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आवरण ही चेतनाको अनन्तव्योतिको सभी बोरसे मावृत्त किये हुए है। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि अगणित विकृतियोंके भूल बीज हैं- राम और द्वेष | इसी राग-द्वेषसे मुक्त होनेकी दिशामें चेतनाका अपना पुरुषार्थ है । जथ चेतना विकृतियोंसे मुक्त होकर अपने विशुद्ध भूल स्वरूपमें पहुँच जाती है, तो यही परम चेतना बन जाती है। यही परम तत्व है और यही परमात्मा है। अतः परम तत्त्व या परम चैतन्यको प्राप्त करनेको आध्यात्मिक प्रक्रिया दिगम्बरदीक्षा है। यह दीक्षा ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप परम तत्त्वको प्राप्त करने में साधक है । अतएव मुझे दिगम्बर- दीक्षा ग्रहण कर परमात्मपद प्राप्त करनेके लिये प्रयास करना चाहिये । "
अचलने ४६ वर्षकी अवस्थामें तीर्थंकर महावीरके पादमूलमें दिगम्बरदीक्षा ग्रहण की और नवम गणधरका पद पाया ।
मेवार्य : जागा विवेक
मेदायं या मेतार्य वत्सदेशके निवासी और कौण्डिन्यगोत्रीय ब्राह्मण थे । इनकी माताका नाम वरुणदेवी और पिताका नाम दत्त था । ये ३०० छात्रोंके अध्यापक थे । आर्य सोमिल के निमन्त्रणपर मध्यमा पाचामें पधारे थे । इन्हें I आत्माके पुनर्जन्म और अस्तित्वके सम्बन्धमें आशंका थी । जब अन्य गणधरोंके समान इन्हें भी तीर्थंकर महावीरके समवशरणकी जानकारी प्राप्त हुई, तो ये भी तत्काल ज्ञानके अहंकारकी गठरी बांधे हुए आ पहुंचे और समवशरण में प्रविष्ट होते ही इनके ज्ञानचक्षु खुल गये। ये सोचने लगे- “याशिक-क्रियाकाण्ड आत्माको अमरत्व और शान्ति नहीं दे सकते । पञ्चाग्नि आदि तपश्चरण भी आत्मोपलब्धि में सहायक नहीं हैं । यतः दमनकी साधना यथार्थं सामना नहीं । वृत्तियोंका विवेक ही यथार्थ है । इनका अंघनिग्रह करके उन्हें शुद्ध नहीं बनाया जा सकता है । दमन द्वारा निगृहीत विकार या वृत्तियाँ पिंजड़े में बन्द किये गये भूखे सिंहके समान हैं। जैसे ही अवसर प्राप्त होता है, विकार पुनः उत्तेजित हो जाता है। महानदीकी जलधाराको कितने दिनोंतक बांधा जा सकता है ? अवसर मिलते ही जलधारा बांध तोड़ देती है और संहारलीला उपस्थित हो जाती है। अतएव दमन या पञ्चाग्नि तपके साधनों द्वारा विकारोंको जीता नहीं जा सकता है।"
"आत्मामें तीन प्रकारकी वृत्तियां उत्पन्न होती हैं— अशुभ, शुभ और शुद्ध । घन, स्त्री, पुत्र, मित्र आदि सम्बन्धी वृत्तियाँ राग-द्वेषका मूल होनेसे अशुभ है । इन अशुभ वृत्तियों की निवृत्ति दमनद्वारा सम्भव नहीं है। शुभ वृत्तियां आत्मायें परिष्कृत रागके कारण उत्पन्न होती हैं और वे आत्माके निकट पहुँचाती हैं । सीकर महावीर और उनकी देशना १९७