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वृत्तियोंका शुद्धिकरण तो राग-द्वेषकी निवृत्तिसे ही होता है। वीतरागता ही आत्माका निजरूप है और इसी स्थितिमें वृत्तियाँ शुद्ध होती हैं। मैं अनादिकालसे जन्म-मरणका दुःख उठा रहा हूँ। अब वीतरागत्ताकी प्राप्तिका अवसर आ चुका है। अतएव मुझे इस अवसरका उपयोग करना आवश्यक है।"
मेदार्यने ३६ वर्षकी अवस्थामै दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण कर महावीरका शिष्यत्व स्वीकार किया। इन्हें दशम गणघरका पद प्राप्त हुआ। प्रभास : पुरुषार्थ-जागरण
तीर्थकर महावीरका युग बहुदेववादका था । तत्कालीन जनजीवन भ्य, एवं प्रलोभनोंसे प्रताडित था | जनता दुःख और विपत्तियोंसे त्राण पानेके लिए देवताओंकीशरणमें जासी की और उन्हें मारनेके दिए यजामुन करतो यो । यक्ष, भूत, राक्षस सभी देवत्वको प्राप्त हो चुके ये आतं मानव उन यक्षों, भूतों, एवं राक्षसोंको प्रसन्न करनेके लिए विभिन्न प्रकारका अनुष्ठान करता था। यज्ञ-बलिकी तो बात ही क्या, शान्ति कमके नामपर मनुष्यों तकका हवन कर दिया जाता था।
मानव अपने पुरुषार्थको भूलकर दिग्भ्रमित हो देवोंसे ऐश्वर्यको भिक्षा मांगता था। धन, ऐश्वर्य, राज्य-शासन, विद्या, पुत्र, स्वास्थ्य आदि सभीकी प्राप्तिके लिए विशिष्ट-विशिष्ट देवोंको अर्चना की जाती थी। पुरुषार्थपर किसीको विश्वास नहीं था। अतः इस युगमें पुरुषार्थ प्राप्तिकी ओर ध्यान देना नितान्त आवश्यक था।
प्रमासने युगका अध्ययन किया और महावीरके समवशरणमें पहुँचनेका संकल्प किया।
यह कौडिन्यगोत्रीय ब्राह्मण था। इनकी माताका नाम अतिभद्रा और पिताका नाम बल था। यह राजगुहका निवासी था। ३०० छात्र उसके शिष्य थे। उसे भी आत्मा और मुखिके विषय में संदेह पा और श्रुति-वाक्योंका अर्थ भी यथार्थ शात नहीं था। महावीरके दर्शनमात्रसे प्रभासका पुरुषार्थ जागृत हो गया और उसने ४६ वर्षको अवस्थामें दिगम्बर दीक्षा स्वीकार की तथा एकादेश गणधरका स्थान प्राप्त किया। प्रथम वेशनास्थल : विपुलाचल
विपुलाचलपर बवसपिणीके चतुर्य कालके अन्तिम भागमें तेतीसवर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहनेपर श्रावण-कृष्णा प्रतिपदाके दिन अभिजित् नक्षत्र में धर्म१९८ : तीर्घकर महावीर बीर उनको आचार्य-परम्परा