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भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि समस्त भोगोपभोग की सामग्री दस प्रकार के कल्पवृक्षोंसे प्राप्त होती है । पृथ्वी दर्पण के समान मणिमय छोटे-छोटे सुगन्धित तृणयुक्त होती है । भोगभूमि में माता के गर्भ से युगपत् स्त्री-पुरुषका युगल उत्पन्न होता है। यह घुगल ४९ दिनमें यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाता है । आयुके अन्त में पुरुष छींक लेकर और स्त्री जंमाई लेकर मरणको प्राप्त होते हैं। उनका शरीर शरत्कालके मेघके समान विलुप्त हो जाता है। ये भोगभूमिके सभी जीव मरण कर देवगतिको प्राप्त होते हैं ।
द्वितीयकाल में मध्यम भोगभूमि और तृतीयकालके आदिमें जघन्य भोगभूमिकी स्थिति रहती है । तृतीयकाल के अन्त में कर्मभूमिका प्रवेश होता है । इस कालमें जब पल्यका अष्टमांश शेष रह जाता है तो क्रमशः चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं। ये कुलकर जीवनवृत्ति एवं मनुष्यों को कुलकी तरह इकट्ठे रहनेका उपदेश देते हैं । चतुर्थकाल में चौबीस तीर्थंकर, द्वादश चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण और नव बलभद्र इन सठ शलाकापुरुषोंका जन्म होता है । पञ्चमका पर्यन्त मुनि, आर्यिका श्रावक और श्राविकारूप चतुविधसंघका अस्तित्व बना रहता है । पञ्चमकालके अन्त में धर्म, अग्नि और राजा इन तीनोंका नाश हो जाता है। छठे कालमें मनुष्य पशुको तरह नग्न, धर्मरहित और मांसाहारी होते हैं। इस कालके जीव मरकर नरक और तिर्यञ्च गति में ही जन्म धारण करते हैं ।
छठे कालमें वर्षा बहुत थोड़ी होती है तथा पृथ्वी रत्नादिक सारवस्तु रहित होती है । मनुष्य तीव्र कषाय युक्त होता है। इस कालके अन्तमें संवर्तक नामक पवन बड़े जोरसे चलता है, जिससे पर्वत, वृक्षादि चूर-चूर हो जाते हैं । बसनेवाले जीव मृत्युको प्राप्त होते हैं अथवा मूच्छित हो जाते हैं। कुछ मनुष्य विजय पर्वतको गुफाओं और महागंगा तथा महासिन्धु नदीको वेदियों में स्वयं प्रविष्ट हो जाते हैं । इस छटे कालके अन्तमें सात-सात दिन पर्यन्त क्रमशः (१) पवन (२) अत्यन्त शीत, (३) क्षाररस, (४) विष, (५) कठोर अग्नि, (६) धूल और (७) आकी वर्षा होती रहती है । इन उनचास दिनोंमें अवशिष्ट मनुष्यादिक जोव नष्ट हो जाते हैं। विष और अग्निकी वर्षा के कारण पृथ्वी एक याजन नीचे तक चूर-चूर हो जाती है । इसीका नाम प्रलय है । प्रलय भरत और ऐरावत क्षेत्रोंके आर्य खण्डों में हो होती है, अन्यत्र नहीं । अतः यह खण्डप्रलय कहलाती है । उत्सर्पण के दुःषम दुःषम नामक प्रथमकाल में सर्वप्रथम सात दिन जलवृष्टि, सात दिन दुग्धवृष्टि, सात दिन घृतवृष्टि और सात दिन तक अमृतवृष्टि होती
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४० ३