही प्रकृतिके घट, पट, पृथ्वी, जल, अग्नि, प्रभूति विकार सम्भव नहीं है । मूर्तिकअमूर्तिक, रूपी-अरूपी, व्यापक-अध्यापक एवं सक्रिय - निष्क्रिय आदि रूपसे विरुद्ध धर्मवाले एक ही प्रकृतिके विकार सम्भव नहीं हो सकते हैं ।
आकाश अन्य द्रव्योंके समान 'उत्पाद, व्यय और प्रौष्य' इस द्रव्य लक्षणसे मुक्त हैं और इसमें प्रतिक्षण अपने अगुरुलघुगुणके कारण पूर्वपर्यायका ३६० : तीर्थंकर महावीर बौर उनकी आचार्य-परम्परा
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विनाश और उत्तरपर्यायका उत्पाद होते हुए भी सतत अविछिन्नता बनी रहती है । अत: आकाश परिमामोनिस्य है । कालव्य : स्वरूप-विश्लेवन
समस्या उत्पादित करणार में सहायता होता है। इसका लक्षम वर्तना है। यह स्वयं परिवर्तन करते हुए अन्य द्रव्योंके परिवर्तनमें सहायक होता है। कालन्द्रस्यके दो भेद हैं:-(१) निश्चयकाल, (२) व्यवहारकाल । निश्चयकाल अपनी द्रव्यात्मकसत्ता रखता है और वह धर्म और अधर्मद्रव्योंके समान समस्त लोकाकाशमें स्थित है ।
कालद्रव्य भी अन्य द्रव्योंके समान उत्पाद, व्यय और नौव्य लक्षणसे युक्त है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदिसे रहित होनेके कारण अमूर्तिक है। प्रत्येक लोकाकाशके प्रदेशपर एक-एक कालद्रव्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखता है। धर्म और अधर्म द्रव्यके समान वह लोकाकाशव्यापी एक द्रव्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक लोकाकाशप्रदेशपर समयभेदसे अनेक द्रव्य स्वीकार किये बिना कार्य नहीं चल सकता है।
कालव्यके कारण ही वस्तुमें पर्याय-परिवर्तन होता है। पदार्थों में कालकृत सूक्ष्मतम परिवर्तन होने में अथवा पुदगलके एक परमाणुको आकाशके एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेशपर जानेमें जिसना काल या समय लगता है, वह व्यवहार कालका एक समय है। ऐसे असंख्याल समयोंकी आवलि, संख्यास आवलियोंका एक उच्छ्वास, सात उच्छ्वासोंका एक स्तोक, सात स्तोकोंका एक लव, ३८३ लवोंको नाली, दो नालियोंका एक मुहूर्त और तोस मुहूत्र्तका एक अहोरात्र होता है । इसी प्रकार पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, पूर्वांग, पूर्व, नयुतांग, नयुत आदि संख्यातकालके भेद है। इसके पश्चात् असंख्यातकाल प्रारम्भ होता है, इसके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद हैं,
अनन्सकालके भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट मेद किये गये हैं । अनन्तका उत्कृष्ट प्रमाण अनन्तानन्त है । साततस्व: स्वरूप-विचार और भेव
पदार्थ-व्यवस्थाकी दृष्टि से यह विश्व षद्रव्यमय है। पर मुमुक्षुक लिए मुक्ति प्राप्त करनेके हेतु जिस तत्त्वज्ञानकी आवश्यकता होती है, वे तस्व सात हैं। विश्व-व्यवस्थाका ज्ञान होनेपर भी तस्वशानके अभावमें मोल-प्राप्ति सम्भव नहीं है।
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जिस वस्तुका जो भाव है, वह तत्त्व कहलाता है । वस्तुके असाधारण स्वरूपभूत स्वतत्वको तत्त्व कहते हैं । तत्त्वशब्द भावसामान्यका वाचक' है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है, अतः उसका भाव तत्त्व कहा जाता है। तथ्य यह है कि जो पदार्थ जिस रूपसे अवस्थित है, उसका उस रूप में होना, यही यहाँ तत्त्वशब्दका अर्थ है । तत्त्व सात हैं:
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(१) जोव - ज्ञान दर्शन चैतन्यरूप |
(२) अजीव - जड़ द्रव्य - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल 1 (३) आसव - कर्मागमनका द्वार ।
(४) बन्ध - कर्मागमनका बन्धरूपमें परिणमन ।
(५) संवर आयका निरोध ।
(६) निर्जरा -- बंधे हुए कर्मोंका शनैः शनैः विनाश | (७) मोक्ष - समस्त कर्मोंका विनाश ।
तत्त्वनिरूपण प्रक्रिया और विधि
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तवनिरूपणकी मुख्यतः दो शैलियाँ प्रचिलत हैं: - (१) अनुयोगद्वारोंके आधारपर और (२) प्रयोजनीभूत पदार्थों के आधारपर । सत्, संख्या, क्षेत्र आदि अनुयोगद्वारोंके अनुसार बीस प्ररूपणाओं द्वारा जीवादिका विश्लेषण- विवेचनकरना प्रथम शैली है । यह शैली अत्यन्त विस्तृत हैं ।
दूसरी प्रक्रिया आत्मकल्याणके लिए प्रयोजनभूतपदार्थों के निरूपणकी है । ये प्रयोजनीभूत पदार्थ सात हैं, जिनका निर्देश पूर्व में किया जा चुका है । अनादिकालसे जीव तथा कर्म-नोकर्मरूप अजीब मिलकर संयुक्त अवस्थाको प्राप्त हो रहे है । अतएव इस संयुक्त अवस्था में जीव और अजीवको समझना सर्व प्रथम प्रयोजनभूत है ।
ये तत्त्व अनादि हैं। जिस प्रकार काल अनादि, अनन्त हैं, उसी प्रकार ये तत्त्व भी अनादि हैं । पुण्य और पापका अन्तर्भाव आस्रवत्तत्वमें हो जाता है, यतः सात तत्त्व ही प्रमुख हैं। यों तो आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पाँच तत्व भावरूपमें जीवकी पर्याय हैं और द्रव्यरूपमें पुद्गलकी । जिस
१. तत्त्वशब्दो भाव सामान्यवाची । कथम् ? तदिति सर्वनामपदम् । सर्वनाम च सामान्ये वर्त्तते तस्य भावस्तत्त्वम् । तस्य कस्य ? योऽर्थो यथावस्थितस्तथा तस्य भवनमित्यर्थः तथा राजवार्तिकः २२१०६. - सर्वार्थसिद्धि ११२२८.
३६२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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भेदविज्ञानसे आत्मा और परके विवेकशामसे आधारको सांधना द्वारा केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है, उस आत्मा और परमें ये सासों तत्त्व समाहित हो जाते हैं। पर तत्त्वव्यवस्थाको सारा के लिए माता की जानकारी आवमा ।
जिस 'पर'की परतन्त्रताको हटाना है और जिस 'स्व'को स्वतन्त्र करना है, उन 'स्व' और 'पर'के ज्ञानमें ही तत्त्व-ज्ञानको पूर्णता है। यत्तः मुक्तिका साधन 'स्व-पर-विवेकज्ञान' है।
जीवका लक्ष्य दुःखोंसे छुटकारा प्राप्तकर शाश्वत सुख-मोक्षको प्राप्त करना है और इस दुःखसे छूटनेके हेतु जिन पदार्थोकी जानकारी अपेक्षित है, वे पदार्थ तत्व कहलाते हैं । दुःख और दुःखनिवृत्ति करनेके सम्बन्धमें सात प्रकारको जिज्ञासाएं उत्पन्न होती हैं:
(१) स्वतंत्रता प्राप्त करनेवालेका क्या स्वरूप है ?
(२) परतन्त्रता-आवरण करनेवाली वस्तु कौन है और उसका क्या स्वरूप है ?
(३) आवरण करनेवाली वस्तु स्वतन्त्रता प्राप्त करनेवाले जीव तक कैसे पहुँचतो है ?
(४) पहुंचकर वह किस प्रकार बंधती है ? (५) नवीन कर्मबन्धको रोकनेका क्या उपाय है ? (६) पूर्वाजित कर्मोको कैसे नष्ट किया जा सकता है ? (७) मुक्तिका क्या स्वरूप है?
पूर्वोक्त सात तथ्योंको जानकारी प्रत्येक मुमुक्षुके लिए आवश्यक है । जिज्ञासाके फलस्वरूप उत्तरमें प्राप्त सात तत्त्व हो प्रयोजनभूत हैं। आत्मतश्व: निरूपण
आत्महित-साधन करना ही जीवका लक्ष्य है और यह लक्ष्य है मोक्षप्राप्ति । पर मोक्षको प्राप्ति प्रधानकारणोंके जाने बिना संभव नहीं है। आत्माके यथार्थ स्वरूपका निरूपण किये बिना विकारी आत्माका परिज्ञान नहीं हो सकता है । जिस प्रकार रोगीको जबतक अपने मूलभूत आरोग्य स्वरूपका ज्ञान न हो, तब तक उसे यह निश्चय ही नहीं हो सकता है कि मेरी यह अस्वस्थ अवस्था रोग है। रोगके विकारको यथार्थ जानकारी तभी संभव है जब उसे अपनी आरोग्य अवस्थाका परिज्ञान हो जाय।।
इस विश्वमें अनन्स आत्माएं हैं और उनको अपनी स्वतन्त्र सत्ता है । आत्माएं किसी विराट सत्ताका अंश नहीं हैं । सभी आत्माओंका मूल स्वभाव समान हैं, उसमें कोई विलक्षणता नहीं, भेद नहीं। सभी आत्माओंका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : ३६३
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प्रत्येक आत्माका मौलिक स्वरूप एक होनेपर भी संसारकी आत्माओं में जो भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह औपपाधिक है। कर्मो के आवरणकी तारतम्यताके कारण ही आत्माओंमें पारस्परिक भेद दिखलायी पड़ता है । आवरणकी तारतम्यता अनन्त प्रकारको हो सकती है, अतः आत्माके स्वाभाविक गुणोंके विकास और ह्रासकी अवस्थाएँ भी अनन्त हैं।
स्वानुभवसे आत्माके शान-दर्शन-चैतन्यरूप अस्तित्वको सिद्धि होती है। पदार्थों को जाननेवाली आत्मा है, इन्द्रियाँ नहीं । इन्द्रियाँ तो केवल साधनमात्र हैं। आत्माके चले जानेपर इन्द्रियाँ कुछ भी नहीं जान पातीं। इन्द्रियोंके नष्ट हो जानेपर भी उनके द्वारा हुए जिम्मका गात्मक कारण हता है। ____ जड़ और चेतनमें अन्त्यन्ताभाव है, अतः त्रिकालमें भी आत्मा अचेतन नहीं हो सकती। जिस वस्तुका विरोधी तत्त्व न मिले, उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता । चेतनका विरोधी अचेतन पदार्थ है, अतः चेतनका अस्तित्व सिद्ध है।
जिस प्रकार आकाश तोनों कालोंमें अक्षय, अनन्त और अतुल होता है। उसी प्रकार आत्मा भी तीनों कालोंमें अविनाशी और अवस्थित है। इसका ग्रहण ज्ञान-दर्शन गुणके द्वारा होता है।
चैतन्य आत्माका विशिष्ट गुण है। यह आत्माके अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ में प्राप्त नहीं होता । अतः आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है और उसमें पदार्थके ध्यापक लक्षण अर्थक्रियाकारित्व और सत् दोनों घटित होते हैं । आत्मामें जाननेकी क्रिया निरन्तर होती रहती है। ज्ञानका प्रवाह एक क्षणके लिए भी नहीं रुकता। पास्म-भेद विकासदशाको दृष्टिसे आत्माके तीन भेद हैं:१. बहिरात्मा-मिथ्याष्टि-मिथ्यादर्शी, २. अन्तरात्मा-सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शी,
३. परमात्मा.-सर्वदर्शी-सर्वज्ञ । महिरात्मा : स्वरूप
जो मिथ्यात्वभावके कारण शरीर, इन्द्रिय, मन आदिके साथ स्त्री, पुत्र आदि पर-पदार्थोंको अपना समझता है, वह बहिराल्मा है । बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि होता है और वह शरीर एवं इन्द्रियोंको ही आत्मा समझता है।
आत्माके ज्ञान, ध्यान और अध्ययनरूप सुखामृतको छोड़कर इन्द्रियोंके १६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सुखको भोगता है, वह बहिरात्मा है' । देह, कलत्र, पुत्र और मित्रादिक चेतनाके वैभाविक रूप हैं, इनमें अपनेपनकी भावना करनेवाला बहिरात्मा होता है। मिथ्यादर्शनसे मोहित जीव अपने परमात्मा को नहीं समझता और न उसे निजात्मा की ही प्राप्ति होती है । फलस्वरूप वह परपदार्थोंमें आत्मबुद्धि करता है ।
जो मद, मोह और मानसहित है, राग-द्वेषसे नित्य सन्तप्त रहता है, विषयोंमें अति आसक है, वह बहिरात्मा है । "
बहिरात्मामें निम्नलिखित तत्त्व विद्यमान रहते हैं:
१. मिध्यात्वोदय,
२. तीव्र कषायविष
३. आत्मा शरीरके एकत्वको अनुभूति,
४. हेयोपादेय- विचारशून्य ।
मिथ्यात्वगुणस्थान में जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है, सासादन गुणस्थानमें मध्यम बहिरात्मा और मिश्रगुणस्थान में जघन्य बहिरात्मा कहलाता है | यह मुख होता है । अन्तरात्मा विवेचन
जिन्हें स्व-पर-विवेक या भेदविज्ञान अलग हो गया है, जिनकी शरीर नादि बाह्य पदार्थोंसे आत्मदृष्टि हट गयी है, वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हैं । जब जीवकी दृष्टि बाह्य विषयसे हटकर अन्तरकी ओर झुक जाती है, तब वह अन्तरात्मा कहलाता है । यह अन्तरात्मा सभी प्रकारसे जल्पोंसे रहित होता है और देहादिको अपने से भिन्न समझता है तथा निजानुभूतिका पान करता है । अन्तरात्माके निम्नलिखित गुण होते हैं:
१. अप्पाणाञ्ज्ञाणज्ज्ञयणसुमिय रसायणध्वाणं । मोखाण सुहं जो भुंज सोहु महिरप्पा | देहकललं पुत्तं मित्ताइ बिहायचेदणारुवं । अप्पसरूवं भावइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥
रयणसार-गाया १३५, १३७.
२. मिच्छा दंसण - मोहियर पर अप्पा ण मुणे । सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुर्ण संसार ममेद ॥
३. मदमोहमानसहितः
— योगसार, पद्म ७.
रागद्वेषनित्यसन्तप्तः ।
विषमेषु तथा शुद्धः नहिरात्मा भग्यते ह्येषः ॥
- ज्ञानसार, पद्य ३०.
सीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३६५
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१. धर्मध्यानका ध्याता, २. आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति, ३. शरीर और आत्माके भिन्नत्वकी प्रतीति, ४. आत्मनिष्ठाका पूर्ण सद्भाव,
५. जिनवचनोंका विज्ञता । अन्तरात्मा : भेद ___ अन्तरात्माके तीन भेद हैं। इन भेदोंको कल्पनाका आधार गुणोंका विकास है । आत्मगुण जिस परिस्थितिमें विकसित होते हैं, उसो परिस्थितिके अनुसार अन्तरात्माके भेद निर्धारित किये जाते हैं
(१) उत्तम अन्तरात्मा क्षीणकषायगुणस्थानमें अवस्थित आत्मा उत्तम अन्तरात्मा है।
(२) मध्यम अन्तरात्मा-अविरत और क्षीणकषायगुणस्थानोंके बीचमें (५ से ११ में) रहनेवाला मध्यम अन्तरात्मा है।
(३) जघन्य अन्तरात्मा-अविरतगुणस्थानमें उसके योग्य अशुभलेश्यासे परिणत।
जो जीव पांचों महावतोंसे युक्त होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें सदा स्थित रहते हैं तथा समस्त प्रमादोंको जिन्होंने जीत लिया है, वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं । श्रावकके व्रतोंको पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम' अन्तरात्मा हैं। ये जिनवचनमें अनुरक्त, उपशमस्वभावी और महापराक्रमी होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा कहलाते हैं ।' परमात्मा : स्वरूप
शुद्ध आत्मा हो परमात्मा है। जब आत्मा विशुद्ध भ्यानके बलसे कर्मरूपी ईन्धनको भस्म कर देतो है, तो यही परमात्मा बन जाती है।
१. पंचमहब्बय-जुत्ता पम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्च ।
णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होसि ॥ सावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरमा म मजिसमा होति । जिणवयणे अणुरता उवसमसोला महाससा 1। अविरयसम्मादिट्ठी होति बहपणा मिणिदपयभत्ता । अयाणं गिर्दता गुणगहणे सुलु अणुरत्ता ॥
-स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा १९५-१९७. ३६६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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परमात्माके दो भेद हैं:-(१) सकलपरमात्मा और (२) निकलपरमात्मा । अथवा (१) कारणपरमात्मा और (२) कार्यपरमात्मा ।
जन्म, जरा, मरण रहित, आठ कर्म रहित, शुद्ध, ज्ञानस्वभाव, अक्षय और अविनाशी सुखका धारक, अव्याबाघ, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पाप रहित, नित्य, अचल एवं निरालम्ब कारणपात्या लोसा है। प्रौदमिक आणि नार भावोंके अगोचर होनेसे द्रव्यकर्म, भावकम और नोकमरूप उपाधिसे जनित विभाव गुणपर्यायोंसे रहित एवं सहज-शुद्ध परमपारिणामिकभावधारी कारणपरमात्मा
____ अष्ट कर्मोका नाश और समस्त देहादि परद्रव्योंका त्यागकर केवलज्ञानमय आत्माको प्राप्त करना कार्यपरमात्मा है। केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य गुण इस परमात्मामें प्रकट हो जाते हैं। सिद्धपरमेष्ठी कार्यपरमात्मा और अर्हन्तपरमेष्ठी कारणपरमात्मा कहलाते हैं।
सकलपरमात्माका अर्थ भी अर्हन्त है। यहाँ कल-शब्दका अर्थ शरीर है, जो शरीर सहित है, वह सकलपरमात्मा है और शरीर सहित होनके कारण अर्हन्त सकलपरमात्मा है । जो शरीररहित समस्त कर्मकालिमासे मुक्त है, वह निकलपरमात्मा है । शरीररहिस होनेके कारण निकलपरमात्मा कहलाते हैं !
इस प्रकार विकासक्रमकी दृष्टि से आत्मस्वरूपको अवगत कर उसकी निष्ठा करना मोक्षमार्गकी ओर अग्रसर होना है। जोयके भाव : स्वरूप और भेद
चेतन और द्रश्यके स्वभावको भाव कहते हैं। भावका अर्थ चित्तविकार, कर्मोदय सापेक्ष जीवपरिणति, गुण-पर्यायरूप अर्थ एवं विशेष आत्मपरिणति है । वस्तुतः पदार्थों के परिणामको भाव कहा जाता है। ___ आत्माकी दो अवस्थाएँ हैं:-(१) संसारावस्था और (२) मुक्तावस्था। इन दोनों प्रकारको अवस्थाओंमें आत्माकी जो विविध पर्यायें होती हैं, उनको समन्वित कर पांच भेदोंमें विभाजित किया जा सकता है। ये ही भाव अथवा आत्माके स्वतत्व' कहलाते हैं, यतः आत्माके अतिरिक्त अन्य द्रव्यमें ये नहीं पाये जाते।
(१) औपशमिकभाव-कर्मोके उपशमसे उत्पन्न होनेवाली परिणति । (२) क्षायिकभाव-कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाली परिणति । (३) क्षायोपशमिक-कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली परिणति । (४) औदयिक-कमोकि उदयसे उत्पन्न होनेवाली परिणति ।
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(५) पारिणामिक भाव-कमोंके उपशमादिके विना स्वभावरूपमें उत्पन्न होनेवाली परिणति । ___जिस भावके उत्पन्न होने में कर्मका उपशम निमित्त होता है, वह औपशमिक भाव है। कर्मकी अवस्था विशेषका नाम उपमाम है। जैसे कतक-निर्मली आदि
ध्यके निमित्तसे जलमें मिश्रित मैल नीचे षम आसा है और स्वच्छ जल ऊपर निकल जाता है, उसी प्रकार परिणापविरोध के कारण नियशित कालमें कर्मनिषकोंका अन्तर होकर उस कर्मका उपशम हो जाता है, जिससे उस कालके भीतर आत्माका निर्मल भाव प्रकट होता है। कर्मके उपशमसे होने के कारण इसे औपशमिक कहा जाता है।
नीचे जमे हुए मलके हिल जानेपर जिस प्रकार जल पुनः गन्दा हो जाता है, उसी प्रकार उपशमके दूर होते ही कर्मोदयके पुनः आजानेसे भावमें परिवर्तन हो जाता है।
जिस भावके होनेमें कर्मका क्षय निमित्त हो, उसे क्षायिकभाव कहते हैं। जिस प्रकार जलमेंसे मलके निकाल देनेपर जल सर्वथा स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार आत्मासे लगे हुए फर्मके सर्वथा दूर हो जानेसे आत्माका निर्मलभाव प्रकट हो जाता है। अत: यह भाव कर्मके सर्वथा क्षय होनेसे क्षायिक कहलाता है।
जिस भावके होने में कर्मका क्षयोपशम निमित्त है, वह क्षायोपमिक भाव कहलाता है। जिस प्रकार जलमेंसे कुछ मलके निकल जानेपर और कुछके बने रहनेपर जलमें मलकी क्षीणाक्षीण वृत्ति पायी जाती है, जिससे जल पूरा निर्मल न होकर समल बना रहता है। इसी प्रकार आत्मासे लगे हुए कर्मके क्षयोपशमके होनेपर जो भाव प्रकट होता है, उसे क्षायोपमिक भाव कहते हैं।
कर्मोंके उदयसे होनेवाले भावको ओदयिक भाव कहते हैं।
कर्मके, उपशम, क्षय, क्षयोपशम और उदयके विना द्रव्यके परिणाममात्रसे उत्पन्न होनेवाला भाव पारिणामिक कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि बाह्य निमित्तके बिना द्रव्यके स्वाभाविक परिणमनसे जो भाव प्रकट होता है, वह पारिणामिक कहलाता है।
संसारी अथवा मुक्त आस्माकी जितनी पर्यायें होती हैं, उन सबका अन्तभांव इन पांच भावों में ही हो जाता है । ___ संसारी जोवोंमेंसे किसीके तोन, किसोके चार और किसी जीवके पांच भाव होते हैं। तृतीय गुणस्थान तकके समस्त संसारी जीवोंके क्षायोपशमिक, ३६८ : तीर्थकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
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आवधिक और पारिवामिक ये सीन ही भाव होते हैं। चार भाव औपशमिक सम्यक्त्व, कायिक सम्यक्त्व या क्षायिक पारित्रके प्राप्त होनेपर होते हैं और पांच भाव क्षायिकसम्यग्दृष्टिके उपशमश्रेणिका आरोहण करनेपर होते हैं।
मुक्त जीवोंके क्षायिक और पारिणामिक ये दो ही भाव होते हैं। भावोंक भेद-प्रमेव
औपशमिक मायके दो भेद हैं-:(१) ओपमिक सम्यक्त्व मोर (२) ओपशभिक चारित्र।
कर्मकी दश अवस्थाओं में एक उपशान्त अवस्था है। जो कर्मपरमाणु उदीरणाके अयोग्य होते हैं, वे उपशान्त कहलाते हैं। बघःकरण आदि परिणामविशेषोंसे दर्शनमोहनीयके उपशमसे औपशमिकसम्यक्त्व और चारित्रमोहनीयके उपशमसे ओपशमिकचारित्र उत्पन्न होता है । ___ क्षायिकभावके नौ भेद हैं:-(१) केवलज्ञान, (२) केवलदर्शन, (३) नायिक दान, (४) क्षायिकलाभ, (५) क्षायिक भोग, (६) क्षायिक उपभोग, (७) क्षायिकवीर्य, (८) क्षायिकसम्यक्त्व और (९) क्षायिकचारित्र।
मानावरणके क्षयसे केवलझान, दर्शनावरणके क्षयसे केवलदर्शन, पांच प्रकारके अन्तरायके क्षयसे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये लब्धियां, दर्शनमोहनोयकर्मके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व और चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयसे क्षायिकचारित्र प्रकट होते हैं। ___ क्षायोपशमिकभावके अठारह भेद है:-( १-४ ) चार ज्ञान–मति, श्रुत; अवधि और मनःपर्यय (५-७) तीन अज्ञान-कुमति, कुश्रुत और कुअवधि, (८-१२) पाँच लब्धिया-क्षायोपशमिक दान, क्षायोपर्शामक लाभ, क्षायोपशमिक भोग, क्षायोपशमिक उपभोग और क्षायोपामिक वीर्य; (१२-१५) तीन दर्शन-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन; (१६) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व; (१७) क्षायोपशमिक चारित्र एवं (१८) संयमासंयम । ___ यह ध्यातव्य है कि जिन अवान्तर कर्मोंमें देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारके कर्मपरमाणु पाये जाते हैं, क्षयोपशम उन्हीं कर्मोका होता है। नोकषायोंमें देशघाति कर्मपरमाणु ही पाये जाते हैं, अतः उनका क्षयोपशम नहीं होता । तत्तत्कमके क्षयोपशमसे उपयुक्त भाव प्रकट होते हैं।
औदयिकभावके इक्कोस भेद है:-चार गति, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धभाव और षट् लेश्याएँ । गतिनामकर्मके उदयसे नरक, तिर्यञ्च; मनुष्य और देव ये चार गतियाँ
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३६९ २४
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होती हैं। कवायमोहनीयके उदयसे क्रोष, मान, माया और लोभ ये चार कषाय होते हैं । वेदनोकषायके उदयसे स्त्री, पुरुष और नपुंसक ये तीन वेद होते हैं। मिथ्यात्वमोहनीयके उदयसे मिथ्यादर्शन, मानावरणके उदयसे बनानमाव, चारित्रमोहनीयके सर्वधाति स्पर्धकोंके उदयसे असंयत भाव, सभी कर्मोदयसे असिद्ध भाव होते हैं । कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिको लेश्या कहते
__ पारिणामिक भावके तीन भेद हैं:-(१) जीवत्व, (२) भव्यत्व बोर (३) अभव्यत्व ।
जोवत्वका अर्थ चैतन्य है। यह शक्ति आत्माको स्वाभाविक है। इसमें कर्मक उदयादिकी अपेक्षा नहीं रहती, अतएव पारिणामिक भाव है। यही बात भव्यत्व और अभव्यत्वके सम्बन्धमें भी कही जा सकती है। जिस बात्मामें रत्नत्रयके प्रकट होनेको योग्यता है वह भव्य है और जिसमें इस प्रकारको योग्यताका अभाव है। वह अभव्य है।
जीवमें अस्तित्व, अन्यत्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्व बादि अन्य पारिवामिक भाव भी पाये जाते हैं, पर जीवके असाधारण भावको दृष्टिसे उक तीन ही पारिणामिक भाव हैं।
इस प्रकार जीवके मूल भाव पाँच और अवान्तर तिरेपन होते हैं।
यह ज्ञातव्य है कि आत्माएं अखण्ड और मूलतः प्रत्येक बात्मा स्वतन्त्र समान शक्तिवाली हैं। कर्मावरणके कारण आत्माको शक्ति होनाधिक रूपमें विकसित दिखलायी पड़ती है । अजोवतस्व : स्वरूप
अजीवके सम्बन्धसे आत्मा विकृत होती है, उसमें विभाव परिणति उत्पन्न होती है, अतएव अजीवके स्वरूपको जानकारी आवश्यक है। बजीवसे ही आत्मा बघतो है, यही आत्माकी परतन्त्रताका कारण है। अबीवतत्वके अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँचको गणना को जाती है। पूर्वके चार तत्व आत्माका इष्ट, अनिष्ट नहीं करते । पुद्गल द्रव्य ही बात्माके बन्धका कारण है। इसीसे शरीर, मन, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास और वचन आदिका निर्माण होता है।
मुमुक्षुके लिए शरीरको पोद्गलिकताका झान अत्यन्त आवश्यक है। जीवनको आसक्तिका मुख्य केन्द्र यही है । आत्माका विकास प्रायः शरीराधीन है, शरीरके किसी भी अंगके बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञानका विकास रुक जाता है ३७० : वीकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
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और शरीरके नाश होनेपर वर्तमान शक्तियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं, सो भी आत्माका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व तेल-बत्तीसे भिन्न ज्योसिके समान पृथक् है ।
अतएव पुद्गलकी प्रकृतिका परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है, इसके यथार्ष उपयोगसे हो आत्माका विकास किया जा सकता है। आहार-विहारके उत्तेजक होनेपर पवित्र विचारोंकी उत्पत्ति संभव नहीं होती। इसलिए अशुभ संस्कार और विचारोंका तामन करने के लिए प्रबल निमित्तभत शरीरकी स्थिति आदिका परिज्ञान आवश्यक है। जिन परपदार्थो से आत्माको विरक्त होना हे और जिन्हें 'पर' समझकर उनकी छीना-झपटीकी द्वन्द्वदशासे ऊपर उठना है उनका त्याग करनेके लिए अजीव तत्वको समझना है।
बात्मा और बनारण दोनों नथ्य हैं। नोनल गुमर पायो अदिच्छिन्न समुदाय हैं। सामान्यगुणको अपेक्षा दोनों अभिन्न और विशेषगुणको अपेक्षा भिन्न हैं । आत्मा ज्ञानसे सर्वथा भिन्न भी नहीं और सर्वथा अभिन्न भी नहीं है । कथञ्चित् भिन्नाभिन्न है।
वस्तुतः शरीर और चेतन दोनों भिन्नधर्मक हैं। इनका अनादिप्रवाही सम्बन्ध है । चेतन और अचेतन चैतन्यकी दृष्टिसे अत्यन्त भिन्न हैं। अत: वे सर्वदा एक नहीं हो सकते । चेतन शरीरका निर्माता है और शरीर उसका अधिष्ठान, इसलिए दोनोंपर एक दूसरेकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। यह ध्यातव्य है कि शरीरकी रचना तन-विकासके आधारपर होती है। जिस जीवके जितने इन्द्रिय-मन विकसित होते हैं, उसके उतने हो इन्द्रिय-मनके ज्ञान-तन्तु बनते हैं। वे ज्ञान-तन्तु ही इन्द्रिय एवं मानसशान के साधन होते हैं। अतएव शरीर और बात्माके सम्बन्धका परिधान और उसकी अनुभूति प्रत्येक मुमुक्षुके लिए आवश्यक है । भूत और चेतनमें अत्यन्ताभाव है-त्रिकालवर्ती विरोष है। चेतन कभी अचेतन और अचेतन कभी चेतन नहीं हो सकता है। ___ आशय यह है कि जीवके लिए उपयोगी आत्म और अनात्म दोनों ही तत्व हैं, यत: जीव और पुद्गलका बन्ध अनादिसे है और यह बच जीवके अपने राग-द्वेष आदिके कारण उत्तरोत्तर बढ़ता है। अब ये रागादिभाव क्षीण होते हैं, सब यह बन्ध आत्मामें नये विभाव उत्पन्न नहीं कर सकता और शनैः शनै: या एक ही झटकेसे ही समाप्त हो जाता है । आस्रवतस्थ: स्वल्पविवेचन
जीवके द्वारा मन, वचन और कायसे जो शुभाशुभप्रवृत्ति होती है, उसे भावास्रव और उसके निमित्तसे विशेष प्रकारको पुद्गलवर्गणाएँ पाकर्षित
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होकर उसके प्रदेशों में प्रवेश करती हैं, वह द्रव्यासव है । सर्वसाधारणके यह आस्रव कषायवश होनेके कारण बन्धका हेतु होनेसे साम्परायिक कहलाता है । वीतरागयक्तियों के आगामी कर्मबन्धका हेतु न होनेसे ईर्ष्यापथ कहा जाता है।
यचन
जीवमें कर्ममलके आनेको सूचना आस्रव द्वारा प्राप्त होती है । यतः जीव और कर्मका बन्ध तभी सम्भव है, जब जीवमें कर्मपुद्गलोंका आगमन हो । अतः कर्मो के आनेके द्वारको व्यासव कहते हैं । जिस प्रकार नौकामें छेदके द्वारा पानी आता है, अतः वह छेद आसव कहा जाता है, उसी प्रकार मन, और कायको प्रवृत्ति द्वारा कर्मोंका आगमन होता है, तथा यह प्रवृत्ति या शक्ति ही योग कहलाती है। आशय यह है कि हम मनके द्वारा जो कुछ सोचते हैं, वचन-द्वारा जो कुछ बोलते हैं और शरीर द्वारा जो कुछ हलन चलन करते हैं, वह सब हमारी ओर कर्मो के आने में कारण होता है ।
मन, वचन और काकी क्रियाको योग कहा जाता है और योग ही आस्रवका कारण होने से आसव कहा जाता है। योगों मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियों द्वारा आत्मपरिस्पन्दन होता है और इस परिस्पन्दनसे कमका आलव होता है । सारांश यह है कि संसारी जीवके मध्यके आठ प्रदेशोंको छोड़कर शेष सब प्रदेश प्रति समय उद्वेलित होते रहते हैं । जो आत्मप्रदेश प्रथम समय में मात्र के पास थे, वे ही उत्तरक्षण में पैरोंके पास या पैरोंके पाससे मस्तक के पास पहुँचते हैं । संसारावस्था में यह प्रदेशकम्पन - व्यापार - क्रिया प्रति समय होती रहती है। इसी कम्पन -- व्यापारसे कर्म और नोकवर्गणाओंका ग्रहण होता है । इस क्रियाका नाम ही योग है और योग ही आस्रव है ।
शुभयोग से पुण्यकर्मका और अशुभयोगसे पापकर्मका आस्रव होता है । जिन कर्मोंका रस - अनुभाग शुभप्रद है, वे पुण्यकर्म और जिन कर्मोंका अनुभाग अशुभप्रद है, वे पापकर्म कहे जाते हैं ।
काययोग, वाग्योग और मनोयोगके द्वारा आत्मा के प्रदेशों में एक परिस्पन्दन होता है, जिसके कारण आत्मामें एक ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है, जिसमें उसके आसपास भरे हुए सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गलपरमाणु आत्मासे आ चिपटते है । आत्मा और पुद्गलपरमाणुओं के इसो सम्पर्कका नाम आस्रव है । आनवभेव और स्वरूप
इस आवके मूलतः दो भेद हैं: --- (१) साम्परायिक और (२) ईर्यापथिक । क्रोध, मान, माया और लोभरूप इन चार तीव्र मनोविकाररूप कषायोंके वेगसे प्रेरित अवस्थामें उत्पन्न हुआ आस्त्रव साम्परायिक एवं इन विकारोंकी प्रेरणा से रहित साधारण अवस्थामें होनेवाला आस्रव ईर्यापथिक – मार्गगामी कहा जाता
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है। इसके द्वारा आत्मा और कर्मप्रदेशोंका कोई स्थिर बन्ध उत्पन्न नहीं होता। जिस प्रकार सूखे वस्त्रपर लगो हुई धूल शीघ्र ही झड़ जाती है, बहुत समय तक वस्त्रपर चिपटी नहीं रहती, उसी प्रकार कषायके अभावमें होनेवाला आस्रव कर्मबन्धको स्थिरता प्रदान नहीं करता है। पर जब जोयकी मानसिक आदि क्रियाएं कषायोंसे युक्त होती हैं, तब आत्मप्रदेशों में एक ऐसी परपदार्थग्राहिणी दशा उत्पन्न हो जाती है, जिसके कारण उसके सम्पर्क में आनेवाले कर्मपरमाणु शीघ्र उससे पृथक् नहीं होते । ____ आस्रवके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच भेद हैं और ये पांचों आस्रव प्रत्यय होनेके कारण बन्धके हेतु है ।' मिथ्यात्व
अपने स्वरूपको भूलकर शरीर आदि परद्रव्योंमें आत्मबुद्धि करना मिथ्यात्व है । इसे विपरीत श्रवा भी कहा जा सकता है। गिगादपिकी समस्त क्रियाएं और विचार शरीराश्रित व्यवहारोंमें उलझे रहते हैं । लौकिक यशलाभ आदिको कामनासे ही धर्माचरण करता है । इसे स्वपरविवेक नहीं रहता और पदार्थोके स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है ।
यह मिथ्यात्व सहज और गृहीत दो प्रकारका होता है। इन दोनों ही मिथ्याष्टियोंके तत्त्वरुचि जागृत नहीं होती। यह अनेक प्रकारके देव, गुरु और मूढ़ताओंको धर्म मानता है । भनेक प्रकारके ऊंच, नीच आदि भेदोंको सृष्टिकर मिथ्या अहंकारका पोषण करता है । शान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीरके मदसे मत्त होकर अन्य व्यक्तियोंको तुच्छ समझता है । आत्मनिष्ठाके अभावमें भय, स्वायं, घृणा, पर-निन्दा आदि दुर्गुणोंका केन्द्र होता है ।
संक्षेपमें आत्मशकिको न पहचानना और शरीर, इन्द्रिय आदिको वात्मा समझना मिथ्यात्व है । अहंता और ममताके कारण आत्मा अपने निज स्वरूपको पहचान नहीं पाती। मिथ्यात्वके कारण धात्मबोष न होनेसे अपने स्वरूपसे विमुखता बनी रहती है । जिस प्रकार बालक मिट्टीके घरोंदे बनाते और बिगाड़ते रहते हैं, उसी प्रकार आत्मा ही इस संसारको बनाती रहती है । अतएव मिथ्यात्वका त्याग आवश्यक है । मिष्यात्यके पांच भेद हैं:--(१) एकान्स, (२) विपरीत, (३) वैनयिक, (४) संशय और (५) अज्ञान। १. मिण्यताविरदिएमाजोमकोहावलोष विष्णेया । पन पग पगवा तिथ चदु कमसो भेदा दु पुज्वस्स ।।
-द्रव्यसंग्रह ३०. तीपंकर महावीर और उनकी वेशमा : ३७३
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अविरति
सदाचार या चारित्रधारण करने की ओर रुचि या प्रवृत्ति नहीं होना अविरति है । कषायके तीव्रोदय से देशचारित्र और सकलचारित्रको धारण करनेकी प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होती है | अविरतिके पांच व बारह भेद हैं :- (१) हिंसा, (२) असत्य, (३) स्तेय - चोरी, (४) अब्रह्म और (५) परिग्रह - इच्छा अथवा (१-६ ) इन्द्रियों के और मनके विषयोंमें प्रवृत्ति, (७) पृथ्वीकाधिक प्राणियों की हिंसा, (८) जलकायिक प्राणियोंकी हिंसा, (९) तेजकायिक प्राणियों की हिंसा, (१०) वायुकायिक प्राणियोंकी हिंसा, (११) वनस्पतिकायिक प्राणियोंकी हिंसा और (१२) सकायिक प्राणियोंकी हिंसा |
प्रभाव
कुशल कर्मो में अनादर होना प्रमाद है । साधारणतः असावधानीको प्रमाद कहा जाता है | पंचेद्रियविषयोंमं लीन होनेसे, राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा आदि विकथाओं में रस लेनेसे; क्रोध, मान माया और लोभ इन चार कषायों से कलुषित होनेसे तथा निद्रा और प्रणय में मग्न होनेसे कुशल कमोंके प्रति अनादरभाव उत्पन्न होता है और इसी अनादरसे आत्मा के प्रति अनास्था और हिंसाकी भूमिका निर्मित हो जाती है। हिंसा के मुख्य हेतुओंम प्रमादका प्रमुख स्थान है । प्राणीका घात हो या न हो, पर प्रमादोको हिंसाका दोष सुनिश्चित है । प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधकके द्वारा बाह्य हिंसा होनेपर भी वह अहिंसक हो रहता है। अतएव प्रमाद हिंसाका मुख्य द्वार है ।
कवाय
आत्मा स्वभावतः ज्ञान, दर्शन और शान्तिरूप है । उसमें किसी भी प्रकार का विकार नहीं है । पर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएं आत्माको करती हैं और उसे स्वरूपसे च्युत करती हैं । कषायशब्दको व्युत्पत्ति - कष् धातुसे है और कष् धातुके दो अर्थ हैं-कर्षण एवं हिंसा" । जो जीवके सुखदुःख आदि अनेक प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्मरूपी क्षेत्रका कर्षण' - खोदकर या जोतकर १. हिंसानृतस्तया ब्रह्मपरिमा काङक्षा रूपेणावितिः पञ्चविधा अथवा मनःसहितपचेन्द्रियप्रवृत्ति पूथिष्यादिषट्काय विराधनाभेदेन द्वादशविषा
- ब्रह्मदेव, उपसंहृटोका गाया ३० पृ० ८९.
,
२. गोम्मटसार - जीवकाण्ड, गाथा २८१-२८२.
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उपजाऊ बनानेके कारण कषाय कहलाती है। दूसरी व्युत्पत्तिके अनुसार जो देशचारित्र और सकलचारित्रका घात करती है, वह कषाय है । ये चारों आत्माकी विभावदशाएं हैं। क्रोधकषाय द्वेषरूप है और है द्वेषका कारण एवं कार्य । मान क्रोधको उत्पन्न करनेके कारण द्वेषरूप है । माया लोभको जागृत करनेसे रागरूप है तथा लोभ भी राग है। इस प्रकार राग-द्वेष और मोहको त्रिपुटीमें कषायका भाग मुख्य है। ये कषाएं बड़ी प्रबल हैं। लोभ कषाय तो बड़े-बड़े त्यागियों को भी विलित कर देती हैं। कषायका त्याग किये बिना बात्मचेतना निर्मल नहीं हो सकती। ये इस प्रकारके विकार हैं, जो निरन्तर बास्माको कलुषित बनाते हैं।
वस्तुतः ये विकार ही आत्माके अन्तरंग शत्रु हैं। इनके हटानेसे आत्म-दृष्टि प्राप्त होती है। कषायके २५ मेद हैं ।सोलह कषाय और नव नो-कषाय हैं । सोलह कषायोंके अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोमको गणना है। इन कषायोंके अतिरिक्त हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रोवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी गणना नोकषायोंमें है। इन कषायोंके कारण हो आत्मामें विकारपरिणति उत्पन्न होती है । योग
मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्म-प्रदेशोमें होनेवाले परिस्पन्दकियाको योग कहते हैं। आत्मा सक्रिय है। उसके प्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है। अतः मन, वचन और कायके निमित्तसे सदा उसमें क्रिया होती रहती है । जिस प्रकार लोहेका गर्म गोला पानी में डाल देनेपर चारों ओर जलीय परमाणुओंका आकर्षण करता है, उसी प्रकार योगके कारण आत्मा सभी ओरसे कर्मवर्मणाबोंको खींचती है। योग कर्मपरमाणुओको लानेका कार्य करता है और कवाय उन कर्मपरमाणु बोंको सम्बद्ध कराती है। योगके पन्द्रह भेद हैं:
(२) सत्य मनोयोग- समीचीन पदार्थको विषय करनेवाला मनोयोग । (२) असत्य मनोयोग---सत्यसे विपरीत मिथ्या पदार्थको विषय करनेवाला । (३) उभय मनोयोग-सत्य और मिथ्या दोनों प्रकारका मन-दोनों प्रकार
के पदार्थीको विषय करनेवाला मन | (४) अनुमय मनोयोग-न सत्य और न मृषा । (५) सत्य वचनयोग-सत्यार्यके वाचक वचन । (६) बसत्य वचनयोग-असत्यार्थक वाचक वचन । (७) उभय वचनयोग-उमयापक वाचक वचन ।
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(८) अनुभयवचनयोग अनुपयार्थक वाचक वचन | (९) औदारिककाययोग-स्थूलशरीरजन्य काययोग । (१०) औदारिकमिश्रकाययोग--औदारिकशरीर पूर्ण होनेके पहले। (११) क्रियिककाययोग-विभिन्न प्रकारको विक्रिया-रूपान्तर करने
___ की शक्ति । (१२) वैयिकभित्रकाययोग-वक्रियिकशरीरके उत्पन्न होनेकी पूर्व
स्थिति। (१३} आहारककाययोग-रसादि धातुरहित उत्कृष्ट संस्थान बोर संहनन
सहित उत्तमांग-सिरसे उत्पन्न (१४) आहारकमिश्नकाययोग-आहारफशरीर पूर्ण होनेकी पूर्व स्थिति।
(१५) कार्मणकाययोग-ज्ञानावरणादि अष्टकोका समूह । बन्ध
दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्धको बन्द कहा जाता है। बन्धके दो भेद हैं:--(१) भावबन्ध और (२) द्रव्यबन्ध । जिन राग-द्वेष और मोहादि विकारो भावोसे कर्मका बन्ध होता है, उन भावोंको भावबन्ध कहते हैं और कर्मपुद्गलोंका आत्म-प्रदेशोंसे सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। द्रव्यवन्ध आत्मा और पुद्गलका सम्बन्ध है। कर्म और आत्माके एकक्षेत्रावगाही सम्बन्धको बध कहा जाता है । यह बन्ध सभी आत्माओंके नहीं होता है। जो आत्मा कषायवान है, वही आत्मा कर्मों को ग्रहण करतो है । यदि लोहेका गोला गर्म न हो, तो पानीको ग्रहण नहीं कर पाता है। पर गर्म होनेपर वह जैसे अपनी ओर पानीको खींचता है, उसी प्रकार शुद्धात्मा कर्मोको ग्रहण करने में असमर्थ है, पर जब कषायसहित आत्मा प्रवृत्ति करती है, तो वह प्रत्येक समय में निरन्तर कमोको ग्रहण करती रहती है । इस प्रकार कर्मोंको ग्रहण करके उनसे संश्लेषको प्राप्त हो जाना ही बन्ध है । बन्धके भोग और कषाय ये दो प्रधान हेतु हैं। भेदविवक्षासे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग थे पांच हेतु बन्धके हैं ।
यहां यह ध्यातव्य है कि यह बन्ध संयोगपूर्वक नहीं होता। यह तो एक ऐसा मिश्रण है, जिसमें रासायनिक परिवर्तन होता है। मिलनेवाली दोनों पस्तुएं अपनी वास्तविक अवस्थाको छोड़कर एक तीसरी अवस्थाको प्राप्त हो जाती है । उदाहरणार्थ-दूध और पानीको मिश्रित अवस्थाको लिया जा सकता है। इस मिश्रित अवस्थामें न तो दूध अपनी यथार्थ अवस्थामें रहता है और न पानी ही। बल्कि दूध और पानीको मिश्रित एक तृतीय अवस्था होती है। इसी प्रकार जोष और कर्म परस्परमें सम्बन्धित होनेपर न तो जोव ही अपनी शुद्ध अवस्मामें १७१ : वीकर महावीर और उनकी काबार्य परम्परा
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रहता है और न कर्मयुद्गल हो । दानों दोनांसे ही प्रभावित होते हैं । यही बन्ध है । आस्त्रय और बन्ध संसारके कारण हैं। आस्रवको कर्मबन्धका कारण माना गया है ।
संवर
आस्रवका निरोध संवर हे । मुमुक्षु जीव कर्मके आसवके कारणोंको पहचान कर जब उनसे विरुद्ध वृत्तियोंका अवलम्बन लेता है, तो आत्रव रुक जाता है और आस्रवका रुकना हो संवर है । कर्मास्रवका निरोध मन वचन, कायके अप्रशस्त व्यापारके रोकने, विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करने, क्षमा आदि धर्मों का आचरण करने, अन्तःकरण में विरक्तिके जाग्रत होने और सम्यक्चारित्रका अनुष्ठान करने से होता है ।
कोई भी साधक भोग क्रियाका सर्वथा निरोध नहीं कर सकता । उठना, बैठना, सम्भाषण करना आदि जीवनके लिये अनिवार्य हैं। अतएव विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करनेसे संवर होता है। वस्तुतः आत्मसुरक्षाका नाम संदर है। जिन द्वारोंसे कर्मो का आस्रव होता है, उन द्वारोंका निरोध कर देना संवर कहलाता है । आसव योगसे होता है । अतएव योगकी निवृत्ति ही संवर है ।
शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आहारादिका ग्रहण करना बनिवायं रहता है, पर इन प्रवृत्तियों पर विवेकका नियंत्रण रहता है ।
संचरके छः हेतु हैं:
(१) गुप्ति - अकुशल प्रवृत्तियोंसे रक्षा । (२) समिति – सम्यक् प्रवृत्ति | (३) धर्म - आत्मस्वरूप परिणति ।
(४) अनुप्रेक्षा - आत्म-चिन्तन ।
(५) परीषह्जय–स्वेच्छ्या क्षुधा, तृषा आदिको वेदनाका सहना । (६) चारित्र - समताभावकी आराधना |
वस्तुतः नवीन कर्मोंका आत्मामें न आना ही संवर है । यदि नवीन कर्मोका आगमन सर्वदा जीवमें होता रहे, तो कभी भी कर्म-बन्धनसे छुटकारा नहीं मिल सकता है ।
मिरा
निर्जराका अर्थ है जर्जरित कर देना या झाड़ देना । बद्ध कर्मोंको नष्ट कर देना या पृथक् कर देना निर्जरातस्य है। निर्जरा दो प्रकारकी होती है:(१) ओपक्रमिक या अविपाक निर्जरा गौर (२) अनोपक्रमिक या सविपाक निर्जरा ।
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तप आदि साधनाओंके द्वारा कोको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है | स्वाभाविक क्रमसे प्रतिसमय कोका फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा प्रत्येक प्रामीको प्रतिक्षण होती रहती है। इसमें पुराने वमोंका स्थान नवीन कर्म लेते जाते हैं । गुप्ति, समित्ति और तपरूपी अग्निसे कर्मोको फल देनेके पहले ही भस्म कर देना अविपाक निर्जरा है । यह मिथ्या धारणा है कि कोकी गति टल नहीं सकती । पुराने संस्कार हो कर्म हैं। यदि आत्मामें पुरुषार्थ है, तप-साधना है, तो क्षणमात्रमें पुरातन वासनाएं क्षीण हो सकती हैं।
विवश होकर, हाय-हाय करते हुए कोका फल भोगना और उन्हें निरित करना तो एक साधारण सी रात है । अजित कर्म-संस्कार इच्छापूर्वक समभावसे कष्ट सहने एवं तपाचरण करने आदिसे ही नष्ट होते हैं । अत: नवीन कोंके बन्धको रोकना और संचित कोकी निर्जरा करना जीवका पुरुषार्थ है। मोक्ष
कर्म-बन्धनोंसे छुटकारा प्राप्त करना मोक्ष है। यहां कर्मोके नाशका अर्थ इतना ही है कि कर्मपुद्गल जीवसे भिन्न हो जाते हैं। कामंणवर्गणाएं यात्माने साथ संगुल होने का मात्र के दुका घात करनेसे कमंत्वपर्यायको धारण करती हैं और मोक्षमें यह कर्मपर्याय नष्ट हो जाती है । अर्थात् कर्मबन्धनसे छूटकर शुद्ध एवं सिद्ध हो जाती है, उसी तरह कर्मपुद्गल भी अपनी कर्मस्वपर्यायसे उस समय मुक्त हो जाते हैं। अतः बारमा और कमपुद्गलका सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष है। मोक्षमें दोनों द्रव्य अपने निज स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं। न तो आत्मा दोपकको तरह बुझ जाती है और न कर्म-पुद्गलका ही सर्वथा समूल नाश होता है। दोनोंको पर्यायान्तर हो जाती है। जीव शुद्ध दशाको प्राप्त हो जाता है और पूगल मी यथासम्भव शुद्ध या अशुद्ध स्थितिको प्राप्त होता है। ___ इन सप्त तत्वोंके स्वरूप विवेचनके अनन्तर कर्म-सिद्धान्त या जीव और कर्मके सम्बन्धपर विचार करना परमाश्यक है। साधारणतः कर्मके दो रूप हैं:-(१) कर्म और (२) नोकम । शरीर, परिवार, धन, सम्पत्ति बादि सब नोकमं हैं। इन नोकोके भी दो प्रकार बतलाये गये हैं:-बद्ध नोकर्म और अवद्ध नोकर्म | बद्धका अर्थ है बंधा हआ और अबढका बर्ष है नहीं बंधा हुआ। संसारदशामें जहाँ शरीर है, वहाँ यात्मा है और जहां बात्मा है, वहां शरीर है। दोनों दूध और पानीकी तरह एक दूसरेसे बंधे हुए हैं। यद्यपि इन दोनोंका स्वरूप मार सत्ता पथक्-पृथक् है, पर अनादि कालसे शरीरमें ३७८. : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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आमाका निवास रहा है। एक शरीर छोड़ा तो दूसरा प्राप्त हो गया, दूसरा छोड़ा तो तीसरा प्राप्त हो गया। एक शरीरको त्यागकर दूसरे शरीरकी ओर जाते समय विपने तेजस को कार्यष्ट शरीर साथ रहते हैं । संसारी आत्मा के ऐसा एक भी क्षण नहीं है, जब वह बिना किसी भी प्रकारके शरीरके संसारावस्था में स्थित रही हो । अतः शरीर आत्मा के साथ बद्ध नोक है । अबद्ध नोकर्मी के अन्तर्गत धन, भवन, परिवार, स्त्री-पुत्रादि सदा साथ तो रहते हैं, पर वे सम्पृक्त नहीं हैं। अतएव आत्मा और कर्मके बन्धका, कर्मफलका एवं कर्म-बन्धनसे छूटनेका विचार करना आवश्यक है ।
कर्मस्वरूप
आत्मा अनादि कालसे कर्मबद्ध है । यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्म - शरीरसे सम्बद्ध हैं । इसके ज्ञान, दर्शन, सुख, वोर्य आदि गुण बन्धके कारण विकृत हो रहे हैं । जोव और पुद्गलका बन्ध अनादिसे है और यह जीवके राग-द्वेष आदि भावोके कारण होता है । यह केवल संस्कारमात्र नहीं है । किन्तु वस्तुभूत पदार्थ है । इस विश्वमें पुद्गलको तेईस वर्गणाएँ व्याप्त हैं । इन वर्गणाओं में एक कार्मण वर्गणा भी हैं, जो सर्वत्र विद्यमान है । यह कार्मणवर्गणा ही राग-द्वेषसे युक्त जीवको प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और कायिकक्रिया के साथ एक द्रव्यके रूपमें जीवमें आती है, जो उसके राग-द्वेषरूप भावोंका निमित्त पाकर जीवसे बँध जाती है और समय आनेपर शुभ और अशुभ फल देती है । सारांश यह है कि जब राग-द्वेषसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्त होती है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूपसे उसमें प्रवेश करता है ।' अतः स्पष्ट है कि कर्म एक मूर्त पदार्थ है, जो जीवकी राग-द्वेषमोहरूप परिणतिके कारण बन्धको प्राप्त होता है ।
कमंकी पौद्गलिकता
कर्म न संस्काररूप है, न वासनारूप हो । यह तो पौद्गलिक है । यह जीवात्माके आचरण, पारतन्त्र्य और दुःखोंका हेतु है, गुणोंका विघातक है । अतएव यह आत्माका गुण नहीं हो सकता । जिस प्रकार बेड़ीसे मनुष्य बंधता हैं, सुरापानसे पागल बनता है और क्लोरोफॉर्मसे बेसुध होता है। ये सब
१. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो ।
वं पविसदि
कम्मरयं
मागावरणादिमाह ॥
- प्रवचनसार, संयतत्त्वज्ञापना, भाषा १८७
तीर्थंकर महावीर और उनकी बेना : ३७९
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पोद्गलिक वस्तुएँ हैं। उसी प्रकार कर्मके संयोगसे भी आत्माको विमिन्न अवस्थाएँ प्रकट होती हैं। अतएव यह भी योद्गलिक है। बेड़ी आदि बन्धन आज बाहरो बन्धन है और अल्प सामर्थ्य वाले हैं। कर्म आस्माके साथ चिपके हुए तथा अधिक सामयं वाले सूक्ष्म स्कन्ध हैं। अतएव उनकी अपेक्षा कर्मपरमाणुओंका जीवात्मापर गहरा और आन्तरिक प्रभाव पड़ता है।
शरीर पौद्गलिक है। उसका कारण कर्म है। अतः कर्म पौद्गलिक है । पोद्गलिक काका सम्पामो कारण पालक होगा । आहार आदि अनुकूल सामग्रीसे सुखानुभूति और शस्त्र प्रहारादिसे दुःखानुभूति होती है । आहार और शस्त्र पौद्ल क हैं, इसी प्रकार सुख-दुःखके हेतुभूत कर्म भी पौदगलिक हैं।
बन्धको अपेक्षा जीव और पुद्गल अभिन्न हैं, एकमेक है। लक्षणको अपेक्षा वे भिन्न हैं। जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन। जीव अमूर्त है और पुद्गल मूर्त। इन्द्रियोंके विषय स्पर्शादि मर्त है और इन विषयोंको भोगने बाली इन्द्रियाँ भी मूर्त हैं । अतः उनसे होनेवाला सुख-दुःख भी मूर्त हैं। इस प्रकार कम पौद्गलिक सिद्ध होते हैं। मात्मा और कर्मका सम्बन्ध
आत्मा अमूर्त है, तब उसका मूर्त कर्मसे कैसे सम्बन्ध हो सकता है ? यतः मूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध तो सम्भव है, पर अमूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध कैसे हो सकेगा ? अनादि कालसे कर्मबद्ध विकारी आत्मा ही दिखलाई पड़ती है । ये आत्माएं कथंचिद् मूर्त हैं, क्योंकि स्वरूपतः अमूर्त होते हुए भी संसारदशामें मूर्त हैं। जीव दो प्रकारके हैं:-रूपी और अरूपी | मुक्त जीव अरूपी हैं और संसारी रूपी । जो आत्मा शुद्ध हो जाती है, वह फिर कर्मबन्धनमें नहीं पड़ती है । जीव और कर्मका अनादि सम्बन्ध है । यतः जो जीव संसारमें स्थित है-जन्म-मरणको धारामें पड़ा हुआ है, उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते हैं। इन परिणामोंसे नये कर्म बंधते हैं। कर्मों से गतियोंमें जन्म लेना पड़ता है । जन्म लेनेसे शरीर प्राप्त होता है. शरीरमें इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण होता है, विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट वस्तुओंमें राग और अनिष्ट वस्तुओंसे द्वेष होता है। इस प्रकार संसाररूपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोंसे कर्मबन्ध और कर्म बन्धसे राग-द्वेषरूप भाव होते हैं। यह संसारचक्र अभव्य जीवकी अपेक्षासे अनादि अनन्त है और भव्य जीवकी अपेक्षासे अनादि-सान्त है।' 1. जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होबि परिफामो ।
परिगामादो कम्म कम्मायो होवि मविसु गदी ॥ ३८० : सीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सारांश यह है कि यह वात्मा मनादिसे अशुद्ध है और प्रयोग द्वारा शुद्ध हो सकती है। कम एक भौतिक पिण्ड है, यह विशिष्ट शक्तिका स्रोत है । जब यह बारमासे सम्बद्ध होता है, तो उसकी सूक्ष्म और तोत्र शक्तिके अनुसार बाह्य पदार्थ भी प्रभावित होते हैं तथा प्राप्त सामग्रीके अनुसार उस संचित कर्मका तीव, मन्द और मध्यम आदि फल मिलता है। इस प्रकार यह कर्मचक्र अनादिकालसे चल रहा है और तब तक चलता रहेगा, जब तक बन्धफारक मूल रागादि वासनाओंका विनाश नहीं होगा। ___ व्यवहारको अपेक्षा यह जीव मूत्तिक है तथा राग-द्वेषादिवासनाएं और पुद्गलकर्मबन्धको धारा बीज-वृक्षासन्ततिकी तरह अनादिसे चालू है। पूर्व संचित कमके उदयसे राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और तत्काल में जो जीवकी आसक्ति या लगन होती है, वह नूतन कर्मबन्ध कराती है।
समान क्षेत्रमें रहनेवाले जीवके विकारी परिणामको निमित्तमात्र करके कामणवर्गणाएं स्वयमेव अपनी अन्तरंग शक्तिके कारण कर्मरूपमें परिणमित हो जाती हैं। लोकमें जीव और कर्मबन्धके योग्य पुद्गलवर्गणाएं सर्वत्र हैं, जीवके जैसे परिणाम होते हैं, उसी प्रकारका कर्मबन्ध होता है। अतएव अनादिसन्ततिरूप प्रवत्र्तमान देहान्तररूप परिवर्तनका आश्रय लेकर शरीरका निर्माण होता है और इससे कमका बन्ध होता है। कर्मक मूलमेव
कर्मके दो भेद हैं:-(१) द्रव्यकर्म और (२) भायकर्म । जीवसे सम्बद्ध कर्मपुद्गलोंको द्रव्यकम कहते हैं और द्रव्यकर्मके प्रभावसे होनेवाले जीवके रागद्वेषरूप भावोंको भावकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्म और भावकर्ममें कारण-कार्यका सम्बन्ध है; व्यकम कारण है और भावकर्म कार्य | न बिना द्रव्यकमके भाव
अदिपिंगवस्स बेहो बेहाको इन्धिमागि जायते । देहि दु विसमगहगं तत्तो रामो वा दोसो वा ॥ पायदि बीवस्सेवं भावो संसारमकवालम्मि । इदि जिगवरहि भगिदो अगादिगियनो सभिषणो वा॥
-पंपास्तिकाय पापा, १२८-११०. १. कम्मरणपाओग्या संषा जीवस्स परिचई पप्पा । मच्छति कम्मभावं प हि ते कोण परिणामिया ॥
-प्रवचनसार गा० १९९.
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फर्म होते हैं और न विना भावकमके द्रव्यकर्म ही। इन दोनोंमें बीज-वृक्ष सन्ततिके समान कार्य-कारणभाव सम्बन्ध विद्यमान है।
द्रव्यकर्म पौद्गलिक है और भाबकर्म आत्माके चैतन्यपरिणामात्मक हैं; क्योंकि आत्मासे कथंचित् अभिन्नरूपसे स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं।'
वस्तुत: कर्मपरमाणुओंको आत्मा तक लानेका कार्य जीवको योगशक्ति और उसके साथ उनका बन्ध करानेका कार्य कषाय-जीवके राग-द्वेषरूप भाव करते हैं । जीयको परिस्पन्दनरूप योगशक्ति और रागद्वेषरूप कषाय बन्धका कारण है। करायके नष्ट हो जानेपर योगके रहने तक जीवमें कर्मपरमाणुओंका आस्रव-आगमन तो होता है, पर फषायके न होने के कारण वे ठहर नहीं सकते । उदारणार्थ योगको वायु, कषायको गोंद, आत्माको दोवाल और कर्मपरमाणुओंको धूलकी उपमा दी जा सकती है। यदि दीवाल पर गोंद लगी हो तो वायुके द्वारा उड़कर आनेवाली धूल दीवालसे चिपक जाती है, पर दीवाल स्वच्छ, चिकनी और सूखी हो, तो धल दीवालपर नहीं चिपकती, बल्कि तुरन्त झड़ जाती है। धूलका हो । अधिक में उड़कर बागा काके यमपर निर्भर है । वायु तेज होगी, तो धूल भी अधिक परिमाणमें उड़ेगी और वायु मन्द होगी, तो धूल कम परिमाणमें उड़ेगी। धूलका कम या अधिक समय तक चिपका रहना गोंद या आर्द्रताकी मात्रा पर निर्भर करता है। जितनी अधिक चिकनी चीज दीवालपर रहेगी, घल उसी चिकनाहट की मात्राके अनुसार कम या अधिक समय तक रहेगी । अतएव संक्षेपमें योग और कषाय ही बन्धक कारण हैं। बन्धके भेद
बन्धके चार प्रकार हैं:-(१) प्रकृतिबन्ध (२) प्रदेशबन्ध (३) स्थितिबन्ध और (४) अनुभागबन्ध । इनमें प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका हेतु योग है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका हेतु कषाय है । इन दोनों कारणोंसे हो कर्मका बन्ध होता है और अभाबमें नहीं। बन्ध कम और आत्माके एक क्षेत्राबगाही सम्बन्धका नाम है । जो आत्मा कषायवान है, वही कर्मोको ग्रहण कर बाँधतो है। १. द्रम्पकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकपा । __ भावकर्माणि चैतन्यविवत्मिानि भान्ति नुः ।। कोषादीनि स्ववेद्यानि कचिच्चिदभेदतः ॥
-आप्तारोक्षा, ११३-११४ ।
३८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्रकृति और परेशानन्द
प्रकृतिका अर्थ स्वभाव है । कर्मका बन्ध होते ही उसमें जो ज्ञान और दर्शनको रोकने, सुख-दुःख देने आदिका स्वभाव पड़ता है, वह प्रकृतिबन्ध है । प्रदेशबन्धका अर्थ है कर्मपरमाणुओं की गणना । एक कालमें जितने कर्मपरमाणु बन्धको प्राप्त होते हैं, उनका वैसा होना ही प्रदेशबन्ध है । वस्तुतः कर्मपरमाणुओं की संख्या का नियत होना प्रदेशबन्ध है ।
स्थिति और बनुभागबन्ध
स्थितिका अर्थ कालमर्यादा है। प्रत्येक कर्मका बन्ध होते ही उसका सम्बन्ध आत्मासे कब तक रहेगा, यह निश्चित हो जाता है। इस प्रकार कर्मबन्धके समय उसको कालमर्यादाका निश्चित होना स्थितिबन्ध है ।
अनुभागका अर्थ फलदानशक्ति है, जो कर्मबन्धके समय ही पढ़ जाती है । इस शक्तिका स्थित हो जाना ही अनुभागबन्ध है ।
कर्मोंमें विभिन्न प्रकारके स्वभावका पड़ना और उनकी संख्याका होनाधिक. होना योगपर निर्भर है तथा जीवके साथ कम या अधिक समय तक स्थित रहने की शक्तिका पड़ना और तीव्र, या भन्द फलदान शक्तिका स्थिर होना कषायपर निर्भर है ।
प्रकृतिवन्ध मेव वीर स्वरूप
आत्माकी योग्यता और अन्तरंग-बहिरंग निमितोंके अनुसार नाना प्रकारके परिणाम होते हैं । इन परिणामोंसे ही बंधनेवाले कर्मो के स्वभावका निर्माण होता है । यों तो बंधनेवाले कमोंके स्वभावोंका विभाग किया जाय तो अनेक प्रकारका हो सकता है, पर सामान्यत. विविध स्वभाववाले कर्मोंको आठ भागों में विभक्त किया जा सकता है और इससे प्रकृतिबन्धके मूल आठ मेद प्राप्त होते हैं:
(१) ज्ञानावरण - आत्माकी बाह्य पदार्थोंको जाननेकी शक्ति के आवरण करनेमें निमित्त ।
(२) दर्शनावरण - आत्माकी स्वयंको साक्षात्कार करनेकी शक्ति के आवरण करनेमें निमित्त ।
(३) वेदनीय-बाह्य बारुम्बनपूर्वक सुख-दुःखके वेदन कराने में निमित्त । (४) मोहनीय – राग, द्वेष और मिध्यात्वके होने में निमित्त !
(५) आयु — आत्माकी नर-नरकादि पर्याय धारण करानेमें निमित्त |
(६) नाम - जीवकी गति, जाति आदि पुद्गलको शरीर आदि विविध जयस्वाओंके होने में निमित्त ।
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(७) गोत्र – आत्माके ऊंच और नीच भाव होने में निमित्त । (८) अन्तराय - आत्माके दानादिरूप भावोंके न होनेमें निमित्त ।
प्रकृतिबन्धके ये आठ भेद घातिकर्म और अधातिकर्म इन दो भागों में विभक्त हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय के चार घातिकर्म कहलाते हैं और वेदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र ये चार अघातिकर्म कहलाते हैं ।
आत्मामें अनुजीवी और प्रतिजीवी दो प्रकारकी शक्तियाँ हैं । जो शक्तियाँ या गुण भाव स्वरूप हैं, वे अनुजीवी कही जाती है और जो शक्तियाँ अभाव स्वरूप हैं, वे प्रतिजीवी मानी जाती हैं। इन दोनों प्रकारके गुणोंमेंसे जिनसे अनुजीवी गुणोंका घात होता है, वे घातिकर्म हैं और प्रतिजीवी गुणोंका घात करनेवाले अघाति कर्म हैं ।
यहाँ यह व्यातव्य है कि वेदनीय कर्म सुख-दुःखका वेदन कराने में निमित्त है, पर यह मोहनीयसे मिलकर ही सुख-दुःखका वेदन कराता है ।
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आगममें घातिकर्मो के भी दो भेद बतलाये है - (१) सर्वघाति और देशघाति । जो कर्म जीवके स्वाभाविक - अनुजीवी गुणोंका पूर्णतया घात करते हैं, वे सर्वधाति और जो उनका एक देश घात करते हैं, वे देशघाति कहलाते हैं । कर्मप्रकृतियोंके उत्तर भेव
(१) ज्ञानावरण के पांच मेद हैं- (१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण ( 3 ) अवधिज्ञानावरण (४) मन:पर्ययज्ञानावरण (५) केवलज्ञानावरण |
(२) दर्शनावरणके नौ भेद हैं- (१) चक्षुदर्शनावरण (२) अचक्षुदर्शनावरण (३) अवधिदर्शनावरण (४) केवलदर्शनावरण (५) निद्रा (६) निद्रानिद्रा (७) प्रचला (८) प्रचलाप्रचला और ( ९ ) स्त्यानगृद्धि ।
(३) वेदनीयके दो भेद हैं- (१) सातावेदनीय और (२) असातावेदनीय |
(४) मोहनीय अट्ठाईस भेद हैं- ( १ ) सम्यक्त्य, (२) मिथ्यात्व (३) मिश्र, (४) अनस्तानुबन्धी क्रोध, (५) अनन्तानुबन्धी मान, (६) अनन्तानुबन्धी माया, (७) अनन्तानुबन्धी लोभ, (८) अप्रत्याख्यान क्रोध, (९) अप्रत्याख्यान मान, (१०) अप्रत्याख्यान माया, (११) अप्रत्याख्यान लोभ, (१२) प्रत्याख्यान क्रोध, (१३) प्रत्याख्यान मान, (१४) प्रत्याख्यान माया, (१५) प्रत्याख्यान लोभ, (१६) संज्वलन क्रोध, (१७) संज्वलन मान, (१८) संञ्चलन माया, (१९) संज्वलन लोभ, (२०) हास्य, (२१) रति, (२२) अरति, (२३) शोक, (२४) भय, (२५) जुगुप्सा, ३८४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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(२६) स्त्रीवेद, (२७) पुवेद और (२८) नपुंसकवेद । इन अट्ठाईस प्रकृतियोंको मूलतःचार वोंमें विभक्त किया जा सकता है:१)दर्शनमोहनीय, (२) चारित्रमोहनीय, (३) कषायमोहनीय और (४) अकषायमोहनीय ।
५. भाग-थायुकर्मले. नार मेन हैं:-१ बरकार, १२) सियंचायु, (३) मनुष्यायु, (४) देवायु ।
६. नामकर्म-अभेदापेक्षया इसके बयालीस भेद हैं और भेदापेक्षया तिरानवे | बयालीस भेदोंकी गणना इस प्रकार है:-(१) गति, (२) जाति, (३) शरीर, (४) आंगोपांग, (५) निर्माण, (६) बन्धन (७) संघात, (८) संस्थान, (९) संहनन, (१०) स्पर्श, (११) रस, (१२) गन्ध, (१३) वर्ण, (१४) आनुपूर्वी, (१५) अगरुलघु, (१६) उपघात, (१७) परघात, (१८) आतप, (१२) उद्योत, (२०) उच्छवास, (२१) विहायोगति, (२२) साधारण शरीर, (२३) प्रत्येकशरीर, (२४) स्थावर, (२५) अस, (२६) दुर्भग, (२७) सुभग, (२८) दुःस्वर, (२२) सुस्वर, (३०) अशुभ, (३१) शुभ, (३२) वादर, (३३) सूक्ष्म, (३४) अपर्याप्त, (३५) पर्याप्त, (३६) अस्थिर, (३७) स्थिर, (३८) आनादेय, (३९) आदेय, (४०) अयशःकोति, (४१) यशःीति, (४२) तीर्थकरत्व ।
७. गोत्रकर्मके दो भेद हैं:-१) उच्च गोत्र, (२) नीच गोत्र ।
८. अन्तराय-अन्तराय कर्मके पांच भेद हैं:-१) दान-अन्तरायः, (२) लाभ अन्तराय, (३} भोग-अन्तराय, (४) उपभोग-अन्तराय और (५) वीर्य-अन्तराय।
शानावरणकर्म मतिमान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञानोंको आवृत्त करता है । जिस प्रकार जलते हुए विद्युत बल्बके ऊपर वस्त्र डाल देने से उसका प्रकाश
आवृत हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणकर्म ज्ञानको माच्छादित करता है। इस कर्मका जितना क्षयोपशम या क्षय होता जाता है, उसी रूपमें ज्ञान भी प्रादुर्भूत होता है।
दर्शनावरणके नव भेदोंमें चार भेद तो चारों दर्शनोंके आवरणमें निमित्तभूत हैं। शेष निद्रादिक पांच भेद हैं। जिस कर्मका लक्ष्य ऐसी नींदमें निमित्त हो, जिससे वेद और परिश्रमजन्य थकावट दर हो जाती है, वह निद्रादर्शनावर्ण कर्म है। जिस कर्मका उदय ऐसी गादी नोंदमें निमित्त है, जिससे जागना अत्यन्त दुष्कर हो जाय, उठाने पर भी न उठे, वह निद्रा-निद्रादर्शनावणकर्म है। जिस कर्मका उदय ऐसी नींदमें निमित्त हो, जिससे बैठे-बैठे ही नींद आ जाय, हाथ-पैर और सिर धूमने लगे, वह प्रचलादर्शनावरण कर्म है । जिस कर्मका उदय ऐसी नींदमें निमित्त हो, जिससे खड़े-खड़े, चलते-चलते या बैठे-बैठे
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पुनः पुनः नींद आवे और हाथ-पैर चले तथा सिर घूमे वह प्रचला-प्रचला दर्शनावरणकर्म है। जिस कर्मका उदय ऐसी नींदमें निमित्त है, जिससे स्वप्नमें अधिक शक्ति उत्पन्न हो जाती है और अत्यन्त गादी नींद आती है, वह स्त्यानगद्विदर्शनावरणकर्म है 1
जिस कर्मका उदय प्राणोके सुखके होने में निमित्त है, वह सातावेदनीय और जिसका उदय प्राणीके दुःखके होने में निमित्त है, वह असातावेदनीय कर्म है।
वस्तुतः कर्मप्रकृतियोंके दो भेद हैं:-(१) जीवविपाकी और (२) पुद्गलबिपाकी । जिनका फल जीवमें-जिन कर्मोंका उदय जीवकी विविध अबस्थाओं और परिणामोंके होने में निमित्त है, वे जीवविपाकी कर्म है और जिन कर्मोका उदय शरीर, वचन और मनरूप वर्गणाओंके सम्बन्धसे शरीरादिकरूप कायों के होने में निमित्त होता है, वे पुद्गल-विपाकी कर्म हैं। वेदनीय कर्म जीवावपाको है । अतः वह जोबगत मुख-दुःखके होने में निमित्त होता है ।
जिसका उदय तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपके श्रवान न होने में निमित्त है, वह मिथ्यात्वमोहनीय कर्म है। जिसका उदय तात्त्विक रुचिमें बाधक न होकर भी उसमें चल, मलिन और अगाढ़ दोषके उत्पन्न करने में निमित्त है, वह सम्यक्त्वमोहनीयकर्म है । पिश्रमोहनीयकर्मके उदयसे जीवके सम्पकत्व और मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं।
जिसका उदय हास्यभावके होने में निमित्त है, वह हास्यकम; जिसका उदय रतिरूप भावके होनेमें निमित्त है, वह रतिकर्म; जिसका उदय अरतिरूप परिणाम होने में निमित्त है, वह अतिकम; जिसका उदय शोकरूप परिणाम होने में निमित्त है, वह शोककम; जिसका उदय भयरूप परिणामके होनेमें निमित्त है, वह भयकर्म; जिसका उदय परिणामोंमें ग्लानि उत्पन्न करनेमें निमित्त है, वह जुगुप्सा; जिसका उदय अपने दोषोंको आच्छादित करने एवं स्त्रीसुलभ भावोंके होनेमें निमित्त है, वह स्त्रीवेद; जिसका उदय उत्तम गुणोंके भोगनेरूप पुरुषसुलभ भावोंके होनेमें निमित्त है, वह पुरुषवेद एवं जिसका उदय स्त्री और पुरुषसुलभ भावोंसे विलक्षण कलुषित परिणामोंके होनेमें निमित्त है, वह नपुंसकवेदकर्म है। ___ अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभके उदयके निमित्तसे सम्यक्स्वकी उपलब्धि नहीं होती और मिथ्यात्वरूप परिणति होती है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोष, मान, माया, लोभके उदयके निमित्तसे जीवको देशवत धारण करने में बाधा पहुंचती है और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभके निमित्तसे ३८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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सर्व चिरतिके धारण करनेमें बाषा होती है। संज्वलन क्रोष, मान, माया, लोभका उदय यथाख्यातपरिणतिको प्राप्त करनेमें बाधक है !
जिनका उदय नरक, सियंच, मनुष्य और देवपर्यायमें जीवन व्यतीत करनेमें निमित्त हो, वे क्रमशः नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु हैं ।
जिसका उदय जीवके नारकवादिरूप भावके होने निमित्त है, वह ि नामकर्म है । इसके नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार मेद है। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जातियोंमें उत्पन्न होने में निमित्त कर्म जातिकर्म कहलाता है। ओदारिक आदि शरीरोंको प्राप्त कराने में निमित्त शरीरनामकर्म है | शरीरके अंग और उपांगों के होने में निमित्त आंगोपांग नामकर्म है। जिस कर्मका उदय शरीरके लिये प्राप्त हुए पुद्गलोंका परस्पर बन्धन कराने में निमित्त है, वह बन्धन नामकर्म है । संघात नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए पुद्गलोंका बन्धन छिद्ररहित होकर एक-सा हो जाता है । जिस नामकर्मका उदय शरीरकी आकृति बननेमें निमित्त है, वह संस्थाननामकर्म है । संस्थाननामकर्मके कारण ही शरीर समचतुस्र, छोटा, बड़ा, कुबड़ा, लम्बा, बीना आदि होता है। संहनननामकर्मके उदयसे हाड़ और संधियोंका बन्ध होता है । इस कर्मके निमित्त से हो शरीरकी हड्डियाँ मजबूत, दृढ़, कोमल, कठोर और कमजोर होती हैं। शरीरगत शीत आदि आठ स्पर्श, तिक्त आदि पाँच रस, सुरभि आदि दो गंध और श्वेत आदि पाँच वर्णके होनेमें निमित्तभूत कर्म अनुक्रमसे स्पर्श, रस, गंध और वर्णं नामकर्म कहलाते हैं ।
जिस कर्मका उदय विग्रहगतिमें जीवका आकार पूर्ववत् बनाये रखने में निमित्त है, वह आनुपूर्वी नामकर्म है। प्रशस्त और अप्रशस्त गतिका निमित्तभृत कर्म विहायोगतिनामकर्म है । अगुरुलघुनामकर्मके निमित्तसे शरीर न तो भारी होता है और न हल्का होता है । जिस कर्मका उदय शरीरके अपने ही अवयवोंसे अपना घात होने में निमित्त है, वह उपघात नामकर्म है। परघात नामकर्मके उदयके निमित्तसे दूसरोंका घात करनेवाले अंग निर्मित होते हैं । जिस नामकर्मका उदय जीवको श्वासोच्छ्वास लेनेमें निमित्त है, वह उच्छ्वासनामकर्म है । आतप नामकर्मके निमित्तसे शरीर में प्रकाश - तेज उत्पन्न होता है । उद्योत नामकर्मके उदयसे शरीरमें शीत प्रकाश - उद्योत उत्पन्न होता है । निर्माण नामकर्मोदय के निमित्तसे शरीर के अंगोपांग यथास्थान होते हैं । जिस नामकर्मका उदय जीवके तीर्थंकर होनेमें निमित्त है, वह तीर्थंकरत्व नामकर्म कहलाता है ।
erries निमित्तसे असपर्याय स्थावरनामकमदयकं निमित्त
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से स्थावरपर्याय वादरनामकर्मोदयके निमित्तसे बादरपर्याय और सूक्ष्मनामकर्मोदयके निमित्तसे सूक्ष्मपर्यायकी प्राप्ति होती है। जिनका निवास आधारके बिना नहीं पाया जाता, वे बादर जोव है और जिन्हें आधार की आवश्यकता नहीं पड़ती, वे सूक्ष्म है ।
पर्याप्त नामकर्मके उदयके निमित्त से प्राणी अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करते हैं । अपर्यासनामकर्मके उदयसे अपने- अपने घोग्य पर्याप्तियोंको पूर्ण नहीं करते हैं। प्रत्येकनामकर्मोदयके निमित्तसे प्रत्येकजीवका शरीर प्राप्त होता है और जिसका उदय अनन्त जीवों को एक साधारण शरीर प्राप्त कराने में निमित्त है, वह साधारण नामकर्म है ।
स्थिरनामकर्मोदय के निमित्तसे शरीरके रस, रुधिर, मेदा, मज्जा, अस्थि, मांस और वीर्य स्थिर होते हैं और जिसका उदय इनके क्रमसे परिणमनमें निमित्त है, वह अस्थिर नामक है । शुभनामकर्मोदय के निमित्तसे अंगोपांग प्रशस्त और अशुभनामकर्मोदयके निमित्तसे अंगोपांग अप्रशस्त होते हैं । स्त्री और पुरुषोंके निम्ति शुभ कर्म है, और दुर्भाग्य निमित्त दुभंग नामकर्म है । सुस्वर नामकर्मोदय निमित्तसे बुर स्वर, दुःस्वर नाम कर्मोदयके निमित्तसे कटु स्वर, आदेय नामकर्मोदयके निमित्तसे 'बहुमान्य और अनादेय नामकर्मके उदयसे अमान्य होता है । यशःकीति नामकर्मोदयके निमित्तसे गुणप्रकाशनरूप यशकी प्राप्ति और अयश शः कीर्ति नामकर्मोदयके निमित्तसे अपयशकी प्राप्ति होती है ।
जिस कर्मका उदय उच्चगोत्रके प्राप्त करने में निमित्त है, वह उच्चगोत्र और जिसका उदय नीचगांत्रके प्राप्त करनेमें निमित्त है, वह नोचगोत्र है । गोत्र, कुल, वंश और संतान एकार्थवाचक शब्द है । गोत्रका आधार चारित्र है । जो प्राणो अपने वर्तमान जीवनमें चारित्रको स्वीकार करता है और जिसका सम्बन्ध भी ऐसे ही लोगोंसे होता है, वह उच्चगोत्रीय है, और इसके विपरीत नोचगोत्रीय हैं । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यं अन्तरायके उदय के निमित्तसे दान करने, लाभ होने, भोगरूप परिणामोंके होने, उपभोगरूप परिणामों के होने एवं आत्मवीर्यके प्रकट होनेमें बाधा आती है ।
कर्मोको स्थिति
मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा- कोड़ी सागरोपम है । नाम और गोत्रको उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम है। आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तैंतोस सागरोपम है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और ३८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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अन्तराय इन चार कर्मोको उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। वेदनीय कर्मको जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है । नाम और गोत्रकी अन्य स्थिति आठ मुहूर्त है और शेष कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। अनुभाग बंध
कर्मों में विविध प्रकारके फल देनेकी शक्तिका पड़ना ही अनुभाग है । जिस कर्मका जैसा नाम है, उसीके अनुसार फल प्राप्त होता है और फल प्राप्त हो जाने के पश्चात् कर्मकी निर्जरा हो जाती है। कर्मबन्धके समय जिस जीवके कषायकी जैसी तीव्रता या मन्दसा रहती है और द्रष्य, क्षेत्र, काल, भव बोर भावरूप जैसा निमित्त मिलता है, उसीके अनुसार कर्ममें फल देनेकी शक्ति आती है । कर्मले के समय यदि शुभ परिणाम होते हैं, तो पुण्यप्रकृतियोंमें प्रकृष्ट और पापप्रकृत्तियोंमें निकृष्ट फलदानशक्ति प्राप्त होतो है। यदि कर्मबंधके समय अशुभ परिणामोंको तीवत्ता होती है, तो पापप्रकृतियोंमें प्रकृष्ट और पुण्यप्रकृतियोंमें निकृष्ट फलदानशक्ति रहती है। कर्मप्रकृतियोंमें नामके अनुसार ही अनुभाग प्राप्त होता है। ज्ञानावरणप्रकृतिमें ज्ञानको और दर्शनावरणमें दर्शनको आवृत करनेका अनुभाग प्राप्त होता है। कर्मफलदान-प्रक्रिया
कम स्वयं ही अपना फल देते हैं। उनके फलदानहेतु किसी अन्य कर्ता या न्यायाधीशकी आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार मदिरा पान करनेसे उसकी मादक शक्ति स्वयं अपना प्रभाव दिखलाती है, इस प्रभावके लिये किसी अन्य शक्तिको आवश्यकता नहीं; इसी प्रकार यह जीव कोका बन्ध स्वयं करता है और स्वयं ही उन कर्मो के उदय होनेवाले अनुभाग-फलोंको प्राप्त करता है । जीबकी प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ, जो कर्मपरमाण जीवात्माकी ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेषका निमित्त पाकर उस जीवसे बंध जाते हैं, उन कर्मपरमाणुओंमें भी शुभ और अशुभ प्रभाव डालनेकी शक्ति रहती है। जो चैतन्यके सम्बन्धसे व्यक्त होकर जीवपर अपना प्रभाव डालते हैं और उसके प्रभावसे मुग्ध हआ जीव ऐसे कार्य करता है, जो सुखदायक या दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीवके भाव शुभ होते हैं, तो बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंपर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है और उनका फल भी अच्छा होता है।
गहरायोमें प्रवेश करने पर अवगत होता है कि कमों का बन्ध आत्माके परिणामोंके अनुसार होता है और उनमें जैसा स्वभाव और होनाधिक फलदानशक्ति पड़ जाती है तदनुसार कार्यके होनेमें वे निमित्त होते रहते हैं । जीव
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स्वयं ही संसारी होता है और स्वयं ही मस्त ! राग-द्वेष आदिरूप अशद्ध और केवलज्ञान आदिरूप शख जितनी भी अवस्थाएं होती हैं, वे सब जीवको हो होसी हैं, जीवके सिवाय अभ्य द्रव्यमें नहीं पायी जाती हैं। शद्धता और अशुद्धताका भेद निमित्तकी अपेक्षासे किया जाता है। निमित्त दो प्रकारके हैं:(१) साधारण और (२) विशेष । साधारण निमित्त सभी द्रव्योंमें समानरूपसे कार्य करते हैं और विशेष निमित्त प्रत्येक कार्यके अलग-अलग होते हैं । यथाघटपर्यायको उत्पत्तिमें कुम्हार निमित्त है और जीवकी अशुद्ध अवस्थामें कर्मनिमित्त है। जब तक जीवके साथ कमका सम्बन्ध है, तब तक राग-द्वेष, मोह आदि भाव उत्पन्न होते हैं। कर्मके अभावमें नहीं । अतः संसारका मुख्य कारण कम है । कर्म और संसारका अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है । इनकी समव्याप्ति भी मानी जा सकती है।
कर्मका भोग स्वयं ही विविध प्रकारसे सम्पन्न होता है । अतएव संक्षेपमें जीव कर्म करने में भी स्वतन्त्र है और फल भोगने में भी । कर्मफल दाता ईश्वर नामक कोई शक्ति नहीं है। जीवके कर्मों में ही स्वत: फलदानशक्ति विद्यमान है। यतः मनुष्यके बुरे कर्म उसकी बुद्धिपर इस प्रकारका संस्कार उत्पन्न करते है, जिससे वह क्रोधमें आकर दूसरोंका घात कर डालता है और इस प्रकार उसके बरे कम उसे बुरे मागंकी ओर ही तबतक लिये जाते हैं, जब-तक वह उधरसे सावधान नहीं होता। ____ संक्षेपमें कर्मफलका नियामक ईश्वर नहीं है। कर्मपरमाणुओंमें जोवात्माके सम्बन्धसे एक विशिष्ट परिणाम होता है । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव आदि उदयानुकूल सामग्रीसे विपाक-प्रदर्शनमें समर्थ हो जीवात्माके सस्कारोंको विकृत करता है, उससे उनका फलोपभोग होता है। आत्मा अपने कियेका अपने आप फल भोगता है। कर्मपरमाणु सहकारी या सचेतकका कार्य करते हैं। विष और अमृत, अपथ्य और पथ्य भोजनको कुछ भी नहीं होता, फिर भी आत्माका संयोग प्राप्तकर उनकी वेसो परिणति हो जाती है। उनका परिपाक होते ही भोजन करनेवालेको इप या अनिष्ट फल प्राप्त हो जाता है । वस्तुतः कर्मपरमाणुओंमें मिचित्र शक्ति निहित है और उसके नियमनके विविध प्राकृतिक नियम भी विद्यमान हैं। अतएव कर्मों की फलदानशक्ति स्वयं ही प्राप्त होती है। कर्मोके कारण
कर्मोंमें दश प्रकारको मुख्य अवस्थाएँ या क्रियाएँ होती हैं, जिन्हें करण कहते हैं। करण दश हैं:-(१) बन्ध, (२) उत्कर्षण, (३) अपकर्षण, (४) सत्ता, ३९० : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्ग-परम्परा
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(५) उदय, (६) उदीरण, (७) संक्रमण, (८) उपशम, (९) निर्घात ओर (१०) निकाचना |
बन्ध
कर्मवगंणाओंका आत्म-प्रदेशोंसे सम्बद्ध होना अन्ध है । यह सबसे पहला करण है । उसके बिना अन्य कोई अवस्था सम्भव नहीं । बन्धके चार भेद हैं:(१) प्रकृति, (२) स्थिति, (३) अनुभाग और (४) प्रदेश। जिस कर्मका जो स्वभाव है, वह उसकी प्रकृति है । यथा ज्ञानावरणका स्वभाव ज्ञानको आवृत करना है । स्थिति कर्मको समय-मर्यादाको कहते हैं । अनुभाग फलदानशक्तिका नाम है । प्रत्येक कर्ममें न्यूनाधिक फल देनेकी योग्यता होती है । प्रतिसमय बंधने - वाले कर्मपरमाणुओं की परिगणना प्रदेशबंध में की जाती है।
उत्कर्षण
स्थिति और अनुभागके बढ़नेको उत्कर्षंण कहते हैं । यह किया बषके समय हो सम्भव है । जिस कर्म की स्थिति और अनुभाग बढ़ाया जाता है, उसका पुनः बन्ध होनेपर पिछले बन्धे हुए कर्मका नवीन बन्धके समय स्थिति अनुभाग बढ़ सकता है। यह साधारण नियम है । अपवाद इसके अनेक हैं ।
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स्थिति और अनुभागके घटानेकी अपकर्षण संज्ञा है । कुछ अपवादोंको छोeet fear भी कर्म की स्थिति और अनुभागको कम किया जा सकता है । परिणामोंसे यहाँ यह स्मरणीय है कि कर्मोंका स्थिति और अनुभाग शुभ अशुभ कम होता है तथा अशुभ परिणामोंसे शुभ कर्मोंका स्थिति और अनुभाग कम होता है।
कर्मबन्धके पश्चात् दो क्रियाएं होती हैं:- अशुभ कर्मोका बन्ध करनेके पश्चात् यदि जीव शुभ कर्म करता है, तो उसके पहले बन्धे हुए अशुभ कर्मोकी स्थिति और फलदानशक्ति शुभ भावोंके प्रभावसे घट जाती है। अशुभ कर्मोंका बन्ध करनेके पश्चात् यदि जीवके भाव और अधिक कलुषित हो जाते हैं, और वह भी अधिक अशुभ कार्य करने लगता है, तो अशुभ भावोंका प्रभाव प्राप्तकर प्रथम बान्छे हुए कर्मोकी स्थिति और फलदानशक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है । इस उत्कर्षण और अपकर्षणके कारण ही कोई कर्म शीघ्र फल देता है और कोई विलम्बसे । किसी कर्मका फल तीव्र होता है और किसीका मन्द |
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सत्ता
बन्धनेके बाद कर्म तत्काल फल नहीं देता । कुछ समय बाद उसका फल प्राप्त होता है। जबतक वह अपना काम नहीं करता, तबतक उसकी वह अवस्था सत्ताके नामसे अभिहित की जाती है। जिस प्रकार मदिरापान करनेपर तुरन्त उसका प्रभाव दिखलायी नहीं पड़ता, कुछ समयके पश्चात् ही वह अपना नशा दिखलाता है । इसी प्रकार कर्म भी बन्धने के बाद कुछ समय तक सत्तामें रहता है। इस कालको आबाधा काल कहते हैं। सधारणतया कर्मका धाबाधाकाल उसकी स्थितिके अनुसार होता है | जिस कर्मकी जितनी स्थिति रहती है, उसका आबाधाकाल भी उतना ही अधिक होता है। एक कोडा-कोड़ी सागरकी स्थितिमें सौ वर्षका आवाधाकाल होता है। अर्थात्, यदि किसी कर्मको स्थिति एक कोड़ा-कोड़ी सागर हो, तो वह कर्म सौ वर्षके पश्चात् फल देना आरम्भ करता है और तबतक फल देता रहता है, जबतक उसकी स्थिति पूरी नहीं हो जाती । आयु कमंका बाधाकाल उसको स्थितिपर निर्भर नहीं है। उक्य
प्रत्येक कर्मका फल-काल निश्चित रहता है । इसके प्राप्त होनेपर कर्मके फल देनेरूप अवस्थाको उदयसंज्ञा है । फल देने के पश्चात् उस कर्मकी निर्जरा हो जाती है। यह उदय दो प्रकारका है:-(१) फलोदय और (२) प्रदेशोदय । जब कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है, तब वह फलोदय कहा जाता है और जब कर्म बिना फल दिये ही नष्ट होता है, तो उसे प्रदेशोदय कहते हैं। उदोरणा
फलकालके पहले फल देने रूप अवस्थाको उदीरणा संज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर साधारणतः कर्मो के जदय और उदीरणावस्था सर्वदा होती रहती है। उदीरणामें नियत समयसे पहले कर्मका बिपाक हो जाता है। उदीरणाके लिये अपकर्षण करण द्वारा कर्मको स्थितिको कम कर दिया जाता है और र्थाितके घट जानेपर कर्म नियत समयसे पहले उदयमें आ जाता है। जिसप्रकार आम्र आदि फलोंको जल्दी पकानेके हेतु पेड़से तोड़कर पालमें रख देते हैं, जिससे वे आम जल्दी ही पक जाते हैं। इसी प्रकार उदयमें आनेके पहले कर्मो की उदीरणा कर देना उदीरणा करण है। संक्रमण
एक कर्मका दूसरे सजातीय कर्मरूप हो जानेको संक्रमण करण कहते हैं। यह संक्रमण मूल प्रकृतियोंमें नहीं होता। उत्तर प्रकृतियोंमें ही होता है। आयु ३९२ : तोर्यकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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कर्मके अवान्तर भेदोंमें भी परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीयरूपसे अथवा चारित्रमानोयका दर्शनमाहृनौयरूपसे संक्रमण होता है ।
एक कर्मका अवान्तर भेद अपने जातीय अन्य भेद रूप हो सकता है । जैसे वेदनीय कर्मके दो भेदोंमेंसे सातावेदनीय असातावेदनीयरूप हो सकता है और असातावेदनीय सातावेदनीयरूप हो सकता है।
उपशान्त
कर्मको वह अवस्था, जो उदारपाकै अयोग्य होती है, उपशान्त कहलाती है । उपशान्त अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण - अपकर्षण और संक्रमण हो सकता है, किन्तु उसकी उदीरणा नहीं होती । वस्तुतः कर्मको उदयमें आ सकने के अयोग्य कर देना उपशम करण है ।
निषत्त
कर्मकी वह अवस्था, जो उदीरणा और संक्रमण इन दोनोंके अयोग्य होती है, नित्ति कहलाती है । निधत्ति अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है, किन्तु इसका उदीरणा और संक्रमण नहीं होता । यथार्थतः कर्मका संक्रमण और उदय न हो सकना निर्वात है ।
निकाचना
कर्मको वह अवस्था, जो उत्कण, अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण इन चारके अयोग्य है, निकाचना कहलाती है। इसका स्वमुखेन या परमुखेन उदय होता है ।
कर्मकी इन विभिन्न दशाओंके अतिरिक्त उसके स्वामी, स्थिति, उदय, सत्व, क्षय आदिको भी इसी प्रकार अवगत करना चाहिये ।
पुनर्जन्म
पूर्व शरीरका त्याग कर नये शरीरका ग्रहण करना जन्म है । जब जोवकी भुज्यमान आयु समाप्त हो जाती है, तो वह नये भवको धारण करता है । स्थूल शरीरके नष्ट होनेपर भी आत्माका विनाश नहीं होता है, यह शाश्वतिक है और अपने ज्ञान दर्शनादि गुणसे युक्त है। आत्मा अन्वयी है, पूर्व जन्म और उत्तर जन्म दोनों उसकी अवस्थाएं हैं, आत्मा दोनोंमें एक रूपमें निवास करती है । अतएव मृत्यु केवल पर्यायका विनाश है, द्रव्य - आस्माका नहीं । जिस प्रकार वस्त्रके जीणं हो जानेपर नया वस्त्र धारण किया जाता है उसी प्रकार तीर्थंकर महावीर और उनकी देशमा ३९३
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पुरातन शरीरको छोड़कर मृत्युके अनन्तर नया शरीर आत्मा धारण करती है। कर्मसिद्धान्तके अनुसार यह जन्म-मरणकी परम्परा अनादिकालसे चलो आ रही है।
वस्तुतः प्राणोके शरीर छोड़नेपर उसके जीवनभरके विचार, वचन-व्यवहार और अन्य प्रकारके संस्कार बात्मापर और आत्मासे चिरसंयुक्त कामंण-शरीरपर पड़ते हैं और इन संस्कारोंके कारण ही सूक्ष्म कार्मण शरीर द्वारा आरमा नूतन जन्म ग्रहण करनेका अवसर प्राप्त कर लेती है। अर्थात् आत्मा पुराने शरीरके नष्ट होते ही अपने सूक्ष्म कार्मण-शरीरके साथ उस स्थान तक पहुंच जाती है। इस क्रिया में प्राणीके शरीर छोड़नेके समयके भाव और प्रेरणाएं बहुत कुछ काम करती हैं । एक बार नया शरीर धारण करनेके बाद उस शरीरकी स्थिति तक प्रायः समान परिस्थितियां बनी रहने की संभावना रहती है।
सारांश यह है कि आस्मा परिणामी होनेके कारण प्रतिसमय अपनी मन, वचन और कायकी क्रियाओस उन-उन प्रकारके शुभ और अशुभ मंस्कारोंमें स्वयं परिणत होती जाती है और वातावरणको भी उसी प्रकारसे प्रभावित करती है । ये आत्म-संस्कार अपने पूर्व बद्ध कार्मण शरीर में कुछ नये कर्मपरमाणुओंका सम्बन्ध करा देते हैं, जिनके परिपाकसे वे संस्कार आत्मामें शुभ या अशुभ भाव उत्पन्न करते हैं । आत्मा स्वयं इन संस्कारोंका कर्ता और स्वयं ही उनके फलोंका भोक्ता है। जब आत्माकी दृष्टि अपने मल स्वरूपको ओर हो जाती है, तो शनैः शनैः कुसंस्कार नष्ट होकर स्वरूपस्थितिरूप मुक्ति प्राप्त कर लेता है । इस शरीरको धारण किये हुए भी स्वानुभूतिकर्ता, पूर्ण वीतराग और पूर्णज्ञानी बन जाता है।
स्वभावतः आत्मामें कर्तत्व और भोक्तत्व शक्तियाँ विद्यमान है। यह स्वयं अपने संस्कारों और बद्धकर्मों के अनुसार असंख्य जीव-योनियोंमें जन्म-मरणके भारको ढोता रहता है । आत्मा सर्वथा अपरिणामी और निर्लिप्त नहीं है, किन्तु प्रतिक्षण परिणामी है । वैभाविकी शक्ति के कारण अशुद्ध परिणमनके फलस्वरूप आत्मा जन्म-मरणकी परम्पराका आश्रय ग्रहण करतो है। स्वाभाविक अवस्थाको प्राप्त करनेपर मुक्ति हो जाती है । ___आस्माके पुनर्जन्ममें अन्य कोई व्यवस्थापक, नियन्त्रक या नियोजक नहीं है, आरमा स्वयं ही परिणमनशीलताके कारण एक शरीरको त्यागकर अन्य शरीर धारण करती है । जीव पूर्व शरीर त्याग करके नूतन शरीरको ग्रहण करनेके लिए गति करता है. यह गति मोड़ेवाली होती है। अन्तरालमें कार्मणशरीर रहता है और कार्मणवर्गणाओंका ग्रहण भी होता है। अत: जीवके आत्म-प्रदेशोंके परिस्पन्दमें कार्मणवर्गणाएँ निमितरूप होती हैं । ३९४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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जीव और पुद्गल ये दोनों गतिशील हैं। इन दोनोंमें गमनक्रियाकी शक्ति हैं, निमित्त मिलनेपर ये गमन करने लगते हैं। संसारी जीव और पुद्गलोंकी गतिका कोई नियम नहीं हैं, पर जब जीव एक पर्याय त्यागकर दूसरी पर्यायको प्राप्त करनेके लिए गमन करता है, उस समय जीवकी सरल गति होती है। सरल गतिका आशय है कि जीव या पुद्गल आकाशके जिन प्रदेशोंपर स्थित हों, वहाँसे गति करते हए वे उन्हीं प्रदेशोंकी सरल रेखाके अनुसार रूपर, नीचे या तिरछे गमन करते हैं। इसीको अनुश्रेणि गति-पंक्तिके अनुसार गति कहते हैं।
नया शरीर ग्रहण करने के लिए दो प्रकारको गतियों होता है:-१) ऋजु और (२) वक्र । प्राप्य स्थान सरलरेखामें हो, वह ऋजु गति और जिसमें पूर्व स्थानसे नये स्थानको प्राप्त करनेके लिए सरल रेखा भंग करनी पड़े, वह वक्र गति है । संसारी जीवोंका उत्पत्ति स्थान सरल रेखामें होता है और वक्ररेखामें भी। आनुपूर्वीकर्मोदयके अनुसार उत्पत्तिस्थानकी प्राप्ति होती है । अत: जन्मान्तर ग्रहण करनेवाली आत्मा ऋजुगति और वक्रगति दोनोंको धारण करती है। __ अन्तराल गतिका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चार समय है । ऋजु गतिमें एक समय, पाणिमुक्तागतिमें दो समय, लालिकागतिमें तीन समय और गोमूत्रिकागतिमें चार समय लगते हैं। मोड़ लेनेके अनुसार समयकी संख्या बढ़ती जाती है। एक मोड़ लेनेपर दो समय, दो मोड़ लेनेपर तीन समय और तीन मोड़ लेनेपर चार समय लगता है। जन्मके भेद
जन्मके तीन भेद हैं--(१) सम्मूर्छन, (२) गर्भ और (३) उपपाद | मातापिताकी अपेक्षा किये विना उत्पत्ति स्थानमें औदारिक परमाणुओंको शरीररूप परिणमाते हए उत्पन्न होना सम्मूच्छन जन्म है । माता-पिताके रज-वीर्यको शरीररूपसे परिणमाते हुए उत्पन्न होना गर्भ जन्म है । उत्पत्तिस्थान में स्थित वैक्रियिक पुद्गलोंको शरीररूपसे परिणमाते हुए उत्पन्न होना उपपाद जन्म है । जरायुज, अण्डज और पोत प्राणियोंके गर्भ जन्म होता है, देव और नार. कयोंके उपपाद जन्म होता है तथा पाँच स्थावरकाय, तीन विकलेन्द्रिय, सम्म
छैन मनुष्य और सम्मूर्च्छन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके सम्मन्छन जन्म होता है । योनि और शरीर
जिस आधारमें जीव जन्म लेता है, उसे योनि कहते हैं। योनिको प्राप्त जीव नूतन शरीरके हेतु ग्रहण किये गये पुद्गलों में अनुप्रविष्ट हो जाता है और पश्चात्
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शरीरको वृद्धि और पुष्टि होने लगती है। योनियोंके मल भेद नौ हैं और उत्तर भेद चीरासी लाख हैं:-(१) सचित्त, (२) शीत, (३) संवृत, (४) अचित्त, (५) उष्ण, (६) विवृत, (७) सचित्तावित्त, (८) शीतोष्ण और (९) संवृत्तविवृत।
जीवप्रदेशों में अधिष्ठित योनि सचित्त योनि है। जीवप्रदेशोंसे अधिष्ठित न होना अचित्त योनि है । जो योनि कुछ भागमें जोव प्रदेशोंसे अधिष्ठित हो
और कुछ भागमें जोवप्रदेशोंसे अधिष्ठित न हो, वह मिश्च योनि है। शीत स्पर्शवाली शीत योनि, उष्ण स्पर्शवाली उष्ण योनि और मिश्रित स्पर्शवाली मिश्र योनि होती है । ढकी योनिको संवृत, सुलीको विवृत और कुछ ढको तथा कुछ खुलीको संवृतविवृत्त योनि कहते हैं। योनि और जन्ममें आधार-बाधेयभावका सम्बन्ध है।
शरीर पाँच प्रकारके होते हैं:-(१) औदारिकशरीर (२) वैक्रियिकशरीर, (३) आहारकशरीर, (४) तेजसशरीर और 1५) कार्मणशरीर । ये शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते गये हैं । तैजस और कार्मण शरीर अप्रतिघाति है-न तो अन्य पदार्थों को रोकते हैं और न अन्य पदार्थो के द्वारा इनका अवरोष होता है। ये दोनों अनादिकाल से आत्मासे सम्बद्ध हैं। समस्त संसारी जीवोंके ये दोनों शरीर पाये जाते हैं । औदारिकशरीर गर्भ और सम्मूछन जन्मसे उत्पन्न होता है, वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्मसे, तैजस शरीर लब्धिके निमित्तसे और अहारक शरीर शुभ, विशुद्ध एवं व्याघात रहिस। यो शरीर बनाता मारत हो सकते हैं, पर शरीरनामकर्मके मुख्य भेदोंकी अपेक्षा विचार करनेसे शरीरके पांच ही भेद हैं । स्थूल शरीर औदारिक कहलाता है। छोटा, बड़ा, हल्का भारी आदि अनेक रूपोंको प्राप्त होनेवाला शरीर क्रियिक कहा जाता है । सक्षम पदार्थों का निर्णय करनेके लिए प्रमत्तगुणस्थानवाले मुनिके मस्तिष्कसे निकलनेवाला एक हाथ प्रमाण शुभ पुतला आहारक शरीर है । तेजोमय शुक्ल प्रभाववाला तेजस शरीर और कर्मो का समूह कामण शरीर होता है। लोकस्वरूप
आकाशके जितने भागमें जीव, पुद्गल आदि षड्द्रव्य पाये जाये, वह लोक है' और उसके चारों ओर अनन्त अलोक है। इस अनन्त आकाशके मध्यमें १. धम्माऽधम्मा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये । आमासे सो लोगो ततो परदो अलोगुप्तो॥
-द्रव्यसंग्रह-गाषा, २०, धर्माधर्मकालपुद्गलजीवाश्च सन्ति यावत्याकाशे स लोकः । तथा चोक्तम्- लोक्यन्ते
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अनादि और अकृत्रिम रूपसे लोक अवस्थित है। यह लोक मनुष्याकार है तथा चारों ओर तीन प्रकारको वायुओंसे वेष्टित है। अर्थात् लोक घनोदधिवासवलयसे, घनोदधिवातवलय धनवातवलयसे और धनवातवलय तनुवासवलयसे वेष्टित है। तनुवातवलय आकापाके आश्रय है और माकाश अपने ही आश्रय है, उसको दूसरे आशयको आवश्यकता नहीं । यसः आकाश सर्वव्यापी है।
धनोदधिवातवलयका वर्ण भूगके सदृश, घनवातवलयका वर्ण गोमूत्रके सदृश और तनुवातवलयका वर्ण अव्यक्त है। इस लोकके मध्यमें एक राजू चौड़ी, एक राजू लम्बी और चौदह राजू ऊंची प्रसनाही है। द्वौन्द्रियादि वसजीव इसी सनाड़ीमें रहते हैं, इसके बाहर सजीवोंका अस्तित्व नहीं है। लोकके भेद ___ लोकके तीन माग है:--(१) अधोलोक, (२) मध्यलोक और (३) कज़लोक। मूलसे सात राजकी ऊँचाई तक अधोलोक है, सुमेरुपर्वतकी ऊंचाईके तुल्य मध्यलोक है और सुमेरुपर्वससे ऊपर एक लाख चालीस योजन कम सात राज प्रमाण अर्ध्वलोक है । लोकको धारण करनेवाला कोई व्यक्ति या परोक्ष शक्ति नहीं है । यह स्वभावतः अवस्थित है। अपोलोक : स्वरूप और विस्तार __ सुमेरुपर्वतकी अड़से नीचे सात राजू प्रमाण अघोलोक अवस्थित है। जिस पृथ्वीपर हमलोग निवास करते हैं, उस पृथ्वीका नाम चित्रा पृथ्वी है। इसकी मोटाई एक हजार योजन है और यह पृथ्वी मध्यलोकमें सम्मिलित है। सुमेरुपर्वतकी जड़ एक हजार योजन चित्रा पृथ्वीके भीतर है, शेष निन्यानवे हजार योजन चित्रापथ्वीके ऊपर है और चालीस योजनकी चूलिका है । सब मिलाकर एक लाख चालीस योजन ऊंचा मध्यलोक है । मेरुको जड़के नीचेसे अघोलोक प्रारम्भ होता है। सर्वप्रथम मेरुपर्वतकी आधारभूत रत्नप्रभा पुथ्वी है। इसका पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण दिशामें लोकके अन्त पर्यन्त विस्तार है। रत्नप्रभाकी मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है। इसके आगे शर्कराप्रभा नामक दूसरी पृथ्वी है, जिसकी मोटाई बत्तीस हजार योजन है। शर्कराप्रभाके नीचे कुछ दूर तक केवल आकाश है, जिसके आगे अट्ठाईस हजार योजन मोटी
दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक इति । तस्माल्लोकाकाशात्परतो बहिभांगे पुनरनन्ताकाशमलोक इति । स चानादिनिधनः केनापि पुरुषविशेषेण न कृतो न हतो न धृतो न स रक्षितः।
-बृहदम्यसंग्रह-संस्कृत-टीका-२० गाषा, पृष्ठ ५९.
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बालुकाप्रभा तीसरी पृथ्वी है। चौथी पंकप्रभा पृथ्वी चौबीस हजार योजन मोटी, पाँचवीं धूमप्रभा बीस हजार योजन मोटी, छठी तमप्रभा सोलह हजार योजन मोटी और सातवीं महातमप्रभा आठ हजार योजन मोटी है। सातवीं पृथ्वीके नीचे एक राजू प्रमाण आकाश निगोदादिक जीवोंसे भरा हुआ है। वहाँ कोई पृथ्वी नहीं है। इन सातों पृथिवियों को क्रमशः वंशीधा, अंजना, अरिष्टा, मधयी ओर माघवी नामोंसे भी अभिहित किया जाता है ।
पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भाग हैं: - (१) खरभाग, (२) पंकभाग और (३) अब्बहुलभाग |
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मुक्त जीव लोकके शिखरपर निवास करते हैं और संसारी जीवोंका निवास समस्त लोक है | गतिको अपेक्षा संसारी जीवोंके चार भेद है: - (१) देव, (२) मनुष्य, (३) तिर्यञ्च और (४) नारकी । देवोंके भी चार भेद है: - (१) भवनवासी ( २ ) व्यन्तर (३) ज्योतिषी और ( ४ ) वैमानिक । भवनवासियों के (१) असुरकुमार (२) नागकुमार, (३) विद्युत्कुमार (४) सुपर्णकुमार, (५) अग्निकुमार (६) वातकुमार (७) स्तनितकुमार, (८) उदधिकुमार, (९) द्वीपकुमार और (१०) दिक्कुमार ये दस भेद हैं। व्यन्तरोंके (१) किन्नर, (२) किंपुरुष, (३) महोरग, (४) गन्धर्व, (५) यक्ष, (६) राक्षस, (७) भूत और (८) पिशाच ये माठ भेद हैं। खरभाग में असुरकुमारको छोड़कर शेष नवप्रकार के भवनवासी देव और राक्षसके अतिरिक्त शेष सात प्रकारके व्यन्तरदेव निवास करते हैं । पंकभाग में असुरकुमार और राक्षसोंके निवास स्थान है। अब्बहुलभाग और शेष छः पृथ्वियों में नारकियोंका निवास है ।
नारकियोंके निवासरूप सातों पृथिवियों में कुल ४९ पटल हैं। पहली पृथिवी के अब्बहुल भाग में १३, दूसरी में ११, तीसरी में ९, चौथी में ७, पाँचवी में ५, छठोमें ३ और सातवीं पृथ्वीमें १ पटल है । ये पटल इन भूमियोंके ऊपर नीचेके एकएक हजार योजन छोड़कर समान अन्तरपर स्थित हैं ।
चौथेमें पहले नरक में एक सागर, दूसरेमें तीन सागर, तीसरे में सात सागर, दस सागर, पांचवें में सत्रह सागर, छठे में बाईस सागर और सातवें में तेतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। प्रथम नरकमें जघन्य आयु दस हजार वर्षकी हैं और प्रथमादि नरकोंकी उत्कृष्ट आयु ही द्वितीयादि नरकोंमें जघन्य आयु होती जाती है ।
पापोदयसे यह जीव नरकगतिमें जन्म ग्रहण करता है। यहाँ नाना प्रकार के भयानक तीव्र दुःख भोगने पड़ते हैं। पहली चार पृथिवियों और पांचवीक
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सृतीयांश नरकोंमें उष्णताकी तीन वेदना है तथा नीचेके नरकोंमें शीतजन्य तीव्र वेदना है। तीसरे नरक पर्यन्त असुरकुमार जात्तिके देव आकर नारकियोंकों परस्पर लाते हैं । नारकियोंका शरोर अनेक रोगोंसे ग्रस्त रहता है और परिणामोंमें निस्य क्रूरता बनी रहती है। नरकोंकी भूमि महादुर्गन्धयुक्त अनेक उपद्रवों सहित होतो है । नारकियोंमें परस्पर जातिविरोध होता है। वे परस्परमें एक दुसरेको भयानक दुःख देते हैं। छेदन, भेदन, साड़न, मारण आदि नाना प्रकारकी धोर बेदनाओंको सहते हुए दारुण दुःखका अनुभव करते हैं ।
नारको मरणकर नरक और देवगतिमें जन्म नहीं ग्रहण करते, किन्तु मनुष्य और तिर्यच गतिमें ही जन्म लेते हैं। इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च ही नरक गतिमें जन्म ग्रहण करते है। असंशी पञ्चेन्द्रिय जीव मरकर प्रथम नरक तक; सरीसृप जाति के जीव दुसरे मरक हा; भी नीसरे वह शर, सर्प चौथे नरक तक, सिंह पांचवें नरक तक स्त्री छठे नरक तक और कर्मभूमिमें उत्पन्न पुरुष तथा मत्स्य साप्तवें नरक तक जन्म ग्रहण करते हैं। भोगभूमिके जीव नरक नहीं जाते, किन्तु वे देव ही होते हैं। यदि कोई निरन्तर नरक जाय तो पहले नरकमें आठ बार तक, दूसरे नरकमें सात बार तक, तीसरे नरकमें छ: बार तक, चौथे नरकमें पांच बार तक, पाचवे नरकमें चार बार तक, छठे नरकमें तीन बार तक और सातवें नरकमें दो बार तक निरन्तर जा सकता है, अधिक बार नहीं । सातवें नरकसे निकलकर सिर्यञ्च पर्याय ही प्राप्त होती है । छठे नरकसे निकले हुए जोव संघम धारण नहीं कर पाते । पञ्चम नरकसे निकले हए जीव मोक्षको नहीं जा सकते। चतुर्थ नरकसे निकले जीव तीर्थंकर नहीं होते; पर प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरकसे निकले जीव तीर्थकर हो सकते हैं। नरफसे निकले हुए जीय बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नहीं होते। मध्यलोक : स्वरूप और विस्तार
अधोलोकसे ऊपर एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा और एक लाख चालीस योजन कैचा मध्यलोक है। यह मध्यलोक उत्तर-दक्षिण सात राजू और पूर्वपश्चिम एक राजू है। इसका आकार झालरके समान है। मध्यलोकके बीच में गोलाकार एक लक्ष योजन व्यासवाला जम्बूद्वीप है। इस जम्बूद्वीपको घेरे हुए गोलाकार लवण समुद्र है। इस लवण समुद्रको चौड़ाई सर्वत्र दो लाख योजन है । इसे घेरे हुए धातकोखण्ड द्वीप है, इसकी चौड़ाई चार लाख योजन है । इस द्वीपको घेरे हुए आठ लाख योजन चौड़ा कालोदधि समुद्र है । कालोदधि समुद्रको चारों ओरसे घेरे हुए सोलह लाख योजन चौड़ा पुष्करद्वीप है । इस प्रकारसे दूने-दूने विस्तारको लिए परस्पर एक दूसरेको बेड़े हुए असंख्यात द्वीप-समुद्र
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है । अन्तमें स्वयंभूरमण समुद्र है । चारों कोनोंमें पृथ्वी है । पुष्करद्वीपके बीचोंबीच मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे पुष्करद्वीप के दो भाग हो गये हैं। जम्बूद्वीप, घातको खण्ड और पुष्करार्द्ध, इस प्रकार ढाई द्वीपमें मनुष्य रहते हैं, इससे बाहर मनुष्य नहीं है । स्थावर जीव समस्त लोकमें भरे हुए हैं। जलचर जीव लवणोदधि, कालोदधि और स्वयंभूरमण इन तीन प्रमुदोमं निवास करते हैं।
जम्बूद्वीप एक लाख योजन चौड़ा गोलाकार है। इसमें पूर्व और पश्चिम दिशामें लम्बायमान दोनों भोर पूर्व-पश्चिम समुद्रको स्पर्श करते हुए (१) हिमवत्, (२) महाहिमवान्, (३) निषध, (४) नील, (५) रुक्मि और (६) शिखरी ये छ: कुलाचल हैं, इन्हें वर्षधर भी कहा जाता है । इनके निमित्तसे जम्बूद्वीपके सात भाग हो गये हैं । दक्षिण दिशाके प्रथम भागका नाम भरत क्षेत्र, द्वितीय भागका नाम हैमवत और तृतीय भागका नाम हरिक्षेत्र है । इसी प्रकार उत्तर दिशाके प्रथम भागका नाम ऐरावत, द्वितीय भागका नाम हैरण्यवत और तृतीय भागका नाम रम्यक क्षेत्र है । मध्य भागका नाम विदेह क्षेत्र है । भरत क्षेत्रको चोड़ाई ५२६ / ६ /१९ योजन अर्थात् जम्बूद्वीपकी चौड़ाईके एक लाख योजनके १९० भागों में से एक भाग प्रमाण है । हिमवत पर्वतकी चौड़ाई दो भाग हैमवत क्षेत्रकी चार भाग, महाहिमवत् पर्वतको आठ भाग, हरिक्षेत्रकी सोलह भाग और freshी बत्तीस भाग प्रमाण है । सब मिलाकर ६३ भाग प्रमाण हुए। इसी प्रकार उत्तर दिशामें ऐरावत क्षेत्रसे लेकर नीलपर्यंत तक ६३ भाग है । मध्यका विदेह क्षेत्र ६४ भाग है । इस प्रकार कुल मिलाकर ६३ + ६३ + ६४ = १९० भाग प्रमाण है !
हिमवत् पर्वतकी ऊँचाई सो योजन, महाहिमवत्की दो सो योजन, निषधकी चार सौ योजन नीलको चार सो योजन, रुक्मिकी दो सौ योजन और शिखरीकी सौ योजन है। इन सभी कुलाचलोंको चौड़ाई ऊपर, नीचे और मध्य में समान है । इन कुलाचलोंके पखवाड़ों में अनेक प्रकारकी मणियां है। ये हिमवदादिक छहों पर्वत क्रमशः सुवर्ण, रजत, तप्तसुवर्ण, वैहूयं, चांदी और सुवर्णके वर्ण वालें हैं । इन कुलाचलोंके ऊपर पद्म, महापद्म, तिमिच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक संज्ञक छा नालाब हैं। इन कुण्डोंकी लम्बाई १०००१ २००० १४०००/४०००|२००० और १००० योजन है। चौढाई ५०० ११०००/२०००/ २०००|१०००/५०० योजन है । गहराई १०/२०/४०/४० | २०११० योजन है । इन तालाबों में पार्थिव कमल हैं, जिनकी ऊंचाई और चौड़ाई १/२/४/४/२/१ योजन है । इन कमलोंपर पल्योपम आयुवाली श्री, हो, घृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी जातिको देवियों सामानिक और पारिषद् जातिके देवों सहित क्रमसे निवास करती हैं ।
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इन सात क्षेत्रोंमेंसे प्रत्येक में दो-दो क्रमसे गंगा-सिन्धु, रोहित रोहितास्या, हरित हरिकान्ता, सोता सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला, और रक्ता रक्तोदा ये चौदह नदियाँ प्रवाहित होती हैं ।
विदेहक्षेत्र के बीच में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु पर्वतको जड़ एक हजार योजन भूमि में है तथा निन्यानबे हजार योजन भूमिके ऊपर ऊँचाई है और चालीस योजनकी चूलिका है । यह सुमेरु पर्वत गोलाकार भूमिपर दश हजार योजन चौड़ा तथा ऊपर एक हजार योजन चौड़ा है। सुमेरुपर्वत के चारों ओर भूमिपर भद्रशाल वन है । यह भट्टशाल वन पूर्व और पश्चिम दिशा में बाईस बाईस हजार योजन और उत्तर-दक्षिण दिशा में ढाई-ढाई सौ योजन चौड़ा है। पृथ्वीसे पाँचसौ योजन जानेपर सुमेरु के चारों ओर प्रथम कटनीपर पांचसौ योजन चौड़ा नन्दनवन है । नन्दनवन से बासठ हजार पाँचसौ योजन ऊँचा चढ़नेपर सुमेरुके चारों ओर द्वितीय कटनोपर पांचसौ योजन चौड़ा सोमनस वन है। सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन ऊँचा चलनेपर सुमेरुके चारों ओर तीसरी कटनीपर चारसी चौरानबे योजन चौड़ा पाण्डुक वन है । मेरुकी चारों विदिशाओं में चार चमदन्त पर्वत हैं। दक्षिण और उत्तर में भद्रशाल तथा निषध और नील पर्वत बीचमें देवकुरु और उत्तरकुरु हैं। मेरुकी पूर्व दिशा में पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा में पश्चिम विदेह है। पूर्व विदेहके बीचमें होकर सीता और पश्चिम विदेह में होकर सीतोदा नदी पूर्व और पश्चिम समुद्रको गयी हैं। इस प्रकार दोनों नदियोंके दक्षिण और उत्तर तटकी अपेक्षासे विदेह चार भाग हैं और प्रत्येक भाग में आठ-आठ देश हैं । इन आठों देशोंका विभाग करनेवाले क्षार पर्वत तथा दिभंगा नदी है ।
भरत और ऐरावत क्षेत्रके बीच में विजयार्द्ध पर्वत है। भरत और ऐरावत के छः-छः खण्ड हैं। इनमेंसे एक-एक आयखण्ड और पाँच-पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं ।
मनुष्यलोकके भीतर पन्द्रह कर्मभूमि और तीस भोगभूमियां हैं। जहाँ असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्यरूप षट्कर्मको प्रवृत्ति हो, उसे कर्मभूमि कहते हैं और जहां कल्पवृक्षों द्वारा भोगोंकी प्राप्ति हा, उसे भोगभूमि कहते हैं।
भोगभूमि के तीन भेद हैं: - ( १ ) उत्तम, (२) मध्यम और (३) जघन्य । हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि है । हरि और रम्यक क्षेत्रोंमें मध्यम भोगभूमि एवं देवकुरु और उत्तरकुरुमें उत्कृष्ट भोगभूमि है। मनुष्यलोकके बाहर सर्वत्र जधन्य भोगभूमिकी-सी रचना है, किन्तु अन्तिम स्वयंभूरमणद्वीपके
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उत्तराद्ध में तथा समस्त स्वयंभरमण समुद्र में तथा चारों कोनोंकी पृथिवियोंमें कर्मममिकी-सी रचना है। भोगभूमिमें वोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और पतुरिन्द्रय जीव नहीं होते । समस्त द्वीप-समुद्रोंमें भवनवासी और व्यन्तरदेव निवास करते हैं। कल्पहास : विवेचन
भोगभूमि और कर्मभूमिके साथ कल्पकालका घनिष्ठ सम्बन्ध है। जलालोको रहयो नीदी कलाके परिज्ञानके अभावमें संभव नहीं है। ___बीस कोडाकोडी अद्धासागरके समयोंके समूहको कल्प कहते हैं । कल्पकाल के दो भेद हैं:-अबसर्पण और (२) उत्सर्पण । इन दोनों कालोंका प्रमाण दसबस कोडाकोडी सागर है। अवसर्पण कालमें आयु, शरीर, ऐश्वर्य, विद्या, बुद्धि आदिको उत्तरोत्तर होनता और तस्सपंणकालमें उक्त बातोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । अवसर्पणकालके छः भेद हैं:-(१) सुषम-सुषम, (२) सुषम, (३) सुषम दुषम, (४) दुःषम-सुषम, (५) दुःषम और (६) दुःषम-दुःषम । ___ अवसर्पणके छहों काल व्यतीत हो जाने पर उत्सर्पणके छ: काल आते है । इस प्रकार अवसर्पणके पश्चात् उत्सर्पण और उत्सर्पणके पश्चात् अवसर्पणका क्रम चलता रहता है। ___सुषम-सुषमकालका प्रमाण चार कोडाकोडी सागर, सुषमका प्रमाण तीन कोडाकोडो सागर, सुषम-दुःषमका प्रमाण दो कोडाकोडी सागर, दुःषम सुषमका प्रमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागर, दुःषमका इक्कीस हजार वर्ष और दुःषम-दुःषमका इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है।
अनेक कल्पकाल बीतनेपर एक हुंडावसर्पणकाल आता है, जिसमें कई विचित्र बातें घटित होती हैं। यथा चक्रवर्तीका अपमान, तीर्थंकर के पुत्रीका जन्म एवं शलाकापुरुषोंको संख्यामें हानि आदि बातें घटित होती हैं।
पहले कालके आदिमें मनुष्योंके शरीरको ऊंचाई तीन कोश और अन्त में दो कोश होती है । दूसरेके आदिमें दो कोश और अन्तमें एक कोश ऊंचाई होती है। तीसरेके आदिमें एक कोश, अन्तमें पाँचसौ धनुष, चौथेके आदिमें पांचसो धनुष और अन्त में सात हाथ कचाई होती है। पांचवेंके आदिमें सात हाथ, अन्तमें दो हाथ और छठेके आदिमें दो हाथ और अन्तमें एक हाथ ऊंचाई रह जाती है। षटकालोंमें भोगभूमि और कर्मभूमि : व्यवस्था
अवसर्पणके प्रथमकालमें उत्कृष्ट भोगभूमिको रचना रहती है। इस कालमें ४०२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि समस्त भोगोपभोग की सामग्री दस प्रकार के कल्पवृक्षोंसे प्राप्त होती है । पृथ्वी दर्पण के समान मणिमय छोटे-छोटे सुगन्धित तृणयुक्त होती है । भोगभूमि में माता के गर्भ से युगपत् स्त्री-पुरुषका युगल उत्पन्न होता है। यह घुगल ४९ दिनमें यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाता है । आयुके अन्त में पुरुष छींक लेकर और स्त्री जंमाई लेकर मरणको प्राप्त होते हैं। उनका शरीर शरत्कालके मेघके समान विलुप्त हो जाता है। ये भोगभूमिके सभी जीव मरण कर देवगतिको प्राप्त होते हैं ।
द्वितीयकाल में मध्यम भोगभूमि और तृतीयकालके आदिमें जघन्य भोगभूमिकी स्थिति रहती है । तृतीयकाल के अन्त में कर्मभूमिका प्रवेश होता है । इस कालमें जब पल्यका अष्टमांश शेष रह जाता है तो क्रमशः चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं। ये कुलकर जीवनवृत्ति एवं मनुष्यों को कुलकी तरह इकट्ठे रहनेका उपदेश देते हैं । चतुर्थकाल में चौबीस तीर्थंकर, द्वादश चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण और नव बलभद्र इन सठ शलाकापुरुषोंका जन्म होता है । पञ्चमका पर्यन्त मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविकारूप चतुविधसंघका अस्तित्व बना रहता है । पञ्चमकालके अन्त में धर्म, अग्नि और राजा इन तीनोंका नाश हो जाता है। छठे कालमें मनुष्य पशुको तरह नग्न, धर्मरहित और मांसाहारी होते हैं। इस कालके जीव मरकर नरक और तिर्यञ्च गति में ही जन्म धारण करते हैं ।
छठे कालमें वर्षा बहुत थोड़ी होती है तथा पृथ्वी रत्नादिक सारवस्तु रहित होती है । मनुष्य तीव्र कषाय युक्त होता है। इस कालके अन्तमें संवर्तक नामक पवन बड़े जोरसे चलता है, जिससे पर्वत, वृक्षादि चूर-चूर हो जाते हैं । बसनेवाले जीव मृत्युको प्राप्त होते हैं अथवा मूच्छित हो जाते हैं। कुछ मनुष्य विजय पर्वतको गुफाओं और महागंगा तथा महासिन्धु नदीको वेदियों में स्वयं प्रविष्ट हो जाते हैं । इस छटे कालके अन्तमें सात-सात दिन पर्यन्त क्रमशः (१) पवन (२) अत्यन्त शीत, (३) क्षाररस, (४) विष, (५) कठोर अग्नि, (६) धूल और (७) आकी वर्षा होती रहती है । इन उनचास दिनोंमें अवशिष्ट मनुष्यादिक जोव नष्ट हो जाते हैं। विष और अग्निकी वर्षा के कारण पृथ्वी एक याजन नीचे तक चूर-चूर हो जाती है । इसीका नाम प्रलय है । प्रलय भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके आर्य खण्डों में हो होती है, अन्यत्र नहीं । अतः यह खण्डप्रलय कहलाती है । उत्सर्पण के दुःषम दुःषम नामक प्रथमकाल में सर्वप्रथम सात दिन जलवृष्टि, सात दिन दुग्धवृष्टि, सात दिन घृतवृष्टि और सात दिन तक अमृतवृष्टि होती
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है, जिससे पृथ्वी निवास करने योग्य संचिकण हो जाती है ! सारिकी वाके कारण वृक्ष, लता, औषध, गुल्म आदि वनस्पतियोंकी उत्पत्ति और वृद्धि होने लगती है। पृथ्वीकी शीतलता और सुगन्धताका अनुभव होते ही विजया तथा नदीको वेदिकाओंमें छिपे हुए जीव निकल आते हैं और धर्मरहिन नग्नरूपमें विचरण करते हैं। मृत्तिका आदिका आहार करते हैं। इस कालमें जीवोंको आयु और शरीर आदि बढ़ने लगते हैं। उत्सर्पणके दूसरे दु:षमकालमें एक हजार वर्ष अवशिष्ट रहनेपर फूलकर उत्पन्न होते हैं। ये कूलकर मनुष्योंको क्षत्रिय आदि कुलोंका आचार एवं अग्निसे अन्नादि पकाने की विधि सिखलाते हैं । इसके पश्चात् दुःषम-सुषम नामक तृतीय काल आता है, जिसमें प्रेसठ शलाकापुरुष जन्म ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठकालमें भोगभूमिका प्रवर्तन रहता है। ज्योतिषीदेव : वर्णन
ज्योतिषोदेवोंके अन्तर्गत सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारोंको गणना की गई है। चित्राभूमिसे मात सौ नब्बे योजन ऊपर तारे हैं। तारोंसे दस योजन ऊपर सूर्य और सूर्यसे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा है। चन्द्रमासे चार सो योजन ऊपर नक्षत्र, नक्षत्रोंसे चार योजन ऊपर बुध, बुधसे तीन योजन ऊपर शुक्र, शुक्रसे तीन योजन ऊपर गुरु, गुरुसे तीन योजन ऊपर मंगल और मंगलसे तीन योजन ऊपर शनिश्चर है । बुधादि पाँच राहोंके अतिरिक्त तिरासी अन्य ग्रह भी हैं। इस प्रकार कुल ग्रहोंकी संख्या अट्टासी मानी गयी है ।
राहुके विमानका ध्वजदण्ड चन्द्रमाके विमानसे और केतुके विमानका ध्वजदण्ड सूर्य के विमानसे चार प्रमाणांगुल नीचे है । तथ्य यह है कि ज्योतिष्क जातिके देव मध्यलोकके अन्तर्गत ही विमानों में निवास करते हैं। इस ज्योतिष्कपटलकी मोटाई उर्ध्व और अधोदिशामें एकसौ दस योजन है और पूर्व तथा पश्चिम दिशाओंमें लोकके अन्तमें धनोदधिवातवलय पर्यन्त है तथा उत्तर और दक्षिण दिशा में एक राजू प्रमाण है । सुमेरु पर्वतके चारों ओर ग्यारह सौ इक्सीस योजन तक ज्योतिष्क विमानोंका सदभाव नहीं है । मनुष्यलोक पर्यन्त ज्योतिष्क विमान नित्य सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं । जम्बूद्वीपमें ३६, लवण समुद्र में १३९, पातुकी खण्डमें १०१०, कालोदधिमें ४११२०,
और पुष्कराधमें ५३२३० प्रब तारे है 1 मनुष्यलोकसे बाहर समस्त ज्योतिष्क विमान अवस्थित है।
इन ज्योतिष्क विमानोंमें तिर्यक् कुछ अन्तर है और ऊपरो भाग आकाश
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की एक ही सतह में है। तारोंमें परस्पर जघन्य अन्तर एक कोशका सप्तमांश, मध्यम अन्तर ५० योजन और उत्कृष्ट अन्तर १००० योजन है। समस्त ज्योतिष्क विमानोंका आकार आधे गोलेके समान है। इन विमानोंके ऊपर ज्योतिषी देवोंके नगर हैं । ये नगर अत्यन्त रमणीक और जिनमन्दिर संयुक्त हैं। __चन्द्रमाके विमानका व्यास ५६।६१ योजन है, सूर्यके विमानका व्यास ४१६१ योजन, शुक्रके विमानका व्यास एक कोश, वृहस्पतिके विमानका व्यास कुछ कम एक कोश तथा बुध, मंगल और शनिक विमानोंका व्यास आधाआधा कोश है। तारों के विमान १४ कोश, क्वचित् ११२ कोश और क्वचित ३१ कोश है। गक्षत्रोंके विमान एक-एक कोश चौड़े हैं। राह और केतुके विमान किंचित् ऊन एक योजन चौड़े हैं । समस्त विमानोंको मोटाई, चौडाईसे आधी है। सर्य और चन्द्रमाकी बारह हजार किरणे हैं। चन्द्रमाकी किरणें शीतल और सूर्य की किरणें उष्ण हैं | शुक्रकी ढाई हजार प्रकाशमान किरणें हैं । शेष ज्योतिषी देव मन्द प्रकाश युक्त हैं।
चन्द्रमाके विमानका १६वां भाग कृष्णपक्षम कृष्णरूप और शुक्ल पक्षमें शुक्लरूप प्रतिदिन परिणमन करता है। राहुके विमानके निमित्तसे छह मासमें एक बार पूर्णिमाको चन्द्रग्रहण होता है। सूर्यके नाचे चलनेवाले केतु विमानके निमित्तसे छह मास में एक बार अमावस्याको सूर्यग्रहण होता है। ज्योतिष्क विमानोंको नाना प्रकारके आकार धारण करनेवाले देव खींचते हैं | चन्द्रमा और सर्य के सोलह-सोलह हजार वाहक देव हैं। ग्रहोंके आठ-आठ हजार, नक्षत्रोंके चार-चार हजार और ताराके दो-दो हजार बाहक देव हैं चन्द्रमा, सूर्य और ग्रह इन तानीका छोड़कर शेष ज्योतिषी देव एक ही मार्ग में गमन करत हैं। ___ जम्बूद्वीपम दो, लवण समुद्र में चार, धातको खण्डमें बारह, कालोदधिमें बयालीस और पुष्कनमें बहत्तर सूर्य-चन्द्रमा है। प्रत्येक द्वीप या समुद्रके समान दो-दो दण्ड हैं और आधे-आधे ज्योतिष्क विमान गमन करते हैं । ग्रहोंका प्रमाण चन्द्रमाओं के प्रमाणसे अट्टासो गणित है। नक्षत्रोंका प्रमाण चन्द्रमाओंके प्रमाणसे अट्ठाईस गणित और तारोंका प्रमाण चन्द्रमाओंके प्रमाणसे छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोडा-कोडी गुणित है।
चन्द्रमा और सूर्यके गमन-मार्गको चारक्षेत्र कहा जाता है। इस समस्त चारक्षेत्रकी चौड़ाई ५१०४८।६१ योजन है । इस चौड़ाई में १८० योजन तो जम्बूद्वीपमें और शेष ३३०/४८१६१ योजन लवण समुद्र में है | चन्द्रमाके गमन करनेको पन्द्रह और सूर्यके गमन करनेको एकसी चौरासी गलियाँ हैं। इस सममें समान अन्तर है। दो-दो सूर्य या चन्द्रमा प्रतिदिन एक-एक गरलीको
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छोड़कर दूसरी-दूसरी गलीमें गमन करते हैं, जिस दिन सूर्य भीतरी गली में गमन करता है, उस समय १८ मुहूर्तका दिन १२ मुहूर्त की रात्रि होती है। तथा क्रमशः घटते-घटते जिस दिन सूर्य बाहरी गली-वीथिमें गमन करता है, उस दिन बारह मुहर्तका दिन और १८ महत की रात्रि होती है । सूर्य कर्कसंक्रातिके दिन आभ्यन्तर वीथि-भीतरी गली में गमन करता है। इस दिन दक्षिणायनका प्रारम्भ होता है और मकरसंक्रान्तिके दिन बाह्य वीथिपर गमन करता है। इस दिन उत्तरायणका आरम्भ होता है। प्रथम वीथिसे एकसौ चौरासीवी बोथिमें आनेमें १८३ दिन, तथ अन्तिम वीथिसे प्रथम वीथि तक पहुंचने में १८३ दिन लगते हैं। दोनों अय नोंके ३६६ दिन होते हैं। इसोको सूर्यवर्ष कहते हैं । सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र आदि की गणितात्मक गति गगनखण्डों द्वारा जानी जाती है ! काल-विभाजन ज्योतिष्क देवोंकी गति द्वारा ही होता है। उयलोक
मेरुसे ऊपर लोकके अन्त तकके क्षेत्रको उर्वलोक कहते हैं । इसके दो भेद हैं:-(१) कल्प और (३) कल्पातीत । जहाँ इन्द्र, सामानिक आदिकी कल्पना होती है, वे कल्प हैं और जहां यह कल्पना नहीं है, वे नास्माता है। कर पा सोलह स्वर्ग हैं:-(१) सौधर्म, (२) ईशान, (३) सनतकुमार, (४) माहेन्द्र, (५) ब्रह्म, (६) ब्रह्मोत्तर, (७) लांतव, (८) कापिष्ठ, (९) शुक्र, (१०) महाशुक्र, (११) सतार, (१२) सहस्रार, (१३)आनत, (१४)प्राणत,(१५) आरण, (१६) अच्युत । इन १६ स्वर्गोमेंसे दो-दो स्वर्गों में संयुक्त राज्य है । इस कारण सौधर्म, ईशान आदि दो-दो स्वर्गो का एक-एक युगल है। आदिके दो तथा अन्तके दो इस प्रकार चार युगलोंमें आठ इन्द्र हैं और मध्यके चार युगलोंमें चार ही इन्द्र हैं । अतएव इन्द्रोंकी अपेक्षा स्वर्गों के बारह भेद हैं।
सोलह स्वर्गों से ऊपर कल्पासीत हैं। इनमें नव वेयक, नव अनुदिश और पंच-अनुत्तर इन २३ की गणना की जाती है । सोलह स्वर्गों में तो इन्द्र, सामानिक, पारिषद आदि दस प्रकारकी कल्पना है और कल्पातीतोंमें यह कल्पना नहीं है, वहां सभी अहमिन्द्र कहलाते हैं।
मेरुकी चूलिकासे एक बालके अन्तरपर ऋषु विमान है। यहीसे सौधर्म स्वर्गका आरम्म होता है । मेरु तलसे डेढ़ राजूकी ऊंचाईपर सौधर्म-ईशान युगलका अन्त है। इसके ऊपर डेढ़ राजूमें सनतकुमार-माहेन्द्र युगल और उसके ऊपर आधे-आधे राज्यमें छह युगल हैं। इस प्रकार छह राजमें आठ युगल हैं। सौषम स्वर्गमें बत्तीस लाख, ईशानमें बीस लाख, सनतकुमारमें बारह लाख, ४०६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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माहेन्द्रमें आठ लाख, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगलमें चार लाख, लान्तव-कापिष्ठ युगल में पचास हजार, शुक्र-महाशुक्र युगलमें चालीस हजार, सतार-सहस्रार युगल में छह हमार था आमत, प्राण, आरण और अच्युत इन चारों स्वगोंमें सब मिलाकर सात सौ विमान हैं। अधोग्रेवेयकमें १११, मध्य ग्रेवेयकमें १०७ और अर्ध्वग्रेवेयकमें ९१ विमान है । अनुदिशमें ९ और अनुत्तरमें ५ विमान हैं। ये सब विमान ६३ पटलोंमें विभाजित हैं। जिन विमानोंका ऊपरी भाग एक समतलमें पाया जाता है, वे विमान एक पटलके कहलाते हैं और प्रत्येक पटलके मध्य-विमानको इन्द्रक-विमान कहते हैं। चारों दिशाओं में जो पंक्ति रूप बिमान हैं, वे श्रेणीबद्ध कहलाते हैं। श्रेणियोंके बीच में जो फुटकर विमान हैं उनकी प्रकीर्णक संज्ञा है।
सर्वार्थसिद्धि विमान लोकके अन्तसे वारह योजन नीचा है। ऋजु विमान ४५ लाख योजन चौड़ा है। द्वितीयादिक इन्द्रकोंकी चौड़ाई क्रमशः घटती गयी है और सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रक विमानकी चौड़ाई एक लाख योजन है । ___ लोकके अन्तमें एक राजू चौड़ी, सात राज लम्बी और आठ योजन मोटी ईषत्प्रारभार नामक आठवीं पृथ्वी है | इस पृथ्वीके मध्यमें रूप्यमयी छत्ताकार ४५ लाख योजन चौड़ी और मध्यमें आठ योजन मोटी सिद्धशिला है। इस सिद्धशिलाके ऊपर तनुदातमें मुक्त जीव विराजमान हैं । तथ्य यह है कि उर्ध्यलोक मृदंगाकार है, इसका आकार त्रिशरावसंपुटसंस्थान जैसा है। लोकस्थिति
आकाश, पवन, जल और पृथ्वी ये विश्वके आधारभूत अंग हैं । विश्वकी व्यवस्था इन्हींके आधार-आधेयभावसे निर्मित है। लोक भी उत्पाद-व्ययप्रोव्यात्मक है। इसकी व्यवस्था तर्कके आधारपर प्रतिष्ठित है । जीवादि सभी द्रव्य लोकमें निवास करते हैं और अलोकमें केवल आकाश ही आकाश रहता है । वस्तुतः लोकको स्थिति अनेकान्तवादके आलाकमें घटित होती है। आध्यात्मिकदृष्टि : नेय
आध्यात्मिकदृष्टिसे पदार्थोंका तीन विभागोंमें वर्गीकरण किया गया है:(१) हेय (२) उपादेय और (३) शेय। हेयका अर्थ है त्याज्य । जो आत्मामें आकुलता उत्पन्न करनेवाला हो वह हेय है। इस दृष्टिसे संसार और संसारके कारणीभूत आस्रव एवं बन्ध हेय पदार्थ हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र भी हेयके अन्तर्गत है। उपादेय वे पदार्थ हैं, जिनसे अक्षय, अविनाशी और अनन्त सुख प्राप्त हो। निश्चयसे विशुद्ध मान-दर्शनरूप निज आत्मा
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हो उपादेय है तथा सम्यकश्रद्धान, सम्यक्ज्ञान और सम्यग् आचरणरूप निश्चय रत्नत्रय तथा उस निश्चयरत्नत्रयका साधक व्यवहाररत्नत्रय भी उपादेय है । मोक्षके कारणीभूत संवर और निर्जरा तत्त्वकी गणना भी उपादेय में की गयी है ।" ज्ञेष यों तो भी पदार्थ है, पर आध्यात्मिकदृष्टिसे सप्त तत्त्व और नव पदार्थों में से हेयोपादेयके अतिरिक्त समस्त पदार्थ ज्ञेय हैं ।
प्रचचनसार में आचार्य कुन्दकुन्दने ज्ञेयके वर्णनके पूर्व बतलाया है कि गुणपर्यायात्मक ज्ञेय है और जो पर्यायोंमें आसक्त है, वह परसमय अर्थात् मूढ़दृष्टि है। आत्म-स्वभाव में स्थित स्वसमय और पर्यायोंमें स्थित परसमय कहा जाता है। शुद्ध ज्ञानदर्शनात्मक आत्मा ही उपादेय है और यही यथार्थ में ज्ञेय है ।
इस प्रकार हेय, उपादेय और शेयका परिज्ञान प्राप्तकर आत्माके निजी स्वरूपकी अनुभूति करनी चाहिये । इस त्रिपुटीसे ही तत्त्वका निर्देशन प्राप्त होता है । वस्तुमात्र ज्ञेय है और अस्तित्वकी दृष्टिसे ज्ञेयमात्र सत्य है । सत्य ही जीवनका सर्वस्व है ।
१. कथयति — उपादेयतत्त्वमप्रयानन्तसुखं तस्य कारणं मोक्षो, मोक्षस्य कारणं संवर निर्जराद्रयं तस्य कारणं विशुद्धज्ञानदर्शनस्य भावनि जात्मतत्त्व सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणं निश्चम रत्नत्रयस्वरूपं तत्साधकं व्यवहाररत्नत्रयरूपं चेति । इदानीं हेयरवं कथ्यते---आकुलस्त्रोत्पादकं नारकादिदुः खं निश्चयेनेन्द्रियसुखं च यस्वम् । तस्य कारणं संसार:, संसारकारणमात्र बबन्धपदार्थद्वयं तस्य कारणं पूर्वोक्त व्यवहारभिश्वय रत्नत्रयाद्विलक्षणं मिष्यादर्शनशानचारित्रत्रयमिति । ---वृहदटीका, द्वितीय अधिकार, गाथा - संख्या १-२ चूलिका, पृ० ८२-८३. २. जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमथिंग त्तिं गिट्ठिा । बादसहायम्मि ठिद्रा ते सगस मया मुणेदब्बा ॥1
— प्रवचनसार, गाथा ९४, पृ० ११०.
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नवम परिच्छेद ज्ञानतत्व-मीमांसा
ज्ञानका स्वरूप और व्युत्पति
ज्ञानशब्दको व्युत्पत्ति / जा + ल्युट से निष्पन्न है । इस शब्दका व्युत्पत्तिगत अर्थ "जानति ज्ञायतेऽनेन ज्ञप्तिमात्रं वा ज्ञानम्" अर्थात् जो जानता है वह ज्ञान है, जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है अथवा जानने मात्रको ज्ञान कहते हैं ।
जो आत्मा है वह जानता है और जो जानता है वह आत्मा है । आत्मा और अनात्मामें अत्यन्ताभाव है। आत्मा कभी अनात्मा नहीं बनती और अनात्मा कभी आत्मा नहीं बनती । आत्मा ज्ञानसे कथञ्चित् भिन्नाभिन्न है । ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है । आत्मा पदार्थों को जानती है और ज्ञान जाननेका साधन है । यही कारण है कि आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है । ज्ञेय लोका
१. सर्वार्थसिद्धि ( सोलापूर-संस्करण), अ० १ सूत्र १, ५० ३.
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लोक है, अतएव ज्ञान सर्वगत अर्थात् व्यापक है। संक्षेपमें 'स्व' और 'पर' को जाननेका साधन ज्ञान ही है । पूर्वमें जिस ज्ञेयकी चर्चा की गई है, उसका सम्यक बोध ज्ञानद्वारा ही सम्भब है। मानोत्पत्ति प्रक्रिया
ज्ञेय और ज्ञान दोनों स्वतन्त्र हैं। ज्ञेय है-द्रव्य, गुण और पर्याय । ज्ञान आत्माका गुण है । न तो ज्ञेयसे ज्ञान उत्पन्न होता है और न जानसे ज्ञेय । हमारा ज्ञान पदार्थको जाने अथवा न जाने, पर पदार्थ अपने स्वरूपमें अवस्थित है। पदार्थ भी ज्ञानका विषय बने या न बनें, तो भी हमारा ज्ञान हमारी आत्मामें स्थित है। यदि ज्ञानको पदार्थकी उपज माना जाय तो वह पदार्थका धर्म हो जायगा। हमारे साथ उसका तारतम्य नहीं हो सकेगा। पदार्थको जाननेको क्षमता हमारे भीतर सदा विद्यमान रहती है । पर ज्ञानकी आवृत अवस्थामें हम माध्यमके विना पदार्थको नहीं जान पाते। हमारे ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम, अथवा क्षय द्वारा जितनी क्षमता हमें प्राप्त होती है उसी क्षमताके । अनुसार इन्द्रिय और मन द्वारा पदार्थका ज्ञान प्राप्त करते हैं। आशय यह है कि संस्कार जिस पदार्थको जानने के लिए ज्ञानका प्रेरित करते हैं, तब शेय भात होते हैं। यह ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं, अपितु प्रवृत्ति है। उदाहरणार्थ यों समझा जा सकता है कि श खर गाना मनाही पता हुई और बन्दुक चलाई भी, यह शक्तिको उत्पत्ति नहीं, किन्तु उसका प्रयोग है। इसी प्रकार मित्रको देखकर प्रेमका उमड़ आना प्रेमको उत्पत्ति नहीं, उसका प्रयोग है। यही स्थिति ज्ञानके सम्बन्धमें भी है। ___ विषयके सामने आनेपर ज्ञाता उसे ग्रहण कर लेता है। यह प्रवृत्ति मात्र है। जानके आवरणके क्षयोपशम या क्षयके अनुसार जैसी क्षमता होती है, उसीके अनुसार वह विषयोंको जानने में सफल होता है । वस्तुतः पदार्थों को ग्रहण करनेकी अन्तरंग क्षमता आवरणके विलयनपर ही निर्भर है। इसीको क्षयोपशम या क्षयजन्य अन्तरंगक्षमता कहा जाता है। इसी क्षमताके कारण ज्ञानमें तारतम्यकी उत्पत्ति होती है।
अल्पज्ञका ज्ञान इन्द्रिय और मनके माध्यमसे ज्ञेयको जानता है। इन्द्रियोंको शक्ति सीमित है। वे अपने-अपने विषयोंको मनके साथ सम्बन्ध स्थापित कर जान सकती हैं। मनका सम्बन्ध एक साथ अनेक इन्द्रियोंसे नहीं होता है।
१. आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्यमाणमुदिट्ट । __णेयं लोयालोयं तम्हा गाणं तु सव्वगयं ॥ ४१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आमार्य-परम्परा
-प्रवचनसार गाथा २३.
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अतएव एक कालमें एक पदार्थकी एक पर्याय हो जानी जा सकती है। अत: ज्ञानको ज्ञेयाकार माननेकी आवश्यकता नहीं है । यह सीमा आवृत ज्ञानकी है, अमावतकी नहीं। निरावरण शान तो एक साथ समस्त पदार्थोको जान सकता है।
सारांश यह है कि ज्ञान स्वपरावभासक है । इसके मूलस: दो भेद है:१) पूर्णतः निरावरण और (२) अंशतः क्षयोपशमजन्य तारतम्यरूप निराबरण। आस्माके ज्ञानगणको ज्ञानावरणकर्म रोकता है और इसके क्षयोपशमके तारतम्यसे ज्ञान प्रादुर्भूत होता है। यह ज्ञान मन और इन्द्रियोंके माध्यमसे पदार्थों को जानता है । अतीन्द्रिय शानकी पता
संसारमें अनन्त पदार्थ हैं और उन अनन्त पदार्थों की अनन्त पर्याएँ हैं। अतः क्षयोपशमजन्य इन्द्रियज्ञान एक कालमें अनन्त पदार्थो में अनन्त पर्यायों को नहीं जान सकता। न वह सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को ही ग्रहण कर पाता है। पर जो जान समस्त आवरणके नष्ट होनेसे उत्पन्न हुआ है वह अतीन्द्रियज्ञान त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थीको जाननेवाला है । आत्मामें अनन्त ज्ञेयोंको जाननेको शक्ति है । अतः निरावरणज्ञान एक ही कालमें अनन्त शेयोंको जान लेता है। वस्तुतः आत्मा में समस्त पदार्थों के जाननेका पूर्ण सामर्थ्य है । संसारी अवस्थामें उसके ज्ञानका-शानावरणसे आवृत होनेके कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब चैतन्यके प्रतिबन्धक कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाता है तब इस अप्राप्यकारी ज्ञानको समस्त पदार्थो को जानने में किसी प्रकारकी बाधा नहीं रहती । यदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान न हो सके तो सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिग्रहोंकी ग्रह) आदि भविष्य दशाओंका उपदेश कैसे सम्भव होगा। ज्योतिर्मानोपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है। अतएब अतीन्द्रियज्ञानको समस्त पदार्थ और उनकी पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला मानना होगा।
यों तो केवलज्ञान ही आत्माका स्वभाव है। यह शान ज्ञानावरणकर्मसे आवत रहता है और आवरणके क्षयोपशमके अनुसार मतिजान आदि उत्पन्न होते हैं। जब हम मतिज्ञान आदिका स्वसंवेदन करते हैं, तब उस रूपसे अंशी केवलज्ञानका भी अंशतः स्वसंवेदन होता है । यथा पर्वतके एक अंशको देखनेपर भी पूर्ण पर्वतका व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना जाता है। इसी प्रकार मतिज्ञानादि अवयवोंको देखकर अवयवीरूप केवलज्ञान-ज्ञानसामान्यका प्रत्यक्ष भी स्वसंवेदनसे होता है। यहाँ केवलज्ञानको शानसामान्यरूप माना गया है और उसकी सिद्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा की गई है। संक्षेपमें अत्तोन्द्रियज्ञानकी क्षमता त्रिकाल और त्रिलोकमें स्थित समस्त पदार्थों को जाननेकी है ।
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शाम और यका सम्बन्ध
ज्ञान और शेयमें विषय-विषयीभावका संबन्ध है। ज्ञान स्वपर-प्रकाशक है। जिस प्रकार अपने ही कारणसे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ ज्ञेय होते हैं; उसी प्रकार अपने कारणसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी स्वतः ज्ञानात्मक है। ज्ञानका सामान्यधर्म अपने स्वरूपको जानते हए परपदार्थों को जानना है । अतः ज्ञान और शेयमें विषय-विषयीभावका सम्बन्ध है । यथार्थतः -- (१) ज्ञान अर्थमें प्रविष्ट नहीं होता और अर्थ ज्ञानमें । (२) ज्ञान अर्थाकार नहीं है । (३) ज्ञान अर्थसे उत्पन्न नहीं होता। (४) ज्ञान अर्थरूप नहीं है।
प्रमाता ज्ञानस्वभाव होता है, अतः वह विषया है। अध ज्ञयस्वभाव होता है, अतः वह विषय है। दोनों स्वतन्त्र हैं तो भी ज्ञान में अर्थको जाननेको और अर्थमें ज्ञानके द्वारा ज्ञात किये जानेकी क्षमता विद्यमान है। यही क्षमता दोनोंके कञ्चित् अभेदका हेतु है। चैतन्यके प्रधानरूपसे तोनकार्य हैं:-(१) नाना, (२) देखना और ( नुभूति र चक्षु द्वारा देखा जाता है और शेष इन्द्रियों एवं मनके द्वारा पदार्थोंको जाना जाता है । दर्शनका अर्थ देखना ही नहीं है अपितु एकता और अभेदको ज्ञानानुभूत्ति है। जो अर्थ और आलोकको ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण मानते हैं उनकी यह मान्यता इसीसे निराकृत हो हो जाती है। सदाकारता, अर्थ और आलोकके कारणत्यका विचार
ज्ञानको पदार्थाफार मानना तदाकारता है । इसका अर्थ है ज्ञानका ज्ञेयाकार कहना। पर वस्तुत: अमूर्तिक ज्ञान मृतिक पदार्थके आकार नहीं हो सकता। ज्ञानके ज्ञेयाकार होनका अभिप्राय यही हो सकता है कि उस ज्ञेयको जाननेके लिए ज्ञान अपना व्यापार कर रहा है। किसी भी शानकी वह अवस्था, जिसमें ज्ञयका प्रतिभास हो रहा है, निश्चित रूपसे प्रमाण नहीं कही जा सकती। सीपमें चाँदीका प्रतिभास करानेवाला ज्ञान यद्यपि उपयोगको दृष्टिसे पदार्थाकार हो रहा है, पर प्रतिभासके अनुसार बाह्मार्थकी प्राप्ति न होने के कारण उसे प्रमाणकोटिमें नहीं रखा जा सकता। अतएव ज्ञानको पदाकार मानना उचित नहीं। १. स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिछेद्यः स्वता यथा । सथा ज्ञान बहेतूत्थं परिच्छेदात्मक
स्वतः।।-लषीयस्वय ५९.
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अर्थ भी ज्ञानोत्पत्तिका कारण नहीं है क्योंकि वह ज्ञानका विषय है। जो ज्ञानका विषय होता है वह ज्ञानका कारण नहीं होता है, यथा अन्धकार" । यहाँ अन्धकार ज्ञानका विषय तो है क्योंकि उसे सभी जानते हैं और सभी कहते है कि अन्धकार है पर वह ज्ञानका कारण नहीं। यदि पदार्थों को ज्ञानका कारण माना जाय तो विद्यमान पदार्थों का ही ज्ञान होगा। अनुत्पन्न और विनष्ट हुए पदार्थो का नहीं । यतः नष्ट और अनुत्पन्न पदार्थ इस समय विद्यमान नहीं हैं। वे जानने में कारण कैसे हो सकते हैं ?
इसी प्रकार आलोक भी ज्ञानोत्पत्तिका कारण नहीं है; क्योंकि आलोकका ज्ञानोत्पत्ति के साथ अन्वयव्यतिरेकसम्बन्ध नहीं है। जो कार्य जिस कारणके साथ अन्वय और व्यतिरेक नहीं रखता वह उसका कार्य नहीं होता । यथा केशमें होनेवाला उडुकका ज्ञान अर्थके साथ अन्वयव्यतिरेक नहीं रखता । रात्रिमें विचरण करनेवाले नक्तंचर मार्जार आदिको आलोकके अभाव में भी ज्ञान होता है । अतएव आलोक भी ज्ञानोत्पत्तिका हेतु नहीं है ।
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ज्ञान और अर्थ में तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं है किन्तु योग्यतालक्षण सम्बन्ध है । इस सम्बन्धके कारण ही ज्ञान समकालीन अथवा भिन्नकालीन अर्थको ग्रहण करता है । यह अनुभवगम्य नहीं कि समस्त ज्ञान अपने आकारको ही जानते हैं बल्कि अपने से भिन्न पदार्थके अभिमुख होकर ही वे पदार्थों को जानते हैं। यह लौकिक प्रतीति है। लोकव्यबहारका उल्लङ्घन करनेसे पदार्थ की व्यवस्था सम्भव नहीं है। ज्ञान साकार भो नहीं है; यहाँ साकारसे अभिप्राय अर्थ आकारको धारण करने से है, क्योंकि नील आदि आकार जानमें संक्रान्त नहीं होते । ये तो जड़के धर्म हैं। जो जड़का धर्म होता है वह ज्ञानमें संक्रान्त नहीं हो सकता, यथा जड़ता । यदि ज्ञानको साकार माना जाय तो अथके साथ ज्ञानका पूरी तरह सारूप्य है अथवा एकदेशसे ? पूरी तरह से सारूप्य भाननेपर अर्थ की तरह ज्ञान भी जड़ हो जायगा और ज्ञानरूप न रहकर प्रमेयरूप हो जायगा । एकदेश सारूप्य माननेसे चैतन्य ज्ञान द्वारा अर्थका जड़ता की प्रतीति नहीं हो सकेगी, क्योंकि ज्ञान जड़ाकार नहीं है और जो जिसके आकार नहीं होता वह उसको ग्रह्य नहीं कर पाता । दूसरी बात यह है कि आकार ज्ञानसे भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि भिन्न है तो जान निराकार ही रहेगा और अभिन्न है तो जान और आकार में से कोई एक हो शेष रहेगा ।
१. वार्यालांकी कारणं परिच्छेद्यत्वात्तसोबात् ॥
ननु वाह्यालीका भाव विहाय तमसोऽयस्थाभावात् साकिलो दृष्टान्तः इति ? — प्रमेयरत्नमाला २०६
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अतएव ज्ञान और आकारको कथञ्चित् भित्राभिन्न मानना होगा। संक्षेपमें ज्ञानको उत्पत्तिमें अर्थ और आलोक हेतु नहीं हैं । आत्मामें जाननेको क्षमता है और यह क्षमता आवारक कभी के क्षयोपशभपर निर्भर हैं । जिस पस्तुविषयी भानका आवरण दूर हो जाता है, आत्मा उसे बाहरी अर्थ, आलोक आदि कारणोंके विना तथा तदुत्पति और तदाकारताके बिना ही स्वतः जानने लगती है। अतः ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कोंके क्षयोपशमरूप योग्यता ही प्रतिनियत विषयका नियामक है। शान और अनुभूति
स्पर्शन, रसना और घाण ये तीन इन्द्रियाँ भोगी हैं और चक्षु और श्रोत्र कामी हैं | कामी इन्द्रियों के द्वारा विषय जाना जाता है । उसको अनुभूति नहीं होती। भोगी इन्द्रियों के द्वारा अनुभति और ज्ञान दोनों होते हैं । इन्द्रियोंके द्वारा हम बाहरी वस्तुओंको जानते हैं। जाननेकी यह प्रक्रिया सबको एक-सी नहीं होती । चक्षुकी ज्ञानशक्ति शेष इन्द्रियोंसे अधिक पटु होती है। प्रोत्रकी शानशक्ति चक्षुसे कम है और शेष तीन इन्द्रियोंसे अधिक है । बाह्य-जगतकी जानकारी इन्द्रियोंके माध्यमसे होती है और इस जानकारीका संवर्धन मनसे होता है। प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयको क्षयोपशमरूप योग्यता द्वारा जानती है और इन्द्रिय द्वारा प्राप्त ज्ञानका विस्तार मन द्वारा होता है । इन्द्रियां स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्दको ग्रहण करती हैं। उनके ग्रहण करनेको शक्ति निम्नलिखित तथ्योंपर आधारित है :
(१) निर्वृत्ति-द्रव्य-इन्द्रिय, पौद्गलिक रचना । (२) उपकरण-शरीराधिष्ठान इन्द्रिय 1 (३) लब्धि-भाव-इन्द्रिय । (४) उपयोग-आत्माधिष्ठान ।
जिससे ज्ञान और दर्शनका लाभ हो सके या जिससे आत्माके अस्तित्वकी सूचना प्राप्त हो जैसे इन्द्रिय कहते हैं। इन इन्द्रियोंके द्रव्य और भावरूपसे दोदो भेद हैं । इन्द्रियाकार पुद्गल और आत्म-प्रदेशोंकी रचना द्रव्येन्द्रिय है और क्षयोपशमविशेषसे होनेवाला आत्माका शानदर्शनरूप परिणाम भाव-इन्द्रिय है।
द्रव्य-इन्द्रियके दो भेद हैं-निर्वृत्ति और उपकरण । निर्वृत्तिका अर्थ रचना है अर्थात् इन्द्रियाकार रचना होना निर्वृत्ति है । यह बाह्य एवं आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारको है । बाह्य निर्वृत्तिसे इन्द्रियाकार पुद्गल रचना और आभ्यन्तर निर्वृत्तिसे इन्द्रियाकार आत्म-प्रदेश ग्रहण किये जाते हैं। यद्यपि प्रतिनियत इन्द्रिय४१४ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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सम्बन्धी ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम सर्वाङ्ग होता है, तो भी आङ्गोपाल नामकर्मके उदयसे जहाँ पुद्गलप्रच्यरूप जिस द्रव्येन्द्रियकी रचना होती है वहींके आत्मप्रदेशोंमें उस इन्द्रियके कार्य करनेकी क्षमता रहती है।
उपकरणका अर्थ हे उपकारका प्रयोजक साधन । यह मी बाह्य एवं आभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। नेत्र इन्द्रियमें कृष्ण एवं शुक्ल भण्डल आभ्यन्तर उपकरण है और अक्षिपत्र आदि बास उपारण हैं : नित्ति और पकाये दोनों ही द्रव्येन्द्रियके अन्तर्गत हैं ।
ब्धि और उपयोग भाव इन्द्रियके भेद हैं । मतिज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण और अचक्षदर्शनावरणका क्षयोपशम होकर जो आत्मा में ज्ञान और दर्शनरूप शक्ति उत्पन्न होती है, वह लब्धि इन्द्रिय है। यह आत्माके समस्त प्रदेशोंमें पाई जाती है। क्योंकि क्षयोपशम सर्वात होता है लब्धि, नित्ति और उपकरण इन तीनोंके होनेपर जो विषयों में प्रवृत्ति होती है वह उपयोगेन्द्रिय है। वस्तुतः उपयोग ज्ञानशक्तिके व्यापारका नाम है। प्रत्येक इन्द्रियमें ज्ञानके हेतु निम्नलिखित चार बातें हैं :
(१) इन्द्रियाकार पुद्गलोंकी रचना । (२) इन्द्रियको ग्राहकशक्ति । (8) इन्द्रियको ज्ञानशक्ति। (४) इन्द्रियको ज्ञानशक्तिका व्यापार ।
उदाहरणार्थ यों कहा जा सकता है कि चक्षुका आकार हुए विना रूपदर्शन नहीं होता। उपकरणके अभाव में चक्षुका आकार ठोक रहनेपर भी ग्राहकशक्तिके न होनेसे रूप-दर्शन नहीं होता। ज्ञानशक्तिके अभावमें आकार और ग्राहक शक्तिके होते हुए भी तत्काल मृत व्यक्तिको रूप-दर्शन नहीं होता है । अतएव पदार्थोके जानने के हेतु इन्द्रियोंका शक्ति सम्पन्न होना आवश्यक है । इन्द्रियप्राप्तिका क्रम ___ इन्द्रियों का विकास सभी प्राणियोंमें समान नहीं होता है। जिस प्राणीके शरीरमें जितनी इन्द्रियोंका अधिष्ठान आकार सृजन होता है, वह प्राणी उतनी ही इन्द्रियोंवाला माना जाता है। आकार-वैषम्यका आधार लब्धिका विकास है । जिस जीवके जितनी ज्ञानशक्तियाँ-लब्धि-इन्द्रियाँ निरावरण विकसित होती हैं, उस जीवके उत्तनी हो इन्द्रियोंकी आकृतियां निर्मित होती हैं। जो जीव जिस जातिमें उत्पन्न होता है, उसके उस जातिके अनुकूल इन्द्रिया
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वरणका क्षयोपशम होता है और उसी जातिके अङ्गोपाङ्गका उदय होता है । फलस्वरूप प्रत्येक संसारी जीवके द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय एक समान पायी जाती हैं। एकेन्द्रियजीवके एक स्पर्शन इन्द्रिय; हौन्द्रियजीवके स्पर्शन और रसना इन्द्रिय; श्रीन्द्रियजीवके स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रिय; चतुरिन्द्रियजीवके स्पर्शन, रसना, ध्राण, और चक्ष एवं पञ्चेन्द्रियजीवके स्पर्शन, रसना, घ्राण चक्ष और श्रोत्र ये पांच इन्द्रियाँ होती हैं। ये पांची इन्द्रिया क्षाघांपशामक हैं, अतः इनका विषय मूर्त पदार्थ ही है। स्पर्शन इन्द्रिय स्पर्शको विषय करती है; रसना इन्द्रिय रसको प्राण इन्द्रिय गन्धको; चक्षरिन्द्रिय रूपको और श्रोत्रइन्द्रिय शब्दको विषय करती है । __इन्द्रियोंकी शक्ति पृथक् पृथक होने से वे पृथक्-पृथक रूपसे विषयोंको जानती हैं, अत: एक इन्द्रियका विषय दुसरी इन्द्रियमे संक्रान्त नहीं होता। इन्द्रियों के इन पांचों विषयों मेंसे स्पर्श आदि चार गुणपर्याय हैं और शब्द व्यंजन द्रव्य पर्याय । __यों तो प्रत्येक पुद्गल में स्पर्शादिक सभी गुण पाये जाते हैं, पर जो पर्याय अभिव्यक्त होती है, उसीको इन्द्रिय ग्रहण करती है। संक्षेपमें इन्द्रियाँ मनके सहयोगसे पदार्थोंको जानती हैं | मन समस्त इन्द्रियोंके साथ युगपत् सम्बन्धित नहीं होता। एक कालमें एक इन्द्रियके साथ ही सम्बन्ध करता है। आत्मा उपयोगमय है, वह जिस समय जिस इन्द्रियके साथ मनोयोग कर जिस वस्तुमें उपयोग लगाती है, तब वह तन्मय हो जाती है। अतः युगपत् इन्द्रियद्वयका उपयोग नहीं होता। देखना, चखना और सूंघना भिन्न-भिन्न क्रियाग है। इनके साथ मनकी गति एक साथ नहीं होती।
मनको ज्ञानशक्ति तीव्र होती है, अतः उसका क्रम जाना नहीं जाता | युगपत् सामान्य विशेषात्मक बस्तुका ज्ञान तो संभव है, पर दो उपयोग एक कालमें एक साथ नहीं होते। मन : स्वरूप एवं कार्य ____ मनन करना मन है अथवा जिसके द्वारा मनन किया जाता है, वह मन है। इसे अनिन्द्रिय भी कहते हैं। जिस प्रकार पांचों इन्द्रियोंका विषय नियमित है, उस प्रकार गनका विषय नियमित नहीं है । वह वर्तमानके समान अतीत और भविष्यके विषयको भी जानता है । अतीतकी घटनाओं का स्मरण भी मन द्वारा होता है, अतः मनका विषय मूतं और अमूर्त दोनों प्रकारके पदार्थो को जानना है । __मुख्यरूपसे मनका कार्य चिन्तन करना है। वह इन्द्रियोंके द्वारा गृहीत वस्तुओंके सम्बन्ध में तो सोचता ही है, पर इससे आगे भी सोचता है । इन्द्रियज्ञानका प्रवर्तक होनेपर भी मनको सर्वत्र इन्द्रियज्ञानकी अपेक्षा नहीं होती।
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यह इन्द्रियद्वारा ज्ञात रूप रस आदिका विशेष पर्यालोचन करता है । इन्द्रियोंकी गति पदार्थ तक है, पर मनकी गति पदार्थ और इन्द्रिय दोनों तक है । मनके दो भेद हैं: - ( १ ) द्रव्यमन और (२) भावमन ।
हृदयस्थानमें अष्टपांखुड़ीके कमलके आकाररूप पुद्गलोंको रचनाविशेष द्रव्यमन है" । संकल्प-विकल्पात्मक परिणाम तथा विचार, चिन्तन आदिरूप ज्ञानकी अवस्था विशेष भावमन है । द्रव्यमन पुद्गल विपाकी नामकर्मके उदयसे होता है । रूपादि युक्त होनेके कारण द्रव्यमन पुद्गलद्रव्यकी पर्याय है।
भावमन ज्ञानस्वरूप है। यह वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्मके दायकी अपेक्षा आत्मविशुद्धि है। सब्धि और उपयोगलक्षणयुक्त है। इन्द्रियोंका समस्त व्यापार मनके अधीन है । मन जिस-जिस इन्द्रियकी सहायता करता है, उसी उसी इन्द्रियके द्वारा क्रमशः ज्ञान और क्रिया होती है ।
मनको कथंचित् अवस्थायी और कथंचित् अनवस्थायी माना जाता है । द्रव्याधिकनयसे अवस्थायी और पर्यायार्थिकनय से अनवस्थाया है । जन्मसे भरण पर्यन्त जीवका क्षयोपशमरूप सामान्य भावमन तथा कमलाकार द्रव्यमन ज्योंरहते हैं, अतः अवस्थायी हैं और प्रत्येक उपयोगके साथ विवक्षित आत्मप्रदेशों में ही भावमनकी निर्वृत्ति होती है तथा उस द्रव्यमनको मनपना प्राप्त होता है, जो उपयोगके अनन्तर एक समयमें हो नष्ट हो जाता है, अतः वे दोनों अनवस्थायी हैं ।
शरीर और मनका सम्बन्ध
शरीरपर मनका प्रभाव पड़ता है। आत्मा अरूपी है, इसे हम देख नहीं सकते । शरीरमें आत्माकी क्रियाओंकी अभिव्यक्ति होती है । उदाहरणार्थ आत्माको विद्युत् और शरीरको बस्व मान सकते हैं। ज्ञानशक्ति आत्माका गुण है और उसके साधन शरीरके अवयव हैं ।
तथ्य यह है कि संसारी आत्माओंकी शक्तिका उपयोग पुद्गलोंकी सहायता के बिना नहीं होता । हमारा मानस चिन्तनमें प्रवृत्त होता है और उसे पौगलिक मनके द्वारा पुद्गलोंको ग्रहण करना ही पड़ता है, अन्यथा उसकी प्रवृत्ति नहीं होती । हमारे चिन्तनमें जिस प्रकार के इष्ट्र अनिष्ट भाव आते हैं,
१. हिदि होदि हुमणं वियसिय अनुच्छदारबिंद वा
अंगोवं गुदयादो मणवगण संघदो नियमा । गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४४२. २. वीर्यान्तराय मनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षयात्मनो विशुद्धिर्भावमनः ।
--- सवार्थसिद्धि २१११ पृ० १७०.
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उसी प्रकारके इष्ट था अनिष्ट पुद्गलोंको द्रव्यमन ग्रहण करता चलता है। मनरूपमें परिणत हुए अनिष्ट पुद्गलोंसे शरीरको हानि होती है और मनरूपमें परिणत इष्ट पुद्गलोंसे शरीरको लाभ पहुँचता है । इस प्रकार शरीरपर मनका प्रभाव सिद्ध होता है ।
यह ध्यातव्य है कि मनका शारीरिक शानतन्तुके केन्द्रोंके साथ निमित्तनैमित्तिक-सम्बन्ध है । जबतक ज्ञानतन्तु प्रौढ़ नहीं होते, तबतक पूरा बौद्धिक विकास नहीं होता है । वस्तुओंकी शानप्राप्तिके लिए मन और शरीर इन दोनोंका प्रौढ़ होना आवश्यक है ।
संक्षेपमें ज्ञानोत्पत्तिके प्रमुख दो साधन है:-(१) इन्द्रिय और (२) मन | सग्निकर्ष-विचार ___ अर्थका ज्ञान करानेमें इन्द्रिय और पदार्थका सन्निकर्ष कारण नहीं है । जो ज्ञानोत्पत्तिकी यह प्रक्रिया मानते हैं कि आत्मा मनसे सम्बन्ध करती है, मन इन्द्रियसे और इन्द्रिय अर्थसे, वह समीचीन नहीं है । यतः बस्तुका ज्ञान कराने में सन्निकर्ष सांधकतम नहीं है । जिसके होनेपर ज्ञान हो और नहीं होनेपर न हो, वह उसमें साधकतम माना जासा है, पर सन्निकर्षमें यह बात घटित नहीं होती। कहीं-कहीं सन्निकर्षके होनेपर भी ज्ञान नहीं होता। घटकी तरह अकाश आदिवे. साय चक्षुका संयोग रहता है, फिर भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। अत: जो जहाँ बिना किसो व्यवधानके कार्य करता है, वही वहां साधकतम होता है। यथा-घरमें स्थित पदार्थोंको प्रकाशित करने में दीपक । ज्ञान ही एक ऐसा हेतु है, जो बिना किसी व्यवधानके अपने विषयको जानता है। अतः ज्ञानोत्पत्तिमें क्षयोपशमजन्य शक्ति ही कारण है, सन्निकर्ष नहीं ।
यथार्थतः ज्ञाताको अर्थको ग्रहण कर सकनेको शक्ति या योग्यता ही वस्तुका ज्ञान कराने में साधकतम है और यह योग्यता 'स्व' और 'अर्थ' को ग्रहण करनेको शक्तिका नाम है। ज्ञानकी उत्पत्ति तभी होती है, जब ज्ञाताम उस अर्थको ग्रहण करनेकी शक्ति रहती है। अतएव शक्तिरूप योग्यता ज्ञानोत्पत्तिमें साधकतम है और ज्ञान 'स्व' तथा 'अर्थ' की परिच्छित्ति करानमें साधकसम है।
यह मान्यता भी सदोष है कि इन्द्रिय जिस पदार्थस सम्बन्ध नहीं करती, उसे नहीं जानती, क्योंकि वह कारक है, यथा बढ़ईका वसुला लकड़ोसे दूर रहकर अपना काम नहीं करता। सभी जानते हैं कि स्पर्शन इन्द्रिय पदार्थको छूकर ही जानती है, विना स्पर्श किये नहीं। यह सिद्धान्त समस्त इन्द्रियांके ४१८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आनार्य-परम्परा
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विषय में भी चरितार्थ है । पर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि रूपादि गुण अमूर्त होनेसे इन्द्रियोंके साथ उनका सन्निकर्ष संभव नहीं है । यतः चक्षु इन्द्रिय पदार्थका स्पर्श किये बिना भी रूपको ग्रहण कर लेती है ।
चक्षुका प्राप्यकारित्व-विमर्श
इन्द्रियोंमें चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं । अर्थात् ये पदार्थोंको प्राप्त किये बिना ही दूरसे हो ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। स्पर्शन, रमना और घ्राण ये तीन इन्द्रिय पदार्थोंसे सम्बद्ध होकर उन्हें जानती हैं। कान शब्दको स्पष्ट होनेपर सुनता है। स्पर्शनादि इन्द्रिय पदार्थोंके सम्बन्धकालमें उनसे स्पष्ट और बद्ध होती हैं । यहाँ बद्धका अर्थ इन्द्रियोंकी अल्पकालिक विकारपरिणति है | उदाहरण के लिये कहा जा सकता है कि अत्यन्त शीत जलमें हाथके डुबानेपर कुछ समय पश्चात् हाथ ऐसा ठिठुर जाता है कि उससे दूसरा स्पर्श शीघ्र गृहीत नहीं होता 1 इसी प्रकार किसी तीक्ष्ण पदार्थके खा लेनेपर रसना भी विकृत हो जाती है, पर श्रवणसे किसी भी प्रकार के शब्द सुनेर ऐसा कोई रिकार प्राप्त नहीं होता ।
चक्षु इन्द्रियको कुछ विचारक प्राप्यकारी मानते हैं । उनका अभिमत है कि चक्षु तैजस पदार्थ है । अतः उसमेंसे किरणें निकलकर पदार्थोंसे सम्बन्ध करती है और तब चक्षुके द्वारा पदार्थका ज्ञान होता है । चक्षु पदार्थके रूप, रस, गंध आदि गुणोंमेंसे केवल रूपको ही प्रकाशित करती है । अतः चक्षु तेजस है । मन व्यापक आत्मासे संयुक्त होता है और आत्मा जगतके समस्त पदार्थोंसे संयुक्त है । अतः मन किसी भी बाह्य वस्तुको संयुक्तसंयोग आदि सम्बन्धोसे जानता है । मन अपने सुखका साक्षात्कार संयुक्तसमवाय सम्बन्धसे करता है । मन मासे संयुक्त है और आत्मा में सुखका समवाय है । अतः चक्षु और मन दोनों प्राप्यकारी हैं।
उपर्युक्त तर्क विचार करनेपर सदोष प्रतीत होता है । यदि चक्षु पदार्थका स्पर्श कर पदार्थको जानती होती, तो आँखमें लगे हुए अंजनको भी जान लेती । किन्तु दर्पण में देखे बिना अंजनका ज्ञान नहीं होता । अतः वह अप्राप्यकारा है ।
क्षुको प्राप्यकारी सिद्ध करनेके लिये जो यह कहा जाता है कि चक्षु ढकी हुई वस्तुको नहीं देख सकती, अतः प्राप्यकारी है, यह कथन भी उचित नहीं है । काँच, अभ्रक और स्फटिकसे ढके हुए पदार्थोंको भी चक्षु देख लेती है। चुम्बक दूरसे ही लोहेको खींच लेता है, फिर भी यह किसी चीजसे आच्छादित हुए लोहेको नहीं खींच पाता है । अतएव जो ढकी हुई वस्तुको ग्रहण न कर सके, वह प्राप्यकारी है, ऐसा नियम बनाना सदोष है ।
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चक्षुको तेजोद्रव्य मानना भी प्रतीतिविरुद्ध है । यतः तेजोद्रव्य स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । दूसरी बात यह है कि सेजोद्रव्यमैं उष्ण स्पर्श और भास्वर रूप अवश्य पाये जाते हैं। पर चक्षु में उष्ण स्पर्श और भास्वर रूप नहीं हैं। ऐसा तेजो द्रव्य तो सम्भव है, जिसमें उष्ण स्पर्श प्रकट नहीं रहता, किन्तु भास्वर रूप रहता है। जैसे दीपककी प्रभा। और ऐसा भी तैजस द्रव्य देखा जाता है, जिसमें उष्ण स्पर्श रहता है, किन्तु भास्वरता नहीं रहती, यथा गर्म जल । किन्तु ऐसा तैजस द्रव्य नहीं देखा जाता है, जिसमें रूप और स्पर्श दोनों ही प्रकट न हो। अतएव चक्षको न तो तैजस द्रव्य ही माना जा सकता है और न उससे निकलनेवाली किरणोंकी ही कल्पना की जा सकती है। नक्तंचर-मारका उदाहरण भी दोषपूर्ण है। यतः मार्जारकी आँखोंमें किरणें होनसे समस्त प्राणियोंकी आँखोंमें किरणें रहनेका नियम नहीं बनाया जा सकता है । __चक्षुको प्राध्यकारी माननेपर पदार्थमें दूर और निकट व्यवहार सम्भव नहीं है । इसी प्रकार संशय और विपर्यय ज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकेंगे। वस्तुत: आँख एक कैमरा है, जिसमें पदार्थों को किरणें प्रतिबिम्बित होती हैं । किरणोंके प्रतिबिम्ब पड़नेसे ज्ञानतन्तु उबुद्ध होते हैं और चक्षु उन पदार्योको देख लेती है । चक्षु में पड़े हुए प्रतिबिम्बका कार्य केवल चेतनाको उद्बुद्ध करना है। अतएव चैतन्य मनकी प्रेरणासे नक्ष योग्य देशमें स्थित पदार्थको ही जानती है, अपने में पड़े हुए प्रतिबिम्बको नहीं । पदार्थोंके प्रतिबिम्ब पड़ने की क्रिया केवल स्विचको दबानेकी क्रियाके तुल्य है। अतः चक्षु अप्राप्यकारी है। यह अपने प्रदेशोंमें स्थित रहकर मनोयोगकी सहायतासे पदार्थों के रूपका अवलोकन करती है । चक्षुको प्राप्यकारी मानना अनुभव और तर्क दोनोंके विरुद्ध है। धोत्रका अप्राप्यकारिस्व-विमर्श
कतिपय दार्शनिक चक्षुके समान श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी मानते हैं । उनका अभिमत है कि शब्द भी दूरसे ही सुना जाता है । यदि श्रोत्र प्राप्यकारी होता, तो शब्दमें दुर और निकट व्यवहार सम्भव नहीं होना चाहिये था । किन्तु जब हम कानमें घुसे हुए मच्छरके शब्दको सुन लेते हैं, तो उसे अप्राप्यकारी कैसे कहा जा सकता है ? प्राप्यकारी प्राण इन्द्रियके विषयभूत गन्धमें भी कमलकी गन्ध दूर है, मालतीको गन्ध पास है, इत्यादि व्यवहार देखा जाता है । यदि चक्षके समान श्रोत्र भी अप्राप्यकारी होता, तो जैसे रूपमें दिशा और देशका संशय नहीं रहता, उसी प्रकार शब्दमें भा नहीं होना चाहिये था। किन्तु शब्दमें यह किस दिशासे आया है, इस प्रकार का संशय देखा जाता है। अतः ४२० : सीझर्थर महावीर और उनकी आमार्य-परम्परा
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श्रोत्र प्राप्यकारी है। जब शब्द वातावरणमें उत्पन्न होता है, तो काके भोतर पहुंचता है, तब सुनायी पड़ता है।
वस्तुसः धोत्र स्पष्ट शब्दको सुनता है, अस्पृष्ट शब्दको भी सुनता है। नेत्र अस्पष्ट रूपको भी देखता है। ब्राण, रसना और स्पर्शन इन्द्रियों मशः स्पृष्ट और अस्पृष्ट गन्ध, रस और स्पर्शको जानत्तो हैं ।' ज्ञानके भेद
सामान्यतः ज्ञानके दो भेद है:-(१) सम्यग्ज्ञान और (२) कुज्ञान । ज्ञान आत्माका विशेष गुण है, यह आत्मासे पृथक उपलब्ध नहीं होता। जिस ज्ञान द्वारा प्रतिभासित पदार्थ यथार्थ रूपमें उपलब्ध हो, उसे सुम्यग्ज्ञान कहते हैं। वस्तुत: जिस-जिस रूपमें जीवादि पदार्थ अवस्थित हैं, उस-उस रूप में उनको जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यक् पदसे संशय, विपर्यय, अगध्यवसायको निराकृति हो जाती है । यतः ये गान सम्यक नहीं है। सम्यग्ज्ञानका संबंध आत्मोत्यानके साथ है । जिस जानका उपयोग आरम-विकासके लिये किया जाता है और जो परपदार्थोसे पृथक कर आत्माका बोध कराता है, वह सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानके पाँच भेद है:
(१) मतिज्ञान-इन्द्रिय और मनके द्वारा यथायोग्य पदार्थोको जाननेवाला।
(२) श्रुतशान-श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम होनेपर, मन एवं इन्द्रियोंके द्वारा अधिगम ।
(३) अवधिज्ञान-परिमित रूपी पदार्थको इन्द्रियोंकी सहायताके बिना जाननेवाला ।
(४) मनःपर्ययज्ञान-परके मनमें स्थित पदार्थोंको जाननेवाला । (५) केवलज्ञान-समस्त पदार्थोको अवगत करनेवाला ज्ञान 1
कुशान तीन है:-(१) कुमति, (२) कुश्रुत और (३) कुअवधि । मान और प्रमाण-विमर्श
यथार्थ ज्ञान प्रमाण है। ज्ञान और प्रमाण में व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। शान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य | ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकारका होता है । सम्यक् निर्णायक शन यथार्थ होता है । संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि अयथार्थ ज्ञान हैं । अतएव ये प्रमाणभूत नहीं हैं।
१. पुढे सुर्गेदि सई अपुटुं व पस्सदे हों। गंध रस च फासं पटुमपट्ट बियाणादि ।
-सर्थिसिद्धि १-१९ उत्त. तीर्थकर महागीर और उनकी देवामा : ४२१
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प्रमाका करण प्रमाण है और जो वस्तु जैसी है, उसको उसी रूपमें जानना प्रमा है। करणका अर्थ सापकसम है। एक अर्थको सिद्धि में अनेक सहयोगी होते हैं, किन्तु सभी करण नहीं कहलाते हैं । फलकी सिद्धिमें जिसका व्यापार अध्यवाहित होता है, वही करण कहलाता है। यथा---लिखनेमें कलम और हाथ दोनों चलते हैं, किन्तु करण कलम ही कहलाती है, हाय नहीं। क्योंकि लिखनेका निकटतम सम्बन्ध लेखनीसे है। हाथका सम्बन्ध निकटतम नहीं है। व्याकरणकी भाषामें हाथको साधक और लेखनीको साधकतम कहा जा सकता है।
प्रमाणके इस लक्षणमें सामान्यतः कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । विप्रतिपत्तिका विषय तो केवल 'करण' शब्द है। अन्य दर्शनों में करणको मान्यता विभिन्न प्रकार है । बौद्धदर्शन सारूप्य और योग्यताको करण मानता है, तो नैयायिक दर्शन सन्निकर्ष और ज्ञानको । पर यथार्थमें शान ही करण है । वस्तुके जाननेरूप व्यापारके साथ उसका निकटका सम्बन्ध है।
झान या अधिगमके साधनोंमें प्रमाण और नयकी गणना है। प्रमाण समग्र वस्तुको अखण्डरूपसे ग्रहण करता है और नय खण्डरूपसे । प्रमारूप क्रिया चेतन है । अतः उसमें साधकतम उसीका गुण ज्ञान ही हो सकता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि जाननरूप क्रियाका अव्यवहित करण ज्ञान हो है । अतएव प्रतीतिका करण चेतनरूप ज्ञान ही हो सकता है, अन्य जहादि पदार्थ नहीं । जिस प्रकार अन्धकारको निवृत्तिमें दीपक ही माधकसम है, तेलबत्ती और दीया आदि नहीं। उसी प्रकार जाननेरूप क्रियाने साधकत्तम ज्ञान है, ज्ञानको उत्पादक सामग्रो अवश्य इन्द्रिय और मन आदि हैं।
ज्ञानका सामान्य धर्म है अपने स्वरूपको जानते हुए पर-पदार्थको जानना । ज्ञान अवस्थाविशेषमें 'पर' को जाने या न जाने, पर अपने स्वरूपको तो वह अवश्य जानता है। ज्ञान प्रमाण हो, संशय हो, विपर्यय हो या अनध्यवसाय हो, यह बाह्य अर्थमें विसंवादी होनेपर भी 'स्व' स्वरूपको अवश्य जानता है और 'स्व' स्वरूपके सम्बन्धमें अविसंवादी होता है। यदि ज्ञानको 'स्व' स्वरूपका ज्ञाता न माना जाय, तो वह 'पर' अर्थका बोधक भी नहीं हो सकता है । जो ज्ञान अपने स्वरूपका प्रतिभास करने में असमर्थ है, वह परका अवबोधक कैसे हो सकता है ? 'स्व' स्वरूपकी दृष्टिसे तो सभी मान प्रमाण हैं। प्रमाणता और अप्रमाणताका विभाग बाझ अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे सम्बद्ध है। स्वरूपकी दृष्टिसे तो कोई ज्ञान न प्रमाण है और न प्रमाणाभास । प्रमाणस्वरूपका विकास
प्रमाणके स्वरूपका विकास निरन्तर होता रहा है । आरम्भमें आत्मज्ञानको ४२२ : तीषकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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प्रमाण माना जाता था। पश्चात् स्व-परावभासी' ज्ञानको प्रमाण कहा जाने लगा। वस्तुतः स्वपरावभासी एवं बाधारहित ज्ञान प्रमाण है । इस लक्षणमें व्यवसायात्मक, अनधिगतार्थक और अविसंवादी पदोंका जोड़ना भी आवश्यक है । जो ज्ञान अनधिगत अर्थको जानते हुए विसंवादसे रहित निश्चयात्मक स्वपरावमासो होता है, वह प्रमाण हैं । __ज्ञान मात्र प्रमाण नहीं है, किन्तु जो तत्त्व-निर्णय करानेमें साधकतम ज्ञान हैं, कही प्रमाण है । जो पदार्थका निश्चय करानेवाला ज्ञान है, वह प्रमाणभूत है। ज्ञानकी प्रमाणतामें कोई अन्य कारण नहीं होता। किन्तु जो अर्थको सम्यक निश्चयात्मक रूपसे जानता है, वह ज्ञान प्रमाण है। निष्कर्ष रूपमें 'स्व' और 'पर' को निश्चयात्मक रूपसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण है।
प्रमाणकी सामान्य व्युत्पत्ति है-'प्रमीयते येन तत् प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान हो, उस द्वारका नाम प्रमाण है। प्रमाणभूत ज्ञान हो उपादेय है, क्योंकि इसीके द्वारा अज्ञानको निवृत्ति, इष्ट वस्तुका ग्रहण और अनिष्ट वस्तुका त्याग होता है । प्रामाण्य-विचार
प्रमाण जिस पदार्थको जिस रूपमें जानता है, उसका उसी रूपमें प्राप्त होना, अर्थात् प्रतिभात विषयका अव्यभिचारो होना प्रामाण्य कहलाता है। यह प्रमाणका धर्म है । इसकी उत्पत्ति उन्हीं कारणोंसे होता है, जिन कारणोंसे प्रमाण ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य, उनकी उत्पत्ति परतः ही मानी जाती है।
प्रमाणको ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वत: और अनभ्यासदशामें परतः होता है। जिन स्थानोंका हमें परिचय है, उन स्थानोंमें रहनेवाले जलाशमादिका ज्ञान अपने आप अपनी प्रमाणता या अप्रमाणताको प्रकट कर देता है, किन्तु अपरिचित स्थानों में होनेवाले जलज्ञानकी अप्रमाणता या प्रमागताका ज्ञान पनिहारियोंका पानी भरकर लाना, मेढकोंका टरांना या कमलकी गन्धका आना आदि जलके अविनाभावी लक्षणोंका ज्ञान परत:-प्रमाणभूत ज्ञानोंसे ही होता है।
प्रमाणके प्रामाण्यको उत्पत्ति परतः ही होगी। जिन कारणोंसे प्रमाण १. स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भूवि बुद्धि लक्षणम् । -पृ. स्व० ६३. २. प्रामाण्यमुत्पत्ती परत एव, विशिष्टकारणप्रभवत्वादिशिष्ट कार्यस्येसि ।....
मनुत्पत्तो विज्ञानकारणातिरिक्तकारणान्तरसव्यपेक्षत्वमसिद्ध प्रामाण्यस्य, अबितरस्यवाभावात् । -प्रेभयरत्नमाला १।१३, पृ. ३०-३१.
तीर्थकर महावीर कौर उनको देशना : ४२३
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या अप्रमाणज्ञान उत्पन्न होगा, उन कारणोंसे उनकी प्रमाणता और अप्रमाणता उत्पन्न होती है । प्रमाण और प्रमाणताकी उत्पत्तिमें समयभेद नहीं है । ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले जो कारण हैं, उनसे भिन्न कारणोसे प्रमाणता उत्पन्न होती है । यतः प्रमाण और प्रामाण्यकी उत्पत्तिमें दीपक और प्रकाशके समान, समयभेद नहीं है ।
ज्ञप्ति और प्रवृत्ति अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशामें परतः सिद्ध होती हैं'। परिचित अवस्थाको अभ्यासदशा और अपरिचित अवस्थाको अनभ्यास दशा कहा जाता है। अपने दिके जलाशय, नथो, माड़ीयादि परिचित हैं, अत: उनकी ओर जानेपर जो जलज्ञान उत्पन्न होता है, उसकी प्रमाणता स्वतः होती है। पर अन्य परिचित ग्रामादिक में जानेपर 'यहाँ जल होना चाहिए, इस प्रकार जो जलज्ञान उत्पन्न होगा, वह शीतल वायुके स्पर्शसे, कमलोको सुगंधिसे, या जल भरकर आते हुए व्यक्तियोंके देखने आदि पर - निमितोंसे ही होगा। अतः उस जलज्ञानकी प्रमाणता अनभ्यासदशामें परतः मानी जायगी । उत्पत्तिमें परतः प्रमाणता कहनेका तात्पर्य यह है कि अन्तरंग - कारण ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर भी बाह्यकारण इन्द्रियादिकके निर्दोष होने पर ही नवीन प्रमाणतारूप कार्य उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं । अतएव उत्पत्ति में परतः प्रमाणता स्वीकार की गयी है । प्रमाण के भेद
प्रमाण के दो भेद हैं: - ( १ ) प्रत्यक्ष और ( २ ) परोक्ष | आगमिक परिभाषा में आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष और जिन ज्ञानों में इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि पर साधनों की अपेक्षा होती है, वे परोक्ष हैं । जितने परनिमित्तक परिणमन हैं, वे सब व्यवहारमूलक हैं। जो मात्र स्वजन्य हैं, वे ही परमार्थ हैं और निश्चय के विषय हैं ।
प्रत्यक्ष शब्द में 'अक्ष' विचारणीय है । अक्षका अर्थ आत्मा है। बताया है कि अक्ष, व्यापू और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं। अतः अक्षका अर्थ आत्मा होता है। इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्माके प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रिय आदिको अपेक्षासे न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरण रहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है । १. विषयपरिच्छित्तिलक्षणे प्रवृत्तिलक्षणे वा स्वकार्ये अभ्यासेतर दशापेक्षया क्वचित् स्वतः परतश्चेति निश्चीयते । - प्रमेवरस्नमाला १।१३, पु० ३१.
२. जं परवो विष्णाणं तं तु परोक्त सि भगिमसु । जवि केवलेण णादं हर्षादि हि जीवेण पञ्चवं ॥
४२४ : सीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
- प्रवचनसार गांधा ५८.
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इन्द्रियोंके निमित्तसे होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं माना जाता है; क्योंकि इस प्रकारके शानसे आत्मामें सर्वज्ञता नहीं आ सकती है। अतएव अतीन्द्रिय ज्ञान परनिरपेक्ष होने के कारण प्रत्यक्ष है। जो ज्ञान सर्वथा स्वावलम्बी है, जिसमें बाह्य साधनोंकी आवश्यकता नहीं है, वह प्रत्यक्ष है और जिसमें इन्द्रिय, मन, आलोक आदिकी आवश्यकता रहती है, वह परोक्ष है ।"
तर्ककी दृष्टिसे निर्मल और स्पष्ट शानको प्रत्यक्ष कहा जा सकता है इसका अनुमान यों कर सकते हैं कि प्रत्यक्षविषयक ज्ञान विशदरूप है; क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। जो विशदज्ञानात्मक नहीं, वह प्रत्यक्ष नहीं, यथा परोक्ष ज्ञान । यहाँ विशद या निर्मलका अर्थ दूसरे ज्ञानके व्यवधान से रहित और विशेषता से होनेवाला प्रतिभास है अर्थात् अन्य ज्ञानके व्यवधान से रहित निर्मल, स्पष्ट और विशिष्ट ज्ञान वैशद्य कहलाता है । प्रत्यक्षके दो भेद हैं:-१. सांव्यवहारिक और २. पारमार्थिक |
पाँच ज्ञानोंमेंसे इन्द्रिय और अनिन्द्रियकी अपेक्षा मति और श्रुतज्ञानको पहा जाता है। एवं केवल प्रत्यक्ष माना जाता है। तर्ककी दृष्टिसे इन्द्रिय और मनके निमित्तसे उत्पन्न आंशिक विशद ज्ञान भी प्रत्यक्ष है । अतएव लोक व्यवहारका निर्वाह करनेके हेतु सांव्यवहारिक प्रत्यक्षकी भी कल्पना की गई है। संक्षेपमें प्रमाणके भेद मूलतः प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो है और प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो भेद हैं । परोक्ष प्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पांच भेद किये गये हैं ।
प्रत्यक्ष
सांव्यवहारिक
i
T
अवग्रह ईहा अचाय धारणा
प्रमाण
S
T पारमार्थिक
परोक्ष
अवधि मन:पर्यय केवल
}
अनुमान,
स्मृति,
प्रत्यभिज्ञान
सर्फ
आगम
१. अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा । तमेष प्रासक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा
नियतं प्रत्यक्षम् ।
- सर्वार्थसिद्धि १।१२.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४२५
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प्रत्यक्ष-परीक्षप्रमाण : सामान्य निरूपण
पुरातन मान्यतामें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको परोक्ष एवं स्मति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधको मति ज्ञानका पर्याय कहा गया है । अतएव आगमकी शब्दावली में सामान्यरूपसे स्मृति, संज्ञा---प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता-तर्क, अभिनिबोध अनुमान और श्रुत--आगमको परोक्ष मानने का विधान है। इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला प्रत्यक्ष- केवल मतिज्ञानको परोक्ष मानने में लोकविरोध आता है, क्योंकि इन्द्रियों द्वारा भी वस्तुओका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। अतः इन्द्रिय और मनसे गृहीत होनेवाले पदार्थोके ज्ञानको परोक्ष किस प्रकार कहा जाय? इस समस्या के समाधान हेतू मति, स्मति, चिन्ता आदि ज्ञानोंको शब्दयोजनाके पहले सच्यिवहारिक प्रत्यक्ष और शब्द-योजनाके पश्चात उन्हीं ज्ञानोंको श्रुत माना जा सकता है। इस प्रकार मतिज्ञानको परोक्षकी सीमामें सम्मिलित करनेपर भी उसके एक अंशको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना जा सकता है । जो ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें किसी दूसरे ज्ञानको अपेक्षा रखता हो, अर्थात् जिसमें ज्ञानान्तरका व्यवधान हो, वह ज्ञान अविशद है। पांच इन्द्रिय और मनके व्यापारसे उत्पन्न होनेवाल इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष अन्य किसी ज्ञानान्तरको अपेक्षा नहीं रखनेके कारण अंशतः विशद होनसे प्रत्यक्ष हैं । जब कि स्मरण अपनी उत्पत्तिमें पूर्वानुभवको, प्रत्यभिज्ञान अपनी उत्पत्तिम स्मरण और प्रत्यक्षकी तर्फ अपनी उत्पत्तिमें स्मरण, प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञानकी; अनुमान अपनी उत्पत्तिमें लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरणको तथा श्रुतझान अपनी उत्पत्तिमें शब्द-श्रवण और संकेत-स्मरणको अपेक्षा रखते हैं। अतएव स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तक, अनुमान और आगम ये ज्ञान झानान्तर सापेक्ष होने के कारण अविशद अर्थात् परोक्ष हैं।
मतिज्ञानके भेद ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान अपनो उत्पत्तिमें पूर्व-पूर्वकी प्रतीतिकी अपेक्षा तो रखते हैं, पर नवोन-नवीन इन्द्रियव्यापारसे उत्पन्न होते हैं और एक ही पदार्थको विशेष अवस्थाओंको ग्रहण करते हैं ! अतः किसा भिन्नविषयक ज्ञानसे व्यवहित नहीं होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ही हैं। एक ही ज्ञान भिन्न-भिन्न इन्द्रिय-व्यापारोंसे अवग्रह आदि अतिशयोंको प्राप्त करता हुआ अनुभवमें आता है। अतः ज्ञानान्तरका व्यवधान नहीं आने पाता।
यहाँ निश्चयात्मक सविकल्पज्ञान ही प्रमाणरूपमें मान्य है और विशदज्ञान प्रत्यक्षकोटिके अन्तर्गत है। विशदसा और निश्चयपना सविकल्पकज्ञानका धर्म है और वह शानावरणके क्षयोपशमके अनुसार उसमें पाया जाता है । वस्तुतः
४२६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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अनुमानादिकसे अधिक नियत देश; काल और आकार रूपमें प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासनको वैशध माना है। दूसरे शब्दोंमें यों कहा जा सकता है कि जिस मानमें किसी अन्य शानकी सहायता अपेक्षित न हो, वह ज्ञान विशद है। जिस प्रकार अनुमान आदि शान अपनी उत्पत्तिमें हेतु, व्याप्ति-स्मरण आदिको अपेक्षा रखते हैं, उसी प्रकार प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्तिमें अन्य किसी शानकी आवश्यकता नहीं रखते।'
सारांश यह है कि जिस शानमें अभ्य किसीका व्यवधान नहीं है, वह प्रत्यक्ष है और जिसमें अन्यका व्यवधान पाया जाता है उसे परोक्ष कहा जाता है। इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञानको संव्यवहार प्रत्यक्ष माना है। लोकव्यवहारमें इसे प्रत्यक्ष कहा भी गया है। यों तो आध्यात्मिक दृष्टिसे ये सान परोक्ष ही हैं। मतिझानके मति, स्मृति, संझा, चिन्ता और अभिनिबोष इन पर्यायोंका निर्देश मिलता है। इनमें मसि इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है। इसकी उत्पत्तिमें शानान्तरकी आवश्यकता नहीं होती, पर स्मृति, संज्ञा, चिन्ता आदि शानों में पूर्वानुभव, स्मरण, प्रत्यक्ष, लिवन एवं पाशि-मरा आदि का न्तरोंकी अपेक्षा रहता है। इसी कारण इन्हें परोक्ष कहा जाता है। लोकमें प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षका अन्तर्भाव सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें किया जा सकता है।
साध्यवहारिक प्रत्यक्ष
मान आत्मामें समाहित रहता है और आत्मापर कर्मका आवरण पहा रहता है, जिससे शानका स्पष्ट आभास नहीं होता। कर्मका आवरण जितने अंशमें हटता जाता है, उतने ही अंशमें ज्ञानका प्रादुर्भाव होता जाता है। यों तो आत्माका समस्त ज्ञान कभी भी बात नहीं होता। यतः मानके अभावमें आत्माका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो पाता । अतएव आवरणके क्षयोपशमानुसार ज्ञानकी उत्पत्ति होती है।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके भी दो भेद माने जा सकते हैं:-१. इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और २. अनिन्द्रियसाव्यवहारिक प्रत्यक्ष । अनिन्द्रियप्रत्यक्ष केवल मनसे उत्पन्न होता है, पर इन्द्रियप्रत्यक्षमें इन्द्रियोंके साथ मन भी कारण रहता है । इन्द्रियसांव्यवहारिक प्रत्यक्षको चार भागोंमें विभाजित किया जा सकता है:-१. अवग्रह, '२. ईहा, ३. अवाय और ४.धारणा। १. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद् वैशद्य मतं बुझेरवंशधमतः परम् ।। -लषीयस्त्रय, कारिका ४.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४२७
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अवग्रहके पर्यायवाची ग्रह, ग्रहण, अवलोकन, अवधारण आदि हैं। कहा जाता है कि इन्द्रिय विषयको ग्रहण करनेके लिए जैसे ही प्रवृत्त होती है, वैसे ही स्व-प्रत्यय होता है, जिसे दर्शन कहते हैं और सदनन्तर विषयका ग्रहण होता है, जो अवग्रह कहलाता है । यथा-'यह मनुष्य है' यह ज्ञान होना अवग्रह है । यह शान इतना क्षणिक और निर्बल है कि इसके पश्चात् संशय उत्पन्न हो सकता है । अतएव संशयापन्न अवस्थाको दूर करनेके लिए या विगत ज्ञानको व्यवस्थित करनेके लिए जो ईहन-विचारणा या गवेषणा होती है, वह ईहाशान है। 'मैंने जो देखा है वह मनुष्य ही होना चाहिए' ऐसा ज्ञान ईहा है। ईहाके होनेपर भी जाना हुआ पदार्थ मनुष्य ही है ऐसा अवधान अर्थात् निर्णयका होना अवाय है । जाने हए पवार्थको कालान्तरमें भी नहीं भूलनेकी योग्यताका उत्पन्न हो जाना ही धारणा है । यह धारणा ही स्मृति आदि शानोंको जननी है।
अवग्रहके दो भेद है:-१. व्यंजनावग्रह और २, अर्थावग्रह । शब्दादि अर्थ अव्यक्त होते हैं, वे व्यन्जन कहलाते हैं । चक्षु और मनका विषय अव्यक्त नहीं होता। शेष चार इन्द्रियोंके विषय व्यक्त या अब्यक्त दोनों प्रकारके हो सकते हैं। चक्षु और मन अप्राप्यकारी है और शेष चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी दोनों प्रकारकी हैं। अप्राप्त विषयको ग्रहण करना अर्थावग्रह है और प्राप्त अर्थ के प्रथम ग्रहणको व्यञ्जनावग्रह कहा जाता है। जिस प्रकार मिटीके नुतन कोरे घड़ेपर पामो की दो बार बंद पर बह गीला नहीं होता, किन्तु पुनः पुनः सिञ्चन करनेपर यह अवश्य ही गीला हो जाता है। इसी प्रकार जबतक स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियका विषय स्पष्ट होकर भी अव्यक्त रहता है, तबतक उसका व्यञ्जनावग्रह ही होता है, किन्तु उसके व्यक्त होनेपर अर्थावग्रह ही होता है। संक्षेपतः व्यक्तका नाम अर्थावग्रह है और अध्यक्त ग्रहणका नाम व्यंजनावग्रह है।
संशयशानके अतिरिक्त व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा यदि अर्थका यथार्थ निश्चय कराते हैं, तो प्रमाण है अन्यथा अप्रमाण हैं । प्रामाण्यका अर्थ है जो बस्तु जैसी प्रतिभासित होती है उसका उसो रूपमें मिलमा। _ मतिज्ञानके अवग्रह, ईहा अवाय और धारणा ये ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होते हैं। इनमे यत्तिकमका होना सम्भव नहीं । साधारणतः अवग्रह आदि चारों ज्ञानोंका एक ही अर्थ में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है । कोई ज्ञान अवग्रह होकर छूट जाता है। किसी पदार्थ के अवग्रह और ईहा, ये दोनों ही होते हैं। किसीके अवायसहित तीन होते हैं और किसी-किसी पदार्थके धारणासहित चारों हो ज्ञान पाये जाते हैं। किन्तु परिपूर्ण ज्ञान अवायके होनेपर ही माना जाता है। ४२८ : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्य परम्परा
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मसिमानके अन्तर्गत चार प्रकारको बुखियोंको भी गणना है। इन बुदियोंको अश्रुत-निःसृत मतिज्ञान कहा गया है। ये शिक्षा या विद्या आविके द्वारा प्राप्त नहीं होती और न किसी शास्त्र या विद्याका अनुगमन ही करती है। प्रकारान्तरसे अश्रुत-निःसृत ज्ञानको मतिज्ञानका पृषक भेद न मानकर ईहा, अवाय और पारणके अन्तर्गत ही समाहित किया जाता है । इस शानके चार भेद हैं:-१. औत्पत्तिक, २. वैनयिक, ३. कार्मिक, और ४, पारिणामिक । औत्पसिक
जिस बुद्धि द्वारा अश्रुत और अदृष्ट पदार्थको प्रतीति सहजरूपमें संभव हो यह मतिजान औत्पात्तिक कहलाता है। उदाहरणार्थ बताया जाता है कि एकबार अवन्तिके नृपतिने रोहकसे कहा कि तुम अकेले मुर्गेकी लड़ाई दिखलाओ। रोहक जमो वयस्क नहीं था, पर उसमें मोस्पतिको भूमि समाहित थी । अतएव उसने एक मुर्गे के समक्ष एक दर्पण लाकर रख दिया। जब मर्गेने दर्पणमें अपने प्रतिबिम्बको देखा, तो उसने समझा कि सर्पणके भीतर दूसरा मुर्गा बैठा हुआ है । अतएव यह दर्पणमें अपने प्रतिबिम्बको देख-देखकर प्रतिविम्बित कुक्कुटके साथ युद्ध करने लगा। यहां मर्गकी अनुपस्थिति और प्रतिबिम्बको उपस्थिति दर्शन है । दर्शन के अनन्तर अवग्रह हआ । यह प्रतिबिम्ब किस कोटिका है, यह ईहा और दर्पणमें स्थित प्रतिविम्बका निश्चय अवाय और तदनन्तर धारणाकी उत्पत्ति होती है। वैनयिक . वैयिक बुद्धि धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसंबंधी पुरुषार्थस सम्बन्ध रखती है। यह कठिन से कठिन कार्यको सम्पन्न कर सकती है। इस बुद्धिकी उत्पत्ति सेवा और नम्रतासे होती है । जो साधक विनय और शीलगुण द्वारा अपनी लब्धि और उपयोगका विकास कर लेता है उसे इस प्रकारके शानकी उपलब्धि होती है । इस बुद्धि द्वारा ईच्छाशक्ति और संकल्पका विकास होता है। दीर्य-अन्तरायकी उत्पत्तिमें बाधा उत्पन्न करनेवाले कर्मपुद्गलोंका विलय हो जाता है। जो साधक गुरु-शुश्रूषा आदिके द्वारा इस प्रकारकी बुद्धिक, विकास करता है, वह अदृष्ट और अननुभूत पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त कर लेता है । कामिक
यह यह बुद्धि है जो कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न चेतनाके कारण सत्यको ग्रहण करती है । यह सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों ही प्रकारके विषयोंको जानती है । वस्तुतः इस प्रकारके शानका विकास व्यावहारिक अनुभवसे होता है। शिक्षा या विद्या इसके विकासमें अधिक सहयोगी नहीं। जिस प्रकार एक
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४२९
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कुशल
स्वर्णकार शुद्ध सोलेको और नकली सोनेको अपने अनुभवके बलसे तत्काल पहचान लेता है, उसी प्रकार इस बुद्धिका वारी व्यक्ति ससारके पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
पारिणामिक
पारिणामिक बुद्धिका वह अंश है जो अपने उद्देश्यको अनुमान तर्क, उपमान, रूपक आदिके आधारपर पूर्ण करता है। विद्या, बुद्धि और आयुके विकासके साथ-साथ इस बुद्धिका भी विकास होता है। इसका वास्तविक उद्देश्य कर्मकालिमाको क्षयकर निर्वाण प्राप्त करना है ।
मतिज्ञान के भेव प्रभेव
मतिज्ञानके ३३६ भेद माने गये हैं । अवग्रह आदि ज्ञान बहु, बहुविध, क्षित्र, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव, अल्प, अल्पविध, अक्षित्र, निःसृत, उक्त और अध्रुव इन बारह प्रकारके पदार्थों को ग्रहण करते हैं । बहुत वस्तुओं के ग्रहण करनेको बहुज्ञान, बहुत तरहकी बहुत वस्तुओंको ग्रहण करनेको बहुविधज्ञान; वस्तुके एक भागको देखकर पूरी वस्तुको जान लेना अनिःसृतज्ञान, बिना कहे अभिप्रायसे ही जान लेना अनुकशान; बहुत काल तक जैसे का तैसा निश्चल ज्ञान होना ध्रुवज्ञान; अल्पका अथवा एकका ज्ञान होना अल्वा काखी त वस्तुओंका ज्ञान होना एकविधज्ञान; शनैः शनैः वस्तुओंको जानना अक्षिप्रज्ञान; सामने विद्यमान पूर्ण वस्तुको जानना निःसृतज्ञान; कहनेपर जानना उक्तज्ञान एवं चञ्चल रूपमें पदार्थोंको अवगत करना अध्रुवज्ञान है। इस प्रकार बारह प्रकारके पदार्थोंके अवग्रह, बारह प्रकारकी ईहा, बारह प्रकारका अवाय और भेद बारह प्रकारकी धारणा होती है। ये समस्त भेद मिलकर १२४४ = ४८ होते हैं । इनमेंसे प्रत्येक ज्ञान पाँच इन्द्रिय और मनके द्वारा होता है । अतएव ४८×६ = २८८ अर्थावग्रह सहित मतिज्ञानके भेद हैं !
अस्पष्ट पदार्थ अवग्रहको व्यंजनाबग्रह और स्पष्ट पदार्थके अवग्रहको अर्थावग्रह कहा जाता है। अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये ज्ञान सभी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होते हैं। पर व्यंजनावग्रह चक्षु और मनसे उत्पन्न नहीं होता ! यतः चक्षु और मन पदार्थको दूरसे ही ग्रहण करते हैं, उनसे स्पृष्ट होकर नहीं ! अतः व्यंजनावग्रह् चार ही इन्द्रियोंसे होता है। इस प्रकार व्यंजनाय ग्रहके बहु आदि बारह विषयोंको अपेक्षा - १२x४ = ४८ भेद हैं । अतएव मतिज्ञानके कुल २८८ + ४८ = ३३६ भेद होते है । इस सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके अन्तर्गत मतिज्ञानका विशेष वर्णन निहित है।
४३० : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा
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श्रुतमान
श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । अर्थात् मतिशानके निमित्तसे श्रुतमानको उत्पत्ति होती है। सर्वप्रथम पांच इन्द्रिय और मन इनमेसे किसी एकके निमित्तसे किसी भी विद्यमान वस्तुका मतिज्ञान होता है। तदनन्सर इस मतिमानपूर्वक उस शात हुई वस्तुके विषय में या उसके सम्बन्धसे अन्य वस्तुके विषयमें विशेष चिन्तन आरम्भ होता है, यह श्रुतज्ञान कहलाता है। मनका विषय श्रस है और श्रसका अर्थ शब्द संकेत आदिके माध्यमसे होनेवाला ज्ञान है। मनका व्यापार अर्थावग्रहसे आरम्भ होता है । वह पदतर है ! पदार्थके संबंध संबंध होते ही पदार्थको जान लेता है। अतएव इसे व्यंजनावग्रह की आवश्यकता नहीं होती है । इन्द्रियोंके साथ मनका सम्बन्ध होता है और मन शब्द-संकेत आदिके माध्यमसे श्रुतको ग्रहण करता है। शब्द कान द्वारा सुनाई पड़ता, पर अर्थबोध मन द्वारा होता है। गाडीका सिगनल डाउन हो-1, यह चक्षका विषय है, पर यह किस बातका संकेत करता है, इसे चक्षु नहीं जानती है। उसके संकेतको समझना मनका कार्य है और यही श्रुतज्ञानका विषय है । वस्तुके सामान्यरूपके ग्रहणके अनन्तर ज्ञानवाराका प्राथमिक अल्प अंश अनक्षर ज्ञान होता है। उसमें शब्द-अर्थका सम्बन्ध, पूर्वापरका अनुसंधान विकल्प एवं विशेष धोका पर्यालोचन नहीं होता। ईहाके पश्चात् चिन्तनकी प्रक्रिया आरम्भ होती है और यह अन्तर्जल्पाकार ज्ञान ही श्रतज्ञान है। मनोमलक अवग्रहके पश्चात् होनेवाले ईहादि ममके होते हैं। मन मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनोंका साधन है। यह श्रुत शब्दके माध्यमसे पदार्थको तो जानता ही है। साथ ही शब्दका सहारा लिए बिना शुद्ध अर्थको भी जानता है । साधारणत: अधियी जान इन्द्रिय और मन दोनोंको होता है। शब्दाश्रयी केवल मनको ही होता है। अतः स्वतन्त्ररूपमें 'श्रुत' मनका विषय है।
ज्ञान दो प्रकारका है:--(१) अर्थाश्रयी और (२) श्रोत्राश्रयो । सामान्य जलको देखकर नेत्रोंसे निकलनेवाले पानीका ज्ञान होता है, यह अर्थाश्रयी मान है । 'पानी' शब्दके द्वारा पानी द्रव्य'का सान होता है, यह श्रोत्राश्रयो ज्ञान है । धोत्राश्रयी और अर्थाश्रयी ज्ञान मनको होता रहता है, पर इन्द्रियोंको अर्थाश्रयी ज्ञान ही होता है।
दाच्य-वाचकके सम्बन्धसे होनेवाले ज्ञानका नाम श्रुतज्ञान है । इसे शब्दज्ञान या आगमज्ञान भी कहा जाता है। यतका मनन या चिन्तनात्मक जितना भी ज्ञान होता है उसकी गणना श्रुतज्ञानमें है । श्रुतज्ञानको मतिपूर्वक माना जाता है । इन दोनोंका कार्य कारण सम्बन्ध है । मतिकारण है और श्रुत कार्य
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है। श्रुतज्ञान शब्द, संकेत और स्मरणसे अर्थबोधक है। अमुक शब्दका अमुक संकेत है, यह जानने के पश्चात् ही उस शब्द के द्वारा ही उसके जोड होता है । संकेतको मतिज्ञान जानता है। उसके अवग्रहादि होते हैं। पश्चात् श्रुतज्ञान होता है। द्रव्यश्रुत मतिज्ञानका कारण बनता है, पर भावश्रुत उसका कारण नहीं बनता, विषय बनता है। कारण तब कहा जाता है जब श्रुतज्ञान शब्दके द्वारा श्रोत्रको उसके अर्थको जानकारी प्राप्त कराये ।
श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक दो मेद हैं। अङ्गबाह्य और अप्रविष्ट ये भी श्रुतके दो भेद है । इनमेंसे अङ्गबाह्यके अनेक भेद हैं और अङ्गप्रविष्टके आचाराङ्ग आदि बारह भेद हैं ।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष
आत्ममात्र सापेक्ष साक्षात् अतीन्द्रिय ज्ञानको मुख्य या पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । यह प्रत्यक्ष सम्पूर्णरूपसे विशद होता है । यह आत्मासे उत्पन्न होता है ! इन्द्रिय और मनके व्यापारकी इसमें आवश्यकता नहीं होती । इसके दो भेद हैं: -- (१) विकल प्रत्यक्ष और ( २ ) सकल प्रत्यक्ष | नवविज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष है और केवल पान सकल प्रत्यक्ष ।
अवधिज्ञान
अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अवधिज्ञान है । यह पुद्गलादिरूपी द्रव्योंको ही विषय करता है, आत्मादि अरूपी द्रव्यको नहीं । यह पुद्गलद्रव्य और पुद्गलद्रव्यसे सम्बद्ध जीवद्रव्यकी कतिपय मर्यादाओं को जानता है; यतः संसारो जीव कर्मों से बँधा होनेसे मूर्तिक जैसा ही हो रहा है। अवधिज्ञानकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा निश्चित है ।
अवधिज्ञानके तीन भेद हैं: - (१) देशावधि, (२) परमावधि और (३) सर्वावधि । प्रकारान्तरसे अवधिज्ञानके दो भेद हैं: - - ( १ ) भवप्रत्यय ओर, (२) क्षयोपशमनिमित्त- गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवविज्ञानका कारण भव - जन्म ही है। देवों या नारकियों में जन्म लेते ही अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम हो जाता है । यहाँ क्षयोपशम होने में भव हो मुख्य कारण है । इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि सम्यग्दृष्टियों के अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टियोंके कुअवधिज्ञान होता है । अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम जिसमें निमित्त रहता है, वह क्षयोपशमनिमित्तक या गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है । यों तो सभी अवधिज्ञान क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न होते है, फिर भी इस अवविज्ञानका नाम क्षयोपशमनिमित्तक इसलिए रखा है कि इसके होने में क्षयोपशम ही प्रधान
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कारण है, भव नहीं । इसीसे इसे गुण प्रत्यय भी कहा जाता है। यह मनुष्य और तिर्यचोंके उत्पन्न होता है। इसके छः भेद होते हैं: - (१) अनुगामी, (२) अननुगामी, (३) वर्धमान, (४) हीयमान, (५) अवस्थित और ( ६ ) अनवस्थित । जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीवके साथ-साथ जाता है, उसे अनुगामो कहले हैं। इसके भी तीन भेद है: - ( १ ) क्षेत्रानुगामी, (२) भवानुगामी और (३) उभयानुगामी । जिस जीवके जिस क्षेत्रमें अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह जीव यदि दूसरे क्षेत्रमें जाय तो उसके साथ अवधिज्ञान भी जाय, छूटे नहीं, उसे क्षेत्रानुगामो कहते हैं । जो अवधिज्ञान परलोकमें भी जोवके साथ जाता है, वह भवानुगामी एवं जो अन्य क्षेत्र और अन्य भव - जन्ममें साथ जाय, उसे उभयानुगामी कहते हैं ।
जो अवधिज्ञान उत्पत्तिस्थान के छोड़ देनेपर स्थित नहीं रहता या जन्मान्तरमें साथ नहीं जाता, वह अननुगामी है। जो अवधिज्ञान उत्पत्तिकालमें अल्प होनेपर भी परिणामोंकी विशुद्धिके कारण उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता है, वह वर्धमान है । संक्लेश- परिणामोंकी वृद्धिके कारण जो अवधिज्ञान उत्पत्तिकालसे लेकर उत्तरोत्तर क्षीण होता जाता है, वह हीयमान अवधिज्ञान है । जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिकालसे लेकर मरणपर्यन्त एक-सा बना रहता है, न घटता है और न बढ़ता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान है । जलतरंगोंके समान जो अवशान कभी घटता है, कभी बढ़ता है और कभी अवस्थित रहता है, वह अनवस्थित अवधिज्ञान है ।
देशावधि क्षयोपशमनिमित्तक होने के कारण मनुष्य और तिर्यञ्चोंके उत्पन्न होता है। परमावधि और सर्वावधि चरमशरीरी मुनिके ही होते हैं। देशावधि प्रतिपाती होता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होनेके पहले छूट जाता है, पर सर्वावधि और परमावधि प्रतिपाति नहीं होते । अवधिज्ञान सुक्ष्मरूपसे एक परमाणुको विषय करता है ।
अवधिज्ञानका विषय
द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य -- मूर्तिमान द्रव्य ।
BAJ
"
,, उत्कृष्ट --- परमाणु ।
क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य - एक अंगुलका असंख्यातत्र भाग | क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट असंख्य क्षेत्र - असंख्यात लोकप्रमाण | कालकी अपेक्षा जघन्य - एक आवलिका असंख्यातवाँ भाग । उत्कृष्ट — असंख्यकाल |
13
भावकी अपेक्षा जघन्य - - अनन्तभव - पर्याय ।
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13
उत्कृष्ट — अनन्तपर्यायोंकर अनन्तभाग |
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मनःपर्ययमान
अन्य व्यक्तियोंके मनकी बातोंको जानना मनःपयंय है। यह मान मनके प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गलद्रव्योंको साक्षात् जाननेवाला है। चिन्तक जैसा सोचता है, उसके अनुरूप पुद्गलद्रव्योंकी आकृतियां--पर्याय बन जाती हैं। ये पर-मनस्थितपर्याय मनःपर्ययज्ञानके द्वारा जानी जाती हैं ! वस्तुतः मनःपर्ययका अर्थ है मनकी पर्यायोंका ज्ञान ।
सारांश यह है कि संज्ञी-समनस्क जीवोंके मन में जितने विकल्प उत्पन्न होते हैं, कामापसे दे शामें अदस्थित रहते हैं। मनःपर्ययज्ञान संस्काररूपसे स्थित मनके इन्हीं विकल्पोंको जानता है। मनःपर्ययज्ञानी पहले मतिज्ञान द्वारा अन्यके मानसको ग्रहण करता है और तदनन्तर मनःपर्ययज्ञानकी अपने विषयमें प्रवृत्ति होती है। __ मनःपर्ययज्ञानके दो भेद है:-(१) ऋजुमति और (२) विपुलमति । ऋजुमति सरल मन, वचन और कायसे विचार किये गये पदार्थको जानता है; पर विपुलमति सरल और कुटिल दोनों तरहसे विचारे गये पदार्थोंको जानता है। यह ज्ञान देव, मनुष्य और तिथंच सभीके मनमें स्थित विचारको अवगत करता है, किन्तु वह विचार रूपीपदार्थ अथवा संसारी जीवके विषयमें होना चाहिए ।
ऋजुमति और विपुलमतिमें विशुद्धि और सुक्ष्मताकी अपेक्षा अन्तर है। ऋजुमति केवलज्ञानकी प्राप्ति होने के पहले छूट जाता है, पर विपुलमति केबलज्ञानको प्राप्तिपर्यन्त बना रहता है और केवलज्ञान होनेपर हो छूटता है ।
अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयको अपेक्षा अन्तर है। अधिज्ञान द्वारा ज्ञात किये गये पदार्थके अनन्तवें भागको मनःपर्पयशान जानता है। मनःपर्ययज्ञानका विषय
अवधिज्ञानको अपेक्षा मनःपर्य यज्ञानका विषय अत्यन्त सूक्ष्म है । १. अवरं दव्य मुदालियसरीरणिजिण्णसमयपबई तु ।
चविखदियणिज्जष्णं उमकरसं उमविस्स हवे ॥ मणदल्यवरगणाणमणतिमभागेण उजुगउक्फस्सं । लंछिदमेतं होदि ह विउलमदिस्सावरं दम्वं ।। अट्टह कम्माणं समयपबद्धं बिविस्ससोवचयं । धुवहारेणिगिवार भनिदे विदियं हवे दन्वं ।।
-गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५०-४५२ तथा ४५३-४५८.
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द्रव्यापेक्षया-मनरूपमें परिणत पौद्गलिक मनोवर्गणाएँ पुद्गलपरमाणुका
अनन्तवा भाग । क्षेत्रापेक्षया-मनुष्यशेत्र-मनुष्यक्षेत्रके भीतर स्थित मनुष्यके मनकी पर्यायें। कालापेक्षया-अतीत, अनागत असंख्यातकाल सम्बन्धी मनकी पर्यायें ।
भावापेक्षया-मनोवर्गणाकी अनन्त अवस्थाएं । केवलज्ञान
आत्मामें भूत, भविष्यत् और वर्तमानमें स्थित समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायोंको जाननेकी क्षमता है; पर आत्माकी यह क्षमता ज्ञानावरणकर्म द्वारा आवृत रहती है। समस्त जालावरगयामके समूल नाश होंगेयर प्रादुर्भूत होनेवाला निरावरणज्ञान केवलज्ञान है। यह आत्ममात्र सापेक्ष होता है । इस जानके उत्पन्न होते ही समस्त शायोपमिकज्ञान विलीन हो जाते हैं। यह समस्त द्रव्योंकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको जानता है। यह पूर्णतः निर्मल और अतीन्द्रियज्ञान है।
जब आत्मा ज्ञानस्वभाव है और आवरणके कारण इसका यह ज्ञानस्वभाव खण्ड-खण्ड करके प्रकट होता है, तब संपूर्ण आवरणके विलीन होनेसे ज्ञानको अपने पूर्णरूपमें प्रकाशमान होना चाहिए । यथा अग्निका स्वभाव जलानेका है; यदि कोई प्रतिबन्ध न हो तो अग्नि ईन्धनको जलायेगी ही। इसी प्रकार ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकोंके हट जानेपर जगसके समस्त पदार्थो को जानेगी ।
जो पदार्थ किसी ज्ञानके शेय हैं, वे किसी-न-किसीके प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं, यथा पर्वतीय अग्नि ।' इस प्रकार युक्तिद्वारा भी त्रिकालज्ञ केवलज्ञानकी सिद्धि होती है । जिसे केवलज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है, वह सर्वज्ञ हो जाता है । यह सर्वज्ञता मुख्य, निरूपाधिक एवं निरवधि है । परोक्षप्रमाण ____ अविशद ज्ञानको परोक्ष कहा जाता है। जिस शानमें शानान्तरका व्यवधान हो अथवा जो इन्द्रिय, मन, उपदेश, प्रकाश आदिको सहाय सासे उत्पन्न होता हो, उसे परोक्ष कहते हैं। वस्तुतः जिस ज्ञानमें परकी अपेक्षा रहती है, वह १. शो जये कषमशः स्यादसति प्रतिबन्धके । दाहोऽग्निदाहको न स्थावसति प्रतिबन्धके ।।
--अष्टसाहस्री, प०५० पर उद्घत. २. प्रवचनसार-शानाधिकार गापा-४६-५१: अष्टशती-कारिका ११४, जयपवला प्रथम भाग, पृ. ६६.
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परोक्ष प्रमाण है । परोक्ष ज्ञानके पाँच प्रकार है: - ( १ ) स्मरण, (२) प्रत्यभिज्ञान, (३) तर्क, (४) अनुमान और (५) आगम |
स्मृति या स्मरण
संस्कारका उद्बोध होनेपर स्मृति उत्पन्न होती है । धारणारूप संस्कारको प्रकटता के निमित्त से होनेवाले और 'वह' इस प्रकारके आकारवाले ज्ञानको स्मृति कहते हैं । उदाहरणार्थ - यों कहा जा सकता है कि किसी व्यक्तिने पहले देवदत्त नामक पुरुषको देखा और उसने उसके सम्बन्धमें अवधारणा कर ली । पश्चात् धारणारूप संस्कार उबुद्ध हुआ और उसे स्मरण आया कि वह देवदत्त है। इस प्रकार स्मरणरूप ज्ञानको स्मृति माना जाता है ।' यद्यपि स्मरणका विषयभूत पदार्थ सामने नहीं है, तो भी वह हमारे पूर्व अनुभवका विषय तो था ही और उस अनुभवका दृढ़ संस्कार हमें सादृश्य आदि अनेक निमित्तांसे उस पदार्थको मनमें अंकित कर देता है । स्मरण के कारण हो विश्वमें लेन-देन आदि की व्यवस्था चलती है । व्याप्ति स्मरण असंत के बिना शब्दप्रयोग सम्भव ही नहीं है । गुरु-शिष्यादि सम्बन्ध, पिता-पुत्रभाव तथा अन्य अनेक प्रकारसे प्रेम, घृणा, करुणा आदि मूलक समस्त जीवन-व्यवहार स्मरणके द्वारा ही चलते हैं ।
कुछ चिन्तक ग्रहीतग्राही ओर असे अनुलरन्न होनेके कारण स्मृतिको प्रमाण नहीं मानते । पर उनको यह मान्यता व्यवहारमें बाधक है। अनुभव जिस पदार्थको जिस रूपमें ग्रहण करता है, स्मृति उसे उसी रूपमें जानती है । न वह उसके किसी नये अंशका बोध कराती है और न किसी अनुभूत अंशको छोड़ती ही है । "ग्रहीतग्राहिता भी अप्रमाणताका कारण नहीं है । यतः स्मृति द्वारा स्मरण किये गये अर्थ में अविसंवादिता और समारोपविवच्छेदकता विद्यमान है । दूसरी बात यह है कि धारणा नामक अनुभव पदार्थको 'इदम्' रूपसे जानता है । जबकि संस्कारसे होनेवाली स्मृति उसी पदार्थको 'तत्' रूपसे जानती है। इस प्रकार स्मृतिके विषय में ग्रहीत ग्राहिता दोष नहीं आता ।
१. संस्कारो द्बोधनिबन्धना सदित्याकारा स्मृतिः ॥ ३ ॥
संस्कारस्योद्घोषः प्राकट्यं स निबन्धनं यस्याः सा वयोक्ता । तदित्याकाय वा दत्यु लेखिनो । एवम्भूता स्मृतिर्भवतीति शेषः ।
- प्रमेयरत्नमाला, ३-३, १० १३५. २. सर्वे प्रमाणादयोऽनविगतमर्थं सामान्यतः प्रकारतो वाऽधिगमयन्ति स्मृति: पुननं पूर्वानुभवमर्यादानतिक्रामति, सद्विषया तनविषया वा, न तु तदधिकविषया, सोऽयं वृत्त्यन्तराद्विशेषः स्मृतेरिति विमृशति । तस्ववैशा० ( चोक्षम्बा संस्करण ) १।१७.
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स्मृतिकी अविसंवादिता स्वतः सिद्ध है । अन्यथा अनुमानकी प्रवृत्ति, शब्दव्यवहार और विश्वके अन्य समस्त व्यवहार निरर्थक हो जायेंगे। यह सम्भव है कि जिस स्मृति के विषयमें विसंवाद हो उसे अप्रमाण माना जा सकता है।
विस्मरण, संशय और विपर्यासरूपी समारोपका निराकरण स्मृति के द्वारा होता है। अतः इसे अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण मानना पड़ेगा । अनुभवपरतन्त्र होनेके कारण स्मृतिको परोक्ष तो माना जा सकता है, पर अप्रमाण नहीं। प्रत्यभिज्ञान
वर्तमान प्रत्यक्ष, और अतीत स्मरणसे उत्पन्न होनेवाला संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । यह संकलन एकत्व, सादृश्य, वेसादृश्य, प्रतियोगी, आपेक्षिक आदि ओक प्रकारला होता है। परसुतः सूर्योदविवर्तवर्ती वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययको प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। प्रत्यवमर्श, संजा और प्रत्यभिज्ञा ये उसीके पर्याय नाम हैं। प्रत्यभिज्ञानमें प्रत्यक्ष और स्मरणइन दोनोंका समुच्चय रहता है । 'यह' अंशको विषय करनेवाला ज्ञान तो प्रत्यक्ष है और 'वह' अंशको ग्रहण करनेवाला ज्ञान स्मरण है। इस प्रकार दो शानोंका संकलन या समुच्चय प्रत्यभिज्ञानमें पाया जाता है।
यह वही है, इस प्रकार वर्तमानका प्रत्यक्ष और उसके अतीतका स्मरण पूर्वक एकत्वका मानसिक संकलन एकत्वप्रत्यभिज्ञान कहलाता है। इसी प्रकार 'गाय सरीखा गवय' होता है । इस वाक्यको सुनकर कोई व्यक्ति वनमें मायके समान पशुको देखकर उस वाक्यका स्मरण करता है और अनन्तर मनमें निश्चय करता है कि यह गवय है। इस प्रकार सादृश्यविषयक संकलन, सादृश्यविषयक प्रत्यभिज्ञान है । 'गायसे विलक्षण भैंस होती हैं । इस वाक्यको सुनकर जिस बाड़ेमें गाय और भैंस दोनों ही विद्यमान हैं, वहां पहुंचनेवाला व्यक्ति गायसे विलक्षण पशुको देखकर उक्क वाक्यका स्मरण करता है और निश्चय करता है कि यह भेंस है। यह वैलक्षण्यविषयक वैसादश्यप्रत्यभिज्ञान है । इसी प्रकार यह इससे दूर है, इत्याकारक आपेक्षिक प्रत्यभिज्ञान, परि१. दर्शनस्मरणकारणकं सकूलनं प्रत्यभिज्ञानम् ।
सदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगोत्यादि ।। -परीक्षामुख ३।५. २. ननु च तदेवेत्यतीतप्रतिभासस्य स्मरणरूपत्वाद, इदमिति संवेदनस्य प्रत्यक्षरूपत्वात्
संवेदमद्वितयमेवैतत् तादृशमेवेदमिति स्मरणप्रत्यक्षसंवेदनतितयवत् । ततो नक शानं प्रत्यभिज्ञास्यं प्रतिपद्यमानं सम्भावति । -प्रमाणपरीक्षा, पृ. ६९.
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चायक प्रत्यभिज्ञान आदि भी प्रत्यक्ष और स्मरणके संकलनसे घटित होते हैं । आशय यह है कि 'दर्शन' और 'स्मरण' को निमित्त बनाकर जितने भी एकत्यादि विषयक मानसिक संकलन होते हैं, वे सभी प्रत्यभिज्ञान है और ये सभो प्रकारके प्रत्यभिज्ञान अपने विषयमें अविसंवादी और समारोपव्यवच्छेदक होनेसे प्रमाण हैं । यथार्थत: यह ज्ञान न तो अप्रमाण है और न प्रत्यक्षप्रमाण ही हैं। किन्तु यह और स्वके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला और 'पूर्व' एवं 'उत्तर' पर्यायोंमें रहनेवाले एकत्व, सादृश्य आदिको विषय करनेवाला होनेसे स्वतन्त्र परोक्षप्रमाण है । "
यदि प्रत्यभिज्ञानका लोप किया जाय, तो अनुमानको प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । जिस व्यक्तिने पहले अग्नि और घूमके कार्य कारणभावका ग्रहण किया है, बही व्यक्ति जब पूर्व धूमके सदृश अन्य धूएँको देखता है, तब ग्रहीत कार्यकारणभावका स्मरण आनेपर ही अनुमान कर पाता है। प्रत्यभिज्ञानके न सादृश्य और विलमानने से न तो अनुमानकी ही सिद्धि होगी और न एकत्व, क्षण आदि प्रत्यय ही घटित हो सकेंगे ।
प्रत्यभिज्ञानका प्रत्यक्षमें भी अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता है । यतः चक्षु आदि इन्द्रियाँ सम्बद्ध और वर्त्तमान पदार्थको ही विषय करती हैं । अतः ये स्मृतिकी सहायता लेकर भी अविषयमें प्रवृत्ति नहीं कर सकतीं । 'पूर्व' और 'उत्तर' पर्यायमें रहनेवाला एकत्व इन्द्रियोंका अविषय है । यदि इन्द्रियाँ अविषयको ग्रहण करें, तो गन्ध - स्मरणकी सहायतासे चक्षुको गन्धका भी परिज्ञान हो जाना चाहिए । सैकड़ों सहकारी मिलने पर भी अविषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । यदि इन्द्रियोंसे ही प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है, तो प्रथम प्रत्यक्ष कालमें ही उसे उत्पन्न होना चाहिये था ।
' स एवायम्' इस प्रतीतिको एक ज्ञान मानकर भी उसे इन्द्रियजन्य नहीं कहा जा सकता । अतएब इसे स्मरण और प्रत्यक्षपूर्वक होनेवाला संकलनात्मक स्वतन्त्र ज्ञान मानना पड़ेगा। यह अबाधित है, अविसंवादी है और है समारोपका
१.
स्मरणप्रत्यक्ष जम्यस्य पूर्वोत्तर वियतं वयेकद्रव्यविषयस्य प्रत्यभिशामस्यैकस्य तस्यातीतविवत्तमात्रसुप्रतीतत्वात् । न हि तदिति स्मरणं तथाविधद्रभ्यव्यवसायात्मक, गोचरत्वात्। नापोषमिति संवेदनं, तस्य वत्तंमानविवसंमात्रविषयत्वात् । ताम्यामुपजन्यं
རྒྱུུ
संकलनशानं तदनुषादपुरस्सरं द्रव्यं प्रत्यवमृशत् ततोऽन्यदेव प्रत्यमिश्रानमेकत्व - विषयं तदपह्नवे क्वचिदेकान्वथाव्यवस्थानात् सम्यानकत्व सिद्धिरपि न स्यात् ।
- प्रमाणपरीक्षा, पृ० ६९, ७०.
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विच्छेदक | अतएव प्रत्यभिज्ञानकी गणना प्रमाणकोटिमें है, जो प्रत्यभिज्ञान बाधित या विसंवादी होता है, उसे प्रमाणाभास या अप्रमाण माना जा सकता
सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें उपमानका अन्तर्भाव
सादृश्यप्रत्यभिज्ञानको कुछ चिन्तक उपमान प्रमाण मानते हैं। उनका अभिमत है कि जिस व्यक्तिने गायको देखा है, जब वह जंगलमें गवयको देखता है और उसे पूर्व दृष्ट गौका स्मरण आता है, तब 'इसके समान वह है' इस प्रकारका उपमान उत्पन्न होता है। यों तो गश्यनिष्ठ सादृश्य प्रत्यक्षका विषय है और गोनिष्ठ सादृश्यका स्मरण आ रहा है, फिर भी 'इसके समान वह है' इस प्रकारका विशिष्ट ज्ञान उपमान प्रमाण है । यदि इस प्रकार साषारण विषयभेदसे प्रमाणोंकी संख्या बढ़ायी जाय, तो वेलक्षश्य, प्रातियोगिक, आपेक्षिक आदि प्रमाण भी पृथक् सिद्ध हो जायगें। अतएव संक्षेपमें उपमानका अन्तर्भाव सादृश्यप्रत्यभिज्ञान में सम्भव है।'
सादृश्यप्रत्यभिज्ञानको अनुमान भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अनुमान करते समय लिंगका सादृश्य अपेक्षित है। इस सादृश्यज्ञानको भी अनुमान माननेपर उस अनुमानके अन्य लिंगसादृश्यका ज्ञान आवश्यक होगा। इस प्रकार अनवस्थादूषण आ जायगा । अतएव प्रत्यभिज्ञान अविसंवादी है, सम्परज्ञान है और प्रमाणभूत है । तक
सामान्यतया विचारविशेषका नाम तर्क है । इसके चिन्ता, कहा, कहापोह आदि पर्यायान्तर हे । न्यायको दृष्टिसे व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहा गया है । साध्य और साधनके सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सार्वव्यक्तिक अविनाभाव सम्बन्धको व्याप्ति कहते हैं । अविनाभाव शब्दका अर्थ है साध्यके बिना साधन१ उपमानं प्रसिद्धार्थताधासाध्यसाधामम् ।
तद्वेषात् प्रमाणं किं स्यात्संक्षिप्रतिपादकम् ।। -कघीयस्त्रय, पलोक १९. उपसम्भानुपलम्भनिमित्तं व्यातिज्ञानमूहः । इदमस्मिन् सस्पेव भवत्यसति न भवत्येवं ति च ||--परीक्षा० ३१७, ८. उपरम्भः प्रमाणमात्रमत्र गृह्यते । यदि प्रत्यक्षमेयोपसम्मशम्वेमोख्यते तदा साधनेषु अनुमेयेषु व्याप्तिमानं न स्यात् । अथ व्याप्ति: सर्वोपसंहारेण प्रतीयते, सा कपमतीन्द्रियस्य साधनस्यातीन्द्रियेण साम्येन भवेदिति ? नैवम् ; प्रत्यक्षविषयेष्विवानमानविषयेष्वपि म्याप्तेरविरोधात तज्ज्ञानस्याप्रत्यक्षत्वाम्युपगमात्। -प्रमे. र.३१७,८.
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का न होना । साधनका साध्य होनेपर ही होना, अभाव में बिल्कुल न होना। इस नियमको सर्वोपसंहाररूपसे ग्रहण करना तर्क है। प्रमाणसे जाना हुवा पदार्थ सर्क द्वारा पुष्ट होता है। प्रमाण जहाँ पदार्थोंको जानता है, वहां तर्क उनका पोषण करके उनकी प्रमाणप्ताके स्थिरीकरणमें सहायता पहुंचाता है।
तर्कको प्रक्रियानुसार व्यक्ति सर्वप्रथम कार्य और कारणका प्रत्यक्ष करता है और गगेर गार प्रत्यक्ष होनेपर, वह उसके अन्वय-सम्बन्धकी भूमिकापर झकता है । साध्यके अभावमें साधनका अभाव देखकर व्यतिरकके निश्चय द्वारा उस अन्वय ज्ञानको निश्चयात्मक रूप देता है। प्रक्रियाद्वारा यों कहा जा सकता है कि जैसे किसी व्यक्तिने सर्वप्रथम 'महा नस'-भोजनशालामें अग्नि देखो, तथा अग्निसे उत्पन्न होता हुआ धुवाँ भी देखा । पश्चात् किसो तलाबमें अग्निके मभावसे धएका अभाव जाना | पश्चात् रसोईघरमें अग्निसे धुओं निकलता हआ देखकर यह निश्चय करता है कि अग्नि कारण है और धूम कार्य है । यह उपलम्भ और अनुपलम्भनिमित्तक सर्वोपसंहार करनेवाला विचार तर्ककी सीमामें समाहित है। इसमें प्रत्यक्ष, स्मरण, और सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कारण होते हैं। इन सबकी पृष्ठभूमिपर 'यत्र यत्र यदा-यदा धूम होता है, तत्र-तत्र, तदातदा अग्नि अवश्य रहती है। इस प्रकारका एक मानसिक विकल्प उत्पन्न होता है। इसे कह या तर्क कहते हैं । तर्कका क्षेत्र केवल प्रत्यक्षके विषयभूत साध्य और साधन ही नहीं है, अपितु अनुमान और आगमके विषयभूत प्रमेयों में भी अन्वय और व्यतिरेक द्वारा अविनाभावका निश्चय करना तर्कका कार्य है । तक भी अपने विषयमें अविसंवादी है । अतएव वह अन्य प्रमाणोंका अनुग्राहक है । जिस तकमें विसंवाद पाया जाता है, उसे ताभास कह सकते हैं। अनुमान
साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । अनुमानशब्द अनु + मानसे निष्पन्न है। जिसका अर्थ लिग्रहण और व्याप्तिस्मरणके पश्चात् होनेवाला ज्ञान है । यथार्थत: व्याप्तिनिर्णयके पश्चात् होनेवाला मान-प्रमाण अनुमान कहलाता है। यह ज्ञान अविशद होनेसे परोक्ष है । पर अपने यिषयमें अविसंवादी और संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि समारोपोंका निराकरण करनेके कारण प्रमाणभूत है। साधनसे साज्यका नियत ज्ञान अविनाभावके बलसे ही होता है। साधनको देखकर पूर्वगृहीत अविनाभावका स्मरण होता है। तदनन्तर जिस साधनसे साध्यको व्याप्ति ग्रहण की जाती है, उस साधनके साथ वर्तमान साधनका सादश्यप्रत्यभिज्ञान किया जाता है, तब साध्यका अनुमान होता है। वस्तुतः अविनाभाव अनुमानका मूल आधार है। अविनाभाव सहभावनियम और ४० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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क्रमभावनियमरूप होता है । सहचारियों-रूपरसादिकों और व्याप्य व्यापकों -- शिशपात्व- बृक्षत्वादिकमें सहभावनियम होता है तथा पूर्वचर- उत्तरचरों और कार्य-कारणों में क्रमभावनियम होता है । अविनाभावको तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे ही नियन्त्रित नहीं किया जा सकता । जिनमें परस्पर तादात्म्य नहीं है, ऐसे रूप-रसादिमें रूपसे रसका अनुमान तथा जिनमें परस्पर कार्यकारण संबंध नहीं है, ऐसे कृत्तिकोदय और शकटोदय में कृत्तिकोदयको देखकर शकटोदयका अनुमान किया जाना तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध से पृयक क्षेत्रवर्ती है । अतः अनुमानकी मूलधुरा साध्यसाधनों के अविनाभाव - व्याप्तिके निश्चयपर स्थित है।
सामान्यतया अविनाभावको तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति संज्ञाओंसे प्रतिपादित किया है। यहा होना पति और साध्यके न होनेपर साधनका न होना अन्यथानुपपत्ति है । यथा अग्निके होनेपर घूमकर होना और अग्निके न होनेपर धूमका न होना । यह तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति हो अनुमानकी नियामिकायें हैं। यों तो अनुमान के लिए अविनाभावसंबंरूप व्याप्ति अपेक्षित है । साध्य और साधनभूत पदार्थोंका धर्म व्यासि कहलाता है, जिसके ज्ञान और स्मरणसे अनुमानकी पृष्ठभूमि तैयार होती है । 'साध्यके बिना साधनका न होना और साध्य के होनेपर ही होना' ये दोनों धर्म एक प्रकारसे साधननिष्ठ हैं । 'इसी प्रकार साधनके होनेपर साधनका होना ही' यह साध्यका धर्म है । साध्य के होनेपर ही साधनका होना अन्वय और साध्यके अभाव में साधनका न होना व्यतिरेक कहलाता है ।
कुछ चिन्तकोंने व्याप्तिग्रहणके निम्नलिखित साधन बतलाये हैं
१. भूयः सहचार दर्शन
२. व्यभिचारज्ञान - विरह । ३. तर्क - विपक्षबाधक तर्क ।
४. अनुपलम्भ - व्यतिरेक । ५. भूयो दर्शनजनित संस्कार |
६. सामान्यलक्षणा |
७. शब्द और अनुमान ।
वस्तुतः व्याप्तिका निश्चय तर्केसे होता है, जो उपलम्भ तथा अनुपलम्भपूर्वक होता है । यथा अग्निके होनेपर ही घूमका होना और अग्निके अभाव में घूमका न होना, इनका व्याप्तिसम्बन्ध है । व्याप्तिका ग्रहण तर्क द्वारा ही प्रतिष्ठित है । व्याप्तिके दो या तीन भेद प्राप्त होते है । तीन भेदोंमें बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४४१
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और अन्तर्व्याप्तिकी गणना है ।"
सपक्ष में साध्य के साथ सावनको व्याप्ति होना बहिर्व्याप्ति है और पक्ष तथा सपक्ष दोनोंमें साध्य के साथ साधनकी व्याप्ति होना सकलव्याप्ति है। पक्ष, सपक्ष न हों अथवा उनमें हेतु न रहे - केवल साध्यके साथ साधनका अविनाभाव होनेसे अन्तर्व्याप्ति होती है । इन त्रिविध व्याप्तियोंमें आदि को दोनों व्याप्तियों
होनेपर भीमनमें अन्तर्व्याप्ति के बलसे साधनको साध्यका गमक माना जाता है । अन्तर्व्याप्तिके अभाव में अन्य दोनों व्याप्तियोंका सद्भाव निरर्थक है । यथा 'सश्यामः तत्पुत्रत्वात् इतरतत्पुत्रवत्' इस अनुमानमें बहिर्व्याप्ति और सकलव्याप्ति दोनों विद्यमान हैं, पर अन्तर्व्याप्तिके न होनेसे 'तत्पुत्रत्वात् ' हेतु 'श्यामत्व' साध्यका गमक नहीं है। इसी प्रकार 'उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात्' इस अनुमानमें न बहिर्व्याप्ति है और न सकलव्याप्ति है, किन्तु साधनकी साध्यके साथ अन्तर्व्याप्ति होनेसे कृत्तिकोदय हेतु शकटोदय साध्यका गमक है | अतएव अन्तर्व्याप्ति ही नियामक है ।
१. 'साच त्रिधा - बहिर्व्याप्ति:' साकल्यष्यामि ः अन्तर्व्यामिश्चेति ।
"प्रमाचन्द्र, प्रमेयक० मा० ३।१५ पृ० ३६४; अकलंक, सिद्धिवि० ५१५, १६. प्रमाणसं ० का ० ३२, ३३, पृष्ठ १०६ | देवसूरि, प्र० न० त० ३१ ३८, ३९ । यशोविजय जनतकुंभा, पृष्ठ १२ । २. (क) पक्षीकृत एवं विषये साधनस्य साध्येन व्याप्तिन्तभ्यप्तिः, अन्यत्र तु बहिप्तिरिति । 'बहिः पक्षीकृताविषयादन्यत्र तु दृष्टान्तधर्माणि तस्य तेन क्याप्तिहिप्तिरभिधीयते । देवसूरि, प्रमाणनयत० ३१३९.
(ख) पक्षे सपक्षे च सर्वत्र साध्यसाधनयो: व्याप्तिः सकलध्याप्तिः ।
- सि० वि० टी० टिप्प ५/१६, पृष्ठ ३४७.
(ग) पक्ष एव साधनस्य साध्येन व्याप्तिरन्तर्व्याप्तिः ।
सिद्धो बहिरुदाहृतिः । स्यात्सवसद्भावेऽप्येवं न्यायविदो विदुः ।
३. (क) अन्तर्व्याप्यैव साध्यस्य व्यर्था
- वही, पृ० ३४६.
- सिद्धसेन, न्यायाव० का० २०.
(ख) विनाशी भाव इति वा हेतुनैव प्रसिद्धति । अन्तर्व्याप्तावसिद्धायां बहिर्व्याप्तिरसाधनम् । साकल्येन कथं व्याप्तिरन्त परित्या विना भवेत् ।
---अकलंक, सि० वि० ५१५, १६, पृ० ३४५-३४७ । प्रमाणसं०-३२-३३. (ग) अम्सर्थात्स्या हेतोः साध्यप्रत्यायने शक्तावशक्तौ च वहिर्व्याप्तिरुद्भावनं व्यर्थम् - देवसूरि, प्र० न० त० ५३८, ०५६२.
इति ।
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सामन या हेतु
जिसका साध्यके साथ अविनाभाव निश्चित है, उसे सापन कहते हैं।' अविनाभाय, अभ्यथानुपपत्ति और व्याप्ति ये सब एकार्थक शब्द हैं । साधनका निश्चय अन्यथानुपपत्तिरूपसे ही होता है। वस्तुत: साधन या हेतुके बिना अनुमानको उत्पत्ति हो नहीं हो सकती। कुछ चिन्तक हेतुका स्वरूप त्रिलक्षण अथवा पंचलक्षण स्वीकार करते हैं, पर इन सभीका अन्तर्भाव अन्ययानपपत्तिरूप हेतु में हो सकता है।
दूसरे, हेतुका रूप्य या पांचरूप्य नियम निर्दोष नहीं है, किन्तु अविनाभाव ऐसा व्यापक और व्यभिचारी लक्षण है, जो समस्त सद्हेतुओं में पाया जाता है और असदहेतुओंमें नहीं । परम्परासे 'अन्यथानुपपन्नस्व' को ही हेतुका अव्यभिचारो और प्रधान लक्षण कहा है, क्योंकि समस्त पदार्थ क्षणिक हैं, यत्तः वे सत् हैं' इस अनमानमें सत्वहेतु सपक्षसत्वके अभावमें भी गमक है। अतएव अविनाभाव हो हेतुका वास्तविक नियामक लक्षण है! पक्षषमस्व आदिको हेतुका लक्षण मानने में अतिव्याप्ति एवं अव्याप्ति दोष आते हैं। साध्य
दृष्ट, अबाधित और असिद्ध पदार्थको साध्य कहते हैं। जो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अबाधित होनेके कारण सिद्ध करने योग्य है, वह शक्य है। वादीको इष्ट होनेसे जो अभिप्रेत है और सन्देह आदि युक्त होनेके कारण असिद्ध है, वही वस्तु साध्य होती है।
साध्यका अर्थ है सिद्ध करने योग्य अर्थात् असिद्ध । सिद्ध पदार्थका अनुमान व्यथं है। अनिष्ट तथा प्रत्यक्षादि बाधित पदार्थ साध्य नहीं बन सकते । अतएव अनुमानके प्रयोगमें साधनके समान साध्य भो एक आश्यक अंग है। अनुमानके भेव
अनुमानके दो भेद हैं:-(१) स्वार्थानुमान और (२) परार्थानुमान । स्वयं निश्चित साधनके द्वारा होनेवाले साध्यके ज्ञानको स्वार्थानमान कहते हैं और अविनाभावी साधनके ववनांसे श्रोताको उत्पन्न होनेवाला साध्यज्ञान परार्थानुमान है । स्वार्थानमाता किसी परके उपदेशके बिना स्वयं ही निश्चित अविनाभावी साधनके ज्ञानसे साध्यका ज्ञान प्राप्त करता है । उदाहरणार्थ अब वह धूमको १. 'साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः' ।
-परीक्षामुख ३।११. २. इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम्
-वही, ३।१६,
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देखकर अग्निका ज्ञान; रसको चखकर उसके सहचर रूपका शान अपवा ऋत्तिकाके उदयको देखकर एक महतं बाद होनेवाले शकटके उदयकामान प्राप्त करता है, तब उसका वह शान स्वार्थानुमान कहलाता है।
जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्योंको कहकर दूसरोंको उन साध्यसाधनोंकी व्याप्ति ग्रहण कराता है सथा दूसरे उसके वचनोंको सुनकर व्याप्ति ग्रहण करके उक्त हेतुओंसे उक्त साध्योंका ज्ञान करते हैं, सो दूसरोंका वह अनुमान ज्ञान परार्थानुमान कहा जाता है और वे परार्थानुमाता माने जाते हैं । अतः अनुमानके उपादानभूत हेतुका प्रयोजक तस्व अन्यथानुपपन्नख स्व और पर दोके द्वारा गृहीत होने तथा दोनों अन्ययानुपपन्नख-ग्रहीताओंको अनुमान होनेसे स्वानुमान और परार्थानुमान भेद सम्भव होते हैं । संक्षेपमें स्वार्थ-स्वप्रतिपत्तिका साधन और परार्थ-पर-प्रतिपत्तिका साधन होने के कारण अनुमानके दो भेद हैं।
प्रतिशा और हेतुरूप परोपदेशको अपेक्षा न कर स्वयं ही निश्चित तथा इससे पूर्व तर्कद्वारा गृहीत व्याप्तिके स्मरणसे सहकृत घूमादि साधनसे उत्पन्न हुए पर्वत आदि धर्मी में अग्नि आदि साध्यके शानको स्वार्थानुमान कहा जाता है । यथा-यह पर्वत अग्निवाला है, धमनाला होनेसे ।'
प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशकी अपेक्षा लेकर श्रोताको जो साधनसे साध्यका ज्ञान उत्पन्न होता है, वह परार्थानुमान है। स्वार्थानुमान ज्ञानरूप है और परार्थानुमान वचनरूप है। वक्ता परार्थानुमानवचन-प्रयोगद्वारा श्रोताको व्याप्तिज्ञान कराता है | व्याप्तिज्ञानके अनन्तर साधनसे साध्यका ज्ञान वह स्वयं करता है। १. तत्र स्वयमेव निश्चितासापनात्साध्यशानं स्वार्थानुमानम् । परापदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव
निश्चितात्प्राक्तानुभूतण्याप्तिस्मरणसहकृताधुपायें:, साधनादुत्पन्नंपर्षतादी धर्मिण्यम्यादेः साध्यस्य ज्ञानं स्वार्थानुमानमित्यर्थः । यथा-पर्वतोऽयमम्निमान् धूमवस्वादिति । अयं हि स्वार्थानुमानस्य ज्ञानरूपस्यापि शम्देनोल्लेखः । यथा-'अयं घटः' इति शम्देन प्रत्यक्षस्य ।
-हो. दरवारीलाल कोठिया, म्यायदीपिका (बीरसेवामन्दिर) १०७१-७२. २. परोपवेशममेश्य यत्साधनात्साध्यविज्ञानं तत्परार्थानुमानम् । प्रतिमाहेतुरूपपरोपदे
शवशात् श्रोतुस्तम्न साधनात्सध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः । यथा-पर्वतोऽयमग्निमान भवितुमर्हति घूमवत्स्वान्यथानुपपत्तेरिति वाक्ये केनचित्प्रयुक्त तढाक्यार्थ पर्यालोचयतः स्मृतम्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते ।
–० दरबारीलाल कोठिया, न्यायदीपिका (बोरसेवामन्दिर) १०४५.
mm : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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स्वार्षानुमामके अंग _स्वार्थानुमानके तीन अंग है:-(१) धर्मी, (२) साध्य और (३) हेतु | हेतुगमक होनेसे, साध्य गम्य होनेसे एवं धर्मी साध्य और हेतु धोका भाषार होनेसे अंग हैं। आधार-विशेषमें ही अनुमेयको सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है। साध्यको पक्ष भो कहा आता है, यह धर्मविशिष्ट धर्मी है। यों तो पक्षशब्द से साध्यधर्म और धर्मीका समुदाय विवक्षित है । स्वार्थानुमानके शानरूप होनेके कारण शानमें धर्म-धर्मीका विभाग सम्भव नहीं, पर अनुमानका प्रयोग करनेके लिए उसका शब्दसे उल्लेख करना ही पड़ता है । यथा-'पर्वतोऽय वह्निमान्, 'धूमवत्वात्' अनुमानवाक्यका प्रयोग पर्वतमें वह्निको अवगत करनेके लिए करना पड़ता है, उसो प्रकार स्वार्थानमानमें भी उसके बोधार्थ वाक्यका प्रयोग अपेक्षित होता है। धर्मो : स्वरूप-निर्धारण ___ धर्मी प्रसिद्ध होता है । इसको प्रसिद्धि कहीं प्रमाणसे, कहीं विकल्पसे और कहों प्रमाण-विकल्प दोनोंसे हातो है। प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध धर्मी प्रमाणसिद्ध कहलाता है, यथा पर्वतादि । जिसकी प्रमाणता और अप्रमाणता निश्चित न हो और जो प्रतीतिमात्रसे सिद्ध हो, वह विकल्पसिद्ध कहा जाता है। विकल्पसिद्ध धीमें सत्ता या असत्ता साध्य होती है, यतः जिनकी सत्ता या असत्तामें विवाद है, वे हो धर्म विकल्पसिद्ध होते हैं । प्रमाण और विकल्प दोनोंसे सिख धर्मी उभयसिद्ध कहलाते हैं। परानुमानके अंग
परार्थानुमानके भी स्वार्थानुमानके समान धर्मी, साध्य और साघन ये तीन अथवा पक्ष और हेतु ये दो अंग माने जाते हैं। ज्ञानात्मक परार्थानुमानमें उक्त अंग संभव हैं, पर बचनात्मक परार्थानुमान में प्रतिज्ञा और हेतुदो ही अवयव होते हैं। __धर्म-धर्मीके समुदायरूप पक्षके वचनको प्रतिज्ञा कहा जाता है । यथा-- "पर्वतोऽयं वह्निमान्" में साध्यका निर्देश किया गया है, अतः उक्त पद प्रतिज्ञावाक्य है। ___ अनुमेयको सिद्ध करनेके लिए साधनके रूपमें जिस वाक्यावयवका प्रयोग किया जाता है, वह हेतु है। साधन और हेतुमें साधारणतः कोई अन्तर नहीं है, इसी कारण दोनोंका प्रयोग पर्यायरूपमें पाया जाता है, पर इनमें वाच्य१. प्रसिद्धो धर्मी-परीक्षामुख ३।२३. २. विकल्पसिद्धे तस्मिन् ससंतरे साध्ये-बही, ३१२४,
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वाचकका मेद है । साधन वाच्य है यतः वह कोई वस्तुरूप होता है और हेतु वाचक है, यतः उसके द्वारा वह वस्तु कही जाती है। हेतुको साध्याभावके साथ न रहनेवाला अर्थात् अविनाभावी होना आवश्यक बतलाया है |
हेतुका प्रयोग तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिरूपसे होता है । इसीको अन्वयविधि और व्यतिरेकविधि भी कह सकते हैं। व्युत्पन्न श्रोताको मात्र प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेशसे परार्थानुमान उत्पन्न होता है ।
अनुमानके अन्य अवयव
अनुमानके प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अवयव माने जाते हैं। इन अवयवोंका प्रयोग इस प्रकार होता है-'पर्यंत अग्निवाला हैं घूमवान् होनेसे; जो-जो धूमवान् है, वह अग्निवाला होता है, जैसे महानस । इसी प्रकार पर्वत भी घूमवान् है, इसलिए अग्निवाला है' इन अवयवोंमें प्रतिज्ञा और हेतु ये दो अवयव ही कार्यकारी हैं । प्रतिज्ञा प्रयोगके विना साध्यधर्मीके आधार में सन्देह बना रहता है । प्रतिज्ञाके विना सिद्धि किसकी की जायगी । पक्षी उपस्थित करके हेतुरोग न्याय पाना जाता है। अतः साधनवचनरूप हेतु और पक्षवचनरूप प्रतिज्ञा इन दो अवयवोंसे ही परिपूर्ण का बोध हो जाता है । दृष्टान्त, उपनय और निगमनका प्रयोग वादकथा में व्यर्थ है ।
वस्तुतः अनुमान के अवयवों का प्रयोग प्रतिपाञ्चकी दृष्टिसे किया जाता है । प्रतिपाद्य दो प्रकारके होते हैं: - (१) व्युत्पन्न और (२) अव्युत्पन्न । व्युत्पन्न वे हैं जो संक्षेप या संकेत में वस्तुस्वरूपको समझ सकते हैं तथा जिनके हृदयमें तकंका प्रवेश है । अव्युत्पन्न वे प्रतिपाद्य हैं, जो अल्पप्रज्ञ हैं, जिन्हें विस्तारसे समझाना आवश्यक होता है और जिनके हृदयमें तर्कका प्रवेश कम रहता है ।
अनुमानके उपयोगिताकी दृष्टि से दो ही अवयव हैं । दृष्टान्तके अभाव में मी अनुमान समीचीन होता है । यथा - सर्वं क्षणिकं सत्वात्' इस अनुमानमें दृष्टान्त नहीं है, फिर भी यह प्रमाणभूत है ।
उदाहरणकी सार्थकता व्याप्तिस्मरण के लिए भी नहीं है, यतः अविनाभावी हेतुके प्रयोगमात्रसे ही व्याप्तिका स्मरण हो जाता है । संसार में विभिन्न चिन्तक तथ्योंको विभिन्न रूपमें स्वीकार करते हैं, अतः सर्वसम्मत दृष्टान्तका मिलना अशक्य है। दूसरी बात यह है कि दृष्टान्तमें व्याप्तिका ग्रहण करना अनिवार्य भी नहीं है; क्योंकि जब समस्त वस्तुओंको पक्ष बना लिया जाता है, तब किसी दृष्टान्तका मिलना असम्भव हो जाता है। अतः विपक्ष में बाधक प्रमाण देखकर पक्ष में ही साध्य और साधनको व्याप्ति सिद्ध कर ली जाती है । वादकथा की दृष्टिसे दृष्टान्त निरर्थक और अव्यवहार्य है ।
४४६ : तोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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उपनय और निगमन तो केवल उपसंहारवाक्य हैं, जिनकी अपनेमें कोई उपयोगिता नहीं हैं । पक्षमें हेतुका उपसंहार उपनय और हेतुपूर्वक पक्षका वचन निगमन है । संक्षेपमें लाघव, आवश्यकता और उपयोगिताको दृष्टिसे प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव ग्राह्य हैं ।
हेतु भेद एवं प्रकार
:
अविनाभावके व्यापक स्वरूपके आधारपर हेतुके सात भेद हैं: - (१) स्वभाव, (२) व्यापक, (३) कार्य, (४) कारण ( ५ ) पूर्वचर, (६) उत्तरचर और, (७) सहचर | सामान्यतः हेतु के दो भेद हैं: -- (१) उपलब्धिरूप और (२) अनुपलब्धिरूप । ये दोनों हेतु विधि और प्रतिषेध दोनोंके साधक हैं। इनके संयोगसे हेतुके २२ भेद हो जाते हैं ।
हेतुभेद
उपलब्धि
अविरुद्धोपलब्धि विरुद्धोपलब्धि अविरुद्धानुपलब्धि विरुद्धानुपलब्धि
अ. अ.
म.
अवि. अ. अ. व्याप्य. कार्य. कारण. पू. उ. सह.
अनुपलब्धि
I
वि. ख्या. कार्य, कारण. पू. उ. सह. कुल हेतुभेद = ६+६+३+७= २२ (परीक्षा मुखके अनुसार ) १. विधि-साधन -- ६ २. निषेध-साधन २२
२८
|
1
I
1
I
अ० व्याप्य कार्य. कारण. पू. उ. सह.
स्व.
वि. कार्य. वि. कारण. वि. स्वभाव साक्षात् निषेध-साधन – २+४=६
परम्परा निषेध साधन
१६
२२
( प्रमाणपरीक्षाके अनुसार )
हेतुके वाईस भेवोंका सामान्य स्वरूप
विधिसाधक उपलब्धिको अविरुद्धोपलब्धि और प्रतिषेध-साधक उपलब्धि
को विरुद्वtपलब्धि कहा जाता है ।
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४४७
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१. अविरुद्धव्याप्योपलब्धि-शब्द परिणामी है, कृतक होनेसे ।
२. अविरुद्धकार्योपलब्धि-इस प्राणिमें बुद्धि है, वचनप्रयोगको प्रवृत्ति होनेसे।
३. अविरुद्धकारणोपलब्धि-यहाँ छाया है, छत्र होनेसे ।
४. अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि-एक मुहूर्त के अनन्तर रोहिणीका उदय होगा, इस समय कृत्तिकाका उदय होनेसे ।।
५. अविदोतवो ललित- मुर्ह पहले भरणीका उदय हो चुका है, वर्तमानमें कृत्तिकाका उदय होनेसे ।
६. अविरुद्धसहचरोपलब्धि -- इस आममें रूप है, क्योंकि रस पाया जाता
७. विरुद्धच्याप्योपलब्धि-यहाँ शीतस्पर्श नहीं है, क्योंकि उष्णता पायो जाती है।
८. विरुद्धकार्योपलब्धि-यहाँ शीत स्पर्श नहीं है, धूमका सद्भाव रहनेसे ।
९, विरुद्धकारणोपलब्धि-इस प्राणीमें सुख नहीं है, हृदयमें शल्य होनेसे ।
१०. विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि-एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय नहीं होगा, क्योंकि इस समय रेवतीका उदय है ।
११. विरुद्धोत्तरचरोपलब्धि-एक मुहूर्त पहले भरणीका उदय नहीं हुआ है, क्योंकि इस समय पुष्यका उदय हो रहा है।।
१२. विरुवसहचरोपलब्धि--इस दीवालमें उस ओरके हिस्सेका अभाव नहीं है, क्योंकि इस ओरका हिस्सा देखा जाता है।
१३. अविरुद्धस्वभावानुपलब्धि-इस भूतल पर घड़ा नहीं है, अनुपलब्ध होनेसे।
१४. अविरुखव्यापकानुपलब्धि-यहाँ शीशम नहीं है, वृक्षाभाव होनेसे ।
१५. अविरुद्धकार्यानुपलब्धि-यहाँ पर अप्रतिबद्ध शक्तिशाली अग्नि नहीं है, धूमाभाव होनेसे।
१६. अविरुद्धकारणानुपलब्धि-यहाँ घूम नहीं है, अग्निका अभाव होनेसे।
१७. अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धि-एक मुहूर्त के बाद रोहिणीका उदय नहीं होगा, क्योकि अभी कृत्तिकाका उदय नहीं हुआ है।
१८, अविरूद्धोत्तरचरानुपलब्जि–एक मुहूर्त पहले मरणीका उदय नहीं हुआ; क्योंकि अभी कृत्तिकाका उदय नहीं है।
१९. अविरुद्धसहचरानुपलब्धि--इस सम तराजूका एक पलड़ा नीषा नहीं है, क्योंकि दूसरा पलड़ा ऊंचा नहीं पाया जाता। ४४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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२०. विरुखकार्यानुपलब्धि-इस प्राणीमें कोई व्याधि है; क्योंकि इसकी धाएँ निरोग व्यक्तिकी नहीं हैं ।
२१. विश्वकारणानुपलब्धि इस प्राणीमें दुःख है, क्योंकि इष्टसंयोग नहीं देखा जाता।
२२. विरुवस्वभावानुपलब्धि-वस्तु अनेकान्तात्मक है, क्योंकि एकान्त स्वरूप उपलब्ध नहीं होता। अर्मापसिका अनुमानमें अन्तर्भाव
किसी दृष्ट या श्रुस पदार्थसे वह जिसके बिना नहीं होता, उस अविनाभावी अदृष्ट अर्थकी कल्पना करना अपत्ति है, यथा-'मोटा देवदत्त दिनको भोजन नहीं करता है' इस प्रसंगमें अर्थापत्ति द्वारा देवदत्तके रात्रि भोजनकी कल्पना कर ली जाती है, यत; भोजनके विना पीनत्व---मोटापन आ नहीं सकता । अर्थापत्तिसे अतीन्द्रिय शक्ति आदि पदार्थोका ज्ञान किया जाता है । इसके छ: भेद हैं:-(१) प्रत्यक्षपूर्विका, (२) अनुमानपूर्विका, (३) श्रुतार्यापत्ति, (४) उपमानापत्ति, (५) अर्धापत्तिपूर्विका अर्थापत्ति और (६) अभावपूर्विका अर्थापत्ति ।
अर्थापत्ति और अनुमानमें पृथक्त्वका कारण पक्षधमत्व है । अनुमानमें हेतुका पक्षधर्मत्व आवश्यक है, पर अथांपात्तमं पक्षधमत्व आवश्यक नहीं भाना जाता । अतः अर्थापत्तिको पृथक् प्रमाण माननेको आवश्यकता है। ___ अर्थापत्तिको अनुमानसे भिन्न माननेमें उक्त तक निबल है। यत: अविनाभावो एक अर्थसे दूसरे अर्थका ज्ञान करना जैसे अनुमानके है, वैसे अर्थापत्तिमें भी है। पक्षधर्मत्व अनुमानके लिए आवश्यक भी नहीं है। कृत्तिकोदय आदि हेतु पक्षधर्मरहित होकर भी सच्चे हैं और मैत्रतनयत्व आदि हेतु पक्षधर्मत्व रहनेपर भी गमक नहीं हैं। संक्षेपमें अर्थापनि अविनाभावमूलक या अन्यथानुपपन्नत्त्वमूलक होनेके कारण अनुमान के अन्तर्गत है, इसे पृथक् प्रमाण माननेको आवश्यकता नहीं है । अभावका प्रत्यक्षादिमें अन्तर्भाव ___ अभाव भी स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । जो यह कहा जाता है कि जिस प्रकार भावरूप प्रमेयके लिए भावात्मक प्रमाण होता है, उसी तरह अभावरूप प्रमेय के लिए अभावप्रमाणको आवश्यकता है । वस्तु सत् और असत् रूपमें पायी जाती है। अत: इन्द्रियोंके द्वारा सर्दशके ग्रहण हो जानेपर भी असदंशके ज्ञानके लिए अभावप्रमाण अपेक्षित है। जहाँ सद्भावग्राहक पांच प्रमाणोंकी प्रवृत्ति नहीं होती, वहाँ अभावप्रमाणको प्रवृत्ति देखी जाती है । यह दोषपूर्ण
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४४९
अंभावका
२९
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है । यतः भावांशके समान अभावांश भी प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रत्यभिज्ञान आदि प्रमाणोंसे गृहीत हो जाता है। जिस प्रकार 'इस भूतलपर घट हैं' मह प्रत्यक्ष द्वारा जाना जाता है, उसी प्रकार 'इस भूतलपर घट नहीं है। यह घटाभाव भी प्रत्यक्ष द्वारा ही गृहीत है।
अनुमानके उपलब्धि और अनुपलब्धि रूप हेतु भी अभावोंके ग्राहक हैं । यह कोई नियम नहीं है कि भावरूप प्रमेयके लिए भावरूप प्रमाण और अभावरूप प्रमेय के लिए प्रभावरूप प्रमाण ही होना चाहिए।
अभाव भावान्तररूप होता है, यह अनुभवसिद्ध है । अतः भावग्राहक प्रमाणोंसे हो वस्तुके अभावांशका भी ग्रहण सम्भव होनेसे अभावको पृथक् प्रमाण माननेकी आवश्यकता नहीं है ।
आगमप्रमाण : विमर्श
मतिज्ञान द्वारा ज्ञास पदार्थमें मनकी सहायतासे होनेवाले विशेष ज्ञानको श्रुतज्ञान या आगमज्ञान कहते हैं। पाँच इन्द्रियों और मनसे शात विषयको ही अवलम्बन लेकर शान करता है। इसके मूल दो मेद हैं: - (१) अनक्षरात्मक और (२) अक्षरात्मक । श्रोत्र इन्द्रियके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मनकी सहायतासे होनेवाले मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञानको अनक्षरात्मक
ज्ञान कहते हैं और श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक जी श्रुतज्ञान होता है, उसे अक्षरात्मक धुतज्ञान कहते हैं। जैसे—जीवशब्द कहनेपर श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा इस शब्दका सुनना मतिज्ञान है और उसके निमित्तसे जीव नामक पदार्थके अस्तित्वको अवगत करना अक्षरात्मक श्रुतशान है । प्रकारान्तरसे जबतक श्रुतज्ञान ज्ञानरूप रहता है, तबतक अनक्षरात्मक है और जब वचनरूप होकर दूसरेको ज्ञान कराने में कारण होता है, सब वही अक्षरात्मक हो जाता है ।
ज्ञानके द्वारा ही हम सबको जानते हैं और दूसरेको ज्ञान करानेका मुख्य साजन वचन है । ज्ञाता वचनके द्वारा श्रोताओंको बोध कराता है और वचनव्यवहार केवल श्रुतज्ञानमें ही पाया जाता है। वक्ता द्वारा कहा गया शब्द श्रोता श्रुतज्ञानमें कारण होता है ।
aath दो भेद हैं: - (१) द्रव्यवाक् और (२) भाववाक् । द्रव्यवाक्के भी दो भेद हैं: - (१) द्रव्यरूप और (२) पर्यायरूप पर्यायरूप द्रव्यवाक् श्रोत्र इन्द्रिय से ग्राह्य है । भाषावगणारूप पुद्गल द्रव्यवाक् है । यह द्रव्यरूप वचन समस्तज्ञानोंमें नहीं पाया जाता । ज्ञानावरणकर्मके क्षय अथवा क्षयोपशमसे युक्त मात्मामें जो सूक्ष्म बोलने की शक्ति है, वह भाववाक् है । इस भाववाक्के बिना ४५० तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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किसी के मुखसे कभी भी वचन नहीं निकल सकते। भाववारूपी शक्तिका सद्भाव समस्त आत्माओं में पाया जाता है, क्योंकि वह चेतनका सामान्य धर्म है ।
श्रुतज्ञानके बीस भेद हैं: - ( १ ) पर्याय, ( २ ) पर्यायसमास, (३) अक्षर, (४) अक्षरसमास, (५) पद, (६) पदसमास, (७) संघात, (८) संघातसमास, (९ ) प्रतिपत्तिक, (१०) प्रतिपत्तिकसमास, (११) अनुयोग, (१२) अनुयोगसमास, (१३) प्राभृत, (१४) समास (१५) प्राभूत- (१६) प्राभूतपाभूतसमास, (१७) वस्तु, (१८) वस्तुसमास, (१९) पूर्व और (२०) पूर्वसमास ।
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्यासक जीवके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक लब्ध्यक्षररूप श्रुतज्ञान होता है। यह ज्ञान अविनश्वर और निरावरण होता है। यह सर्वजघन्य ज्ञान है । इसके ऊपर क्रमशः अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात् मागवृद्धि, सख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छह वृद्धियां होती हैं । इन वृद्धियोंके अनन्तर पर्यायसमासज्ञान आता है । पर्यायसमासके अनन्तर वृद्धिंगत होते हुए क्रमशः अक्षर, अक्षरसमास आदि श्रुतज्ञानके मेद उत्पन्न होते हैं ।
आप्तके वचनादिके निमित्तसे होनेवाले अर्थज्ञानको आगम कहते हैं। आसपदसे वीतराग, सर्व और हितोपदेशी व्यक्ति अभीष्ट है। जो जहाँ अवचक है, वह वहाँ आप्त है। वस्तुतः जो राग, द्वेष, मोह-अज्ञान आदि दोषोंसे रहित है, परहितका प्रतिपादन करना ही जिसका एकमात्र कार्य है, ऐसा व्यक्ति ही आप्त कहलाने के योग्य है । आप्तवचनको अर्थज्ञानका कारण होनेसे आगम कहा जाता है । तोर्थंकर जिस अर्थको अपनी दिव्यध्वनिसे प्रकाशित करते हैं, उसका द्वादशांगरूप में कथन गणधरोंके द्वारा किया जाता है। यह श्रुत अंगप्रविष्ट कहलाता है और जो श्रुत अन्य आरातीय शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा रचा जाता है, वह अंगचा है । अंगप्रविष्ट श्रुतके आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकृतदश, अनुतरोपपादिकदश प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद ये बारह मैद हैं। अंगबाह्य श्रुत सामायिक, चतुविशस्तय, बन्दना आदि भेदसे चौदह प्रकारका है । वस्तुतः आगमके द्वारा उतने ही पर्दार्थोंका बोष प्राप्त किया जा सकता है, जितने पदार्थीका केवलज्ञानद्वारा । ज्ञानको अपेक्षा श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों समान हैं, पर विशद और अविशदकी अपेक्षा दोनोंमें अन्तर है । श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होता है । अतएव वह अमूर्त पदार्थ और उनकी अर्थ पर्यायके सूक्ष्म अंशोंको स्पष्टरूपसे नहीं जान पाता । पर केवलज्ञान निरावरम होने के कारण समस्त पदार्थो को विशदरूपसे जानता है ।
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४५१
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कुछ चिन्तकोंका विचार है कि जहाँ वक्ता अनाप्त, अविश्वसनीय, अतस्त्वज्ञ और कषायकलुष हो, वहाँ हेतु द्वारा तत्त्वकी सिद्धि होती है । पर जहाँ आप्तसवंश और वीतराग हो वहाँ उसके वचनोंपर विश्वास करके तत्त्वसिद्धिकी जाती है !"
शब्द और अर्थका सम्बन्ध
शब्द अर्थप्रतिपत्तिके साधन किस प्रकार बनते हैं और उनका अर्थके साथ क्या सम्बन्ध है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । शब्द स्वाभाविक योग्यता और संकेतके कारण हस्तसंज्ञा आदि वस्तुको प्रतिपत्ति करानेवाले हैं। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञापक एवं ज्ञाप्य शक्ति स्वाभाविक है, उसी प्रकार शब्द और अर्थ में प्रतिपादक और प्रतिपाद्य शक्ति स्वभावतः विद्यमान है । शब्द और अर्थका सम्बन्ध नि नित्य और कथंचित् अनित्य होता है । शब्द में अर्थोत्रो क्षमता स्वभावतः निहित है |
शब्द और अर्थ में तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध न होनेपर भी योग्यतारूप सम्बन्ध पाया जाता है। जिस प्रकार चक्षुका घटादिके रूपके साथ तादात्म्य तदुत्पत्ति-सम्बन्ध नहीं होनेपर भी योग्यतारूप सम्बन्ध देखा जाता है, उसी प्रकार शब्द और अर्थ में भी यह योग्यतासम्बन्ध निहित रहता है । शब्द में कहने की शक्ति है और अर्थ में कहे जाने की शक्ति है । इसीका नाम योग्यता है ।
वस्तुतः शब्द और अर्थ में वाच्य वाचकशक्तिरूप सम्बन्ध स्वाभाविक ही है । केवल उसको जानने के लिये संकेत ग्रहणकी आवश्यकता होती है। यदि इस स्वाभाविक सम्बन्ध में व्यतिक्रम किया जाय, तो दीपक और घटमें जो प्रकाश्यप्रकाशकशक्ति है उसमें भी व्यतिक्रमको आपत्ति प्रस्तुत हो जायगी और यह आपत्ति प्रतीतिविरुद्ध है। अतः शब्द और अर्थ में वाच्य वाचकशक्तिका मानना आवश्यक है । सारांशतः शब्द और अर्थ में वाच्य याचकभावरूप शक्ति स्वभावतः विद्यमान है और संकेतवशसे आप्तप्रणीत शब्द वस्तुके ज्ञानमें कारण होते हैं।
प्रमाणफल
प्रमाणरूप ज्ञानके दो कार्य है: - ( १ ) अज्ञाननिवृत्ति और (१) स्वपरका १. वक्तनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाषितम् ।
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आप्ते चरितद्वाक्यात् साधिसमागमसाधितम् ||---आप्तमी० श्लोक ७८. २. सहजयोम्यतासंयतवशद्धि शब्दावयो वस्तुप्रतिपतितव :- परीक्षामुख ३ ९६.
४५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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व्यवसाय । शानका आध्यात्मिक फलोअप्राप्ति है। ब
अज्ञानकी निवृत्ति होती है । जिस प्रकार प्रकाश अंधकारको हटाकर पदार्थोंको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान अज्ञानको हटाकर पदार्थका बोध कराता है । पदार्थबोधके पश्चात् होनेवाले हान - हेयका स्याग, उपादान और उपेक्षा बुद्धि प्रमाणके परम्पराफल हैं। मति, श्रुत आदि ज्ञानोंमें हान, उपा दान और उपेक्षा ये तीनों फल निहित रहते हैं, पर केवलज्ञानमें केवल उपेक्षा ही रहती है। राम और द्वेषमें चित्तका प्रणिधान नहीं होना उपेक्षा है ।
ज्ञान आत्माका अभिन्न गुण है। इस ज्ञानकी पूर्व अवस्था प्रमाण और उत्तर अवस्था फल है । जो ज्ञानधारा अनेक ज्ञानक्षणोंमें व्याप्त रहती है, उस ज्ञानधाराका पूर्व क्षण साधकतम होनेसे प्रमाण होता है और उत्तर क्षण साध्य होनेसे फल | प्रमाण और फल कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं । आत्मा प्रमाण और फल दोनोंरूपसे परिणति करती है । अत: प्रमाण और फल अभिन्न हैं तथा कार्य और कारणरूपसे क्षणभेद एवं पर्यायभेद होनेके कारण वे भिन्न हैं । अतएव प्रमाण और फलमें कथंचित् भिन्नाभिन्नसम्बन्ध है । प्रमाणका साक्षात्फल मशाननिवृत्ति और परम्पराफल हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि है ।
प्रमाणाभास
जो वास्तविक प्रमाणलक्षणसे रहित हैं और प्रमाणके तुल्य प्रतीत होते है, वे प्रमाणाभास है । अस्वसंविदितज्ञान, गृहीतार्थंज्ञान, निर्विकल्पक दर्शन, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि प्रमाणाभास है, क्योंकि इनके द्वारा प्रवृत्तिके विषयका यथार्थज्ञान नहीं होता। जो अस्वसंविदितज्ञान अपने स्वरूपको ही नहीं जानता है, वह पुरुषान्तरके ज्ञानके समान हमें अर्थबोध कैसे करा सकेगा ? निर्विकल्पकदर्शन सव्यवहारानुपयोगी होनेसे प्रमाणकोटिमें नहीं आता। अविसवादी और सम्यग्ज्ञान प्रमाण कहा जाता है । जिस ज्ञानमें यह लक्षण घटित न हो, वह ज्ञान प्रमाणाभास है । संशयज्ञान अनिर्णयात्मक होनेसे, विपर्ययज्ञान विपरीत एक कोटिका निश्चय होनेसे और अनध्यवसायज्ञान किसी भी एक कोटिका निश्चायक न होनेसे विसंवादी होनेके कारण प्रमाणाभास हैं ।
प्रमाणाभासों की संख्या अगणित हो सकती है। घर इनमें प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास; सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास, मुख्यप्रत्यक्षाभास, स्मरणाभास, प्रत्य भिज्ञानाभास, तर्काभास, अनुमानाभास, आगमाभास, हेत्वाभास, विषयामास तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४५३
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आदि मुख्य हैं। यहाँ समस्त प्रमाणाभासोंका निर्देश न कर ज्ञानमें उपयोगी होनेसे केवल हेत्वाभासों का विवेचन किया जाता है ।
हेत्वाभास
जो हेतुलक्षणसे रहित है, पर हेतु के समान प्रतोत होते हैं, वे हेत्वाभास हैं । इन्हें साधनके दोष होनेके कारण साधनाभास भी कहा जा सकता है । कुछ चिन्तकोंने असिद्ध, विरुद्ध अनेकान्तिक, कालात्यापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास स्वीकार किये है । पर यथार्थतः असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीन ही हेत्वाभास प्रमुख है ।
मसिद्ध
जो हेतु सर्वदा पक्षमें न पाया जाय अथवा जिसका सर्वथा साध्यके साथ --' शब्दोऽनित्यः, चाक्षुषत्वात्' अविनाभाव न हो, वह असिद्ध हेत्वाभास है । यथा--' शब्द अनित्य है, चक्षुका विषय होनेसे । इस अनुमानमें चाक्षुषत्वहेतु शब्दमें स्वरूपसे ही असिद्ध है । असिद्ध हेत्वाभासके दो भेद हैं: - स्वरूपासिद्ध और संदिग्धासि । जो स्वरूपसे असिद्ध हो, वह स्वरूपासिद्ध है । यथा— शब्द अनित्य है, चाक्षुष होनेसे । इस अनुमानमें चाक्षुषत्वहेतु स्वरूपासिद्ध है । मूर्ख व्यक्ति घूम और वाष्पका विवेक न प्राप्तकर बटलाहीसे निकलनेवाले वाष्पको घूग मानकर उसमें अग्निका अनुमान करता है, तो यह संदिग्धासिद्ध कहलाता है ।
विरुद्ध
जो हेतु साध्याभाव में ही पाया जाता है, वह विरुद्धहेत्वाभास कहलाता है । यथा - 'सर्व क्षणिक सत्यात्' इस अनुमान में सखहेतु सर्वथा क्षणिकत्व के विपक्षी कथंचित् क्षणिकत्वमें ही पाया जाता है ।
अनैकान्तिक
जो हेतु पक्ष और विपक्ष दोनोंमें समानरूपसे पाया जाता हो, वह व्यभि चारी होने के कारण अनैकान्तिक कहलाता है । यथा - 'शब्दो: अनित्यः प्रमेयत्वात् घटवत्' । यहाँ प्रमेयत्वहेतुका विपक्षभूत नित्य आकाशमें भी पाया आना निश्चित है । अतः यह अनेकान्तिक है ।
अकिंचित्कर
सिद्ध साध्य में और प्रत्यक्षादि बाधित साध्य में प्रयुक्त होनेवाला हेतु अकि४५४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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चिकर है । अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने भी विलक्षण हेतु हैं, वे अकिंचित्कर हैं । यथा शब्द विनाशी है, क्योंकि कृतक है। अथवा यह अग्नि है, क्योंकि धूम है। यहाँ कृतकत्व और धूमश्व हेतु प्रत्यक्षसिद्ध विनाशित्व और अग्निको सिद्ध करने में अकिंचित्कर है ।
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दृष्टाम्लाभास
दृष्टान्त में साध्य - साधनक. निर्णय आवश्यक है। जो दृष्टान्त दृष्टान्तके लक्षण से रहित है, वह दृष्टान्ताभास कहलाता है । दृष्टान्ताभासके मूलतः (१) साधर्म्यदृष्टान्ताभास और ( २ ) वैधम्यंदृष्टान्ताभास ये दो भेद हैं। साधम्यंदृष्टान्तभासकै नव भेद और वैधम्र्म्यदृष्टान्ताभासके भी नव भेद होते हैं । साधर्म्य दृष्टान्ताभास: भेवनिरूपण
१. साध्यविकल - शब्द नित्य है, अमूर्तिक होनेसे, कर्मके समान । यहाँ कर्म दृष्टान्तसाध्यविकल है, क्योंकि वह नित्य नहीं है, अनित्य है ।
मूलिक होते, प
२. साधनविकल शब्द निश्य है यहां परमाणु दृष्टान्तसाधनविकल है।
३. उभय विकल-शब्द नित्य है, अमूत्तिक होनेसे, घटवत् । यहां घट दृष्टान्त उभयविकल है; क्योंकि घट न सो नित्य है और न अमूर्तिक ही, वह अनिश्य तथा मूर्तिक है।
४. सन्दिग्धसाध्य -- सुगत रागादिमान् है, उत्पत्तिमान् होनेसे, रथ्यापुरुषवत् । इस अनुमानमें रथ्यापुरुष में रागादिका निश्चय नहीं है, अतः प्रत्यक्षद्वारा उसका निश्चय करना अशक्य है ।
५. सन्दिग्धसाधन — यह मरणशील है, रामादिमात् होनेसे, रध्यापुरुषवत् । यहाँ रथ्यापुरुष में रागादिका पूर्ववत् अनिश्चय है ।
६. सन्दिग्धोभय – यह असर्वज्ञ हैं, रागादिमान् होनेसे, रध्यापुरुषवत् । यहाँ रध्यापुरुषमें साध्य और साधन दोनोंका अनिश्चय है ।
७. अनन्वय -- यह रागादिमान् हैं, वक्ता होनेसे, रथ्यापुरुषवत् । यहाँ रथ्यापुरुषमें रागादिका सद्भाव सिद्ध न होनेसे अन्वय असिद्ध है ।
८. अप्रदर्शितान्वय – शब्द अनित्य है, क्योंकि कृतक है, घटकी तरह । सकता और अनित्यताका अन्वय प्रदर्शित नहीं है ।
९. विपरीतान्वय - जो अनित्य होता है, वह कृतक होता है, ऐसा विपरीत अन्वय प्रस्तुत करना विपरीतान्वयसाधर्म्यदृष्टान्ताभास है ।
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वैषHदृष्टान्ताभास : भेदनिरूपण
१. साध्याश्यावृत्त--शब्द नित्य है, अमूर्त होनेसे; जो नित्य नहीं होता, वह अमूर्त भी नहीं होता, यथा परमाणु । यहाँ परमाणुका दृष्टान्त साध्याश्यावृत्त वैधयंदृष्टान्ताभास है, कारण परमाणुओंमें साधनको व्यावृत्ति होनेपर भी साध्यको व्यावृत्ति नहीं है ।
२. साधनाच्यावृत्त-शब्द नित्य है, अमूर्त होनेसे, कर्मवत् । यहाँ कर्मका दृष्टान्त साधनाज्यावृत्त दृष्टान्ताभास है; कारण कर्म में साध्यकी व्यावृत्ति होनेपर साधनकी ब्यावृत्ति नहीं है।
३. उभयाव्यावृत्त-शब्द नित्य है, अमूर्त होनेसे, आकाशवत् । यहाँ आकाश दृष्टान्त उभयाव्यावृत्त है, क्योंकि आकाशमें न साध्यको व्यावृत्ति है और न साधनकी ।
४. सन्दिग्धसाध्यव्यतिरेक--सुगत सर्वज्ञ है, क्योंकि अनुपदेशादिप्रमाणयुक्ततत्त्वप्रवक्ता है, जो सर्वज्ञ नहीं, वह उक्त प्रकारका वक्ता नहीं, यथा वीथीपुरुष । यहाँ वोथीपुरुषमें सर्वशत्वको च्यावृत्ति अनिश्चित है ।
५. सन्दिग्धसाधनव्यतिरेक शब्द अनित्य है, क्योंकि सत् है, जो अनित्य नहीं होता वह सत् भो नहों होता, यथा गगन । यहाँ गगनमें सत्त्वरूप साधनको व्यावृत्ति सन्दिग्ध है, क्योंकि वह अदृश्य है ।
६. सन्दिग्धोभयव्यतिरेक-हरिहरादि संसारो है, क्योंकि अज्ञानादियुक्त हैं, जो संसारी नहीं, वे अज्ञानादिदोषयुक्त नहीं, यथा बुद्ध । यहाँ बुद्ध दृष्टान्तमें साध्य और साधन दोनोंकी व्यावृत्ति अनिश्चित है।
७. अव्यतिरेक-शब्द नित्य है, अमूर्त होनेसे; जो नित्य नहीं, वह अमूर्त नहीं, यथा घट । घटमें साध्यकी व्यावृत्ति रहनेपर भी हेतुकी व्यावृत्ति तत्प्रयुक्त नहीं है।
८. अप्रदर्शितव्यतिरेक-शब्द अनित्य है; क्योंकि सत् है, आकाशवत् । यहाँ वैधयंसे आकाशमं व्यतिरेक अप्रदर्शित है।
९. विपरीतव्यतिरेक-जो सत् नहीं, वह अनित्य नहीं, यया आकाश । यहाँ साधनको व्यावृत्तिसे साधनकी व्यावृत्ति दिखलायो गयी है, जो विरुद्ध है।
इसप्रकार दृष्टान्ताभासके ९+ १० १८ भेद हैं। ४५६ : तीपंकर महावीर और उनका आचार्य परम्परा
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प्रकारान्तरसे दृष्टान्ताभासके दो भेद हैं: - (१) अन्वयदृष्टान्ताभास और (२) व्यतिरेकदृष्टान्ताभास । अन्वयदृष्टान्ताभासके चार भेद है: - (१) असिद्धसाध्य, (२) असिद्धसाधन, (३) असिद्धो भय और ( ४ ) विपरीतान्वय |
व्यतिरेकदृष्टान्ताभासके भो चार भेद हैं: - ( १ ) असिद्धसाध्यव्यतिरेक, (२) असिद्धसाधनव्यतिरेक (३) असिद्धोभयव्यतिरेक और ( ४ ) विपरीतव्यतिरेक ।
ज्ञानसाधन नय
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प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। इस कारण उसे अनेकान्तात्मक कहा जाता है । अर्थात् वस्तु कथञ्चित् नित्य कथञ्चत् अनित्य, कथञ्चित् एक, कथञ्चित् अनेक, कथञ्चित् सर्वगत कथञ्चित् असवंगत कथञ्चित् सत् कथञ्चित् असत् आदि अनेक धर्मोसे युक्त है । यदि वस्तुको सर्वथा नित्य माना जाय तो अर्थक्रिया न होनेसे वस्तु कूटस्थ हो जायेंगी और वृक्ष आदिसे फल, पुष्प आदिकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। अतः प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तात्मक मानना स्वभावसिद्ध और तर्कसंगत है।
सामान्यतः ज्ञानके दो भेद हैं: - ( १ ) स्वार्थ, (२) परार्थ । जो परोपदेश के बिना स्वयं उत्पन्न हो उसको स्वार्थ और परोपदेशपूर्वक उत्पन्न हो उसको परार्थं कहते हैं । मति, अवधि, मनःपर्याय और केवल ये चारों ज्ञान स्वार्थ ही हैं । श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी ।" जो श्रुतज्ञान श्रोत्र बिना अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक होता है, वह स्वार्थ श्रुतज्ञान है और जो श्रीरेन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक होता है, वह परार्थश्रुतज्ञान है।
तथ्य यह है कि शब्दको सुनकर जो उत्पन्न हुआ ज्ञान है, वह परार्थश्रुतज्ञान कहलाता है। कारणके भेद से कार्यमें भी भेद होता है। अतएव जब शब्द के अनेक भेद है, तो तज्जन्य श्रुतज्ञानके भी अनेक भेद स्वयं सिद्ध हैं । इस परार्थश्रुतज्ञान के प्रत्येक भेदको नय और इन समस्त नयोंके समुदायको परार्थश्रुतज्ञान प्रमाण कहा जाता है । इसी कारण प्रमाण और नयमें अंश अंशी मेद है । प्रमाण अंशो और नय अंश हैं । एक शब्दमें इतनी शक्ति नहीं है कि वह समस्त मुख्य और गौण धर्मोका एक साथ विवेचन कर सके। अतएव वस्तुके स्वरूपको अवगत करनेके लिए प्रमाण और नयको आवश्यकता होती है ।
१. तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वायं परार्थं च । तत्र स्वायं प्रमाणं श्रुतवज्जेम् । श्रुतं पुमः स्वाय भवति परार्थं च । ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नयाः । - सर्वार्थसिद्धि - १६.
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मसिज्ञान, अवषिकान, मनःपर्यशान और बलशान, चार शान ऐसे हैं, जो धर्म-धर्मीका भेद किये बिना बस्तुको जानते हैं। इसलिए ये सबके सब प्रमाणशान हैं। श्रुतमान विचारात्मक होनेसे कभी धर्म-धर्मीका भेद किये बिना स्वस्पको अवगत करता है और कभी धर्म-धर्मीका भेद करके वस्तुका बोध करता है। जब धर्म-धर्मीका भेद किये बिना वस्तु प्रतिभासित होती है, सब यह श्रुतज्ञान प्रमाण कहलाता है और जब उसमें धर्म-धर्मीका भेद होकर वस्तुका मान होता है, तब वह नय कहलाता है। इसी कारण नयोंको श्रुतज्ञानका भेद माना गया है।
नयस्वरूप
अनन्तधर्मात्मक होने के कारण वस्तु बहुत जटिल है। उसको जाना तो जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता । उसे कहने के लिए वस्तुका विश्लेषण कर एक-एक धर्म द्वारा क्रमपूर्वक उसका निरूपण करनेके अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं है। वक्ता किसी एक धर्मको मुख्यकर उसका कथन करता है। उस समय उसको दृष्टिमें अन्य धर्म गौण होते हैं, पर निषिद्ध नहीं । कोई एक निष्पक्ष श्रोता उस कथनको क्रमपूर्वक सुनता हुआ अन्समें वस्तुके यथार्थ अखण्ड व्यापक रूपको ग्रहण कर लेता है। यह वस्तुधर्मग्रहणकी प्रक्रिया नय कहलाती है । नयका शाब्दिक अर्थ है-नयति इति नयः अर्थात् जो जीवादि पदापोंको लाते हैं या प्राप्त कराते हैं, वे ज्ञानांश नय कहलाते हैं।
अनेक धर्मोको युगपत् ग्रहण करनेके कारण प्रमाण अनेकान्तरूप और सकलादेश है तथा एक धर्मको ग्रहण करनेके कारण नय एकरूप व विकलादेशी है। प्रमाणज्ञानको-अन्य धर्मोकी अपेक्षाको बुद्धिमें सुरक्षित रखते हुए प्रयोग किया जानेवाला नय ज्ञान या सम्यक वाक्य है ।
पदार्थ तीन कोटियों में विभक्त है:-१. अस्मिक या वस्तुरूप, २. शब्दात्मक या वाचकरूप और ३. ज्ञानात्मक या प्रतिभासरूप । इन तीन प्रकारके पदार्थोको विषय करनेके कारण नय भी तीन प्रकारके होते हैं।--(१) अयनय, (२) शन्दनय, (३) ज्ञानमय । वस्तुतः मुख्य-गोणविवक्षाके कारण वक्ताके अमिप्राय अनेक प्रकारके होनेसे नयके अनेक भेद हैं ।
अनेकान्तात्मक वस्तुका जिस धर्मको विवक्षासे वक्ता कथन करता है उसके उसी अभिप्रायको जाननेवाले शानको नय कहा जाता है। यह भावनयका लक्षण है । उस धर्म तथा उसके वाचक शब्दको द्रव्यनय कहते हैं । प्रकारान्तरसे धमविवक्षावश लोकव्यवहारके साधक, हेतुसे उत्पन्न श्रुतज्ञानके विकल्प४५८ : तीकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
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को नय कहा जाता है ।" शानीका जो विकल्प वस्तुके एक अंशको ग्रहण करता है वह भी नय कहलाता है । यह नयव्यवस्था प्रमाण में हो होता है, अप्रमाण में नहीं । दूसरी बात यह है कि नय हमेशा प्रमाणका मंशरूप ही रहता है, पूर्ण रूप नहीं । यदि अप्रमाण में नयव्यवस्था मान ली जाय तो किसी भी वस्तुको सिद्धि सम्भव नहीं है और सर्वत्र अव्यवस्था या अनवस्था उपस्थित हो जायगी । प्रमाणके विषयभूत स्व और पदार्थ के अंशका जिसके द्वारा निर्णय किया आय यह कहलाता है।
" नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः" अर्थात् जिसके द्वारा श्रुतज्ञानरूप प्रमाणके विषयभूत पदार्थ के अंशका ज्ञान किया जाय, वह नय कहलाता है । नयका उद्भव श्रुतज्ञानसे होता है । यह एक सायंक दृष्टिकोण है । इसका प्रयोग करनेके लिए वक्ता स्वतन्त्र है, पर अनुबन्ध इतना ही है कि वक्ता एक समयमें एक ही सुनिश्चित दृष्टिका सुनिश्चित अर्थ में प्रयोग करे । नय विरोधको शान्त करता है। निरपेक्ष नयको मिथ्या और सापेक्ष नयको अर्थकृत् माना जाता है ।
वस्तु-अधिगमके उपायोंमें प्रमाणके साथ नयका भी निर्देश पाया जाता है | प्रमाण वस्तुके पूर्ण रूपको ग्रहण करता है और नय प्रमाणके द्वारा गृहीत एक अंशको प्रमाण समप्रभावसे ग्रहण करता है और नय अंशरूपसे । यथा" अयं घट: " इस ज्ञानमें प्रमाण घटको अखण्ड भावसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आदि अनन्त गुण-धर्मका विभाग न करके पूर्णरूपमें जानता है, पर नयके कथनानुसार 'रूपवान् घटः' 'रसवान् घटः' आदि एक-एक गुणधर्मानुसार वस्तुका निरूपण किया जाता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रमाण और नय दोनों ही ज्ञानवृत्तियाँ हैं। दोनों ज्ञानात्मक पर्यायें हैं । जब शाताकी सकल ग्रहणकी दृष्टि होती है, तब ज्ञान प्रमाण होता है और जब उसी प्रमाणसे ग्रहीत वस्तुको खण्डशः ग्रहण करनेकी दृष्टि रहती है, तब अंशग्राही नय कहलाता हैं। प्रमाणज्ञान नयको उत्पत्तिके लिए भूमिका तैयार करता है । सारांशतः सकलग्राही ज्ञान प्रमाण और अंशग्राही विकल्पज्ञान नय है। अखण्ड भाव से ग्रहण करना प्रमाणको सीमामें समाविष्ट है और खण्डभावसे ग्रहण करना नयकी सीमा के अन्तर्गत है । इसीसे प्रमाणको सकलादेशी और नयको विकलादेशी भी कहा गया है ।
१. लोवाणं वबहारं श्रमविवक्खा जो पसादि । सुणाणस्स वियोसावि लिंगसंभूदां ॥ २. 'स्वाथैकदेश निणीतिलक्षणों हि नयः स्मृतः ।
स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा. - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १०६/४. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४५९
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सुनय एवं सुर्नय
नय भी विषय विवेचनकी दृष्टिसे सम्यक् और मिथ्यारूपमें विभक्त हैं । जो नय अनेकान्तात्मक वस्तुके किसी धर्मविशेषको सापेक्षिकरूपसे ग्रहण करता है वह सुनय कहलाता है । सुनय अनेकान्तात्मक वस्तुके किसी विशेष अंशको मुख्यभावसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंका निराकरण नहीं करता । उनकी ओर तटस्थभाव रखता है । यतः अनन्तधर्मा वस्तुमें सभी नयोंका समान अधिकार है । सुनय वही कहा जाता है जो अपने अंशको मुख्यरूपसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंको गौण तो करे, पर उनका निराकरण न करे और उनके अस्तित्वको स्वीकार करे। जो नय दूसरे धर्मोका निराकरण करता है और अपना ही अधिकार प्रतिष्ठित करता है, वह दुर्नय है । प्रमाणमें पूर्ण वस्तु आती है । नय एक अंशको मुख्यरूपसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंको गौल करता है । पर उनकी अपेक्षा रखता है, तिरस्कार नहीं करता । पर दुर्नय अन्य निरपेक्ष होकर अन्यका निराकरण करता है। प्रमाण तत्-अतत् सत्और असत् सभीको ग्रहण करता है, किन्तु नय स्यात्, सतु रूपमें सापेक्ष ग्रहण करता है । दुर्नय स्यात्का तिरस्कार र निश्पेन है।
जो अपने पक्षका आग्रह करते हैं, वे सभी नय मिथ्या हैं, क्योंकि इनके द्वारा परका निषेध होता है । पर जब ये ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्वके सद्भाववाले हो जाते हैं ।" जिस प्रकार मणिमाँ एक सूतमें पिरोये जानेपर रत्नावली या रस्नाहार बन जाती हैं उसी प्रकार सभी नय सापेक्ष होकर सम्यक हो जाते हैं और सुनय कहलाते हैं। निरपेक्ष रहनेपर नयोंको दुर्नय कहा जाता है ।
जितने वचनविकल्प हैं, उतने हो नय हैं। जो वचनविकल्परूपो नय परस्पर सम्बद्ध होकर स्वविषयका प्रतिपादन करते हैं, वे स्वसमयप्रज्ञापनासम्यक् कथन हैं और जो अन्यनिरपेक्षवृत्ति हैं व अन्य धर्मोक व्याघातक होनेसे दुर्नय या मिथ्या नय है ।
१. सम्हा सक्ने वि गया मिच्छादिट्ठी सपक्खपबिदा |
अपणोष्णणितिभा उण हर्षान्ति सम्मत्त सम्भावा ॥ सन्मतिसूत्र १।२१.
२. जावश्या वयणवहा सावइया वेव होंति नयवाया ।
जावया जयवाया तावइया वेव परसमय। ॥ ३. जो वणिजवियप्पा संज्जन्तेसु होम्ति एएसु । सा समग्रपण्णवण्णा वित्थय राऽऽसागणा अण्णा ॥
४६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
- वहीं सूत्र ३२४७.
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वही, सूत्र १५३.
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सारांश यह है कि प्रत्येक नय अपने-अपने विषयको ही ग्रहण करते हैं । उनका प्रयोजन अपनेसे भिन्न दूसरे नयके विषयका निराकरण करना नहीं, किन्तु गौण - प्रधानभावसे ये परस्परसापेक्ष होकर ही सम्यक् होते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक तन्तु स्वतन्त्र रहकर पटकार्यको करनेमें असमर्थ है, किन्तु जन तन्तुओं के मिल जानेपर पटकार्यको उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार प्रत्येक नय स्वतन्त्र रहकर अपने कार्यको उत्पन्न करनेमें असमर्थ है, परन्तु परस्परसापेक्षभावसे ये नय सम्यक्ज्ञानकी उत्पत्ति करते हैं। नयके बिना मनुष्यको स्याद्वादकी प्रतिपत्ति नहीं होती। अतः जो एकान्तके आग्रह से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें नयद्वारा वस्तुज्ञानमें प्रवृत्त होना चाहिए ।
नयभेद
वस्तु सामान्यविशेषात्मक है । जो वस्तुमें सामान्य धर्मको मुख्यता से ग्रहण करता है, विशेष धर्मको गौण करता है, वह द्रव्यार्थिक नम है। इसके विपरीत जो वस्तुके सामान्य स्वरूपको गौणकर विशेष स्वरूपको मुख्यतासे ग्रहण करता है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । द्रव्याधिकनय प्रमाणके विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक, एकानेकात्मक अर्थका विभाग करके पर्यायार्थिक नयके विषयभूत मेदको गौरीकारकर अपने विषयरूप द्रव्यको अभेदरूप व्यवहार करता है। अथवा द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिकनय है ।" द्रव्यार्थिकनयों में द्रव्य एवं पर्यायार्थिकनयों में पर्याय विषय है । द्रव्याथिकनकी दृष्टिसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य एक-एक हैं। जीव, पुद्गल और काल द्रव्य अनेक हैं ।
पर्यायार्थिक नयका आधार पर्याय है । यह पर्याय अर्थपर्याय हो. या व्यञ्जनपर्याय, स्थूलपर्याय हो या सूक्ष्मपर्याय, शुद्धपर्याय हो या अशुद्धपर्याय सभी पर्यायार्थिक नयके विषय है । यद्यपि पर्यायें सादि सान्ब ही होती हैं। पर अनेक पर्यायोंके समूहरूप व्यञ्जनपर्यायकी अपेक्षा पर्यायोंके अनेक भेद किये जा सकते हैं। इनमें अनादि पर्याय तो पुद्गल द्रव्यकी वह व्यञ्जनपर्याय है, जो सूक्ष्मरूपसे परिणमनशील रहनेपर भी बाह्यमें सदा ज्यों-की-त्यों दिखलाई
१. द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिकः ।
पर्यार्थः प्रयोजनमस्येत्यसो पर्यायार्थिकः ॥
सर्वार्थसिद्धि १ ६.
२. पर्यायों विशेशेऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विषयः पर्यायार्थिकः ।
- सर्वार्थसिद्धि १-३३.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४६१
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पड़ती है । यद्यपि इस स्थूलपर्यायमें भी प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है। पर अनादिसे अनन्स तक उसकी एक ही धारा बनी रहती है। इसी कारण यह अनादि-अनन्तपर्याय कहलाती है। अकृत्रिम स्कन्धरूप सुमेरु, चन्द्र, सूर्य आदि रूपमें इस पर्यायकी धारा देखी जा सकती है।
अनादि-सान्तपर्याय जीयके औदयिकमावको कहा जाता है, क्योंकि प्रत्येक प्राणो अनादिकालसे अशान्त है। वह कब सर्वप्रथम अशान्त या अशुद्ध हुआ था, यह कहना असम्भव है जोवको अशुद्धसाकी आदिका पता लगाना असम्भव होने के कारण वह अनादि है। यदि जीव भव्य है तो किसी-न-किसी दिन इस अशुद्धताका अन्त करके शुद्ध और शान्स हो सकता है। ऐसे जीवको अशुद्धताका अन्त दिखलाई पड़ता है । अतः वह सान्त है। इस तरह साधारण संसारी जीवको अशुद्धता औदयिकभावजन्य होनेके कारण अनादि-सान्त है पुद्गलकी अनादि-सान्त कोई पर्याय प्रतिभासित नहीं होती; स्योंकि परमाणु पृथक् हो-होकर पुनः पुनः बन्धको प्राप्त होता रहता है। सादि-अनन्तपर्याय क्षायिकभावजन्य है, जो उत्पन्न होनेके पश्चात् पुनः नष्ट नहीं होती, यथा सिद्ध परमेष्ठीको पूर्ण शुद्धपर्याय किसी विशेष समयमें उनके तपश्चरण आदिके द्वारा प्रादुर्भूत तो अवश्य हुई थी, पर उसका विनाश कभी नहीं होता । अर्थात् इस पर्यायका आदि हो । अन्त नहीं। इसीलिए महादि अनुपम है।
सादि-सान्सपर्याय दो प्रकारको होती हैं:-(१) क्षणभंगुर और (२) दीर्घकालतक स्थित रहनेवाली। क्षणभंगुरपर्याय प्रत्येक गुणके प्रतिक्षणके स्वाभाविक परिवर्तनमें घटित होती है। यह पर्याय केवलज्ञानगम्य है । इसे षट् गुणहानिद्धिरूप स्वभाविक क्षणिकपर्याय या सूक्ष्म-अर्थपर्याय भी कहते हैं । कुछ क्षणस्थायी पर्याय औपशमिकभावरूप है । यह पर्याय भी इतने कम समय स्थित रहती है कि स्थलशानी इसे ग्रहण नहीं कर पाते। पुद्गलमें भी यह पर्याय देखी जा सकती है। दीर्घकालस्थायी सादि-सान्तपर्याय भी दो प्रकारकी है:-(१) पूर्णअशुद्ध औयिकभावरूप, (२) शुद्धाशुद्धक्षायोपशमिकभावरूप ] क्षायोपशमिकभावके साथ औदयिकभावके रहनेसे ये पर्यायें सादिसान्त स्थितिको प्राप्त होती है। संक्षेपमें सादि-सान्त पर्याय औपशमिकभाव, क्षायोपमिकभाव और औदयिकभाव रूप होतो हैं । ___ ओपमिकभाव तो सादि-सान्त शुद्धभाव है। क्षायोपशमिकभाव सादिसान्त शुद्धाशुद्ध भाव हैं और औदयिकभाव सादि-सान्त अशुद्धभाव है। विचारकी दृष्टिसे पर्यायोंके निम्नलिखित भेद हैं:४६२ : तोयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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१. अनादि-नित्य-शुद्ध, २. सादि-नस्य-शुद्ध, ३. स्वभाव-अनित्थ-शुद्ध, ४. स्वभाव-अनित्य-अशुद्ध, ५, विभाव-नित्य-शुद्ध, ६. विभाव-अनित्य-अशुद्ध ।
यों तो वस्तुकी समस्त पर्याय सूक्ष्मदृष्टिसे सादि-सान्त ही होती है । परन्तु जिस प्रकार अर्थपर्यायकी अपेक्षा व्यञ्जनपर्याय अधिक समय तक रहती हई प्रतीत होती है उसी प्रकार वस्तुको कुछ व्यञ्जनपर्यायें भी ऐसी हैं जो अनादि नित्यरूपसे एक ही धाराके रूपमें प्रतीत होती हैं। सामान्यतः व्यंजनपर्याय कोई स्वतन्त्र पर्याय नहीं है किन्तु अनन्त अर्थपर्यायोंका सामूहिक फल है ।
पर्यायाथिक नय उपयुक्त सभी पर्यायोंको विषय करता है।
अभेदग्रहण करनेवालो दृष्टि माथिकना या दवादृष्टि कही जाती है। और भेदग्राहिणो दृष्टि पर्यायाथिकनय या पर्यायदृष्टि । अभेदका अर्थ सामान्य है और भेदका विशेष । वस्तुओं में अभेद और भेदको कल्पनाका आधार-ऊध्र्वता या तिर्यक सामान्य है। अभेदकी एक कल्पना तो एक अखण्ड मौलिक द्रव्य में अपनी द्रव्यशक्तिके कारण विवक्षित है जो द्रव्य या कवतासामान्य काही जाती है। इस कल्पनाश कालक्रमसे होनेवाली क्रमिकपर्यायोंमें ऊपर नीचे तक व्याप्त रहनेके कारण वस्तु कवतासामान्य कहलाती है ! क्रमिकपर्याय और सहभावी गुण व्याप्त रहते हैं। दूसरी अभेदकल्पना विभिन्न सत्तावाले अनेक द्रज्यों में संग्रहको दृष्टिसे की जातो है । इसमें सादृश्यको अपेक्षा रहनेसे सिर्यक् सामान्यका अस्तित्व रहता है । एक द्रव्यको पर्यायोंमें होनेवाली भेदकल्पना पर्यायविशेष कहलाती है और विभिन्न द्रव्योंमें प्रतीत होनेवाली दूसरी भेदकल्पना तिर्यक् कहलाती है। परमार्थतः प्रत्येक व्यगत अभेदको ग्रहण करने वाला नय द्रव्याधिक और प्रत्येक द्रव्यगतपर्यायभेदको ग्रहण करनेवाला नय पर्यायार्थिक कहलाता है। निश्चय और व्यवहारनय ___ आत्मसिद्धिमें प्रयोजनीय दो नय है:-(१) निश्चय आर (२) व्यवहार अथवा {१) पर्यायाथिक और (२) द्रव्यार्थिक | निश्चयनय आत्म-सिदिका हेतु है । निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारको अभूतार्थ कहा जाता है । व्यवहारनय अभूतार्थ होनेसे अभूत अर्थको प्रकाशित करता है और निश्चयनय शुद्ध होनेके कारण भूतार्थको प्रकाशित करता है । यहाँ अभूतार्थमें नञ् समास किया गया
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है और नत्र समास के दो अर्थ होते हैं: - पर्युदास और प्रसज्य पर्युदासपक्ष निषेधसूचक नियम होनेपर भी विधिके रूपमें उपस्थित होता है। यहाँ अभूतार्थमें 'अब्राह्मण' और 'अनुदरा कन्या के समान पर्युदास पक्ष है । अनुदरा कन्या उदरसे होन नहीं, अपितु लघु उदरवाली है, इसी प्रकार अभूतार्थ सर्वथा अभूतार्थं नहीं अपितु किञ्चित् अभूतार्थं है। जब निश्चयनय शुद्धात्माको मुख्यतासे विषय करता है, उस समय व्यवहारनय गोणरूपमें उपस्थित रहता है । यदि एक नयका व्यवहार करते समय दूसरी नयदृष्टिका सर्वधा परित्याग कर दिया जाय, तो नयज्ञान सुनयकोटिमें नहीं आ सकता है ।
निश्चयनयको प्रकृति अन्तर्मुखी अधिक और व्यवहारनयकी प्रकृति बहिमुखी होती है । निश्वयनय द्वारा बाहरसे भीतर की ओर देखना आरम्भ करता है अर्थात् शरीरसे आत्माको ओर उन्मुख होता है और व्यवहारनय द्वारा शरीरको ओर ही दृष्टि रहती है ।
वस्तुके एक अभिन्न और स्वाश्रित - परनिरपेक्ष परिणमनको जाननेवाला निश्चयनय है और अनेकरूप तथा पराश्रित - पर- सापेक्ष परिणमनको अवगत करनेवाला व्यवहारनय है । वस्तुतः गुणपर्यायोंसे अभिन्न आत्माको परिणसिके कथनको निश्चयtयका विषय माना जाता है और कर्मनिमित्तसे होनेवाली आत्माको परिणतिको व्यवहारनयका विषय कहा जाता है । निश्चयनय स्वभावको विषय करता है, विभावको नहीं। जो 'स्व' में 'स्व' के निमित्तसे होता है वह स्वभाव है, जैसे जीवके ज्ञानादि । और जो स्वमें परके निमित्तसे होते हैं वे विभाव हैं, जैसे जोव में क्रोधादि । निश्चयनय आत्मामें क्रोध मान-माया-लोभ आदि विकारोंको स्वीकृत नहीं करता। वे पुद्गलद्रव्य के निमित्तसे होते हैं, अतः पौद्गलिक कहे जाते हैं ।
परके निमित्तसे होनेवाले काम-क्रोधादि विकार भी कथचित् आत्मा के हैं अतः अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा इन विकारोंको भी आत्माकी विभावपरिणतिके रूपमें स्वीकार किया जाता है। निश्चय और व्यवहारनय में भूतार्थ और अभूतार्थकी कल्पना भी अपेक्षाकृत है। अर्थात् व्यवहारनय निश्चयनयकी अपेक्षा अभूतार्थ हैं, स्वरूप और स्वप्रयोजनकी अपेक्षासे नहीं । यदि व्यवहारको सर्वथा अभूतार्थ माना जाय तो वस्तुव्यवस्था घटित नहीं हो सकेगी ।
चिन्तकका अभिमत है कि जिस प्रकार म्लेच्छों को समझानेके लिये म्लेच्छ भाषाका प्रयोग करना उचित होता है, उसी प्रकार व्यवहारी जीवोंको परमार्थका प्रतिपादक होनेसे तीर्थको प्रवृत्तिके निमित्त अपरमार्थ होनेपर भी व्यवहारनयका अभूतार्थ बतलाना न्यायसंगत है । अर्थात् व्यवहारतय सर्वथा असत्य ४६४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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नहीं है । यह भी सत्यके निकट पहुंचानेवाला है, अत: उसके आलम्बनसे पदार्थका प्रतिपादन करना उचित है । अन्यथा व्यवहारके बिना निश्चयनयसे जीव शरीरसे सर्वथा भिन्न दिखलाया गया है । इस अवस्था में जिस प्रकार भस्मका उपमर्दन करनेसे हिंसा नहीं होती, उसी प्रकार स स्थावर जीवोंका निःशंक उपमर्दन करने से हिंसा नहीं होगी और हिसाके न होनेसे बन्धका अभाव हो जायगा | इसके अतिरिक्त रागी, द्वेषी और मोही जीव बन्धको प्राप्त होता है, अतः उसे ऐसा उपदेश दिया गया है, जिससे वह राग-द्वेष और मोहसे छुटकारा पा ले । अर्थात् जो आचार्योंने मोक्षका उपाय बतलाया वह व्यर्थ हो जायगा; क्योंकि परमार्थसे जीव राग-द्वेष-गो अन्न ही दिया है.
जब आत्मा सर्वथा शरोरसे भिन्न है तब मोक्षके उपाय स्वीकार करना असंगत होगा और इस प्रकार मोक्षका भी अभाव हो जायगा ।"
आशय यह है कि निश्चय और व्यवहार ये दोनों ही नथ पात्रभेदकी दृष्टिसे प्रतिपादित हैं। एक हो नयका माश्रय लेनेसे समस्त पात्रोंका कल्याण नहीं हो सकता । जो परमभावको अवगत करनेवाला है, उसके लिये शुद्ध तत्त्वका कथन करनेवाला निश्चयनय ग्राह्य है और जो अपरमभावमें स्थित हैं, उनके लिये व्यवहारनय । निश्चय और व्यवहार ये दोनों ही अपनी-अपनी दृष्टिसे पदार्थ-स्वरूपके बोधक हैं। जो जीव यथार्थ रूपसे निश्चय और व्यवहारको अवगत कर एकान्तपक्षका त्याग करता है और मध्यस्थवृत्ति गृहण करता है वही आत्म-स्वरूपको समझता है ।
जो जीव स्वयं मोह्का वमनकर निश्चय और व्यवहारके विरोधको ध्वस्त करनेवाले 'स्यात्' पदसे चिह्नित नयवचनोंका अनुसरण करता है, वह परम ज्योतिस्वरूप आत्माको अवगत कर लेता है । वस्तुस्वरूपका परिज्ञान प्राप्त
व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेष म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकस्या दपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् सस्थावराणां भस्मन इष निःशंकमुपमर्दनेन हिसाऽभावाद्भयत्येव बन्धस्यामात्रः । तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो वध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेदवर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येवमोक्षस्याभाव: ।
२. समयसार गाथा १२.
३०
समयसार गाथा ४: अमृतचन्द्राचार्यकी टीका.
,
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ४६५
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+ मद है।
करने के लिये दोनों नयोंका अवलम्बन आवश्यक है। आत्मप्रशा या आस्पानुमत्तिके समय व्यवहार नयका अवलम्बन हेय है। पर वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उभयनयोंका आलम्बन आवश्यक है। नयाँ बन्य भेष-प्रभेव
द्रव्याथिक और पर्यायाधिक इन मूलनयोंके दो-दो भेद है:-१. अध्यात्मद्रव्याथिक, २. शास्त्रीयद्रव्यार्थिक, ३. अध्यात्मपर्यायार्थिक, ४. शास्त्रीयपर्यायाधिक।
इनमें से अध्यात्मद्रव्याथिकके दश भेद हैं और अध्यात्मपर्यायाथिकके छह भेद हैं । शास्त्रीयद्रव्यार्थिकके मूलतः तीन भेद हैं और उपभेदोंकी अपेक्षा सात भेद हैं। तीन भेदोंमें नेगम, संग्रह और व्यवहार हैं। नैगमके तीन भेद, संग्रहके दो भेद और व्यवहारके दो भेद इस प्रकार ३ +२+२=७ मेद हैं । शास्त्रीयपर्यायाथिकके चार भेद हैं:-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद और एवंभूत । इनमें ऋजुसूत्र नयके दो भेद हैं और शेष नयोंमें कोई उपभेद नहीं है। इस प्रकार शास्त्रीयपर्यायाथिकके २+३.१. १०५ मेर। इस तरह शास्त्रीयनयके ७+५- १२ और अध्यात्मके १०+६ - १६ कुल १६ + १२ - २८ निश्चयनयके भेद हैं। ___ व्यवहारनयके मूलतः तीन भेद हैं:-१. सद्भूत, २. असद्भूत, ३. उपचरित । इनमें सद्भूतके दो, असद्भूतके तीन और उपचरितके तीन इस प्रकार व्यवहारनपके कुल आठ भेद हैं।
निश्चय २८ + व्यवहारनय ८-३६ नयके समस्त भेद हैं ।
१. कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्याथिक-कर्मबन्धसंयक्त संसारी जीवको शक्तिकी अपेक्षा सिद्धसमान शुद्ध ग्रहण करना ।
२. सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिक-उत्पाद-व्ययको गौणकर केवल सत्ताको ग्रहण करना।
३. भेदविकल्पनिरपेक्षशुद्धद्रव्याथिक--गुण-गुणो और पर्याय पर्यायीमें भेद न कर द्रव्यको गुण-पर्यायसे अभिन्न ग्रहण करता 1
४. कर्मोपाघिसापेक्षअशुद्धद्रव्यार्थिक-जीवमें क्रोधादिभावोंका ग्रहण करना।
५. शत्ताग्राहक अशुद्धद्रव्याथिक-उत्पादव्ययमिश्रित सत्ताको ग्रहण करना।
६. भेदकल्पनासापेक्षअशुद्धद्रव्यार्थिक-द्रव्यको गुण-गुणो आदि भेद सहित ग्रहण करना ।
७. अन्वयद्रष्याथिक-समस्त मुण-पर्यायोंमें द्रव्यको अन्वयरूप ग्रहण करना ४६६ : तोचकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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८. स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्याथिक – स्वद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षासे द्रव्यके सत्स्वरूपको ग्रहण करना ।
९. परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिक-पर-द्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षासे द्रव्यको असत्स्वरूप ग्रहण करना
१०. परमभावग्राहीद्रव्यार्थिक - अशुद्ध शुद्धोपचाररहित द्रव्य के परम स्वभावको ग्रहण करना
११. अनादिनित्य पर्यायायिक--- अनादिनिधनपर्यायोंको ग्रहण करना १२. सादिनित्यपर्यायार्थिक – कर्मक्षय से उत्पन्न अविनाशी पर्यायको ग्रहण
करना |
१३. अनित्यशुद्धपर्यायार्थिक सत्ताको गौणकर उत्पाद-व्यय स्वभावको ग्रहण करना |
१४. अनित्य- अशुद्धपर्यायार्थिक- पर्यायको एक समय में उत्पाद व्यय और प्रौव्यस्वभावयुक्त ग्रहण करना ।
१५. कर्मोपाधिनिरपेक्ष- अनित्य- अशुद्धपर्यायायिक संसारी जीवोंकी पर्यायको सिद्धसदृश शुद्धपर्याय ग्रहण करना ।
MANY
१६. कर्मोपाषिसापेक्ष अनिरय अशुद्धपर्यावधिक-संसारी जीयोंकी चतु सम्बन्धी अनित्य- अशुद्ध पर्यायको ग्रहण करना ।
१७. भूतनैगम -- असीत में वर्तमानका आरोप करना । १८. भाविनैगम भावो में भूतवत् कथन करना ।
१९. वर्त्तमाननंगम -- प्रारम्भ हुए कार्यको तैयार हुआ कथन करना । २०. सामान्यसंग्रह - सत्सामान्यको अपेक्षा समस्त द्रव्योंको एकरूपमें ग्रहण
करना ।
२१. विशेषसंग्रह - जातिविशेषकी अपेक्षासे अनेक पर्यायोंको एकरूपमें ग्रहण करना |
२२. शुद्धव्यवहार -- सामान्य संग्रहनयके विषयको भेदरूपमें ग्रहण करना | २३. अशुद्धव्यवहार - विशेषसंग्रह के विषयको भेदरूपमें ग्रहण करना | २४. सूक्ष्मऋजुसूत्र - एकसमयवर्ती सूक्ष्म अर्थपर्यायको ग्रहण करना । २५. स्थूलसूत्र - अनेकसमयवर्ती स्थूल पर्यायको ग्रहण करना ।
२६. शब्दनय - लिङ्ग, संख्या, साधन आदिके व्यभिचारको दूर करनेवाले ज्ञान और वचनको ग्रहण करना ।
२७. समभिरूढ़ --- शब्दके अनेक वाक्योंमेंसे किसी एक मुख्य वाच्यको ग्रहण
करना ।
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ४६७
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२८. एवभूत- जिस क्रियाका वाचक जो शब्द है उस क्रियारूप परिणत पदार्थको ग्रहण करना ।
२९. सभूतव्यवहार--- पदार्थ में गुण गुणीको भेदरूपसे ग्रहण करना । ३०. उपचरितसद्भूतव्यवहार-सोपाधिक गुण - मुणीको भेदरूपसे ग्रहण
करना ।
३१. अनुपचरितसद्भूतव्यवहार- निरुपाधिक गुण-गुगोको भेदरूप ग्रहण
करना !
३२. असद्भूतव्यवहार-भित्र पदार्थोंको अभेदरूप ग्रहण करना । ३३. उपचरितासमूतव्यवहार-संश्लेषरहित वस्तुको अभेदरूपण करना ।
३४. अनुपचरिताद्भूतव्यवहार-संश्लेषमहित वस्तुको अभेदरूप ग्रहण
करना ।"
आध्यातिमा कोट लन्द
आत्मा शुद्ध स्वरूपकी प्रतीति, अनुभूति और प्राप्ति में सहायक, (१) शुद्धनिश्चय, (२) अशुद्धनिश्चय, (३) उपचरितसद्भूतव्यवहार, (४) अनुपचरितसद्भूतव्यबहार, (५) उपचरितासभूतव्यवहार और ( ६ ) अनुपचरितासभूतव्यवहार नय हैं ! इन नयों द्वारा वस्तुको जानकारीसे 'स्व' का ग्रहण और 'पर'का त्याग होता है ।
मूलतयोंकी मान्यताके सम्बन्धमें विवाद है। किसी चिन्तकके मतसे मूलनय पाँच, किसीके मतसे छः और किसीके मत से सात हैं। वस्तुतः विविध दृष्टिकोणोंके आधारपर नयोंके असंख्यात भी भेद संभव है । प्रत्येक नय एक नया दृष्टिकोण उपस्थित करता है और यह दृष्टिकोण अपने में समीचीन होता है। मूल नय सात हैं:
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१. गैंगमनय
संकल्पमात्रके ग्राहकको नंगमनय कहा जाता है । यह शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आकार और आधेय आदिके आश्रयसे उपचारको विषय करता है । यथा - 'अश्वत्थामा हतो नरो वा कुरो वा वाक्यमें अश्वत्थामा नामक हाथोके मारे जानेपर अन्य व्यक्तिको भ्रम उत्पन्न करनेके हेतु अश्वत्थामा
१. मयोंको विशेष जानकारीके लिए देखिए - नयचक्र, आलापपद्धति और जेनसिदान्तदर्पण |
४६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी कषायं परम्परा
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शब्दका अश्वत्थामा नामक पुरुषमें उपचार किया गया है। इसी प्रकार शोलके निनित्तसे किसी मनुष्यको क्रोधी देखकर 'सिंह' कहना शोलोपचार है । राक्षसकर्म करते हुए देखकर किसीको राक्षस कहना; अन्नका प्राणवारणरूप कार्य देखकर अन्नको प्राण कहना; स्वर्णहारको कारणको मुख्यतासे स्वर्ण कहना; किसीको उच्चस्थानपर बेठनेके लिए मिल जानेपर उसे राजा कहना और किसीके ओजस्वी भाषणको सुनकर व्यासपीठका गर्जन कहना नैगमनय है।
संक्षेपमें जो भूत और भविष्यत् पर्यायोंमें वर्तमानका संकल्प करता है या वर्तमान में जो पर्याय पूर्ण नहीं हुई, उसे पूर्ण मानसा है, उस ज्ञान या वचनको नंगमनय कहते हैं । यथा--कोई व्यक्ति पानी भरकर चौकेमें लकड़ी डाल रहा है । उससे कोई पूछता है, क्या करते हो ? वह उत्तर देता है-भात बनाता हूँ। यद्यपि उस समय भात नहीं है, किन्तु भात बनानेका संकल्प किया। यह संकल्प हो नैगमनय है।
नंगमनयके पर्यायनगम, द्रव्यनगम और द्रव्यपर्यायनगम ये तीन भेद हैं। पर्यायनगमके तीन भेद हैं:-(१) अर्थपर्यायनेगम, (२) व्यञ्जनपर्यायनगम और (३) अर्थव्यजनपर्यायनेगम । द्रव्यनगमके दो भेद है:-(१) शुद्धद्रव्यनगम और (२) अशखदव्यनगम । द्रव्यपर्यायनगमके चार भेद हैं:-शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनेगम, (३) अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगम और १४) अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम | २. संग्रह
अपनी जातिका विरोध न करके समस्त विशेषोंको एक रूपसे ग्रहण करनेवाला संग्रहह्नय है । संग्रहनयके दो भेद हैं:-(१) परसंग्रह और (२) अपरसंग्रह । समस्त विशेषोंमें सदा उदासीन रहनेवाला परसंग्रह सम्मात्र शदव्यका ग्राहक है, यथा सत्सामान्यकी अपेक्षा विश्व अद्वैतरूप है, पर जो विशेषोंका निराकरणाकर सत्ताद्वैतको मान्य करता है, वह परसंग्रहाभास है । सरसामान्यके अवान्तरभेदोंको एकरूपसे संग्रह करनेवाला अपरसंग्रह है। यथा-द्रव्यत्वकी अपेक्षा सब द्रव्य एक है और पर्यायत्वको अपेक्षा सब पर्याय एक हैं ।
३: ज्यवाहारनम ___ संग्रहनयके द्वारा गृहीत अर्थो का विधिपूर्वक विभाग करनेवाले अभिप्रायको व्यवहारनय कहते हैं। संग्रहनय समस्त पदार्थो को सत् रूपसे ग्रहण करता है और व्यवहारनय उसका विभाग करता है, जो सत् है, वह द्रव्य और पर्यायरूप है। जिस प्रकार संग्रहनयमें संग्रहकी अपेक्षा रहती है, उसी प्रकार
तीर्थकर महावीर और उनकी वेदाना : ४६९
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व्यवहारनयमें विभागीकरणकी। पदार्थोके विधिपूर्वक विभाग करने रूप जितने विचार पाये जाते हैं, वे सब व्यवहारनयको श्रेणीमें परिगणित' हैं । ४. ऋजुसूत्रनय ___ यह नय भूत और भावी पर्यायोंको छोड़कर वर्तमान पर्यायको ही ग्रहण करता है । यह ज्ञातव्य है कि एक पर्याय एक समय तक ही रहती है, उस एक समयवर्ती पर्यायको अर्थपर्याय कहते हैं । यह अर्थपर्याय सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयका विषय है। व्यवहारमें एक स्थूलपर्याय दीर्घकाल तक बनी रहती है। यथा मनुष्यपर्याय आयुके अन्स तक रहती है । स्थूलपर्यायको ग्रहण करनेवाला ज्ञान और वचन स्थूल ऋजुसूत्रनय कहा जाता है।
ऋजुसूत्रनय नित्य द्रव्यको गौणकर क्षणवर्ती पर्यायको प्रधानतासे ग्रहण करता है। ५. शबनय
लिङ्ग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपसर्ग आदिके भेदसे अर्थको भेद रूप ग्रहण करनेवाला शब्दनय होता है। शन्दकी प्रधानताके कारण इसे शब्दनय कहते हैं । भिन्न-भिन्न लिङ्गवाले शब्दोंका एक ही वाच्य मानना लिङ्गव्याभिचार है। यह नय मानता है कि जब ये सब अलग-अलग हैं तब इनके द्वारा कहा जानेवाला अर्थ भी पृथक-पृथक् हो होना चाहिए । इसी कारण कियाभेदसे भी अर्थभेद माना जाता है । यथा-'देवदत्त घटको करता है' और 'देवदत्त द्वारा घट किया जाता है' इन दोनों वाक्यों में कर्तृवाच्य और कमंघाच्यका भेद होनेपर लौकिक व्यवहारको दृष्टिसे एकार्यता मानी जाती है; पर इस नयकी दृष्टिसे यह ठीक नहीं है, क्योंकि वाक्यभेदसे वाक्यार्थमें भेद होता है । ६. समभिनय
लिङ्ग आदिका भेद न होनेपर भी शब्दभेदसे अर्थका भेद माननेवाला समभिरूढनय है । जहाँ शब्दनय शन्दभेबसे अर्थभेद नहीं मानता, वहाँ यह नय शब्दभेद द्वारा अर्थभेद स्वीकार करता है। यथा-इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये सोनों शब्द स्वर्गके स्वामी इन्द्रके वाचक हैं और एक हो लिङ्गके हैं; किन्तु ये तीनों शब्द उस इन्द्र के भिन्न-भिन्न धर्मोको कहते हैं । जब आनन्द करता है तो इन्द्र कहा जाता है, शक्तिशाली होनेसे शक और पुरों-गरोंको नष्ट करनेवाला होनेसे पुरन्दर कहलाता है । इस प्रकार यह नय पर्यायभेदसे शब्दके भिन्न अर्थ मानता है। ४४० : तीर्षकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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७. एवंभूतनय
जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ है, वह क्रिया जब हो रही हो तभी उस पदार्थको ग्रहण करनेवाला वचन और ज्ञान एवं भूतन कहलाता है। समाभरूढ़ नय जहाँ शब्दभेदके अनुसार अर्थभेद करता है, वहाँ एवंभूतनय व्युत्पत्यर्थके घटित होनेपर हो शब्दभेदके अनुसार अर्थभेद करता है। यह मानता है कि जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ है । तद्रूप क्रियासे परिणत समय में ही उस शब्दका वह अर्थ हो सकता है, अन्य समयमें नहीं । यथा-पूजा करते समय ही पुजारी कहना, अन्य समयमें उस व्यक्तिको पुजारी न कहना एवंभूतका विषय है ।
ये सातों नय परस्पर सापेक्षा अवस्थामें ही सम्यक् माने जाते हैं, निरपेक्ष अवस्थाम दुर्नय । इनमें नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थनय कहलाते हैं और शेष तीन शब्दनय । इन नयोंका उत्तरोत्तर अल्पविषय होता गया है। इन नयोंमें प्रारंभके तोन द्रव्याथिक हैं और शेष चार पर्यायाथिक हैं।
स्थाहाव
स्यावादशब्दकी निष्पत्ति 'स्यात्' और 'वाद' इन दो पदोंके योगसे हुई है । 'स्यात्' विधिलिङ्में बना हुआ तिष्ठन्त प्रतिरूपक निपात है। इसमें महान् उद्देश्य और वाचक शक्ति निहित है। इसे सत्य का चिह्न या प्रतीक कहा गया है। साथ ही इसे सुनिश्चित दृष्टिकोणका वाचक माना गया है। शब्दका यह स्वभाव है कि वह किसी निश्चित अर्थका अवधारण कर अन्यका प्रतिषेध करे, किन्तु 'स्थात् अन्यके प्रतिषेधपर अंकुश लगाता है। शब्द स्वार्थका प्रतिपादन तो करता ही है, पर शेषका निषेध भी कर देता है, जिससे वस्तुस्थितिका चित्राङ्कन नहीं हो पाता। 'स्यात्' शब्द इसी निरंकुशताको रोकता है, और न्याय्यवचनपद्धतिकी सूचना देता है ।
यह निपात है और निपात द्योतक एवं वाचक दोनों प्रकारके होते हैं। अतः 'स्यात्' शब्द अनेकान्त सामान्यका वाचक होता है और जब यह अनेकान्तका द्योतन' करता है, तब 'अस्ति' आदि पदोंके प्रयोगसे जिन अस्तिस्व आदि धोका प्रतिपादन किया जा जाता है, वह अनेकान्तरूप है; यह घोसित होता है। संक्षेपमें स्यावादका अयं 'कथञ्चित् कथन करना है। वस्तुके वास्तविक रूपको प्राप्ति स्याद्वाद द्वारा ही होती है।
स्यावाद सुनय निरूपण करनेवाली विशिष्ट भाषापद्धत्ति है। यह निश्चित रूपसे बतलाता है कि यस्तु केवल इसी धर्मवाली नहीं है, किन्तु इसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी समाहित हैं । यथा-"स्यात् रूपवान् घट:" कहनेपर यह अर्थ
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निकलता है कि समस्त घड़ेपर रूपका ही अधिकार नहीं है, अपितु घड़ा बहुत बड़ा है, उसमें अनन्त धर्म हैं। रूप भो उन अनन्त धर्मों से एक है। रूपकी विवक्षा होनेसे अभी रूप हमारी दृष्टिमें मुख्य है और वही शब्द द्वारा वाच्य बन रहा है, पर रसकी विवक्षा होनेपर रूप गौणराशिमें सम्मिलित हो सकता है और रस प्रधान बरु जाता है । इस हा शन्द ग गुम्यमत्रसे अनेकान्त अथके प्रतिपादक हैं। इसी सत्यका उद्घाटन 'स्यात्' शब्द करता है।
वस्तुतः 'स्यात्' शब्द एक सजग प्रहरी है, जो कहे जानेवाले धर्मको इधरउबर नहीं जाने देता। वह अविवक्षित धर्मों के अधिकारका संरक्षक है। अतः इस शब्दका अर्थ शायद सम्भावना या कदाचित् नहीं है। 'स्यादस्ति घट:' वाक्यमें अस्तिपदका वाच्य अस्तित्व' अंश घटमें सुनिश्चिरूपसे वर्तमान है। 'स्यात् शब्द उस अस्तित्वको सुदृढ़ स्थितिका सूचक है और नास्तित्व आदि सहयोगी धोका मौन स्वीकर्ता है, यह स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी दृष्टिसे जिस प्रकार घटमें निवास करता है उसी प्रकार परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिको अपेक्षासे उसका भाई नास्तित्व धर्म भी रहता है। वस्तु में रहनेवाले अनन्तधोंमेंसे 'स्यात' शब्द किसी एक धर्मको ओर मुख्यरूपसे इंगितकर अवशेष धर्मोंके सद्भावकी सूचना देता है।
सत्यका दर्शन स्याद्वादको भूमिपर हो हो सकता है । यह अपेक्षाविशेषसे अन्य अपेक्षाओंको निराकृस न करते हुए वस्तुका प्रतिपादन करता है।
जब हम किसी वस्तुको 'सत्' कहते हैं उस समय उस वस्तुके स्वरूपको अपेक्षासे ही उसे 'सत्' कहा जाता है । अपनेसे भिन्न अन्यवस्तुके स्वरूपको अपेक्षासे प्रत्येक वस्तु 'असत् है । 'सत्' और 'असत्' सापेक्षिक हैं। जिस अपेक्षासे वस्तु 'सत्' है उस उपेक्षासे 'असत् नहीं है और जिस अपेक्षासे 'असत् है उस अपेक्षासे 'सत्' नहीं है । वस्तुमें अनेकधर्मता विद्यमान है। वक्ता जिस धर्मका कथन करनेको विवक्षा करता है, उस धर्मका वह किसी दष्टिविशेषसे प्रतिपादन कर देता है । एक ही दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु विवेच्य नहीं हो सकती है ।
वस्तुतः प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है । उसमें अनेक धर्मगुण-स्वभाव और अंश विद्यमान हैं । जो व्यक्ति किसी भी वस्तुको एक ओरसे देखता है उसकी दष्टि एक धर्म या गुणपर हो पड़ती है। अतः वह उसका सम्यकद्रष्टा नहीं कहा जा सकता। सम्यद्रष्टा होने के लिये उसे उस वस्तुको सब ओरसे देखना चाहिए और उसके धर्मो, अंशों और स्वभावोंपर दृष्टि डालनी चाहिए । सिक्केकी एक हो पीठिका देखनेवाला व्यक्ति सिक्केके यथार्थरूपसे निर्णय नहीं कर सकता है। पर जब उसको दृष्टि सिक्केकी दूसरी पीठिकापर पड़ती है, तो वह पूर्व पीठिका
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के स्वरूपका समन्वय किये बिना उसका यथार्थ निर्णायक नहीं माना जा
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जो व्यक्ति किसी वस्तुके एक ही अंश, धर्म अथवा गुण, स्वभावको देखकर उसे एक ही स्वरूप मानता है, दूसरे स्वरूपको स्वोकार नहीं करता, उस व्यक्तिकी एकान्त धारणा मानी जाती है । पर जब वही व्यक्ति अपनी दृष्टिको उदार बना लेता है और दूसरे पक्षका भी अवलोकन करने लगता है तो उसकी दृष्टि अनेकान्तात्मक हो जाती है ।
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इस बातके स्पष्टीकरण के लिये हाथी और जन्मान्ध व्यक्तियोंका उदाहरण लिया जा सकता है। एक वनमें एक हाथी निकला और जिन जन्मान्ध व्यक्तियोंने कभी हाथीका दर्शन नहीं किया था वे उसका दर्शन करनेके लिये गए । कुछ व्यक्तियोंने उस हाथी की सूँड़का स्पर्श किया, कुछने उसके पेटका स्पर्श किया, कुछने पूंछका स्पर्श किया, कुछने कानका पेश किया और कुछने परका स्पर्श किया। वे जब आपस में मिले तो हाथोंके स्वरूपको लेकर आपस में विवाद करने लगे । जिन्होंने हाथीके कानका स्पर्श किया ये कहने लगे कि हाथी सूपके समान होता है । जिन्होंने पूछका स्पर्श किया था ये कहने लगे हाथी झाडूके समान होता है। जिन्होंने सूँड़का स्पर्श किया था वे कहने लगे कि हाथी मूसलके समान होता है । जिन्होंने पेरका स्पर्श किया था के कहने लगे हाथी खम्भे के समान होता है। इस प्रकार अपनी-अपनी बातको लेकर वे सभी जन्मान्ध व्यक्ति आपसमें लड़ने अगड़ने लगे और एक दूसरेसे शत्रुता धारणकर ईर्ष्यालु बन गये । एक नेत्रवाला व्यक्ति वहीं आया और उसने उन लड़ते-झगड़ते हुए जन्मान्ध व्यक्तियोंको समझाया कि आप सभी लोगों का कहना आंशिक रूपमें सत्य है । जिन्होंने पूछका स्पर्श किया है वे शाके समान कहते हैं । कानका स्पर्श करनेवाले व्यक्ति हाथीको सूपके समान बलताले हैं। सूँड़का स्पर्श करनेवाले व्यक्ति हाथीको मूसलके समान और पैरका स्पर्श करनेवाले उसे खम्भे के समान कहते हैं वस्तुतः कान, नाक, पूछ और पैर आदि सभी अंगोंके सापेक्षिक मिला देनेपर हाथीका स्वरूप खड़ा हो सकता है। इसी प्रकार अनेक धर्मात्मक वस्तुके स्वरूपका निर्णय भी सापेक्षिक दृष्टियों द्वारा ही सम्भव है ।
सर्वथा एकान्तका त्यागकर अनेकान्तको स्वीकार कर ही वस्तुका कथन किया जा सकता है । वस्तु अनेक विरोधी धर्मोका समूहरूप है । इन अनेक धर्मोका निरूपण एक साथ सम्भव नहीं है, यतः अनेक धर्मोंको एक साथ जाना सो जा सकता है किन्तु एक शब्द एक समय में अनेक धर्मोका कथन नहीं कर सकता है । शब्दकी शक्ति वस्तुके एक ही धर्म-गुणके व्याख्यान तक सीमित
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है । दूसरी बात यह है कि शब्दको प्रवृत्ति बक्ताके अधीन है। वक्ता वस्तुक अनेक धर्मोसे किसी एक धर्मका मुख्यतासे व्यवहार करता है । यथा देवदत्तको एक ही समय में उसका पिता भी बुलाता है और पुत्र भी। पिता उसे पुत्र कहकर और पुत्र उसे पिता कहकर बुलाता है । देवदत्त यहां न केवल पिता हो है न केवल पुत्र ही, किन्तु वह पिता भी है और पुत्र भी । अतएव पिताको दष्टिसे देवदत्तका पुत्रत्व धर्मं मुख्य है और शेष धर्मं गौण है और पुत्रको दृष्टिसे देवदत्तमें पितृत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण है । क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुसे जिस धर्मको विवक्षा होती है वह धर्म या गुण मुख्य कहलाता है और इतर धर्म गौण । अतः वस्तु अनेकान्तात्मक है या अनन्तसहभावी गणों - और अनन्त क्रमभावी पायोका समूह है। वस्तुक. स्तुत्व इसने में ही परिसमाप्त नहीं होता, वह इससे भी विशाल है ।
स्पष्टता के लिये यों कहा जा सकता है कि घट सामने है । आँखोंसे घटका रूप और आकार दिखलाई पड़ता है। पर घट केवल रूप और आकारमात्र नहीं है । घटको ऊंचा उठानेपर या उसे इधर-उधर उठानेपर उसके अन्य धर्म- गुण प्रगट होते हैं । अतः घटका पूरा स्वरूप समझने के लिये किसी ऐसे तत्त्वज्ञानीकी शरण लेनी होगी जा घट में रहनेवाले रूप-रस-गन्ध और स्पर्श आदि स्थूल इन्द्रियोंसे प्रतीत होनेवाले तथा इन्द्रियोंसे प्रतीस न होनेवाले अनन्त गुणोंet freपण कर सके । घटमें अनन्त सहभावो गुणोंके साथ अनन्तकमभावी पर्यायें भी विद्यमान हैं । अतः सहभावो और क्रमभावी अनन्तगुणपर्यायके जान लेनेपर ही वस्तुका स्वरूप पूर्ण होता है। यही कारण है कि वस्तुमें अनेक विरोधी-सत्ता असता, निश्यता, अनित्यता, एकता, अनेकता प्रभृति विभिन्न गुणपर्याय विद्यमान हैं ।
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अनेकधर्मात्मक वस्तुको पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणोंसे समझना और विभिन्न दृष्टिकोणोंसे संगत होनेवाले किन्तु परस्पर विरुद्ध प्रसीत होनेवाले अनेक धर्मोको प्रामाणिक रूप से स्वीकार करना अनेकान्तवाद है । साधारणतः अनेकान्तसिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है । पर वास्तव में अनेकान्त सिद्धान्त व्यक्त करनेवाली सापेक्ष भाषापद्धति ही स्याद्वाद है ।
यह हमें ज्ञात है कि प्रत्येक वस्तुमें अनन्त धर्म विद्यमान है और उन समस्त धर्मोका अभिन्न समुदाय ही वस्तु है । इस वस्तुस्वरूपको व्यक्त करनेके लिये भाषा की आवश्यकता है। यह अनेकान्तकी भाषा ही स्याद्वाद है ।
भाषा शब्दोंसे बनती है और शब्द धातुमसे निष्पन्न हैं । एक धातु भले ४७४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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ही अनेकार्थक मानी जाय पर एक कालमें और एक ही प्रसंगमें वह अनेक अर्थों का द्योतन नहीं कर सकती। अत: पातुओंसे निष्पन्न शब्द भी एक ही गुणधर्मका बोध कराता है। ऐसा कोई एक शब्द नहीं, जो एक साथ अनेक धर्मों का प्रतिपादन कर सके । अतएव यह आवश्यक है कि बस्तुके अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मोका सापेक्षात्मक भाषा द्वारा कथन किया जाय ।
यह पूर्वमें ही बताया जा चुका है कि स्याद्वाद वस्तुमें रहनेवाले सापेक्षिक धोका दृष्टिभेदसे कथन करता है । 'स्यात्' शब्द धातुजनित न होकर अव्ययनिष्पन्न है। यह समस्त विरोधियों में समझौता कर हमें सम्पूर्ण सत्यको प्रतीति कराता है।
सप्तभङ्गी
वस्तुको अनेकान्तात्मकता और भाषाके निर्दोष प्रकार स्याद्वादक कथनके अनन्तर सप्तभङ्गीके स्वरूपपर विचार करना भी आवश्यक है | सातभङ्ग या वस्तुविचारको दृष्टियां मनान्तात्मक नुस्ताहाने विम्लेषण में आनायक हैं। एक वस्तुमें प्रश्नके चशसे प्रत्यक्ष और अनुमानसे अविरुद्ध विधि और निषेधको कल्पनाको सप्तमजी कहते हैं। ये सातभङ्ग निम्न प्रकार है :
१. विधि कल्पना। २. प्रतिषेध कल्पना। ३. क्रमसे विधि-प्रतिषेध कल्पना । ४. युगपत् विधि-प्रसिषेध कल्पना । ५. विधि कल्पना और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना । ६. प्रतिषेध कल्पना और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना । ७. क्रम और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना ।
इस प्रकार विशाल और उदारताकी दृष्टिसे वस्तुके विराट रूपको देखा और समझा जा सकता है। यों तो वस्तुमें अनन्तधर्म रहनेके कारण और एकएक धर्मके विधि-निषेधकी अपेक्षा अनन्तसप्तभंगियां सम्भय हैं। पर विधिनिषेधात्मक रूपमें सात विकल्प मप ही सम्भव हैं। ये सात ही भङ्ग क्यों होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वस्तुके सम्बन्ध में जिज्ञासा सात प्रकारको हाती
१. "प्रश्मवावेकस्मिन् बस्तुन्यविरोणेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी"
--नस्वार्थ राजवातिक, पृष्ठ १-६, पृष्ठ ३६. २. अष्टसहस्री (नाथारंग पाण्डुरंग) पृष्ठ १२५.
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हैं और जिज्ञासा सात ही प्रकारको क्यों होती हैं ? इसके समाधानरूपमें यही कहा जा सकता है कि शिमगत कारले होते हैं और सात प्रकारके संशय होनेका कारण संशयको विषयभूत वस्तुकै धर्म सात प्रकारके हैं । अतएव अपुनरुक्त रूपसे सात ही भङ्गसम्भव है । आशय यह है कि सप्तभङ्गोन्यायमें मनुष्यस्वभावको तकमलक प्रवृत्तिको गहरी छानबीन की आती है। जो सत, असत्, उभय और अनुभव ये चार कोटियाँ तत्त्वविचारके क्षेत्रमें प्रचलित हैं और उनका अधिक-से-अधिक विकास सात रूपमें ही सम्भव है । सत्य त्रिकाला बाधित होता है, अतः तर्कजन्य प्रश्नोंका समाधान सप्तभंगी प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है।
प्रत्येक वस्तुके स्वतन्त्र गुण और पर्याय हैं और ये प्रतिषेध सापेक्ष हैं अर्थात किसी भी वस्तुका प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी धर्मको अपेक्षासे किया जाता है। सप्तभङ्गोन्याय वस्तुके यथार्थ स्वरूप तक पहुँचानेका साधन है । प्रमाणसप्तभङ्गो एवं नयसप्तमङ्गो
समभङ्गीके दो भेद हैं:-(१) प्रमाणसप्तभङ्गी और (२) नयसप्तभङ्गी । प्रमाण सकलवस्तुमाही होता है और नय एकदेशमाही। जहां वक्ता एक धर्मके द्वारा पूर्ण वस्तुका बोध कराना चाहता है यहाँ उसका वाक्य प्रमाणवाक्य कहा जाता है। यदि वह एक ही धर्मका बोध कराना चाहता है और वस्तुके वर्तमान शेष धर्मों के प्रति उसकी दृष्टि उदासीन है, तो उसका वाक्य नयवाक्य कहा जाता है । साधारणत: जितना भी वचनव्यवहार है, वह नयके अन्तर्गत है। अतः नयसप्तभङ्गीकी प्रमखता है। यों तो अनेकधर्मात्मक वस्तुका बोध करानेके हेतु प्रवर्तमान शब्दको प्रवृत्ति दो रूपसे होती है:-(१) क्रमशः और (२) योगपद्य । तीसरा वचनमार्ग नहीं है । जब वस्तुमें वर्तमान अस्तित्त्वादि धर्मो की काल आदिके द्वारा भेदविवक्षा होती है, तब एक शब्दमें अनेक अर्थोंका ज्ञान करानेकी शक्तिका अभाव होनेसे क्रमशः कथन होता है और जब उन्हीं धर्मोमें काल आदिके द्वारा अभेदविवक्षा होती है तब एक शब्दको एक धर्मका बोध करानेकी मुख्यतासे तादात्म्यरूपसे एकत्वको प्राप्त सभी धर्मोंका अखण्डरूपसे युगपत् कथन हो जाता है। यह युगपत् कथन सकलादेश होनेसे प्रमाण कहलाता है और मशः कथन विकलादेश होनेसे नय कहलाता है। सकलादेश और विकलादेश दोनोंमें हो सप्तभंगी होती है। सकलादेशमें होनेवाली सप्तभङ्गो प्रमाणसप्तभङ्गी है और विकलादेश में होनेवाली सप्तमनी नयसप्तभङ्गो है। प्रमाणसप्तभङ्गी और नयसप्तभङ्गीके
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प्रयोग में बक्ताकी विनाके अतिरक्त और कोई मौलिक भेद नहीं है । दोनों ही सप्तभङ्गी में "स्याद रत्येव जीवः " यह उदाहरण प्राप्त होता है । मतान्तर से " स्यात् जीवः स्यात् जीव एव" यह प्रमाणवाक्यका और " स्यादस्त्येव जीवः " यह नयवाक्यका उदाहरण है ।
समभङ्गों को सिद्धि
प्रश्न मात प्रकार के कारण एक वस्तु नही होते हैं क्योंकि सात से अतिरिक्त आठवें भङ्गका निमित्तभूत आठवां प्रश्न संभव नहीं है । प्रश्नके अभाव में न जिज्ञासा ही सम्भव है न संशयादि । यहाँ घटके साथ सातभङ्गी घटित करते हैं :--
१. स्यादस्त्येव घटः |
२. स्यानास्त्येव घटः ।
३. स्यादवक्तव्य एव षः ।
४. स्यादुभयो घटः स्यादस्ति नास्ति घटः ।
५. स्यादस्ति अवक्तव्य एवं घटः ।
६. स्याद् नास्ति अवक्तव्य एव घटः ।
७. स्थादस्ति नास्ति अवक्तव्य एव घटः |
प्रथम- द्वितीय भंगसिद्धि
'स्यादस्ति एव घट:' इस वाक्य में घटशब्द विशेष्य होनेसे द्रव्यवाची है और अस्तिशब्द विशेषण होनेसे गुणवाची है । इन दानों में विशेषणविशेष्य-सम्बन्ध बतलाने के लिये एवकार रखा गया है । यदि 'अस्ति एव घटः - घट सत् ही हैं, इतना हो कहा जाय, तो घटमें असत् आदि अन्य धर्मोकी निवृत्तिका प्रसंग आयगा । अतः घटमें अन्य धर्मो का अस्तित्व बतलाने के लिये 'स्यात्' शब्दका प्रयोग किया गया है ।
यहाँ 'स्यात्' शब्द से सामान्यतः अनेकान्तका ग्रहण हो जाता है, पर विशेपार्थीको विशेष शब्दों का प्रयोग करना ही होता है । यथा - वृक्ष शब्दसे सभी प्रकार के वृक्षोंका ग्रहण होनेपर भी किसी विशेष वृक्षका कथन करने के लिये 'शिशपा' आदि शब्दों का प्रयोग करना होता है ।
'स्यात् ' शब्द अनेकान्तका द्योतक होता है। वह किसी वाचकशब्दके निकट में हुए बिना इष्ट अर्थका द्योतन नहीं कर सकता । अतः उसके द्वारा प्रकाश्य धर्म आधारभूत अर्थका कथन करनेके लिये इतर शब्दों का प्रयोग किया जाता
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है । वस्तुतः गौण और मुख्य विवक्षासे सभी भंगोंका प्रयोग सार्थक होता है। यथा--द्रव्यार्थिक नयको प्रधानता और पर्यायाथिक नयको गौणतामें पहला घटित होता है।
पर्यायाथिक नयकी प्रधानता और द्रष्यार्थिक नयकी गौणतामें दूसरा भंग घटित होता है । प्रधानता और अप्रधानता शब्दके अधीन है । जो शब्दके द्वारा विवक्षित हो, वह प्रधान है और जो शब्दके द्वारा नहीं कहा गया है और अर्थसे गम्यमान होता है वह अप्रधान है ।
प्रथम भंगके प्रत्येक पदकी सार्थकता 'घट ही है' ऐसा अवधारण करनेपर घटसे अतिरिक्त अन्य पदार्थो के अभावका प्रसंग आता है। अत: प्रथम भंगमें 'स्यात्' शब्दका प्रयोग करनेसे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल-स्वभावको अपेक्षासे घटका अस्तित्व सिद्ध होता है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षासे घटके नास्तित्व आदि धर्म प्रतिफलित होते हैं। इस तरह स्वचतुष्टयको दष्टिसे घट है और पर चतुष्टयकी अपेक्षा घट नहीं है, यह सिद्ध हो जाता है। द्विताय भगक कथन में परद्रव्य, १२ई, पसाह और सनावकी प्रधानता है। इसो चतुष्टयको मुख्यकर तथा द्रव्यार्थिक नयको मोणकर कथन करनेसे द्वितीय भंग सिद्ध होता है । तृतीय भंग स्याद् अवक्तव्यसिद्धि
जब दो गुणोंद्वारा एक अखण्ड अर्थको अभिन्न रूपसे-अभेदरूपसे एक साथ कथन करनेको इच्छा होती है, तो तीसरा अवक्तव्य भंग होता है । यथा-प्रथम और द्वितीय भंगमें एक कालमें एक शब्दसे एक गणके द्वारा क्रमशः एक समस्त वस्तुका कथन हो जाता है । उसी प्रकार जब दो प्रतियोगी गुणोंके द्वारा अवधारण रूपसे एक साथ एक कालमें एक शब्दसे समस्त वस्तुके कहनेको इच्छा होती है, तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है, क्योंकि उस प्रकारका न तो कोई शब्द हो है और न अर्थ ही । सारांश यह है कि जब किसी वस्तुमें अस्ति और नास्ति धर्म युगपत् विवक्षित होते हैं, उस समय दोनों धर्मों को एक साथ कहनेवालं शन्दका अभाव रहता है, क्योंकि शब्दोंमें क्रमशः ज्ञान करानेको शक्ति होती है। अत: 'अस्ति' और 'नास्ति' इन दोनों धर्मो की एक साथ प्रधानता होनेपर तृतीय भंग 'स्यात् अवक्तव्य एव घटः-घड़ा कथंचित् अवकतव्य है, बनता है।
कुछ समोक्षकोंका अभिमत है कि शब्दमें वस्तुके तुल्यबलवाले दो धर्मोका मुख्यरूपसे युगपत् कथन करनेकी शक्यता न होने से निर्गुणत्वका प्रसंग प्राप्त
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होने एवं विवक्षित उभय धर्मोका प्रतिपादन न हो सकनेके कारण वस्तु अवक्तव्य है ।
सामान्यतः अवक्तव्य भंग रहस्यपूर्ण प्रतीत होता है, पर यथार्थतः वस्तुका स्वरूप कुछ इतना संश्लिष्ट एवं सूक्ष्मातिसूक्ष्म है कि शब्द उसके अखण्ड अन्तस्तल तक नहीं पहुंच पाता, क्योंकि शब्द की अपनी सीमा है। फिर भी किसी प्रकार उसका वर्णन तो किया ही जाता है। पहले वस्तका अस्तित्व वणित होता है, पश्चात् जब वहाँ अपर्याप्तता एवं अपूर्णताको अनुभूति होती है, तो उसका नास्तिरूप सामने आता है। पर जब वहाँ भो वस्तु अपूर्ण प्रतीत होती है और शब्दशक्तिकी अक्षमता दिखलायी पड़ती है, तो वस्तु अवक्तव्य, अनिर्वचनीय या अव्याकृत कह दी जाती है । यतः शब्दके द्वारा पदार्थके दो धर्मोका एक साथ कथन सम्भव नहीं। क्योंकि शब्द धातुओंसे बनते हैं एवं धातु क्रियाके वाचक हैं और क्रिया एक समयमें एक ही होती है, दो या तीन नहीं। अतः दो धर्मोके एक साथ प्रतिपादन करनेका जब समय उपस्थित होता है, तब यह कहा जाता है कि पदार्थ अवक्तव्य है और यह अबक्तव्य भी अपेक्षाकृत है। इसके भी पूर्व 'स्यात्' जोड़ा गया है। अतः मूल सत्ताके विषय में एक समयमें अस्तित्व एवं नास्तित्व, जो सत्ताके दोनों समान धर्म है, किसी एक शब्दप्रत्ययके द्वारा अभिपतनही हो सकते ! पार पवनयात'गमा मानना आवश्यक है । चतुर्थभंगसिद्धि : स्यादस्सिनास्ति ___ अस्ति मोर नास्ति दोनों धमौका कामसे एक साथ कयन करनेपर चतुर्थभंग बनता है। इस भंगमें दोनों नयोंकी प्रधानता रहती है । इसलिये कहा जाता है कि कथंचित् घट अस्ति-नास्तिरूप ही है। यदि वस्तुको सर्वथा उभयात्मक माना जाय, तो सत् और असत्में परस्पर विरोध होनेसे उभय दोषका प्रसंग आता है। जिस प्रकार ठंडाईमें बादाम, सोंफ, गोलमिर्च आदि विभिन्न द्रव्योंके अंशोंकी विशेष प्रतिपत्ति होती है, उसी प्रकार अस्तित्व-नास्तित्व धोके सम्बन्धसे जात्यन्तररूप भंगमें भी सत्-असत् इन दोनों धर्मोकी प्रतिपत्ति होती है । पञ्चमभंग स्यास्ति अवक्तव्यसिद्धि __इस भंगको सिद्धिमें द्रव्याथिकनयको प्रधानता और द्रव्याथिक एवं पर्यायाथिकनयकी अप्रधानता होती है । व्यस्त द्रव्य एवं एक साथ अपित्त द्रव्य और पर्यायको अपेक्षासे पंचमभंगको प्रवृत्ति होती है। यथा-'स्यादस्ति च अवक्तव्यश्न एव घट:'--"घड़ा कथंचित् अस्तिरूप और अवक्तव्यरूप ही है।
अनेक द्रव्य और अनेक पर्यायात्मक वस्तुके किसी विशेष द्रव्य अथवा पर्याय विशेषको विवक्षामें एक घट अस्ति है। वहीं पूर्व विवक्षा तथा द्रव्यसामान्य
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और पर्यायसामान्य या दोनों युगपत् भेदविवक्षामें वचनोंसे अगोधर होकर अवक्तव्य हो जाना है । यह भंग प्रथम और तृतीय भंगके मेलसे बनता है। षष्टमङ्ग स्थानास्ति यवक्तव्यसिसि
व्यस्त पर्याय और समस्त द्रव्यपर्यायको अपेक्षा 'स्यान्नास्ति अवक्तव्य भङ्ग बनता है । वस्तुगत नास्तित्व जब अवक्तव्यके साथ अनुबद्ध होकर विवक्षित होता है, तब गह भङ्ग निष्पन्न होता है। नास्तित्व पर्यायको दृष्टिसे है और पयायें दो प्रकारको होती हैं:-१. सहभाविनी और २. क्रमभाविनी । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय आदि सहभाविनी तथा क्रोध, मान, माया, लोम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि क्रमभाविनी पयायें हैं। पर्यायष्टिसे गत्यादि और क्रोधादिपर्यायोंसे भिन्न कोई एक अवस्थायो जीव नहीं हैं। किन्तु ये पर्यायें ही जोव हैं । जो वस्तुत्वरूपसे सत् है वही द्रव्यांश है तथा अवस्तुत्वरूपसे 'असत्' है यह पर्यायांश है। इन दोनोंको युगपत् अभेदविवक्षामें वस्तु अवक्तव्य है। __ यह भङ्ग द्वितीय और तृतीय भङ्गके मेलसे बना है। अतः घट कञ्चित् नास्ति और अवक्तव्य हो है। यह कथन पर्यायाथिक नयको प्रधानता और द्रव्यायिक एवं पायाधिक दोनोंको अप्रधानताको अपेक्षासे किया गया है । सप्तमभङ्ग स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्यसिद्धि
पृथक्-पृथक् कमसे अर्पित तथा युगपत् अपित द्रव्यपर्यायकी अपेक्षा वस्तु स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। किसी द्रव्यविशेषकी अपेक्षा अस्तित्व और पर्यायविशेषको अपेक्षा नास्तित्व होता है तथा किसो द्रव्यपर्यायविशेष एवं द्रव्यपर्याय सामान्यको एक साथ विवक्षामें वही अवक्तव्य हो जाता है। यह सप्तम भङ्ग प्रथम, द्वितीय और तृतीय भङ्गके मेलसे बना है।
कुछ चिन्तक उपर्युक प्रकारसे स्यात् अवक्तव्यको तीसरा और स्यादस्तिनास्तिको चौथा भङ्ग मानते हैं। पर कुछ स्यादस्ति-नास्तिको तोसरा और स्यादवक्तब्यको चौथा भङ्ग स्वीकार करते हैं । निष्कर्ष
स्याद्वादको नीव अपेक्षा है और अपेक्षा वहाँ रहती है जहां वास्तविक और ऊपरसे विरोध दिखलाई दे। विरोध वहाँ होता है जहाँ निश्चय रहता है । दोनों सशयशोल अवस्थाओंमें विरोध रहीं बन सकता । स्याद्वादका प्रयोगस्थान अनेका.. न्तात्मक वस्तु है, अतः वस्सुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करनेके लिये अनेकान्त ४८.० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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दृष्टि अपेक्षित है । स्यावाद उस दृष्टिको वाणीद्वारा व्यक्त करनेकी भाषापद्धति है। वह निमित्त या अपेक्षाभेदसे वस्तुगत विरोधो धर्म-युगलोंका विरोध मिटाने वाला है । जो वस्तु सत् है वह असत् भी है, पर जिस रूपमें सत् है उस रूपमें असत् नहीं | स्व-रूपको दृष्टिसे सत् है और पर-स्वरूपकी दृष्टिसे असत् है। दो निश्चित दृष्टिबिन्दुओंके आधारपर वस्तुतस्चका प्रतिपादन करनेवाला वाक्य संशयरूप हो ही नहीं सकता। अर्थनियामक निक्षेप __ संकेत-कालमें जिस वस्तुके लिये जो शब्द प्रयुक्त होता है वह वहीं रहे तो कोई समस्या नहीं आती; किन्तु ऐसा होता नहीं, अतः कुछ समयके पश्चात् शब्द अपने लिये विशाल क्षेत्रका निर्माण करते हैं। इससे नियस शब्दको इष्टार्थसम्बन्धी जानकारी देनेकी क्षमता समाप्त हो जाती है। इस समस्याका समाधान निक्षेपपद्धति द्वारा किया गया है। यह भाषा-सम्बन्धी नीति है। यतः विश्यके व्यवहार और ज्ञानके आदान-प्रदानका मुख्य साधन भाषा है। भाषाके बिना मनुष्यका व्यवहार चल नहीं सकता और न विचारोंका आदान-प्रदान ही हो सकता है | मनुष्यके पास यदि व्यक्त भाषाका साधन न होता, तो उसे आज जो सभ्यता-संस्कृति एवं तत्वज्ञानकी अमूल्य निधि प्राप्त है उससे वह वंचित रह जाता । माषा केवल बोलनेका ही साधन नहीं है अपित विचार करनेका भी माध्यम है। भाषाका शरीर वाक्यों से निर्मित होता है और वाक्य शब्दोंसे। प्रत्येक शब्दके अनेक अर्थ सम्भव हैं। वह प्रसंग आशय, विषय, स्थान एवं वातावरणके अनुसार विभिन्न प्रकारके अभिप्रायोंको व्यक्त करता है। अतएव शब्दके मूल और उचित अर्थको जानकारी निक्षेपविधि द्वारा सम्पन्न की जाती है। ___मानव-विचारधाराके कुछ ऐसे दुरुह प्रसंग हैं, जो सामान्यतः व्यक्तियोंके मस्तिष्कमें सुलभतासे प्रवेश नहीं कर पाते । इसलिये कुछ चिन्तकोंने उन प्रसंगों का व्यक्तीकरण कर उन्हें बोधगम्य बनानेका प्रयास किया है। इसके लिए उन्हें कुछ प्रतीकोंका आश्रय लेना पड़ा । इन प्रतीकोंको संज्ञा ही निक्षेप है।
इन निक्षेपों द्वारा प्रकृतिके कुछ तथ्योंको उनकी अनुपस्थिति में दूसरोंको उनका अनुभव कराया जाता है। निक्षेपों द्वारा प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष तो नहीं होता, पर सादृश्यको स्मृतियोंके जागरण द्वारा व्यक्तियों की योग्यतानुसार वस्तुके स्वरूपके बोधमें बहुत सीमा तक सहायक अवश्य होता है। इस प्रतीकात्मक व्यक्तीकरणकी प्रकृतिके कारण साहित्यमें नानाविधाएँ आविष्कृत हुई और यही प्रतीकात्मक व्यञ्जना-प्रणाली निक्षेपके रूपमें प्रस्तुत हई । वस्तुतः प्रस्तुत
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अर्थका बोध देनेवाली शब्द-रचना या अर्थका शब्दोंमें आरोप निक्षेप है। अप्रस्तुत अर्थको दूर रखकर प्रस्तुत अर्थका बोध कराना हो इसका लक्ष्य है। यह संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञानको दूर करता है। मय और निक्षेप
नय और निक्षेपमें विषय-विषयीभावका सम्बन्ध है । विषय-विषयी-मम्बन्ध तथा इस सम्बन्धको किया नय द्वारा ज्ञात की जाती है । नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्याथिक नयके विषय है और भावनिक्षेप पर्यायाथिक नयका । भावमें अन्वय नहीं रहता उसका सम्बन्ध केवल वर्तमान पर्यायसे होता है। अतः यह पांयार्थिक व्यका विषय है। पोको नय और निक्षेप दोनों ही अर्थबोधके साधन हैं। निक्षेपको उपयोगिता
निक्षेपको विवक्षित अर्थको अवगत करनेकी दृष्टि से महती उपयोगिता है । निशेप वक्ताको वस्तुके विवक्षित अर्थका बोध कराता है। भाषा और भावको संगति इसोके द्वारा गठित होती है । निक्षेपको समझे बिना भाषाके प्रास्ताविक अर्थको नहीं समझा जा सकता है। अर्थसूचक शब्दके पहले अर्थको स्थिति सूचित करनेवाला जो विशेषण लगता है, यही इसकी विशेषता है। अत: सविशेषणभाषाका प्रयोग ही निक्षेप है ।
अर्थस्थिति के अनुरूप हो शब्द-रचना या शब्द-प्रयोगको शिक्षा ही अर्थबोधका साधन हैं । अतः अपेक्षादृष्टिको ध्यानमें रखना आवश्यक है । निक्षेपदृष्टि अपेक्षादृष्टि ही है । निक्षेत्रको उपयोगिता निम्न प्रकार सिद्ध है:
१. निश्चय या निर्णयको प्राप्त करना। २. सिद्धान्तप्रतिपादनकी क्षमता। ३. प्रकृत और अप्रकृत अर्थका चोच । ४. संशयका निराकरण । ५. नयदष्टिसे वस्तुस्वरूपका यथार्थ कथन । ६. व्यवहारसिद्धिका राद्धाव।
७. विधि-निर्णयका सद्भाच । निक्षेपके भेव
शब्दसे अर्थका ज्ञान होने में निक्षेप निमित है । निक्षेपके अनन्त भेद सम्भव हैं, पर प्रधानरूपसे चार भेद हैं :--(१) नामनिक्षेप, (२) स्थापलानिक्षेप, (३) द्रव्यनिक्षेप और (४) भावनिक्षेप । ४८२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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१. नामनिक्षेप
द्रव्य, गुण, क्रिया आदि निमित्तोंको अपेक्षा न कर लोक-व्यवहारके लिये वक्ताको इच्छासे जो नामकरण किया जाता है, उसे नामनिक्षेप कहते हैं। यथा-एक ऐसा व्यक्ति है, जिसमें पुजारीका एक भो गुण नहीं, पर किसोने उसका नाम पुजारी रख दिया है अतः वह पुजारी कहलाता है। नामनिक्षेपमें वस्तुके गुणधर्मपर विचार नहीं किया जाता, केवल लोक-व्यवहारको सुविधाके लिये शब्द रुढ़ कर लिया जाता है। दूसरा उदाहरण राजाका लिया जा सकता है किसीने अपने पुत्रका नाम राजा रख लिया है, पर वस्तुतः राजाका उसमें कोई गुण नहीं है। यह नाम लांक-व्यवहार चलाने के लिये ही रखा गया है । २. स्थापना-निक्षेप
किसी वस्तुमें अन्य वस्तुको स्थापना करनेको स्थापना-निक्षेप कहते हैं। स्थापना निक्षेपके दो भेद हैं :-(१) तदाकार या सद्भावनानिक्षेप और (२) अतदाकार या असद्भावना-निक्षेप । पायाण या धातुके बने हुए तदाकार प्रतिबिम्बमें ऋषभनाथ या पाश्वनाथकी स्थापना करना तदाकार स्थापना-निक्षेप है। जो मुख्य वस्तुका दर्शन करना चाहता है उसे उसकी प्रतिमाको देखकर उसमें उसको बुद्धि होती है, क्योंकि दोनोंमें कयन्चित् समानता पायी जाती है। ऋषभदेवकी स्थापना उनकी प्रतिकृतिरूप प्रतिमामें की जाती है तो दर्शकको उस प्रतिमा यह आदितीर्थकर हैं ऐसी बुद्धि होती है ।
मुख्य वस्तुके आकारसे शून्य वस्तुमात्रको अतदाकार-स्थापना कहते हैं। यथा-शतरंजके मोहरोंमें दूसरेके कथानानुसार हो राजा, मंत्रो, घोड़ा, हाथी इत्यादिका बोध होता है। यों तो उन मोहरोंका आकार न राजाका है, न मंत्रीका है, न हाथीका है और न घोड़ेका है । पर व्यवहार चलाने के लिये इसप्रकारको स्थापना की गई है।
मामनिक्षेप और स्थापना-निक्षेपमें अन्तर-स्थापना-निक्षेपमें तो मनुष्य आदरभाव और अनुग्रहको इच्छा करता है पर नामनिक्षेपमें नहीं। ऋषभदेवकी प्रतिमामें व्यक्ति तीर्थंकर ऋषभदेव जैसा आदरभाव करता है, उसकी पूजा करता है और दर्शन एवं पूजन द्वारा आत्म-विशुद्धि भी प्राप्त करता है। किन्तु ऋषभदेव नामके व्यक्तिमें न तो वैसा आदरभाव ही होता है और न उस व्यक्तिसे आत्मविशुद्धिको प्रेरणा ही प्राप्त होती है । संक्षेपमें नाम तो लोकव्यवहारके चलानेके लिये है पर स्थापनानिक्षेप आत्म-प्रेरणा और आत्मविशुद्धिके लिये है।
पीकर महानीर और उनकी देशना : ४.३
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३. व्यनिक्षेप
जो वस्तु भाविपर्यायके प्रसि अभिमुख है उसे द्रव्यनिक्षेप कहते हैं । इसके दो भेद हैं :--(१) आगम द्रव्यनिक्षेप और (२) नोआगम द्रष्यनिक्षेप ! जीवविषयक शास्त्रका ज्ञाता किन्तु उसमें अनुपयुक्त जीव आगम द्रव्यजीव है। नोआगमके सीन भेद हैं :-{१) सायकशरीर, (२) मावि और (३) सद्व्यतिरिक्त । उस ज्ञाताके भूत, भाषि और वर्तमान शरीरको सायकशरीर कहते. हैं। भाविपर्यायको भावि नोआगम द्रव्यनिक्षेप कहा जाता है। यथा भविष्यमें होनेवालेको अभी राजा कहना । तद्व्यतिरिक्तके दो भेद है:-कर्म और नोकर्म। कर्मके ज्ञानावरणादि अनेक भेद हैं और शरीरके पोषक आहारादिरूप पुद्गल द्रव्य नोकम हैं। ४. भावनिक्षेप
वस्तुको वर्तमान पर्यायको भावनिक्षेप कहते हैं । वस्तुके पर्याय-स्वरूपको भाव कहा जाता है। यथा स्वर्गके अधिपति साक्षात् इन्द्रको इन्द्र कहना भावनिक्षेप है।
अतीत और अनागत पर्याय भी स्वकालको अपेक्षा वर्तमान होनेसे भावरूप है। जो पर्याय पूर्वोत्तरकी पर्यायोंमें अनुगमन नहीं करती उसे वर्तमान कहते हैं । यही भावनिक्षेपका विषय है। द्रव्यनिक्षेपके समान भावनिक्षेपके भी वो भेद है:-(१) आगम भावनिक्षेप और (२) नोआगम भावनिक्षेप । जीवादिविषयक शास्त्रका ज्ञाता जब उसमें उपयुक्त होता है तो उसे आगमभाव कहते हैं। और जोवादि पर्यायसे युक्त जीवको नोआगमभाव कहते हैं ।।
निक्षेपोंसे बोध्य अर्थका सम्यक् बोध होता है। आरम्भके तीन निक्षेप द्रव्यार्थिकनयके निक्षेप हैं और भाव पर्यायाथिकनयका निक्षेप है ।
प्रमाण, नय ओर निक्षेप तीनों ही ज्ञानसाधन हैं। इन तीनोंके द्वारा द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुको पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
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दशम परिच्छेद
धर्म और आचार-मीमांसा जोवन और धर्म
जीवन जड़ नहीं, गतिमान है । अत: आवश्यक है कि उस गतिको उचित ढंगसे इस भांति नियमित और नियन्त्रित किया जाय कि जीवनका अन्तिम लक्ष्य प्राप्त हो सके। जीवनका उद्देश्य केवल जीना नहीं है, बल्कि इस रूप में जीवन-यापन करना है कि इस जीवनके पश्चात् जन्म और मरणके पक्रसे छुटकारा मिल सके । आज सुविचारित क्रमबद्ध और व्यवस्थित जीवन-यापनकी अत्यन्त आवश्यकता है। धर्माचरण व्यक्तिको लौकिक और पारलौकिक सुखप्राप्तिके साथ आकुलता और व्याकुलतासे मुक्त करता है । वह जीवन कदापि उपादेय नहीं, जिसमें भोगके लिए भौतिक वस्तुओंकी प्रचुरता समवेत को जाय । जिस व्यक्ति के जीवनमें भोगोंका बाहुल्य रहता है और त्यागवृत्तिको कमी रहती है, वह व्यक्ति अपने जीवनमें सुखका अनुभव नहीं कर सकता | भोग जीवनका
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स्वार्थपूर्ण और संकीर्ण दृष्टिकोण है 1 ऐसा जीवन उच्चतर आदर्शका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, क्योंकि सर्वोच्च ऐश्वर्य भी शनैः शनैः नष्ट होते-होते एक दिन बिलकुल नष्ट हो जाता है और अभावजन्य आकुलताएँ व्यक्तिके जीवनको अशान्त, अतृप्त और व्याकुल बना देती हैं ।
मनुष्य जन्म लेता है, समस्त सुखोंपर अपना एकाधिकार करनेका प्रयल भी करता है। परिवार सहित मन ऐना एवं सुखोंका भोग भी करता है, पर एक दिन ऐसा आता है जब वह सब कुछ यहाँका यहीं छोड़ मत्यको प्राप्त होता है । अतः यह सदैव स्मरणीय है कि सांसारिक सुख ऐश्वर्य और भोग क्षणभंगर है। इनका यथार्थ उपयोग स्यागवत्तिवाला व्यक्ति ही कर सकता है। जिसने शाश्वत, चिरन्तन आत्म-सुखको अनुभूति प्राप्त को है, वही व्यक्ति संसारके विलास-वैभवोंके मध्य निलिप्त रहता हुआ उनका उपभोग करता है।
शाश्वत सुख अथबा परमशक्ति तक पहुंचनेका मार्ग संसारके मध्यसे ही है। चिरन्तन आत्म-सुख और अशाश्वत भौतिक सुख परस्परमें अविच्छिन्नरूपसे सम्बद्ध दिखलाई पड़ते हैं, पर जिन्होंने अपनी अन्तरात्मामें प्रकाशको प्राप्त कर लिया है, वे व्यक्ति मोहको जड़ोंमें बद्ध नहीं रह पाते । वस्तुतः मानवजोबनका मुख्य उद्देश्य आत्मसुख प्राप्त करना है। पर इस सुखकी उपलब्धि इस शरीरके द्वारा ही करनी है । अतः संपम, अहिंसा, त! और साधनारूप धर्मका आश्रय लेना परम आवश्यक है।
मानव-जीवनके प्रमुख चार उद्देश्य है:-(१) धर्म, (२) अर्थ, (३) काम और (४) मोक्ष । मोक्ष परमलक्ष्य है । इस लक्ष्य तक पहुँचनेका साधन धर्म है। काम लौकिक जीवनका उपादेय तत्त्व है और इसका साधन अर्थ है । अर्थ मानवको स्वाभाविक प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित करता है । वह धनार्जनको इच्छापूर्ति के लिए उपयोगी मानते हुए भी अन्याय, अत्याचार एवं पर-पीड़नको स्थान नहीं देता। यह मनुष्यको पाशविक प्रवृत्तियोंका नियंत्रण कर उसे मनुष्य बननेके लिए अनुप्रेरित करता है। ___ सामाजिक व्यवस्था धर्म अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली अवधारणा है। धर्म मानवके समस्त नैतिक जोवनको नियन्त्रित करता है। मनुष्यकी अनेक प्रकारको इच्छाएं एवं अनेक संघर्षात्मक आवश्यकताएं होती हैं । धर्मका उद्देश्य इन समस्त इच्छाओं तथा आवश्यकतोंको नियमित एवं व्यवस्थित करना है। अतएव धर्म बह है जो मानव-जोवनको विविधताओं, भिन्नताओं, अभिलाषाओं, लालसाओं, भोग, त्याग, मानवोय आदर्श एवं मूल्योंको नियमबद्ध ४८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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कर एकता और नियमितता प्रदान करे । वास्तवमें धर्म जीवनका एक ऐसा तरीका है जो कार्यों और क्रियाओंको संयोजित और नियन्त्रित करता है। धर्मके अभावमें मानव का जीवन मनुष्य-जीवन नहीं रह जाता है, अपितु वह पशुजीवनको कोटिमें सम्मिलित हो जाता है । ___ मानव-जीवन में चरित्रका अपना स्थान है । जीवनको ऊंचाई केवल ज्ञान या विश्वाससे नहीं आंकी जा सकती 1 दिव्यताको ओर होनेवालो यात्राका मुख्य मापदण्ड आचार हो है । दैनिक जीवनमें यह सभीको दिखलाई पड़ता है कि विश्वास और ज्ञान तबतक जीवन में साकार नहीं हो पाते, जबतक मनुष्य अपने आचार-व्यवहारको मानवोचित रूप प्रदान नहीं करता । सन्तोष, क्षमा, आत्म-संयम, इन्द्रिय-निग्रह, दया, अहिंसा और सत्य ऐसे मार्ग हैं, जिनका अनु. सरण करनेसे व्यक्ति और समाज सुख-शान्ति प्राप्त करता है। ___ मनुष्यको विविध रुचियों, इच्छाओं, संघर्षात्मक आवश्यकताओं एवं उत्तरदायित्वोंके बीच सामन्जस्य उत्पन्न करनेका कार्य आचारात्मक धर्म ही करता है । व्यक्ति या समाजके विभिन्न सदस्य जब धर्मके निर्देशानुसार अपने करणीय कर्तव्यको निश्चित ढंगसे तथा निष्ठापूर्वक करते हैं, तो समाज में सुव्यवस्था, शान्ति और समद्धि सरल हो जाती है। अर्थ और कामका नियन्त्रक भी धर्म है। केवल अर्थ और केवल काम जीवनमें भोग तो उत्पन्न कर सकते हैं, पर जीवनको उदात्त नहीं बना सकते । अतएव मानव-जीवनका साफल्य नियन्त्रण, निग्रह, त्याग और सन्तोषपर ही निर्भर है।
संसार एक अनन्त अधिगम प्रवाह है और नाना जीव इस प्रवाहमें अनादि कालसे अनन्तकाल तक धर्मविमुख हो लड़कते और टक्करें खाते रहते हैं। जीवनकी गति कहीं भी विश्रान्ति प्राप्त नहीं करतो । सदाचार, विश्वास और तत्त्वज्ञान हो मानव-जीवन में व्यवस्था, शान्ति और बन्धनोंसे मुक्ति कराते हैं। क्षणिक जीवनके बदले शाश्वत जीवनका लाभ होता है और संसारके निस्सार सुख-दुःखोंसे ऊपर उठकर आत्मा अनन्त सुखमयमुक्तिका लाभ करती है । अतः संक्षेप में जीवनको सुव्यवस्थित और नियन्त्रित करनेके लिए धर्मको परम आवश्यकता है। धर्म : व्युत्पत्ति एवं स्वरूप
धर्मशब्द धू + मनसे निष्पन्न है। "घ्रीयते लोकोऽनेन, धरति लोक वा धर्मः अथवा इष्टे स्थाने पत्ते इति धर्मः" अर्थात् जो इष्ट स्थान-मुक्ति में धारण कराता है अथवा जिसके द्वारा लोक श्रेष्ठ स्थानमें धारण किया जाता है अथवा जो लोकको श्रेष्ठ स्थानमें धारण करता है, वह धर्म है । धर्म सुखका कारण है।
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धर्म और सुखमें कार्य कारणभाव या दीपक और प्रकाशके समान सहभावीभाव है, अर्थात् जहाँ दीपक है वहाँ प्रकाश अवश्य रहता है और जहाँ दीपक नहीं, वहीं प्रकाश भी नहीं रहता । इसी प्रकार जहाँ धर्मं होगा वहाँ सुख अवश्य रहेगा और जहाँ धर्म नहीं होगा यहाँ सुख भी नहीं रहेगा ।
जो धारण किया जाय या पालन किया जाय, वह धर्म है । धर्मका एक अर्थ वस्तुस्वभाव भी है। जिस प्रकार अग्निका धर्म जलाना, जलका शीतलता, वायुका बहना धर्म है, उसी प्रकार आत्मा का चैतन्य धर्म है। वस्तुस्वभावरूप धर्म है तो यथार्थ पर इसकी उपलब्धि आचारके बिना सम्भव नहीं । जिस आचार द्वारा अभ्युदय और निःश्रेयस - मुक्तिकी प्राप्ति हो, वह धर्म कहलाता है । अभ्युदयका अर्थ लोक-कल्याण है और निःश्रेयसका अर्थ कर्म-बन्धनसे मुक्त हो स्वस्वरूपकी प्राप्ति है ।
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स्वभावरूप धर्म जड़ और चेतन सभी पदार्थों में समाविष्ट है, क्योंकि इस विश्व में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसका कोई न कोई स्वभाव न हो, पर आचाररूप धर्म केवल चेतन आत्मामें पाया जाता है। अतः धर्मका संबंध आत्मासे है । वस्तु स्वभावका विवेचन चिन्तनात्मक होनेसे दर्शन केटि में भी प्रविष्ट हो जाता है और आत्मा, लोक-परलोक, विश्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व प्रभृति प्रश्नोंका खरसे समाधान अपेक्षित होता है । वस्तुतः धर्म आत्माको परमात्मा बननेका मार्ग बतलाता है । इस मार्ग के निरूपणक्रम में द्रव्य, गुण, पर्याय तत्त्व आदिके स्वभावको जानकारी भी आवश्यक है । ज्ञाता व्यक्ति ही सम्यक् आचार द्वारा आत्मासे परमात्मा बनने के मार्गको प्राप्त करता है । जिस प्रकार कुशल स्वर्णकारको स्वर्णके स्वभाव और गुणकी भली-भांति पहचान होती है, तथा स्वर्णशोधन की प्रक्रिया भी जानता है, वही स्वर्णकार स्वर्णको शुद्ध कर सकता है । इसी प्रकार जिस आत्म-शोधकको आत्मा और कर्मोंके स्वरूप तथा विभावपरिणतिजन्य उनके संयोगको जानकारी है वही आत्मा परमात्मा बनने में सफल होती है । मनुष्यके विचार भो आचारसे निर्मित होते हैं और विचारोंसे निष्ठा या श्रद्धा उत्पन्न होती है ।
धर्मकी उपयोगिता कर्मनाश और प्राणियोंको संसारके दुःखसे छुड़ाकर सुख प्राप्ति के लिए है। इस सुखकी प्राप्ति तबतक सम्भव नहीं है जबतक कर्मबन्धनसे छुटकारा प्राप्त न हो । अतः जो कर्म-बन्धका नाशक है वह धर्म हैं । संसार में सुख है जिसे हम ऐन्द्रथिक सुख कहते हैं वह भी यथार्थ में सुख नहीं है।' सुखकी प्राप्ति और दुःखसे छुटकारा कर्म-बन्धनका नाश किये बिना सम्भव नहीं ४८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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है । सच्चा धर्म वही है जो कर्मवन्धनका नाश करा सके। सभी बरमअस्तित्ववादी विचारक आत्मा, परलोक और पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं । शरीर जड़ है, जो मृत्युके पश्चात् भी रहता है, पर आत्मा के निकलते ही उसमें निष्कि यता आ जाती है और इन्द्रियों द्वारा जानने-देखनेका कार्य बन्द हो जाता है । इसका प्रधान कारण यह है कि शरीरमेंसे चैतन्य धर्मका विलयन हो गया है । यह आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता आदि गुणोंसे सम्पन्न है । इसी कारण इन्द्रियोंके माध्यम से जानने-देखने की क्रिया सम्पन्न होती है । ये विभिन्न क्रियाएँ शरीर या इन्द्रियोंका धर्म नहीं है । ये तो आत्माको क्रियाएं हैं । आत्मा के शरीर से पृथक होते ही चेतनाको क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं। अतः शाश्वत तत्त्व आत्मा है और उसके गुण धर्म है ।
जिस सुखकी चाह में संसारके प्राणी भटकते हैं, वह सुख भी जड़का धर्म नहीं, चेतनका ही धर्म है । यतः मैं सुखी हूँ इस प्रकारकी प्रतीति आत्माके ज्ञानगुणके बिना सम्भव नहीं। इसलिए सुख ज्ञानका ही सहभावो धर्म है। स्पष्टीकरणके लिए यों कहा जा सकता है कि घट पट आदि पदार्थोंको देखकर जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान घट-पट आदि पदार्थोंका धर्म नहीं है । हां, ज्ञानके साथ उनका ज्ञेय - शायक सम्बन्ध आवश्यक है। इसी प्रकार हमें अपने अनुकूल वस्तुकी प्राप्तिसे सुख और प्रतिकूल वस्तुकी प्राप्तिसे दुःखका जो अनुभव होता है, वह सुख या दुःख अनुकूल या प्रतिकूल वस्तुका धर्म नहीं है । ये वस्तुएँ हमारे सुख या दुःखमें निमित्तमात्र अवश्य हैं, पर सुख या दुःखका अस्तित्व स्वयं हमारे भीतर विद्यमान है । सुखका खजाना कहीं दूसरी जगह से लाना नहीं है । यह तो हमारे भीतर ही छिपा हुआ है। जो सुखकी खोजमें इधर-उधर भटकते हैं वे ही दुःखका कारण बनते हैं ।
प्रायः यह देखा जाता है कि जो जिसे प्राप्त है, वह उसमें सुखी नहीं है । सुखकी प्राप्तिका इच्छुक व्यक्ति प्राप्त से सन्तुष्ट न होकर अप्राप्त के लिए प्रयत्नशील है। केवल प्राप्तिका यत्न करनेसे हो इष्ट और अभिलषित वस्तुएं उपलब्ध नहीं होती; तथा जो प्राप्त होती हैं उनसे भी उसकी तृष्णा वृद्धिंगत होती जाती हैं, जैसे जलती हुई अग्नि में इन्धन डालनेसे अग्नि बढ़ती है । जिस विषय सेवनको सुख माना है, उसके अतिसेवन से व्यक्तिकी शक्ति क्षीण होती है और अनेक रोगोंका ग्रास बनता है। भोगोंके समान ही भोग-सामग्रीका साधन अर्थ भी सुखके स्थानपर दुःखका ही कारण बनता है और जीवनभर मनुष्यसे दुष्कर्म कराता है । अतः संसार में दुःख है ।
बिना कारण कार्यको उत्पत्ति नहीं होती । उपादान और निमित्त कारण मिलकर ही कार्यके निष्पादक है । अतएव संसार में दुःखके अस्तित्त्वका भी
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कोई हेतु अवश्य है । जोवक ज्ञान और सुख धर्म हैं, पर इन दोनोंकी जीवमें कमी देखी जाती है । निचार करनेपर दुःखका हेतु जोधका अज्ञान, अश्रद्धा और मिथ्याचरण हैं । अनादिकाल से यह प्राणी अज्ञान वशीभूत होकर इतना बहिर्दष्टि बन गया है और अन्तष्टिरो विमुख हो गया है कि इसे अपने स्वरूपको जाननेकी इच्छा नहीं होती। जिस शरीरमा साथ उसका जन्म और मरण होता है, उसे ही अपना समझकर उसोनी चिन्ता और संबईनमें अपना समस्त जीवन व्यतीत करता है। इस प्राणीने कभी इस बात पर गम्भीरतासे विचार नहीं किया कि मैं शोरो भिन्न स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व हूँ। ज्ञान और सूखके निमित्तोंकी ही ज्ञात कर उन्हें हो परमार्थ समझ लिया गया और ज्ञान एवं सुखके परमाय-वाका जानने का चेना नहीं मा तया न इन्हें प्रात करने. का प्रयत्न ही किया।
जोवको परपदायीलोकनःो यह दाट निमित्ताबीन दष्टि है। निमितको हो उसने अपना सर्वस्व समझा और उपदानको ओर लक्ष्य नहीं दिया । उपादानकी ओर यदि कभी दृष्टि गई तो उसे भी निमित्तों के अधीन रामहा । फलतः यह सदा बाहरको ओर ही देखता रहा, भीतरकी ओर नहीं । इसने कर्मजन्य अवस्था या पर्यायको हो सब कुछ समझा है। यह इस बातको भूले हुए है कि द्रव्यकर्म उसको भूलके परिणाम हैं | राग, द्वेष और मोहरूप परिणाम यह जीव उत्पन्न न करता तो द्रव्यकर्मोका बन्ध ही नहीं होता। यदि प्राणो स्वभाव और विभावपरिणत्तिको पूर्णरूपसे समझ जाय और आपनी परिणतिक प्रति सावधान हो जाय, तो पूर्वघद्ध द्रव्यकर्मोंका उदय प्राणीकी परिणतिको विकृत नहीं कर सकता | राग, द्वेष और मोहको त्रिपुटोसे विकृति उत्पन्न होती है और विकृतिसे बन्ध होता है। तथ्य यह है कि जीवके द्वारा किये गये रागादि परिणामोंका निमित्त प्राप्तकर अन्य पुद्गल-स्कन्ध स्त्रय हो ज्ञानावरणादि कमरूप परिणमन करते हैं तथा चैतन्यस्वरूप अपने रागादिपरिणामरूपसे परिणत पूर्वोक्त आत्माको भी पौद्गलिक ज्ञानावरणादिकर्म निमितमात्र होते हैं !'
अशानी जीव राग-द्वेष, मोहादि रूपसे स्वयं परिणमन करता है और इन रागादिभावोंका निमित्त पाकर शुभ और अशुभ, पुण्य और पापरूप कर्म१. जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। परिणममानस्य नितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वमविः । भवति हि निमित्तमात्र पोद्गलिक कर्म तस्यापि ।
-पुरुषार्थ सिध्युपाय, पञ्च १२-१३. ४९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्रकृतियों का बन्ध होता है । जीव और पुद्गलमें निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । आत्माके प्रदेशों में रागादिके निमित्तसे बन्धे हुए पौद्गलिक कर्मोंके कारण यह आत्मा अपनेको भूलकर अनेक प्रकारसे रागादिरूप परिणमन करती है । इसके वैभाविक भावोंके निमित्तसे पुद्गलों में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो आत्माके विपरीत परिणमनमें कारण बनती है। इस प्रकार भावकर्मसे द्रव्यकर्म और द्रव्यकसे भात्रकर्मका बन्ध होता है और यही संसार है।
कर्मोंके निमित्तसे रागादिरूपसे परिणमन करनेवाली आत्मा के रागादि निजभाव नहीं है, क्योंकि जो निजभाव होता है बहु उसके स्वरूप में प्रविष्ट रहता है, पर रागादि तो आत्माके स्वरूप प्रविष्ट हुए बिना ऊपर हो ऊपर प्रतिफलित होते हैं । ज्ञानी आत्मा इस रहस्यको जानता है इसलिए वह धर्मविद है, किन्तु अज्ञाना तो आत्माको रामादिस्वरूप हो मानता है । यही मान्यता अधर्म है ।
धर्मका स्वरूप निर्धारण कई दृष्टियोंस किया गया है। जो मोक्षका मार्ग है, वह धर्म है और मोक्षका मार्ग रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । संक्षेप में धर्म उसोको कहा जा सकता है जो मुक्तिकी प्राप्तिका हेतु है या मुक्तिकी ओर ले जानेवाला है और जो इससे विपरीत है वह संसारका कारण होनेसे अधर्म है । धर्मकी निम्नलिखित परिभाषाएं संभव हैं:"
१. वस्तुस्वभाव 1
२. रत्नत्रय - सम्प्रदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकूचारित्ररूप |
३. उत्तमक्षमादि दशलक्षणरूप |
४. दया – जीवका सरागभाव या शुभोगयोगरूप परिणति - आचार धर्मके विघातक मोह और भोग हैं। मोहके उपशम य एवं क्षयोपशमके होनेपर जो आत्मा में विशुद्धि उत्पन्न होती है, वहीं वास्तविक एवं भावरूप अन्तरंग धर्म है । बाह्य रूपमें जीव असंयमवाली प्रवृतियोंका करता है, उसे बहिरंग द्रव्यरूप धर्म कहते हैं। इन्द्रियों तथा मनके विषयसे निवृत्ति, हिंसा आदि पापों का त्याग एवं द्यूत आदि महाव्यमनास उपनि पहिरंग धर्म है । यह बहिरंग धर्म मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके बिना मन्द मन्दतर और मन्दतम उदय की स्थिति होता है । बहिरंग धर्म अनेक अम्युदयोंके कारणभूत पुण्यन्धका हेतु होनेके अतिरिक्त अन्तरंग धर्मकी सिद्धिमें भो १. चरितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति गिट्ठिी । मोहकलोही परिणामो अपगी हु समो ||
—प्रवचनसार गाथा - ७.
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कारण होता है । अन्तरंग धर्मके साथ बहिरंग धर्मको व्याप्ति है । जहाँ जिसजिस प्रमाण में अन्तरंग धर्मं पाया जाता है वहाँ उसके प्रतिपक्ष बाह्य असंयत प्रवृत्तिका अभाव भी अवश्य रहता है। अनन्तानुबन्धीकषाय तथा दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमादिसे सम्यग्दर्शनरूप धर्म उत्पन्न होता है । इस धर्मके उत्पन्न होते ही बहिरंग में भी निर्मलता आ जाती है और यह अन्तरंग निश्चयरूपधर्मं व्यवहारधर्मकी सिद्धिका सहायक होता है ।
कर्मबन्धके कारण मोह और योग हैं। मोहके तीन भेद है: - ( १ ) दर्शनमोहनीय, (२) कषायवेदनीय और (३) नोकषायवेदनीय । कषायवेदनीयका मेद अनन्तानुबन्धोका उदय सम्यग्दर्शनरूप धर्मका प्रतिपक्षी है। जब इसका उपशम, क्षय, क्षयोपशन होता है, तब अन्तरंग में धर्मंकी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और आत्मा अपने स्वरूपको अनुभूति करती है ।
सम्यग्दर्शन : स्वरूपविवेचन
वस्तु अनन्तगुणधर्मोका अखण्ड पिण्ड है। इसके स्वरूपका परिज्ञान अनेकान्ता के होता है | चारित्ररूप धर्म रत्नभयका ही रूपान्तर है । इस धर्मका मूल स्तम्भ सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनके अभाव में न तो ज्ञान ही सम्यक् होता है और न चारित्र हो । सम्यगदर्शन आत्मसत्ताकी आस्था है और है स्वस्वरूपविषयक दृढनिश्चय । मैं कौन हूँ, क्या हूँ, कैसा हूँ, इसका निर्णय सम्यग्दर्शन द्वारा ही होता है। जड़-चेतनकी भेदप्रतीति भी सम्यग्दर्शनसे ही होती है । स्व और पर, आत्मा और अनारमा, चैतन्य एवं जड़की स्वस्वरूपोपलब्धिका साधन भी सम्यग्दर्शन ही होती है । सम्यग्दर्शनके आलोक में ही आरमा यह निश्चय करती है कि अनन्त अतीतमें जब पुद्गलका एक कण भी मेरा अपना नहीं हो सका है, तब अनन्त अनागतमें वह मेरा कैसे हो सकेगा | वर्तमान क्षण में तो उसे अपना मानना नितान्त भ्रम में 'में' हूँ और पुद्गल 'पुद्गल' है । आत्मा कभी पुद्गल नहीं हो सकती और पुद्गल कभी आत्मा नहीं ।
यह सत्य है कि पुद्गलोंकी सत्ता सर्वत्र विद्यमान है और उस सत्ताको कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता। इस विश्वके कण-कण में अनन्तकालसे पुद्गलोंकी सत्ता रही है और अनन्त भविष्य में भी सत्ता रहेगी। अतएव पुद्गलोके रहते हुए भी आके स्वरूपकी आस्था करना ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शनकी निम्नलिखित परिभाषाएं उपलब्ध होती हैं:
१. तत्त्वार्थश्रद्धा-सप्ततत्त्व और नो पदार्थो की प्रतीति । २. स्वपरश्रद्धा 'स्व' और परकी रुचि ।
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३. परमार्थ देवशास्त्रगुरुकी प्रतीति। .. आत्मनिदान- अदागपती निर्मल मति !
५ अनन्तानुबन्धीकी चार प्रकृतियाँ तथा दर्शनमोहनीयको तीन इन सात प्रकृतियोंके उपशम-क्षयोपशम अथवा क्षयसे प्रादुर्भूत श्रद्धागुणकी निर्मल परिणति ।
सात तत्त्व; पुण्य पाप; एवं द्रव्य गुण पर्याय; का यथार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन है । मूलतः दो तत्त्व हैं:--जीव और अजोद । चेतनालक्षण जोव है और उससे भिन्न अजीव । जीवके साथ नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्मका संयोग है। अनादि कालसे इन तीनोंका संयोग चला आ रहा है । आत्म-कल्याणके लिये सात तत्त्व या नव पदार्थ प्रयोजनीय है। इनके स्वरूपका वास्तविक निर्णय कर प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है। इन सात तस्त्रों में जीव-अजीवका संयोग संसार है और इसके कारण आस्रव गवं बन्ध हैं। जीव और अजीवका जो वियोग-पृथकभाव है उसके कारण संवर एवं निर्जरा हैं । जिस प्रकार रोगी मनुष्यको रोग, उसके कारण; रोग-मुक्ति; और उसके कारण इन चारोंका ज्ञान आवश्यक है; उसी प्रकार जीवको संसार; संसारके कारण मुक्ति और मुक्तिके कारण इन चारोंका परिज्ञान अपेक्षित है । सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि जिसका मन मिथ्यात्त्रमे ग्रस्त है वह मनुष्य होते हुए भी पशुतुल्य है और जिसको आत्मामें सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है वह पण होकर भी मनुष्य के समान है।
सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिये कतिपय योग्यताओंकी आवश्यकता है। पहली योग्यता तो उस जीवका भव्य होना है 1 भव्यको ही सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होती है, अभव्यको नहीं । यह योग्यता स्वाभाविक है, प्रयत्नसाध्य नहीं। इस योग्यताके साथ संजीपर्याप्तक तथा पाँच लब्धियोंसे युक्त होना अपेक्षित है। इन लब्धियोंमें देशनालब्धि अत्यावश्यक है। यतः सम्यक्त्वप्राप्तिके पूर्व तत्वोपदेशका लाभ होना आवश्यक है। सारांश यह है कि सम्यग्दर्शन संज्ञा पचेन्द्रिय, पर्याप्तक, भव्यजीवको हो होता है, अन्यको नहीं। भव्योंमें भी यह उन्हींको प्राप्त होगा, जिनका संसार-परिभ्रमणका काल अर्द्धपुद्गलपरावर्तनके काल से अधिक अवशिष्ट नहीं है । लेश्याओंके विषयमें यह कथन है कि मनुष्य और तिर्यञ्चोंके तीन शुभ लेश्याओंमेंसे कोई भी लेश्या रह सकती है। देव और नारकियों में जहां जो लेश्या है उसोमें औपशामिक सम्यग्दर्शन होता है । कर्म-स्थिति के विषयमें कहा जाता है कि जिसके बध्यमान कर्माको स्थिति अन्तःकोडा-कोडी-प्रमाण हो तथा सत्तामें स्थित कर्मोकी स्थिति संख्यातहजार सागर कम अन्तः कोडा
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कोडी प्रमाण रह गई हो वहीं सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है। इससे अधिक स्थितिबन्ध पड़ने पर सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हो सकता है ।
सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की योग्यता चारों गतिवाले भव्यजीवोंको होती है । क्षायोपशमिक, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण ये पाँच लब्धियों भव्यको प्राप्त होती है। इनमें चार लब्धियाँ तो सामान्य है, क्योंकि वे भव्य और अभव्य दोनोंको प्राप्त होती हैं, पर करणलब्धिविशेष है। यह भव्य को ही प्राप्त होती है और इसके प्राप्त होने पर नियमतः सम्यग्दर्शन होता है । क्षायोपशमिक लब्धिमें जीवके परिणाम उत्तरोत्तर निर्मल होते जाते हैं । विशुद्धिलब्वि प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धमें कारणभूत परिणामोंको प्राप्ति स्वरूप है । देशनालब्धि में तस्वोपदेश और प्रायोग्यलब्धि में अशुभकमी चातिवाकमों के अनुको लता और दारूरूप तथा अघातिया कर्मों के अनुभागको नीम और काञ्जीरूप कर देना है । करणलब्धिमें भावोंकी उत्तरोत्तर विशुद्धि प्राप्स को जाती है । भाव सोन प्रकार के होते हैं: - (१) अधःकरण, (२) अपूर्वकरण और (३) अनिवृत्तिकरण | जिसमें आगमो समयमें रहनेवाले जीवोंके परिणाम समान और असमान दोनों प्रकारके होते हैं वह अधःकरण है । इस कोटिके परिणामोंमें समानता पायी जाती है तथा नाना जीवोंको अपेक्षा समानता और असमानता दोनों ही घटित होती हैं ।
जिसमें प्रत्येक समय अपूर्व - अपूर्व नये-नये परिणाम उत्पन्न हों, उसे अपूर्वकरण कहते हैं ! अपूर्वकरण में समसमयवर्ती जीवोंके परिणाम समान एवं असमान दोनों हो प्रकार के होते हैं । परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम असमान ही होते हैं । अपूर्व करणका काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होता है |
जहाँ एक समय में एक ही परिणाम उत्पन्न होता है उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं । इस करण में समसमयवर्ती जीवोंके परिणाम समान हो होते हैं और विषमसमयवर्ती जीवों के परिणाम विषम ही होते हैं । इसका कारण यह है कि यहाँ एक समयमें एक ही परिणाम होता है । इसलिये उस समय में जितने जीव होंगे उन सबके परिणाम समान ही होंगे और भिन्न समयोंमें जो जीव होंगे, उनके परिणाम भिन्न हो होंगे। इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त है पर अपूर्वकरणकी अपेक्षा कम है ।
१. गोम्मट्टसार जीवकाण्ड, गाथा ६५१, ६५२.
२.
गाथा ५१,५२, ५३, ४९, ५०.
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खोदों करणों का उपयोग - अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणका उपयोग मिध्यात्वक मौके निषेकोंको घटाना है । अधःकरण में परिणामोंकी अनन्तगुणी विशुद्धिके साथ नवोन बन्धको स्थितिका घटना प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग में अनन्तगुणो वृद्धिका होना एवं अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागका अनन्तवाँ भाग घटना-रूप क्रियाएँ होती हैं। अपूर्वकरण में सत्ता में स्थित पूर्वकर्मों की स्थिति प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में उत्तरोत्तर क्षोण होती है | अतः स्थितिकाण्डका घात होता है तथा प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमें उत्तरात्तर पूर्वकर्मों का अनुभाग घटने से अनुभागकाण्डक भी क्षीण होता है । गुणश्रेणोके काल में क्रमशः असंख्यातगुणित कर्म निर्जराके योग्य होते हैं । अतः गुणश्रेणि निर्जरा होती है । अपूर्वकरण के पश्चात् अनिवृत्तिकरण आता है । उसका काल अपूर्वकरण के कालसे संख्यातवें भाग होता है। अनन्तर अभिवृत्तिकरणकालके पोछे उदय आते योग्य मिथ्यात्वकर्मा के निकोंका अन्तर्मुहुर्त के लिये अभाव होता है । मिध्यात्वके जो निषेक उदयमें आनेवाले थे उन्हें उदयके अयोग्य किया जाता है।
सम्यग्वर्शनको उत्पत्तिके कारण- कारण दो प्रकार के होते हैं: - (१) उपादानकारण और (२) निमित्तकारण । जो स्वयं कार्यरूपमें परिणत होता है, वह उपादान कारण है और जो स्वयं कार्य की सिद्धिमें कारण होता है वह निमित्तकारण है । अन्तरंग और बहिरंगके भेद निमित्तके भी दो भेद है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका उपादानकारण आसन्न भव्यता; कर्महानि; संज्ञित्व; शुद्धपरिणाम और देशना आदि विशेषताओंसे युक्त आत्मा है । अन्तरंग निमित्तकारण सम्यक्त्वको प्रतिबन्धक अनन्तानुबन्धि का मान-मायादि, सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम है । बहिरंग निमित्तकारण शद्गुरु आदि हैं । अन्तरंग निमित्तकारणके मिलने पर सम्यग्दर्शननियमतः होता है परन्तु वहिरंग निमित्तके मिलने पर सम्यग्दर्शन होता भी है और नहीं भी ।
नरकगति में तीसरे नरक तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, और तोयवेदना अनुभव ये तीन चतुर्थ से सप्तम नरक तक जातिस्मरण और तोयवेदनानुभव ये दो; तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन ये तीन देवगतिमें बारहवें स्वर्ग तक जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनकल्याणदर्शन और देवऋद्धिदर्शन ये चार, त्रयोदश स्वर्गसे पोडश स्वर्ग तक देवऋद्धिदर्शनको छोड़कर शेष तीन एवं उसके आगे नवम ग्रैवेयक तक जातिस्मरण तथा धर्मश्रवण से दो बहिरंग निर्मित है। ग्रैवेयकसे ऊपर सम्यग्दृष्टि
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ही उत्पन्न होते हैं अतः वहाँ बहिरंग निमिक्त की आवश्यकता नहीं है ।"
वस्तुतः सम्यग्दृष्टि जीवको विपरीत अभिनिवेश रहित आत्माका श्रद्धान होता है तथा साथमें देवगुरु आदिका भी श्रद्धान रहता है। इनमेंसे प्रथमको निश्चय - सम्यग्दर्शन और द्वितीयको व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहा जाता है । जो अपना कल्याण करना चाहता है उसे ऐसे होना चाहिये, जिन्होंने अपने पुरुषार्थसे पूर्ण आत्मकल्याण किया है। दूसरे शब्दों में वितराग- सर्वज्ञ और हितोपदेशीकी पहचान करना चाहिये । पश्चात् इनके द्वारा प्रतिपादित श्रुतके ज्ञानका अवलम्बन लेकर अपने आत्म-स्वरूपका निर्णय करना एवं सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र ही उसमें निमित्त बनते हैं और उनकी श्रद्धा के बिना लागे नहीं बढ़ा जा सकता है। जिनकी स्त्री, पुत्र, धन, गृह बादि संसारके निमित्तों में तीव्र रुचि रहती है उन्हें धर्ममें निमित्त देव शास्त्रगुरुके प्रति रुचि उत्पन्न नहीं होती है। अतएव सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशीके वचनोंका अवलम्बन लेकर आत्म-स्वरूपकी प्रतीतिका होना अशक्य है। आत्माका स्वभाव है और यह किसी दूसरेके अधीन नहीं है और न दूसरेके अवलम्बनसे प्राप्त होता है । यह तो अपने को जानने-देखनेसे अपने में ही प्रादुर्भूत होता है। इसी कारण ऐसे महापुरुषों और उनकी वाणीका आश्रय ग्रहण करना पड़ता है जिन्होने अपने में पूर्ण धर्म प्रकट किया है। सम्यग्दर्शन के भेव
उत्पत्तिकी अपेक्षा से सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं :- (१) निसगंज और (२) अधिगमज । जो पूर्व संस्कारको प्रवलतासे परोपदेशके बिना ही उत्पन्न होता है वह निसगंज सम्यग्दर्शन कहलाता है। जो परके उपदेशपूर्वक होता है वह अधिगम है । इन दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शनोंकी उत्पत्तिका अन्तरंग कारण सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम ही है । बाह्य कारणकी अपेक्षा उक्त दो भेद हैं ।
सम्यग्दर्शन के सामान्यतः तोन भेद है : पशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक |
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१. बाह्यं नारकाणां प्राक्चतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधनं केवाविज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणं, केषांचिद्वेनाभिभवः । चतुर्थीमारभ्य आ सप्तम्यया नारकाणां जातिस्मरणं वेदनाभिभवश्च । तिरश्चां फेषांचिज्जातिरूपरणं, केषांचिद्धमंश्रवण, चिज्जनबिम्वदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैत्र । देवानां केषांचि जातिस्मरणं, केषांचिज्जिनमहिमदर्शनं केषांचिद्वेषद्धिदर्शनं "
अनुदिशानुत्तरविमानवासनामियं कल्पना न सम्भवति ।
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ओपशमिक सम्यक्त्व
अनन्तानुबन्धीकी चार और दर्शनमोहनीयकी तीन इन सात प्रकृतियोंके उपशमसे औपशमिक सश्यत्रस्य उत्पन्न होता है । इसके दो भेद हैं--प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन और द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन |
व्यधःकरण आदि परिणाम विशुद्धि के द्वारा मिथ्यात्वके जो निषेक उदय में आनेवाले थे, उन्हें उदय अयोग्यकर अनन्तानुबन्धीचतुष्कको भी उदयके अयोग्य किया जाता है। इस प्रकार उदय अयोग्य प्रकृतियोंका अभाव होनेसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है । इस सम्यक्त्वके प्रथम समय में मिध्यात्व प्रकृतिके तीन भेद हो जाते हैं: - ( १ ) सम्यक्त्व, (२) मिथ्यात्व और (३) सम्यङिमथ्यात्व | इन तीन प्रकृतियों तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंका उदयाभाव होनेपर प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है। इस सम्ययत्वका अस्तित्व चतुर्थगुणस्थानसे सप्तम गुणस्थान तक पाया जाता है ।
अनन्तानुबन्धी-चतुष्ककी विसंयोजना और दर्शनमोहनीयको तीन प्रकृतियोंका उपशम होनेसे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है। इस सम्यग्दर्शन करे धारण करनेवाला जीव उपशमश्रेणीका आरोहण कर ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है और वहाँ पतनकर नीचे आता है। पतनकी अपेक्षा चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थान में भी इसका सद्भाव रहता है।
कायोपशमिक सम्यगस्व
इस सम्यक्त्वका दूसरा नाम वेदकसम्यक्त्व भी है। मिथ्यात्व सम्य मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन छह सर्वघाती प्रकृतियोंके वर्त्तमान कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम और सम्यक्त्वप्रकृतिनामक देशघाती प्रकृतिका उदय रहनेपर जो सम्यक्त्व होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । इस सम्यक्त्वमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय रहनेसे चल, मलिन और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते रहते हैं । छह सबंधाती प्रकृतियोंके उदयाभावो क्षय और सदवस्थारूप उपशमकी प्रधानता के कारण क्षायोपशमिक तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदयकी अपेक्षा वेदकसम्यग्दर्शन कहलाता है। इसकी उत्पत्ति सादिमिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती है । यह सम्यग्दर्शन चारों गतियोंमें उत्पन्न होता है । वस्तुतः सर्वघाती छह प्रकृतियों के उदयाभात्री क्षय और सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति नामक देशघाती प्रकृतिका उदय अपेक्षित होता है ।
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सायिक सम्यग्दर्शन
मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोष, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य केवली या श्रुतकेवलोके पादमूलमें आरम्भ करता है।' इसकी पूर्णता चारों गतियों में सम्भव है। यह सम्यग्दर्शन छुटता नहीं है । जिसे क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्ति हो जाती है, यह उसी माहोक लाग्न र मेना है, अथवा तृतीय, चतुर्थ भवसे । चतुर्थ भवका अतिक्रमण नहीं कर सकता है। जिस क्षायिक सम्यग्दृष्टिने आयुका बन्ध कर लिया है, वह नरक या देवगतिमें उत्पन्न होता है और वहाँसे मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करता है। चारों गतिसम्बन्धी आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्व हो सकता है। अतः बदायुष्क सम्यग्दृष्टिका चारों गतियोंमें जाना सम्भव है । यह नियम है कि सम्यक्त्वके कालमें यदि मनुष्य या लियंचके आयुका बन्ध होता है, तो नियमतः देवायु ही बंधती है । और नारकी तथा देवके नियमसे मनुष्य आयुका ही बंध होता है।'
सम्यग्दर्शन के अन्य भेव
सम्यग्दर्शनके निश्चयसम्यग्दर्श' और व्यवहारसम्यग्दर्शन ये दो भेद भी किये जाते हैं। शुद्धात्मकी श्रद्धा करना निश्चय सम्यग्दर्शन है और विपरीताभिनिवेश रहिस परमार्थ देव, शास्त्र, मुरुकी पच्चीस दोषरहित अष्टांगसहित श्रद्धा करना व्यवहारसम्यग्दर्शन है। अथवा जीवादि सात तत्त्वोंके विकल्पसे रहित शुद्ध आत्माके श्रद्धानको निश्चयसम्यग्दर्शन और सात तत्त्वोंके विकल्पोंसे सहित श्रद्धान करना व्यवहारसम्यग्दर्शन है । अध्यात्म-दृष्टि से सम्यग्दर्शनके सराग और वीतराग ये दो भेद सम्भव हैं। आत्म-विशुद्धिमात्रको वीतराग सम्यग्दर्शन और प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य इन चार गुणोंकी अभिव्यक्तिको सरागसम्यग्दर्शन कहते हैं।
१. सणमोहक्खवणापटुवगो कम्मभूमिजादो हु । मगुसो केवलिमूले णिटुवगो होदि सम्वत्व ॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गापा ६४७. २. चत्तारि वि खेत्ताई आउगबंधेण होदि सम्मतं । अणुवदमहत्वदाई ण लहा देवाउगं मोत्तुं ।।
-वही, गाथा ६५२. ४९८ : तोषंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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प्रशम
प्रशमगुण आत्मा के कषाय या विकारोंके उपशम होनेपर उत्पन्न होता है । राग या द्वेष जो आत्मा के सबसे बड़े शत्रु हैं, जिनके कारण इस जीवको नाना प्रकारकी इष्टानिष्ट कल्पनाएं होती रहती हैं, जिनसे संसारके पदार्थोंको सुखमय समझा जाता है, वे सब समाप्त हो जाते हैं। प्रशगुण आत्माको निर्मल बनाता है, चित्तके विकारोंको दूर करता है और मनको विकल्पोंसे रहित बनाता है । प्रशमगुण द्वारा जीवको विकृत अवस्था दूर होती है और आत्माकी निर्मल प्रवृत्ति जागृत होती है ।
संवेग
संसारसे मीतरूप परिणामोंका होना संवेग है । इस गुणके उत्पन्न होनेसे आत्मामें शुद्धि उत्पन्न होती है । जो व्यक्ति इस संसारमें रहता हुआ यह विचार करता है कि आयुके समाप्त होनेपर मुझे अन्य गतिको प्राप्त करना है और यह संसारका चक्र निरन्तर चलता रहेगा, यह आत्मा अकेला ही राग-द्वेष, मोहके कारण उत्पन्न होनेवाली कर्म-पर्यायों का भोक्ता है । अतएव आत्मोत्थानके लिये सदैव सर्वष्ट रहना अत्यावश्यक है। जब तक संसारसे संवग उत्पन्न नहीं होगा, तब तक अहंकार और ममकारकी परिणति दूर नहीं हो सकती है | ज्ञानदर्शनमय और संसार के समस्त विकारोंसे रहित आध्यात्मिक सुखका भण्डार यह आत्मतत्त्व ही है और इसकी उपलब्धि सम्यक्त्वके द्वारा होती है । अनुकम्पा
समस्त जीवोंमें दयाभाव रखना अनुकम्पा गुण है । व्यवहारमें वका लक्षण जीवरक्षा है । जीवरक्षासे सभी प्रकारके पापोंका निरोध होता है । दया के समान कोई भी धर्म नहीं है । अतः पहले आत्म-स्वरूपको अवगत करना और तत्पश्चात् जीव दया में प्रवृत्त होना धर्म है । जिस प्रकार हमें अपनी आत्मा प्रिय है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी प्रिय है । जो व्यवहार हमें अरुचिकर प्रतीत होता है, वह दूसरे प्राणियोंको भी अरुचिकर प्रतीत होता होगा । अतः समस्त परिस्थितियों में अपनेको देखनेसे पापका निरोध तो होता ही है, साथ ही अनुकम्पाकी भी प्रवृत्ति जागृत होती है । अनुकम्पा या दयाके आठ भेद हैं
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१. द्रव्यदया - अपने समान अन्य प्राणियोंका भी पूरा ध्यान रखना और उनके साथ अहिंसक व्यवहार करना ।
२. भावदया -- अन्य प्राणियों को अशुभ कार्य करते हुए देखकर अनुकम्पा बुद्धिसे उपदेश देना ।
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३. स्वदया – आत्मालोचन करना एवं सम्यग्दर्शन धारण करनेके लिये प्रयासशील रहना और अपने भीतर रागादिक विकार उत्पन्न न होने देना ।
४. परदया – षट्कायके जीवोंको रक्षा करना ।
५. स्वरूपदया – सूक्ष्म विवेक द्वारा अपने स्वरूपका विचार करना, आत्माके ऊपर कर्मो का जो आवरण आ गया है, उसके दूर करनेका उपाय विचारना । ६. अनुबन्धदया - मित्रों, शिष्यों या अन्य प्राणियोंको हितकी प्रेरणासे उपदेश देना उषा कुमादि दुगार जना !
७. व्यवहारदया – उपयोगपूर्वक और विधिपूर्वक अन्य प्राणियोंकी सुखसुविधाओंका पूरा-पूरा ध्यान रखना ।
८. निश्चयदया -- शुद्धोपयोगमें एकताभाव और अभेद उपयोगका होना । समस्त पर-पदार्थोंसे उपयोगको हटाकर मास्म परिणतिमें लीन होना निश्चयदया है ।
आस्तिक्य
जीवादि पदार्थों के अस्तित्वको स्वीकार करने रूप बुद्धिका होना आस्तिक्य'भाव है। आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है, अनन्त है, अमूत्तं है, शान-दर्शनयुक्त है, चेतन है और है शानादिपर्यायों का कर्त्ता । इस आत्म-स्वरूपके साथ अजीवादि छह तस्वोंके सम्बन्धको स्वीकार करते हुए आत्माकी विकृत परिणतिको दूर करनेके हेतु सास तत्त्वोंके स्वरूपपर दृढ़ आस्था रखना आस्तिक्यभाव है । आत्माके अस्तित्वरूपमें विश्वास करनेसे ही सम्यक्त्वको उपलब्धि होती है ।
ज्ञानप्रधान निमित्तादिककी अपेक्षासे सम्यक्त्वके दश भेद हैं:
१. माशासम्यक्त्व'—जिनाताको प्रधानतासे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों की उत्पन्न श्रद्धा
२. मार्ग सम्यक्त्व-निर्ग्रन्य मार्गका अवलोकनसे उत्पन्न । ३. उपदेशसम्यक्त्व—आगमवेत्ता पुरुषोंके उपदेशके श्रवणसे उत्पन्न ।
१. आशामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रवीजसंक्षेपात् । विस्तारार्थाभ्यां भवमवपरमायाविगाढं च ॥ माज्ञा सम्यक्त्वमुक्तं यदुत विरुचितं वीतरागाशयैव त्यक्तग्रन्थप्रपञ्चं शिवमभूतपथं श्रद्दधम्मोहशान्तः । मार्गश्रद्धानमाहुः पुरुषवरपुराणोपदेशोपजाता या संज्ञानागमाब्धिप्रसुतिभिरुपदेशादिरादेशि दृष्टिः ॥ ५०० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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४. सूत्रसम्यक्त्व - मुनि आचरणके प्रतिपादक आचारसूत्रोंके श्रवणसे उत्पन्न ! ५. बीजसम्यक्त्व - गणितज्ञानके कारण बीजसमूहों के श्रद्धान से उत्पन्न । ६. संक्षेपसम्यक्त्व - पदार्थोके संक्षिप्त विवेचनको सुनकर श्रद्धाका उत्पन्न होना |
७. विस्तारसम्यक्त्व – विस्तारपूर्वक आगमके सुनने से उत्पन्न श्रद्धान | ८. अर्थसम्यक्त्व - शास्त्रके वचन बिना किसी अर्थके निमित्तसे उत्पन्न श्रद्धान ।
९. अवगाढसम्यक्त्व - श्रुतकेबलीका तत्त्वश्रद्धान । १०. परमावगाढसम्यक्त्व - केवलीका तत्त्वश्रद्धान ।
सम्यग्दर्शनका स्थितिकाल
औपशमिक सम्यग्दर्शनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी ! क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छियासठ सागर प्रमाण है । क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर नष्ट नहीं होता, इसलिये इस अपेक्षासे उसकी स्थिति सादि अनन्त है, पर संसार में रहनेको अपेक्षा जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त सहित आठ वर्ष कम दो करोड़ वर्ष पूर्व तथा तैतीस सागर है।
सम्यग्दर्शन के अंग
जिस प्रकार मानवशरीरमें दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पृष्ठ उरस्थल और मस्तक ये आठ अंग होते हैं और इन आठ अंगों से परिपूर्ण रहनेपर ही मनुष्य काम करनेमें समर्थ होता है, इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके भी निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्य, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना आठ अंग हैं । इन अष्टाङ्गयुक्त सम्यग्दर्शनका पालन करने से ही संसार-संततिका
वाकयभारसूत्र मुनिचरणविधेः सूचनं श्रघानः सूक्तासी सूत्रदृष्टिरषिगमगते रथं सार्थस्य बीजः । कैश्विज्जातोपलब्धेरसमक्षमवसादृद्वीमदृष्टिः पदार्थान् संक्षेपेणेन बुद्ध्वा रुचिमुपगतवान् साधु संक्षेपसृष्टिः ॥ यः श्रुत्वा द्वादशाङ्गों कृतरुबिरथ तं विद्धि विस्तारदृष्टि संजातार्षास्कुतश्चित्प्रय चनव चमाम्म सरेणावं दृष्टि: । दृष्टिः साङ्गाङ्गवाह्मवचनमय गाह्योत्थिता माथ गाढा कैस्यालकिताबें चिरि परमावादिगाढेति रूवा ॥
- मात्मानुशासन, गाथा ११-१४. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५०१
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उन्मूलन होता है । इन आठ अंगोंमें वैयक्तिक उन्नतिके लिए प्रारम्भिक चार अंग और समाज-सम्बन्धी उन्नति के लिए उपगृहनादि चार अंग आवश्यक है । मिशक्ति-अंग
वीतराग, हितोपदेशी और सर्वज्ञ परमात्माके वचन कदापि मिथ्या नहीं हो सकते । कषाय अथवा अज्ञानके कारण ही मिथ्याभाषण होता है । जो रागद्वेष-मोहसे रहित, निष्कषाय, सर्वज्ञ है, उसके बचन मिथ्या नहीं हो सकते । इसप्रकार वीतराग-वचनपर दृढ़ आस्था रखना निःशङ्कित अंग है। ___ सम्मानित जिनोति नम, अन्सा और दुखी पदार्थों के विषयमें भी शंकित नहीं होता । सम्यग्दर्शनके भाप्त, आगम, गुरु और तत्व ये चार विषय हैं। इनके सम्बन्धमें ये तत्त्व ये ही हैं, और इसी प्रकासे हैं, अन्य या अन्य प्रकारसे नहीं, इस प्रकारका श्रद्धान करना निःशशित अंग है । निःशंकतामें अकम्पताका रहना भी आवश्यक है। श्रद्धा या प्रतीतिमें चलितालित वृत्तिका पाया वाना जित है।
निःशङ्कसम्यग्दर्शन हो संसार और उसके कारणोंका उच्छेदक है । यदि श्रद्धामें कुछ भी शंका बनी रहती है, तो सत्त्वज्ञानके रहनेपर भी अभीष्ट प्रयोजनको सिद्धि नहीं होती।
शंका मुख्यतया दो प्रकारसे उत्पन्न होती है:-(१) अज्ञानमूलक और (२) दौर्बल्यमूलक | दुर्बलताका कारण इहलोकभय, परलोकभय, वेदनाभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय और आकस्मिकभय ये सात भय बतलाये गये हैं। जो इन भयोंसे मुक्त हो जाता है, वही निःशंक हो सकता है। निःकाक्षित-अंग
किसी प्रकारके प्रलोभनमें पड़कर परमतकी अथवा सांसारिक सुखोंकी अभिलाषा करना कांक्षा है, इस कांक्षाका न होना निःकांक्षितधर्म है । सांसारिक सुखकी किसी प्रकारकी आकांक्षा न करना निःकांक्षित अंग है । वस्तुतः सांसारिक सुख व्यक्तिके अधीन न होकर कर्मोके अधीन है। कोंके सीव, मन्द उदयके समय यह घटता-बढ़ता रहता है। यह सांसारिक सुख सान्त है और है आकुलता उत्पन्न करनेवाला। यह सुख अनेक प्रकारके दुःखोंसे मिश्रित है और है बाधा उत्पन्न करनेवाला'।
पूर्ण शुद्ध सम्यग्दृष्टि अपने शुद्ध आत्मपदके सिवाय अन्य किसी भी पदको १. सपरं बाधासहियं विच्छिणं बंधकारणं विसमं ।
अं इवियेहि लवंतं सोनखं दुक्खमेव तथा ।।-प्रतचनसार गाथा ७६. ५०२ : तीर्थंकर महावीर और उनका प्राचार्य-परम्परा
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अपना स्वतन्त्र, स्वाधीन, सम्पतिका निकुछ और उपादेय नहीं मानता | आत्मामें पर-पुद्गल के सम्बन्धसे विकार हैं अथवा होते हैं, वे वास्तवमें आत्मा नहीं हैं । शुद्ध आत्माका स्वरूप तत्त्वतः उन सभी विकारोंसे रहित है । इस प्रकारको निःशंक और निश्चल आत्मा सभी प्रकारको आकांक्षाओंसे रहित होती हैं । अतएव सम्यग्दृष्टि सांसारिक सुखकोया योगोंकी आकांक्षा नहीं करता | निर्विचिकित्सा - अंग
मुनिजन देहमें स्थित होकर भी देह-सम्बन्धी वासना अतीत होते हैं। अतः वे शरीरका संस्कार नहीं करते। उनके मलिन शरीरको देखकर ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है । वस्तुतः मनुष्यका अपवित्र देह भी रत्नत्रयके द्वारा पूज्यताको प्राप्त हो जाता है। अतएव मलिन शरीरको बोर व्यान न देकर रत्नत्रयपूत आत्माकी ओर दृष्टि रखना और वाह्य मलिनतासे जुगुप्सा या ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है । यों तो विचिकित्सा के अनेक कारण हो सकते हैं, पर सामान्यतया इन कारणों को तान भागोंमें विभक्त किया जा सकता है : - ( १ ) जन्मजन्य, (२) जराजन्य और (३) रोगजन्य |
अदृष्टि-अंग
सम्यग्दृष्टिकी प्रत्येक प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है। वह किसीका अन्धानुकरण नहीं करता। वह सोच-विचारकर प्रत्येक कार्यको करता है। उसकी प्रत्येक क्रिया आत्माको उज्ज्वल बनाने में निमित्त होती है । वह किसी मिथ्यामार्गी जीवको अभ्युदय प्राप्त करते हुए देखकर भी ऐसा विचार करता है कि उसका वह वैभव पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों का फल है, मिथ्यामार्ग के सेवनका नहीं । अतः वह मिथ्यामार्ग की न तो प्रशंसा करता है और न उसे उपादेय ही मानता है । यह श्रद्धालु तो होता है, पर अन्धश्रद्धालु नहीं । अमूढदृष्टि अन्धश्रद्धाका पूर्ण त्याग करता है । उपगूहन-अंग
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग स्वाभावतः निर्मल है । यदि कदाचित् अज्ञानी अथवा शिथिलाचारियों द्वारा उसमें कोई दोष उत्पन्न हो जाय - लोकापवादका अवसर आ जाय तो सम्यग्दृष्टि जीव उसका निराकरण करता है, उस दोषको छिपाता है। यह क्रिया उपगूहन कहलाती है। अज्ञानी और अशक्त व्यक्तियों द्वारा रत्नत्रय और रत्नत्रयके धारक व्यक्तियों में आये हुए दोषोंका प्रच्छादन करना उपगूहन अंग है।
१. स्वभावतोऽशुचौ काये - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पथ १३.
वीर्थंकर महावीर और उनकी देशमा ५०३
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सम्यग्यदृष्टि गुणी, संयमी, मानी और धर्मात्मा व्यक्तियोंकी समुचित प्रशंसा करता है उनके उत्साहको वृद्धि करता है और यथाशक्ति धर्माराधनके लिए सहयोग प्रदान करता है । इस जन्य नाग हमण भी। जिसका अर्थ आत्मगुणोंकी वृद्धि करना है। स्थितोकरण-अंग
सांसारिक कष्टोंमें पड़कर, प्रलोभनोंके वशीभूत होकर या अन्य किसी प्रकारसे बाधित होकर जो धर्मात्मा कि अपने धर्मसे व्युत होनेवाला है अथवा चारित्रसे भ्रष्ट होने जा रहा है, उसका कष्ट निवारण करना अथवा भ्रष्ट होनेके निमित्तको हटाकर उसे सिार करना स्थितीकरण-अंग है । __ साधर्मी बन्धुको धर्मश्रद्धा और आचरणसे विचलित न होने देना तथा विचलित होते हुओंको धर्ममें स्थित करना भी स्थितीकरण है। वात्सल्य-अंग
धर्मका सम्बन्ध अन्य सांसारिक सम्बन्धोंसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह अप्रशस्त रागका कारण नहीं, किन्तु प्रकाशकी ओर ले जाने वाला है । साधर्मी बन्धुओंके प्रति उसी प्रकारका आन्तरिक स्नेह करना, जिस प्रकार गाय अपने बछड़ेसे करती है।
वस्तुतः साधर्मी बन्धुओंके प्रति निश्छल और आन्तरिक स्नेह करना वात्सल्य है। इस गुणके कारण साधर्मी भाई निकट सम्पर्क में आते हैं और उनका संगठन दृढ़ होता है । धूर्तता मायाचार, वंचकता आदिको छोड़कर सद्भावनापूर्वक साधर्मियोंका आदर, सत्कार, पुरस्कार, विनय, वैयावृत्त्य, भक्ति, सम्मान, प्रशंसा आदि करना वात्सल्य है। प्रभावना-अंग
जगतमें वीतराग-मार्गका विस्तार करना, धर्म-सम्बन्धी भ्रमको दूर करना और धर्मको महत्ता स्थापित करना प्रभावना है।
जिनधर्म-विषयक अज्ञानको दूरकर धर्मका वास्तविक ज्ञान कराना प्रभावना है। देव, शास्त्र और गुरुके स्वरूपको लेकर जनसाधारणमें जो अज्ञान वर्तमान है. उसे दूर करना प्रभावनाके अन्तर्गत है।
सम्यग्दृष्टि रत्नत्रयके तेजसे आत्माको प्रभावित करते हुए दान, तप, विद्या, जिनपूजा, मन्त्रशक्ति बादिके द्वारा लोकमें जिनशासनका महत्व प्रकट करता हैं। जिनशासनकी महिमा जिन पिन कार्योंसे अभिव्यक्त होती है, उन उन कायोका याचरण सम्पग्दष्टि करता है। ५०४ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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उपमूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन चारोंका पालन 'स्व' और 'पर' दोनों में हो हुआ करता है। अन्य व्यक्तियों के समान अपनेको भी संभालना, गिरनेका प्रसंग आनेपर सावधान हो जाना और कदाचित् गिरजानेपर पुनः पदमें अपनेको प्रतिष्ठित करना आवश्यक है। ___ दर्शन लाया मोसमा मिलिज होनेने दो कारण है:-(१) आगम ज्ञानका अभाव या अल्पता और (२) संहननको कमी। इन दोनों कारणोंसे जीव परीषह और उपसर्ग सहन करनेसे विचलित हो सकता है । सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष या न्यूनताएं __ सम्यग्दर्शनके आठ मद, आठ मल, छः अनायतन और तीन मूढताएं इस प्रकार पच्चीस दोष होते हैं । मिथ्यादृष्टि इन दोषोंके अघोन होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप पंचपरावर्तन निरन्तर करता रहता है। ऐसी कोई पर्याय नहीं, जो इसने धारण न की हो, ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ यह उत्पन्न न हुआ हो तथा जहाँ इसका मरण न हुआ हो, ऐसा कोई समय नहीं, जिसमें इसने जन्म न ग्रहण किया हो, ऐसा कोई भव नहीं, जो इसने न पाया हो। अतः मिथ्यात्वका त्यागकर पच्चीस दोषरहित सम्यग्दर्शन धारण करना मनुष्यपर्यायका फल है।
मद या अहंकार सम्यग्दर्शनका दोष है। शान आदि आठ वस्तुओंका आश्रय लेकर अपना बड़प्पन प्रकट करना मद है। मद आठ प्रकारके होते हैं:
१.ज्ञानमद'-क्षायोपमिक ज्ञानका अहंकार करना कि मुझसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । मैं सकलशास्त्रोंका ज्ञाता हूँ।
२. प्रतिष्ठा या पूजामद-अपनी पूजा-प्रतिष्ठा या लौकिक सम्मानका गर्व करना प्रतिष्ठा या पूजामद है ।
३. कुलमद-मेरा पितृपक्ष अतीव उज्ज्वल है, मेरे इस वंशमें भाजतक कोई दोष नहीं लगा है ! इस प्रकार पितृवंशका गर्व करना कुलमद है। ___४, जातिमद-मेरा मातृपक्ष बहुत उन्नत है । यह शीलमें सुलोचना, सीता, अनन्तमती और चन्दनाके तुल्य है। इस प्रकार मासाके वंशका अभिमान करना जातिमद है। १. भहं ज्ञानवान् सकलशास्त्रज्ञो बतें' अहं मान्यो महामण्डलेश्वरा मत्पादसेवकाः ।
कुलमपि मम पितृपक्षोऽसीवोज्ज्वल:"1 मम माता संघस्य पत्पुर्दहिता शीलेन सुलोचना-सीतर-अनन्तमती-वन्दनाविका वर्तते । "मम रूपाने कामदेवोऽपि दासत्वं करोतीत्यष्टमदाः ।
--मोक्षपाहुर-टीका गा० २७. सौयंकर महावीर और उनको देशना : ५०५
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५. बलमद -- शारीरिक शक्तिकी दृष्टिसे गर्व करना बलमद है ।
६. ऋद्धिमद - बुद्धि आदि ऋद्धियों अथवा गृहस्थको अपेक्षा धनादि वैभवका गर्व करना ऋद्धिमद है ।
७. तपमद - अनशनादि तपोंका गर्म करना तपमद है ।
८. शरीरमद - अपने स्वस्थ एवं सुन्दर शरीरका गवं करना शरीरमद है । वस्तुतः सम्यग्दृष्ठि विचार करता है कि क्षयोपशमजन्य ज्ञान, पूजा आदि वस्तुएँ मेरे अधीन नहीं हैं, किन्तु कर्माधीन हैं और कर्मोदय प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है, अतएव शरीर, ज्ञान, ऐश्वर्य आदिका मद करना निरर्थक है । ररनत्रयरूप धर्म ही जोवात्माके स्वाधीन है, कालानवच्छिन है, पवित्र-निर्मल और स्वयं कल्याणस्वरूप है । संसारके अन्य सब पदार्थ 'पर' हैं और आत्मोस्थान में सहायक नहीं हैं । अतः सम्यग्दृष्टि यदि अपने अन्य सर्धामओंके साथ ज्ञान, पूजा, कुल, जाति आदि आठ विषयों में से किसीका भी आश्रय लेकर तिरस्कारभाव रखता है, तो वह उसका 'स्मय' नामक दोष कहलाता है । इससे उसकी विशुद्धि नष्ट होती है और कदाचित् वह अपने स्वरूपसे च्युत भी हो सकता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ज्ञानादि हेय नहीं हैं, अपितु ज्ञानादिके मद हेय हैं । आस्मा सम्बन्धी अन्धविश्वास
अन्धश्रद्धालु बनकर आत्महितका विचार किये बिना ही लोक, देव, एवं धर्म-सम्बन्धी मूढ़तायुक्त क्रियाओंमें प्रवृत्त होना अन्धश्रद्धा या मूढ़ता है । ये मूक्साएँ तीन हैं: - १. लोकमूढ़ता, २. देवमूढ़ता और ३. पाषण्डमूढ़ता ।
ऐहिकफल की इच्छासे धर्मं समझकर नदी, समुद्र एवं पुष्कर आदिमें स्नात करना, बालुका एवं पत्थरके ढेर लगाना - पर्वतसे गिरना, एवं अग्निमें कूदकर प्राण देना मूढ़ता या अन्धश्रद्धामें समाविष्ट है । जो आत्मधर्मसे विमुख होकर लौकिक क्रिया काण्डों को ही धर्मं समझता है और धर्म साधनाके रूपमें प्रवृत्ति करता है वह लोकमूढ़ कहा जाता है ।
लौकिक अभ्युदय एवं वरदान प्राप्तिकी इच्छासे आशायुक्त हो राग-द्वेषसे मलिन देवोंकी आराधना करना देवमूढ़ता है । वस्तुतः देवसम्बन्धी अन्धविश्वास एवं उस विश्वासकी पूर्ति के साधन देवमूढ़तामें समाविष्ट हैं। देव सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी होता है। इसके विपरीत जो रागद्वेषसे मलिन है वह कुदेव है और ऐसे कुदेवोंकी आराधना करनेसे धर्माचरण नहीं होता है । यदि सम्यग्दृष्टि श्वांसारिक फलकी इच्छासे वीतरागदेवकी उपासना भी करता है तो भी सम्यत्वमें दोष आता है । जो मिथ्या आशावश सराग देवको आराधनासे लौकिक फळ प्राप्त करना चाहता है उसकी आस्था पङ्गु और अन्ध है ।
५०६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी बाधार्य परम्परा
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रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है और इस मार्गके लिये आरम्भ-परिग्रहके त्यागी गुरुके अवलम्बनकी आवश्यकता है । जो आरम्भ, परिग्रह और हिंसासे सहित, संसारपरिभ्रमणके कारणभूत कार्यों में लीन हैं वे कुगुरु हैं । ऐसे कुगुरुओंकी भक्ति, वन्दना करना पाषण्ड या गुरुमूढ़ता है। पड अनायतन या मिथ्या आस्थाएं
भय, भासा नंमोहगा कुण्ड, सुदेश धर्म और इन तीनोंके आराधकोंको भक्ति-प्रशंसा करना षड् अनायतन हैं। शंकादि वोष
सम्यग्दर्शनके अष्टांगोंके विपरीत शंकादि आठ दोष भी श्रद्धाको मलिन बनाते हैं। वे हैं शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, दोषव्यक्तीकरण, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना । ___ वस्तुतः सम्यग्दर्शन आत्माके श्रद्धागुणको निर्मल पर्याय है । इसे धारण कर नोचकुलोत्पन्न चाण्डाल भो महान बन जाता है और श्वान जैसा निन्यप्राणी भी देवोद्वारा पूज्य बन जाता है। सम्यग्ज्ञान
नय और प्रमाण द्वारा जीवादि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। दृढ़ आत्मविश्वासके अनन्तर ज्ञानमें सम्यकपना आता है। यों तो संसारक पदार्थोंका होनाधिक रूपमें ज्ञान प्रत्येक व्यक्तिको होता है। पर उस ज्ञानका आत्मविकासके लिये उपयोग करना कम हो व्यक्ति जानते हैं। सम्यग्दर्शनके पश्चात् उत्पन्न हुआ ज्ञान आत्मविकासका कारण होता है। 'स्व' और 'पर' का भेदविज्ञान यथार्थतः सम्यग्ज्ञान है।
निश्चयसम्यग्ज्ञान अपने आत्म-स्वरूपका बोध ही है। जिसने प्रात्माको जान लिया है, उसने सब कुछ जान लिया है और जो आत्माको नहीं जानता, वह सब कुछ जानते हुए भी अज्ञानी है | सम्यग्ज्ञानके सम्बन्धमें ज्ञान-मीमांसाके अन्तर्गत विचार किया जा चुका है। सम्यकचारित्र या सम्पगाचार
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित व्रत, गुप्ति, समिति आदिका अनुष्ठान करना उत्तमक्षमादि दशधर्मोंका पालन करना, मूलगुण और उत्तरगुणोंका धारण करना सम्यक्चारित्र है । अथवा विषय, कषाय, वासना, हिंसा, झूठ,
तोषकर महावीर और उनकी देशना : ५०७
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चोरी, कुशील और परिग्रहणरूप क्रियाओंसे निवृत्ति करना सम्यकचारित्र है। बारित्र वस्तुतः आत्मस्वरूप है । यह कषाय और वासनामोंसे सर्वथा रहित है। मोह और क्षोभसे रहित जोपको जो निर्विकार परिणति होती है, जिससे जीवमें साम्यभावकी उत्पत्ति होती है, चारित्र है। प्रत्येक व्यक्ति अपने चारित्रके बलसे ही अपना सुधार या बिगाड़ करता है । अतः मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको सर्वदा शुभ रूपमें रखना आवश्यक है। मनसे किसीका अनिष्ट नहीं सोचना, बचनसे किसीको बुरा नहीं कहना तथा शरीरसे कोई निन्द्य कार्य नहीं करना सदाचार है।
विषय-तृष्णा और अहंकारको भावना मनुष्यको सम्यक् आचरणसे रोकती है। विषयतृष्णाकी पूर्तिहेतु ही व्यक्ति प्रतिनिक यन्याःग, अत्याचार, मार, चोरी, बेईमानी हिंसा आदि पापोंको करता है । तृष्णाको शान्त करनेके लिये स्वयं अशान्त हो जाता है तथा भयंकर-से-भयंकर पाप कर बैठता है। अतः विषय-निवृत्तिरूप चारित्रको धारण करना परमावश्यक है। __ मनुष्यके सामने दो मार्ग विद्यमान हैं:-शुभ और अशुभ | जो राग-द्वेषमोहको घटाकर शुभोगयोगरूप परिणति करता है वह शुभमार्गका अनुगामी माना जाता है और जो रागद्वेष-कषायल्प परिणतिमें संलग्न रहता है वह अशुभमार्गका अनुसरणकर्ता है। मजान एवं तीन रागद्वेषके अधीन होकर व्यक्ति कर्त्तव्य-च्युत होता है । जीव अपनी सत्प्रवृत्तिके कारण शुभका अर्जन करता है और असत्प्रवृत्तिके कारण अशुभका । एक ही कर्म शुभ और अशुभ प्रवृत्तियोंके कारण दो रूपोंमें परिणत हो जाता है । शुभ और अशुभ एक ही पुद्गलद्रव्यके स्वभावभेद हैं ! शुभ कम सातावेदनीय, शुभायु, शुभ नाम, शुभगोत्र एवं अशुभ कर्म, धाति या असाता वेदनीय अशुभायु, अशुभ नाम, अशुभगोत्र हैं। यह जीव शुद्धनिश्चयसे वीतराग, सच्चिदानन्दस्वभाव है और व्यवहारनयसे रागादिरूप परिणमन करता हुआ शुभोपयोग और अशुभो. पयोगरूप है। यों तो आत्माकी परिणति शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुभो. पयोगरूप है। चैतन्य, अखण्ड आत्मस्वभावका अनुभव करना शुद्धोपयोग, कषायोंकी मन्दतावश शुभरागरूप परिणति होना शुभोपयोग एवं तीव्र कषायोदयरूप परिणामोंका होना अशुभोपयोग है। शुद्धोपयोगका नाम १. असुहावो विगिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं ।
वदसमिदिगुत्तिल्वं ववहारणया दु जिणभणियं ।। -द्रव्यसंग्रह ४५. २. साम्यं तु दर्शनचारित्रमोहनीयोदयापादितसमस्तमोक्षोभाभावादत्यन्तनिर्विकारो जीव___ स्य परिणामः ।
-प्रवचनसार, गाथा ७ को अमृतचन्द्र-टोका. ५०८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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वीतराग चारित्र शुभोपयोगका नाम सदाचार एवं अशुभोपयोगका नाम कदाचार है ।
परमपद प्राप्तिहेतु: बाचारके भेद
परमपद-प्राप्तिके मार्गविवेचनकी दृष्टिसे आचारके दो भेद है: - ( १ ) निवृत्ति - मूलक आचार और (२) प्रवृत्तिमूलक आधार | निवृत्तिमूलक बाचारको श्यागमागं या श्रमणमार्ग कहा जाता है। यह मार्ग कठिन है, पर जल्द पहुँचानेवाला है । समस्त पदार्थोंस मोह-ममस्व त्यागकर वीतराग आत्म-तस्यको उपलब्धिके हेतु अरण्यवास स्वीकार करना और इन्द्रिय तथा अपने मनको अधीनकर आत्मस्वरूप में रमण करना निवृत्ति या त्यागमार्ग है। यह आचारका मार्ग सर्वसाधारण के लिये सुलभ नहीं । पर है निर्वाणको प्राप्त करानेवाला | यह कण्टकाकीर्ण मार्ग है । इसकी साधना विरले जितेन्द्रिय ही कर पाते है । इसमें सन्देह नहीं कि इस निवृत्तिमागंका अनुसरण करनेसे रागद्वेष-मोहादिसे रहित निर्मल आत्मतत्त्वको उपलब्धि शीघ्र ही होती है। इस आचारमार्गका नाम सकलचारित्र या मुनिधर्म है ।
द्वितीय मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है। यह सरल है, पर है दूरवर्ती। इस मार्ग द्वारा आत्मतस्वकी प्राप्ति में बहुत समय लगता है। इस आचारमार्ग में किसीका भय नहीं है । अतः इसे पुष्पाकीणं मागं कहा जाता है । प्रवृत्तिके दो रूप हैं:(१) शुभ और ( २ ) अशुभ अशुभ प्रवृत्तिका त्यागकर शुभ प्रवृत्तिका अनुसरण करना विकलाचरण है। संक्षेपमें आचारको दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। मुनि या साधुका आचार और गृहस्य या श्रावकका आचार |
श्रावकाचार
श्रावकशब्द तीन वर्णोंके संयोगसे बना है और इन तीनों वर्णोंके क्रमशः तीन अर्थ है: -- (१) श्रद्धालु, (२) विवेकी और (३) क्रियावान । जिसमें इन तोनों गुणों का समावेश पाया जाता है वह श्रावक है । व्रतधारी गृहस्थको श्रावक, उपासक और सागार आदि नामोंसे अभिहित किया जाता है । यह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों – निर्ग्रन्थमुनियोंके प्रवचनका श्रवण करता है, अतः यह श्राद्ध या श्रावक कहलाता है । श्राचकके आचारका वर्गीकरण कई दृष्टियोंसे किया जाता है । पर इस आचारके वर्गीकरण के तीन आधार प्रमुख हैं:
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१. द्वादशव्रत, २. एकादशत्रतिमाएँ, ३ पक्ष, चर्या और साधन । सावद्यक्रिया - हिंसाकी शुद्धिके तीन प्रकार हैं: - ( १ ) पक्ष, (२) चर्घा या
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ५०९
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निष्ठा और (३) साधन । वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी देव, निर्ग्रन्थ गुरु और निर्ग्रन्थ धर्मको मानना पक्ष है। ऐसे पक्षको रखनेवाला श्रावक पाक्षिक कहलाता है । इस श्रेणी श्रावकको आत्मामें समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री, गुणी जीवों के प्रति प्रमोद, दीन-दुःखियोंके प्रति करुणा एवं विपरीतवृत्तिवालोंके प्रति माध्यस्थ्यभाव रहता है। यह न्यायपूर्वक आजीविकाका उपार्जन करते हुए जीवहिंसा से विरत रहने की चेष्टा करता है। पाक्षिकश्रावकके लिये निम्नलिखित क्रियाओं का पालन करना आवश्यक है ।
१. न्यायपूर्वक धनोपार्जन गार्हस्थिक कार्योंको सम्पादित करनेके लिये धूर्तता मीका अर्जित करना आवश्यक है। पर विश्वासघात, छल-कपट, और अन्यायपूर्वक धनार्जन करना त्याज्य है । जिसे धर्मका पक्ष है, देव, शास्त्र और गुरुके प्रति निष्ठा या श्रद्धा है ऐसा श्रावक धनार्जनमें अन्यास और अनीतिका प्रयोग नहीं करता। सन्तोष, शान्ति और नियन्त्रित इच्छाओंके आलोक में शुभप्रवृत्तियों द्वारा आजीविकोपार्जनका प्रयास करता है । आजीविका के साधनोंमें हिंसा और आरम्भका उपयोग कम से कम किया जाय इस बातका पूरा ध्यान रखता है । तुष्णा और विषय कषायों को सीमित और नियन्त्रित कर परिवार के भरण-पोषण के हेतु आजोविकोपार्जन करता है ।
२. गुणपूजा - आत्मायें मार्दवधर्मके विकासहेतु गुणां व्यक्ति और ज्ञान, दर्शन, चैतन्यादि गुणका बहुमान, श्लाघा एवं प्रशंसा करना गुणपूजा है । गुण, गुरु और गुणयुक्त गुरुओं का पूजन एवं सम्मान करना गुणविकासका कारण है । अपने भीतर सदाचार, सज्जनता, उदारता, दानशीलता और हित-मित-प्रियवचनशीलताका प्रयोग स्व और परका उपकारक है। जिस गाविकको धर्म के प्रति निष्ठा है वह अपने आचरण में वेय्यावृत्ति एवं गुणगृह पुजाको उपयोगी समझता है, अतः पाक्षिकथावककी पात्रता प्राप्त करनेके गुण - पूजा आवश्यक है | इससे आत्मा के अहंकार और ममकार भो क्षीण होते हैं ।
३. प्रशस्त वचन – निर्दोष वाणीका प्रयोग करना प्रशस्त वचन है । परनिंदा और कठोरता आदि दोषोंसे रहित प्रशस्त तथा उत्कृष्ट वचनांका शवहार जीवन के लिये हितकर और उपयोगी है ।
४. निर्वाध त्रियका सेवन -- धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोका बिरोध रहित सेवन करना निर्वाध त्रिवर्गसेवन है । इन तीन पुरुषाद कामका कारण अर्थ है, क्योंकि अर्थके विना इन्द्रिय-विषयों की सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकती है और अर्थका कारण धर्म है, क्योंकि पुण्योदय अथवा प्रामाणि ५१०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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कताके बिना धनको प्राप्ति नहीं होती । प्रामाणिकता सदाचारपर निर्भर है। पाक्षिक श्रावकको अविरोधभावसे उक्त तीनों पुरुषार्थो का सेवन करना चाहिये ।
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५. त्रिवर्गयोग्य स्त्री, प्राम, भवन — त्रिवर्गके साघनमें सहायक स्त्री या भार्या है। सुयोग्य भार्याके रहनेसे परिवार में शान्ति, सुख और सहयोग विद्यमान रहते हैं। संयम, अतिथि सेवा एवं शिष्टाचारको वृद्धि होती है । भार्याके समान ही त्रिवर्ग में साधक भवन और ग्रामका होना भी आवश्यक है ।
६. उचित लज्जा — लज्जा मानवजीवनका भूषण है । लज्जाशील व्यक्ति स्वाभिमानको रक्षा हेतु अपयशके भयसे कदाचारमें प्रवृत्त नहीं होता है । विरुद्ध परिस्थितिके आनेपर भी लज्जाशील व्यक्ति कुकर्म नहीं करता । वह शिष्ट और संयमित व्यवहारका आचरण करता है ।
७. योग्य माहार-विहार - अभक्ष्य, अनुपसेव्य और चलितरसके सेवनका त्याग करना तथा स्वास्थ्यप्रद और निर्दोष भोजन ग्रहण करना योग्य आहार है । जिह्वालोलुपी और विषयलम्पटी भक्ष्य अभक्ष्यका विवेक नहीं रख सकता है । अतएव विवेक और संयमपूर्वक आहार-विहारपर नियन्त्रण रखना योग्य आहार-विहार है।
८. आर्यसमिति - जिनके सहवाससे आत्मगुणों में विकास हो, संयमको प्रवृत्ति जागृत हो और आत्मप्रतिष्ठा बढ़े ऐसे सदाचारी व्यक्तियोंकी संगति करना आर्यसमिति कहलाती है। व्यक्ति शुभाचरणवाले पुरुषोंके सम्पर्कसे आचारवान् बनता है । नीच और दुराचारी व्यक्तियोंकी संगतिका त्याग अत्यावश्यक है ।
९. विवेक - कर्त्तव्या कर्त्तव्यका तर्क-वितर्कपूर्वक निर्धारण करना विवेक है | विवेक द्वारा लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकारके करणीय और अकरो काका निर्धारण किया जाता है ।
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१०. उपकार स्मृति या कृतज्ञता - कृतज्ञता मनुष्यका एक गुण है । जो व्यक्ति अपने ऊपर किये गये दूसरोंके उपकारोंका स्मरण रखता है और उपकार के बदले में प्रत्युपकार करनेकी भावना रखता है वह कृतज्ञ कहलाता है । कृतज्ञता जीवन विकासके लिये आवश्यक है। इस गुणके सद्भावसे धर्मषारणकी योग्यता उत्पन्न होती है ।
११. जितेन्द्रियता - इन्द्रियोंके विषयोंको नियन्त्रित करना तथा अनाचार और दुराचाररूप प्रवृत्तिको रोकना जितेन्द्रियता है । जो व्यक्ति इन्द्रियोंके अधीन हैं और विषय सुखोंको ही जिसने अपना सर्वस्व मान लिया है वह कषाय
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और विकारोंसे छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता है। इन्द्रियविषयलोलुपी जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। वह आत्मासे विमुख हुआ विषय-सेदनको ही सुखका साधन समझता है । अत: इन्द्रियोंको नियन्त्रित करना जितेन्द्रियता है ।
१२. धर्मविधि-श्रवण- अभ्युदय और निःश्रेयसका साधन धर्म है । युक्ति और आगमसे सिद्ध धर्मकी प्रतिष्ठा अथवा उसके स्वरूपका प्रतिदिन श्रवण धर्मविधिश्रवण है। अज्ञानता और तीन राग-द्वेषके वशीभूत हा व्यक्ति धर्मका श्रवण नहीं कर पाता है। इसके लिये आत्मपरिणामोंका कोमल होना आवश्यक है।
१३. दयालुता-दुःखी प्राणियोंके दुःखोंको दूर करनेकी इच्छा दया कहलाती है। जिसके हृदयमें कोमलता, करुणा और आर्द्रता है वही दयालु हो सकता है। धर्म-धारणको योग्यता प्राप्त करनेके लिये आत्म-परिणतिका दयायुक्त होना आवश्यक है । जिस व्यक्तिकी आत्मामें दयाकी जितनी अधिक भावना समाहित रहती है वह व्यक्ति अपनी आत्माको उतना हो धर्मधारण करनेके योग्य बनाता है।
१४, पापभीति-अनिष्ट फल प्रदान करनेवाले हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापोंसे भीत रहना अपनेको धर्मधारणका अधिकारी बनाना है । जो निर्भय होकर पापाचरण करता है वह धर्मका अधिकारी नहीं हो सकता है । अतएव पाप-कार्योसे डरकर दूर रहना पापभीति है। __ इस प्रकार पाक्षिक श्रावक उक्त चौदह गुणों द्वारा अपनी आत्माको धर्मधारणके योग्य बनाता है।
श्रावकके द्वादश व्रतों और एकादश प्रतिमाओंका पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है। इस चर्याका आचरण करनेवाला गृहस्थ नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है।
जोवनके अन्तमें आहारादिका सर्वथा त्यागकर सल्लेखना द्वारा आत्म साधना करना साधन है। इस प्रकारके साधनको अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्म-शोधन करनेवाला साधक श्रावक कहलाता है। श्रावकके द्वावशन्नत
शान, दर्शन और चारित्रको त्रिवेणी मुक्तिको ओर प्रवाहित होती है। किन्तु मानव अपनी-अपनी क्षमताके अनुसार उसकी गहराईमें प्रवेश करता है और अपनी शक्तिके अनुसार चारित्रको ग्रहण करता है। श्रावक घरमें रहकर पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय उत्तरदायित्वोंका निर्वाह करते हुए मुक्तिमार्गको साधना करता है। ५१२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-गरम्परा
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व्रत : स्वरूप-विचार और जावश्यकता
जीवनको सुन्दर बनानेवालो और आलोकको ओर ले जाने वाली मर्यादाएँ नियम कहलाती हैं । जो मर्यादाएं सार्वभौम हैं, प्राणीमात्र के लिए हितावह हैं और जिनसे 'स्व', 'पर' का कल्याण होता है, उन्हें नियम या व्रत कहा जाता है ।
व्रतकी परिभाषा में बताया जाता है कि सेवनीय विषयोंका संकल्पपूर्वक यम या नियम रूपसे त्याग करना, हिंसा आदि निन्द्य कार्योंका छोड़ना अथवा पात्रदान आदि प्रशस्त कार्यों में प्रवृत्त होना व्रत' है। जिसप्रकार सतत प्रगतिशोल प्रवाहित होनेवाली सरिताके प्रवाहको नियंत्रित रहनेके लिये दो तटोंकी आवश्यकता होती है, उसीप्रकार जीवनको नियंत्रित, मर्यादित बनाये रखनेके लिये व्रतोंकी आवश्यकता है। जैसे सटोंके अभाव में नदीका प्रवाह छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार व्रतविहान मनुष्यको जीवनशक्ति छिन्न-भिन्न हो जाती है । अतएव जीवनशक्तिको केन्द्रित करने और योग्य दिशामें ही उसका उपयोग करनेके लिये व्रतोंकी अत्यन्त आवश्यकता है ।
मूल बीच
यों तो व्यक्ति में अगणित दोष होते हैं और उनकी गणना भी सम्भव नहीं है। पर उन सभी दोषोंके मूलकी यदि खोज की जाय, तो विदित होगा कि मूलभूत दोष पाँच ही हैं। शेष समस्त दोष इन्हींके अन्तर्भूत हैं । ये पांच दोष हो व्यक्ति जीवनमें नाना प्रकारको बुराइयों उत्पन्न करते हैं और इन पाँच दोषोंके कारण मानवता संत्रस्त रहती है । इन्होंके प्रभावसे मानव दानव, राक्षस, चोर, लुटेरा, अनाचारी, स्वार्थी, प्रपंची आदि बना रहता है और ये ही दोष आत्माके उत्थानके मार्ग में गतिरोध उत्पन्न करते हैं । इन दोषोंके उत्पादक राग और द्वेष हैं । दोष निम्नलिखित हैं-
(१) हिंसा-राग-द्वेषके वशीभूत हो प्राणोंका घात करना । हिंसामें प्रमाद अवश्य निहित रहता है । प्राणवष द्रव्यहिंसा है और प्रमादयोग भागहिंसा 1
( २ ) असत्य भाषण - अयथार्थ और अप्रशस्त भाषण करना । दूसरोंको कष्ट पहुँचानेवाले वचनोंका प्रयोग भी असत्य भाषण में गर्भित है ।
१. सङ्कल्पपूर्वकः सेव्ये, नियमोऽशुभ कर्मणः । निवृतिर्वा प्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ॥
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- सागारधर्माभूत २८०
श्रीचकर महावीर और उनकी देशना : ५१३
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(३) अदत्तादान -- वस्तुके स्वामीकी इच्छा के बिना किसी वस्तुको ग्रहण करना, या अपने अधिकारमें करना अदत्तादान है। मार्ग में पड़ी हुई या भूली हुई वस्तुको हड़प जाना भी अदत्तादान है। नीति अनीतिके विवेकको तिलांजलि देकर अनधिकृत वस्तुपर भी अधिकार करनेका प्रयत्न करना चोरी है ।
(४) मैथुन – स्त्री और पुरुषके कामोद्वेगजनित पारस्परिक सम्बन्धको लालसा एवं क्रिया मैथुन है और है यह अग्रा । यह आत्माके सद्गुणोंका विनाश करनेवाला है । इस दोषाचरणसे समाजकी नैतिक मर्यादाओंका उल्लंघन होता है।
इन दोषों
(५) परिग्रह - किसी भी परपदार्थको ममत्वभावसे ग्रहण करना परिग्रह है ! ममत्व, मूर्च्छा या लोलुपताको वास्तवमें परिग्रह कहा जाता है । संसारके अधिकांश दुःख इस परिग्रहके कारण ही उत्पन्न होते हैं । आत्मा अपने स्वरूपसे विमुख होकर और राग-द्वेषके वशीभूत होकर परिग्रह में आसक्त होती है । से लाने सहित क्षमता और योग्यता उत्पन्न होती है । जो श्रावक के द्वादश व्रतोंका पालन करना चाहता है, उसे सप्तव्यसनका त्याग आवश्यक है । द्यूतक्रीड़ा, मांसाहार, मदिरापान, वेश्यागमन, आखेट, चोरी और परस्त्रीगमन ये सातों ही व्यसन जीवनको अधःपतन की ओर ले जानेवाले हैं । व्यसनोंका सेवन करनेवाला व्यक्ति श्रावकके द्वादश व्रतोंके ग्रहण करनेका अधिकारी नहीं है । इसीप्रकार मद्य, मांस, मधु और पंच क्षीरफलोंके भक्षणका त्याग कर अष्ट मूलगुणोंका निर्वाह करना भी आवश्यक है । वास्तबमें मद्यत्याग, मांसत्याग, मघुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पंचोदुम्बर फलत्याग, देववन्दना, जीवदया और जलगालन ये आठ मूलगुण यावकके लिये आवश्यक हैं ।
इसप्रकार जो सामान्यतया विरुद्ध आचरणका त्यागकर इन्द्रिय और मनको नियंत्रित करनेका प्रयास करता है, वही श्रावक धर्मको ग्रहण करता है ।
श्रावक के द्वादश व्रतोंमें पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षायतोंकी गणना की गयी है । वस्तुतः इन व्रतोंका मूलाधार अहिंसा है। अहिंसा से ही मानवताका विकास और उत्थान होता है, यही संस्कृतिकी आत्मा है और है आध्यात्मिक जीवनकी नींव ।
१. मद्यपलमधुनियाशन पञ्च फली विर तिपञ्च वन' सनुती ।
जीवदयाजलगावमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥ - सागारधर्मात २०१८
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अणुव्रत
हिसा, असत्य, चोरी, कुशील और मूर्च्छा - परिग्रह इन पांच दोष या पापोंसे स्थूलरूप या एक देशरूपसे विरत होना अणुव्रत हैं । अणुशब्दका अर्थ लघु या छोटा है । जो स्थूलरूपसे पंच पापोंका त्याग करता है, वही अणुव्रतका घारी माना जाता है । अणुव्रत पाँच हैं
(१) अहिंसाणुव्रत ---स्थूलप्राणातिपातविरमण – जीवोंकी हिंसासे विरत होना अहिंसाणुव्रत है। प्रमत्तयोगसे प्राणों के विनाशको हिंसा कहा जाता है । प्रमत्तयोगका अभिप्राय राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिसे है । यहाँ प्रमत्तयोग कारण है और प्राणोंका विनाश कार्य । प्राण दो प्रकार के होते हैं: ---- (१) द्रव्यप्राण और (२) भावप्राण । प्रमत्तयोगके होनेपर द्रव्यप्राणोंके विनाशका होना नियमित नहीं है । हिंसाके अन्य भी निमित्त हो सकते है । पर प्रमत्तयोग से भावप्राणोंका विनाश होता है और भावप्राणों का विनाश हो यथार्थ में हिंसा है। राग-द्वेषकी प्रवृत्ति हिंसा है और निवृत्ति अहिंसा । वस्तुतः संसार में न कोई इष्ट होता है, न कोई अनिष्ट, न कोई भोग्य होता है और न कोई अभोग्य | मनुष्यका राग-द्वेष ही संसारको इष्ट और अनिष्ट रूपमें दिखलाता है" । इष्टसे राग और अनिष्ट से द्वेष होता है। अतः राग-द्वेषके अवलम्बनरूप बाह्य पदार्थों का त्याग आवश्यक है । हिंसाका कारण राग-द्वेषरूप परिणति ही है । अतएव अहिंसाका पालन आवश्यक है । इसीके द्वारा मनुष्यताको प्रतिष्ठा सम्भव है । अत्याचारीकी इच्छा के विरुद्ध अपने समस्त आत्मबलको लगा देना हो संघर्षका अन्त करना है और यह अहिंसा है। अहिंसा ही अन्याय और अत्याचार से दीन-दुर्बलोंकी रक्षा कर सकती है । यही विश्व के लिये सुखदायक है ।
हिंसा विश्व में शान्ति और सुखकी स्थापना नहीं कर सकती । प्रत्येक प्राणीको यह जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है कि वह स्वयं सुखपूर्वक जिये और अन्य प्राणियों को भी जीवित रहने दे । आजका मनुष्य स्वार्थ और अधिकारके वशीभूत हो स्वयं तो सुखपूर्वक रहना चाहता है, पर दूसरों को चेन और शान्ति से नहीं रहने देता है । अतएव अहिंसाणुव्रतका जीवनमें धारण करना आवश्यक है | अहिंसाका अर्थ मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्रके प्रति सद्भावना और प्रेम रखना है । दम्भ, पाखण्ड, ऊंच-नोचको भावना, अभिमान, स्वार्थबुद्धि, छल-कपट प्रभूति भावनाएं हिंसा हैं। अहिंसा में त्याग है, भोग नहीं ।
१. रागद्वेषी प्रवृत्तिः स्यानिवृत्तिस्तम्निषेधनम् ।
तोच बाह्यार्थसंग तस्मात्तान् सुपरित्यजेत् ॥ आत्मानुशासन, श्लोक २३७. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ५१५
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जहां राग-द्वेष है, वहाँ हिंसा अवश्य है ! अतः राग-द्वेषको प्रवृत्तिका नियंत्रण मावश्यक है।
हिंसा चार प्रकारको होती है:---(१) संकल्पी, (२) उद्योगी, (३) आरंभी और (४) विरोधी। निर्दोष जीवका जानबूझकर बध करना संकल्पी; जीविकासम्पादनके लिये कृषि, व्यापार, नौकरी आदि कार्यों द्वारा होनेवाली हिंसा उद्योगी; सावधानीपूर्वक भोजन बनाने, जल भरने आदि कार्यों में होनेवाली हिंसा आरम्भी एवं आपनी या दूसरोंकी रक्षाके लिये को जानेवाली हिंसा विरोधी हिंसा कहलाती है। प्रत्येक गृहस्थको संकल्पपूर्वक किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । अहिंसाणवतका धारी गहस्थ संकल्पी हिंसाका नियमतः त्यागी होता है 1 इस हिंसाके त्याग द्वारा धावक अपनी कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियोंको शुद्ध करता है। अहिंसक यतनाचारका धारी होता है ।
अहिसागवतका घारी जीव अहिंसाका त्याग तो करता ही है, साथ ही स्थावर-प्राणियोंकी हिंसाका भी यथाशक्ति त्याग करता है । इस व्रतको शुद्धिके लिये निम्नलिखित दोषोंका त्याग भी अपेक्षित है--
(१) बन्ध-प्रसप्राणियोंको कठिन बन्धनसे बाँधना अथवा उन्हें अपने इष्ट स्थानपर जानेसे रोकना । अधीनस्थ व्यक्तियोंको निश्चित समयसे अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट समयके पश्चात् भी काम लेना, उन्हें अपने इष्ट स्थानपर जानेमें अन्तराय पहुंचाना आदि बन्धके अन्तर्गत है।
(१) वध---सप्राणीको मारना, पीटना या त्रास देना, वध है। प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे किसी भी प्राणोकी हत्या करना, कराना, किसीको मारना, पीटना या पिटवाना, सन्ताप पहुँचाना, शोषण करना आदि वधके विविध रूप हैं। स्वार्थवश वधके विविध रूपोंमें व्यक्ति प्रवृत्त होता है । जिसके हृदयमें सर्वहितको भावना समाहित रहती है, वह वध नहीं करता है।
(३) छविच्छेद-किसीका अंग भंग करना, अपंग बनाना या विरूप करना छविच्छेद है।
(४) असिभार--अश्व, वृषभ, ऊँट आदि पशुओं पर, अथवा मजदूर आदि नौकरोंपर उनको शक्तिसे अधिक बोझ लादना अतिभार है। शक्ति एवं समय होनेपर भी अपना काम स्वयं न कर दूसरोंसे करवाना अथवा किसीसे शक्तिसे अधिक काम लेना भी अतिभार है ।
(५) अन्न-पाननिरोध-अपने आश्रित प्राणियोंको समयपर भोजन-पानी न देना अधीनस्थ सेवकोंको उचित वेतन न देना अन्न-पाननिरोष है।
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अहिसाणवतकी रक्षाक लिये निम्नलिखित पाच भावनाओंका पालन करना भी आवश्यक है(१) वचनगुप्ति-वचनको प्रवृत्तिका रोकना, (२) मनोगुप्ति-मनकी प्रवृत्तिको रोकना, (२) ईर्यासमिति- सावधानीपूर्वक देखकर चलना,
(४) आदान-निक्षेपणमित्ति-सावधानीपूर्वक देवाकर वस्तुको उठाना और रचा।
(५) आलोकितापानभाजन-दिनमें अच्छी तरह बेग्व-भालकर आहारपानीका ग्रहण करना।
२. सत्याणवत-अहिंसा और सत्यका परस्परमें धनिष्ट सम्बन्ध है। एकके अभावमें दूसरेकी साधना शक्य नहीं। ये दोनों परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित है। अहिंसा सत्यको स्वरूप प्रदान करती है और सत्य अहिंसाको सुरक्षा करता है। अहिंशाके बिना सत्य नग्न एवं कुर: है । अतः मृषावादका त्याग अपेक्षित है। स्थल झूठका त्याग किये बिना प्राणी अहिंसक नहीं हो सकता है । यतः सत्ता और धोया इन दोनोंका जन्म झठसे होता है। झठा व्यक्ति आत्मवंचना भी करता है। मिथ्याभापमं प्रमुख कारण स्वार्थको भावना है। स्वच्छन्दता, घृणा, प्रतिशोध जैसी भावनाएं, असत्य या मिथ्याभाषणसे उत्पन्न होता है। मानवसमाजका समस्त व्यवहार बचनासे संचालित होता है। वचनके दोषसे व्यक्ति और समाज दोनोंम दोष उत्पन्न होता है। अतएव मृषावादका त्याग आवश्यक है। ___ असत्य वचनके तीन भेद हैं---१. गहित २. सावद्म और ३. अप्रिय । निन्दा करना, बुगली करना, कठोर वचन बोलना एवं अश्लील वचनोंका प्रयोग करना गर्हित असत्यमें परिगणित हैं । छेदन, भेदन, मारन, शोषण, अपहरण एवं ताड़न सम्बन्धी वचन भी हिंसक होनेके कारण सावद्य असत्य कहलाते हैं । इन दोनों प्रकारके वचनोंके अतिरिक्त अविश्वास, भयकारक, खेदजनक, वेर-शोक उत्पावक, सन्तापकारक आदि अप्रिय वचनोंका त्याग करना आवश्यक है ।
झूठो साली देना, झूठा दस्तावेज या लेख लिखना, किसीको गुप्त बात प्रकट करना, चुगली करना, सच्ची माठी कहकर किसीको गलत रास्ते पर ले जाना, आरमप्रशंसा और परनिन्दा करना आदि स्थूल मृषावादमें सम्मिलित हैं।
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सावधानीपूर्वक सत्याणुवतका पालन करनेके लिए निम्नलिखित अतिचारोंका त्याग आवश्यक है।
१. मिथ्योपदेश-सन्मार्ग पर लगे हुए व्यक्तिको भ्रमवश अन्य मार्ग पर ले जानेका उपदेश करना मिथ्योपदेश है। असत्य साक्षी देना और दूसरे पर अपवाद लगाना भी मिथ्योपदेशके अन्तर्गत है ।
२. रहोभ्याख्यान-गुप्त बात प्रकट करता रहोभ्याख्यान है। विश्वासघात करना भी इसाम समिलिए है ;
३. कूटलेखक्रिया-झूठे लेख लिखना, झूठे दस्तावेज तैयार करना, झूठे हस्ताक्षर करना, गलत बही, खाते तैयार कराना, नकली सिक्के तैयार करना अथवा नकली सिक्के चलाना कूटलेखक्रिया है।
४. न्यासापहार-कोई धरोहर रखकर उसके कुछ अंशको भूल गया, तो उसकी इस भूलका लाभ उठाकर धरोहरके भूले हुए अंशको पचानेकी दृष्टिसे कहना कि जितनी धरोहर तुम कह रहे हो उतनी ही रस्ती थी, न्यासापहार है ।
५. साकारमन्त्रभेद-चेष्टा आदि द्वारा दूसरेके अभिप्रायको ज्ञात कर ईविश उसे प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है। इस व्रतका सम्यक्तया पालन करने के लिए क्रोध, लोभ, भय और हास्यका त्याग करना तथा निर्दोष वाणीका व्यवहार करना आवश्यक है। अचार्यानुवर
मन, वाणी और शरीरसे किसीको सम्पत्तिको बिना आज्ञा न लेना अचोCणुव्रत है। स्तेय या चोरीके दो भेद हैं--(१) स्थूल चोरी और (२) सूक्ष्म चोरी । जिस चोरीके कारण मनुष्य चोर कहलाता है, न्यायालयसे दंडित होता है और जो चोरी लोकमें चोरी कही जाती है, वह स्थूल चोरी है। मार्ग चलतेचलते तिनका या कंकड़ उठा लेना सूक्ष्म चोरोके अन्तर्गत है।
किसीके घरमें सेंध लगाना, किसीके पॉकेट काटना, ताला तोड़ना, लूटना, ठगना आदि चोरी है। आवश्यकतासे अधिक संग्रह करनाया किसी वस्तुकाअनुचित उपयोग करना भी एक प्रकारसे चोरी है। अचौर्याणुव्रतके धारी गृहस्थको एकाधिकारपर भी नियन्त्रण करना चाहिए । समस्त सुविधाएं अपने लिए सञ्चित करना तथा आवश्यकताओंको अधिक-से-अधिक बढ़ाते जाना भी स्तेयके अन्तर्गत है। संसारमें धनादिककी जितनी चोरी होती है, उससे कहीं अधिक विचार एवं भावोंकी भो चोरी होती है। अतएव' अचोय भावना द्वारा भौतिक आवश्यकताओंको नियन्त्रित करना चाहिए। वस्तुतः जीवनको किसी भी प्रकारको ५१८ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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कमजोरीको छिपाना कमजोरी है । जीवनमें अगणित कमजोरियां हैं और होती रहेंगी, पर उनपर न तो पर्दा डालना और न उनके अनुसार प्रवृत्ति करना हो उचित है।
अचौर्याणुव्रतके पालन के लिए निम्नलिखित असिचारोंका स्याग भी अपेक्षित है
१. स्तेनप्रयोग-चोरी करनेके लिए किसीको स्वयं प्रेरित करना, दूसरेसे प्रेरणा कराना या ऐसे कार्य में सम्मति देना स्तेनप्रयोग है।
२. स्तनाहुत-अपनी प्रेरणा या सम्मतिके बिना किसीके द्वारा चोरी करके लाये हुए द्रव्यको ले लेना स्तेनाहत है।
दिः ज्यमतिता... जाने दिपतन होनेपर हीनाधिक मानसे वस्तुओंका आदान-प्रदान करना विरुद्धराज्यातिक्रम है। राज्यके नियमोंका अतिक्रमण कर जो अनुचित लाभ उठाया जाता है, वह भी विरुद्धराज्यात्तिकम है।
४. होनाधिकमानोन्मान-मापने या तौलनेके न्यूनाधिक बांटोंसे देन-लेन करना होनाधिकमानोन्मान है ।
५. प्रतिरूपकव्यवहार असली वस्तुके बदलेमें नकली वस्तु चलाना या असलो में नकली वस्तुमिलाकर उसे बेचना या चालू करना प्रतिरूपवाव्यवहार है ।
वास्तवमें इन अतिचारोंका उद्देश्य विश्वासघात, बेईमानी, अनुचित लाभ आदिका त्याग करना है। ___ अचौर्याणुनतकी शून्यागारावास-निर्जन स्थानमें निवास, विमोचिताबास-दूसरेके द्वारा त्यक्त आवास, परोपरोधाकरण-अपने द्वारा निवास किये गये स्थानमें अन्यका अनवरोध, भक्ष्यशुद्धि-भिक्षाके नियमोंका उचित पालन करना एवं सधर्माविसंबाद ये पांच भावनाएं हैं।
स्वदारसन्तोष-मन, वचन और कायपूर्वक अपनी भार्या के अतिरिक्त शेष समस्त स्त्रियोंके साथ विषयसेवनका त्याग करना स्वदारसन्तोषव्रत है। जिस प्रकार श्रावकके लिए स्वदारसन्तोषयतका विधान है उसी प्रकार श्राविकाके लिए स्वपतिसन्तोषका नियम है। काम एक प्रकारका मानसिक रोग है। इसका प्रतिकार भोग नहीं, त्याग है। रोगके प्रतिकारके लिए नियन्त्रित रूपमें विषयका सेवन करना और परस्त्रीगमनका त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदारसन्तोषमें परिगणित है। यह अणुव्रत जीवनको मर्यादित करता है और मैथुनसेवनको नियन्त्रित करता है। इस व्रतके निम्नलिखित पाँच अतिचार हैं।
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१. परविवाहकरण-जिनका विवाह करना अपने दायित्वके अन्तर्गत नहीं है उनका विवाह सम्पादित कराना, परविवाहकरण है।
२. इत्वरिकापरिगृहीतागमन-जो स्त्रियाँ परदारकोटिमें नहीं पातीं, ऐसी स्त्रियोंको धनादिका लालच देकर अपनी बना लेना अथवा जिनका पति जीवित है, किन्तु पुंश्चली हैं उनका सेवन करना इत्वरिकापरिगृहीसागमन है। वस्तुतः यह अतिचार उसी समय अतिचारके रूपमें आता है जब व्रतका एकदेश भंग होता है, अन्यथा वतभंग माना जाता है । ___३. इस्वरिकाअपरिग्रहीतागमन जो स्त्री अपरिग्रहीता-अस्वीकृतपतिका है, उसके साथ अल्प कालके लिए कामभोगका सम्बन्ध स्थापित करना इत्त्वरिकाअपरिग्रहोतागमन है। वेश्या या अनाथ पुंश्चली स्त्रीका नियत काल सेवन करने में यह अतिचार है।
४. अनङ्गक्रीड़ा-कामसेवनके अतिरिक्त अन्य अङ्गोंसे क्रीड़ा करना अनङ्गक्रीड़ा है।
४. कामतीवाभिनिवेश-काम एवं भोगरूप विषयोंमें अत्यन्स आसक्ति रखना कामतीवाभिनिवेश है।
ब्रह्मचर्याणुव्रतके धारोको स्त्रीरागकथाश्रवणल्याग, स्त्रोमनोहराननिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृष्य-इष्टरसत्याग और स्वशरीर-संस्कारत्याग करना भी आवश्यक है। परिग्रहपरिमान-अणुव्रत
परिग्रह संसारका सबसे बड़ा पाप है। संसारके समक्ष जो जटिल समस्याएं आज उपस्थित हैं, सर्वव्यापी वर्गसंघर्षको जो दावाग्नि प्रज्वलित हो रही है, वह सब परिग्रह-मू को देन है । जब तक मनुष्यके जीवन में अमर्यादित लोभ, लालच, तृष्णा, ममता या गृति विद्यमान है, तब तक वह शान्तिलाभ नहीं कर सकता। श्रावक अपनी इच्छाओंको नियन्त्रित कर परिग्रहमा परिमाण ग्रहण करता है । संसारके धन, ऐश्वर्य आदिका नियमन कर लेना परिपहपरिमाणवत है। अपने योग-क्षेमके लायक भरणपोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना न्याय और अत्याचार द्वारा धनका संचय न करना परिग्रहपरिमाण है। धन, धान्य, रुपया, पैसा, सोना, चांदी, स्त्री, पुत्र, गृह प्रभृति पदार्थों में ये मेरे हैं। इस प्रकारके ममस्वपरिणामको परिमह कहते हैं। इस ममत्व या लालसाको घटाकर उन वस्तुओंको नियमित या कम करना परिग्रहपरिमाणवत है। इस व्रसका लक्ष्य समाजको बायिक विषमताको दूर करना है । इस व्रतके निम्नलिखित पांच अतिचार हैं:५२० : तीपंकर महामोर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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१. खेत और मकान के प्रमाणका अतिक्रम | २. हिरण्य और स्वर्णके प्रमाणका अतिक्रमण | ३. घन और धान्यके प्रमाणका अतिक्रमण |
४. दास ओर दासोके प्रमाणका अतिक्रमण |
५. कुन्य- भाण्ड (बर्तन) आदिके प्रमाणका अतिक्रमण |
इस व्रतका इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषयोंमें राग नहीं करना और अमनोज्ञ विषयोंमें द्वेष नहीं करना रूप पांच भावनाएँ हैं ।
गुणव्रत और शिक्षाव्रत
अणुव्रतोंको सम्पुष्टि, वृद्धि और रक्षा के लिए तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका पालन करना आवश्यक है । इन व्रतोंके पालनसे मुनितके ग्रहण करनेकी शिक्षा प्राप्त होतो है । गुणव्रत तीन हैं
१. दिग्वत ।
२. देशव्रत या देशाचका शिकव्रत । ३. अनर्थदण्ड ।
दिग्वत -- मनुष्य की अभिलाषा के समान असीम और अग्निके समान समग्र भूमण्डल पर अपना एकच्छत्र साम्राज्य स्थापित करनेका मधुर स्वप्न हो नहीं देखतो, अपितु इस स्वप्नको साकार करनेके लिए समस्त दिशाओमें विजय करना चाहती है । अर्थलोलुपो मानव तृष्णाके वश होकर विभिन्न देशों में परिभ्रमण करता है और विदेशों में व्यापारसंस्थान स्थापित करता है । मनुष्यको इस निरंकुश तृष्णाको नियन्त्रित करनेके लिए दिव्रतका विधान किया गया है ।
पूर्वादि दिशाओंमें नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानोंको मर्यादा बांधकर जन्मपर्यन्त उससे बाहर न जाना और उसके भीतर लेन-देन करना दिखत
1 इस व्रतके पालन करनेसे क्षेत्रमर्यादाके बाहर हिसादि पापोंका त्याग हो जाता है और उस क्षेत्रमें वह महाव्रतोतुल्य बन जाता है। दिग्वतके निम्नलिखित पाँच अतिचार हैं
१. कर्ण्यव्यतिक्रम — लोभादिवश ऊर्ध्वप्रमाणका अतिक्रम |
२. अधोव्यतिक्रम – वापी, कूप, खदान आदिको अधः मर्यादाका अतिक्रम |
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३ तिर्यग्व्यतिक्रम-तिरछे रूपमें क्षेत्रका अतिक्रम ।
४. क्षेत्र वृद्धि - एक दिशासे क्षेत्र घटाकर दूसरी दिशा में क्षेत्रप्रमाणको
वृद्धि |
५. स्मृत्यन्तराधान - निश्चित की गई क्षेत्रकी मर्यादाका विस्मरण |
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वेशावकाशिक व्रत
दिग्व्रतमें जीवन पर्यन्त के लिए दिशाओंका परिमाण किया जाता है । इसमें किये गये परिमाणमें कुछ समय के लिए किसी निश्चित देश पर्यन्त आनेजानेका नियम ग्रहण करना देशावका शिकव्रत है । इस व्रतके पांच अतिचार हैं
१. आनयन - मर्यादासे बाहरकी वस्तुका बुलाना ।
२. प्रेष्यप्रयोग - मर्यादासे बाहर स्वयं न जाना. किन्तु सेवक आदिको आज्ञा देकर वहाँ बैठे हुए ही काम करा लेना प्रेष्यप्रयोग है ।
३. शब्दानुपात - मर्यादा के बाहर स्थित किसी व्यक्तिको शब्दद्वारा बुलाना ।
४. रूपानुपात - मर्यादित क्षेत्रके बाह्रसे आकृति दिखाकर संकेतद्वारा बुलाना ।
५. पुद्गलक्षेप - मर्यादाके बाहर स्थित व्यक्तिको अपने पास बुलाने के लिए पत्र, तार आदिका प्रयोग करना ।
अनर्थदण्डव्रत
बिना प्रयोजनके कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्डवत कहलाता है । जिनसे अपना कुछ भी लाभ न हो और व्यर्थ ही पापका संचय होता हो, ऐसे कार्यों कीअनर्थदण्ड कहते हैं और उनके स्थागको अनर्थदण्डव्रत कहा जाता है। अनर्थrush निम्न पांच भेद हैं
१. अपध्यान – दूसरोंका बुरा विचारता ।
२. पापोपदेश -- पापजनक कार्योंका उपदेश देना ।
३. प्रमादाचरित - आवश्यकता के बिना वन कटवाना, पृथ्वी खुदवाना, पानी गिराना, दोष देना, विकथा या निन्दा आदिमें प्रवृत्त होना ।
४. हिंसादान - हिंसा के साधन अस्त्र शस्त्र, विष, विषैली गैस आदि सामग्रीका देना अथवा संहारक अस्त्रोंका आविष्कार करना
५. अशुभश्रुति - हिंसा और राग आदिको बढ़ानेवाली कथाओं का सुनना, सुनाना अशुभश्रुति है ।
शिक्षाव्रतके चार भेद हैं- १. सामायिक, २. प्रोषधोपोवास, ३. भोगोपभोगपरिमाण और ४ अतिथिसंविभाग ।
सामायिक – तीनों सन्ध्याओंमें समस्त पापके कर्मोसे विरत होकर नियत स्थानपर नियत समयके लिए मन, वचन और कायके एकाग्र करनेको सामायिक
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व्रत कहते हैं। जितने समय तक प्रती सामायिक करता है, उतने समय तक वह महाबसीके समान हो जाता है । समभाव या शान्तिको प्राप्तिके लिए सामायिक किया जाता है। सामायिकनसके निम्नलिखित पाँच अतिचार हैं
१. कायदुष्प्रणिधान-सामायिक करते समय हाथ, पैर आदि शरीरके अव. यवोंको निश्चल न रखना, नींदका मोंका लेना ।
२. वचनदष्प्रणिधान-सामायिक करते समय गुनगुनाने लगना ।
३. मनोदप्रणिधान-मनमें संकल्प-विकल्प उत्पन्न करना एवं मनको गृहस्थीके कार्य में फंसाना ।
४. अनादर-सामायिकमें उत्साह न करना।
५. स्मृत्यनुपस्थान-एकाग्रता न होनेसे सामायिकको स्मृति न रहना । प्रोषधोपवास
पांचों इन्द्रियों अपने-अपने विषयसे निवृत्त होकर उपवासी-नियन्त्रित रहे, उसे उपवास कहते हैं। प्रोषष अर्थात् पर्वके दिन उपवास करना प्रोषधोपवास है । साधारणतः चारों प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास है, पर सभी इन्द्रियों के विषयभोगोंसे निवृत्त रहना ही यथार्थमें उपवास है। प्रोषधोपवाससे ध्यान, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य और तत्त्वचिन्तन आदिको सिद्धि होती है। प्रोषधोपवासके निम्नलिखित अतिचार है--
१. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजियोत्सर्ग-जीव-जन्तुको देखे बिना और कोमल उपकरण द्वारा बिना प्रमार्जनके ही मल-मूत्र और श्लेष्मका त्याग करना ।
२. अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजितादान-बिना देखे और बिना प्रमार्जन किये ही पूजाके उपकरण आदिको ग्रहण करना ।
३. अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण-विना देखे और बिना प्रमार्जन किये ही भूमिपर चटाई आदि बिछाना 1
४. अनावर-प्रोषधोपवास करने में उत्साहन दिखलाना।
५. स्मृत्यतुपस्थान-प्रोषधोपवास करनेके समय चित्तका चन्चल रहना । भोगोपभोगपरिमाण
आहार-पान, गन्ध-माला आदिको भोग कहते हैं । जो वस्तु एकबार भोगने योग्य है, वह भोग है और जिन वस्तुओंको पुनः पुनः भोगा जा सके वे उपभोग हैं । इन भोग और उपभोगकी वस्तुओंका कुछ समयके लिये अथवा जीवन पर्यन्तके लिए परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाणवत है। इस व्रतके पालन
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करगोल्पता मंदिर बाटा पाती है ! इस असो निम्नलिखित अतिचार हैं
१. सचित्ताहार-अमर्यादित वस्तुओंका उपयोग करना और सचित्त पदार्थोका भक्षण करना।
२. सचित्तसम्बन्धाहार-जिस अचित्त वस्तुका सचित्त वस्तुसे संबंध हो गया हो, उसका उपयोग करना ।
३. सचित्तसम्मिश्राहार-चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओंसे मिश्रित भोजनका आहार अथवा सचित्तसे मिश्रित वस्तुका व्यवहार ।
४. अभिषवाहार-इन्द्रियों को मद उत्पन्न करनेवाली वस्तुका सेवन ।।
५. दुष्पक्वाहार-अघपके, अधिकपके, ठोक तरहसे नहीं पके हुए या जले भुने हुए भोजनका सेवन । अतिथिसंविभाग ____ जो संयमरक्षा करते हुए विहार करता है अथवा जिसके आनेकी कोई निश्चित तिथि नहीं है, वह अतिथि है। इस प्रकारके अतिथिको शुद्धचित्तसे निर्दोष विधिपूर्वक आहार देना अतिथिसंविभागवत है। इस प्रकारके अतिथियाको योग्य औषध, धर्मोपकरण, शास्त्र आदि देना इसी व्रतमें सम्मिलित है । अतिथिसंविभागवतके निम्नलिखित अतिचार है
१. सचित्तनिक्षेप-सचित्त कमलपत्र यादिपर रखकर आहारदान देना। २. सचित्तापिधान-आहारको सचित्त कमलपत्र आदिसे ढकना ।
३. परव्यपदेश-स्वयं दान न देकर दूसरेसे दिलवाना अथवा दूसरेका द्रव्य उठाकर स्वयं दे देना।
४. मात्सर्य-आदरपूर्वक दान न देना अथवा अन्य दाताओंसे ईर्ष्या करना।
५. कालातिक्रम---भिक्षाके समयको टालकर अयोग्य कालमें भोजन कराना। सल्लेखनावत
सम्यक रीतिसे काय और कषायको क्षोण करनेका नाम सल्लेखना है। जब मरणसमय निकट आ जाय तो गृहस्थको समस्त पदार्थोंसे मोह-ममता छोड़कर शनैः शनै: आहारपान भी छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार शरीरको कुश करने के साथ ही कषायोंको भी कुश करना तथा धर्मध्यानपूर्वक मृत्युका स्वागत करना सल्लेखनायतके अन्तर्गत है। ५२४ : तीर्थकर महापौर और उनकी आचार्य-परम्परा
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शरोरका उद्देश्य धर्मसाधन है। धार्मिक विधि-विधानका अनुष्ठान इस शरीर के द्वारा ही सम्भव होता है । अतः जब तक यह शरीर स्वस्थ है और धर्मसाधनकी क्षमता है तबतक घमंसाधनमें प्रवृत्त रहना चाहिए, पर जब शरीर के विनाशके कारण उपस्थित हो जायें और प्रयत्न करनेपर भी शरीरकी रक्षा सम्भव न हो, तब बहार, पानको त्याग करते हुए गृहस्थ राग, द्वेष और मोहसे आत्माकी रक्षा करता है । वस्तुतः श्रावकके लिए आत्मशुद्धिका अन्तिम अस्त्र सल्लेखना है । सल्लेखनाद्वारा ही जीवनपर्यन्त किये गये व्रताचरणको सफल किया जाता है । यह आत्मघात नहीं है, क्योंकि आत्मघातमें कषायका सद्भाव रहता है, पर सल्लेखना में कषायका अभाव है । सल्लेखनाग्रतके निम्नलिखित अतिचार हैं
१. जीविताशंसा — जीवित रहनेकी इच्छा ।
२. मरणाशंसा – सेवा सुश्रूषा के अभावमं शीघ्र मरनेकी इच्छा ३. मित्रानुराग - मित्रोंके प्रति अनुराग जागृत करना ।
४. सुखानुबन्ध - भोगे हुए सुखों का पुनः पुनः स्मरण करना । ५. निदान - तपश्चर्याका फल भोगरूप में चाहना |
श्रावकके दैनिक षट् कर्म
श्रावक अपना सर्वांगीण विकास निलिप्तभावसे स्वकर्त्तव्यका सम्पादन करते हुए घरमें रहकर भी कर सकता है । दैनिक कृत्योंमें षट्कर्मों को गणना की गई है ।
१. देवपूजा - देवपूजा शुभोपयोगका साधन है । पूज्य या अर्च्य गुणोंके प्रति आत्मसमर्पण की भावना ही पूजा है। पूजा करने से शुभरागको वृद्धि होती है, पर यह शुभराग अपने 'स्व'को पहचानने में उपयोगी सिद्ध होता है । पूजाके दो भेद हैं-- द्रव्यपूजा और भावपूजा । अष्टद्रव्योंसे वीतराग और सर्वज्ञदेवकी पूजा करना द्रव्यपूजा है। और बिना द्रव्यके केवल गुणोंका चिन्तन और मनन करना भावपूजा है । भावपूजा में आत्माके गुण ही आधार रहते हैं, अतः पूजकको आत्मानुभूतिको प्राप्ति होती है । सराग वृत्ति होनेपर भी पूजन द्वारा tige विनाशक क्षमता उत्पन्न होती है ।
पूजा सम्यग्दर्शनगुणको तो विशुद्ध करती ही है, पर वीतराग आदर्शको प्राप्त करने के लिये भी प्रेरित करती है। यह आत्मोत्थानकी भूमिका है ।
२. गुरुभक्ति - गुरुका अर्थं अज्ञान अन्यकारको नष्ट करने वाला है । यह निर्ग्रन्थ, तपस्वी और आरम्भपरिग्रहरहित होता है । जीवनमें संस्कारोंका
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प्रारम्भ गुरुचरणोंकी उपासनासे ही सम्भव है। इसी कारय महक पनिक षट्कर्मों में गुरूपास्तिको आवश्यक माना है। यतः गुरुके पास सतत निवास करनेसे मन, वचन, कायकी विशुद्धि स्वतः होने लगती है और वाक्संयम, इन्द्रियसंयम तथा आहारसंयम भी प्राप्त होने लगते हैं । गुरु-उपासनासे प्राणीको स्वपरप्रत्ययको उपलब्धि होती है । अतएव गृहस्यको प्रतिदिन गुरु-उपासना एवं गुरुक्ति करना आवश्यक है।
स्वाध्याय-स्वाध्यायका अर्थ स्व-आत्माका अध्ययन-चिन्तन-मनन है। प्रतिदिन शानाजंन करनेसे रागके त्यागकी शक्ति उपलब्ध होती है। स्वाध्याय समस्त पापोंका निराकरणकर रत्नत्रयकी उपलब्धिमें सहायक होता है । बुद्धिबल और आत्मबलका विकास स्वाध्याय द्वारा होता है । स्वाध्याय द्वारा संस्कारों में परिणामविशुद्धि होती है और परिणामविशद्धि ही महाफलदायक है। मनको स्थिर करनेकी दिव्यौषधि स्वाध्याय ही है । हेय-उपादेय और शेयकी जानकारोका साधन स्वाध्याय है । स्वाध्याय वह पीयूष है जिससे संसाररूपी ध्याधि दूर हो जाती है । अतएव प्रत्येक श्रावकको आत्मसन्मयता, आत्मनिष्ठा, प्रतिभा, मेधा आदिके विकासके लिये स्वाध्याय करना आवश्यक है । ___ संपम- इन्द्रिय और मनका नियमनकर संयममें प्रवृत्त होना अत्यावश्यक है। कषाय और विकारोंका दमन किये बिना आनन्दकी उपलब्धि नहीं हो सकती है । संघम हो ऐसी ओषधि है, जो रागद्वेषरूप परिणामोंको नियन्त्रित करता है। संयमके दो भेद हैं-१. इन्द्रियसंयम और २. प्राणि संयम । इन दोनों संयमोंमें पहले इन्द्रियसंयमका धारण करना आवश्यक है क्योंकि इन्द्रियोंके वश हो आनेपर हो प्राणियोंकी रक्षा सम्भव होती है। इन्द्रियसम्बन्धी अभिलाषाओं, लालसाओं और इच्छाओंका निरोध करना इन्द्रियसंयमके अन्तर्गत है। विषय-कषायाओंको नियन्त्रित करनेका एकमात्र साधन संयम है। जिसने इन्द्रियसंयमका पालन आरम्भ कर दिया है वह जीवननिर्वाहके लिये कम-से-कम सामग्रीका उपयोग करता है, जिससे शेष सामग्री समाजके अन्य सदस्योंके काम आती है, संघर्ष कम होता है और विषमता दूर होती है। यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे तो दूसरोंके लिये सामग्री कम पड़ेगो, जिससे शोषण आरम्भ हो जायगा । अतएव इन्द्रियसंयमका अभ्यास करना आवश्यक है।
प्राणिसंयममें षट्कायके जोधोंकी रक्षा अपेक्षित है । प्राणिसंयमके धारण करनेसे अहिंसाकी साधना सिद्ध होती है और आत्मविकासका आरम्भ होता है।
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सप-इच्छानिरोधको तप कहते हैं। जो व्यक्ति अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और इच्छाओंका नियन्त्रण करता है, वह तपका अभ्यासी है। वास्तवमें अनशन, सनोवर आदि नपोंके अभ्यामसे आत्मा में निर्मलता उत्पन्न होती है। अहंकार और ममकारका त्याग भी तपके द्वारा ही सम्भव है। रस्नत्रयके अभ्यासी श्रावकको अपनी शळिके अनुसार प्रतिदिन तपका अभ्यास करना चाहिए। __ वान-शक्त्यनुसार प्रतिदिन दान देना चाहिए | सम्पत्तिको सार्थकता दानमें ही है । दान सुपात्रको देने से अधिक फलवान होता है। यदि दानमें अहंकारका भाव आ जाय तो दान निष्फल हो जाता है | श्रावक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लिका, क्षुल्लक, ब्रह्मचारो, व्रती आदिको दान देकर शुभभावोंका अर्जन करता है। भावकाधारके विकासको सीढ़ियां ___ श्रावक अपने आचारके विकासके हेतु मूलभूत व्रतोंका पालन करता हुत्रा सम्यग्दर्शनको विशुद्धिके साथ चारित्रमें प्रवृत्त होता है। उसके इस चारित्रिक विकास या आध्यात्मिक उन्नतिके कुछ सोपान है जो शास्त्रीय भाषामें प्रतिमा या अभिग्रहविशेष कहे जाते हैं। वस्तुतः ये प्रतिमाएँ श्रमणजीवनकी उपलब्धिका द्वार हैं। जो इन सोपानोंका आरोहणकर उत्तरोत्तर अपने आचारका विकास करता जाता है वह श्रमणजोवनके निकट पहुँचनेका अधिकारी बन जाता है । ये सोपान या प्रतिमाएँ ग्यारह हैं ।
१. दर्शनप्रतिमा-देव, शास्त्र और गुरुको भक्ति द्वारा जिसने अपने श्रद्धानको दढ़ और विशुद्ध कर लिया है और जो संसार-विषय एवं भोगोंसे विरक्त हो चला है वह निर्दोष अष्टमूलगुणोंका पालन करता हुआ दर्शनप्रतिमाका धारी श्रावक कहलाता है । दार्शनिक श्रावक मद्य, मांस, मधुका न तो स्वयं सेवन करता है और न इन वस्तुओंका व्यापार करता है, न दूसरोंसे कराता है, न सम्मति ही देता है । मद्य-मांसके सेवन करनेवाले व्यक्तियोंसे अपना सम्पर्क भी नहीं रखता है। चर्मपात्रमें रखे हुए घृत, तेल या जलका भी उपभोग नहीं करता। रात्रिभोजनका त्याग करने के साथ जल छानकर पीता है और सप्तव्यसनोंका त्यागी होता है । यह श्रावक नियन्त्रित रूपमें ही विषयभोगोंका सेवन करता है। ____२. प्रतप्रतिमा-माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित होकर निरतिचार पञ्चाणुव्रत और सप्तशीलोंका धारण करनेवाला श्रावक प्रतिक या व्रती कहलाता है। राग-द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त करनेके
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लिये साम्यभाव रखना व्रतिकके लिये आवश्यक है । पूर्व में प्रतिपादित धावकके द्वादश व्रतों का पालन करना व्रतिक के लिये विधेय है ।
३. सामायिकप्रतिमा - व्रतप्रतिमाका अभ्यासी श्रावक तीनों संध्याओं में करता है और कनि आ पड़नेपर भी ध्यानसे विचलित नहीं होता है। वह मन, वचन और कायको एकाग्रताको स्थिर बनाये रखता है । सामायिक करनेवाला व्यक्ति एक-एक कायोत्सर्गके पश्चात् चार बार तीन-तीन आवर्त करता है । अर्थात् प्रत्येक दिशा में " णमो अरहंताणं" इस आद्य सामायिकदण्डक और "थोस्सामि हं" इस अन्तिम स्तविकदण्डक के तीनतीन आवर्त और एक-एक प्रणाम इस तरह बारह आवर्त और चार प्रणाम करता है | श्रावक इन आवर्त आदिकी क्रियाओंको खड़े होकर सम्पन्न करता है । सामायिकका उद्देश्य आत्माकी शक्तिका केन्द्रीकरण करना है । सामायिकप्रतिमाका धारण करनेवाला सामायिकी कहलाता है । दूसरी प्रतिमा में जो सामायिक शिक्षावत है वह अभ्यासरूप है और इम तीसरी प्रतिमामें किया जानेवाला सामायिक व्रतरूप है ।
४. प्रोषधप्रतिमा - प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करना प्रोषध प्रतिमा है। पूर्व में द्वितीय प्रतिभा के अन्तर्गत जिस प्रोषघोपवासका वर्णन किया गया है, वह अभ्यासरूपमें है । पर यहां यह प्रतिमा व्रतरूपमें ग्रहीत है ।
५. सचित्त विरत - प्रतिमा - पूर्वको चार प्रतिमाओं का पालन करनेवाले दयालु श्रावक द्वारा हरे साग, सब्जी, फल, पुष्प आदिके भक्षणका त्याग करना सचितविरत प्रतिमा है। वस्तुतः इस प्रतिमा में किये गये सचिप्तत्यागका उद्देश्य संयम पालन करना है। संयमके दो रूप हैं - १. प्राणिसंयम और २. इन्द्रियसंयम । प्राणियोंकी रक्षा करना प्राणि संयम और इन्द्रियोंको वशमें करना इन्द्रियसंयम है ।
वस्तुतः वनस्पतिके दो भेद हैं : - ( १ ) सप्रतिष्ठित और (२) अप्रतिष्ठित । प्रतिष्ठित दशामें प्रत्येक वनस्पति में अगणित जीवोंका वास रहता है, अतएव उसे अनन्तकाय कहते हैं और अप्रतिष्ठत दशा में उसमें एक ही जीव का निवास रहता है । सप्रतिष्ठित या अनन्तकाय वनस्पतिके भक्षणका त्याग अपेक्षित है । जब वही वनस्पति अप्रतिष्ठित --- अनन्तकायके जीवोंका वास नहीं रहने के कारण अचित्त हो जाती है तो उसका भक्षण किया जाता है । सुखाकर, अग्निमें पकाकर चाकू से काटकर सचित्तको अचित्त बनाया जा सकता है। इन्द्रियसंयमका पालन करनेके लिये सचित्त वनस्पतिका त्याग आवश्यक है ।
६. दिवामैथुन या शत्रिभुक्तित्याग — पूर्वोक पाँच प्रतिमाओंके आचरणका ५२८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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पालन करते हुए श्रावक जन दिनमें मन, वचन और कायसे स्त्रीमात्रका त्याग करता है तब उसके दिवामैथुनत्याग-प्रतिमा कहलासो है। पूर्वोक्त पांचवीं प्रतिमा में इन्द्रियमदकारक वस्तुओंके खानपानका यागकर इन्द्रियोंको संयत करनेकी चेष्टा की गई है । इस छठी प्रतिमामें दिन में कामभोगका त्याग कराकर मनुष्यकी कामभोगको लालसाको रात्रिके लिये ही सीमित कर दिया गया है।
इस प्रतिमाको रात्रिभुक्तिविरति भी कहा जाता है। दयालुचित्त श्रावक रात्रिमें खाद्य, स्वास, लेग और पेय इन चारों ही प्रकार के भोजनोंको मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे त्याग करता है।
७. ब्रह्मचर्यप्रतिमा-पूर्वोक्त छह प्रतिमाओंमें विहित संयमके अभ्याससे मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति द्वारा स्त्रीमात्रके सेवनका त्याग करना सप्तम ब्रह्मचर्यप्रतिमा है। छठी प्रतिमामें दिवामैथुनका त्याग कराया गया है और इस सप्तम प्रतिमामें रात्रिमें भी मैथुनका त्याग विहित है ।।
आत्मशक्तिको केन्द्रित करने के लिये ब्रह्मचर्य एक अपूर्व वस्तु है। यहाँ ब्रह्मचर्यका अर्थ शारीरिक कामभोगोंसे निवृत्ति करना ही नहीं है अपितु पञ्चेन्द्रियोंके विषयभोगोंका त्याग करना है।
८. आरम्भरयागप्रतिमा-पूर्वको सात प्रतिमाओंका पालन करनेवाला श्रावक जब आजीविकाके साधन कृषि, व्यापार एवं नौकरी आदिके करने-कराने का त्याग कर देता है तो वह आरम्भत्यागप्रतिमावाला कहलाता है । ब्रह्मचर्यप्रतिमामें कौटुम्बिक जोवनको मर्यादित कर दिया जाता है और इस प्रतिमामें सुयोग्य संतानको दायित्व सौंपकर उससे विरत हो जाता है ।
९. परिगहत्यागप्रतिमा--पूर्वोक्त आठ प्रतिमाओंके आचारका पालन करनेके साथ-साथ भूमि, गह आदिसे अपना स्वत्व छोड़ना परिगृहत्यागप्रतिमा है। अष्टम प्रत्तिमामें अपना उद्योग-धन्धा पुत्रोंको सुपुर्दकर सम्पत्ति अपने ही अधिकारमें रखता है। पर इस प्रतिमामें उसका भी त्याग कर देता है।
१०. अनुमतित्यागप्रतिमा--पूर्वकी नौ प्रतिमाओंके आचारका अभ्यास हो जानेके पश्चात् घरके किसी भी कारोबारमें किसी भी प्रकारको अनुमति न देना अनुमतित्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमाका धारी श्रावक घरमें न रहकर मन्दिर या चैत्यालयमें निवास करने लगता है और अपना समय स्वाध्यायमें
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व्यतीत करत. है । मध्यान्ह कालमें आमन्त्रण मिलनेपर अपने या दूसरेके घर भोजन कर आता है ! भोजनमें उसकी अपनी कोई भी रुचि नहीं रहती।
११. उद्दिष्टस्यागप्रतिमा-अपने उद्देश्यसे बनाये गये आहारका ग्रहण न करना उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है। इस प्रतिमाके दो भेद हैं :-(१) ऐलक और (२) क्षुल्लक । क्षुल्लक लंगोटीके साथ चादर भी रखता है और कैंची या छुरेसे अपने केशोंको बनवाता है । जिस स्थान पर क्षुल्लक बैठता या उठता है उस स्थानको कोमल वस्त्र आदिसे स्वच्छ कर लेता है, जिससे किसी जीवको पोड़ा नहीं होती है ।
ऐलक केवल एक लंगोटो ही रखता है तथा केशलुब्ध करता है। मुन्याचार या साध्याचार
श्रमण-संस्था आत्मकल्याण और समाजोत्थान दोनों ही दृष्टियोंसे उपयोगी है । मुनि-आचार, पुरुषार्थमार्गका घोतक है। मुनि परम पुरुषार्थ के हेतु ही निर्गन्यपद धारण करते हैं। रे विमल स्वभावकी प्राप्ति टेत अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग करते हैं। वास्तबमें दिगम्बर वेश आकिंचन्यकी पराकाष्ठा है और है अहिंसाकी आधारशिला । कषाय और वासनासे हिंसक परिणति होती है तथा आकिंचनत्व न स्वीकार करने पर अहंकारका उदय होकर अहिंसा धर्मको उच्चकोटिकी परिपालनामें विक्षेप उत्पन्न हो सकता है। अतएव मुनिके लिये दिगम्बर वेश परमावश्यक है । निग्रंन्यत्वके कारण ही मुनि कंचन और कामिनी इन दोनों ही परवस्तुओंका त्याग कर मोह-रात्रिका उपशमन करता है। अतएव यहाँ संक्षेपमें मुनिके आचारका विचार प्रस्तुत किया जा रहा है__ भुनिके अट्ठाईस मूलगुण होते हैं। इन मूलगुणोंका भली प्रकार पालन करता हुआ मुनि आत्मोत्थानमें प्रवृत्त होता है।
पंच महावत-अहिंसा महायत, सत्य सहावत, अचोयं महाव्रत, ब्रह्मचर्य महादत और अपरिग्रह महावत । श्रावक जिन व्रत्तोंका एकदेशरूपसे अणुरूपमें पालन करता था, मुनि उन्हीं प्रतोंका पूर्णतया पालन करता है। षट्कायके जीवोंका घात नहीं करते हुए राग-द्वेष, काम, क्रोधादि विकारोंको उत्पन्न नहीं होने देता। प्राणोंपर संकट आनेपर भी न असत्य भाषण करता है, न किसीकी बिना दी हुई वस्तुको ग्रहण करता है। पूर्ण शीलका पालन करते हुए अन्तरंग और बहिरंग सभी प्रकारके परिग्रहोंका त्यागी होता है। शुद्धिके हेतु कमण्डलु और प्राणि रक्षाके लिये मयूरपंखकी पिच्छि ग्रहण करता है। ५३० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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६-१० पांच समितियां-मुनि दिनमें सूर्यालोकके रहने पर चार हाथ आगे भूमि देखकर गमन करते हैं। हित, मिस और प्रिय वचन बोलते हैं । श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दिये गये निर्दोष आहारको एक बार ग्रहण करते हैं। पिच्छिकमण्डलु आदिको सावधानीपूर्वक रखते और उठाते हैं । जीव-जन्तु रहित भूमि पर मल-मूत्रका त्याग करते हैं। प्रमादत्यागकी हेतुभूत ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग ये पांच समितियां हैं।
११-१५ पंचेन्द्रियनिग्रह-जो विषय इन्द्रियों को लुभावने लगते हैं, उनसे मुनि राग नहीं करते और जो विषय इन्द्रियोंको बुरे लगते हैं, उनसे द्वेष नहीं करते ।
१६-२१ षडावश्यक-सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन षडावश्यकोंका मुनिपालन करते हैं । सामायिकके साथ तीर्थकरोंकी स्तुति, उन्हें नमस्कार, प्रमादसे लगे हुए दोषोंका शोधन, भविष्यमें लग सकनेवाले दोषोंसे बचनेके लिए अयोग्य वस्तुओंका मन-वचन-कायसे त्याग, तप
व पथदा माई रिहा तिने भागोमाग करना अपेक्षित है । खड़े होकर दोनों भजाओंको नोचेकी ओर लटकाकर, पैरके दोनों पंजोंको एक सीधमें नार अंगलके अन्तरालसे रखकर आत्मध्यानमें लीन होना कायोत्सर्ग है ।
२२-२८ शेष ७ गुण-स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, पृथ्वीपर शयन करना,खड़े होकर भोजन करना, दिनमें एक बार भोजन करना, नग्न रहना और केशलुच करना 1
मुनि क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अर्रात, स्त्री, चर्या, निषचा, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, आलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रसा, अन्जान और अदर्शन इन बाईस परीषहोंको सहन करता है। मनि कष्ट मानेपर सभी प्रकारके उपसगोंको भी शान्तिपूर्वक सहता है। उसके लिये श-मित्र, महल-श्मशान, कंचन-कांच, निन्दा-स्तुति सब समान हैं। यदि कोई उसको पूजा करता है, तो उसे भी वह अशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवारसे बार करता है, तो उसे भी आशीर्वाद देता है। उसे न किसीसे राग होता है और न किसीसे द्वेष । वह राग-द्वेषको दूर करनेके लिये हो साधुआचरण करता है । साषु या मुनिको आवश्यकताएँ अत्यन्त परिमित होती है। नग्न रहनेके कारण उसकी निर्विकारता स्पष्ट प्रतीत होती है। वह विकार छिपाने के लिये न तो लंगोटी ग्रहण करता है और न किसी प्रकारका संकोच ही करता है। साधुका जोवन अकृत्रिम और स्वाभाविक रहता है, किसी भी प्रकारका
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आडम्बर उसके पास नहीं रहता । सिर, दाढ़ी, मूछोंके केशोंको द्वितीय, चतुर्थ और छठे महीनोंमें वह अपने हाथ से उखाड़ डालता है। साधुका अन्य आचार
मुनि-आचार या साधु-आचारका पालन करनेके लिये गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रका पालन करना भी आवश्यक है। योगोंका सम्यक् प्रकारसे निग्रह करना गुप्ति है। गुप्तिका जीवनके निर्माणमें बड़ा हाथ है, क्योंकि भावबन्धनसे मुक्ति गुप्तियों के द्वारा ही प्राप्त होती है । गुप्ति प्रवृत्तिमात्रका निषेध कहलाती है। शारीरिक क्रियाका नियमन, मौन धारण और संकल्प-विकल्पसे जीवनका संरक्षण क्रमशः काय, वचन और मनोगुप्ति है।
जब-तक शरीरका संयोग है, तब-तक क्रियाका होना आवश्यक है । मुनि गमनागमन भी करता है 1 आचार्य, उपाध्याय, साधु या अन्य जनोंसे सम्भाषण मी करता है, भोजन भी लेता है। संयम और शानके साधनभत पिच्छि, कमण्डलु और शास्त्रका भी व्यवहार करता है और मल-मूत्र आदिका भी त्याग करता है। यह नहीं हो सकता कि मुनि होनेके बाद वह एक साथ समस्त क्रियाओंका त्याग कर दे। अतः वह पांच प्रकारको समितियोंका पालन करता है । जीवनमें पूर्णतया सावधानी रखता है।
मुनि कर्मो के उन्मूलन और आत्मस्वभावकी प्राप्तिके हेतु, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जब, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप उत्तम त्याग, उत्तम आफिचत्य और उत्तम ब्रह्मचर्यका पालन करता है। उत्तम क्षमाका अर्थ है-क्रोधके कारण मिलनेपर भी क्रोध न कर सहनशीलता बनाये रखना । भीतर और बाहर नम्रता धारण करना एवं अहंकारपर विजय पाना मार्दव है। मन-वचन और कायकी प्रवृत्तिको सरल रखना आजव है। सभी प्रकारके लोभका त्यागकर शरीरमें आसक्ति न रखना शौच है । साधु पुरुषोंके लिये हितकारी वचन बोलना सत्य है। षट्कायके जीवोंकी रक्षा करना
और इन्द्रियोंको विषयोंमें प्रवृत्त नहीं होने देना संयम है । शुभोद्देश्यसे त्यागके आधारभूत नियमोंको अपने जीवन में उतारना तप है। संयतका ज्ञानादि १. जबजादस्वावं उपाडिदकेसमंसुगं सुद्धं ।
रहिद हिंसादीवो अप्पडिकम्मं हदि लिंग ॥ मुच्छारंभविजुतं जुत्तं उवजोगजोगसुखोहिं । लिंग ण परावेषस्त्र अपुणभवकारणं हं ॥
--प्रवचनसार, गाथा २०५-२०६. ५३२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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गुणों का प्रदान करना त्याग है । शरोर और परवस्तुओंसे ममत्व न रखना आकिंचन्य है | स्त्री-विषयक सहवास, स्मरण और कथा आदिका सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य है ।
संसार एवं संसारके कारणोंके प्रति विरक्त होकर धर्मके प्रति गहरी आस्था उत्पन्न करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है, पुनः पुनः चिन्तन करना | साधु या अन्य आत्मसाधक व्यक्ति संसार और संसारकी अनित्यता आदि विषयमें और साथ ही आत्मशुद्धिके कारणभूत भिन्न-भिन्न साधनोंके विषय में पुनः पुनः चिन्तन करता है, जिससे संसार और संसारके कारणोंके प्रति विरक्ति उत्पन्न होती है और धर्मके प्रति आस्था उत्पन्न होती है । मधुप्रेक्षाएँ निर्णय बाद है-
(१) अनित्य - शरीर, इन्द्रिय, विषय और भोगोपभागको जलके बुलबुलेके समान अनवस्थित और अनित्य चिन्तन करना । मोहवश इस प्राणीने परपदार्थोको नित्य मान लिया है, पर वस्तुतः आत्माका ज्ञान दर्शन और चैतन्य स्वभाव ही नित्य है और यही उपयोगी हैं ।
(२) अशरण – यह प्राणी जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियोंसे घिरा हुआ है । यहाँ इसका कोई भी शरण नहीं है । कष्ट या विपत्तिके समय धर्मके अतिरिक्त अन्य कोई भी रक्षक नहीं है। इसप्रकार संसारको अशरणभूत विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है |
( ३ ) संसारानुप्रेक्षा – संसार के स्वरूपका चिन्तन करना तथा जन्म-मरणरूप इस परिभ्रमण में स्वजन और परिजनकी कल्पना करना व्यर्थ है । जो साधक संसार के स्वरूपका चिन्तनकर वैराग्य उत्पन्न करता है, वह संसारानुप्रेक्षाका चिन्तक होता है ।
(४) एकत्वानुप्रेक्षा में अकेला ही जन्मता हूँ और अकेला ही मरण प्राप्त करता है । स्वजन या परिजन ऐसा कोई नहीं जो मेरे दुःखोंको दूर कर सकते हैं, इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - शरीर जड़ है, में चेतन हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने अगणित शरीर धारण किये, पर मैं जहाँ का तहाँ हूँ। जब मैं शरीरसे पृथक् हूँ, तब अन्य पदार्थों से अविभक्त कैसे हो सकता हूँ ? इस प्रकार शरीर और बाह्य पदार्थोंसे अपनेको भिन्न चिन्तन करना अभ्यस्वानुप्रेक्षा है ।
(६) अशुचित्वानुप्रेक्षा - शरीर अत्यन्त अपवित्र है। यह शुक्र, शोणित तीथंकर महावीर और उनकी देशमा ५३३
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आदि सप्त धातुओं और मल-मूत्रसे भरा हुआ है। इससे निरन्तर मल झरता है। इस प्रकार शरीरको अशुचिताका चिन्तन करना अशुधि-अनुप्रेक्षा है।
(७) आत्रवानुप्रेक्षा-इन्द्रिय, कषाय और अबत आदि उभय लोकमें दुःखदायी है। इन्द्रियविषयोंको विनाशकारी लीला तो सर्वत्र प्रसिद्ध है। जो इन्द्रियविषयों और कषायोंके अधीन है, उसके निरन्तर आस्रव होता रहता । है और यह आस्रव ही आत्मकल्याणम बावक है। इस प्रकार आस्वस्वरूपका चिन्तन करना आस्रवानुप्रेक्षा है ।
(८) संवरानुप्रेक्षा-संवर आस्रवका विरोधी है । उत्तम क्षमादि संवरके साधन हैं । संवरके बिना आत्मशद्धिका होना असम्भव है । इस प्रकार संवरस्वरूपका चिन्तन करना संवरानुप्रंक्षा है।
( 9 ) निर्जरानुप्रेक्षा-फल देकर कर्मोका झड़ जाना निर्जरा है। यह दो । प्रकार की है-(१) सविपाक और (२) अविपाक । जो विविध गतियों में फलकाल के प्राप्त होनेपर निर्जरा होती है, वह सविपाक है। यह अबुद्धिपूर्वक सभी प्राणियोंमें पायो जाती है। किन्तु अविपाक निर्जरा तपश्चर्याक निमित्तसे सम्यग्दृष्टिके होती है । निर्जराका यही भेद कार्यकारी है । इस प्रकार निर्जराके दोष-गुण का विचार करना निर्जरानुप्रेक्षा है।
(१०) लोकानुप्रेक्षा-अनादि, अनिधन और अकृत्रिम लोकके स्वभावका चिन्तन करना तथा इस लोकमें स्थित दुःख उठानेवाले प्राणोके दुःखोंका विचार करना लोकानुप्रेक्षा है।
(११ ) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा-जिस प्रकार समुद्र में पड़े हुए होरकरलका प्राप्त करना दुर्लभ है, उसी प्रकार एकेन्द्रियसे त्रसपर्यायका मिलना दुलंभ है। असपर्याय में पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य एवं सम्यग्ज्ञानकी प्राप्तिके योग्य साधनोंका मिलना कठिन है। कदाचित् ये साधन भी मिल आये, तो रलयकी प्राप्तिके योग्य बोधिका मिलना दुर्लभ है। इसप्रकार चिन्तन करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है।
(१२) धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा-सीयंकर द्वारा उपदिष्ट धर्म अहिंसामय है और इसकी पुष्टि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, विनय, क्षमा, विवेक आदि धर्मों और गुणोंसे होती है । जो अहिंसा धर्मको धारण नहीं करता। । उसे संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है, इस प्रकार चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है।
इन अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनसे वैराग्यको वृद्धि होती है। ये अनुप्रेक्षाएँ माताके समान हितकारिणी और आरम-आस्थाको उद्बुद्ध करनेवाली हैं। ५३४ : तीपंकर महावीर और उनकी बाचार्य परम्परा
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चारित्र
संयमी व्यक्तिकी कर्मोके निवारणार्थं जो अन्तरंग और बहिरंग प्रवृत्ति होतो है वह चारित्र है । परिणामोंकी विशुद्धिके तारतम्यकी अपेक्षा और निमित्तभेद से / चारित्रके पाँच भेंद हैं। मुनि इन पांचों प्रकारके चारित्रोंका पालन करता है ।
१. सामायिक चारित्र - सम्यक्त्व, ज्ञान, संयम और तप इनके साथ ऐक्य स्थापित करना और राग एवं द्वेषका विरोध करके आवश्यक कर्तव्यों में समताभाव बनाये रखना सामायिक चारित्र है । इसके दो भेद हैं- ( १ ) नियत काल और (२) अनियत काल | जिनका समय निश्चित है ऐसे स्वाध्याय आदि नियत काल सामायिक हैं और जिनका समय निश्चत नहीं है ऐसे ईर्ष्यापथ आदि अनियतकाल हैं । संक्षेपतः समस्त सावद्ययोगका एकदेश त्याग करना सामायिक चारित्र है ।
२. छेोपस्थापना चारित्र -- सामायिक चारित्रसे विचलित होनेपर प्रायश्चित्तके द्वारा सावद्य व्यापार में लगे दोषोंको छेदकर पुनः संयम धारण करना छेदोपस्थापना चारित्र है। वस्तुतः समस्त सावद्ययागका भेदरूप से त्याग करना छेदोपस्थापना चारित्र है । यथा- मैंने समस्त पापकार्योंका त्याग किया, यह सामायिक है और मैंने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रहका त्याग किया, यह छंदोपस्थापना है ।
३. परिहारविशुद्धि - जिस चारित्रमें प्राणिहिंसाको पूर्ण निवृत्ति होनेसे विशिष्ट विशुद्धि पायी जाती है उसे परिहारविशुद्धि कहते हैं । जिस व्यक्ति ने अपने जन्मसे तीस वर्षकी अवस्थातक सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया, पदचात् दिगम्बर दीक्षा लेकर आठ वर्ष तक तीर्थंकर के निकट प्रत्याख्याननामक नवम पूर्वका अध्ययन किया हो तथा तीनों सन्ध्याकालको छोड़कर दो कोष बिहार करनेका जिसका नियम हो उस दुर्धरचर्या के पालक महामुनिको ही परिहारविशुद्धि चारित्र होता है। इस चारित्रवालेके शरीरसे जीवोंका घात नहीं होता है | इसोसे इसका नाम परिहारविशुद्धि है ।
४. सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र - जिसमें क्रोध, मान, माया इन तीन कषायोंका उदय नहीं होता, किन्तु सूक्ष्म लोभका उदय होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र हैं । यह दशमगुणस्थान में होता है ।
५. यथास्यात चारित्र- समस्त मोहनीयकर्मके उपशम अथवा क्षयसे जैसा आत्माका निर्विकार स्वभाव है वैसा ही स्वभाव हो जाना यथाख्यात चारित्र है ।
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सप-विषयोंसे मनको दूर करनेके हेतु एवं राग-द्वेषपर विजय प्राप्त करनेके हेतु जिन-जिन उपायों द्वारा शरीर, इन्द्रिय और मनको तपाया जाता है अर्थात् इनपर विजय प्राप्त की जाती है वे सभी उपाय तप हैं। तपके दो भेद हैं ... . ए र असार महावी अपेक्षा होनेके कारण जो दूसरोंको दिखाई पड़ते हैं, वे बाबतप हैं । बाह्यतप आभ्यन्तर तपको पुष्टिमें कारण हैं। जिन तपोंमें मानसिक क्रियाओंकी प्रधानता हो, जो अन्यको दिखलाई न पड़ें वे आभ्यन्तर तप हैं ।
बाह्यतप
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं।
१. अनशन-संयमकी पुष्टि, रागका उच्छेद, कर्मनाश और ध्यानसिद्धिके लिये भोजनका त्याग करना अनशन तप है। इसमें ख्याति, पूजा आदि फलप्राप्तिकी आकांक्षा नहीं रहती।
२. अवमोदयं-संयमको जागृत रखने, दोषोंके प्रशम करने, सन्तोष एवं स्वाध्यायको सिद्ध करनेके लिये भूखसे कम खाना अवमौदर्य तप है। मुनिका उत्कृष्ट ग्रास बत्तीस ग्रास है, अतः इससे अल्प आहार करना अवमोदयं है।
३. वृत्तिपरिसंख्यान-आहारके लिये जाते समय घर, गली आदिका नियम ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। यह चित्तवृतिपर विजय प्राप्त करने और आसक्तिको घटानेके लिये धारण किया जाता है ।
४. रसपरित्याग-इन्द्रियों और निद्रा पर विजयप्राप्तार्थ घी, दुग्ध, दधि, तेल, मीठा और नमकका यथायोग्य त्याग करना रसपरित्याग तप है।
५. विविक्तशम्यासन-ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय, ध्यान आदिको सिद्धि हेतु एकान्त स्थानमें शयन करना तथा आसन लगाना विविक्तशय्यासन तप है।
६. कायक्लेश-कष्ट सहन करनेके अभ्यासके हेतु विलासभावनाको दूर करने तथा धर्मकी प्रभावनाके लिये ग्रीष्म ऋतमें पर्वतशिलापर, शीत ऋतुमें खुले मैदानमें और वर्षा ऋतुमें वृक्षके नीचे ध्यान लगाना कायक्लेश है ।
माम्यन्तर तप-आभ्यन्तर तपके प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह भेद हैं।
१. प्रायश्चित्त-प्रमादसे लगे हुए दोषोंको दूर करना प्रायश्चित्त तप है । ५३६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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इसके आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, और उपस्थापना ये नो भेद है। गुरुसे अपने प्रमादको निवेदन करना आलोचना; किये गये अपराधक प्रति मेरा दोष मिथ्या हा ऐसा निवेदन प्रतिक्रमण आलोचना और प्रतिक्रमण दानोंका एक साथ करना तदुभय; अन्य पात्र और उपकरण आदिके मिल जाने पर उनका त्याग करना विवेक; मनमें अशुभ या अशुद्ध विचारोके आनेपर नियत समय तक कायोत्सर्ग करना व्युत्सगं है। दोषविशेष के हो जानेपर उसके परिहारके लिये अनशन आदि करना तप है । किसा विशेष दोषके हानेपर उस दोषके परिहारार्थ दीक्षा का छेद करना छंद है; विशिष्ट अपराधके होनेपर संघसे पृथक करना परिहार हैं; और बड़े दोषके लगने पर उस दोषके परिहारहेतु पूर्ण दोक्षाका छेद करके पुन: दीक्षा देना उपस्थापना है।
२. विनय--पूज्य पुरुषों के प्रति आदरभाव प्रकट करना विनयतप है। इसके चार भेद है। माक्षापयोगी ज्ञान प्राप्त करना, उसका अभ्यास रखना और किये गये अभ्यासका स्मरण रखना झानविनय है; सम्यग्दर्शनका शंकादि दाषांस रहित पालन करना दर्शनविनय; सामायिक आदि यथायोग्य चारित्रके पालन करने में चित्तका समाधान रखना चारित्रविनय है। और आचार्य आदिके प्रति "नमोस्तु" आदि प्रकट करना उपचारविनय है ।
३. वैश्यावृत्त्य-शरोर आदिक द्वारा सेवा-शुश्रूषा करना वैय्यावृस्य है। जिनको वय्यावृत्ति का जाती है, वे दश प्रकारके हैं।
१. आचार्य-जिनके पास जाकर मुनि व्रताचरण करते हैं। २. उपाध्याय-जिनके पास मुनि-गण शास्त्राभ्यास करते है। ३. तपस्वी-बो बहुत व्रत-उपवास करते है। ४. शैक्ष्य-जो श्रुतका अभ्यास करते हैं। ५. ग्लान-रोग आदिसे जिनका शरीर क्लान्त हो । ६. गण-स्थविरोंकी संतसि । ७. कुल-दीक्षा देने वाले आचार्यकी शिष्यपरम्परा ।
८. संघ-ऋषि, यति, मुनि और बनमारके भेदसे चार प्रकारके साधुका समूह ।
९. साधु-बहुत समयसे दोक्षित मुनि । १०, मनोज्ञ-जिनका उपदेश लोकमान्य हो अथवा लोकमें पूज्य हो ।
४. स्वाध्याय-आलस्यको त्यागकर ज्ञानका अध्ययन करना स्वाध्याय है । स्वाध्यायके पांच भेद हैं।
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१. वाचना-प्रन्थ, अर्थ तथा दोनोंका निर्दोषरीतिसे पाठ करना । २. पृच्छना-शंकाको दूर करने या विशेष निर्णयको पुच्छा करना । ३. अनुप्रेक्षा--अधीत शास्त्रका अभ्यास करना, पुनः पुनः विचार करना ।
४. आम्नाप-जो पाठ पढ़ा है उसका शुद्धतापूर्वक पुनः पुनः उच्चारण करना।
५. धर्मोपदेश-धर्मकथा या धर्मचर्चा करना।
५. व्युत्सर्ग- शरीर आदिमें अहंकार और ममकार आदिका त्याग करना व्युत्सर्ग है । इसके दो भेद हैं-(१) बाह्यव्युत्सर्ग और (२) आभ्यान्यर व्युत्सर्ग । भवन, खेत, घन, धान्य आदि पृथक भूत पदार्थ के प्रति ममताका त्याग करना बामव्युत्सर्ग और आत्माके काधादि परिणामाका त्याग करना आभ्यन्तर व्युत्सर्ग है।
६. ध्यान-चञ्चल मनको एकाग्र करने के लिए किसी एक विषय में स्थित करना ध्यान है। उत्तम ध्यान तो उत्तम संहननके धारक मनुष्यको प्राप्त होता है । यह अपनी चित्तवृतिको सभी ओरसे रोककर आत्मस्वरूपमें अवस्थित करता है। जब आत्मा समस्त श भाशभ संकल्प-विकल्पोंको छोड़, निर्विकल्प समाधिमें लीन हो जाती है, तो समस्त कमों की शृङ्खला टूट जाती है । ध्यानका अर्थ भी यही है कि समस्त चिन्ताओं, संकल्प-विकल्पोंको रोककर मनको स्थिर करना; आत्मस्वरूपका चिन्तन करते हुए पुद्गल द्रष्यसे आत्माको भिन्न विचारना और आत्मस्वरूपमें स्थिर होना।।
ध्यान करनेसे मन, वचन और शरीरको शुद्धि होती है। मनशुद्धिके विना शरीरको कष्ट देना व्यर्थ है, जिसका मन स्थिर होकर आत्मामें लीन हो जाता है वह परमात्मपदको अवश्य प्राप्त कर लेता है। मनको स्थिर करनेके लिए ध्यान ही एक साधन है । ध्यानके भेद
ध्यानके चार भेद हैं-१. आतध्यान, २, रौद्रध्यान ३. धर्म ध्यान और ४. शुक्ल ध्यान । इन मेंसे प्रथम दो ध्यान पापासवका कारण होनेसे अप्रशस्त हैं और उत्तरवर्ती दो ध्यान कर्म नष्ट करने में समर्थ होनेके कारण प्रशस्त हैं। यासंध्यान : स्वरूप और भेव __ ऋतका अर्थ दुःख है। जिसके होनेमें दुःखका उद्वग या तीव्रता निमित्त है, वह आत्तध्यान है । आर्सध्यानके चार भेद हैं--१. अनिष्टसंयोगजन्य आध्यान, २. इष्टवियोगजन्य आर्तव्यान, ३. वेदनाजन्य आसंध्यान और ४. निदानज ५३८ : तीर्थकर महावीर और उनकी भाषार्य परम्परा
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आत्तध्यान | अनिष्ट पदार्थोके संयोग हो जानेपर उस अनिष्टको दूर करनेके लिए बार-बार चिन्तन करना अनिष्टसंयोगजन्य आतंध्यान है । स्त्री, पुत्र, घन, घान्य आदि इष्ट पदार्थोके वियुक्त हो जानेपर उनकी प्राप्तिके लिए बार-बार चिन्तन करना इष्टवियोगजन्य आर्तध्यान है। रोगके होने पर अधीर हो जाना, यह रोग मुझे बहुत कष्ट दे रहा है, कब दूर होगा, इस प्रकार सदा रोगजन्य दुःखका विचार करते रहना सीसरा आत्तध्यान है। भविष्यतकालमें भोगोंकी प्राप्तिकी आकांक्षाको मनमें बार-बार लाना निदानज आसध्यान है।
रौद्रध्यान : स्वरूप और मेव
रुद्रका अर्थ क्रूर परिणाम है । जो कर परिणामोंके निमित्तसे होता है, वह रौद्रध्यान है । रौद्रध्यानके निमित्तको अपेक्षा चार भेद हैं-१. हिंसानन्द रौद्रध्यान, २. मृषानन्द रौद्रष्यान, ३. चौर्यानन्द रौद्रध्यान और ४. विषयसंरक्षण रौद्रध्यान । जीवोंके समूहको अपने तथा अन्य द्वारा मारे जानेपर, पीड़ित किये मानेपर एवं कष्ट पहुँचाये जानेपर जो चिन्तन किया जाता है या हर्ष मनाया जाता है उसे हिसानन्द रोदण्यान कहा जाता है । यह ध्यान निर्दयी, क्रोधी मानी, कमीलमेको नास्तिक एवं उद्दीप्तकषायवालेको होता है | शत्रुसे बदला लेनेका चिन्तन करना, युद्ध में प्राणघात किये गये दृश्यका चिन्तन करना एवं किसीको मारने-पीटने कष्ट पहुँचाने आदिके उपायोंका चिन्तन करना भी हिंसानन्द रौद्रध्यानके अन्तर्गत है । मूठो कल्पनाओं के समूहसे पापरूपी मैलसे मलिनचित्त होकर जो कुछ चिन्तन किया जाता है, वह मृषानन्द रौद्रध्यान है। इस ध्यानको करनेवाला व्यक्ति नाना प्रकारके झूठे संकल्प-विकल्पकर आनन्दानुभूति प्राप्त करता रहता है। चोरी करनेकी युक्तियाँ सोचते रहना, परधन या सुन्दर वस्तुको हड्पनेकी दिन-रात चिन्ता करते रहना चौर्यानन्द मामक रौद्रध्यान है। सांसारिक विषय भोगनेके हेतु चिन्तन करना, विषयभोगको सामग्री एकत्र करनेके लिए विचार करना एवं धन-सम्पत्ति आदि प्राप्त करनेके साधनोंका चिन्तन करना विषयसंरक्षणनामक रौद्रध्यान है।
आर्त और रौद्र दोनों ही ध्यान आत्मकल्याण में बाधक हैं। इनसे आत्मस्वरूप आच्छादित हो जाता है तथा स्वपरिणति लुप्त होकर परपरिणतिकी प्राप्ति हो जाती है । ये दोनों ध्यान दुर्ध्यान कहलाते हैं और दुर्गति के कारण हैं | इनका आत्मकल्याणसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । पमंध्याम : स्वरूप और भेद __शुभ राग और सदाचार सम्बन्धी चिन्तन करना धर्मध्यान है । धर्मध्यान
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आत्माकी निर्मलताका साधन है। इस ध्यानके समन भेदोंका साधन करनेसे रत्नत्रयगुण निर्मल होता है और कोको निर्जरा होती है। धर्मध्यानके चार भेद हैं-१. आज्ञा, २. अपाय, ३. विपाक और ४. संस्थान | आगमानुसार तत्त्वोंका विचार करना आज्ञाविचय, अपने तथा दूसरोंके राग-द्वेष-मोह आदि विकारोंको नाश करनेका चिन्तन करना अपायविचय, अपने तथा दूसरों के सुख-दुःखको देखकर कर्मप्रकृतियोंके स्वरूपका चिन्तन करना विपाकविचय एवं लोकके स्वरूपका विचार करना संस्थानावचयनामक धर्मध्यान है। इस धर्मध्यानके अन्य प्रकारसे भी चार भेद हैं-१. पिंडस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत । यह धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयत जीवोंके सम्भव है । श्रेणि-आरोहणके पूर्व धर्मध्यान और श्रेणिआरोहणके समयसे शुक्लध्यान होता है । पिण्डस्य ध्यान
शरीर स्थित आत्माका चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है। यह आत्मा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धसे रागवेषयुक्त है और निश्चयनयकी अपेक्षा यह बिलकुल शुद्ध ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूप है । निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अनादिकालीन है और इसी सम्बन्धके कारण यह आत्मा अनादिकालसे इस शरीरमें आबद्ध है । यो तो यह शरीरसे भिन्न अमूर्तिक, सूक्ष्म और चैतन्यगुणधारी है, पर इस सम्बन्धके कारण यह अमूर्तिक होते हुए भी कश्चित् मूर्तिक है । इस प्रकार परीस्थ आत्माका चिन्तन पिण्डस्थ ध्यानमें सम्मिलित है। इस ध्यानको सम्पादित करनेके लिए पांच धारणाएँ वणित है--१. पार्थिवो, २. आग्नेय, ३. वायवी ४, अलीय और ४. तत्त्वरूपवती । पापियो धारणा
इस धारणामें एक मध्यलोकके समान निर्मल जलफा बड़ा समुद्र चिन्तन करे; उसके मध्यमें जम्बूद्वीपके तुल्य एक लाख योजन चौड़ा और एक सहस्र पत्रवाले तपे हुए स्वर्ण के समान वर्णके कमलका चिन्तन करे । कणिकाके बीच में सुमेरु पर्वत सोचे। उस सुमेरु पर्वतके ऊपर पाण्डुकवनमें पाण्डक शिलाका चिन्तन करे । उसपर स्फटिक मणिका आसन विचारे । उस आसनपर पगासन लगाकर अपनेको ध्यान करते हुए कर्म नष्ट करनेके हेतु विचार करे । इतना चिन्तन बार-बार करना पाथिवी धारणा है। आग्नेयो धारणा
उसी सिंहासनपर बैठे हुए यह विचार करे कि मेरे नाभिकमलके स्थानपर ५४० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा
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भीतर ऊपरको उठा हा सोलह पत्तोंका एक श्वेत रंगका कमल है। उसपर पोसबर्णके सोलह स्वर लिखे हैं । अ आ, इ ई, उ ऊ ऋ ऋ, लु ल, ए ऐ, ओ औ, अं अः, इन स्वरों के बीच में 'ह' लिखा है। दूसरा कमल हृदयस्थानपर नाभिकमलके ऊपर आठ पत्तोंका औंधा विचार करना चाहिए। इस कमलको शानावरणादि आठ पत्तोंका कमल माना जायगा |
पश्चात् नाभि-कमलके बीचमें जहाँ 'हं' लिखा है, उसके रेफसे धुआ निकलता हुआ साचे, पुनः आग्नकी शिखा तो हुई विचार करे। यह लो ऊपर उठकर आठ कोंके कमलको जलाने लगी। कमलके वीचसे फटकर अग्निकी लौ मस्तकपर आ गई। इसका आधा भाग शरीरके एक ओर और आधा भाग शरीरके दूसरी ओर निकलकर दोनोंके कोने मिल गये। अग्निमय त्रिकोण सब प्रकारसे शरीरको वेष्टित किये हुए है। इस त्रिकोणमें र र र र रर र अक्षरोंको अग्निमय फैले हुए विचारे अर्थात् इस त्रिकोण के तीनों कोण अग्निमय र र र अक्षरोंके बने हुए हैं। इसके बाहरो तीनों कोणोंपर अग्निमय साथिया तथा भीतरी तीनों कोणोंपर अग्निमय 'ओम् हैं लिखा सोचे । पश्चात् विचार करे कि भीतरी अग्निको ज्वाला कोको और बाहरी अग्निकी ज्वाला शरीरको जला रही है । जलते-जलते कम और शरीर दोनों ही जलकर राख हो गये हैं सथा अग्निको ज्वाला शान्त हो गई है अथवा पहलेके रेफमें समाविष्ट हो गई है, जहांसे उठो थो । इतना अभ्यास करना 'अग्निधारणा' है। वायु-धारणा
तदनन्तर साधक चिन्तन करे कि मेरे चारों ओर बड़ी प्रचण्ड वायु चल रही है। इस वायुका एक गोला मण्डलाकार बनकर मुझे चारों ओरसे घेरे हुए है। इस मण्डलमें आठ जगह 'स्वॉय स्वॉय' लिखा हुआ है। यह वायुमण्डल कर्म तथा शरीरके रजको उड़ा रहा है । आत्मा स्वच्छ और निर्मल होती जा रही है। इस प्रकारका चिन्तन करना वायु-धारणा है । जल-धारणा
तत्पश्चात् चिन्तन करे कि आकाशमें मेघोंकी घटाएं आच्छादित हैं । विद्युत् चमक रही है। बादल गरज रहे हैं और घनघोर वृष्टि हो रही है। पानीका अपने ऊपर एक अधं चन्द्राकार मण्डल बन गया है। जिसपर प प प प कई स्थानोंपर लिखा है। जल-धाराएँ आत्माके ऊपर लगी हुई हैं और कर्मरज प्रक्षालित हो रहा है, इस प्रकार चिन्तन करना जल घारणा है । तत्त्वरूपवती-धारणा इसके आगे साधक चिन्तन करे कि अब मैं सिद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, निर्मल, फर्म
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और शरीरसे रहित चैतन्यस्वरूप आत्मा हूँ| पुरुषाकार चैतन्यधातुकी बनी शुद्ध मूर्तिके समान हूँ । पूनं चन्द्रमाके तुल्य ज्योतिस्वरूप हूँ।
क्रमशः इन पाँच धारणाओं द्वारा पिंडस्थ ध्यानका अभ्यास किया जाता है। यह ध्यान आत्माके कर्मकलपङ्कको दूरकर ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुणोंका विकास करता है। पवस्थ ध्यान
मन्त्रपदोंके द्वारा अर्हन्त. सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साघु तथा आत्माका स्वरूप चिन्तन करना पदस्थ ध्यान है। किसी नियत स्थान-नासिकाग्रया भृकुटिके मध्य में मन्त्रको अंकित कर उसको देखते हुए चित्तको एकाग्र करना पदस्थ ध्यानके अन्तर्गत है। इस ध्यानमें इस बातका चिन्तन करना भी आवश्यक है कि शुद्ध होनेके लिए जो शुद्ध आत्माओंका चिन्तन किया जा रहा है वह कर्मरजको दूर करनेवाला है । इस ध्यानका सरल और साध्य रूप यह है कि हृदयमें आठ पत्राकार कमलका चिन्तन करे और इन आठ पत्रोंमेंसे पांच पत्रोंपर "णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सवसाहूणं," लिखा चिन्तन करे तथा शेष तीन पत्रोंपर क्रमशः "सम्यग्दर्शनाय नमः, सम्यग्ज्ञानाय नमः और सम्यक्चारित्राय नम:" लिखा हुआ विचारे। इस प्रकार एक-एक पत्तेपर लिखे हुए मंत्रका ध्यान जितने समय तक कर सके, करे। रूपस्य ध्यान
अहंन्त परमेष्ठीके स्वरूपका-विचार करे कि वे समवशरणमें द्वादश सभाओंके मध्यमें ध्यानस्थ विराजमान है। वे अनन्तचतुष्टय सहित परम वीतरागो हैं अथवा ध्यानस्थ जिनेन्द्रको मूर्तिका एकाग्रचित्तसे ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। रूपातीत
सिद्धोंके गुणोंका विचार करे कि सिद्ध, अमूर्तिक, चैतन्यपुरुषाकार, कृतकृत्य, परमशान्त, निष्कलंक, अष्टकर्म रहित, सम्यक्त्वादि अष्टगुण सहित, निर्लेप, निविकार एवं लोकाग्रमें विराजमान हैं। पश्चात् अपने आपको सिद्धस्वरूप समझकर ध्यान करे कि मैं ही परमात्मा हूँ, सर्वज्ञ हूँ, सिद्ध हूँ, कृतकृत्य हूँ, निरञ्जन हूँ, कमरहित हूँ, शिव हूँ, इस प्रकार अपने स्वरूपमें लोन हो जाय । शुक्ल ध्यान
मनको अत्यन्त निर्मलताके होनेपर जो एकाग्रता होती है वह शुक्ल ध्यान ५४२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा
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है। शुक्ल ध्यानके चार भेद है--१. पृथक्त्ववितर्कविचार, २. एकत्ववितर्कअविचार, ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ४. व्युपरतक्रियानिवति । पृथक्त्यवितर्कविचार
उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीका आरोहण करनेवाला कोई पूर्वज्ञानधारी इस ध्यानमें वितर्क-श्रुतज्ञानका भालाबन लेकर निविन दृषिोंने निवार। पासा है और इसमें अर्थ, व्यञ्जन तथा योगका संक्रमण होता रहता है। इस तरह इस ध्यानका नाम पृथक्त्ववितर्कविचार है। इस घ्यान द्वारा साधक मुख्य रूपसे चारित्रमोहनीयका उपशम या क्षपण करता है। एकस्ववितर्क-अविचार
क्षीणमोहगुणस्थानको प्राप्त होकर श्रुसके आधारसे किसी एक द्रव्य या पर्यायका चिन्तन करता है और ऐसा करते हुए वह जिस द्रव्य, पर्याय, शब्द या योगका अबलम्बन लिमे रहता है, उसे नहीं बदलता है, तब यह ध्यान एकत्ववितर्क-अविवार कहलाता है। इस ध्यान द्वारा साधक घातिकमकी शेष प्रकृतियोंका क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करता है | सक्ष्म क्रियाप्रतिपाति
सर्वज्ञदेव योगनिरोध करने लिए स्थूल योगोंका अभाव कर सूक्ष्मकाययोगको प्राप्त होते हैं, तब सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति ध्यान होता है । कायवर्गणाके निमित्तसे आत्मप्रदेशोंका अतिसूक्ष्म परिस्पन्द शेष रहता है। अतः इसे सूक्ष्मकियाअप्रतिपाति कहते हैं । भ्युपरतक्रियानिति
कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्मप्रदेशोंका अतिसूक्ष्म परिस्पन्दनके भी शेष नहीं रहनेपर और आत्माके सर्वथा निष्प्रकम्प होनेपर व्युपरतक्रियानिवर्ति ध्यान होता है। किसी भी प्रकारके योगका शेष न रहने के कारण इस ध्यानका उक्त नाम पड़ा है। इस ध्यानके होते ही सात्तावेदनीयकर्मका आस्रव रुक जाता है और अन्त में शेष रहे सभी कर्म क्षीण हो जानेसे मोक्ष प्राप्त होता है । ध्यानमें स्थिरता मुख्य है । इस स्थिरताके बिना ध्यान सम्भव नहीं हो पाता। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति
आत्मिक गुणोंके विकासको क्रमिक अवस्थाओंको गुणस्थान कहते हैं । आत्मा स्वभावतः ज्ञान-दर्शन-सुखमय है । इस स्वरूपको विकृत अथवा आवृत करनेका कार्य कर्मों द्वारा होता है । कर्मावरणको घटा जैसे-जैसे धनी होती जाती है,
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वैसे वैसे आत्मिक शक्तिका प्रकाश मन्द होता जाता है। इसके विपरीत बेसेजैसे कर्मावरण हटत्ता जाता है, वैसे-वैसे आत्माको शाक्ति प्रादुर्भूत होती जाती है । आत्मिक उत्कान्तिकी यह प्रक्रिया ही गुणस्थान है । गुणस्थानका शाब्दिक अर्थ गुणोंका स्थान है । जीवके कर्मनिमित्त सापेक्ष परिणाम गुण हैं । इन गुणोंके कारण संसारी जीव विविध अवस्थाओंमें विभक्त होते हैं और ये विविध अवस्थाएँ हो गुणस्थान हैं। ___ मोह और योग-मोह और मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति के कारण जोषके अन्तरंग-परिणामोमें प्रतिक्षण होनेवाले उतार-चढ़ायका नाम गुणस्थान है । परिणाम अनन्त है; पर उत्कृष्ट, मलिन परिणामोंको लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा उसके ऊपर जधन्य बीतराग परिणामसे लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणामसक को अनन्तवृद्धियोंके क्रमको वक्तव्य बनानेके लिए चौदह श्रेणियों में विभा जित किया गया है । ये श्रेणियों हो गुणस्थान कहलाती है(१) मिश्यादृष्टि
मिथ्यात्व, सभ्यङ्मिध्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके उदयसे जिसकी आत्मामें अतत्वश्रद्धान होता है, वह मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यात्वगुणस्थानमें जीवको 'स्व' और 'पर' का भेदशान नहीं रहता है। न तत्त्वका श्रद्धान होता है और न आप्त, आगम , निम्रन्थ गुरु पर विश्वास ही । संक्षेपमें यह आत्माकी ऐसी स्थिति है जहाँ यथार्थ विश्गस और यथार्थ बोधके स्थानपर अयथार्थ श्रद्धा और अयथार्थ बोध रहता है । आत्मोत्क्रांतिको यह प्राथमिक भूमिका है। यहींसे आत्मा मिथ्यात्वका क्षय, उपशम या क्षयोपशम कर चतुर्थ गुणस्थानपर पहुँचती है। यह है तो आत्माके ह्रासकी स्थिति, पर उत्क्रांति यहींसे आरम्भ होती है। (२) सासावन ___ जिस आत्माने मिथ्यात्वका क्षय नहीं किया है. पर मिथ्यात्वको शान्त करके सम्यक्त्वकी भूमिका प्राप्त की थी, किन्तु थोड़े कालके पश्चात् ही मिथ्यास्वके उभर आनेसे आत्मा सम्यक्त्वसे च्युत हो जाती है। जब तक वह सम्यकत्वसे गिरकर मिथ्यात्वको भूमिपर नहीं पहुंच पाती, बीचको यह स्थिति ही सासादान गुणस्थान है। इस गुणस्थानवर्ती आत्माका सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धीका उदय या जानेके कारण असादन--विरापनासे सहित होता हैं। आत्माकी यह स्थिति अत्यल्प काल तक रहती है। ५४४ : दीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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(३) मिश्रगुणस्थान
सम्यग्दर्शनके कालमें यदि सम्यङ्मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय आ जाता है तो आत्मा चतुर्थ गणस्थानसे च्युत हो तृतीय गुणस्थानमें आजाती है । जिसप्रकार मिले हए दही और गुडका स्वाद मिश्रित होता है उसी प्रकार इस गणस्थानवर्ती जोवके परिणाम भी सम्यक्त्व और मिथ्यात्वसे मिथित रहते हैं. अनादि मिथ्यादृष्टि चतुर्थ गुणस्थानसे पतित हो तृतीय गुणस्थानमें आता है परन्तु सावि मिध्यादृष्टि जीच' प्रथम गुणस्थानसे भी तृतीय स्थानको प्राप्त करता है । यह गुणस्थान मिथ्यात्वसे ऊंचा है पर मिश्रपरिणामोंके कारण यथार्थ प्रतीति नहीं रहती है । (४) अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान
अनादिमिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्टय इन पाँच प्रकृतियोंके और सादिमिथ्यादृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन सात प्रकृतियोंके उपशमादि होनेपर तत्त्वश्रद्धान उत्पन्न होता है। पर अप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंका उदय रहनेसे संयमभाव जागत नहीं होते, अतः यह असंयत या अविरससम्यग्दृष्टिगुणस्थान कहलाता है।
अविरतसम्यग्दष्टि जीव श्रद्धानके सद्धायके कारण संयमका आचरण नहीं करनेपर भो आत्म-अनात्मके विवेकसे सम्पन्न रहता है । भोग भोगते हुए भी उनमें लिप्त नहीं रहता। वह अपने विचारोंपर पूर्ण नियन्त्रण रखता है। आतं जीवोंकी पीड़ा देखकर उसके हृदयमें . करुणाका निर्मल स्रोत प्रवाहित होने लगता है। उसका लक्ष्य और बोध शुरू हो जाता है और वह संयमके पथपर चलनेके लिए उत्कण्ठित रहता है। (५) संयतासंयतगुनस्यान
अप्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम होनेपर जिसके एकदेश चारित्र प्रकट हो जाता है उसे संयतासंयत गुणस्पान कहते हैं। असहिंसासे विरत रहनेके कारण यह संयत और स्थावरहिंसासे अविरत रहनेके कारण असंयत कहलाता है। अप्रत्याख्यानावरणकषायके क्षयोपशम और प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयमें तारतम्य होनेसे दार्शनिक आदि अवान्तर ग्यारह भेद होते हैं । इस गुणस्थानसे आत्माको यथार्थ उत्क्रांति आरम्भ होती है। चतुर्थगणस्थानमें श्रद्धा और विवेक उपलब्ध होते हैं और इस पञ्चम गुणस्थानसे पारित्रिक विकास आरम्भ होता है ।
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(६) प्रमत्तसंयतगुणस्थान ___ आत्माको अपनी होनतापर विजय पानेका विश्वास हो जाता है तो वह अपनी अपूर्णताओंको समाप्तकर महाव्रती बन जाता है और नग्न मुद्राको धारण कर लेता है। प्रत्याख्यानावरणकषायका क्षयोपशम और संज्वलनका तीव्र उदय रहनेपर प्रमाद सहित संयमका होना प्रमत्तसंयतगुणस्थान है। हिंसादि पापोंका सर्वदेश त्याग करनेपर भी संज्वलनचतुष्कके सीन उदयसे चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और स्नेह इन पन्द्रह प्रमादोंके कारण आचरण किञ्चित् दूषित बना रहता है । (७) अप्रमससंयतगुमस्थान - आत्मार्थी साधककी परमपवित्र भावनाके बलपर कभी-कभी ऐसी स्थिति प्रास होती है कि अन्तःकरणमें उठनेवाले विचार नितान्त शुद्ध और उज्ज्वल हो जाते हैं और प्रमाद नष्ट हो जाता है । संज्वलन कषायका तीन उदय रहनेसे साधक आत्मचिन्तनमें सावधान रहता है । इस गुणस्थानके दो भेद है :स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । स्वस्थानाप्रमत साफ हो गुणरमा से सातवें में और सातवेंसे छठे गुणस्थानमें चढ़ता उत्तरता रहता है। पर जब भावोंका रूप अत्यन्त शुद्ध हो जाता है तो साधक सातिशय अप्रमत्त होकर अस्खलितगतिसे उत्क्रांति करता है। सातिशय अप्रमत्तके अधःकरण आदि विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होते हैं। जिसमें समसमय अथवा मिन्नसमयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश तथा विसदृश दोनों ही प्रकारके होते हैं वह अधःकरण है। (८) अपूर्वकरणगुणस्थान
करणका अर्थ अध्यवसाय, परिणाम या विचार है । अभूतपूर्व अध्यवसायों या परिणामोंका उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है। इस गणस्थानमें चारित्र मोहनीयकर्मका विशिष्ट क्षय या उपशप करनेसे साधकको विशिष्ट भावोत्कर्ष प्राप्त होता है । (९) अनिवृत्तिकरणगुमस्थान
इस गुणस्थानमें भावोत्कर्षको निर्मल विचारधारा और तीन हो जाती है। फलतः समसमयवर्ती जीवोंके परिणाम सदृश और भिन्नसमयवर्ती जीवोंके परिणाम विसदृश हो होते हैं । इस गुणस्थानमें संज्वलनचतुष्कके उदयकी मन्दसाके कारण निर्मल हुई परिणतिसे क्रोध, मान, माया एवं वेदका समल नाश हो जाता है। (१०) समसाम्परायगुणस्थान
मोहनीयकर्मका क्षप या उपशम करके आत्मार्थी साधक जब समस्त ५४६ : तोयंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा
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कषायको नष्ट कर देता है । सूक्ष्म लोभका उदय ही शेष रह जाता है, तो आत्माको इस उत्कर्ष स्थितिका नाम सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान है।
अष्टम गुणस्थानसे श्रेणी आरोहण प्रारम्भ होता है। श्रेणियाँ दो प्रकारको है:-(१) उपशमश्रेणी और (२) क्षपकश्रेणी। जो चारित्रमोहका उपशम करनेके लिये प्रयत्नशील हैं वे उपशमश्रेणीका आरोहण करते हैं और जो चारिशगोहा क्षय रोग
िहै ये दारणीका। क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपकश्रेणी और औपशर्मिक एवं क्षायिक दोनों ही सम्यग्दष्टि क्षपकश्रेणीपर आरोहण कर सकते हैं। (११) उपशाम्तमोहगुणस्थान
उपशमश्रेणीकी स्थितिमें दशम गुणस्थानमें चारित्रमोहका पूर्ण उपशम करनेसे उपशान्तमोहगुण स्थान होता है । मोह पूर्ण शान्त हो जाता है पर अन्तर्मुहर्तके पश्चात् मोहोदय आजानेसे नियमतः इस गुण स्थानसे पसन होता है। (१२) सोचमोह
मोहकर्मका क्षय संपादित करते हुए दशम गुणस्थानमें अवशिष्ट लोभांशका भी क्षय होनेसे स्फटिकमणिके पात्र में रखे हुए जलके स्वच्छ रूपके समान परिणामोंको निमलता क्षोण मोगुणस्थान है। समस्त कर्मोंमें मोहकी प्रधानता है और यही समस्त कर्मों का आश्रय है, अतः क्षीणमोहगुणस्थानमें मोहके सर्वथा क्षीण हो जानेसे निर्मल आत्मपरिणति हो जाती है। (१३) सयोगकेचलीगुणस्थान ___ शुक्लष्यानके द्वितीयपादके प्रभावसे शानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है और आत्मा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाती है। केवलज्ञानके साथ योगप्रवृत्ति रहनेसे यह सयोगकेवलो गुणस्थान कहलाता है। (१४) अयोगकेवली
योगप्रवृत्तिके अवरुद्ध हो जानेसे अयोगकेवलीगुणस्थान होता है। इस गुणस्थानका काल अ, इ, उ, ऋ, ल इन पांच लघु अक्षरोंके उच्चारण काल तुल्य है । व्युपरतक्रियानिति शुक्लध्यानके प्रभावसे सत्तामें स्थित पचासी प्रकृतियोंका क्षय भी इसी गणस्थानमें होता है।
निष्कर्ष-मानवजीवनके उत्यानके हेतु धर्म और आचार अनिवार्य तत्व हैं । आचार और विचार परस्परमें सम्बद्ध हैं। विचारों तथा आदशों का व्यकहारिक रूप आचार है । आचारकी आधारशिला नैतिकता है ! वैयक्तिक और
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सामाजिक जीवनमें धर्मकी प्रतिष्ठा भी नैतिकता के आधारपर होती है । धर्म और बाचार भौतिक और शारीरिक मूल्यों तक ही सीमित नहीं हैं, अपितु इनका क्षेत्र आध्यात्मिक और मानसिक मूल्य भी है। ये दोनों ही आध्यात्मिक अनुभूति उत्पन्न करते हैं। आचार वही ग्राह्य है, जो धर्ममूलक है तथा आध्याटिमकताका विकास करता है । दर्शनका सम्बन्ध विचार, तर्क अथवा हेतुयादके साथ है। जबकि धर्मका सम्बन्ध आचार और व्यवहारके साथ है । धर्म श्रद्धापर अवलम्बित है और दर्शन हेतुवादपर । श्रद्धाशील व्यक्ति आचार और धर्मका अनुष्ठान करता हुआ विवारको उत्कृष्ट बनाता है । अतएव आत्मविकासकी दृष्टिसे धर्म और आचारका अध्ययन परमावश्यक है ।
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एकादश परिच्छेद
समाज व्यवस्था
लौकिक जीवनको उन्नति और समृद्धिके लिए समाजका विशिष्ट महस्व है । व्यक्ति समाजकी इकाई अवश्य है, पर वह समाज या संघके बिना रह नहीं सकता है । यतः व्यक्ति के जीवनकी अगणित समस्याएँ समाजके द्वारा ही सही रूपमें सुलझती हैं और सामाजिक जीवन में ही उसकी निष्ठा वृद्धिगत होती है ।
जीवन में जब सामाजिकताका विकास होता है, सो निजी स्वार्थ और व्यक्तिगत हितोंका बलिदान करना पड़ता है । अपने हित, अपने स्वार्थ और अपने सुख से ऊपर समाज के स्वार्थ एवं सामूहिक हितको प्रधानता दी जाती है। मानव एकदूसरेके हितों को समझकर अपने व्यवहारपर नियन्त्रण रखता है । परस्पर एकदूसरे के कार्यों में सहयोगी बन, अन्यके दुःख और पीड़ाओंमें यथोचित साहस - धैर्यं बँधाकर उनमें भाग लेनेसे सामाजिक जीवनकी प्रथम भूमिकाका निर्वाह किया जाता है। जीवनमें जन अन्तर्द्वन्द्व उपस्थित हो जाते हैं और व्यक्ति अकेला उनका समाधान नहीं कर पाता, तो उस स्थितिमें
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दूसरा साथी जो अन्तर्द्वन्नोंको सलेह लगोगी
ब दखलाता है और पराभव के क्षणों में उसे विजयमार्गकी ओर ले जाता है। अतएव वैयक्तिक जीवनको सुखी, शान्त और समृद्ध बनानेके लिए समाजकी आवश्यकता रहती है । व्यक्ति समाजके सहयोगके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है । समाज : म्युत्पत्ति एवं अर्थविस्तार
समाषशब्द सम् + अ + पसे निष्पन्न है। अज् धातु भ्वादिगणी है और इसका अर्थ गति और क्षेपण है | चुरादिगणी मानने पर 'दीप्ति' अर्थ है। पर यहाँ "संवीयतेऽत्रेति" अर्थात् एकत्रीकरण अभिप्रेत है । अमरकोषके अनुसार “पशुभिन्नानां संघः' पशु-पक्षीसे भिन्न मानवोंका समुदाय या संघ समाज है। समाजशब्द व्यापक है। एक प्रकारके व्यक्तियोंके विश्वास एवं स्वीकृतियाँ समाजमें विद्यमान रहती हैं।
समाज सम्बन्धोंका एक निश्चित रूप है। मानवजीवन सृष्टिका सबसे बझा विकसित रूप है। कर्त्तव्यकर्मोका निर्वाह जीवनके विकासका सर्वोत्तम रूप है | समाजका गठन जीवन्त मानवके अनुरूप होता है। समाजके लिए कुछ मान्य नियम या स्वयं सिद्धियां होती हैं, जिनका पालन उस समुदायविशेषके व्यक्तियों को करना पड़ता है । जिस समुदायमें एक-सा धर्म, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, रीति-रिवाज समान घरातलपर विकसित और वृद्धिंगत होते हैं, वह समुदाय एक समाजका रूप धारण करता है । विश्वबन्धुत्वकी भावना जितनी अधिक बढ़ती जाती है, समाजका क्षेत्र भी उतना ही अधिक विस्तृत होता जाता है। भावनात्मक एकता हो समाज-विस्तारका घटक है। मनुष्यताका विकास क्षुद्रसे विराट्की ओर होता है। सुख-दुःखको धारणाओंको समत्व रूप में जितना अधिक बढ़नेका अवसर मिलता है, समाजकी परिधि उतनी ही बढ़ती जाती है। अतः समाजका विकास प्रतिदिन होता जा
व्यक्तिकेन्द्रित चेतना जब समष्टिकी ओर मुड़ जाती है, कर्तव्य और उत्तरदायित्वका संकल्प जागृत हो जाता है, पारस्परिक सुख-दुःखात्मक अनुभूतिकी संवेदनशीलता बढ़ती जाती है, तो सामाजिकताका विकास होता जाता है। चिन्तन, मनन और अनुभवसे यह देखा जाता है कि मनुष्य अपने पिण्डकी क्षुद्र इकाईमें बद्ध रहकर अच्छे जोनेके दंगसे जी नहीं सकता; अपना पर्याप्त भौसिक और बौद्धिक विकास नहीं कर सकता। जीवनकी सुख-समृद्धिका द्वार नहीं खोल सकता और न अध्यात्मको श्रेष्ठ भूमिका तक पहुंच सकता है। अकेला रहने में मनुष्यका दैहिक विकास भी सम्यक्तया नहीं हो पाता । अतएव ५५० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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व्यक्तिको सामाजिक जीवन यापन करनेकी परम आवश्यकता रहती है। समाज एक व्यक्तिके व्यवहार पर निर्भर नहीं रहता, किन्तु बहुसंख्यक मनुष्योंके व्यवहारोंके पूर्ण चित्रके आधार पर ही उसका गठन होता है । दूसरे शब्दोंमें यह माना जा सकता है कि समाज मनुष्योंकी सामुदायिक क्रियाओं, सामूहिक हितों, आदर्शों एवं एक ही प्रकारको आचारप्रथाओंपर अवलम्बित है। अनेक व्यक्ति जब एक ही प्रकारको जनरीतियों ( Folk ways ) और रूढ़ियों ( Mores) के अनुसार अपनी प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो विभिन्न प्रकारके सामाजिक संगठन जन्म हम करते हैं। मनोक सम्मारिक संस्था समूहका एक ढाँचा ( structure ) होता है, जिसमें कर्तव्याकर्तव्यों, उत्सवों, संस्कारों एवं सामाजिक सम्बन्धोंका समावेश रहता है। सारांश यह है कि अधिक समय तक एक ही रूपमें कतिपय मनुष्योंके व्यवहार और विश्वासोका प्रचलन सामाजिक संस्थाओं या समूहोंको उत्पन्न करता है । समाजको उत्पत्ति के कारण
समाजको उत्पत्ति व्यक्तिकी सुख-सुविधाओके हेतु होतो है । जब व्यक्तिके जीवनकी प्रत्येक दिशामें अशान्तिका भीषण ताण्डव बढ़ जाता है । भोजन, वस्त्र और आवासको समस्याएं विकट हो जाती है। भौतिक आवश्यकताएँ इतनी अधिक बढ़ जाती है, जिनकी पूर्ति व्यक्ति अकेला रहकर नहीं कर सकता। उस समय यह सामाजिक संगठन आरम्भ करता है । असन्तोष और अधिकारलिप्सा वैयक्तिक जीवनको अशान्तिके प्रमुख कारण हैं। भोग और लोभकी कामना विश्वके समस्त पदार्थोको जीवनयज्ञके लिए विष बनाती है। तथा प्रभुताकी पिपासा विवेकको तिलांजलि देकर कामनाओंको और अधिक वृद्धि करती है।
'अहं' भावना व्यक्तिमें इतनी अधिक समाविष्ट है, जिससे वह अन्यके अधिकारोंकी पूर्ण अवहेलना करता है। अहंवादी होनेके कारण उसकी दृष्टि अपने अधिकारों एवं दूसरों के कर्तव्यों तक ही सीमित रहती है। फलत: व्यक्तिको अपने अहंकारको तुष्टि के लिए समाजका आश्रय लेना पड़ता है। यही प्रवृत्ति समाजके घटक परिवारको जन्म देती है।
भोगभिके प्रारम्भमें ही युगलरूपमें मनुष्य जन्म ग्रहण करता था। इसी यौगलिक परम्परासे परिवारका विकास हुआ है। मनुष्य अकेला नहीं है, वह स्वयं पुरुष है और एक स्त्री भी उसके साथ है। वे दोनों साथ घूमते है और साथ साथ रहते हैं। उन दोनोका केवल देहिक सम्बन्ध है, पति-पत्लीके. रूपमें पवित्र पारिवारिक संबंषका परिस्फुरण नहीं है। वे साथी तो अवश्य
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हैं पर सुख-दुःखमें भागीदार नहीं। उन्हें एकदूसरेके हितों की चिन्ता नहीं थी । जब पुरुषको भूख लगती थी, तो वह इधर उधर चला जाता था और तत्कालोन कल्पवृक्षो से अपनी क्षुषाको शान्त कर लेता था । नारीको जब भूख सताती, तो वह भी निकल पड़ती और पुरुषके ही समान कल्पवृक्षो' द्वारा अपनी क्षुषाको शन्त कर लेती । न तो पुरुषको भोजनादिके लिए अर्थव्यवस्था ही करनी पड़ती थी और न नारीको पुरुषके लिए भोजनादि ही सम्पन्न करने पड़ते थे। पिपासा शान्त करने के लिए भी कूप, सरोवर आदिके प्रबन्धकी आरश्यकता नहीं थी। जैसका भी शमन प्रकृतिप्रदत्त कल्पवृक्षों द्वारा हो जाता था । इस प्रकार लाखों वर्षों तक नर और नारी साथ-साथ रहकर भी पृथक् पृथक् रहे, वे एकदसरेके सुख-दुःसमें भागीदार नहीं बन सके और न उनमें पारस्परिक समर्पणको कल्पना ही आ सकी। वे एक दूसरेकी समस्या भी रस नहीं लेते थे। __ जब कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ, तो परिवार-संस्था प्रादुर्भूत हुई । नर नारी परस्पर सहयोगके बिना रह नहीं सकते थे। उनकी शारीरिक आवश्यकताएं भी प्रकृतिद्वारा सम्पन्न नहीं होती थी। पुरुषको अर्जिनके लिए प्रयास करना पड़ता और नारीको भोजनादि सामग्नियां तैयार करनी पड़तीं। अब वे पूर्णतया पति-पत्नी थे, उनमें समर्पणको भावना थी और वे एक दूसरेके प्रति उत्तरदायी थे। इस प्रकार परिवार संस्थाको उत्पत्ति हुई। वस्तुतः संस्कृति और सामाजिकताका विकास परिवारसे ही होता है । समाजघटक परिवार
समाजका आधारभूत परिवार है। चतुर्विष संघमें श्रावक और श्राविका संघको अवस्थिति परिवार पर ही अवलम्बित है। यह कामकी स्वाभाविक वृत्तिको लक्ष्यमें रखकर यौनसम्बन्ध एवं सन्तानोत्पत्तिकी क्रियाओंको नियन्त्रित करता है । भावनात्मक घनिष्ठताका वातावरण तैयार कर बालकोंके समुचित पोषण और विकासके लिए आवश्यक पृष्ठभूमिका निर्माण करता है । इसप्रकार व्यक्तिके सामाजीकरण और सांस्कृतिकरणको प्रक्रियामें परिवारका महत्वपूर्ण योगदान रहता है । परिवारके निम्नि लिखिप्त कार्य हैं
१. स्त्री-पुरुष'के यौनसंबंधको विहित और नियन्त्रित करना ।
२. वंशवर्धनके हेतु सन्तानकी उत्पत्ति, संरक्षण और पालन करना, मानवजातिके क्रमको आगे बढ़ाना।
३. गृह और गार्हस्थ्यमें स्त्री-सुरुषका सहवास और नियोजन । ५५२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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४. जीवनको सहयोग और सहकारिताके आधार पर सुखी एवं समृद्ध बनाना।
५. व्यावसायिक ज्ञान, औद्योगिक कोशलके हस्तान्तरणका नियमन एवं वृद्ध, असहाय और बच्चोंको रक्षाका प्रबन्धसम्पादन |
६. मानसिक विकास, संकेत (Suggestion) अनुकरण (Imiralton) एवं सहानुभूति (Sympathy) द्वारा बच्चोंके मानसिक विकासका वातावरण वस्तुत करना।
७. भोगेच्छाओंको नियन्त्रित करते हुए संयमित और आध्यात्मिक जोयनकी उन्नति करना।
८. जातीय जीवनके सातत्यको दृड़ रखते हुए धर्मकार्य सम्पन्न करना ।
९. प्रेम, सेवा, सहयोग, सहिष्णुता, शिक्षा, अनुशासन आदि मानवके महत्त्वपूर्ण नागरिक एवं सामाजिक गुणोंका विकास करना।
१७. आर्थिक स्थायित्वके हेतु उचित आयका सम्पादन करना।
११. विकास और दृढ़ताके लिए आमोद-प्रमोद एवं मनोरंजनसे सम्बद्ध कार्योंका प्रबन्ध करना ।
१२ अनि संस्थाकी सुदरताके लिए वैयावृत्तिका सम्पादन करना । १३. पारिवारिक बन्धनोंको स्वाकार करना।
१४. पारिवारिक दायित्व-निर्वाहोंके साथ आचार और धर्मका यथावत् पालन करना।
१५. अधिकारों और कर्तव्योंमें सन्तुलन स्थापित करना ।
वस्तुतः परिवार-गठनका आधार मातृ स्नेह, पितृ-प्रेम, दाम्पत्य-आसक्ति, अपत्य-प्रीति, अतिथि सत्कार, सेवा-वैयावृत्ति और सहकारिता है। इन आधारों पर ही परिवारका प्रासाद निर्मित है। यदि ये आधार कमजोर या क्षीण हो जाये, तो परिवार-संस्थाका विघटन होने लगता है। यों तो परिवारके उद्देश्यों में स्त्री-पुरुषके यौनसम्बन्धकी प्रमुखता है, पर विषयभोगोंका सेवन कटु औषधके समान अल्परूप में ही करना हितकर है। मनोहर विषयोंका सेवन करनेसे तृष्णाको जागृत्ति होती है और यह तृष्णारूपी ज्वाला अहनिश वृद्धिंगत होती जाती है। अतएव विषयमोगोंका सेवन बहुत ही सौमित और नियंत्रित रूपमें करना चाहिए। जिस प्रकार अधिक मिठाई खानेसे स्वस्थ रहनेको अपेक्षा मनुष्य बीमार पड़ जाता है । उसी प्रकार जो अधिक कामभोगोंका सेवन करता है, वह भी मानसिक और शारीरिक रोगोंसे आक्रान्त हो जाता है। वासनाकी शान्तिके लिए सीमित रूपमें ही विषयोंका सेवन परिवार के लिए हितकर होसा
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है । ज्ञान, शान्ति, सुख और सन्तोषके हेतु संयमका पालन परिवारमें भी आव. श्यक है। वही परिवार सुखी रह सकता है, जिस परिवारके सदस्योंने अपनी आशाओं और तृष्णाओंको नियंत्रित कर लिया है। ये आशाएँ विषयसामग्रोके द्वारा कभी शान नहीं होती हैं। जिस प्रकार जलती हई अग्निमें जितना अधिक ईषन डालते जायें, अग्नि उत्तरोत्तर बढ़ता ही जायगी। यही स्थिति विषयभोगोंको अभिलाषाको है।
समस्याएँ परिस्थिति, काल एवं वातावरणके अनुसार उत्पन्न होती हैं और इन समस्याओं के समाधान या निराकरण भी प्राप्त किये जा सकते हैं, पर इच्छाओंकी उत्पत्ति तो अमर्यादित रूपमें होती है । फलत: उन इच्छाओंको भोग द्वारा तो कभी भी पूर्ण नहीं किया जा सकता है, पर संयम या नियंत्रण द्वारा उन्हें सीमित किया जा सकता है। परिवारके कर्तव्य दया, दान और दमन-इन्द्रियसंयमको त्रिवेणी रूप में स्वीकृत हैं । यही संस्कृतिका स्थूल रूप है । प्रत्येक प्राणीके प्रति दया करना, शक्ति अनुसार दान देना एवं यथासामर्थ्य नियंत्रित भोगोंका भोग करना परिवारकी आदर्श मर्यादामें सम्मिलित हैं। क्रूरतासे मनुष्य सुख नहीं प्राप्त कर सकता और न संग्रहवृत्तिके द्वारा उसे शान्ति ही मिल सकतो है । भोगमें मनुष्यको चैन नहीं। अतः दमन या संयमकी आवश्यकता है। परिवारको सुख-शान्तिके लिए भोग और त्याग दोंनोको आवश्यकता है । शरीरके लिए भोग अपेक्षित हैं तो आत्मकल्याणके लिए त्याग | भोग और योगका संतुलन हो स्वस्थ परिवारका घरातल है। परिवारको सूखो करने के लिए दया, ममता, दान और संयम परम आवश्यक हैं। परिवारको सुगठित करनेवाले सात गुण हैं :-२, प्रेम, २. पारस्परिक विश्वास, ३. सेवामावना, ४. श्रम, ५. कर्तव्यनिष्ठा, ७. सहिष्णुता, ७. और अनुशासनप्रवृत्ति ।
प्रेम
प्रेम समाजका मानवोय तत्व है। इसके द्वारा जीवन-मन्दिरका निर्माण होता है। प्रेमके द्वारा हम आध्यात्मिक वास्तविकताका सृजन करते हैं और व्यक्तियोंके रूपमें अपनो भवितव्यताका विकास करते हैं । शारीरिक आनन्दके साथ मनको प्रसन्नता और आत्मिक आनन्दका सृजन भी प्रेमसे ही होता है। प्रेम आत्माकी पुकार है। प्रेममें आत्मसमर्पणका भाव रहता है और वह प्रतिदानमें कुछ नहीं चाहता। इसमें किसी भी प्रकारका दुराव या प्रतिबन्ध नहीं रहता। यह भारी कामको हल्का कर देता है। प्रेमवश व्यक्ति बडे-बड़े बोझको बिना भारका अनुभव किये ढोता है और श्रम या थकावटका अनुभव नहीं करता है। ५५४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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प्रेम आत्मरको गहराइयोंमें विद्यमान रहता है । यह ऐसा रत्न-दीपक है जो परिस्थितियोंके झंझावातोंसे बुझसा नहीं और न स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियोंके प्रभाव ही इसपर पड़ते हैं । यह ऐसी शक्ति है जो पृथ्वीको स्वर्ग बनाती है । शरीरके साथ मन और आत्माको सबल करती है । प्रेम पवित्रतम सम्बन्ध है और है जीवनको अमूल्य निधि । __ परिवारके समस्त गुणोंका विकास प्रेमके द्वारा ही होता है । समस्त सदस्योंको एकताके सूत्र में वही आबद्ध करता है। सच्चा प्रेम आत्मा और शरीरका मिलन है । पत्नी निस्वार्थ भावसे पतिको प्रेम करती है और पति पत्नीको । प्रेममें कुछ पानेको भावना नहीं रहती । यही एक ऐसा गुण है, जो सहस्र प्रकारके कष्टोंको सहन करने के लिए व्यक्तिको प्रेरित करता है । दो व्यक्तियोंके बीचके ऐकान्तिक सम्बन्धको प्रेम स्थायित्व प्रदान करता है। अतः विवाहका उद्देश्य प्रेमके द्वारा स्थायित्व और पूर्णताको प्राप्त होता है । विवाहित जीवनका लक्ष्य प्राकृतिक बासनाको पूर्ण करना होनहा है, अपितु आत्माके लिए त्यागका मार्ग प्रस्तुत करना है। प्रेमकी भावनाके कारण मनुष्यका उत्सुक चित्त नये उत्साहके साथ अनुभवोंको ग्रहण करता है। सभी इन्द्रियां तीव्रतर आनन्दसे पुलकित हो जाती हैं । मानों किसी अदृश्य आत्माने संसारके सब' रंगोंको नया कर दिया हो और प्रत्येक जीवित वस्तु में नवजीवन भर दिया हो।
प्रेम ही पशु और मनुष्यके भेदको स्थापित करता है। यही जोवनमें चारुता, सन्दरता और लालित्यको उत्पन्न करता है । एक मानवका दूसरे मानवके प्रति प्रेमसे बढ़कर आनन्दका अन्य कोई सुनिश्चित और सच्चा साधन नहीं है। प्रेम ही टूटने हुए हृदयोंको जोड़ता है और उत्पन्न हुए तनावोंको कम करता है। मानवीय गुणोंका विकास प्रेम द्वारा ही होता है। अतएवं परिवारको आदर्श, प्रतिष्ठित और समाजोपयोगी बनानेके लिए निस्वार्थ प्रेमकी आवश्यकता है। यह जिस प्रकार एक परिवारके सदस्योंमें एकता उत्पन्न करता है उसी प्रकार समाजके घटक विभिन्न परिवारों में भी एकत्वकी स्थापना करता है। परिवारके सदस्य साथ-साथ रहते हैं, भोजन-पान करते हैं, मनोरञ्जन करते हैं और अपनेअपने कार्योंका सुचारु रूपसे संचालन करते हैं, इन समस्त कार्यों के मूलमें प्रेम ही बन्धनसूत्र है। पारस्परिक विश्वास
परिवारके प्रति ममता, स्नेह, भक्ति और दायित्वका विकास पारस्परिक विश्वास द्वारा ही होता है । यदि परिवारके सभी सदस्य परस्परमें आशंकित और भयभीत रहें, तो योग-क्षेमका निर्बाह संभव नहीं। कर्तव्यकी प्रेरणाका
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जागरण भी आत्मविश्वाससे होता है । आत्मस्वार्थसे किया गया कार्य अभ्युदयका साधक नहीं हो सकता।
वस्तुतः पति-पत्नी, पिता-पुत्रका निकटतम सूत्र विश्वासके धागोंसे जुड़ा हुआ है । जब परिवारके बीच संशय उत्पन्न हो जाता है, मनमें अविश्वास जग जाता है तो वे एक दूसरेको जानके ग्राहक बन जाते हैं । यदि साथमें रहते भी हैं, तो शत्रुतुल्य | घर, परिवार, समाज राष्ट्रका हराभरा उपवन अविश्वासके कारण धूलिसात हो जाता है। आवश्वासका वातावरण पारिवारिक जीवनको दिशाहीन और गतिहीन बना देता है। जीवन अस्त-व्यस्त-सा हो जाता है।
जब तक परिवार और समाज में अविश्वास या संशयका भाव बना रहेगा, तब तक इनकी प्रगति नहीं हो सकती है। जीवन, भविष्य, परिवार एवं समाजके यथार्थ विकास पारस्परिक विश्वास द्वारा हो संभव हैं। मानव-जीवन कीट-पतंगके समान अविश्वासको भूमिपर रेंगनेके लिए नहीं है । अतः आस्थाके अनन्त गगनमें विचरण करनेका प्रयास करना चाहिए। । परिवारको पतवारका आधार समस्त सदस्योंका पारस्परिक विश्वास ही है। उदारताके अभाव में संफोर्णता जन्म लेती है और इसीसे अविश्वास उत्पन्न होता है। परिवारको आर्थिक सुदृढ़ता, धार्मिक क्रियाकलाप और सामाजिक चेतना आस्था एवं विश्वाससे ही सम्बद्ध हैं । जीवनको उषामें मनोविनोदके रंग, उत्सदोंके विलास और लालित्यकी कलियाँ विश्वासके बलपर खिलती हैं।
विश्वासकी भावना दो भागोंमें विभाजित है-(१) आरमस्थ और (२) परस्थ । आत्मस्थ भावनामें आत्माभिव्यक्तिका प्रबल वेग है। वह भावना अभिलाषाओं और इच्छाओंम उमड़कर गन्तव्य दिशामें अपने आदर्शको पूर्ति कर लेती है । भावनाका यह प्रवाह उदारता उत्पन्न करता है तथा आस्थावश स्वकथन या स्वव्यवहारको सबल बनाता है। परस्य भावना अधिक सामाजिक है, यह विश्वासकी देवी सम्पत्ति है और कार्यकारणकी शृंखलासे निबद्ध रहती है। परिवार या समाजको नीच परस्थ विश्वासभावनापर ही अवलम्बित है। समाज और परिवारकी विविध परिस्थितियोंमें पारस्परिक विश्वास चिन्तन और व्यवहारको परिष्कृत करता है, जिसके फलस्वरूप समाज एवं परिगारमें कल्याणका सृजन होता है। सेवा-भावना
सेवाशब्द /सेव - सेवने + टापसे निष्पन्न है। दुःखो, रोगो, वृद्ध, अशक्त एवं गुणियोंको सान्त्वना देना, शरीर, वचन और मनसे परिचर्या करना तथा उनके प्रति आदरभाव रखना सेवा है । सेवाभावसे ही व्यक्तिका व्यावहारिक ५५६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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जीवन श्रेष्ठ हो सकता है तथा परिवार और समाजमें वात्सल्यको स्थायित्व प्राप्त हो सकता है। एकता और शान्तिका विकास भी सेवाभावनाद्वारा किया जा सकता है । यह प्रायः देखा जाता है कि गुणग्राही होना संसार में कठिन है। गुणग्राहिता ही सेवाभावनाको उत्पन्न करती है। देखा जाता है कि गुणीजन एक-दुसरेसे आपसमें हो द्वेष करते हैं, फलस्वरूप कषायभाव उत्पन्न होते हैं। __ दीन-दुःखियोंकी सेवा करना, किसीसे घृणा न करना, परस्पर उपकारको भावना रखना ही मानवता है और इसीसे परिवार एवं समाजकी स्थिति सुदढ़ होती है । अहिंसक भावना ही सेवाभाव है, इसे किसी पाठशालामें सीखा नहीं जाता है, यह तो प्रत्येक आत्मामें वर्ता है।
समस्त सफलताओंके मूलमें सेवा हो कार्यकारी है। इसके स्पर्शसे निर्जीव कोयला अग्निका रूप धारण करता है और अवरुद्ध जल वेगवान निर्झर बन जाता है । साधारण-से-साधारण प्रतिभा सेवाभावनाके बलसे सक्रियता प्राप्त कर लेती है । सेवावृत्ति कदाचित् किसी मन्द व्यक्तिको भी प्राप्त हो जाय, तो उसको भी सुषुप्त शक्ति जागत हो उठती है और वह अग्निपुंज बन जाता है । सेवाकी उपलब्धि एक सद्गुणके रूप में होती है ।
सेवा या वैयावृत्ति सफलताका आधारभूत उपादान है, यह कर्मके सभी रूपों में मौलिकतत्त्व है। सेवा और सहयोगके बिना परिवार और समाजको कल्पना ही संभव नहीं है।
__ "व्याप्ते यरिक्रयते तद्वयावृत्त्यम्"-रोगादिसे व्याकुल साधुके विषयमें जो कुछ किया जाता है, वह वेयावृत्य है। यह तप है, यतः सेवा या वैयावृत्ति साधारण बात नहीं है । इसके लिए अहंकारका त्याग, निःस्वार्थ प्रेम, दया और करुणा वृत्तिका सद्भाव आवश्यक है । सोने-बैठने के लिए स्थान देना, उपकरण शोधन करना, निर्दोष आहार-औषध देना, व्याख्यान करना, अशक्त मुनि, सामाजिक या पारिवारिक सदस्यका मल-मूत्र उठाना, उसको रोगीकी स्थितिमें सेवा करना, हाथ-पैर-सिर दबाना एवं विपत्तिमें पड़े हुओंका उद्धार करना आदि यावृत्ति-सेवामें परिगणित है।
सेवा या वैयावृत्तिके समय परिणामोंको कलुषित न होने देना, स्वार्थभाव या प्रत्युपकारवृद्धिका स्याग करना, परिणामोंमें कोमलता और आर्द्रता रखना तथा सेवा करते हुए प्रसन्नताका अनुभव करना आवश्यक है । निःस्वार्थभावसे की गयी सेवा आत्मशुद्धिका कारण बनती है। यह वासनाओंके क्लेशसे
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छुटकारा दिलाती है । अन्तः शोधन के लिए भी यह आवश्यक है । परिवार और समाजका कार्य सेवाभावके अभावमें नहीं चल सकता है । लूटमार, धोखाधड़ी, बेईमानी, घूसखोरो, छीना-झपटी सेवाभावके अभावमें स्वार्थवृत्तिसे उत्पन्न होती हैं। __ सेवा करनेसे व्यक्ति नीच या छोटा नहीं बनता; उसकी आत्मशक्ति प्रबल हो जाती है और वह अपनी असफलताओं, बुराइयों एवं कमजोरियों पर विजय प्राप्त करता है। सेवनीयसे सेवकको भावभूमि उन्नत मानी जाती है। जीवनके प्रत्येक विभागमें सेवाभावको आवश्यकता है। सेवा या सहयोगसे जीवनमें सामर्थ्य, क्षमता और प्रगतिका सद्भाव आता है। यह सबसे मल्यवान् वस्तू है। इसके द्वारा व्यक्ति जागरूक, कर्मरत एवं अहिंसक बनता है। परिवारके मध्य सम्पन्न होनेवाले अगणित कार्य इसीके द्वारा सम्पन्न होते हैं। पत्तव्यनिष्ठा
परिवार और समाजका विकास कर्तव्यनिष्ठा द्वारा होता है । जीवनका एक क्षण या एक पल भी कर्त्तव्यरहित नहीं होना चाहिए। जागरण और शयनमें भी कत्र्तव्यनिष्ठाका भाव समाहित रहता है। यहां अप्रमाद या सावपानी हो कर्तव्यनिष्ठा है । मानव जबसे जोवनयात्रा आरम्भ करता है, तभीसे उसमें कर्तव्यभावना समाहित हो जाती है ।
कर्तव्य प्राप्तकार्यों को श्रद्धा और सतर्कतापूर्वक करनेको क्रिया है । यह ऐसी शक्ति है, जो प्रत्येक कार्य में हमारे साथ है, इसे सहव्यापिनी कहा जा सकता है । करणीय कार्यको ईमानदारो, भक्ति, निष्ठा, औचित्य और नियमित रूपमें पूर्ण करना कर्तव्यनिष्ठा है। जिनका जीवनक्रम व्यवस्थित होता है, वे ही अपने कर्तव्यको निष्ठाके साथ सम्पादित करते हैं । कर्तव्यनिष्ठा मानवका अनिवार्य गुण है।
वस्तुतः मानवता और कर्तव्यपरायणता एक दूसरेके पूरक हैं। मानवमें बुद्धितत्त्वकी प्रधानता है और वह उसका प्रयोग करके यह समझानेकी शक्ति रखता है कि उसे कर्तव्य करना है, यह भाव अन्य प्राणियोंमें नहीं पाया जाता। अत; जीवन में सफलता प्राप्त करनेका साधन कर्तव्यनिष्ठा है । यह एक ऐसा गुण है जिसको सम्पूर्ति हो वास्तविक आनन्द और सफलता है । कर्तव्यनिष्ठा के बाधकतत्त्व निम्नलिखित हैं
१. कार्य के प्रति रुचिका अभाव । २. स्वार्थवृत्ति-स्वार्थवश मनुष्य कर्तव्यका निर्वाह नहीं कर पाता।
३. प्रमाद या शिथिलता। ५५८ : तीर्षकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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४. जीवनके प्रति निराशा। ५. श्रमके प्रति अनास्था ।
व्यवस्था और अनुशासनके योगका नाम कर्तव्यनिष्ठा है। व्यवस्थाकी सहायतासे कार्य में क्षमता प्राप्त होती है और किसी प्रकारका वितण्डावाद उत्पन्न नहीं होता । जिनके जीवनमें अनुशासनहीनता और अराजकता है, वे लापरवाह और अपने विचारों में अव्यवस्थित होते हैं ।
कर्तव्यनिष्ठाको जागृत करनेवाले चार तत्त्व हैं-- १. जलारना-जागनगा और पनगापियता ।
२. शुद्धता उच्चस्तरीय नैतिक नियमोंके प्रति आस्था--अहिंसाके आधार पर मूल्योंकी परख ।
३. उपयोगिता-छोटे-बड़े सभी कार्यों को समान महत्त्व देकर उनकी उपयोगिताकी अवधारणा ।
४. विशदता--संगठन और प्रशासनको योग्यता: दूसरे शब्दोंमें विचारों और कार्यव्यापारमें व्यवस्थाको ओर सावधानी । विश्लेषण और संश्लेषणका एकीभूत सामर्थ्य ।
वस्तुत: मूल्यों या अर्हाओंका निर्वाचन ही मनुष्यका कर्तव्य है । अतएव शानात्मक, क्रियात्मक और भावात्मक विविध व्यवहारकी अभिव्यक्ति कर्तव्यसीमा है । कर्तव्य विधि-निषेधात्मक उभय प्रकारके होते हैं । शुभ प्रवृत्तियोंका सम्पादन विध्यात्मक और अशुभ प्रवृत्तियोंका त्याग निषेधात्मक कर्तव्य हैं।
कत्तंव्यके स्वरूपका निर्धारण अहिंसात्मक व्यवहार द्वारा संभव है। मातापिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन और पति-पत्नी आदिके पारस्परिक कर्तव्योंका अवधारण भावनात्मक विकासको प्रक्रिया द्वारा होता है और यह अहिंसाका ही सामाजिक रूप है 1 मानव-हृदयको आन्तरिक संबेदनाको व्यापक प्रगति ही तो हिसा है और यही परिवार, समाज और राष्ट्रके उद्धव एवं विकासका मल है। यह सत्य है कि उक्त प्रक्रियामें रागात्मक भावनाका भी एक बहुत बड़ा अंश है, पर यह अंश सामाजिक गतिविधिमें बाघक नहीं होता। ____ अहिंसा मानबको हिंसासे मुक्त करती है। वैर, वैमनस्य-द्वेष, कलह, घृणा, ईया, दुःसंकल्प, दुर्वचन, क्रोध, अहंकार, दंभ, लोभ, शोषण, दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाजकी ध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ हैं, विकृतियाँ हैं, वे सब हिंसाके रूप हैं। मानव-मन हिंसाके विविध प्रहारोसे निरन्तर घायल होता रहता है। अतः क्रोधको कोषसे नहीं, क्षमासे; अहंकारको अहंकारसे नहीं, विनय-नम्रतासे, दम्भको दम्भसे, नहीं, सरलता और निश्छलतासे; लोभको
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लोभसे नहीं, सन्तोष और उदा खाले जीतना चाहिए। र, कृपा, दमन, उत्पीड़न, अहंकार आदि सभीका प्रभाव कर्त्तापर पड़ता है। जिस प्रकार कुऍमें की गयी ध्वनि प्रतिध्वनिके रूपमें वापस लौटती है, उसी प्रकार हिंसात्मक क्रियाओंका प्रतिक्रियात्मक प्रभाव कर्त्तापर ही पड़ता है ।
अहिंसाद्वारा हृदयपरिवर्तन सम्भव होता है। यह मारनेका सिद्धान्त नहीं, सुधारनेका है | यह संसारका नहीं, उद्धार एवं निर्माणका सिद्धान्त है । यह ऐसे प्रयत्नोंका पक्षधर है, जिनके द्वारा मानवके अन्तस्में मनोवैज्ञानिक परिवर्तन किया जा सकता है और अपराधकी भावनाओं को मिटाया जा सकता है । अपराध एक मानसिक बीमारी है, इसका उपचार प्रेम, स्नेह, सद्भावके माध्यमसे किया जा सकता है ।
घृणा या द्वेष पापसे होना चाहिए, पापोसे नहीं । बुरे व्यक्ति और बुराईके बोच अन्तर स्थापित करना ही कर्तव्य है । बुराई सदा बुराई है, वह कभी मलाई नहीं हो सकती; परन्तु बुरा आदमी यथाप्रसंग भला हो सकता है । मूलमें कोई आत्मा बुरी है ही नहीं । असत्यके बीच में सत्य, अन्धकारके बोचमें प्रकाश और विषके भीतर अमृत छिपा रहता है। अच्छे बुरे सभी व्यक्तियोंमें आत्मज्योति जल रही है। अपराधी व्यक्तिमें भी वह ज्योति है किन्तु उसके गुणोंका तिरोभाव है । व्यक्तिका प्रयास ऐसा होना चाहिए, जिससे तिरोहित गुण आविर्भूत हो जायें ।
इस सन्दर्भ में कर्त्तव्यपालनका अर्थ मन, वचन और कायसे किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, न किसी हिंसाका समर्थन करना और न किसी दूसरे व्यक्तिके द्वारा किसी प्रकारकी हिंसा करवाना है । यदि मानवमात्र इस कत्तंव्यको निभानेकी चेष्टा करे, तो अनेक दुःखोंका अन्त हो सकता है और मानवमात्र सुख एवं शान्तिका जीवन व्यतोत कर सकता है। जबतक परिवार या समाजमें स्वार्थीका संघर्ष होता रहेगा, तबतक जीवनके प्रति सम्मानको भावना उदित नहीं हो सकेगी। यह अहिंसात्मक कर्तव्य देखने में सरल और स्पष्ट प्रतीत होता है, किन्तु व्यक्ति यदि इस कर्त्तव्यका आत्मनिष्ठ होकर पालन करे, तो उसमें नैतिकता के सभी गुण स्वतः उपस्थित हो जायेंगे ।
मूलरूपमें कर्त्तव्योंको निम्नलिखित रूपमें विभक्त किया जा सकता है
१. स्वतन्त्रताका सम्मान |
२. चरित्रके प्रति सम्मान ।
३. सम्पत्तिका सम्मान ।
४. परिवार के प्रति सम्मान |
५. समाजके प्रति सम्मान |
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६. सत्यके प्रति सम्मान | ७. प्रगतिके प्रति सम्मान |
स्वतन्त्रताका सम्मान
मनुष्यका दूसरे व्यक्तियोंकी स्वतन्त्रता के अधिकारको स्वीकार करनेका कर्त्तव्य उतना ही मान्य है, जितना कि जीवन-सम्बन्धी कर्तव्य आदरणीय है । यह कर्तव्य भी मनुष्यको ऐसा व्यवहार करनेके लिए निषेध करता है, जिसके द्वारा अन्य किसी व्यक्तिको स्वतन्त्रतामें बाधा पहुँचती हो । हमारा कोई अधिकार नहीं कि हम अपने व्यवहारके द्वारा किसी अन्य व्यक्तिके जीवनके विकास में बाधाएँ उत्पन्न करें। किसी भी व्यक्तिको स्वतन्त्रताको अवरुद्ध करनेका अर्थ उसके जीवन के विकास में वाधक होना है। अतः यह कर्त्तव्य जीवनसम्बन्धी कत्तंव्यसे घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है । यदि मनुष्य अन्य व्यक्तियोंको भी अपने समान समझे, तो इस कर्त्तव्यकी कदापि अवहेलना न होगी। जो व्यक्ति सभी जीवों को अपने ही समान देखता है, वही इस कर्त्तव्यका निर्वाह कर पाता है ।
वास्तव में स्वतन्त्रता सम्मानका एक ऐसा आधारभूत कर्तव्य है, जिसके विना किसी भी प्रकारकी वैयक्तिक अथवा सामाजिक प्रगति सम्भव नहीं हो सकती । सामाजिक और पारिवारिक विषमताका अन्त इसी कर्त्तव्यपालन द्वारा संभव है ।
चरित्रके प्रति सम्मान
प्रत्येक परिवार के सदस्यको अन्य सदस्य के चरित्रका सम्मान करना चरित्रके प्रति सम्मान है । जीवनसम्बन्धी कर्तव्य हिंसाका निषेधक है, तो स्वतन्त्रता सम्बन्धी कर्त्तव्य अन्य व्यक्तिोंकी स्वतन्त्रताका दमन न करनेका संकेत करता है । यह कर्त्तव्य अन्य व्यक्तियोंको क्षति पहुंचानेका निषेध तो करता ही है, साथ ही इस बात की विधि भी करता है कि हमें दूसरोंके व्यक्तित्व के विकासको प्रोत्साहित करना है । यह विधेयात्मक कर्तव्य अन्य व्यक्तियोंके चारित्रिक विकासके लिए अनुप्रणित करता है। जो व्यक्ति परिवार और समाज के समस्त सदस्योंको चारित्र - विकासका अवसर देता है, वह परिवारकी उन्नति करता है और सभी प्रकारसे जीवनको सुखी-समृद्ध बनाता है ।
सम्पत्तिका सम्मान
सम्पत्ति सम्मानका अर्थ व्यक्तियोंके सम्पत्तिसम्बन्धी अधिकारको स्वीकृत करना । यह कर्तव्य भी एक निषेधात्मक कर्तव्य है; क्योंकि यह अन्य व्यक्तियों
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के सम्पत्तिसम्बन्धी अपहणका निषेध करता है। यह 'अस्तेय' के नामसे अभिहित किया जा सकता है । आध्यात्मिक व्यक्तित्व के विकासके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति शुद्ध अहिंसात्मक जोवन व्यतीत करे। इस कर्त्तव्यका आधार सत्य और अहिंसा हैं | यदि अहिंसाका अर्थ किसी भी व्यक्तिको मन, वचन और कर्मसे मानसिक और शारीरिक क्षति पहुंचाना है, तो यह स्पष्ट है कि दूसरेकी सम्पत्तिका अपहरण न करना अहिंसाका अंग है। किसीकी सम्पत्तिका अपहरण करनेका अर्थ निस्सन्देह उस व्यक्तिको मानसिक और शारीरिक क्षति पहुंचाना है और उसके व्यक्तित्व विकासको अवरुद्ध करना है । यह कर्त्तव्य हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम भोगोपभोगकी वस्तुओंका अमर्यादित रूपसे सेवन न करें | अपव्ययको भी यह कर्तव्य रोकता है। परिवारके लिए मितव्ययता अत्यावश्यक है । मितव्ययता समस्त वस्तुओंको मध्यम मार्गके रूपमें ग्रहण करनेमें है । सम्पत्तिका अपव्यय या अनुचित अवरोध ये दोनों ही कर्तव्यके बाहर हैं, जब भौतिक वस्तुओं या मानसिक शक्तिका अपव्यय किया जाता है, तो कुछ दिनोंमें व्यक्ति शक्तिहीन हो जाता है, जिससे व्यक्ति, परिवार और समाज ये तीनों विनाशको प्राप्त होते हैं । जो सम्पत्तिसम्मान का आचरण करता है, वह निम्नलिखित वस्तुओं में मध्यम मार्ग या मितव्ययताका प्रयोग करता है
1
१. सम्पत्ति !
२. आहार-विहार ।
३. वस्त्र और उपस्कर ।
४. मनोरञ्जनके साधन |
५. विलास और आरामकी वस्तुएँ ।
६. समय ।
७. शक्ति ।
अर्थका प्रतीक सिक्का परिवर्तनका मानदण्ड है और उससे हमारी क्रय शक्तिका बोध होता है। जो व्यक्ति सम्पत्ति प्राप्त करना चाहता है और ऋणसे बचना चाहता है, वह व्ययको आयके अनुरूप बनाकर अभिवृद्धि प्राप्त कर सकता है । विलास और आरामकी वस्तुओं के क्रय करनेमें अपव्यय होता है ।
इस अपव्ययका रोकना परिवारके हितके लिए अत्यावश्यक है। अपव्यय ऐसा मानसिक रोग है जिसके कारण अनुचित लाभ और स्तेयसम्बन्धी क्रियाप्रतिक्रियाएं सम्पादित करनी पड़ती है । वह अनुचित रीतिसे किसीकी
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सम्पत्ति, क्षेत्र, भवन आदिपर अपना अधिकार करता है। चोरीके अन्तरंग कारणोंपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि जब द्रव्यकी लोलुपसा बढ़ जाती है, तो तृष्णा वृद्धिगत होती है, जिससे व्यक्ति येन केन प्रकारेण धनसंचय करने की ओर झुकता है। यहाँ विवेक और ईमानदारीके न रहनेसे व्यक्ति अपनी प्रामाणिकसा खो बैठता है, जिससे उसे अनैतिकरूपमें धनार्जन करता पड़ता है ।
अपव्यय चोरो करना भी सिखलाता है । एक बार हायके खुल जाने पर फिर अपनेको संयमित रखना कठिन हो जाता है । अपव्ययोके पास धन स्थिर नहीं रहता और वह निर्धन होकर चौर्यकर्मकी ओर प्रवृत्त होता है। कुछ व्यक्ति मान-प्रतिष्ठाके हेतु धनव्यय करते हैं और अपनेको बड़ा दिखलानेके प्रयासमें व्यर्थ खर्च करते हैं, परिणामस्वरूप उन्हें अनीति और शोषणको अपनाना पड़ता है। अतएव सम्पत्तिके सम्मान-कर्तव्यका आचरण करते हए चिन्ता, उद्विग्नता. निराशा, क्रोध, लोभ, माया आदिसे बचनेका भी प्रयास करना चाहिए । परिवारके प्रति सम्मान
परिवारके प्रति सम्मानका अर्थ है पारिवारिक समस्याओंके सुलझानेके लिए विवाह आदि कार्योका सम्पन्न करना । संन्यास या निवृत्तिमार्ग वैयक्तिक जीवनोत्थानके लिए आवश्यक है, पर संसारके बीच निवास करते हुए पारिवारिक दायित्वोंका निर्वाह करना और समाज एवं संघकी उन्नतिके हेतु प्रयत्नशील रहना भी आवश्यक है । वास्तवमें श्रावक-जीवनका लक्ष्य दान देना, देवपूजा करना और मुनिधर्मके संरक्षणमें सहयोग देना है। साधु-मुनियोंको दान देने की क्रिया श्रावक-जीवनके बिना सम्पन्न नहीं हो सकती । नारीके बिना पुरुष और पुरुषके बिना अकेली नारी दानादि क्रिया सम्पादित करनेमें असमर्थ है। अतः चतुर्विध संघके संरक्षण एवं कुलपरम्पराके निर्वाहकी दृष्टिसे पारिवारिक कर्तव्योंका निर्वाह अत्यावश्यक है । सातावेदनीय और चारित्रमोहनीयके उदयसे विवहन-कन्यावरण विवाह कहलाता है। यह जीवनमें धर्म, अर्थ, काम आदि पुरुषार्थोंका नियमन करता है। अतएव पारिवारिक कर्तव्यों तथा संस्कारोंके प्रति जागरूकता अपेक्षित है।
संस्कारशब्द धार्मिक क्रियाओंके लिए प्रयुक्त है। इसका अभिप्राय बाह्म धार्मिक क्रियाओं, व्यर्थ आडम्बर, कोरा कर्मकाण्ड, राज्य द्वारा निर्दिष्ट नियम एवं औपरिक व्यवहारोंसे नहीं है, बल्कि आत्मिक और आन्तरिक सौन्दर्यसे
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है | संस्कारशब्द व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कारके लिए किये जानेवाले अनुष्ठानोंसे सम्बद्ध है। संस्कार तीन वर्गों में विभक्त है—
१. गर्भान्वय क्रियाएँ ।
२. दीक्षान्वय क्रियाएँ | ३. क्रियान्वय क्रियाएँ ।
इन क्रियाओं द्वारा पारिवारिक कर्त्तव्योंका सम्पादन किया जाता हैं ।
समाजके प्रति सम्मान
सामाजिक व्यवस्थाको सुचारुरूपसे संचालित करनेके लिए समाज और व्यक्ति दोनोंके अस्तित्वकी आवश्यकता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके सभी अधिकार उसे समाजका सदस्य होनेके कारण ही प्राप्त हैं । अतः वह समाज, जो कि उसके अधिकारोंका जनक और रक्षक है, व्यक्ति से आशा रखता है कि वह सामाजिक संस्थाके संरक्षण को अपना प्रधान कत्तंव्य समझें | समाजके प्रति आदर एवं सम्मानको भावना वह भावना है जो व्यक्तिको परम्परागत प्रथाओंको भङ्ग करनेसे रोकती है। चाहे वे परम्पराएँ समाजकी इकाई कुटुम्बसे सम्बन्ध रखती हों, चाहें वे सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखती हों अथवा राज्य या राष्ट्रसे। समाज में प्रचलित अन्धविश्वासों और रूढ़िवादी परम्पराओंका निर्वाह कर्त्तव्यके अन्तर्गत नहीं है । कर्त्तव्य वह विवेकबुद्धि है जो समाजकी बुराइयों को दूर कर उसके विकासके प्रति श्रद्धा या निष्ठा उत्पन्न करे । इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्तिका समाजके प्रति बहुत बड़ा दायित्व है । उसे समाजको सुगठित, नैतिक और आचारनिष्ठ बनाना है । सत्यके प्रति सम्मान
सत्य के प्रति सम्मान या सत्यनिष्ठा व्यक्ति और समाजके विकासके लिए आवश्यक है । सत्य और अहिंसाको साथ-साथ लिया जाता है और इनके आचरण से सामाजिक कल्याण माना जाता है। सत्यके प्रति सम्मान या कर्त्तव्य की भावना क्रियाशीलताके लिए प्रेरित करती है और सत्यपरायण जीवन व्यतीत करनेका आदेश देती है । इस आदेशका अर्थ यह है कि हमें अपने वचनोंके अनुसार ही व्यवहार करना है । जो व्यक्ति अपने जीवनको सत्यके आधार पर चलाता है, उसे व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना अवश्य करना पड़ता है, पर सत्यपरायण व्यक्तिको जीवनमें सफलता प्राप्त होती है । यदि व्यक्ति अपना कर्तव्य कर्तव्य भावसे सम्पादित करता है, तो उसका यह
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कर्तव्य-सम्पादन विधायक तत्व माना जाता है । सत्यके आधार पर सम्पादित आचार-व्यवहार व्यक्ति और समाज दोनोंके लिए हितकर होते हैं।
मनुष्य जब लोभ-लालघमें फंस जाता है, वासनाके विषसे मूच्छित हो जाता है और अपने जीवनके महत्त्वको भूल जाता है, उस जीवनकी पवित्रताका स्मरण नहीं रहता, तब उसका विवेक समाप्त हो जाता है और वह यह सोच नहीं पाता कि उसका जन्म संसारसे कुछ लेने के लिए नहीं हुआ है बल्कि कुछ देनेके लिए हुआ है। जो कुछ प्राप्त हुआ है, वह अधिकार है और जो समाजके प्रति अर्पित किया जाता है वह कर्तव्य है। मनुष्यकी इस प्रकारकी मनोवृत्ति ही उसके मनको विशाल एवं विराट् बनाती है। जिसके मन में ऐसी उदारभावना रहती है वही अपने कर्त्तव्य-सम्पादन द्वारा परिवार और समाजको सूखी, समद्ध बनाता है | अहंकार, क्रोध, लोभ और मायाका विष सत्याचरण द्वारा दूर होता है । जिसका जीवन सत्याचरणमें घुलमिल गया है, वहीं निश्छल और सच्चे व्यवहारद्वारा क्षुद्रताओंको दूर करता है।
सहजभावसे अपने कर्तव्यको निभानेवाला व्यक्ति केवल अपने आपको देखता है। उसकी दृष्टि इसरो की ओर नहीं जाती। वह अपनी निन्दा और स्तुतिकी परवाह नहीं करता, पर भद्रता, सरलता और एकरूपताको छोड़ता भी नहीं । वास्तवमें यदि मनुष्य अपने व्यवहारको उदार और परिष्कृत बना ले, तो उसे संघर्ष और तनावोंसे टकराना न पड़े। जीवन में संघर्ष, तनाव और कुण्ठाएं असत्याचरणके कारण ही उत्पन्न होती हैं। . प्रगतिके प्रति सम्मान
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार प्रत्येक वस्तुमें निरन्तर परिवर्तन होता है। परिवर्तन प्रगतिरूप भी सम्भव है और अप्रगतिरूप भी। जिस व्यक्तिके विचारोंमें उदारता और व्यवहारमें सत्यनिष्ठा समाहित है, वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कर्त्तव्योका हृदयसे पालन करता है। संकटके समय व्यक्तिको किस प्रकारका आचरण करना चाहिए और परिस्थिति एवं वातावरण द्वारा प्रादुर्भत प्रगतियोंको किस रूप ग्रहण करना चाहिए. यह भी कर्त्तव्यमार्गके अन्तर्गत है ।
एकाकी मनुष्यको धारणा निसन्देह कल्पनामात्र है । अतः कर्तव्योंका महत्त्व नैतिक और सामाजिक दृष्टिसे कदापि कम नहीं है। कर्तव्योंका संबंध अधिकारोंके समान सामाजिक विकाससे भी है। कर्तव्योंको विशेषता जीवनके दो मुख्य अगोंसे सम्बद्ध है
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१. जीवनका आर्थिक अंग। २. जीवनका सामाजिक अंग।
आर्थिक दृष्टिसे मनुष्यके सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार और कर्त्तव्यविशेष महत्वपूर्ण हैं और सामाजिक दृष्टिसे मनुष्यके परिवार तथा समाज-सम्बन्धी अधिकार और करीब्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अधिकारों तथा कर्तव्योंका आर्थिक दृष्टिसे संतुलित रूपमें प्रयोग अपेक्षित है। पुरुषार्थो के क्रममें अर्थपुरुषार्थको इसीलिए द्वितीय स्थान प्राप्त है कि इसके बिना धर्माचरण एवं कामपुरुषार्थका सेवन सम्भव नहीं है। आज आर्थिक प्रगतिके अनेक साधन विकसित हैं पर कर्त्तव्यपरायण व्यक्तिको अपनी नैतिकता बनाये रखना आवश्यक है । जीवनकी आवश्यकताओंके वृद्धिंगत होने और आर्थिक समस्याओंके जटिल होने पर भी उत्पादन, वितरण और उपयोग सम्बन्धी नैतिक नियम जीवनको मर्यादित रखते हैं। सुरक्षा और आत्मानुभूति ये दोनों हो नैतिक जीवनके लिए अपेक्षित हैं। श्रम-सिद्धान्त भी प्रगसिके नियोको अनुशासित करता है। अतः सम्पत्तिके प्रति दो मुख्य कर्तव्य हैं-१. सम्पत्ति प्राप्त करनेके लिए कर्म करना और २. उपलब्ध सम्पत्तिका सदुपयोग करना। जो व्यक्ति किसी भी प्रकारका कर्म नहीं करता, उसका कोई अधिकार नहीं कि वह निष्क्रिय होते हुए भो सामाजिक सम्पत्तिका भोग करे । इस कर्त्तव्यके आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यके लिए श्रम करना अत्यावश्यक है। श्रम करनेसे ही श्रमणत्वकी प्राप्ति होती है और इसो श्रम द्वारा आश्रमधर्मका निर्वाह होता है। जो व्यक्ति अन्य के श्रम पर जीवित रहता है और स्वयं श्रम नहीं करता ऐसे व्यनिसको समाजसे कुछ लेने का अधिकार नहीं। जो कर्तव्यपरायण है वही समाजसे. अपना उचित अंश प्राप्त करनेका अधिकारी है।
विवेक, साहस, संयम और न्याय ये ऐसे गुण हैं जो सामाजिक कल्याणको ओर व्यक्तिको प्रेरित करते हैं । इन गुणोंके अपनानेसे परिवार और समाजकी विषमता दूर होकर प्रगति होती है तथा समानताका तत्त्व प्रादुर्भस होता है । समाजके गतिशील होने पर साहस, संयम और विवेकका आचरण करते हए कर्तव्यकर्मों का निर्वाह अपेक्षित होता है। ज्योज्यो समाजिक विकास होता है, अधिकारों और कर्तव्योंका स्वरूप स्वतः ही परिवर्तित होता चला जाता है। इसी कारण प्रत्येक समाजमें व्यवस्था, विधान और अनुशासनकी आवश्यकता रहती है। यदि अधिकार और कर्त्तव्योंमें संतुलन स्थापित हो जाय, तो समाजमें अनुशासन उत्पन्न होते विलम्ब न हो। ५६६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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सहिष्णुता
पारिवारिक दायित्वों के निर्वाहके लिए सहिष्णुता अत्यावश्यक है। परिवारमें रहकर व्यक्ति सहिष्णु न बने और छोटी-सी छोटी बातके लिए उत्तावला हो जाय, तो परिवार में सुख-शान्ति नहीं रह सकती । सहिष्णु व्यक्ति शान्तभावसे परिवार के अन्य सदस्योंकी बातों और व्यवहारोंको सहन कर लेता है, जिसके फलस्वरूप परिवार में शान्ति और सुख सर्वदा प्रतिष्ठित रहता है । अभ्युदय और निःश्रेयसकी प्राप्ति सहनशीलता द्वारा ही सम्भव है । जो परिवारमें सभी प्रकारकी समृद्धिका इच्छुक है तथा इस समृद्धिके द्वारा लोकव्यवहारको सफलरूप में संचालित करना चाहता है ऐसा व्यक्ति समाज और परिवारका हित नहीं कर सकता है | विकारी मन शरीर और इन्द्रियोंपर अधिकार प्राप्त करनेके स्थान पर उनके वश होकर काम करता है, जिससे सहिष्णुता की शक्ति घटती है। जिसने आत्मालोचन आरम्भ कर दिया है और जो स्वयं अपनी बुराईयोंका अवलोकन करता है वह समाजमें शान्तिस्थापनका प्रयास करता है । सहिष्णुताका अर्थ कृत्रिम भावुकता नहीं और न अन्याय और अत्याचारोंको प्रश्रय देना हो है; किन्तु अपनो आस्मिक शक्तिका इतना विकास करना है, जिससे व्यक्ति, समाज और परिवार निष्पक्ष जीवन व्यतीत कर पूर्वाग्रहके कारण असहिष्णुता उत्पन्न होती है, जिससे सत्यका निर्णय नहीं होता । जो शान्तचित्त है, जिसकी वासनाएँ संयमित हो गई है और जिसमें निष्पक्षता जागृत हो गई है वही व्यक्ति सहिष्णु या सहनशील हो सकता है । सहनशील या सहिष्णु होने के लिए निम्नलिखित गुण अपेक्षित हैं
१. दृढता ।
२. आत्मनिर्भता ।
३. निष्पक्षता ।
४.
विवेकशीलता |
५. कर्त्तव्यकर्म के प्रति निष्ठा ।
अनुशासन
मानवता के भव्य भवनका निर्माण अनुशासनद्वारा ही सम्पन्न किया जा सकता है । वास्तव में जहां अनुशासन है, वहीं अहिंसा है । और जहाँ अनुशासनहोता है वहीं हिंसा है। पारिवारिक और सामाजिक जीवनका विनाश हिंसा द्वारा होता है । यदि धर्म मनुष्यके हृदयकी क्रूरताको दूर कर दे और अहिंसा द्वारा उसका अन्तःकरण निर्मल हो जाय तो जीवन में सहिष्णुताको साधना सरल हो जाती है | वास्तव में अनुशासित जीवन ही समाजके लिए उपयोगी
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है । जिस समाज में अनुशासनका प्रभाव रहता है वह समाज कभी भी विकसित नहीं हो पाता । अनुशासित परिवार ही समाजको गतिशील बनाता है, प्रोत्साहित करता है और आदर्श की प्रतिष्ठा करता है। संघर्षोंका मूलकारण उच्छूखलता या उदण्डता है । जबतक जीवनमें उदण्डता आदि दुर्गुण समाविष्ट रहेंगे, सक्तक सुगठित समाजका निर्माण सम्भव नहीं है । समाज और परिवारको प्रमुख समस्याओं का समाधान भी अनुशासन द्वारा ही सम्भव है। शासन और शासित सभीका व्यवहार उन्मुक्त या उच्छ्रङ्खलित हो रहा है। अतः अतिचारी और अनियन्त्रित प्रवृत्तियों को अनुशासित करना आवश्यक है ।
अनुशासनका सामान्य अर्थ है कतिपय नियमों, सिद्धान्तों आदि का परिपालन करना और किसी भी स्थितिमें उसका उलंघन न करना । संक्षेपमें वह विधान, जो व्यक्ति, परिवार और समाजके द्वारा पूर्णतः आचरित होता है, अनुशासन कहा जाता है। जीवनके प्रत्येक क्षेत्र में सुव्यवस्थाकी अनिवार्य आवश्यकताको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। इसके बिना मानव समाज चिलकुल विघटित हो जाएगा और जो भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी । जो व्यक्ति स्वेच्छा से अनुशासनका निर्वाह करता है, वह परिवार और समाजके लिए एक आदर्श उपस्थित करता है। जोवनके विशाल भवनको नीव अनुशासनपर हो अवलम्बित है |
पारस्परिक द्वेषभाव, गुटबन्दी, वर्गभेद, जातिभेद आदि अनुशासनहीनताको बढ़ावा देते हैं और सामाजिक संगठनको शिथिल बनाते हैं । अतएव सहज और स्वाभाविक कर्त्तव्य के अन्तर्गगत असुशासनको प्रमुख स्थान प्राप्त है । अनुशासन जायनको कलापूर्ण, शान्त और गतिशील बनाता है । इसके द्वारा परिवार और समाजकी अव्यवस्थाएं दूर होती हैं।
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पारिवारिक चेतनाका सम्यक विकास, अहिंसा, करुणा, समर्पण, सेवा, प्रेम, सहिष्णुता आदिके द्वारा होता है । मनुष्य जन्म लेते हो पारिवारिक एव सामाजिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व से बंध जाता है। प्राणीमात्र एक दूसरेसे उपकृत होता है । उसका आधार और आश्रय प्राप्त करता है । जब हम किसीका उपकार स्वीकार करते हैं, तो उसे चुकानेका दायित्व भी हमारे ही ऊपर रहता है | यह आदान-प्रदानको सहजवृत्ति हो मनुष्यको पारिवारिकता और सामाजिकताका मूलकेन्द्र है। उसके समस्त कर्त्तव्यों एव धर्माचरणोंका आधार है । राग और मोह आत्मा के लिए व्याज्य हैं, पर परिवार और समाज संचालनके लिए इनकी उपयोगिता है । जीवन सर्वथा पलायनवादी नहीं है। जो कर्मठ बनकर श्रावकाचारका अनुष्ठान करना चाहता है उसे अहिंसा, सत्य, करुणा
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सेवा समपंण आदिके द्वारा परिवार और समाजको दढ़ करना चाहिए। यह दृढीकरणको क्रिया दी गपित्रों या नही है। समाजगठनको आधारभूत भावनाएं
समाज-गठन के लिए कुछ मौलिक सूत्र हैं, जिन सूत्रोंके आधारपर समाज एकरूपमें बंधता है । कुछ ऐसे सामान्य नियम या सिद्धान्त हैं, जो सामाजिकताका सहजमें विकास करते हैं। संवेदनशील मानव समाजके बीच रहकर इन नियमोंके आधारपर अपने जीवनको सुन्दर, सरल, नम्र और उत्तरदायी बनाता है । मानव-जीवनका सर्वांगीण विकास अपेक्षित है । एकांगरूपसे किया गया विकास जीवनको सुन्दर, शिव और सत्य नहीं बनाता है। कर्मके साथ मनका सुन्दर होना और मनके साथ वाणीका मधुर होना विकासको सीढ़ी है। जीवनमें धर्म और सत्य ऐसे तत्व है, जो उसे शाश्वतरूप प्रदान करते हैं। समाज-संगठनके लिए निम्नलिखित चार भावनाएं आवश्यक है:
१. मैत्री भावना। २. प्रमोद भावना । ३. कारुण्य भावना। ४. माध्यस्थ्य भावना।
मैत्री भावना मनको वृत्तियोंको अत्यधिक उदात्त बनाती है। यह प्रत्येक प्राणीके साथ मित्रताकी कल्पना ही नहीं, अपितु सच्ची अनुभूतिके साथ एकात्मभाव या तादात्मभाव समाजके साथ उत्पन्न करती है। मनुष्यका हृदय अब मैत्रीभावनासे सुसंस्कृत हो जाता है, तो अहिंसा और सत्यके वीरुध स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं । और आत्माका विस्तार होने से समाज स्वर्गका नन्दन-कानन बन जाता है। जिस प्रकार मित्रके घरमें हम और मित्र हमारे घरमें निर्भय और निःकोच स्नेह एवं सद्भावपूर्ण व्यवहार कर सकता है उसी प्रकार यह समस्त विश्व भी हमें मित्रके घरके रूपमें दिखलाई पड़ता है। कहीं भय, संकोच एवं आतंककी वृत्ति नहीं रहतो । कितनी सुखद और उदात्त भावना है यह मैत्रीकी । व्यक्ति, परिवार और समाज तथा राष्ट्र को सुगठित करनेका एकमात्र साधन यह मंत्री-भावना है।
इस भावनाके विकसित होते हो पारस्परिक सौहार्द, विश्वास, प्रेम, श्रद्धा एवं निष्ठाको उत्पत्ति हो जाती है। चोरी, धोखाधड़ी लट-खसोट, आदि सभी विभीषिकाएं समाप्त हो जाती हैं। विश्वके सभी प्राणियोंके प्रति मित्रताका भाव जागृत हो जाय तो परिवार और समाजगठनमें किसी भी प्रकारका दुराव
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छिपाव नहीं रह सकता है । वस्तुतः मैत्री-भावना समाजको परिधिको विकसित करती है, जिससे आत्मामें समभाव उत्पन्न होता है । प्रमोव-भावना
गणीजनोंको देखकर अन्तःकरणका उल्लसित होना प्रमोद-भावना है। किसीको अच्छी बातको देखकर उसकी विशेषता और गुणोंका अनुभव कर हमारे मनमें एक अज्ञात ललक और हर्षानुभूति उत्पन्न होती है। यही आनन्दकी लहर परिवार और समाजको एकताके सूत्रमें आबद्ध करती है। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य अपनेसे आगे बढ़े हुए व्यक्ति को देखकर ईर्ष्या करता है और इस ईयासे प्रेरित होकर उसे गिरानेका भी प्रयत्न करता है। जब तक इस प्रवृत्तिका नाश न हो जाय, तबतक अहिंसा और सत्य टिक नहीं पाते । प्रमोदभावना परिवार और समाजमें एकता उत्पन्न करती है। ईर्ष्या और विद्वेष पर इसी भावनाके द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है। ईर्ष्याकी अग्नि इतना विकराल रूप धारण कर लेती है कि मनुष्य अपने भाई और पुत्रके भी उत्कर्षको फूटी आँखों नहीं देख पाता । यही ईष्यांकी परिणति एवं प्रवृत्ति ही परिवार गौर समागमें लाई जानकारी है ' साकोर परिवारको छिन्न-भिन्नता ईयां, घृर्णा और द्वेषके कारण हो होती है। प्रतिस(क्श समाज विनाशके कगारकी ओर बढ़ता है । अतः 'प्रमोद-भावना'का अभ्यास कर गुणोंके पारखी बनना और सही मूल्यांकन करना समाजगठनका सिद्धान्त है । जो स्वयं आदरसम्मान प्राप्त करना चाहता है, उसे पहले अन्य व्यक्तियों का आदर-सम्मान करना चाहिए । अपने मुणोंके साथ अन्य व्यक्तियोंके गुणोंकी भी प्रशंसा करनी चाहिए । यह प्रमोदकी भावना मनमें प्रसन्मता, निर्भयता एवं आनन्दका संचार करता है और समाज तथा परिवारको आत्मनिर्भर, स्वस्थ और सुगठित बनाती है। करुणा-भावना
करुणा मनकी कोमल वृत्ति है, दुःखो और पीड़ित प्राणीके प्रति सहज अनुकम्पा और मानवीय संवेदना जाग उठती है। दुःखोके दू:खनिवारणार्थ हाथ बढ़ते हैं और यथाशक्ति उसके दुःखका निराकरण किया जाता है। __ करुणा मनुष्यको सामाजिकताका मूलाधार है । इसके सेवा, अहिंसा, दया, सहयोग, विनम्रता आदि सहस्रों रूप संभव है। परिवार और समाजका आलम्बन यह करुणा-भावना ही है।
मात्राके तारतम्यके कारण करुणाके प्रमुख तीन भेद हैं-१. महाकरुणा, २. अतिकरुणा और, ३. लघुकरुणा। महाकरुणा निःस्वार्थभावसे प्रेरित ५७० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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होती है और इस करुणाका धारी प्राणिमात्रके कट-निवारणके लिए प्रयास करता है। इस श्रेणीकी करुणा किसी नेता या महान् व्यक्तिमें ही रहती है। इस करुणा द्वारा समस्त मानव-समाजको एकताके सूत्रमें आबद्ध किया जाता है और समाजके समस्त सदस्यों को सुखी बनानेका प्रयास किया जाता है।
अतिकरुणा भी जितेन्द्रिय, संयमी और निःस्वार्थ व्यक्ति में पायी जाती है। इस करुणाका उद्देश्य भी प्राणियोंमें पारस्परिक सौहार्द उत्पन्न करना है। दुसरेके प्रति कैसा व्यवहार करना और किस वाताबरणमें करना हितप्रद हो सकता है, इसका विवेक भी महाकरुणा और अतिकरुणा द्वारा होता है। प्रतिशोध, संकीर्णता और दमकता आदिमानमा त कागाके कलान समाजसे निष्कासित होती हैं । वास्तवमें करुणा ऐसा कोमल तन्तु है, जो समाजको एकतामें आबद्ध करता है।
लघुकरुणाका क्षेत्र परिवार या किसी आधारविशेषपर गठित संघ तक ही सीमित है। अपने परिवारके सदस्योंके कष्टनिवारणार्थ चेष्टा करना और करुणावृत्तिसे प्रेरित होकर उनको सहायता प्रदान करना लघुकरुणाका क्षेत्र है।
मनुष्य में अध्यात्म-चेतनाकी प्रमुखता है, अत: वह शाश्वत आत्मा एवं अपरिवर्तनीय यथार्थताका स्वरूप सत्य-अहिंसासे सम्बद्ध है । कलह, विषयभोग, घृणा, स्वार्थ, संचयशीलवृत्ति आदिका त्याग भी करुणा-भावना द्वारा संभव है। अतएव संक्षेपमें करुणा-भावना समाज-गठनका ऐसा सिद्धान्त है जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषोंसे रहित होकर समाजको स्वस्थ रूप प्रदान करता है। माध्यस्म्य-भावना
जिनसे विचारोंका मेल नहीं बैठता अथवा जो सर्वथा संस्कारहीन हैं. किसी भी सद्वस्तुको ग्रहण करनेके योग्य नहीं हैं, वो कुमार्गपर चले जा रहे हैं तथा जिनके सुधारने और सही रास्ते पर लाने के सभी यत्न निष्फल सिद्ध हो गये हैं, उनके प्रति उपेक्षाभाव रखना माध्यस्थ्य-भावना है।
मनुष्यमें असहिष्णुताका भाव पाया जाता है । वह अपने विरोधी और विरोध को सह नहीं पाता। मतभेदके साथ मनोभेद होते विलम्ब नहीं लगता। अतः इस भावना द्वारा मनोभेदको उत्पन्न न होने देना समाज-गठनके लिए आवश्यक है। इन चारों भावनाओंका अभ्यास करनेसे आध्यात्मिक गुणोंका विकास तो होता ही है, साथ ही परिवार और समाज भी सुगठित होते हैं। माध्यस्थ्य-भावनाका लक्ष्य है कि असफलताको स्थितिमें मनुष्यके उत्साहको
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भंग न होने देना तथा बड़ो-से-बड़ो विपत्तिके आनेपर भी समाजको सुदृढ़ बनाये रखनेका प्रयास करना ।
जिजीविषा जीवका स्वभाव है और प्रत्येक प्राणी इस स्वभावको साधना कर रहा है। अतएव माध्यस्थ्य-भावनाका अवलम्बन लेकर विपरीत आचरण करनेवालोंके प्रति भी द्वष, घृणा या ई िन कर तटस्थवृत्ति रखना आवश्यक है। __ संक्षेपमें समाज-गठनका मूलाधार अहिंसात्मक उक्त चार भावनाएं हैं। समाजके समस्त नियम और विधान अहिंसाके आलोक में मनुष्यहितके लिए निर्मित होते हैं। मानवके दुःख और दैन्य भौतिकबाद द्वारा समाप्त न होकर अध्यात्मद्वारा ही नष्ट होते हैं। समाज मल्प, विश्वास और मान्यताएँ अहिंसाके धरातल पर ही प्रतिष्ठित होती हैं। मानव-समाजको समृद्धि पारस्परिक विश्वास, प्रेम, श्रद्धा, जोवनसुविधाओंको समता, विश्वबन्धुत्व, मंत्री, करुणा बोर माध्यस्थ्य-भावना पर ही आधुत है। अतएव समाजक घटक परिवार, संघ, समाज, गोष्ठी, सभा, परिषद् आदिको सदढ़ता नैतिक मूल्यों और आदर्शों पर प्रतिष्ठित है। समाजधर्म : पृष्ठभूमि ___ मानव-समाजको भौतिकवाद और नास्तिकवादने पथभ्रष्ट किया है । इन दोनोंने मानवताके सच्चे आदशोसे च्युत करके मानवको पशु बना दिया है । जबतक समाजका प्रत्येक सदस्य यह नहीं समझ लता कि मनुष्मात्रकी समस्या उसकी समस्या है, तबतक समाजमें परस्पर सहानुभूति एवं सद्भावना उत्पन्न नहीं हो सकती है । जातीय अहंकार, धर्म, धन, वर्ग, शक्ति, घृणा और राष्ट्रके कृत्रिम बन्धनोंने मानव-समाजके बीच खाई उत्पन्न कर दी है, जिसका आत्म. विकासके विना भरना सम्भव नहीं । यस: मानव-समाज और सभ्यताका भविष्य आत्मशान, स्वतन्त्रता, न्याय और प्रेमकी उन गहरी विश्वभावनाओंके साथ बंधा हुआ है, जो आज भौतिकता, हिंसा, शोषण प्रभृतिसे भाराकान्त है।
इसमें सन्देह नहीं कि समाजको संकीर्णताए', धर्मके नामपर की जानेवाली हिंसा, वर्गभेदके नामपर भेद-भाव, ऊंच-नीचता आदिसे वर्तमान समाज प्रस्त है । अतः मानवताका जागरण उसी स्थिति में सम्भव है, जब ज्ञान-विज्ञान, अर्थ, काम, राजनीति-विधान एवं समाज-जीवनका समन्वय नैतिकताके साथ स्थापित हो तथा प्राणिमात्रके साप अहिंसात्मक व्यवहार किया जाय । पशु-पक्षी भी मानवके समान विश्यके लिए उपयोगी एवं उसके सदस्य हैं। अतः उनके साथ ५७२ : तीर्थंकर महापौर और उनकी आवाय-परम्परा
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भी प्रेमपूर्ण व्यवहार होना आवश्यक है। विशाल ऐश्वयं और महान वैभव प्राप्त करके भी प्रम ओर आत्मनियन्त्रण निता शान्नि वागाव नहीं लग समाजके प्रत्येक सदस्यका नैतिक और आध्यात्मिक विकास नहीं हआ है, तब. तक वह भौतिकवादके मायाजालसे मुक्त नहीं हो सकता । व्यक्ति और समाज अपनी दृष्टिको अधिकारको ओरसे हटाकर कर्तव्यको ओर जबतक नहीं लायेगा, तवतक स्वार्थबुद्धि दूर नहीं हो सकतो है।
वस्तुतः समाजका प्रत्येक सदस्य नैतिकतासे अनैतिकता, अहिंसासे हिंसा, प्रेमसे घृणा, क्षमासे क्रोध, उत्सर्गसे संघर्ष एवं मानवतासे पशुतापर विजय प्राप्त कर सकता है । दासता, बर्वरता और हिंसासे मुक्ति प्राप्त करने के लिए अहिंसक साधनोंका होना अनिवार्य है । यतः अहिंसक साधनों द्वारा ही अहिंसामय शांति प्राप्त की जा सकती है। बिना किसी भेद-भावके संसारके समस्त प्राणियोंके कष्टोंका अन्त अहिंसक आचरण और उदारभावना द्वारा ही सम्भव है । भौतिक उत्कर्षकी सर्वथा अवहेलना नहीं की जा सकती, पर इसे मानव-जीवनका अन्तिम लक्ष्य मानना भूल है। भौतिक उत्कर्ष समाजके लिए यहीं सक अभिप्रेत है, जहाँसक सर्वसाधारणके नैतिक उत्कर्ष में बाधक नहीं है। ऐसे भौतिक उत्कर्षसे कोई लाभ नहीं, जिससे नैतिकताको ठेस पहुँचती हो।
समाजधर्मका मूल यही है कि अन्यकी गलती देखनेके पहले अपना निरोक्षण करो, ऐसा करनेसे अन्यको भूल दिखलायी नहीं पड़ेगी और एक महान संघर्षसे सहज ही मुक्ति मिल जायगो। विश्वप्रेमका प्रचार भी आत्मनिरीक्षणसे हो सकता है। विश्पप्रेमके पवित्र सूत्रमें बंध जानेपर सम्प्रदाय, वर्ग, जाति, देश एवं समाजकी परस्पर घृणा भी समाप्त हो जाती है और सभी मित्रतापूर्ण व्यवहार करने लगते हैं । हमारा प्रेमका यह व्यवहार केवल मानव-समाजके साथ ही नहीं रहना चाहिए, किन्तु पशु, पक्षी, कीड़े और मकोड़े के साथ भी होना चाहिए। ये पशु-पक्षी भी हमारे ही समान जनदार हैं और ये भी अपने साथ किये जानेवाले सहानुभूति, प्रेम, करता और कठोरताके व्यवहारको समझते हैं। जो इनसे प्रेम करता है, उसके सामने ये अपनी भयंकरता भूल जाते हैं और उसके चरणोंमें नतमस्तक हो जाते हैं; पर जो इनके साथ कठोरता, करता और निर्दयताका व्यवहार करता है। उसे देखते ही ये भाग जाते हैं अथवा अपनेको छिपा लेते हैं। अतः समाजमें मनुष्यके ही समान अन्य प्राणियों को भी जानदार समझकर उनके साथ भी सहानुभूति और प्रेमका व्यवहार करना आवश्यक है।
समाजको विकृत या रोगी बनानेवाले तत्व हैं--(१) शोषण, (२) अन्याय, (३) अत्याचार, (४) पराधीनता, (५) स्वार्थलोलुपता, (६) अविश्वास और,
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(७) अहंकार | इन विनाशकारी तत्त्वोंका आचरण करनेसे समाजका कल्याण या उन्नति नहीं हो सकती है । समाज भो एक शरीर है और इस शरीर की पूर्णता सभी सदस्योंके समूह द्वारा निष्पन्न है । यदि एक भी सदस्य माया, धोखा, छल-प्रपंच और क्रूरताका आचरण करेगा, तो समाजका समस्त शरीर रोगी बन जायगा और शनैः शनैः संगठन शिथल होने लगेगा । अतः हिंसा, आक्रमण और अहंकार की नीतिका त्याग आवश्यक है । जिस समाजमें नागरिकता और लोकहितको भावना पर्याप्त पायी जाती है ि और सुखका उपभोग करता है ।
सहानुभूति
समाज-धर्मोकी सामान्य रूपरेखा में सहानुभूतिकी गणना की जाती है । इसके अभावसे अहंकार उत्पन्न होता है । वास्तविक सहानुभूति प्रेमके रूप में प्रकट होती है । अहंकारके मूल में अज्ञान है । अहंकार उन्हीं लोगों के हृदयमें पनपता है, जो यह सोचते हैं कि उनका अस्तित्व अन्य व्यक्तियोंसे पृथक् है तथा उनके उद्देश्य और हित भी दूसरे सामाजिक सदस्योंसे भिन्न हैं और उनकी विचारधारा तथा विचारधाराजन्य कार्यव्यवहार भी सही हैं। अतः वे समाजमें सर्वोपरि है, उनका अस्तित्व और महत्त्व अन्य सदस्योंसे श्रेष्ठ है ।
सहानुभूति मनुष्यको पृथक् और आत्मकेन्द्रित जीवनसे ऊंचा उठाती है और अन्य सदस्योंके हृदय में उसके लिए स्थान बनाती है, तभी वह दूसरोंके विचारों और अनुभूतियों में सम्मिलित होता है। किसी दुःखी प्राणी कष्टके संबंधमें पूछ-ताछ करना एक प्रकारका मात्र शिष्टाचार है । पर दुःखीके दुःख को देखकर द्रवित होना और सहायता के लिए तत्पर होना ही सच्चे सहानुभूतिपूर्ण मनका परिचायक है। सच्ची सहानुभूतिका अहंकार और आत्मश्लाघाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यदि कोई व्यक्ति अपने परोपकारसम्बन्धी कार्योंका गुणानुवाद चाहता है और प्रतिदान में दुर्व्यवहार मिलनेपर शिकायत करता है तो समझ लेना चाहिए कि उसने वह परोपकार नहीं किया है । विनीत, आत्मनिग्रही और सेवाभावी में ही सच्ची सहानुभूति रहती है ।
यथार्थतः सहानुभूति दूसरे व्यक्तियोंके प्रयासों और दुःखों के साथ एकलयताके भावकी अनुभूति है। इससे मानवके व्यक्तित्व में पूर्णताका भाव आता है । इसी गुणके द्वारा सहानुभूतिपूर्ण व्यक्ति अपनी निजतामें अनेक आत्माओं का प्रतीक बन जाता है | वह समाजको अन्यसदस्यों की दृष्टिसे देखता है, अन्य के कानोंसे सुनता है, अन्यके मनसे सोचता है और अन्य लोगोंके हृदयके द्वारा ही अनुभूति प्राप्त करता है । अपनी इसी विशेषताके कारण वह अपनेसे भिन्न
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व्यक्तियोंके मनोभावोंको समझ सकता है। अतः इसप्रकारके व्यक्तिका जीवन समाजके लिए होता है। वह समाजकी नींद सोता है और समाजकी ही नींद जागता है।
सहानुभूति ऐसा सामाजिक धर्म है, जिसके द्वारा प्रत्येक सदस्य अन्य सामाजिक सदस्योंके हृदयतक पहुंचता है और समस्त समाजके सदस्योंके साथ एकात्मभाव उत्पन्न हो जाता है। एक सदस्यको होनेवाली पीडा, वेदना अन्य सदस्योंकी भी बन जाती हैं और सुख-दुःखमें साधारणीकरण हो जाता है। भावात्मक ससाका प्रसार हो जाता है और अशेष समाजके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है ।
सहानुभूति एकात्मकारी तत्व है, इसके अपनानेसे कभी दूसरोंको भत्संना नहीं की जाती और सहवर्ती जनसमुदायके प्रति सहृदयताका व्यवहार सम्पादित किया जाता है। इसकी परिपक्वावस्थाको वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसने जीवन में सम्पूर्ण हार्दिकतासे प्रेम किया हो, पोड़ा सही हो और दुःखोंके गम्भीर सागरका अवगाहन किया हो । जीवनको आत्यन्तिक अनभूतियों के संसर्गसे हो उस भावकी निष्पत्ति होती है, जिससे मनुष्यके मनसे अहंकार, विचारहीनता, स्वार्थपरता एवं पारस्परिक अविश्वासका उन्मलन हो जाय। जिस व्यक्तिने किसो-न-किसी रूपमें दुःख और पीड़ा नहीं सही है, सहानुभूति उसके हृदय में उत्पन्न नहीं हो सकती है। दुःख और पीड़ाके अवसानके बाद एक स्थायो दयालुता और प्रशान्तिका हमारे मन में वास हो जाता है।
वस्तुतः जो सामाजिक सदस्य अनेक दिशाओं में पीझा सहकर परिपक्वताको प्राप्त कर लेता है, वह सन्तोषका केन्द्र बन जाता है और दुःखी एवं भग्नहृदय लोगोंके लिए प्रेरणा और संवलका स्रोत बन जाता है। सहानुभूतिकी सार्वभौमिक आत्मभाषाको, मनुष्योंकी सो बात ही क्या, पशु भी नैसर्गिकरूपसे समझते और पसंद करते हैं। __ स्वार्थपरता व्यक्तिको दूसरेके हितोंका व्याधात करके अपने हितोंकी रक्षाकी प्रेरणा करती है, पर सहानुभूति अपने स्वार्थ और हितोंका त्यागकर दुसरोंके स्वार्थ और हितोंकी रक्षा करनेकी प्रेरणा देती है। फलस्वरूप सहानभतिको समाज-धर्म माना जाता है और स्वार्थपरताको अधर्म | सहानुभूतिमें निम्नलिखित विशेषताएं समाविष्ट हैं:
१. दयालुता-क्षणिक आवेशका त्याग और प्राणियोंके प्रति दया-करुणाबुद्धि दयालुतामें अन्तहित है। अविश्वसनीय आवेशभावना दयालुतामें परि
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गणित नहीं है । किसीकी प्रशंसा करना और बादमें उसे गालियां देने लगना निर्दयता है। यदि दाता अपने दानका पुरस्कार चाहने लगता है, तो दान निष्फल है, इसीप्रकार कोई व्यक्ति किसी बाहरी प्रेरणासे उदारताका कोई कार्य करता है और कुछ समयके बाद किसी अप्रिय घटनाके कारण बाहरी प्रभावके वशीभूत हो विपरीत आचरण करने लगे, तो इसे भी चरित्रकी दुर्बलता माना जायगा | सच्ची दयालुता अपरिवर्तनीय है और यह बाहरी प्रभावसे अभिव्यक्त नहीं की जा सकती प्राणियोंके दःखको देखकर अन्तःकरणका आदें हो जाना दयालता है। यह जीवका स्वभाव है, इससे चरित्रके सौन्दर्यको वृद्धि होतो है और सौम्यभावको उपलब्धि होती है। सामाजिक सम्बन्धोंकी रक्षामें दयाका प्रधान स्थान है।
२. उदारता-हृदयको विशालताके साथ इसका सम्बन्ध है । जिस व्यक्तिके परित्रमें औदार्य, दया, सहानुभूति आदि गुण पाये जाते हैं, उसका जोवन आकर्षण और प्रभावयुक्त हो जाता है। चरित्रकी नोचता और भोंडापन घृणास्पद है । उदारतावश ही व्यक्ति अपने सहवर्ती जनों के प्रति आभ्यात्मिक और सामाजिक ऐक्यका अनुभव करते हैं और अपनी उपलब्धियोंका कुछ अंश समाजके मंगल हेतु अन्य सदस्यों को भी वितरित कर देते हैं।
३. भाता-इस गणद्वारा व्यक्ति निष्ठुरता और पाशविक स्वार्थपरतासे दूर रहता है । आत्मानुशासनके अभ्याससे इस गुणको प्राप्ति होती है। अपनी पाशक्कि वासनाओंका दमन और नियन्त्रण करनेसे मनुष्यके हृदय में भद्रता उत्पन्न होती है । जिस व्यक्तिमें इस भावकी निष्पसि हो जायगो, उसके स्वरमें स्पष्टता, दृढ़ता और व्यामोहहीनता आ जाती है । विपरीत ओर आपत्तिजनक परिस्थितियोंमें वह न उद्विग्न होता है और न किसीसे घृणा ही करता है ।
भद्रतामें आत्मसंयम, सहिष्णुता, विचारशीलता और परोपकारिता भी सम्मिलित हैं। इन गुणोंके सद्भावसे समाजका सम्यक् संचालन होता है तथा समाजके विवाद, कलह और विसंवाद समाप्त हो जाते हैं ।
४. अन्तर्दृष्टि-सहानुभूतिके परिणामस्वरूप समाजके पर्यवेक्षणको क्षमता अन्तर्दृष्टि है। वाद-विवादके द्वारा वस्तुका बाह्य रूप ही ज्ञात हो पाता है, पर सहानुभूति अन्तस्तल तक पहुँच जातो है । निश्छल प्रेम एक ऐसो रहस्यपूर्ण एकात्मीयता है, जिसके द्वारा व्यक्ति एक दूसरेके निकट पहुंचते हैं और एक दूसरेसे सुपरिचित होते हैं। ___ अन्तर्दष्टिप्राप्त व्यक्तिके पूर्वाग्रह छूट जाते हैं, पक्षपासको भावना मनसे निकल जाती है और समाजके अन्य सदस्योंके साथ सहयोगको भावना प्रस्फुटिस ५७६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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हो जाती है। प्रतिद्वन्द्विता, शत्रुता, सनाव आदि समाप्त हो जाते हैं और समाजके सदस्योंमें सहानुभूति के कारण विश्वास जागृत हो जाता है। ___ संक्षेपमें सहानुभूति ऐसा समाज-धर्म है, जो व्यक्ति और समाज इन दोनोंका मंगल करता है । इस धमक आचरणसे समाज-व्यवस्थाग सुदृढ़ता आती है। अपने समस्त दोषों से मुक्ति प्राप्तकर मानव-समाज एकताके सूत्र में वैधता है।
अहिंसाका ही रूपान्तर सहानुभूति है और अहिंसा ही सर्वजीव समभावका आदर्श प्रस्तुत करती है, जिससे समाजमें संगठन सुदृढ़ होता है। यदि भावनाओं में क्रोध, अभिमान, कपट, स्वार्थ, राग-द्वेष आदि हैं, तो समाजमें मित्रताका आचरण सम्भव नहीं है। वास्तव में अहिंसा प्राणीकी संवेदनशील भावना और सिका रूप है, जो सर्वजीव-समभावसे निर्मित है । समाज-धर्मका समस्त भवन इसी सर्वजोव-समभावकी कोमल भावनापर आधारित है। अहिंसा या सहानुभूति ऐसा गुण है, जो चराचर जगत्में सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ मैत्रीभावकी प्रतिष्ठा करता है। किसोके प्रति भी वैर और विरोधकी भावना नहीं रहती। दुःखियोंके प्रति हृदय में करुणा उत्पन्न हो जाती है।
जो किसी दूसरेके द्वारा आतंकित हैं, उन्हें भी अहिंसक अपने अन्तरकी कोमल किन्तु सुदृढ भावनाओंकी सम्पति द्वारा अभयदान प्रदान करता है। उसके द्वारा संसारके समस्त प्राणियों के प्रति समता, सुरक्षा, विश्वास एवं सहकारिताको भावना उस्पन्न होती हैं। अन्याय, अत्याचार, शोषण, द्वेष, बलात्कार, ईर्ष्या आदिको स्थान प्राप्त नहीं रहता। यह स्मरणीय है कि हमारे मनके विचार और भावनाओंकी तरंगें फैलती हैं, इन तरंगोंमें योग और बल रहता है । यदि मनमें हिंसाकी भावना प्रबल है, तो हिंसक तरंगें समाजके अन्य व्यक्तियोंको भी कर, निर्दय और स्वार्थी बनायेंगी। अहिंसाकी भावना रहनेपर समाजके सदस्थ सरल, सहयोगी और उदार बनते हैं । अतएव समाजधर्मको पृष्ठभूमिमें अहिंसा या सहानुभूतिका रहना परमावश्यक है । सामाजिक नैतिकताका आधार : यात्मनिरीक्षण
समाज एवं राष्ट्रकी इकाई व्यक्तिके जीवनको स्वस्थ----सम्पन्न करनेके लिए स्वार्थत्याग एवं वैयक्तिक चारित्रकी निर्मलता अपेक्षित है। आज व्यक्ति में जो असन्तोष और घबड़ाहटकी वृद्धि हो रही है, जिसका कुफल विषमता और अपराषोंकी बहुलताके रूपमें है, नैतिक आचरण द्वारा ही दूर किया जा सकता है, क्योंकि आचरणका सुधारना ही व्यक्तिका सुधार और आचरणका बिगड़ना ही व्यक्तिका बिगाड़ है।
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प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्योंको मन, वचन और काय द्वारा सम्पन्न करता है तथा अन्य व्यक्तियोंसे अपना सम्पर्क भी इन्होंके द्वारा स्थापित करता है । ये तीनों प्रवृत्तियाँ मनुष्यको मनुष्यका मित्र और ये ही मनुष्यको मनुष्यका शत्रु भी बनाती हैं। इन प्रवृत्तियोंके सत्प्रयोगसे व्यक्ति सुख और शान्ति प्राप्त करता है तथा समाजके अन्य सदस्योंके लिए सुख-शान्तिका मार्ग प्रस्तुत करता है, किन्तु जब इन्हीं प्रवृत्तियोंका दुरुपयोग होने लगता है, तो वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों ही जीवनोंमें अशान्ति मा जाती है। व्यक्तिको स्वार्थमूलक प्रवृत्तियाँ विषय- तृष्णाको बढ़ानेवाली होती हैं; मनुष्य उचित-अनुचितका विचार किये बिना सृष्णाको शान्स करनेके लिए जो कुछ कर सकता है, करता है । अतएव जीवनमें निषेधात्मक या निवृत्तिमूलक मागारका पालन करना आवश्यक है । यद्यपि निवृत्तिमार्गं आकर्षक और सुकर नहीं है, तो भी जो इसका एकबार आस्वादन कर लेता है, उसे शाश्वत और चिरन्तन शान्तिकी प्राप्ति होती है । विध्यात्मक चारित्रका सम्बन्ध शुभप्रवृत्तियोंसे है और शुभप्रवृत्तियोंसे निवृत्तिमूलक भी चासिंग है। कोर्पित समाजको समृद्ध एवं पूर्ण सुखी बनाना चाहता है, उसे शुभविधिका ही अनुसरण करना आवश्यक है ।
व्यक्तिके नैतिक विकासके लिए आत्मनिरीक्षणपर जोर दिया जाता है । इस प्रवृत्तिके बिना अपने दोषोंको ओर दृष्टिपात करनेका अवसर ही नहीं मिलता । वस्तुत: व्यक्तिको अधिकांश क्रियाएँ यन्त्रवत् होती हैं, इन क्रियाओंमें कुछ क्रियाओंका सम्बन्ध शुभके साथ है और कुटका अशुभके साथ । व्यक्ति न करने योग्य कार्य भी कर डालता है और न कहने लायक बात भी कह देता है तथा न निचार योग्य बातोंकी उलझन में पड़कर अपना और परका अहित भी बैठता है। पर आत्मनिरीक्षणको प्रवृत्ति द्वारा अपने दोष तो दूर किये ही आ सकते हैं तथा अपने कर्तव्य और अधिकारोंका यथार्थतः परिज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है ।
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प्रायः देखा जाता है कि हम दूसरोंकी आलोचना करते हैं और इस आलोचना द्वारा हो अपने कर्तव्यकी समाप्ति समझ लेते हैं । जिस बुराई के लिए हम दूसरोंको कोसते हैं, हममें भी वही बुराई वर्तमान है, किन्तु हम उसकी ओर दृष्टिपात भी नहीं करते। अतः समाज धर्मका आरोहण करनेकी पहली सीढ़ी आत्म-निरीक्षण है । इसके द्वारा व्यक्ति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, मान, मात्सर्य प्रभूति दुर्गुणोंसे अपनी रक्षा करता है और समाजको प्रमके धरातल पर लाकर उसे सुखी और शान्त बनाता है ।
आत्मनिरीक्षण के अभाव में व्यक्तिको अपने दोषों का परिज्ञान नहीं होता
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और फलस्वरूप वह इन दोषोंको समाजमें भी आरोपित करता है, जिससे समाज में भेदभाव उत्पन्न हो जाते हैं और शनैः शनैः समाज विघटित होने लगता है। समानधर्मकी पहली सीडी : विचारसमन्वय-उदारवृष्टि
__"मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना" लोकोक्तिके अनुसार विश्वके मानवों में विचारभिन्नताका रहना स्वाभाविक है, क्योंकि सबकी विचारशैली एक नहीं है। विचार-भिन्नता ही मतभेद और विद्वषोंको जननी है । वैयक्तिक और सामाजिक जीवनमें अशान्सिका प्रमुख कारण दिनारोंमें भेद नोना ही है। विचारभेदके कारण विद्वेष और घूमा भी उत्पन्न होती है। इस विचार-भिन्नताका शमन उदारदृष्टि द्वारा ही किया जा सकता है । उदारदृष्टिका अन्य नाम स्याद्बाद है। यह दृष्टि ही आपसी मसभेद एवं पक्षपातपूर्ण नोतिका उन्मूलन कर अनेकतामें एकता, विचारोंमें उदारता एवं सहिष्णुता उत्पन्न करती है। यह विचार और कथनको संकुचित, हठ एवं पक्षपातपूर्ण न बनाकर उदार, निष्पक्ष
और विशाल बनाती है। वास्तवमें विचारोंकी उदारता हो समाजमें शान्ति, सुख और प्रेमकी स्थापना कर सकती है।
माज एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिसे, एक वर्ग दूसरे वर्गसे और एक जाति दसरी जातिसे इसीलिए संघर्षरत है कि उससे भिन्न व्यक्ति, वर्ग और जातिके विचार उनके विचारोंके प्रतिकूल हैं । साम्प्रदायिकता और जातिवादके नशेमें मस्त होकर निर्मम हत्याएं की जा रही हैं और अपनेसे विपरीत विचारवालोंके ऊपर असंख्य अत्याचार किये जा रहे हैं। साम्प्रदायिकताके नामपर परपस्परमें संघर्ष और क्लेश हो रहे हैं। धर्मकी संकीर्णताके कारण सहस्रों मुक व्यक्तियोंको तलवारके घाट उतारा जा रहा है । जलते हुए अग्निकुण्डोंमें जीवित पशुओंको डालकर स्वर्गका प्रमाणपत्र प्राप्त किया जा रहा है। इस प्रकार विचारभिन्नताका भूत मानवको राक्षस बनाये हुए है।।
उदारताका सिद्धान्त कहता है कि विचार-भिन्नता स्वाभाविक है क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिके विचार अपनी परिस्थिति, समझ एवं आवश्यकताके अनुसार बनते हैं। अत: विचारोंमें एकत्व होना असम्भव है। प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान एवं उसके साधन सीमित हैं। अतः एकसमान विचारोंका होना स्वभावविरुद्ध है।
अभिप्राय यह है कि वस्तुमें अनेक गुण और पर्याय-अवस्थाएं हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति एवं योग्यताके अनुसार वस्तुकी अनेक अवस्थामोंमेंसे
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किसी एक अवस्थाको देखता और विचार करता है। अत: उसका ऐकांगिक ज्ञान उसीकी दष्टि तक सत्य है। अन्य व्यक्ति उसी वस्तुका अबलोकन दसरे पहलूसे करता है । अतः उसका ज्ञान भी किसी दृष्टिसे ठीक है। अपनी-अपनी दर्शसे वस्तुका विवेचन, परीक्षण और कथन करने में सभीको स्वतन्त्रता है। सभी. का ज्ञान वस्तुके एक गुण या अवस्थाको जाननेके कारण अंशात्मक है, पूर्ण नहीं। जैसे एक ही व्यक्ति किसीका पिता, किसीका भाई, किसीका पुत्र और किसीका भागनेय एक समयमें रह सकता है और उसके भ्रातृत्व, पितृत्व, पुत्रत्व एवं भागनेयत्वमें कोई बाधा नहीं आती। उसी प्रकार संसारके प्रत्येक पदार्थमें एक हो कालमें विभिन्न दृष्टियोंसे अनेक धर्म रहते हैं। अतएव उदारनीति द्वारा संसारके प्रत्येक प्राणीको अपना मित्र समझकर समाजके सभी सदस्योंके साथ उदारता और प्रेमका व्यवहार करना अपेक्षित है। मतभेदमात्रसे किसीको शत्रु समझ लेना मर्खताके सिवाय और कुछ नहीं। प्रत्येक बातपर उदारसा और निष्पक्ष दष्टिसे विचार करना ही समाज में शान्ति स्थापित करनेका प्रमुख साधन है। यदि कोई व्यक्ति भ्रम या अज्ञानतावश किसी भी प्रकारकी भूल कर बैठता है, तो उस भूलका परिमार्जन प्रेमपूर्वक समझाकर करना चाहिए। ___ अहंवादी प्रकृति, जिसने वर्तमानमें व्यक्तिके जीवन में बड़प्पनकी भावनाकी पराकाष्ठा कर दी है, उदारनीतिसे ही दूर की जासकती है। व्यक्ति अपनेको बड़ा और अन्यको छोटा तभी तक समझता है जबतक उसे वस्तुस्वरूपफा यथार्थ बोध नहीं होता। अपनी ही बातें सत्य और अन्यकी बातें झूठी तभी तक प्रतीत होती हैं जबतक अनेक गुणपर्यायवाली वस्तुका यथार्थ बोध नहीं होता। उदारता समाजके समस्त झगड़ोंको शान्त करने के लिए अमोघ अस्त्र है। विधि, निषेध, उभयात्मक और अवक्तव्यरूप पदार्थोंका यथार्थ परिज्ञान संघर्ष
और द्वन्द्वोंका अन्त करने में समर्थ है। यद्यपि विचार-समन्वय तर्क क्षेत्रमें विशेष महत्त्व रखता है, तो की लोकव्यवहारमें इसकी उपयोगिता कम नहीं है । समाजका कोई भी व्यावहारिक कार्य विचारोंकी उदारताके बिना चलता ही नहीं है। जो व्यक्ति उदार है, वही तो अन्य व्यक्तियोंके साथ मिल-जुल सकता है । यहां यह ध्यातव्य है कि सत्य सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं। हमें वस्तुओंके अनन्त रूपों या पयोषा में से एक कालमें उसके एक ही रूप या पर्यायका ज्ञान प्राप्त होता है और कथन भी किसी एक रूप या पार्मायका हो किया जाता है। अतएव कथन करते समय अपने दृष्टिकोणके सत्य होनेपर भी उस कथनको पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके अतिरिक्त भी सत्य अवशिष्ट रहता है। उन्हें असत्य तो कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि वे वस्तुका ५८० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परगरा
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हो वर्णन करते हैं । अत: उन्हें सत्यांश कहा जा सकता है । अतएव एक व्यक्ति जो कुछ कहता है वह भी सत्यांश है, दूसरा जो कहता है वह भी सत्यांश है । तीसरा कहता है वह भी सत्यांश है । इस प्रकार अगणित व्यक्तियोंके कथन सत्यांश ही ठहरते हैं। यदि इन सब सत्यांशों को मिला दिया जाय तो पूर्ण सत्य बन सकता है। इस पूर्ण सत्यको प्राप्त करने के लिए हमें उन सत्यांशों अर्थात् दूसरोंके दृष्टिकोणोंके प्रति उदार, सहिष्णु और समन्वयकारी बनना होगा और यही सत्यका आग्रह है । जबतक हम उन सत्यांशों – दूसरोंके दृष्टिकोणोंके प्रति अनुदार असहिष्णु वने रहेंगे, समन्वय या सामञ्जस्यकी प्रवृत्ति हमारी नहीं होगी, हम सत्यको नहीं प्राप्त कर सकेंगे और न हमारा व्यवहार ही समाजके लिए मंगलमय होगा । विराट् सत्य असंख्य सत्यांशोंको लेकर बना है । उन सत्याशोंकी उपेक्षा करनेसे हम कभी भी उस विराट् सत्यको नहीं प्राप्त कर सकेंगे । आपेक्षिक सत्यको कहने और दूसरोंके दृष्टिकोणमें सत्य ढूँढ़ने एवं उनके समन्वय या सामंजस्य करनेकी पद्धति या शैली उदारता है । यह उदारता समाजको सुगठित, सुव्यवस्थित और समृद्ध बनाने के लिए आवश्यक है ।
उदारता सत्यको ढूँढने तथा अपनेसे भिन्न दृष्टिकोणोंके साथ समझौता करने की प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया द्वारा मनोभूमि विस्तृत होती है और व्यक्ति सत्यांशको उपलब्ध करता है । उदार दृष्टिकोण या समन्वयवृत्ति ही सत्यको उपलब्धि के लिए एकमात्र मार्ग है। आंग्रह, हठ, दम्भ और संघर्षका अन्त इसीके द्वारा सम्भव है । हठ, दुराग्रह और पक्षपात ऐसे दुर्गाण है जो एक व्यक्तिको दूसरे व्यक्तिसे समझौता नहीं करने देते । जब तक विचारोंमें उदारता नहीं, अपने दृष्टिकोणको यथार्थरूपमें समझनेको शक्ति नहीं, तब तक पूर्वाग्रह लगे ही रहते हैं । उदारता यह समझने के लिए प्रेरित करती है कि किसी भी पदार्थ में अनेक रूप और गुण है । हम इन अनेक रूप और गुणोंमेंसे कुछको हो जान पाते हैं । अतः हमारा ज्ञान एक विशेष दृष्टि तक ही सीमित है । जब तक हम दूसरोंके विचारोंका स्वागत नहीं करेंगे, उनमें निहित सत्यको नहीं पहचानेंगे, तबतक हमारी ऐकान्तिक हठ कैसे दूर हो सकेगी। उदारता या विचारसमन्वय वैयक्तिक और सामाजिक गुत्थियोंको सुलझाकर समाज में एकता और वैचारिक अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है ।
समाजधमकी दूसरी सीही विश्वप्रेम और नियन्त्रण
समस्त प्राणियोंको उन्नति के अवसरोंमें समानता होना, समाजधमंकी दूसरी सीढ़ी है और इस समानताप्राप्तिका साधन विश्वप्रेम या अत्मनियन्त्रण है । जिस व्यक्ति जीवनमें आत्म-नियन्त्रण समाविष्ट हो गया है वह समाज के
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सभी सदस्योंके साथ भाईचारेका व्यवहार करता है। उनके दुःख-दर्द में सहायक होता है। उन्हें ठीक अपने समान समझता है । होनाधिकको भावनाका त्यागकर थम्य अन्य व्यक्तियोंकी सुख-सुविधाओंका भी ध्यान रखता है। पाखण्ड और धोखेबाजोकी भावनाओंका अन्त भी विश्वप्रेम द्वारा सम्भव है। शोषित और शोषकोंका जो संघर्ष चल रहा है, उसका अन्त विश्वप्रेम और आत्मनियन्त्रणके बिना सम्भव नहीं। विश्वप्रमकी पवित्र अग्निमें दम्भ, पाखण्ड, हिंसा, ऊंच-नीचको भावना, अभिमान, स्वार्थबुद्धि, छल-कपट प्रभृति समस्त भावनाएं जलकर छार बन जाती है और कर्तव्य, अहिंसा, त्याग और सेवाकी भावनाएं उत्पन्न हो जाती हैं।
यह एक ऐसा सिद्धान्त है जो व्यक्ति और समाजके बीच अधिकार और कर्तव्यको शृङ्खला स्थापित कर सकता है। समाज एवं व्यक्तिके उचित संबंधोंका संतुलन इसीके द्वारा स्थापित हो सकता है । व्यक्ति सामाजिक हितकी रक्षाके लिए अपने स्वार्थका त्यागकर सहयोगकी भावनाका प्रयोग भी प्रेमसे ही कर सकता है। आज व्यक्ति और समाजकै बोचकी खाई संघर्ष और शोषणके कारण गहरी हो गई है । इस खाईको इच्छाओंके नियन्त्रण और प्रमाचरण द्वारा ही भरा जा सकता है। निजी स्वार्थसाधनके कारण अगणित व्यक्ति भूखसे तड़प रहे हैं और असंख्यात विना वस्त्रके अर्धनग्न घूम रहे हैं। यदि भोगोपभोगकी इच्छाओंके नियन्त्रणके साथ आवश्यकताएं भी सीमित हो जायें और विश्वप्र मके जादूका प्रयोग किया जाय, तो यह स्थिति तत्काल समाप्त हो सकती है।
मानवका जीना अधिकार है, किन्तु दूसरेको जीवित रहने देना उसका कर्तव्य है। अतः अपने अधिकारोंकी मांग करनेवालेको कत्र्तव्यपालनकी ओर सजग रहना अत्यावश्यक है। समाज में व्याप्त विषमता, अशान्ति और शोषणका मूल कारण कर्तव्योंकी उपेक्षा है।
समाजधर्मको दूसरी सीढ़ी के लिए सहायक __ अहिंसाके आधारपर सहयोग और सहकारिताको भावना स्थापित करनेसे समाजधर्मकी दूसरी सीढ़ीको बल प्राप्त होता है। समाजका आर्थिक एवं राजनोतिक ढाँचा लोकहितकी भावनापर आश्रित हो तथा उसमें उपति और विकासके लिए सभीको समान अवसर दिये जायें। अहिंसाके आधारपर निर्मित समाजमें शोषण और संघर्ष रह नहीं सकते 1 अहिंसा ही एक ऐसा शस्त्र है जिसके द्वारा बिना एक बूँन्द रक्त बहाये वर्गहीन समाजको स्थापना की जा ५८२ : तीपंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा
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सकती है । यद्यपि कुछ लोग अहिंसाके द्वारा निर्मित समाजको आदर्श या कल्पनाकी वस्तु मानते हैं, पर यथार्थसः यह समाज काल्पनिक नहीं, प्रत्युत व्यावहारिक होगा । यतः अहिंसाका लक्ष्य यही है कि अगंभेद या जातिभेदसे ऊपर उठकर समाजका प्रत्येक सदस्य अन्यके साथ शिष्टता और मानवताका व्यवहार करे | छलकपट या इनसे होनेवाली छीनाझपटी अहिंसाके द्वारा ही दूर की जा सकती है । यह सुनिश्चित है कि बलप्रयोग या हिंसा के आधारपर मानवीय संबंधों को दीवार खड़ी नहीं की जा सकती है। इसके लिए सहानुभूति, प्र ेम, सौहार्द, त्याग, सेवा एवं दया आदि अहिंसक भावनाओंको आवश्यकता है । वस्तुतः अहिंसा में ऐसी अद्भुत शक्ति है जो आर्थिक, सामाजिक और राजनौतिक समस्याओं को सरलतापूर्वक सुलझा सकती है । समाजधमंकी दूसरी सीढ़ीपर चढ़नके लिए लोकहितकी भावना सहायक कारण है।
समाजको जर्जरित करनेवाली काले-गोरे, ऊँच-नीच और छुआ-छूतकी भावनाको प्रश्रय देना समाजधर्मकी उपेक्षा करना है। जन्मसे न कोई ऊंचा होता है और न कोई नोचा जन्मना जातिव्यवस्था स्वीकृत नहीं की जा सकती । मनुष्य जैसा आचरण करता है, उसीके अनुकूल उसको जाति हो जाती है । दुराचार करनेवाले चोर और डकेत जास्या ब्राह्मण होनेपर भो शूद्रसे अधिक नहीं है। जिन व्यक्तियों के हृदय में करुणा, दया, ममताका अजस्त्र प्रवाह समाविष्ट है, ऐसे व्यक्ति समाजको उन्नत बनाते है, जाति- अहंकारका विष मनुष्यको अर्धत किये हुए हैं । अतः इस विषका त्याग अत्यावश्यक है ।
जिस व्यक्तिका नैतिक स्तर जितना हो समाजके अनुकूल होगा वह उतना ही समाज में उन्नत माना जायगा, किन्तु स्थान उसका भी सामाजिक सदस्य होने के नाते वही होगा, जो अन्य सदस्योंका है। दलितवर्ग के शोषण, जाति और धर्मवादके दुरभिमानको महस्व देना मानवता के लिए अभिशाप है । जो समाजको सुगठित और सुव्यवस्थित बनाने के इच्छुक हैं, उन्हें आत्म-नियन्त्रण कर जातिवाद, धर्मवाद, वर्गवादको प्रश्रय नहीं देना चाहिए।
समाजधर्मकी सोसरी सोढ़ी : आर्थिक सन्तुलन
समाजकी सारी व्यवस्थाएँ अर्थमूलक हैं और इस अर्थके लिए ही संघर्ष हो रहा है। व्यक्ति, समाज या राष्ट्रके पास जितनी सम्पत्ति बढ़ जाती है वह व्यक्ति, समाज या राष्ट्र उतना ही असन्तोषका अनुभव करता रहता है । अतः घनाभावजन्य जितनी अशान्ति है, उससे भी कहीं अधिक धनके सद्भावसे है । अशान्तिका सबल कारण माना जाता है, पर विश्वकी सम्पत्तिको बांट देनेसे नहीं सुलक
घनके असमान वितरणको यह असमान वितरणको समस्या
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सकती है। इसके समाधानके कारण अपरिग्रह और संयमवाद हैं । ये दोनों संविधान समाजमेंसे शोषित और शोषक वर्गकी समाप्ति कर आर्थिक दृष्टिसे समाजको उन्नत स्तरपर लाते हैं। जो व्यक्ति समस्त समाजके स्वार्थको ध्यानमें रखकर अपनो प्रवृत्ति करता है वह समाजकी आर्थिक विपमताको दूर करने में सहायक होता है। यदि विचारकर देखा जाय तो परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाण ऐसे नियम हैं, जिनसे समाजको आर्थिक समस्या सुलश्न सकता है। इस कारण समाजधर्मकी तीसरी सोढ़ो आर्थिक सन्तुलनको माना गया है। स्वार्थ और भोगलिप्साका त्याग इस तीसरी सोढ़ीपर चढ़नेका आधार है। परिग्रहपरिमाण : आर्थिक संयमन ___ अपने योग-क्षेमवे लायक भरण-पोषणको बस्तुओं को गण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय और अत्याचार द्वारा धनकर संचय न करमा परिग्रहरिमाग या व्यावहारिक अपरिग्रह है। धन, धान्य, रुपया-पैसा, सोना-चांदो, स्त्री-पुत्र प्रभूति पदार्थों में 'ये मेरे हैं, इस प्रकारके ममत्वपरिणामको परिमह कहते हैं। इस ममत्व या लालसाको घटाकर उन वस्तुओंके संग्रहको कम करवा परिग्रहपरिमाण है । बाह्यवस्तु-रुपये-पैसोंकी अपेक्षा अन्तरंग तृष्णा या लालसाको बिशेप महत्त्व प्राप्त है, क्योंकि तृष्णाके रहने से धनिक भी आकुल रहता है। वस्तुतः धन आकुलताका कारण नहीं है, आकुलताका कारण है तृष्णा । संवयवृत्ति के रहनेपर व्यक्ति न्याय-अन्याय एवं युक्त-अयुक्तका विचार नहीं करता।
इस समय संसारम धनसंचयके हेतु व्यर्थ ही इतनी अधिक हाय-हाय मची हुई है कि संतोष और शान्ति नाममात्रको भा नहीं । विश्वके समझदार विशेषज्ञोंने धनसम्पत्तिके बटवारेके लिए अनेक नियम बनाये है, पर उनका पालन आजतक नहीं हो सका । अनियन्त्रित इच्छाओंको तृप्ति विश्वको समस्त सम्पत्तिके मिल जानेपर भी नही हो सकती है। आशारूपी गड्ढेको भरने में संसारका सारा वैभव अणुके समान है । अत: इच्छाओंके नियन्त्रणके लिए परिग्रहपरिमाणके साथ भोगोपभोगपरिमाणका विधान भी आवश्यक है | समय, परिस्थिति और वातावरणके अनुसार वस्त्र, आभरण, भोजन, ताम्बल आदि भोगोपभोगकी वस्तुओंके संबंध भी उचित नियम कर लेना आवश्यक है।
उक्त दोनों व्रतों या नियमोंके समन्वयका अभिप्राय समस्त मानव-समाजको आर्थिक व्यवस्थाको उन्नत बनाना है। चन्द व्यक्तियोंको इस बातका कोई अधिकार नहीं कि वे शोषण कर आर्थिक दृष्टिसे समाजमें विषमता उत्पन्न करें। ५८४ : तीर्थकर महावीर और उनको बाचार्य-परम्परा
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इतना सुनिश्चित है कि समस्त मनुष्योंमें उन्नति करनेको शक्ति एक-सी न होनेके कारण समाजमें आर्थिक दृष्टिसे समानता स्थापित होना कठिन है, तो भी समस्त मानव-समाजको लौकिक उन्नतिके समान अवसर एवं अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार स्वतन्त्रताका मिलना आवश्यक है, क्योंकि परिग्रहपरिमाण और भोगोपभोगपरिमाणका एकमात्र लक्ष्य समाजकी आर्थिक विषमताको दूर कर सुखी बनाना है । यह पूंजीवादका विरोधी सिद्धान्त है और एक स्थान पर धन संचित होनेको वृत्तिका निरोध करता है । परिग्रहपरिमाणका क्षेत्र व्यक्तितक हो सीमित नहीं है, प्रत्युत समाज, देश, राष्ट्र एवं विश्वके लिए भी उसका उपयोग आवशाक है । संयमवाद व्यक्तिकी अनियन्त्रित इच्छाओंको नियन्त्रित करता है । यह हिंसा झूठ, चोरी, दुराचार आदिको रोकता है।
परिग्रहके दो भेद हैं-बाह्यपरिग्रह और अन्तरंगपरिग्रह । बाह्मपरिग्रहमें धन, भूमि, अन्न, वस्त्र आदि वस्तुएं परिगणित हैं। इनके संचयसे समाजको आर्थिक विषमताजन्य कष्ट भोगना पड़ता है। अतः श्रमार्जित योग-क्षेमके योग्य धन ब्रहण करना चाहिये । न्यायपूर्वक भरण-पोषणकी वस्तुओंके ग्रहण करनेसे धन संचित नहीं हो पाता । अतएव समाजको समानरूपसे सुखी, समद्ध और सुगठित बनानेके हेतु धनका संचय न करना आवश्यक है। यदि समाजका प्रत्येक सदस्य श्रमपूर्वक आजीविकाका अर्जन करे, अन्याय और बेईमानोका त्याग कर दे, सो समाजके अन्य सदस्योंको भी आवश्यकताको वस्तुओंकी कभी कमी नहीं हो सकती है।
आभ्यन्तरपरिग्रहमें काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि भावनाएं शामिल हैं । वस्तुतः संचयशील बुद्धि-तष्णा अर्थात असंतोष हो अन्तरंगपरिग्रह है। यदि बाह्मपरिग्रह छोड़ भी दिया जाय, और ममत्वबुद्धि बनी रहे, तो समाजकी छीना-झपटी दूर नहीं हो सकती। धनके समान वितरण होनेपर भी, जो बुद्धिमान हैं, वे अपनी योग्यतासे धन एकत्र कर ही लेंगे और समाजमें विषमता बनी हो रह जायगी । इसी कारण लोभ, माया, क्रोध आदि मानवीय विकारोंके त्यागनेका महत्त्व है। अपरिग्रह वह सिद्धान्त है, जो पूजी और जीवनोपयोगी अन्य आवश्यक वस्तुओंके अनुचित संग्रहको रोक कर शोपणको बन्द करता है और समाजमें आर्थिक समानताका प्रचार करता है। अतएव संचयशील वृत्तिका नियन्त्रण परम आवश्यक है। यह वृत्ति ही पूजीवादका मूल है। तीसरी सोढोका पोषक : संयमवाद
संसारमं सम्पत्ति एवं भोगपभोगको सामग्री कम है। भोगनेवाले अधिक हैं और तृष्णा इससे भी ज्यादा है । इसी कारण प्राणियोंमें मत्स्यन्याय चलता है,
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छीना-झपटी चलती है और चलता है संघर्ष । फलतः नाना प्रकारके अत्याचार और सरल होते हैं, जिनसे हमि मास्ति बनाती है । परस्परमें ईर्ष्या-वेषकी मात्रा और भी अधिक बढ़ जाती है, जिससे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिको आर्थिक उन्नतिके अवसर ही नहीं मिलने देता। परिणाम यह होता है कि संघर्ष और अशान्तिको शाखाएँ बढ़कर विषमतारूपो हलाहलको उत्पन्न करती हैं। ___ इस विषको एकमात्र औषध संयमवाद है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओं, कषायों और वासनाओं पर नियन्त्रण रखकर छोचा-झपटीको टूर कर दे, सो समाजसे आर्थिक विषमता अवश्य दूर हो जाय । और मभी सदस्य शारीरिफ आवश्यकताओंकी पूर्ति निराकुलरूपसे कर सकते हैं । यह अविस्मरणीय है कि आर्थिक समस्याका समाधान नैतिकताके विना सम्भव नहीं हैं। नैतिक मर्यादाओंका पालन हो आर्थिक साधनोंमें समीकरण स्थापित कर सकता है। जो केवल भौतिकवादका आश्रय लेकर जीवनकी समस्याओंको सुरशाना चाहते हैं, वे अन्धकारमें हैं । आध्यात्मिकता और नैतिकताके अभावमें आर्थिक समस्याएँ सुलम नहीं सकता है। ___ संघमफे भेद और उनका विश्लेषण-संयमके दो भेद हैं-(१) इन्द्रियसंयम और (२) प्राणिसंयम । सयमका मालनेवाला अपने जीवन निर्वाहक हेतु कम-सेकम सामग्रीका उपयोग करता है, जिससे अवशिष्ट सामनो अन्य लोगों को काम आती है और संघर्ष कम होता है। विषमता दूर होती है। यदि एक मनुष्य अधिक सामग्रीका उपभोग करे, तो दूसरोंके लिये सामग्री कम पड़ेगी तथा शोषणका आरम्भ यहीसे हो जायगा । समाजमें यदि वस्तुओंका मनमाना उपभोग लोग करते रहें, संयमका अंकुश अपने ऊपर न रखें, तो वर्ग-संघर्ष चलता ही रहेगा। अतएव आर्थिक वैषम्यको दूर करने के लिये इच्छाओं और लालसाओंका नियंत्रित करना परम आवश्यक है तभी समाज सुखी और समृद्धिशाली बन सकेगा।
अन्य प्राणियोंको किंचित् भी दुःख न देना प्राणिसंयम है । अर्थात् विश्वके समस्त प्राणियोंकी सुख-सुविधाओंका पूरा-पूरा ध्यान रखकर अपनी प्रवृत्ति करना, समाजके प्रति अपने कर्तव्यको सुचारूरूपसे सम्पादित करना एवं व्यक्तिगत स्वार्थभावनाको त्याग कर समस्त प्राणियों के कल्याणको भावनासे अपने प्रत्येक कार्यको करना प्राणि संयम है। इतना ध्र व सत्य है कि जब-तक समर्थ लोग संयम पालन नहीं करेंगे, तब तक निर्बलोंको पेट भर भोजन नहीं मिल सकेगा और न समाजका रहन-सहन ही ऊँचा हो सकेगा। आत्मशुद्धिके साथ सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाको सुदृढ़ करना और शासित एवं शासक या शोषित एवं शोषक इन वर्गभेदोंको समाप्त करना भी प्राणिसंयमका लक्ष्य है। ५८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्म-परम्परा
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उत्पादन और वितरणजन्य आर्थिक विषमताका सन्तुलन भी अपरिग्रहदाद और संयमवादद्वारा दूर किया जा सकता है | आज उत्पादनके ऊपर एक जाति, समाज या व्यक्तिका एकाधिकार होनेसे उसे कच्चे मालका संचय करना पड़ता है तथा तैयार किये गये पक्के मालको खपानेके लिए विश्वके किसी भी कोनेके बाजारपर वह अपना एकाधिकार स्थापित कर शोषण करता है । इस शोषण से आज समाज कराह रहा है । समाजका हर व्यक्ति त्रस्त है | किसीको भी शान्ति नहीं | स्वार्थपरताने समाजके घटक व्यक्तियोंको इतना संकीर्ण बना दिया है, जिससे वे अपने ही आनन्दमें मग्न हैं । अतएव इच्जाओको नियंत्रित कर जोवनमें संयमका आचरण करना परम आवश्यक है । समाजधर्मकी चौथो सोढ़ी: अहिंसाकी विराट् भावना
समाज में संघर्षका होना स्वाभाविक है, पर इस संघर्षको कैसे दूर किया जाय, यह अत्यन्त विचारणीय है । जिस प्रकार पशुवगं अपने संघर्षका सामना पशुबलसे करता है, क्या उसी प्रकार मनुष्य भी शक्तिके प्रयोग द्वारा संघर्षका प्रतिकार करे ? यदि मनुष्य भी पशुबलका प्रयोग करने लगे, तो फिर उसकी मनुष्यता क्या रहेगी ? अतः मनुष्यको उचित है कि यह विवेक और शिष्टता के साथ मानवोचित विधिका प्रयोग करे । वस्तुतः अत्याचारीको इच्छाके विरुद्ध अपने सारे आत्मबलको लगा देना ही संघर्षका अन्त करना है, यही अहिंसा है | अहिसा ही अन्याय और अत्याचारसे दोन दुर्बलोंको बचा सकती है । यहो विश्व के लिये सुख-शान्ति प्रदायक है। यही संसारका कल्याण करने वाली है, यही मानवका सच्चा धर्म है और यही है मानवताकी सच्ची कसौटी |
मानवकी यह विकारजन्य प्रवृत्ति है कि वह हिंसाका उत्तर हिंसासे झट दे देता है । यह बलवान बलवानकी लड़ाई है। समाज में सभी तो बलवान नहीं होते । अतः कमजोरों की रक्षा और उनके अधिकारोंकी प्राप्ति अहिंसाद्वारा ही सम्भव है | यह निर्बल, सबल, धनी, निर्धन, राक्षस और मनुष्य सभीका सहारा है । यह वह साधन है, जिसके प्रयोग द्वारा हिंसाके समस्त उपकरण व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं । पशुबलको पराजित कर आत्मबल अपना नया प्रकाश सर्वसाधारणको प्रदान करता है ।
इसमें सन्देह नहीं कि हिंसा विश्वमें पूर्ण शान्ति स्थापित करनेमें सबंधा असमर्थ है । प्रत्येक प्राणीका यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह आरामसे खाये और जीवन यापन करे । स्वयं 'जीओ और दूसरोंको जीने दो', यह सिद्धान्त समाज के लिये सर्वदा उपयोगी है । पर आज का मनुष्य स्वार्थ और अधिकारके वशीभूत हो वह स्वयं तो जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोंके
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जीवनको रंचमात्र भी परवाह नहीं करता है । आजका व्यक्ति चाहता है कि मैं अच्छे से अच्छा मोजन करूँ, अच्छी सवारी मुझे मिले। रहने के लिये अच्छा भव्य प्रासाद हो तथा मेरी आलमारी में सोने-चांदीका ढेर लगा रहे चाहे अन्य लोगोंके लिये खानेको सूखी रोटियाँ भी न मिलें, तन ढकनेको फटे- चिथड़े भी न हों। मेरे भोग-विलासके निमित्त सैकड़ोंके प्राण जायें, तो मुझे क्या ? इसप्रकार हम देखते हैं कि ये भावनाएं केवल व्यक्तिको ही नहीं, किन्तु समस्त समाजको हैं । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य दुःखो है ।
अविश्वासकी तोव्र भावना अन्य व्यक्तियोंका गला घोंटनेके लिये प्रेरित किये हुए है । अधिकारापहरण और कर्तव्य- अवहेलना समाजमें सर्वत्र व्याप्त हैं । निरकुंश और उच्छृंखल भोगवृत्ति मानवको बुद्धिका अपहण कर उसका पशुताकी ओर प्रत्यावर्तन कर रही है । सुखकी कल्पना स्वार्थ साधन और वासना पूतिमें परिसीमित हो समाजको अशान्त बनाये हुए है। हिंसा प्रतिहिंसा व्यक्ति और राष्ट्रके जोवनमें अनिवार्य सी हो गयी है । यही कारण है कि समाजका प्रत्येक सदस्य आज दुःखी है ।
मनुष्य में दो प्रकारका बल होता है - (१) आध्यात्मिक और (२) शारीरिक । अहिंसा मनुष्यको आध्याति तक प्रदान करती है। एय, दया, विनय प्रभृति आचरण अहिंसा के रूप हैं । कष्ट या विपत्तिके आ जाने पर उसे समभाव से सहना, हाय हाय नहीं करना, चित्तवृत्तियोको संयमित करना एवं सब प्रकारसे कष्टसहिष्णु बनना अहिंसा है और है यह आत्मबल । यह वह शक्ति है, जिसके प्रकट हो जाने पर व्यक्ति और समाज कष्टोंके पहाड़ोंको भी चूर-चूर कर डालते हैं। क्षमाशील बन जाने पर विरोध या प्रतिशोधको भावना समाजमें रह नहीं पातीं । अतएव अहिंसक आचरणका अर्थ है मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्र में सद्भावना और प्रेम रखना । अहिंसामें त्याग है, भोग नहीं । जहाँ राग-द्वेष है, वहाँ हिंसा अवश्य है । अतः समाजधर्म चौथी सीढ़ी पर चढ़नेके लिये आत्मशोधन या अहिंसक भावना अत्यावश्यक है । व्यक्तिका अहिंसक आचरण ही समाजको निर्भय, वीर एवं सहिष्णु बनाता है ।
समाज की पांचवीं सोढ़ी: सत्य या कूटनीतित्याग
कूटनीति और बोला ये दोनों ही समाज में अशान्ति - उत्पादक हैं । सत्य में वह शक्ति है, जिससे कूटनीतिजन्य अशान्तिकी ज्वाला शान्त हो सकती है । दूसरेको कष्ट पहुँचाने के उद्देश्यसे कटु वचन बोलना या अप्रिय भाषण करना मिथ्या भाषणके अन्न है ।
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यह स्मरणीय है कि सत्ता और धोखा ये दोनों ही समाजके अकल्याणकारक है। इन दोनोंका जना झठसे होता है। झठा व्यक्ति आत्मवंचना तो करता ही है, किन्तु समाजको भी जरित कर देता है। प्राय: देखा जाता है कि मिथ्या भाषणका आरम्: स्वार्थको भावनासे होता है। सत्मिहितवादशी भावना असत्यभाषण में बाधा है। स्वच्छन्दता, घृणा, प्रतिशोध जैसी भावनाएं असत्यभाषणसे हो उत्पन्न होती हैं, क्योंकि मानव समाजका समस्त व्यवहार वचनोंसे चलता है। बचोग दोष आ जानेरो समाजकी अपार क्षति होती हैं। लोकमें प्रसिद्धि भी है कि यो जिह्वामें विष और अमृत दोनों हैं । समाजको उन्नत स्तर पर लेजानेवाले अहिंसक वन अमृत और समाजको हानि पहुंचानेवाले वचन विष हैं। कोल माषण करना, निन्दा या चुगली करना, कठोर वचन बोलना और हँसी-मजाक काना रामाज-हितमें बाधक हैं। छेदन, भेदन, गारण, शोषण, अपहरण और ताड़न सम्बन्धों वचन भी हिसक होनेके कारण समाजको शान्तिमें बाधक हैं। अविश्वास, भयकारक, खेदजनक, सन्तापकारक अप्रिय वचन भी समाजको विघटित करते हैं। अतएव समाजको सुगठित, सम्बद्ध और प्रिय व्यवहार करनेवाला बनानेके हेतु सत्य वचन अत्यावश्यक है। भोगसामग्रीकी बहुलताके हेतु जो वचनोंका असंयमित व्यवहार किया आता है, वह भी अधिकार और कर्तवपके सन्तुलनका विघातक है। समाजमें सच्ची शान्ति, सत्य व्यवहार द्वारा ही उत्पन्न की जा सकती है और इसीप्रकारका व्यवहार जीवन में ईमानदारी और सच्चाई उत्पन्न कर सकता है । साधारण परिस्थितियों के बीच व्यक्तिका विकास अहिंसक वचनव्यवहार द्वारा सम्भव होता है। यह समस्त मनुष्यसमाज एक बृहत् परिवार है और इस वृहत् परिवारका सन्तुलन साधन और साध्यके सामंजस्य पर ही प्रतिष्ठित है । जो नैतिकता, अहिंसा और सत्यको जीवन में अपनाता है, वह समाजको सूखी और शान्त बनाता है। आत्मविकासके साथ समाजविकासका पूरा सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । मिथ्या मान्यताएँ, धर्मके संकल्पविकल्प, क्रिया काण्ड एवं धार्मिक सम्प्रदायोंके विभिन्न प्रकार आदि सभी सामाजिक जीवनको गतिविधिमें बाधक हैं। अन्धश्रद्धा और मिथ्या विश्वासोंका निराकरण भी समाजधर्मकी इस पांचवीं सोढ़ीपर चढ़नेसे होता है । अनुकम्पा, करुणा और सहानुभूतिका क्रियात्मक विकास भी सत्यव्यवहार द्वारा सम्भव है । जीवनके तनाव, कुण्ठाएँ, संग्रवृत्ति, स्वार्थपरता आदिका एकमात्र निदान अहिंसक वचन ही है।
समाजधर्मकी छठी सोदी : अस्तेय-भावना अस्तेयकी भावना समाजके सदस्योंके हृदयमें अन्य व्यक्यिोंके अधिकारों के
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लिए स्वाभाविक सम्मान जागृत करतो है । इसका वास्तविक रहस्य यह है कि दसरेके अधिकारोंपर हस्तक्षेप करना उचित नहीं, बल्कि प्रत्येक अवस्थामें सामाजिक या राष्ट्रीय हिसकी भावनाको ध्यानमें रखकर अपने कर्तव्यका पालन करना मावश्यक है । यह भूलना न होगा कि अधिकार वह सामाजिक वातावरण है, जो व्यक्तित्वकी वृद्धिके लिए आवश्यक और सहायक होता है। है । यदि इसका दुरुपयोग किया जाय तो समाजका विनाश अवश्यम्भावी हो जाय । अस्तेय-भावना एकाधिकारका विरोधकर समस्त समाजके अधिकारोंको सुरक्षित रखने पर जोर देती है। यह अविस्मरणीय है कि वैयक्तिक जीवनमें जो अधिकार और कर्तव्य एक दुसरेके आश्रित हैं वे एक ही वस्तुके दो रूप है । जब व्यक्ति अन्यकी सुविधाओंका ख्यालकर अधिकारका उपयोग करता है, तो वह अधिकार समाजके अनुशासनमें हितकर बन कर्तव्य बन जाता है. और जब केवल वैयक्तिक स्वत्व रक्षाके लिए उसका उपयोग किया जाता है, तो उस समय अधिकार अधिकार ही रह जाता है।
यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकारोंपर जोर दे और अन्यके अधिकारोंकी अवहेलना करे, तो उसे किसी भी अधिकारको प्राप्त करने का हक नहीं है । अधि. कार और कत्र्तव्यके उचित ज्ञानका प्रयोग करना हो सामाजिक जीवनके विकासका मार्ग है । अचौर्यको भावना इस समन्वयको ओर ही इंगित करती है।
मनुष्यको आवश्यकताएं बढ़ती जा रही हैं, जिनके फलस्वरूप शोषण और संचयवृत्ति समाजमें असमानता उत्पन्न कर रही है | व्यक्तिका ध्यान अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तक ही है। वह उचित और अनुचित ढंगसे धनसंचय कर अपनी कामनाओंको पूर्ति कर रहा है, जिससे विश्वमें अशान्ति है । अस्तेयकी भावना उत्तरोत्तर आवश्यकताओंको कम करती है। यदि इस भावनाका प्रचार विश्व में हो जाय, तो अनुचित ढंगसे धनार्जनके साधन समाप्त होकर संसारको गरीबी मिट सकती है।
समाजमें शारीरिक चोरी जितनी को जा सकती है उससे कहीं अधिक मानसिक । दूसरोंकी अच्छो वस्तुओंको देखकर जो हमारा मन ललचा जाता है या हमारे मन में उनके पानेको इच्छा हो जाती है, यह मानसिक चोरी है। द्रव्यचोरीको अपेक्षा भावचोरोका त्याग अनिवार्य है, क्योंकि भावनाएं ही द्रव्यचोरी कराने में सहायक होती हैं। भोजन, वस्त्र और निवास आदि आरम्भिक शारीरिक आवश्यकताओंसे अधिक संग्रह करना भी चोरीमें सम्मिलित है । यदि समाजका एक व्यक्ति आवश्यकतासे अधिक रखने लग जाय, तो स्वाभाविक ही है कि दूसरोंको वस्तुएं आवश्यकतापूतिके लिए भी नहीं मिल सकेंगो । ५९. : तीथंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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यदि दो जोड़ी कपड़ों के स्थानपर यदि कोई चारा जोड़ो कपड़े रखने लग जाय, तो इससे उसे दुसरे चौबीस व्यक्तियोंको वस्त्रहोन करना पड़ेगा। अत: किसी भी वस्तुका सीमित आवश्यकतासे अधिक संचय समाज-हितको दृष्टिसे अनु. चित है।
सस्ता समझकर चोरोंके द्वारा लाई गई वस्तुओंको खरीदना, चोरीका मार्ग बतलाना, अनजान व्यक्तियोंसे अधिक मूल्य लेना, अधिक मूल्यकी वस्तुओं में कम मूल्यवाली वस्तुओंको मिलाकर बेचना चोरी है। प्रायः देखा जाता है कि दूध बेचनेवाले व्यक्ति दूधमें पानी डालकर बेचते हैं । कपड़ा धोनेके सोड़ेमें चूना मिलाया जाता है। इसी प्रकार अन्य खाद्यसामग्रियों में लोभवश अशुद्ध और कम मूल्य के पदार्थ मिलाकर बेचना नितान्त वर्ण्य है । समाजधर्मकी सातवीं सीढ़ी : भोगवासना-नियन्त्रण
यो तो अहिंसक आचरणके अन्तर्गत समाजोपयोगी सभी नियन्त्रण सम्मि लित हो जाते है, पर स्पष्टरूपसे विचार करनेके हेतु वासना-नियन्त्रण या ब्रह्मचर्य भावनाका विश्लेषण आवश्यक है। यह आत्माको आन्तरिक शक्ति है और इसके द्वारा सामाजिक क्षमताओंकी वृद्धि की जाती है । वास्तवमें ब्रह्मचर्यकी साधना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही जीवनोंके लिए एक उपयोगी कला है। यह आचार-विचार और व्यवहारको बदलनेको साधमा है। इसके द्वारा जीवन सुन्दर, सुन्दरसर और सुन्दरतम बनता है । शारीरिक सौन्दर्यकी अपेक्षा आचरणका यह सौन्दर्य सहस्रगुणा श्रेष्ठ है। यह केवल व्यक्ति के जीवन के लिए ही सुखप्रद नहीं, अपितु समाजके कोटि-कोटि मानवोंके लिए उपादेय है । ___ आचरण व्यक्तिकी श्रेष्ठता और निकृष्टताका मापक यन्त्र है ! इसीके द्वारा जीवनकी उच्चता और उसके उच्चतम रहन-सहनके साधन अभिव्यक्त होते हैं। मनुष्यके आचार-विचार और व्यवहारसे बढ़कर कोई दूसरा प्रमाणपत्र नहीं, है, जो उसके जीवनको सच्चाईको प्रमाणित कर सके।
आचरणका पतन जीवनका पतन है और आचरणको उच्चता जीवनको उच्चता है। यदि रूढ़िवादवश किसी व्यक्तिका जन्म नीचकुलमें मान भी लिया जाय, तो इतने मात्रसे वह अपवित्र नहीं माना आ सकता। पतित वह है जिसका आचार-विचार निकृष्ट है और जो दिन-रात भोग-वासनामें डूबा
रहता है । जो कृत्रिम विलासिताके साधनोंका उपयोगकर अपने सौन्दर्यको . कृत्रिमरूपमें वृद्धि करना चाहते हैं उनके जीवन में विलासिता तो बढ़ती ही है,
कामविकार भी उद्दीप्त होते हैं, जिसके फलस्वरूप समाज भोतर-ही-भीतर खोखला होता जाता है।
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जो वासनाओंके प्रवाह में बहकर भोगोंमें अपनेको दुवा देता है, वह व्यक्ति समाज के लिए भी अभिशाप बन जाता है। मोगाधिक्यसे रोग उत्पन्न होते हैं, कार्य करनेकी क्षमता घटती है और समाजकी नीव खोखली होती है । अतएव सामाजिक विकास के लिए वासनाओंको नियंत्रित कर ब्रह्मचर्यं या स्वदा रसन्तोषकी भावना अत्यावश्यक है ।
ब्रह्मचर्यं साधना के दो रूप सम्भव हैं - (१) वासनाओंपर पूर्ण नियन्त्रण और (२) वासनाओंका केन्द्रीकरण । समाजके बीच गार्हस्थिक जीवन व्यतीत करते हुए वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण तो सबके लिए सम्भव नहीं, पर उनका केन्द्रीकरण सभी सदस्योंके लिए आवश्यक है । केन्द्रीकरणका अर्थ विवाहित जीवन व्यतीत करते हुए समाजकी अन्य स्त्रियोंको माता, बहिन और पुत्रीके समान समझकर विश्वव्यापी प्रेमका रूप प्रस्तुत करना । यहाँ यह विशेषरूपसे विचारणीव है कि अपनी पत्नीको भी अनियन्त्रित कामाचारका केन्द्र बनाना व्रतसे च्यूत होता है । एकपत्नीयतका आदर्श इसीलिए प्रस्तुत किया गया है कि जो आध्यात्मिक सम्तोष द्वार। अपनी वासनाको नहीं जीत सकते वे स्वपत्नी के ही साथ नियन्त्रितरूपसे काम- रोगको शान्त करें । आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्य की वृद्धिके लिए इच्छाओं पर नियन्त्रण रखना परमावश्यक है। सामाजिक और आत्मिक विकासकी दृष्टिसे ब्रह्मचर्य शब्दका अर्थ हो आत्माका आचरण है | अतः केवल जननेन्द्रिय संबंधी विषयविकारोंको रोकना पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं है । जो अन्य इन्द्रियोंके विषयोंके अधीन होकर केवल जननेन्द्रियसंबंधी विषयोंके रोकनेका प्रयत्न करता है, उसका वह प्रयत्न वायुकी भीत होता है । कानसे
कारकी बातें सुनना, नेत्रोंसे विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तुएँ देखना, जिह्वा से विकारोत्तेजक पदार्थोंका आस्वादन करना और घ्राणसे विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थों को सूंघना ब्रह्मचर्य के लिए तो बाघक है हो, पर समाज हितकी दृष्टिसे भो हानिकर है | मिथ्या आहार-विहारसे समाज में विकृति उत्पन्न होतो है, जिससे समाज अव्यवस्थित हो जाता है । सामाजिक अशान्तिका एक बहुत बड़ा कारण इन्द्रियसंबंधी अनुचित आवश्यकताओंकी वृद्धि है । अभक्ष्य भक्षण भी इसी इन्द्रियकी चपलताकै कारण व्यक्ति करता है ।
वस्तुतः सामाजिक दृष्टिले ब्रह्मचर्य - भावनाका रहस्य अधिकार और कर्त्तव्य के प्रति आदर भावना जागृत करना है। नैतिकता और बलप्रयोग ये दोनों विरोधी हैं। ब्रह्मचर्य की भावना स्वनिरीक्षण पर जोर देती है, जिसके द्वारा नैतिक जीवनका आरम्भ होता है । सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में संगठन-शक्ति की जागृति भी इसीके द्वारा होती है । संयमके अभाव में समाजकी व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं की जा सकती । यतः सामाजिक जोबनका आधार नैतिकता है । प्रायः
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देखा जाता है कि संसारमें छीना-झपटोको दो ही वस्तुएं हैं--१. कामिनी और २. कञ्चन । जबतक इन दोनोंके प्रति आन्तरिक संयमकी भावना उत्पन्न नहीं होगी, तबतक समाजमें शान्ति स्थापित नहीं होगी । अभिप्राय यह है कि जीवन निर्वाह-शारीरिक आवश्यकताओंकी पूतिके हेतु अपने चित्त हिस्सेसे अधिक ऐन्द्रियिक सामग्रीका उपयोग न करना सामाजिक ब्रह्मभावना है। आध्यात्म-समाजवाद
समाजवाद शोषणको रोककर वैयक्तिक सम्पत्तिका नियन्त्रण करता है । यह उत्पादनके साधन और वस्तुओंके वितरणपर समाजका अधिकार स्थापित कर समस्त समाजके सदस्योंको समता प्रदान करता है। प्रत्येक व्यक्तिको जीवित्त रहने और खाने-पीनेका अधिकार है तथा समाजको, व्यक्तिको कार्य देकर उससे श्रम करा लेना और आवश्यकतानुसार वस्तुओं की व्यवस्था कर देना अपेक्षित है । सम्पत्ति समाजकी समस्त शक्तियोंकी उपज है। उसमें सामाजिक शक्तिकी अपेक्षा, वैयक्तिक थमको भी कम महत्त्व प्राप्त नहीं है । सम्पत्ति सामाजिक रीति-रिवाजोंपर आधारित है । अतएव सम्पत्तिके हकोंकी भी उत्पत्ति सामाजिक रूपसे होती है। यदि सारा समाज सहयोग न दे, तो किसी भी प्रकारका उत्पादन सम्भव नहीं है । सामाजिक आवश्यकता व्यक्ति की आवश्यकताएँ हैं । अतएव व्यक्तिको अपनी-अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सामाजिक आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए सचेष्ट रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्तिको उस सीमातक वस्तुओं पर अधिकार करने का हक है, जहाँ तक उसे अपनेको पूर्ण बनाने में सहायता मिलती है। उसकी भूख, प्यास आदि उन प्राथमिक आवश्यकताओंकी पूर्ति अनिवार्य है, जिनकी पूतिके अभावमें वह अपने व्यक्तित्वका विकास नहीं कर पाता।
उस व्यक्तिको जोवनोपयोगी सामग्री प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं, जो जीनेके लिए काम नहीं करता है। दूसरेकी कमाईपर जीवित रहना अनैतिकता है । जिनको सम्पत्ति दूसरोंके थमका फल है, वे रामाजके श्रमभोगी सदस्य हैं। उन वस्तुओंके उपभोगका उन्हें कोई अधिकार नहीं, जिन वस्तुओंके अर्जनमें उन्होंने सीधे या परम्परारूप में सहयोग नहीं दिया है । समाजमें वह अपने भीतर ऐसे वर्गको सुरक्षित रखता है जो केवल स्वामित्वके कारण जिन्दा है । अतएव समाजशास्त्रीय दष्टिसे प्रत्येक व्यक्तिको श्रमकर अपने अधिकारको प्राप्त करना चाहिए। जो समाजके संचित धनको समान वितरण द्वारा समाजमें समत्व स्थापित करना चाहते हैं, वे अंधेरेमें हैं। यदि हम ग्रह मान भी लें कि पूंजीके समान वितरणसे समाजमें समत्व स्थापित होना सम्भव है, तो भी यह आशंका निरन्तर बनी रहेगी कि प्रत्येक व्यक्तिमें बुद्धि, क्षमता और शक्ति पृथक्-पृथक्
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रहनेके कारण यह समन चिरस्थायी नहीं हो सकता है । जब भी समाजके इन क्षमतापूर्ण व्यक्तियोंको अवसर मिलेगा, समाजमें आथिक असमता उत्पन्न हो ही जायगी। अतएव इस सम्भावनाको दूर करने लिए आध्यात्मिक समाजवाद अपेक्षित है। भौतिक समाजनादसे न तो नैतिक मल्योंको प्रतिष्ठा ही सम्भव है और नवयक्तिक स्वार्थकाअभावही। बक्त्तदा स्वार्थीका नियन्त्रण आध्यात्मिक आलोक में हो सम्भव है। नामको पहादिविशेष लिमीका स्थान ऊँचा और किसीका स्थान नीचा हो सकता है, पर आध्यात्मिक और नैतिक मूल्योंके मानदण्डानुसार समाजके सभी सदस्य ममान सिद्ध हो सकते हैं। परोपजीवी और आक्रामक व्यक्तियोंकी समाजमें कभी कमी नहीं रहती है । कानून या विधिका मार्ग सीमाएं स्थापित नहीं कर सकता। जहाँ कानन और विधि है, वहां उसके साथ उन्हें तोड़ने या न मानने की प्रवृत्ति भी विद्यमान है । अतएव आध्यात्मिक दृष्टिसे नैतिक मूल्योंकी प्रतिष्ठा कर समाज में समत्व स्थापित करना सम्भव है। सभी प्राणियोंको आत्मामें अनन्त शक्ति है, पर वह कर्मावरण के कारण आच्छादित है । कर्मका आवरण इतना विचित्र और विकट है कि आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रकट होने नहीं देता । जिस प्रकार सर्यका दिव्य प्रकाश मेघाच्छन्न रहनेसे अप्रकट रहता है उसी प्रकार कोके आवरणके कारण आत्माकी अनन्त शक्ति प्रकट नहीं होने पाती । जो व्यक्ति जितना पुरुषार्थ कर अहंता और ममताको दूर करता हुआ कर्मावरणको हटा देता है उसकी आत्मा उतनी ही शुद्ध होती जाती है । संसारके जितने प्राणी हैं सभीको आत्मामें समान शक्ति है। अतः विश्वकी समस्त आत्माएँ शक्तिको अपेक्षा तुल्य हैं और शक्ति-अभिव्यक्तिकी अपेक्षा उनमें असमानता है । आत्मा मूलतः समस्त विकार-भावोंसे रहित है । जो इस आत्मशक्तिको निष्ठा कर स्वरूपकी उपलब्धिके लिए प्रयास करता है उसको आत्मामें निजी गुण और शक्तियां प्रादुर्भूत हो जाती हैं । अतएव संक्षेपमें आत्माके स्वरूप, गुण और उनकी शक्तियोंको अवगत कर नेतिक और आध्यास्मिक मूल्योंको प्रतिष्ठा करनी चाहिए। सहानुभूति, आत्मप्रकाशन एवं समताकी साधना ऐसे मूल्यों के आधार हैं, जिनके अन्वयनसे समाजवादको प्रतिष्ठा सम्भव है । ये तथ्य सहानुभूति और आत्मप्रकाशनके पूर्व में बतलाये जा चुके हैं। समताके अनेक रूप सम्भव हैं । आचारको समता अहिंसा है, विचारों को समता अनेकान्त है, समाजकी समता भोगनियन्त्रण है और भाषाको समता उदार नीति है। समाजमें समता उत्पन्न करनेके लिए आचार और विचार इन दोनोंकी समता अत्यावश्यक है । प्रेम, करुणा, मैत्री, अहिंसा, अस्तेय, अब्रह्म, सत्याचरण समताके रूपान्तर हैं। वैर, घृणा, द्वेष, निन्दा, राग, लोभ, क्रोध विषमतामें सम्मिलित हैं।
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सामाजिक आचरणके लिए आत्मौपम्य दृष्टि अपेक्षित है । प्रत्येक आत्मा तात्त्विक दृष्टिसे कम है। अतः , घान, सौर मासे किको ग स्वयं सन्ताप पहुँचाना, न दूसरेसे सन्ताप पहुंचवाना, न सन्ताप पहुंचानेके लिए प्रेरित करना नैतिक मूल्योंकी व्यवस्थामें परिगणित है।
हमारे मनमें किसीके प्रति दुर्भावना है, तो मन अशान्त रहेगा; नाना प्रकारके संकल्प-विकल्प मनमें उत्पन्न होते रहेंगे और चित्त क्षुब्ध रहेगा । अतएव समाजवादको प्रतिष्ठाके हेतु प्रत्येक सदस्यका आचरण और कार्य दुर्भावना रहित अत्यन्त सावधानीके साथ होना चाहिए । नैतिक या अहिंसक मूल्योंके अभावमें न व्यक्ति जोवित रह सकता है, न परिवार और न समाज ही पनप सकता है । अपने अस्तित्वको सुरक्षित रखने के लिए ऐसा आचार और व्यवहार अपेक्षित होता है, जो स्वयं अपनेको रुचिकर हो। व्यक्ति, समाज और देशके सुख एवं शान्तिकी आधारशिला अध्यात्मवाद है। और इसके साथ अहिंसा, मंत्री और समताकी कड़ी जुड़ी हुई है | जो अभय देता है वह स्वयं भी अभय हो जाता है । जव दूसरोंको पर माना जाता है, तब भय उत्पन्न होता है और जब उन्हें आत्मवत् समझ लिया जाता है, तब भय नहीं रहता। सब उसके बन जाते हैं और वह सबका बन जाता है । अतएवं समताकी उपलब्धिके लिए तथा समाजवादको प्रतिष्ठित करनेके लिए निम्नलिखित तीन आधारोंपर जोवन-मूल्यों को व्यवस्था स्वीकार करनी चाहिए। मूल्यहीन समाज अत्यन्त अस्थिर और अव्यवस्थित होता है। निश्चयतः मूल्योंकी व्यवस्था हो समाजवादको प्रतिष्ठित कर सकती है।
१. स्वलक्ष्य मूल्य एवं अन्तरात्मक मूल्य-शारीरिक, आर्थिक और श्रम संबंधी मूल्योंके मिश्रण द्वारा जीवनको मूलभूत प्रवृत्तियोंसे ऊपर उठकर तुष्टि, प्रेम, समत्ता और विवेकको दृष्टिमें रखकर मूल्योंका निर्धारण ।
२. शाश्वत एवं स्थायो मूल्य–विवेक, निष्ठा, सद्वृत्ति और विचारसागजस्यकी दृष्टिसे मल्य निर्धारण । इस श्रेणी में क्षणिक विषयभोगको अपेक्षा शाश्वतिक आध्यात्मिक मूल्यों का महत्त्व । ज्ञान, कला, धर्म, शिव, सत्य सम्बन्धी मूल्य ।
३. सृजनात्मक मूल्य-उत्पादन, श्रम, जोबनोपभोग आदिसे सम्बद्ध मूल्य ।
संक्षेपम समाजवादको प्रतिमा भौतिक सिद्धान्तोंके आधारपर सम्भव न होकर अध्यात्म और नैतिकताके आधारपर ही सम्भव है।
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व्यक्ति और समाज : अन्योन्याश्रय सम्बन्ध
व्यक्तियोंके समह और उनके सम्बन्धोंसे समाजका निर्माण होता है। व्यक्ति जमेक सामामि साहोंका समय होता है, जो उसके बोच पाये जाने वाले सम्बन्धोंको प्रतिबिम्बित करते हैं। व्यक्ति के जीवनका प्रभाव समाजपर पड़ता है। व्यक्ति अपने व्यवहारसे अन्य सदस्योंको प्रभावित करता है और अन्य सदस्योंके व्यवहारसे स्वयं प्रभावित होता है । अत: व्यक्तिकी समस्त महत्वपूर्ण कियाएं एवं चेतनाको अवस्थाएँ सामाजिक परिस्थितियोंमें जन्म लेती हैं और इन्होंसे सामाजिक व्यक्तित्वका निर्माण होता है। __ व्यक्ति और समाज एक ही वस्तुके दो पहलू हैं । अनेक व्यक्ति मिलकर समाजका गठन करते हैं | उन व्यक्तियोंको विचार-धाराओं, संवेगों, आदतों आदिका पारस्परिक प्रभाव पड़ता है। अत: संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति और समाज इन दोनोंका अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । व्यक्तिके बिना समाजका अस्तित्व नहीं और समाजके अभावमें व्यक्तिके व्यक्तित्वका विकास सम्भव नहीं। आर्थिक समानता, न्यायिक समानता, मानव समानता, स्वतन्त्रता आदिका सम्बन्ध व्यक्तियोंके साथ है । व्यक्तिगत दक्षता समाजको पूर्णतया प्रभावित करती है । समाज-गठनके सिद्धान्तोंमें धर्म, संस्कृति, नैतिक सिद्धान्त, कर्तव्य-पालन, जीवनके आदर्श, काम्य-भोग आदि परिगणित हैं। अतएव सुखी, सम्पन्न और आदर्श समाजके निर्माण हेतु वैयवितक जीवनकी पवित्रता और आचारनिष्ठा भी अपेक्षित है।
सामान्यतः धार्मिक संस्कार और नैतिक विधि-विधान व्यक्ति के व्यक्तित्वको परिष्कृत करनेके लिये आवश्यक है । जिस समाजके घटक व्यक्ति सच्चरित्र, ज्ञानी और दृढ़संकल्पो होगें, उस ससाजका गठन भी उतना ही अधिक सुदढ़ होगा। व्यक्तिके समाज में जन्म लेते ही कुछ दायित्व या ऋण उसके सिरपर आ जाते हैं, जिन दायित्वों और ऋणोंको पूरा करनेके लिये उसे सामाजिक सम्बन्धोंके बीच चलना पड़ता है। शारीरिक, पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धोंका निर्वाह करते हए भी व्यक्ति इन सम्बन्धोंमें यासक्त न रहे। जीवनसे सभी प्रकारके कार्य करने पड़ते हैं, पर उन कार्योको कर्तव्य समझकर ही किया जाय, आसक्ति मानकर नहीं । यों तो वैयक्तिक जीवनका लक्ष्य निवृत्तिमूलक है । वह त्यागमार्गके बीच रहकर अपनी आत्माका उत्थान या कल्याण करता है । जीवनको उन्नत और समृद्ध बनानेके लिये आत्मशोधन करता है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारोंको आत्मासे पृथक् कर वह निष्काम कर्ममें प्रवृत्त होता है। अत: व्यक्ति और समाज इन दोनोंका पर५९६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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परमें अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है और परस्परमें दोनोंके सहयोगसे ही समाजका विकास और उन्नति होती है। समाजघटक, सामाजिक संस्थाएं एवं समाजमें नारीका स्थान
सामाजिक जीवनके अनेक घटक हैं। व्यक्ति माँके उदरसे जन्म लेता है। मां उसका पालन-पोषण करतो है । पिसा आर्थिक व्यवस्था करता है । भाईबहन एवं मुहल्लेके अन्य शिशु उसके साथी होते हैं। शिक्षाशालामें वह शिक्षकोंसे विद्याध्ययन करता है । बड़ा होनेपर उसका विवाह होता है। इस प्रकार एक मनुष्यका दूसरे मनुष्यके साथ अनेक प्रकारका सम्बन्ध स्थापित होता है। इन्हीं सम्बन्धोंसे वह बंधा हआ है। उसका स्वभाव और उसकी आवश्यकताएं इन सम्बन्धों में उसे रहने के लिए बाध्य करती हैं । फलतः मनुष्यको अपनी अस्तित्व-रक्षा और सम्बन्ध-निर्वाहके लिये समाजके बोच रहना पड़ता है । एकरूपता, सह्योग सहकारिता, संघटन और अन्योन्याश्रितता तो पशुओंके बीच भी पायो जाता है, किन्तु पशुओंमें क्रिया-प्रतिक्रियात्मक सम्बन्धों के निर्वाह एवं सम्बन्ध-सम्बन्धी प्रतिबोधका अभाव है। सामाजिक सम्बन्धोंके घटक अनेक तत्त्व हैं । इनमें निम्नलिखित तत्त्वों को प्रमुखता है
१. वैयक्तिक लाभके साथ सामहिक लाभकी ओर दृष्टि २. न्यायमार्गको वृत्ति ३. उन्नति और विकासके लिये स्पर्धा ४. कलह, प्रेम, एवं संघर्षके द्वारा सामाजिक क्रिया-प्रतिक्रिया । ५, मित्रताकी दृष्टि ६. उचित सम्मान-प्रदर्शन ७. परिवारका दायित्व ८. समानता और उदारताको दृष्टि ९. आरम-निरीक्षणको प्रवृत्ति १०. पाखण्ड-आडम्बरका त्याग ११. अनुशासनके प्रति आस्था १२. अर्जनके समान त्यागके प्रति अनुराग १३. कर्तव्यके प्रति जागरूकता १४. एकाधिकारका त्याग और स्वावलम्बनकी प्रवृत्ति १५. सेवा-मावता
सामाजिक जीवन अस्ओं और नैतिक नियमोंपर अवलम्बित है। रक्षाविधि और अस्तित्व-निर्वाह समाजके लिये आवश्यक है । सामाजका आर्थिक
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एवं राजनीतिक ढांचा लोकहितको भावनापर आश्रित है, तथा सामाजिक उन्नति और विकासके लिये सभीको समान अवसर प्राप्त हैं । अत: अहिंसा, दया, प्रम, सेवा और त्यागके आधारपर सामाजिक सम्बन्धोंका निर्वाह कुशलतापूर्वक सम्पन्न होता है।
अपने योग-क्षेमके लायक भरण-पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय, अत्याचार द्वारा धनार्जन करने का त्याग करना एवं आवश्यकतासे अधिक संचयन करना स्वस्थ समाजके निर्माणमें उपादेय हैं। अहिंसा और सत्यपर आत समाजव्यवस्था मनुष्यको केवल जीवित ही नहीं रखती, बल्कि उसे अचमा जीवन यापनके लिये प्रेरित करती है। मनुष्यको शक्तियोंका विकास समाज में ही होता है । कला, साहित्य, दर्शन, संगीत, धर्म आदिकी अभिव्यक्ति मनुष्यको सामाजिक चेतनाके फलस्वरूप ही होती है । ज्ञानका आदान-प्रदान भी सामाजिक सम्बन्धोंके बीच सम्भव होता है ! समाजमें ही समुदाय संघ और संस्थाएँ बनती हैं।
निसन्देह समाज एक समनता है और इसका गठन विशिष्ट उपादानोंके द्वारा होता है। तथा इसके भौतिक स्वरूपका निर्माण भावनोपेत मनुष्योंके द्वारा होता है। इसका आध्यात्मिक रूप विज्ञान, कला, धर्म, दर्शन आदिके द्वारा सुसम्पादित किया जाता है । अतः समाज एक ऐसी क्रियाशील समग्रता है, जिसके पीछे आध्यात्मिकता, नैतिक भावना और संकल्पात्मक वृत्तियोंके संश्लेषोंका रहना आवश्यक है। सामाजिक संस्था : स्वरूप और प्रकार
समाजके विभिन्न आदर्श और नियन्त्रण जनरीतियों, प्रथाओं और रूढ़ियों के रूपमें पाये जाते हैं। अतः नियन्त्रणमें व्यवस्था स्थापित करने एवं पारस्परिक निर्भयता बनाये रखनेके हेतु यह आवश्यक है कि उनको एक विशेष कार्यके आधारपर संगठित किया जाय। इस संगठनका नाम ही सामाजिक संस्था है। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकताकी पूर्ति के हेतु सामाजिक विरासतमें स्थापित सामूहिक व्यवहारोंका एक जटिल तथा धनिष्ट संघटन है। मानव सामूहिक हितोंकी रक्षा एवं आदर्शोके पालन करने के लिये सामाजिक संस्थाओंको जन्म देता है । इनका मूलाधार निश्चित आचार-व्यवहार और समान हित-सम्पादन है । अधिक समय तक एक ही रूपमें कतिपय मनुष्यों के व्यवहार और विश्वासोंका प्रचलन सामाजिक संस्थाओंको उत्पन्न करता है। ये मनष्योंकी सामहिक क्रियाओं, सामूहिक हितों, आदर्शों एवं एक ही प्रकारके रीति-रिवाजोंपर अव५९८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा
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लम्बित हैं। सामाजिक संस्थाओं में निम्नलिखित गुण और विशेषताएं पायी जाती हैं
१ सामाजिक संस्थाएँ प्रारम्भिक आवश्यकताओंकी पूर्तिका साधन होती हैं । २. सामाजिक संस्थाओं द्वारा सामाजिक नियन्त्रणका कार्य सम्पन्न होता है । ३. सामाजिक अओ और प्रजातिक व्यवहारोंका सम्पादन सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्भव है ।
४. अनुशासन और आदर्शको रक्षा इन्होंके द्वारा होती है।
५. इनका कोई निश्चित उद्देश्य होता है ।
६. नैतिक आदर्श और व्यवहारोंका सम्पादन इन्हींके द्वारा होता है ।
७. सामाजिक संस्थाएँ" ऐसे बन्वन हैं, जिनसे समाज मनुष्यों को सामूहिक रूपसे अपनी संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करनेके लिये बाध्य कर देता है; अतः - सामाजिक संस्थाओं के आदर्श और धारणाएं होती हैं, जिन्हें समाज अपनी संस्कृतिको रक्षाके लिये आवश्यक मानता है ।
८. सामाजिक संस्थाओं का संचालन आचार संहिताओं के आधारपर होता है । ९. प्रत्येक धर्म सम्प्रदायकी आवार-संहिता भिन्न होती है । अतः सामाजिक संस्थाओंका रूपगठन भो भिन्न धरातल पर सम्पन्न होता है ।
यों तो सामाजिक संस्थाएं अनेक हो सकती हैं, पर आध्यात्मिक चतना और लोक-जीवन के सम्पादनके लिये जिन सामाजिक संस्थाओंकी आवश्यकता है, वे निम्नलिखित हैं
१. चतुविध संघ-संस्था
२. आश्रम-संस्था
३. विवाह संस्था
४. कुल-संस्था
५. संस्कार-संस्था
६. परिवार संस्था
७. पुरुषार्थ संस्था
८. चैत्यालय संस्था
९.
गुणकर्माधारपर प्रतिष्ठित वर्णजातिसंस्था
इन संस्थाओं के सम्बन्त्रमें विशेष विवेचन करने की आश्यकता नहीं है ।
नामसे ही इनका स्वरूप स्पष्ट है ।
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वर्तमानमें समाजमें नारीका स्थान बहुत निम्न श्रेणीका हो रहा है । आज नारी भोगेषणाको पूर्तिका साधन मात्र रह गयी है। न उसे अध्ययन कर आत्मविकासके अवसर प्राप्त हैं और न वह धर्म एवं समाजके क्षेत्रमें बागे ही था सकती है। दासीके रूपमें नारीको जीवन यापन करना पड़ता है, उसके साथ होनेवाले सामाजिक दुर्व्यवहार प्रत्येक विचारशील व्यक्तिको खटकते हैं। नारीसमाजको देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे युगयुगान्तरसे इनकी आत्मा ही खरीद ली गयी है। अनमेल-विवाहने नारीको स्थितिको और गिरा दिया है। सामन्तयुगसे प्रभावित रहनेके कारण आज दहेज लेना-देना बड़प्पनका सूचक समझा जाता है । आज नारीका स्वतन्त्र व्यक्तित्व नहीं रहा है, पुरुषके व्यक्तित्वमें हो उसका व्यक्तित्व मिल गया है। अतः इस दयनीय स्थितिको उन्नत बनाना अत्यावश्यक है। यह भूलना न होगा कि नारो भी मनुष्य है और उसको भी अपनी उन्नतिका पूरा अधिकार प्राप्त है।
वर्तमान समाजने नारी और शूदके लिये वेदाध्ययन वर्जित किया है । यदि कदाचित् ये दोनों वर्ग किसोप्रकार वेदके शब्दोंको सुन लें, तो इनके कानमें शोशा गर्म कर डाल देना चाहिये 1 ऐसे निर्दयता एवं क्रूरतापूर्ण व्यवहार समाजके लिये कभी भी उचित नहीं हैं। नारो भी पुरुषके समान धर्मसाधन, कत्र्तव्यपालन आदि समाजके कार्यों को पूर्णतया कर सकती है । अतएव वत्तंमानमें समाज-गठनके लिये लिंग-भेद, वर्ग-भेद, जाति-भेद, धन-भेदके भावको दूर करना परमावश्यक है। नारीको सभी प्रकारके सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त होने चाहिये । भेद-भावकी खाई समाजको सम धरातलपर प्रतिष्ठित नहीं कर सकती है। नर-नारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी मनुष्य हैं और सबकी अपनी-अपनो उपयोगिता है। जो इनमें भेद-भाव उत्पन्न करते हैं, वे सामाजिक सिद्धान्तोंके प्रतिरोधी हैं । अत: समाजमें शान्तिसुखव्यवस्था स्थापित करनेके लिये मानवमात्रको समानताका अधिकार प्राप्त हाना चाहिये । तीर्थकर महावीरकी समाजव्यवस्थाको आधुनिक उपयोगिता
तीर्थकर महावीर द्वारा प्रतिपादित समाज-व्यवस्था आधुनिक भारतमें भी उपयोगी है | महावीरने नारीको जो उच्च स्थान प्रदान किया, आजके संविधानने भी नारोको वहो स्थान दिया है। वर्गभेद और जाति-भेदके विषको दूर करने के लिये महावीरने अपनी पीयूष-वाणी द्वारा समाजको उद्बोधित किया। उनकी समाज-व्यवस्था भी कर्मकाण्ड, लिंग, जाति, वर्ग आदि भेदोंसे मुक्त थी । इनकी ६०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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समाज-व्यवस्थाका आधार अध्यात्म, अहिंसा, नेतिक नियम और ऐसे धार्मिक नियम थे, जिनका सम्बन्ध किसी भी जाति, वर्ग या सम्प्रदायसे नहीं था। महावीरका सिद्धान्त है कि विश्व के समस्त प्राणियोंके साथ आस्मीयता, बन्धुता और एकताका अनुभव किया जाय । अहिंसा द्वारा सबके कल्याण और उन्नतिकी भावना उत्पन्न होतो है। इसके आचरणसे निर्भीकता, स्पष्टता, स्वतन्त्रता और सत्यता बढ़ती है। अहिंसाकी सीमा किसी देश, काल, और समाज तक सीमित नहीं है। अपितु इसकी सोमा सर्वदेश और सर्वकाल तक विस्तृत है। अहिंसासे हो विश्वास, आत्मीयता, पारस्परिक प्रेम एवं निष्ठा आदि गुण व्यक्त होते हैं । अहंकार, दम्भ, मिथ्या विश्वास, असहयोग आदिका अन्त भी अहिंसा द्वारा ही सम्भव है। यह एक ऐसा साधन है जो बड़े-से-बड़े साध्यको सिद्ध कर सकता है।
अहिंसात्मक प्रतिरोध अनेक व्यक्तियोंको इसीलिये निर्बल प्रतीत होता है कि उसके अनुयायियोंने प्रेमकी उत्पादक शक्तिको पूर्णतया पहचाना नहीं है । वास्तवमें यात्मीयता और एकताको भावनासे हो समाजमें स्थायित्व उत्पन्न होता है । यदि भावनाओंमें क्रोध, अभिमान, कपट, स्वाथ, राग-द्वेष आदि हैं, तो ऊपरसे भले ही दया या करुणाका आडम्बर दिखलायो पड़े, आन्तरिक विश्वास जागृत नहीं हो सकता । यदि हृदयमें प्रेम है, रक्षाको भावना है और है सहानुभूति एवं सहयोगको प्रवृत्ति, तो ऊपरका कठोर व्यवहार भी विश्वासोत्पादक होगा। इसमें सन्देह नहीं है कि अहिंसाके आधारपर प्रतिष्ठित समाज ही सुख और शान्तिका कारण बन सकता है।
शक्तिप्रयोगसम्बन्धी सिद्धान्तका विश्लेषण इंजिनियरिंग कलाके आलोक में किया जा सकता है। मनुष्यके स्वभाव और समाजमें अपार शक्ति है। इसके क्रोधादिके रूपमें फूट पड़नेसे रोकना चाहिये और प्रेमको प्रणाली द्वारा उपयोगी कार्यों में लगाना चाहिये । इस सिद्धान्तको यों समझा जा सकता है कि हम भापकी शक्तिको फूट पड़नेसे रोक कर वायलर और अन्य वस्तुओंको रक्षा करते हैं और इंजिनको शक्तिशाली बनाते हैं। इसोप्रकार हम व्यक्ति के अहंकार, काम, क्रोधादि दुर्गुणोंको फूट पड़ने से रोक सक और इन गुणोंका परिवर्तन अहिंसक शक्तिके रूपमें कर सकें, तो समाजका संचालित करने के लिये अपार शक्तिशाली व्यक्तिरूपो एजिन प्राप्त होता है।
एकताको भावना अहिंसाका ही रूप है। कलह, फट, द्वन्द्व और संघर्ष हिमा है। ये हिंसक भावनाएं सामाजिक जावन में एकता और पारस्परिक विश्वास उत्पन्न नहीं पार सकती हैं।
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यदि हम समाज के प्रत्येक सदस्यकै साथ समता, सहानुभूति और सहृदयताका व्यवहार करें, तो समाजके विकास में अवरोध पैदा नहीं हो सकता है ।
तीर्थंकर महावीरने समाज-व्यवस्थाके लिये दया, सहानुभूति, सहिष्णुता और नम्रताको साधन के रूप में प्रतिपादित किया है। ये चारों ही साधन वर्तमान समाज व्यवस्था के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। समाज के कष्टोंके प्रति दया एक अच्छा साधन है। इससे समाज में एकता और बन्बुत्वकी भावना उत्पन्न होती है । तीर्थंकर महावीरका सिद्धान्त है कि दवा प्रयोग ऐसा होना चाहिए, मनुष्य में दयनीयता की भावना उत्पन्न न हो और दया करनेवालों में अभिमानकी भावना जागृत न हो । समाज व्यवस्था के लिये दया, दान, संयम और शील आवश्यक तत्त्व हैं । इन तत्त्वों या गुणोंसे सहयोग की वृद्धि होती है । समाजकी समस्त विसंगतियाँ एवं कठिनाईयो उक्त साधनों द्वारा दूर हो जाती हैं ।
सहिष्णुता की भावना को भी समाज गठनके लिये आवश्यक माना गया है । मानव समाज एक शरीरके तुल्य है। शरीरमें जिस प्रकार अंगोपांग, नस, नाड़ियाँ अवस्थित रहती है, पर उन सबका सम्पोषण हृदयके रक्तसंचालन द्वारा होता है, इसी प्रकार समाज में विभिन्न स्वभाव और गुणधारी व्यक्ति निवास करते हैं। इन समस्त व्यक्तियोंकी शारीरिक एवं मानसिक योग्यताएँ भिन्न-भिन्न रहती हैं, पर इन समस्त सामाजिक सदस्योंको एकताके सूत्रमें अहिंसा के रूप प्रेम, सहानुभूति, नम्रता, सत्यता आदि आबद्ध करते है । नम्रता और सहानुभूतिको कमजोरी, कायरता और दुरभिमान नहीं माना जा सकता । इन गुणोंका अर्थ हीनता नहीं, किन्तु आत्मिक समानता है । भौतिक बड़प्पन, वर्गश्रेष्ठता, कुलीनता, धन और पदवियोंका महत्त्व आध्यात्मिक दृष्टिसे कुछ भी नहीं है । अतएव समाजको अहिंसात्मक शक्तियोंके द्वारा ही नियन्त्रित किया जा सकता है। अहिंसक आत्मनिग्रही बनकर समाजको एक निश्चित मार्गका प्रदर्शन करता है। वास्तवमें मानव समाजको यथार्थ आलोककी प्राप्ति राग-द्वेष और मोहको हटानेपर ही हो सकती है। अहिंसक विचारोंके साथ आचार, आहार-पान भी अहिंसक होना चाहिए ।
कत्तंव्य-कर्मोका सावधानी पूर्वक पालन करना तथा दुब्यंसन, द्यून क्रीड़ा, मांसभक्षण, मदिरापान, आखेट, वेश्यागमन, परस्त्रो सेवन एवं चौर्यकर्म आदि त्याग करना सामाजिक सदस्यताके लिये अपेक्षित है ।
धन एवं भोगोंकी आसुरी लालसाने व्यक्तिको तो नष्ट किया ही है, पर अगणित समाजको भी बर्बाद कर डाला है। आसुरी वासनाओंकी तृप्ति एक
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काल तो क्या त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है। अतएव न्याय-अन्याय, कर्त्तव्यअकर्तव्य, पुण्य-पाप आदिका विचार कर समाजको अहिंसक नीप्ति द्वारा व्यवस्थित करना चाहिये । इसमें सन्देह नहीं कि महावीरकी समाज-व्यवस्था आजके युगमें भी उतनी ही उपयोगी है, जिसनी उपयोगी उनके समयमें थी। महावीरने श्रमको जीवनका आवश्यक मूल्य बताया है । मानवीय मूल्योंमें इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। समाज धन या सम्पत्तिसे पूर्ण सुखका अनुभव नहीं कर सकता है। पर नीति और अध्यात्मके द्वारा तृष्णा, स्वार्थ और तुषका अन्त हो सकता है।
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उपसंहार महावीर : व्यक्तित्व-विश्लेषण
कांचन काया __ सात हाथ उन्नत शरीर, दिव्य काञ्चन आभा, आजानबाहु, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहनन आदिसे युक्त तीर्थकर महावीर तन और मन दोनोंसे ही अद्भुत सुन्दर थे । उनको लावण्य-छटा मनुष्योंको ही नहीं, देव, पशुपक्षी एव कीट-पतंगको भी सहजमें अपनी ओर आकृष्ट करतो यो। देवेन्द्र भी उनके दिव्य तेजसे आकृष्ट हो चरण-वन्दनके लिये आते, अणत मनुष्यसामन्तोंकी तो बात ही क्या।
उनके व्यक्तित्वको लोक-कल्याणकी भावनाने सजाया था, संवारा था । वे अपने भीतर विद्यमान शक्तिका स्फोटन कर प्रतिकूल कण्टकाकीर्ण मार्गको पुष्पावकीर्ण बनानेके लिये सचेष्ट थे। महावीर ऐसे नद थे, जो चट्टानोंका भेदन
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कर स्वयं अपने लिये पथका निर्माण करते हैं। वे निर्झर थे, कुलिका (नहर) नहीं। उन्होंने कठिन से कठिन तप कर, कामनाओं और वासनाओंपर विजय पा कर लोक-कल्याणका ऐसा उज्ज्वल मार्ग तैयार किया, जो प्राणिमात्रके लिये सहजगम्य और सुलभ था । कर्मयोगी
महावीरके व्यक्तित्व में कर्मयोगको साधना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। बे स्वयंबद्ध थे, स्वयं जागरुक थे और बोधप्रापिके लिये स्वयं प्रयत्नशील थे। न कोई उनका गुरु था और न किसी शास्त्रका आधार ही उन्होंने ग्रहण किया था । वे कर्मठ थे और स्वयं उन्होंने पथका निर्माण किया था। उनका जीवन भय, प्रलोभन, राग-द्वेष सभोसे मुक्त था । वे नील गगनके नीचे हिंस्र-जन्तुओंसे परिपूर्ण निर्जन बनोंमें कायोत्सर्ग मुद्रामें ध्यानस्थ हो जाते थे। वे कभी मृत्युछायासे आक्रान्त इमशानभूमिमें, कभी गिरि-कन्दराओंमें, कभी गगनचुम्बी उत्तुंग पर्वतोंके शिखर, कमी साख-कार, 15- निनाद करती हुई सरिताओंके तटोंपर और कभी जनाकीर्ण राजमार्गपर कायोत्सर्ग-मुद्रामें अचल और अडिगरूपसे ध्यानस्थ खड़े रहते थे। वे कर्मयोगी शरीरमें रहते हुए शरीरसे पृथक्, शरीरकी अनुभूतिसे भिन्न जीवनको आशा और मरणके भय से विमुक्त स्वको शोधमें संलग्न रहते थे।
कर्मयोगी महाबीरने अपने श्रम, साधना और तप द्वारा अणित प्रकारके उपसर्गोको सहन किया। कहीं सुन्दरियोंने उन्हें साधनासे विचलित करनेका प्रयास किया, तो कहीं दुष्ट और अज्ञानियोंने उन्हें नाना प्रकारको यातनाएं दीं, पर वे सब मौनरूपसे सहन करते रहे। न कभी मनमें ही विकार उत्पन्न हुआ और न तन हो विकृत हुआ । इस कर्मयोगीके समक्ष शाश्वत विरोधी प्राणी भो अपना वरभाव छोड़कर शान्तिका अनुभव करते थे | धन्य है महावीरका वह व्यक्तित्व, जिसने लोह पुरुषका सामर्थ्य प्राप्त किया और जिस व्यक्तित्वके समक्ष जादु, मणि, मन्त्र-तन्त्र सभी फीके थे । अद्भुत साहसो
महावीरके व्यक्तित्वमें साहस और सहिष्णुताका अपूर्व समावेश हुआ था । सिंह, सर्प जैसे हिस्र जन्तुओंके समक्ष वे निर्भयतापूर्वक उपस्थित हो उन्हें मौन रूपमें उद्बोधित कर सन्मार्गपर लाते थे। जरा, रोग और शारीरिक अवस्थाओंके उस घेरेको, जिसमें फैम कर प्राणी हाहाकार करता रहता है, महावीर साहसी बन मृत्यु-विजेताके रूप में उपस्थित रहते थे । महावीरने बड़े साहसके
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साथ परिवर्तित होते हुए मानवीय मूल्योंको स्थिरता प्रदान की और प्राणियोंमें निहित शक्तिका उद्घाटन कर उन्हें निर्भय बनाया। उन जैसा अपूर्व साहसी शताब्दियोंमें ही एकाध व्यक्ति पैदा होता है। शूलपाणि जैसे यक्षका आंतक और चण्डकौशिक जैसे सर्पको विषज्वाला इनके साहसके फलस्वरूप ही शमनको प्राप्त हुई। अनायं देशमें साधना करते हुए महावीरके स्वरूपसे अनभिज्ञ व्यक्तियोंने उन्हें गालियां दी, पाषाण बरसाए, दण्डोंसे पूजा की, देश-मशक और चीटियोंने काटा, पर महावीर अपने साहससे विचलित न हए । उनकी अपूर्व सहिष्णुता और अनुपम शान्ति विरोधियोंका हृदय परिवर्तित कर देती थी। वे प्रत्येक कष्टका साहसके साथ स्वागत करते, शरीरको आराम देनेके लिये न वस्त्र धारण करते, न पृथ्वी पर आसन बिछाकर शयन करते, न अपने लिये किसी वस्तुको कामना ही करते । उनके अनुपम धैर्यको देखकर देवराज इन्द्र भी नतमस्तक था । संगमदेवने महावीरके साहसकी अनेक प्रकारसे परीक्षा को, पर वे अडिग हिमालय ही बने रहे। लोक-प्रदीप _महायोग से लपविलसमें मनुगनीमा जलन है ! उन्होंने संसारके धनीभूत अज्ञान-अन्धकारको दूरकर सत्य और अनेकान्तके आलोकवारा जननेतृत्व किया था। घरका दीपक धरके कोनेमें ही प्रकाश करता है, उसका प्रकाश सीमित और धुंधला होता है, पर महावीर तो तीन लोकके दीपक थे। लोकत्रयको प्रकाशित किया था। महावोर ऐसे दीपक थे, जिसकी ज्योतिके स्पर्शने अगणित दीपोंको प्रज्वलिस किया था । अशानअन्धकारको हटा जनताको आवरण और बन्धनोंको तोड़नेका सन्देश दिया था। उन्होंने राग-द्वेष विकल्पोंको हटाकर आत्माको अखण्ड ज्ञान-दर्शन चैतन्यरूपमें अनुभव करनेका पथ आलोकित किया था। निश्चयसे देखनेगर आत्मापर बन्धन या आवरण है ही नहीं । अनन्त चैतन्यपर न कोई आवरण है और न कोई बन्धन | ये सब बन्धन और आवरण आरोपित हैं। जिसके घटमें ज्ञान-दीप प्रज्वलित है, उसके बन्धन और आवरण स्वतः क्षीण हैं । संकल्प-विकल्पोंका जाल स्वयमेव ही विलीन हो जाता है। करणामूति
महावीरका संवेदनशील हृदय करुणासे सदा द्रवित रहता था । वे अन्धविश्वास, मिथ्या आडम्बर और धर्मके नामपर होनेवाले हिंसा-ताण्डवसे अत्यन्त द्रवीभूत थे । 'यजीहिंसा हिसा न भवति' के नारेको बदलनेका संकल्प ६०६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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दयालु महावीरने ग्रहण किया और मानवताके ललाटपर अक्षय कुंकुमका विजय - तिलक लगाया । प्राणिमात्रको अन्तिम श्वांस तक स्वाधीनतापूर्वक जीवित रहने और कार्य करने का सही मार्ग निर्दिष्ट किया। हिमा, असत्य शोषण, संचय और कुशालसे संत्रस्त मानवताकी रक्षा की । वरतापूर्वक किये जानेवाले अश्वमेध, नरमेध आदिको दूर कर अहिंसा और मंत्री भावनाका प्रचार किया। वास्तव में तीर्थंकर महावोरके व्यक्तित्वमें करुणाका अपूर्व समवाय था । वे इस लोकके समस्त प्राणियों का आत्मविकास और लोककल्याण चाहते थे और तदनुकूल प्रयास करते थे । महावीर जैसा करुणाका मसोहा इस धराधामपर कभी कदाचित् हो जन्म ग्रहण करता है ।
दिव्य तपस्वी
महावीर उग्र, घोर एवं दिव्ध तपस्त्री थे । उनको यह नमः साधना विवेककी सीमा में समाहित थी। सहज सप था आकुलताका नामोनिशान नहीं और अन्तरंग में आनन्दको अजस्त्र धारा प्रवाहित हो रही थी। महावीर बाह्य तपके साधक नहीं अन्तस् तपके साधक थे। उनकी तपस्याके प्रभावमे जोवनकी समस्त अशुभ वृतियाँ शुभ रूप में परिणत होकर शुद्ध रूपको प्राप्त हुई थीं । न उन्हें गर्व था और न ग्लानि ही । अभिग्रहके अनुसार अहार मिल जाता, तो उसे ग्रहण कर लौट आते और न भी मिलता तो प्रसन्न चित्तसे अपनो साधनामें लीन रहते । वे लाभालाभको परिस्थिति में समरस थे । साधारण व्यक्तियोंकी कठिनाईयां आगे बढ़ने से रोक देती हैं, कभी-कभी उन्हें वापस भी लौटना पड़ता है, पर महावीर न कहीं रुके और न वे आगे बढ़ने से विमुख हुए। सच्चे अर्थों में वे दिव्य तपस्वी थे ।
लोककल्याण और लोकप्रियता
आकर्षक व्यक्तित्व के धनी महावीरके व्यक्तित्वकी सबसे बड़ी गहरायी लोककल्याण और लोकप्रियताको है। इन्होंने अपनी साधना द्वारा सिद्धि प्राप्त कर आत्म-कल्याणके साथ-साथ विश्वकल्याणकी प्रेरणा दी। सर्वोदय तीर्थंका प्रवत्तन कर अशान्त जनमानसको शान्ति प्रदान की । तीर्थंकर महावीर मानवमात्रका हो नहीं, प्राणिमात्रका उदय चाहते थे। फलतः सर्वजीव- समभाव और सर्वजातिसममभावका प्रवर्तन कर समस्त प्राणियों को उन्नसिके समान अवसर प्रदान करनेको घोषणा की। उनका सिद्धान्त था कि दूसरोंका बुरा चाहकर कोई अपना भला नहीं कर सकता । मानव-मानव के बीच भेद - भावकी जो दीवालें खड़ी की गयी हैं, वे अप्राकृतिक है। रंगभेद, वर्णभेद, जातिभेद,
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कुलभेद, देश और प्रान्तभेद आदि सभी मानवता के विघातक हैं। तनावका वातावरण और अविश्वासको खाईंको दूर करनेका एकमात्र साघन जनसामान्यको पारस्परिक सहयोग और कल्याणके लिये प्रेरित करना है ।
स्वर्ग के देव विभूति में कितने ही बड़े क्यों न हो, उनका स्वर्गं कितना हो सुन्दर और सुहावना क्यों न हो, पर वे मनुष्यसे महान नहीं । मनुष्य के त्याग और इन्द्रियसंयमके प्रति उन्हें भी नतमस्तक होना पड़ता है । मानव-मानaari कारण सभी मनुष्य समान हैं, जन्मसे कोई भी व्यक्ति न बड़ा है, न छोटा । कार्य, गुण, परिश्रम, त्याग, संयम ऐसे गुण हैं, जिनकी उपलब्धिसे कोई भी व्यक्ति महान् बन सकता है । जीवनका यथार्थ लक्ष्य आत्मस्वातन्त्र्यकी प्राप्ति है । कालका प्रवाह अनाहूत चला आ रहा है । जीवन क्षण, पल घड़ियोंमें कण-कण बिखर रहा है ! पार्श्ववर्ती स्तब्ध वातावरण में भी सूक्ष्मरूपसे अतीत और व्यय समाहित हैं । नव नवीन रूपोंमें प्रस्फुटित हो रहा है और वस्तुकी
व्यता भी यथार्थरूपमें स्थित है | इसप्रकार उत्पादादित्रयात्मकरूप वस्तु आत्मष्टाको तटस्थ वृत्तिकी ओर आकृष्ट करती है और यहाँ उसे जन कल्याणकी ओर ले जाती है ।
तोर्थंकर महावोर जन्मजात वीतराग थे। उनके व्यक्तित्वके कण-कणका निर्माण आत्मकल्याण और लोकहितके लिये हुआ था । लोककल्याण हो उनका इष्ट था और यही था उनका लक्ष्य। जोवनके प्रथम चरणसे हो उन्होंने जनकल्याणके लिये संघर्ष आरम्भ किया, पर उनका यह संघर्ष बाह्य शत्रुभोंसे नहीं था, अन्तरंग काम, क्रोधादि वासनाओंसे था । उन्होंने शाश्वत सत्यकी प्राप्ति के लिये राजवैभव, विलास, आमोद-प्रमोद आदिका त्याग किया और जनकल्याण में संलग्न हो गये ।
लोककल्याणके कारण ही तीर्थंकर महावीरने अपूर्वं लोकप्रियता प्राप्त की थी । वे जिस नगर या ग्रामसे निकलते थे, जनता उनकी अनुयायिनी बन जाती थी । मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी उनसे प्रेम करते थे। हिंसक, क्रूर और पिशाच भी अपनी वृत्तियों का त्यागकर महावीरकी शरण ग्रहण करते थे । वे तत्कालीन समाजकी कायरता, कदाचार और पापाचारको दूर करनेके लिये fferद्ध थे । अतः लोकप्रियताका प्राप्त होना उन्हें सहज था ।
स्वावलम्बी
महावीरके व्यक्तित्वकी अन्य विशेषताओंमें स्वावलम्बनकी वृत्ति भी है । 'अपना कार्यं स्वयं करो' के वे समर्थक थे । अब साधनाकालमें अपरिचयके
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कारण कुछ अज्ञ व्यक्ति उनका तिरस्कार करते, अपमान करते, शारीरिक यातनाएं देते, उस समय महावीर किसीकी सहायताको अपेक्षा नहीं करते थे। वे अपने पुरुषार्थ द्वारा ही कर्मोका नाश करना चाहते थे। जब इन्द्रने उनसे साधनामार्ग में सहायता करनेका अनुरोध किया, तब वे मौन भाषामें हुए कहने लगे-"देवेन्द्र , तुम भूल रहे हो । साधनाका मार्ग अपने-आपपर विजय प्राप्त करनेका मार्ग है। स्वयंकृत कर्मका शुभाशुभ फल व्यक्तिको अकेले ही भोगना पड़ता है। कर्मावरणको छिन्न करनेके लिये किसी अन्यको सहायता अपेक्षित नहीं है । यदि किसी व्यक्तिको किसी दूसरेके सुख-दुःख और जीवन-मरणका कर्ता माना जाय, तो यह महान् अज्ञान होगा और स्वयंकृत शुभाशुभ फल निष्फल हो जायेंगे। यह सत्य है कि किसी भी द्रव्यमें परका हस्तक्षेप नहीं चलता है। हस्तक्षेपकी भावना हो आक्रमणको प्रोत्साहित करती है। यदि हम अपने मनसे हस्तक्षेप करनेको भावनाको दूर कर दें, तो फिर हमारे अन्तसमें सहज में ही अनाक्रमणवृत्ति प्रादुर्भूत हो जायगी 1 आक्रमण प्रत्याक्रमणको जन्म देता है और यह आक्रमण-प्रत्याक्रमणको परम्परा विश्वशान्ति और आत्मिक शान्तिमें विघ्न उत्पन्न करती है।" इस प्रकार तीर्थकर महावीरके व्यक्तित्वमें स्वावलम्बन और स्वतन्त्रताको भावना पूर्णतया समाहित थी। अहिंसक
महावीरके व्यक्तित्वका सम्पूर्ण गठन ही अहिंसाके आधारपर हुआ है। मनुष्यको जैसे अपना अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, उसी तरह अन्य प्राणियोंको भी अपना अस्तित्व और सुख प्रिय है। अहिंसक व्यक्तित्वका प्रथम दृष्टिविन्दु सहअस्तित्व और सहिष्णुता है । सहिष्णुताके विना सहअस्तित्व सम्भव नहीं है । संसारमें अनन्त प्राणी हैं और उन्हें इस लोक में साथ-साथ रहना है। यदि वे एक दूसरेके अस्तित्वको आशंकित दृष्टिसे देखते रहें, सो अस्तित्वका संघर्ष कभी समाप्त नहीं हो सकता है । संघर्ष अशॉन्तिका कारण है और यही हिंसा है।
जीवनका वास्तविक विकास अहिंसाके आलोक में ही होता है । वैर-वैमनस्य द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार, लोभ-लालच, शोषण-दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाजको ध्वंसात्मक विकृतियां हैं, वे सब हिंसाके हो रूप हैं। मनुष्यका अन्सस् हिंसाके विवध प्रहारोंसे निरन्तर घायल होता रहता है। इन प्रहारों का शमन करनेके लिये अहिंसाकी दृष्टि और अहिंसक जीवन ही आवश्यक है। महावीरने केवल अहिंसाका उपदेश ही नहीं दिया, अपितु उसे अपने जीवन में उतारकर शत-प्रतिगत यथार्थता प्रदान की । उन्होंने अहिंसा
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के सिद्धान्त और व्यवहारपक्षको एक कर दिखला दिया। विरोधी विरोधीक प्रति भी उनके मनमें घृण नहीं थी, द्वेष नहीं था त्रे उत्पीड़क एवं धातकके प्रति भी मंगल कल्याणकी पवित्र भावना रखते थे । संगमदेव और शूलपाणि यक्ष जैसे उपसर्ग देनेवाले व्यक्तियों के प्रति भी उनके नेत्रोंमें करुणा थी । तीर्थंकर महावोरका अहिंसक जोवन क्रूर और निर्दय व्यक्तियोंके लिये भी आदर्श था ।
महावीरका सिद्धान्त था कि अग्निका शमन अग्निसे नहीं होता, इसके लिये tant आवश्यकता होती है । इसीप्रकार हिंसाका प्रतिकार हिंसासे नहीं, अहिंसासे होना चाहिये । जब तक सावन पवित्र नहीं, साध्य में पवित्रता आ नहीं सकती । हिंसा सुक्ष्मरूपमें व्यक्तिके व्यक्तित्वको अनन्त पर्तों में समाहित है । उसे निकालने के लिये सभी प्रकारके विकारों, वासनाओंका त्याग आवश्यक है । यही कारण है कि महावीरने जगतको बाह्य हिंसासे रोकने के पूर्व अपने अन्तरमें विद्यमान राग-द्वेषरूप भावहिंसाका त्याग किया और उनके व्यक्तित्वका प्रत्येक अणु अहिंसाकी ज्योति जागृत हो उठा। महावीरने अनुभव किया कि समस्त प्राणी तुल्य शक्तिधारी हैं, जो उनमें भेद-भाव करता है, उनकी शक्तिको समझने में भूल या किसी प्रकारका पक्षपात करता है, वह हिंसक है। दूसरों को कष्ट पहुँचाने के पूर्व ही विकृति आ जानेके कारण अपनी ही हिंसा हो जाती है ।
सचमुच में अहिंसा के साधक महावीरका व्यक्तित्व धन्य था और धन्य थी उनको संचरणशक्ति । वे बारह वर्षोंतक मौन रहकर मोह-ममताका त्याग कर अहिंसा की साधना में संलग्न रहे । महावीरके व्यक्तित्वको प्रमुख विशेषताओं में उनका अहिंसक व्यक्तित्व निर्मल आकाशके समान विशाल और समुद्रके समान अतल स्पर्शी है। उनकी अहिंसा में आग्रह नहीं था, उद्दण्डता नहीं थी, पक्षपात नहीं था और न किसी प्रकारका दुराव या छिपाव ही था। दया, प्रेम और विनम्रताने उनकी अहिंसक साधनाको सुसंस्कृत किया था ।
क्रांतिदृष्ट्रा
तीर्थंकर महावीरके व्यक्तित्वमें क्रान्तिकी चिनगारी आरम्भसे ही उपलब्ध होती है। वे व्यवहारकुशल, स्पष्ट वक्ता, निर्भीक साधक, अहिंसक, लोककल्याणकारी और जनमानस के अध्येता थे । चाटुकारिताकी नीतिसे वे सदा थे। उनके मन में आत्मविश्वासका दीपक सदा प्रज्वलित रहता था। धर्मके दुर नामपर होनेवाली हिंसाए और समाजके संगठनके नामपर विद्यमान भेद-भाव एवं आत्मसाधना स्थानपर शरीर साधनाको प्रमुखताने महावीरके मनमें किशोरावस्था से ही क्रान्सिका बीज - वपन किया था। रईसों और अमीरोंके यहाँ दास-दासीके रूप में शोषित नर-नारी महावीरके हृदयका अपूर्व मंथन करते
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थे । फलतः वे उस युगकी प्रमुख धर्म धारणा यज्ञ और क्रिया काण्डके विरोधी थे । उन दिनों में नर और नारी नीति और धर्मका आँचल छोड़ चुके थे । वे दोनों ही कामुकता पंसि थे । नारियों पक्षिवर, फील कर डकपको कमी हो रही थी | वे बन्धनों को तोड़ और लज्जाके आवरणको फेंक स्वच्छन्द बन चुकी थीं। पुरुषोंमें दानवी वासनाका प्राबल्य था। वे आचार-विचार-शीलसंयमका पल्ला छोड़ वासना पूर्तिको ही धर्म समझते थे। चारों ओर बलात्कार और अपहरणका तूफान उठ खड़ा हुआ था। चन्दना जैसो कितनी नारियोंका अपहरण अनिश हो रहा था । जनमानसका धरातल आत्माकी घवलतासे हटकर शरीरपर केन्द्रित हो गया था। भोग-विलास और कृत्रिमताका जीवन हो प्रमुख था । मदिरापान, द्यूतक्रोड़ा, पशुहिंसा, आदि जीवनको साधारण बातें श्रीं । बलिप्रथाने धर्मके रूपको और भी विकृत कर दिया था ।
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भौतिकताके जीवनकी पराकाष्ठा थी । धर्म और दर्शनके स्वरूपको औद्धत्य, स्वैराचार, हठ और दुराग्रहने खण्डित कर दिया था । वर्ग स्वार्थकी दूषित भावनाओंने अहिंसा, मैत्री और अपरिग्रहको आत्मसात् कर लिया था । फलतः समाजके लिये एक क्रान्तिकारी व्यक्तिको आवश्यकता थी । महावीरका व्यक्तित्व ऐसा ही क्रान्तिकारी था। उन्होंने मानव जगत में वास्तविक सुख और शान्तिकी द्वारा प्रवाहित की और मनुष्य के मनको स्वार्थ एवं विकृतियोंसे रोककर इसी धरतीको स्वर्ग बनानेका सन्देश दिया। महावीरने शताब्दियोंसे
to रही समाज - विकृतियों को दूरकर भारतको मिट्टीको चन्दन बनाया । वास्तवमें महावीरके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वको प्राप्तकर धरा पुलकित हो उठी, शत शत वसन्त खिल उठे। श्रद्धा, सुख और शान्तिकी त्रिवेणी प्रवाहित होने लगी । उनके क्रान्तिकारी व्यक्तित्वसे कोटि-कोटि मानव कृतार्थ हो गये । निस्सन्देह पतितों और मिरों को उठाना, उन्हें गले से लगाना और करस्पर्श द्वारा उनके व्यक्तित्वको परिष्कृत कर देना यही तो क्रान्तिकारीका लक्षण है । महावीरको क्रान्ति जड़ नहीं था, सचेतन थी और थी गतिसाल 1 जो अनुभवसिद्ध ज्ञानके शासनमें चल मुक्त चिन्तन द्वारा सत्यान्वेषण करता है, वही समाज में क्रान्ति ला सकता है ।
पुषोत्तम
महावीर पुरुषोत्तम थे। उनके बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के व्यक्तित्वमें अलौकिक गुण समाविष्ट थे । उनका रूप त्रिभुवनमोहक, तेज सूर्यको भी हतप्रभ बनानेवाला और सुख सुर-नर-नागनयनको सहर करते वाला था । उनके परमोदारिक दिव्य शरीरको जैसो छटा और आभा थी,
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उससे भी कहीं अधिक उनकी आत्माका दिव्य तेज था । अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्सवीर्य गुणोंके समावेशने उनके आत्मतेजको अलौकिक बना दिया था। निकामभावसे अनकल्याण करनेके कारण उनका आत्मबल अनुपम था। वे संसार-सरोवरमें रहते हुए भी कमलपत्रवत् निलित थे । उनका यह व्यक्तित्व पुरुषोत्तम विशेषणसे विशिष्ट किया जा सकता है।
यों तो महावीरके व्यक्तित्वमें एक महामानवके सभी गण प्राप्य थे, पर वे एक सच्चे ज्ञानी, मुक्तिनेता, कुशल उपदेष्टा और निर्भीक शिक्षक थे। जो भी उनकी वाणी सुनता, वही उनकी ओर आकृष्ट हो जाता । वे ऐसे ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी थे, जिन्हें 'घोरखंभचेर' कहा गया है। ब्रह्मचर्यको उत्कृष्ट साधना और अहिंसक अनुष्ठानने महावीरको पुरुषोत्तम बना दिया था। तपःपूत भगवान् महावीर तीर्थकर पुरुषोत्तम थे । श्रेष्ठ पुरुषोचित सभी गुणोंका समवाय उनमें प्राप्त था। निःस्वार्थ
महावीरके व्यक्तित्वमें निस्वार्थ साबक्रके समस्त गुण समवेत हैं । वे सपश्चरण और उत्कृष्ट शुभ अध्यवसायके कारण निरन्तर जागरूक थे। उन्हें सभी प्रकारको ऋद्धि-सिद्धियों कपलब्ध थीं,पर वे उनसे थे निलिप्त, आत्मकेन्द्रित, शान्त और योतराग। आत्मापर कठोर संयमकी वृत्ति रखनेके कारण उनमें विश्व बन्धुत्व समाहित था। ___ महावीर न उपसर्गोसे ही घबराते थे और न परीषह सहन करनेसे ही ।धे सभी प्रकारके स्वार्थ और विकारोंको जीतकर स्वतन्त्र या मुक्त होना चाहते थे । अनादिकालसे चैतन्य-ज्योति आवरणोंसे आच्छादित है । जिसने इन आवरणोंको हटाकर बन्धनोंको तोड़ा है, जो संकल्प-विकल्पोंसे मुक्त हुआ है और जिसने शरोर और इन्द्रियोंपर पड़ी हुई परतोंको हटाया है, वही नि:स्वार्थ जीवन यापम कर सकता है। तीर्थंकर महाचीरके व्यक्तित्व में यह निस्वार्थको प्रवृत्ति पूर्णतया वर्तमान थी। ___वस्तुतः तीर्थंकर महाबोरके व्यक्तित्वमें एक महामानवके सभी गुण विद्यमान थे। वे स्वयंबुद्ध और निर्भीक साधक थे और अहिंसा हो उनका साधनासूत्र था। उनके मनमें न कुण्ठाओंको स्थान प्राप्त था और न तनावोंको। प्रथम दर्शन में हो व्यक्ति उनके व्यक्तित्वसे प्रभावित हो जाता था। यही कारण है कि इन्द्रभूति गौतम जैसे तलस्पशी झानो पण्डिस भी महावीरके दर्शनमात्रसे प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गये । ६१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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________________ यह सार्वजनीन सत्य है कि यदि व्यक्तिके मुखपर तेज, छविमें सौन्दर्य, आँखों में आभा, ओठो पर मन्द मुस्कान, शरीरमें चारुता और अन्सरंगमें निश्छल प्रेम हो, तो वह सहजमें ही अन्य व्यक्तियोंको आकृष्ट कर लेता है / महावीरके बाह्य और अन्तरंग दोनों ही व्यक्तित्व अनुपम थे / उनका शारीरिक गठन, संस्थान और आकार जितना उत्तम था उतना ही वीतरागताका तेज भी दीप्ति युक्त था / वृषभके समान मांसल स्कन्ध, चक्रवर्तीके लक्षणों से युक्त पदकमल, लम्बी भुजाएँ, आकर्षक सौम्य चेहरा उनके बाह्य व्यक्तित्वको भव्यता प्रदान करते थे। साथ ही तपःसाधना, स्वावलम्बनवृत्ति, श्रमणत्वका आचार, तपोपलब्धि, संयम, सहिष्णुता, अद्भुत साहस, आत्मविश्वास आदि अन्तरंग गुण उनके आभ्यन्तर व्यक्तित्वको आलोकित करते थे। महावीर धर्मनेता, तीर्थकर, उपदेशक एवं संसारके मार्ग-दर्शक थे / जो भी उनकी शरण या छत्रच्छायामें पहुंचा, उसे ही आत्मिक शान्ति उपलब्ध हुई। निस्सन्देह वे विश्वके अद्वितीय क्रान्तिकारी, तत्वोपदेशक और जननेता थे। उनकी क्रान्ति एक क्षेत्र तक सीमित नहीं थी। उन्होंने सर्वतोमुखी क्रान्तिका शंखनाद किया, आध्यात्मिक, दर्शन, समाजव्यवस्था, धर्मानुष्ठान, तपश्चरण यहाँ तककी भाषाके क्षेत्रमें भी अपूर्व क्रान्तिको / तत्कालीन तापसोंकी तपस्याके बाह्यरूपके स्थानमें आभ्यन्तररूप प्रदान किया / पारस्परिक खण्डन-मण्डनमें निरत दार्शनिकोंको अनेकान्तवादका महामन्त्र प्रदान किया। सद्गुणों की अवमानना करने वाले जन्मगत जातिवादपर कठोर प्रहारकर गुणकर्मापारपर जातिव्यवस्थाका निरूपण किया। इन्होंने नारियोंकी खोयी हुई स्वतन्त्रता उन्हें प्रदान की। इस प्रकार महावीरका व्यक्तित्व आद्यन्त क्रान्ति, त्याग, तपस्या, संयम, अहिंसा आदिसे अनुप्राणित है / तीकर महावीर और उनको देशमा : 613