________________
मण्डिक अपने ही विचार में डूबता उत्तराता अपने ३५० शिष्यों सहित विपुलाचलपर स्थित महावीर के समवशरणमें सम्मिलित हुआ। जैसे ही वह समयशरणके निकट पहुंचा कि उसके मनमें एक जोरका झटका लगा। ज्ञानका सारादम्म घुसा हो गया हो गये और सम्यक्त्वसूर्यका उदय हो गया । जो मण्डिक कुछ क्षण पूर्व महावीरकी आलोचना कर रहा या वही उनका स्तवन करने लगा। वह स्वरचित स्तोत्र पढ़ता जाता था और afest विह्वलताके कारण उसके राग-द्वेष घुलते जा रहे थे। भक्ति-गंगामें स्नान करते ही उसको अन्तरात्मा पवित्र हो गयी और वह दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण करनेके लिये उत्सुक हो उठा ।
५० वर्ष की अवस्था में मण्डिकने उद्बोधन प्राप्त किया और सोयंकर महावीरके पादभूलमें स्थित होकर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। अब मण्डिक वह मण्डिक नहीं रहा, जिसे अपने तर्क और ज्ञानका अहंकार था । आत्माकं मृदुल होते ही अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार और मिथ्यात्व, सभ्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन दर्शनमोहनीय इस प्रकार सात कर्म प्रकृतियों के क्षय होते ही मण्ठिक में परिवर्तन हो जाना स्वाभाविक था । मण्डिकने छठे गणधरका पद प्राप्त किया ।
मौर्यपुत्र: सम्यक्त्वलाभ
तीर्थंकर महावीरके सप्तम गणधर का नाम मौयं पुत्र है। ये मौर्यपुत्र काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिताका नाम मौर्य और माताका नाम विजयादेवी था । ये मौयं सन्निवेशग्रामवासी थे ।
मीयं पुत्र भी ३५० छात्रोंके अध्यापक थे और आर्य सोमिलके आमंत्रणपर मध्यमा पावामें पधारे थे । इन्हें परलोक, पुनर्जन्म आदिके सम्बन्धमें सन्देह था। अतएव अग्निभूति, इन्द्रभूति आदिको दीक्षाका समाचार ज्ञात कर ये भी तीर्थंकर महावीर के समवशरण में सम्मिलित हुए। महावीरके समवशरण के दर्शन करते हो इनकी आत्मा में सम्यक्त्वको लहर उत्पन्न हो गयी। ये सोचने लगे- "यह मानव जीवन क्या है ? इस विश्व में तो मत्स्यन्याय चल रहा है। जैसे समुद्रमें बड़ी मछली छोटी मछलीको निगल जाती है, उसी प्रकार यहाँ भी शक्तिशाली मनुष्य निर्बलको आक्रान्त कर देता है। जाति-पातिका बन्धन भी कम नहीं है । ब्राह्मणको अपनी विद्या और जातिका अभिमान है । भजन- भोजन एवं पठनपाठनपर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया है। वेदय वाणिज्यपर अपना अधिकार मानता है और जैसे-तैसे धन संचय करना ही अपना अधिकार समझता है । क्षत्रिय कुमार पर पीड़ा देने में हो आनन्दानुभूति करते हैं। शूद्रजाति सब ओरसे १९४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा