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सुधर्मा सोचने लगा-"मेरे पचास वर्ष बीत गये। मैंने अभी तक अपनी मात्माका कुछ मी सुधार नहीं किया । ज्ञान और जासिके अहंकारमें डूबा रहा । न मैंने आत्म-साधना की और न कल्याण हो । वास्तवमें अहिंसा ही जीवनोत्थानका साधन है। जो व्यकि वैभव और विभूतियोंसे दबा रहता है, वह महान् नहीं बन सकता है। मानवको मानवताके सामने देव भी नतमस्तक हो जाते हैं । अतएव व्यतिको सदा सत्य, अहिंसा आदि मानवीय एवं ज्ञान-दर्शनादि आत्मीय गुणोंका साक्षात्कार करना चाहिये । मानवताके नाते सभी मानव समान हैं। जन्मसे कोई भी व्यक्ति न बड़ा है न छोटा। प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य-गुण मग नमसे गहावतः है। लाइव अब मुझे प्रवजित हो जाना आश्यक है।" ___ सुधर्माने ५० वर्षकी अवस्था दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। महामोरके गणघरोंमें इनका पांचवां स्थान था। सुधर्मा दीर्घजीवी थे। इन्होंने बहुत दिनों तक श्रमण संघका संचालन किया । मणिक : आत्मोदडोषन
मण्डिक सांख्य दर्शनका समर्थक था। उसे बन्ध-मोक्षके सम्बन्धमें आशंका थी। वह मौर्य-सन्निवेशका निवासी और वाशिष्ठगोत्री विद्वान् ब्राह्मण था। उसको माताका नाम विजयदेवी और पिताका नाम धनदेव था । वह ३५० छात्रोंका विद्यागुरु था। सोमिल आर्यके निमंत्रणपर यज्ञोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये मध्यमा पावामें आया हुआ था। मण्डिक स्वस्थ शरीर, गौरवर्ण और सात हाथ उम्नत्त था। उसके ज्ञानका प्रकाश पूर्वाञ्चलमें पूर्णतया व्याप्त पा। वेदकी अपेक्षा वह तर्कशास्त्र में अधिक निष्णात था। उसका शिष्यवर्ग दर्शन और सर्कमें विशेष निपुण था।
मण्डिकको इन्द्रभूति, वायुभूति आदिके दीक्षित होनेका समाचार उपलब्ध हुआ, तो उसके मनमें भी महावीरके समवशरणमें प्रविष्ट होनेकी भावना उत्पन्न हुई। मण्डिक सोचने लगा-"देवायं महावीरमें ऐसा कौन-सा चमत्कार है, जो बड़े-बड़े विद्वानोंको अपना शिष्य बना लेते हैं। इन्द्रभूति, अग्निभूति वैदिक कर्मकाण्डी विद्वान् थे।तर्क-शास्त्रसे वे प्रायः दूर थे। अतः सम्भव है कि महावीरने इन्हें सरलतासे प्रभावित कर लिया हो। मैं तो तर्कका पण्डित हूँ। मेरे समक्ष महावीर या उनका अन्य कोई शिष्य नहीं ठहर सकता। मैं आज जाकर महावीरसे अवश्य शास्त्रार्थ करूंगा और उन्हें पराजित कर अपनी यशःपताका फहराऊँगा।"
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १९३