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विचारने लगा - "आत्माके गुण निजी सम्पत्ति हैं। वे कहीं बाहरसे नहीं आते । इनकी उपलब्धिका अर्थ इतना ही है कि मिथ्यात्वभावके हटते ही इन गुणोंकी अनुभूति होने लगती है । जैसे सूर्यपरसे मेघका आवरण हटते ही सूर्यका भास्वर प्रकाश व्याप्त हो जाता है, उसी प्रकार आत्माकी विभावपरिणतिके दूर होते ही स्वभावपरिणति उत्पन्न हो जाती है । जब साधकके हृदयमें संसार की आशा और तृष्णाका अन्त हो जाता है, तत् साधकका चित्त सविकल्प- समाधि से निकलकर निर्विकल्प समाधिमें पहुँच जाता है और अपने पूर्व संचित कर्मोकी निर्जरा कर डालता है । यह निर्विकल्प समाधिभाव कहींसे आता नहीं है, यह तो स्वभावका रमण है । अतएव में भी इस अवसरका लाभ उठाकर महावीरके समक्ष दीक्षा ग्रहण कर लूँ ।"
अतएव अम्पिकने समस्त परिग्रहका त्याग कर ४८ वर्ष की अवस्थामें दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण को और अष्टम गणधरका पद प्राप्त किया ।
अचल : मिली साधना
महावीर और उनके प्रमुख शिष्योंके अन्तरंग और बहिरंग-परिग्रह त्यागकी चर्चा सर्वत्र व्याप्त थी । उनकी देशना जीवनके परत खोल रही थी। आत्माकी बद्धता और मुकताका कथन विचारशीलोंको आकृष्ट कर रहा था । अतः अचल भो तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें चलने की तैयारी करने लगा । वह कोशल-निवासी हारीतगोत्रीय ब्राह्मण था । उसकी माताका नाम नन्दा और पिताका नाम वसु था । ३०० छात्र उसके शिष्य थे। क्रियाकाण्ड, यज्ञविधान आदिका वह जाता था । व्यतः सोमिलाके यज्ञोत्सव में सम्मिलित होनेके लिये शिष्य परिवार सहित आया था। इसके मनमें पुण्य पापके अस्तित्व एवं उसके फलाफलके सम्बन्धमें आशंका थी । जीवनकी दृष्टि उलझी हुई थी। वह शरीर, इन्द्रियाँ और मनके विषयोंमें हो बानन्दानुभूति करता था। अनेक परतोंके नीचे दबे हुए जल स्रोतके समान उसकी चेतनाका विशुद्ध अस्तित्व भी विकारोंकी परतोंके नीचे दबा हुआ था। रूप, रस, गन्ध आदि भौतिक स्थितियोंकी अनुभूतिको ही उसने सर्वस्व मान लिया था ।
जब वह तीर्थंकर महावीरके समवशरण में प्रविष्ट हुआ तो राग-द्वेष और इनसे होनेवाली उत्तेजना, घृणा, ईर्ष्या, अहंकार आदि विकृतियां दूर हो गयीं । वह सोचने लगा- "मनपर विकारों, संस्कारों एवं अच्छे-बुरे विचारों की एक सघन तह जमी हुई है । मनके क्षुद्र आँगनमें नाना प्रकारकी विकृतियाँ उपस्थित हैं । विकृतियोंकी यह भीड़ ही शुद्ध चेतनाको प्रकट नहीं होने देती । विकृतियोंका १९६ तीर्थंकर महावीर और उनकी बाधायें-परम्परा