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वंशज महाराज प्रजापतिको नतमस्तक हो प्रणाम करता है। कुशलप्रश्नके अनतर पत्रमें लिखा था-' -"मैं रथनूपुरनरेश अपनी कन्या स्वयंप्रमाका विवाह आपके पुत्र त्रिपृष्ठके साथ करना चाहता हूँ। हमारे वंशोंमें परम्परासे यह सम्बन्ध चला आ रहा है। हम दोनोंके विशुद्ध वंश सूर्य और चन्द्रमाके समान पहलेसे ही प्रसिद्ध हैं । अतएव आप मेरे इस सम्बन्धको स्वीकार करने या फौजिये ।" प्रजापति ज्वलनजीके इस पत्रको पढ़कर प्रसन्नत्तासे विभोर हो गया मौर उसने विनम्रतापूर्वक अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए पत्र लिखा - " नमिके वंशको सुशोभित करनेवाले महाराज ज्वल जटी की आज्ञा मुझे स्वीकार है । मैं अपने पुत्र त्रिपृष्ठके साथ आपकी कन्या वयंप्रभाके विबाहकी स्वीकृति प्रदान करता हूँ । इस विवाह सम्बन्वसे हम दोनों के वंशमें प्रेमभाव उत्पन्न होगा और चिरकालतक हमारे वंशोंमें सौहार्द, सहयोग एवं पारस्परिक प्रेमभाव बने रहेंगे ।"
प्रजापतिके इस पत्रको प्राप्तकर ज्वलनजटी प्रसन्न हुआ और वह पोदनपुर चलने को तैयारी करने लगा । उसने अपने प्रधान सेनापति और युवराज अर्क - कीर्तिको सेना तैयार करनेका आदेश दिया तथा अन्य आवश्यक यात्रोपयोगी सामान भी तैयार होने लगे । स्वयंप्रभा को भी साथ ले जानेके लिए तैयारी की जाने लगी । ज्वलनजटीने पुत्र अर्ककीर्तिको युवराजपदके साथ प्रधान सेनापतिका पद भी दिया था । अतएव उसने सेना तैयारकर पोदनपुरकी ओर प्रस्थान किया । जब ज्वलनजी ससैन्य पोदनपुरमें पहुँचा, तो पोदनपुरनरेशने ज्वलनटीका स्वागत किया और उसे मनोहर उद्यान में स्थान दिया 1
शुभ लग्न शोधा गया और विधिपूर्वक विवाहविधि सम्पादित को गयी । स्वयंप्रभा और त्रिपुष्ठका विवाह उसी प्रकार सम्पन्न हुआ, जिस प्रकार ऋषभदेव और सुनन्दाका विवाह सम्पन्न हुआ था । दुन्दुभि वाद्य बज रहे थे । सौभाग्यवती स्त्रियाँ मंगलगान गा रही थीं और पुरोधा मंगलमंत्रों का उच्चारण कर रहे थे ।
ज्वलनजटीने दहेज में अन्य पदार्थों के साथ सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी विद्याएं भी प्रदान की । विवाहोत्सव धूम-धामपूर्वक सम्पन्न हुआ । ज्वलननटी और प्रजापति दोनों ही इस विवाह से प्रसन्न थे ।
जब अश्वी को अपने गुप्तचरों द्वारा स्वयंप्रभाके विवाहका समाचार प्राप्त हुआ, तो उसका हृदय क्रोधाग्निसे जलने लगा । वह सोचने लगा कि "मेरे रहते हुए स्वयं प्रभाका विवाह त्रिपृष्ठके साथ कैसे सम्पन्न किया गया है। स्वयंप्रभा जैसी सुन्दरी तो मुझे मिलनी चाहिये थी। ज्वलनजटीने यह मेरा अपमान किया है । ४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य परम्परा