________________
प्रकृतियों का बन्ध होता है । जीव और पुद्गलमें निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । आत्माके प्रदेशों में रागादिके निमित्तसे बन्धे हुए पौद्गलिक कर्मोंके कारण यह आत्मा अपनेको भूलकर अनेक प्रकारसे रागादिरूप परिणमन करती है । इसके वैभाविक भावोंके निमित्तसे पुद्गलों में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो आत्माके विपरीत परिणमनमें कारण बनती है। इस प्रकार भावकर्मसे द्रव्यकर्म और द्रव्यकसे भात्रकर्मका बन्ध होता है और यही संसार है।
कर्मोंके निमित्तसे रागादिरूपसे परिणमन करनेवाली आत्मा के रागादि निजभाव नहीं है, क्योंकि जो निजभाव होता है बहु उसके स्वरूप में प्रविष्ट रहता है, पर रागादि तो आत्माके स्वरूप प्रविष्ट हुए बिना ऊपर हो ऊपर प्रतिफलित होते हैं । ज्ञानी आत्मा इस रहस्यको जानता है इसलिए वह धर्मविद है, किन्तु अज्ञाना तो आत्माको रामादिस्वरूप हो मानता है । यही मान्यता अधर्म है ।
धर्मका स्वरूप निर्धारण कई दृष्टियोंस किया गया है। जो मोक्षका मार्ग है, वह धर्म है और मोक्षका मार्ग रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । संक्षेप में धर्म उसोको कहा जा सकता है जो मुक्तिकी प्राप्तिका हेतु है या मुक्तिकी ओर ले जानेवाला है और जो इससे विपरीत है वह संसारका कारण होनेसे अधर्म है । धर्मकी निम्नलिखित परिभाषाएं संभव हैं:"
१. वस्तुस्वभाव 1
२. रत्नत्रय - सम्प्रदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यकूचारित्ररूप |
३. उत्तमक्षमादि दशलक्षणरूप |
४. दया – जीवका सरागभाव या शुभोगयोगरूप परिणति - आचार धर्मके विघातक मोह और भोग हैं। मोहके उपशम य एवं क्षयोपशमके होनेपर जो आत्मा में विशुद्धि उत्पन्न होती है, वहीं वास्तविक एवं भावरूप अन्तरंग धर्म है । बाह्य रूपमें जीव असंयमवाली प्रवृतियोंका करता है, उसे बहिरंग द्रव्यरूप धर्म कहते हैं। इन्द्रियों तथा मनके विषयसे निवृत्ति, हिंसा आदि पापों का त्याग एवं द्यूत आदि महाव्यमनास उपनि पहिरंग धर्म है । यह बहिरंग धर्म मोहनीय कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमके बिना मन्द मन्दतर और मन्दतम उदय की स्थिति होता है । बहिरंग धर्म अनेक अम्युदयोंके कारणभूत पुण्यन्धका हेतु होनेके अतिरिक्त अन्तरंग धर्मकी सिद्धिमें भो १. चरितं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति गिट्ठिी । मोहकलोही परिणामो अपगी हु समो ||
—प्रवचनसार गाथा - ७.
तोर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४९१