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शिष्य इनके चरणों में बैठकर वेदाध्ययन करते थे। इनके मानकी धूम भी समस्त पूर्वाञ्चलमें व्याप्त थी । ये कोल्साग-सन्निवेशके निवासी बोर भारद्वाजगोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी माताका नाम वारुपी बोर पिताका नाम बनमित्र या। शुचिदत्त अपनी विवत्ताके लिये प्रॉसद्ध थे। इनके हृदय दृश्य जगत्के बस्तित्वके सम्बन्धमें आशंका विद्यमान थी। इन्हें भी अपने शानका दम्भ था और शास्त्रार्थमें बड़े-बड़े विद्वानोंको परास्त करनेकी क्षमता भी थी । __शुचिदत्त महावीरके समवसरणमें उपस्थित हया और महावीरके दर्शनमात्रसे उसको शंकामोंका समाधान हो गया। वह सोचने लगा-"महावीरका तेज अद्भुत है । इनके तेजके समक्ष सभीका तेज फीका पड़ जाता है । में देतवादको शंकामें अबतक पड़ा हवा था, पर वाब मेरी बांखें खल गयीं और मझे सत्यका साक्षात्कार हो गया। बतएव मुझे दीक्षा-सहन करनेमें बव विलम्ब नहीं करना चाहिये ।" ___ शुचिदत्तने ५० वर्षकी बवस्थामें दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की और महावीरके चतुर्थ गमघरका पद प्राप्त किया । शुधिदत्तका अन्य नाम वायव्य भी प्राप्त होता है। सुधर्मा : गोक्षा बोर यात्मशोषन ___महावीरके पंचम गवघरका नाम सुषर्मा है, जो सुधर्मा स्वामीके नामसे प्रसिद्ध हैं। ये कोल्लाम-सन्निवेश निवासी अग्निवेश्यायनगोत्रो काह्मण पं । इनको माताका नाम भदिदला और पिसाका नाम धम्मिल्ल था। ये भी बपने ५०० शिष्योंके साथ बायं सोमिलके यत्रोत्सवमें सम्मिलित होनेके हेतु मध्यमापावा पधारे थे।
बन इन्हें इन्द्रभूति, अग्निभूति आदिके दीक्षित होनेका वृत्त भास हया, तो इनके मनमें भी तीर्थंकर महायोरके दर्शनको इच्छा जागृत हुई और निर्मल वातावरणमें सीकर महावीरके समवशरणमें इन्होंने प्रवेश किया। मानस्तम्भके दर्शनमात्रसे मनका सारा कालुष्य घुल मया और मिप्यात्वका गलन होते ही आत्मामें पात्रता उत्पन्न हो गयो । सुधर्माको काललन्धि भी आ पहुंची और उनके मनमें भी वीतरागता प्रकट होने लगी। आज सुधर्माका कर्म-कालुष्य विसबिस होने जा रहा था बोर उनकी उज्ज्वलता, शुद्धता, निर्मलता और समता वृद्धिंगत हो रही थी। क्षणकी सत्ता विलक्षणतामें परिवर्तित हो रही थी। बारमाके महान शिल्पीके स्पर्शसे उनको सरागता उज्ज्वलतामें बदल रही थी। वे महावीरको सौम्प मुद्राके दर्शनसे बानन्दविमोर थे। १९२ : तीपंकर महावीर कौर उनको नाचार्य-परम्परा