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है, जिससे पृथ्वी निवास करने योग्य संचिकण हो जाती है ! सारिकी वाके कारण वृक्ष, लता, औषध, गुल्म आदि वनस्पतियोंकी उत्पत्ति और वृद्धि होने लगती है। पृथ्वीकी शीतलता और सुगन्धताका अनुभव होते ही विजया तथा नदीको वेदिकाओंमें छिपे हुए जीव निकल आते हैं और धर्मरहिन नग्नरूपमें विचरण करते हैं। मृत्तिका आदिका आहार करते हैं। इस कालमें जीवोंको आयु और शरीर आदि बढ़ने लगते हैं। उत्सर्पणके दूसरे दु:षमकालमें एक हजार वर्ष अवशिष्ट रहनेपर फूलकर उत्पन्न होते हैं। ये कूलकर मनुष्योंको क्षत्रिय आदि कुलोंका आचार एवं अग्निसे अन्नादि पकाने की विधि सिखलाते हैं । इसके पश्चात् दुःषम-सुषम नामक तृतीय काल आता है, जिसमें प्रेसठ शलाकापुरुष जन्म ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् चतुर्थ, पञ्चम और षष्ठकालमें भोगभूमिका प्रवर्तन रहता है। ज्योतिषीदेव : वर्णन
ज्योतिषोदेवोंके अन्तर्गत सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारोंको गणना की गई है। चित्राभूमिसे मात सौ नब्बे योजन ऊपर तारे हैं। तारोंसे दस योजन ऊपर सूर्य और सूर्यसे अस्सी योजन ऊपर चन्द्रमा है। चन्द्रमासे चार सो योजन ऊपर नक्षत्र, नक्षत्रोंसे चार योजन ऊपर बुध, बुधसे तीन योजन ऊपर शुक्र, शुक्रसे तीन योजन ऊपर गुरु, गुरुसे तीन योजन ऊपर मंगल और मंगलसे तीन योजन ऊपर शनिश्चर है । बुधादि पाँच राहोंके अतिरिक्त तिरासी अन्य ग्रह भी हैं। इस प्रकार कुल ग्रहोंकी संख्या अट्टासी मानी गयी है ।
राहुके विमानका ध्वजदण्ड चन्द्रमाके विमानसे और केतुके विमानका ध्वजदण्ड सूर्य के विमानसे चार प्रमाणांगुल नीचे है । तथ्य यह है कि ज्योतिष्क जातिके देव मध्यलोकके अन्तर्गत ही विमानों में निवास करते हैं। इस ज्योतिष्कपटलकी मोटाई उर्ध्व और अधोदिशामें एकसौ दस योजन है और पूर्व तथा पश्चिम दिशाओंमें लोकके अन्तमें धनोदधिवातवलय पर्यन्त है तथा उत्तर और दक्षिण दिशा में एक राजू प्रमाण है । सुमेरु पर्वतके चारों ओर ग्यारह सौ इक्सीस योजन तक ज्योतिष्क विमानोंका सदभाव नहीं है । मनुष्यलोक पर्यन्त ज्योतिष्क विमान नित्य सुमेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं । जम्बूद्वीपमें ३६, लवण समुद्र में १३९, पातुकी खण्डमें १०१०, कालोदधिमें ४११२०,
और पुष्कराधमें ५३२३० प्रब तारे है 1 मनुष्यलोकसे बाहर समस्त ज्योतिष्क विमान अवस्थित है।
इन ज्योतिष्क विमानोंमें तिर्यक् कुछ अन्तर है और ऊपरो भाग आकाश
४०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा