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कारण होता है । अन्तरंग धर्मके साथ बहिरंग धर्मको व्याप्ति है । जहाँ जिसजिस प्रमाण में अन्तरंग धर्मं पाया जाता है वहाँ उसके प्रतिपक्ष बाह्य असंयत प्रवृत्तिका अभाव भी अवश्य रहता है। अनन्तानुबन्धीकषाय तथा दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमादिसे सम्यग्दर्शनरूप धर्म उत्पन्न होता है । इस धर्मके उत्पन्न होते ही बहिरंग में भी निर्मलता आ जाती है और यह अन्तरंग निश्चयरूपधर्मं व्यवहारधर्मकी सिद्धिका सहायक होता है ।
कर्मबन्धके कारण मोह और योग हैं। मोहके तीन भेद है: - ( १ ) दर्शनमोहनीय, (२) कषायवेदनीय और (३) नोकषायवेदनीय । कषायवेदनीयका मेद अनन्तानुबन्धोका उदय सम्यग्दर्शनरूप धर्मका प्रतिपक्षी है। जब इसका उपशम, क्षय, क्षयोपशन होता है, तब अन्तरंग में धर्मंकी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है और आत्मा अपने स्वरूपको अनुभूति करती है ।
सम्यग्दर्शन : स्वरूपविवेचन
वस्तु अनन्तगुणधर्मोका अखण्ड पिण्ड है। इसके स्वरूपका परिज्ञान अनेकान्ता के होता है | चारित्ररूप धर्म रत्नभयका ही रूपान्तर है । इस धर्मका मूल स्तम्भ सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनके अभाव में न तो ज्ञान ही सम्यक् होता है और न चारित्र हो । सम्यगदर्शन आत्मसत्ताकी आस्था है और है स्वस्वरूपविषयक दृढनिश्चय । मैं कौन हूँ, क्या हूँ, कैसा हूँ, इसका निर्णय सम्यग्दर्शन द्वारा ही होता है। जड़-चेतनकी भेदप्रतीति भी सम्यग्दर्शनसे ही होती है । स्व और पर, आत्मा और अनारमा, चैतन्य एवं जड़की स्वस्वरूपोपलब्धिका साधन भी सम्यग्दर्शन ही होती है । सम्यग्दर्शनके आलोक में ही आरमा यह निश्चय करती है कि अनन्त अतीतमें जब पुद्गलका एक कण भी मेरा अपना नहीं हो सका है, तब अनन्त अनागतमें वह मेरा कैसे हो सकेगा | वर्तमान क्षण में तो उसे अपना मानना नितान्त भ्रम में 'में' हूँ और पुद्गल 'पुद्गल' है । आत्मा कभी पुद्गल नहीं हो सकती और पुद्गल कभी आत्मा नहीं ।
यह सत्य है कि पुद्गलोंकी सत्ता सर्वत्र विद्यमान है और उस सत्ताको कभी भी नष्ट नहीं किया जा सकता। इस विश्वके कण-कण में अनन्तकालसे पुद्गलोंकी सत्ता रही है और अनन्त भविष्य में भी सत्ता रहेगी। अतएव पुद्गलोके रहते हुए भी आके स्वरूपकी आस्था करना ही सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शनकी निम्नलिखित परिभाषाएं उपलब्ध होती हैं:
१. तत्त्वार्थश्रद्धा-सप्ततत्त्व और नो पदार्थो की प्रतीति । २. स्वपरश्रद्धा 'स्व' और परकी रुचि ।
४९२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
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