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सायिक सम्यग्दर्शन
मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोष, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य केवली या श्रुतकेवलोके पादमूलमें आरम्भ करता है।' इसकी पूर्णता चारों गतियों में सम्भव है। यह सम्यग्दर्शन छुटता नहीं है । जिसे क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्ति हो जाती है, यह उसी माहोक लाग्न र मेना है, अथवा तृतीय, चतुर्थ भवसे । चतुर्थ भवका अतिक्रमण नहीं कर सकता है। जिस क्षायिक सम्यग्दृष्टिने आयुका बन्ध कर लिया है, वह नरक या देवगतिमें उत्पन्न होता है और वहाँसे मनुष्य होकर मोक्ष प्राप्त करता है। चारों गतिसम्बन्धी आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्व हो सकता है। अतः बदायुष्क सम्यग्दृष्टिका चारों गतियोंमें जाना सम्भव है । यह नियम है कि सम्यक्त्वके कालमें यदि मनुष्य या लियंचके आयुका बन्ध होता है, तो नियमतः देवायु ही बंधती है । और नारकी तथा देवके नियमसे मनुष्य आयुका ही बंध होता है।'
सम्यग्दर्शन के अन्य भेव
सम्यग्दर्शनके निश्चयसम्यग्दर्श' और व्यवहारसम्यग्दर्शन ये दो भेद भी किये जाते हैं। शुद्धात्मकी श्रद्धा करना निश्चय सम्यग्दर्शन है और विपरीताभिनिवेश रहिस परमार्थ देव, शास्त्र, मुरुकी पच्चीस दोषरहित अष्टांगसहित श्रद्धा करना व्यवहारसम्यग्दर्शन है। अथवा जीवादि सात तत्त्वोंके विकल्पसे रहित शुद्ध आत्माके श्रद्धानको निश्चयसम्यग्दर्शन और सात तत्त्वोंके विकल्पोंसे सहित श्रद्धान करना व्यवहारसम्यग्दर्शन है । अध्यात्म-दृष्टि से सम्यग्दर्शनके सराग और वीतराग ये दो भेद सम्भव हैं। आत्म-विशुद्धिमात्रको वीतराग सम्यग्दर्शन और प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य इन चार गुणोंकी अभिव्यक्तिको सरागसम्यग्दर्शन कहते हैं।
१. सणमोहक्खवणापटुवगो कम्मभूमिजादो हु । मगुसो केवलिमूले णिटुवगो होदि सम्वत्व ॥
-गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गापा ६४७. २. चत्तारि वि खेत्ताई आउगबंधेण होदि सम्मतं । अणुवदमहत्वदाई ण लहा देवाउगं मोत्तुं ।।
-वही, गाथा ६५२. ४९८ : तोषंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा