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की पूर्ति के लिए उसने निर्दोष प्रजाका रक बहाने के हेतु कौशाम्बीपर आक्रमण किया था।
मृगावती अपने चातु से इस युद्धको टालना चाहती थी। उसने अपनो शील- रक्षा एवं युद्धको रोकनेका एक उपाय सोचा । उसने प्रद्योतके पास अपना सन्देश भेजा ---"अभी पतिशोक ताजा है। मुझे राज्य व्यवस्था भी करनी है तथा बालक उदयनको अवस्था छोटी है । अतएव सोचने-समझने के लिए अवसर दीजिए 1"
प्रद्योत रानी मृगावतीके इस सन्देशको अवगतकर प्रसन्न हुआ और वह अपनी सेनाको व्यवस्थित कर उज्जयिनी लोट गया ।
प्रद्योत मृगावतीके निमन्त्रणको प्रतीक्षा करते-करते थक गया । उसने कौशाम्बी कई पत्र लिखे, पर कोई उत्तर नहीं मिला । आखिर क्रोधित हो उसने कौशाम्बीपर पुनः आक्रमण कर दिया । रक्तपात होने ही वाला था कि महावीरके समवशरणकी धूम मच गयी। आबाल-वृद्ध सभी कौशाम्बी निवासी समवशरण में धर्मोपदेश सुनने के लिए जाने लगे । समवशरण कौशाम्बीके बाहर उद्यानमें अवस्थित था ।
रानी मृगावतीने विचार किया कि करुणासागर तीर्थंकर महावोरके समवशरणकी शरण ही इस युद्धकी विभीषिकासे रक्षा कर सकती है। अतः उसने नगरके द्वार खोल दिये और उनके दर्शनार्थ चल पड़ी ।
समवशरण में देशना हो रही थी । महाराज प्रद्योत भी तीर्थंकरकी वाणी सुन रहे थे। महावीरने वातावरणको शांत बनानेका सामयिक उपदेश दिया । क्रोध, मान आदि आन्तरिक शत्र ओपर विजय पाना ही सच्चा विजेता बनना हैं और यह विजय ही आत्माको विजय है । संसारमें अमृत और विष दोनों हैं, यह हमपर निर्भर है कि किसे ग्रहण करें । धर्मं अमृत प्राप्तिमें सहायक है, किन्तु आज धर्म और संस्कृतिकी बातको पाखण्डने आवृत कर दिया है । क्रियाकाण्ड, हिंसा, शोषण या जाति-वर्गभेद कभी धर्मके अंग नहीं हो सकते । धर्मका कार्य शांति और सुख प्रदान करना है ।
इस उपदेशका प्रभाव महारानी मृगावतीपर भी पड़ा और उसके हृदयमें त्यागवृत्ति जागृत हुई । उसने खड़े होकर राजा प्रद्योतसे संयमाराधना की अनुमति माँगी महाराजने सहर्ष आर्यिका दीक्षा ग्रहण करनेकी अनुमति प्रदान की । रानी हर्षविभोर हो कहने लगी- "आप मुझे प्रसन्नतापूर्वक अनुमति दे रहे है, तो मेरे पीछे मेरे पुत्र उदयनका दायित्व भी आपको लेना
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तोर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २५१