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प्रताड़ित हो रही है । बारमामें प्रज्वलित होती हुई ज्योतिका कोई अनुभव नहीं करता है । प्रत्येक आत्मा प्रयत्न करनेपर परमात्मा बन सकती है। अम्मसे व्यक्ति ऊंच-नीच नहीं होता, यह तो आचारपर निर्धारित है। अतः में तोथंकर महावीरकी शरणमें आकर मोटा करूगा इस बात को लिये सम्म कोई श्रेयस्कर कार्य नहीं है। उसका रोम-रोम पुलकित होने लगा और भोगोपभोगोंका त्याग करनेके लिये वह कृतसंकल्प हो गया।
राग-द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकार उसके छूटने लगे । "आत्मा अपने में अनन्तज्ञानादि गणोंकी झलक पाकर अपने वास्तविक स्वरूपको अनुभव करे और अपने सप्तप्रयत्नों द्वारा कर्म-कलंकसे छूटनेका प्रयास करे, तो उसका परमात्मा बन जाना कठिन नहीं है।"
"यह आत्मा शरीरादि अजीवसत्त्वोंसे मिन्न है। शान-दर्शन, सुख और वीर्य इसके अपने गुण हैं । यह पर-संयोगके कारण कलेशका अनुभव करती है। जहां पर-संयोग छूटता है कि आत्माको शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है। अगणिस शास्त्रोंके पढ़ लेनेपर भी आरमशान प्राप्त नहीं होता है। सम्यग्दर्शनके साथ आत्मामें तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञान पैदा होता है।" । ___ इस प्रकार चिन्तन करते हुए मौर्यपुत्रने सम्यक्त्व-लाभ कर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहका स्यागकर ६५ वर्षकी अवस्थामें दिगम्बर-दीक्षा धारण की। भकम्पिक : रिक्त पद्धाको पूर्ति
तीर्थकर महावीरके समवशरणको प्रसिद्धि सर्वत्र फेल गयी थी । विद्वानोंका समूह अपने विद्याके अहंकारको छोड़कर उनकी सभामें उपस्थित होने जा रहा था । अकम्पिक मी अहंकारके पंकसे ऊपर उठकर विपुलाचलकी ओर गया और उसने अष्टम गणधरका पद प्राप्त किया। · अकम्पिक मिथिलाका निवासी गौतम-गोत्रीय ब्राह्मण था। इनकी माताका नाम जयन्ती और पिताका नाम देव था। अकम्पिकके चरणों में बैठकर ३०० छात्र विद्याध्ययन करते थे । आर्य सोमिलके यश-महोत्सवका निमन्त्रण प्रासकर ये भी अपनी छात्र-मण्डलीके साथ मध्यमा पावामें पधारे थे। इनके हृदयमें नरकलोक और नारकी जीवोंके अस्तित्वके सम्बन्धमें शंका चली आ रही थी। जब अकम्पिकको महावीरके प्रभावका परिज्ञान हुआ तो वह भी उनके समवशरणकी ओर चला । उसने जैसे ही मानस्तम्भका दर्शन किया वैसे ही उसका जाति-अईकार नष्ट हो गया और वह आस्माको शाश्वत सत्ताके सम्बन्धमें
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १९५