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में उपस्थित हुए । मन:पर्ययज्ञानी गौतमने मेघकुमार के अन्तस्को जान लिया और कहा- "मेघकुमार, तुम मुनियोंके व्यवहारसे उदासीन होकर घर जाना चाहते हो ? तुम्हें मुनियोंके आवागमनसे कष्ट हो रहा है ? तुम्हारे सोनेका स्थान सबके अन्तमें है, यह सब तुम्हारे लिए अपमानका कारण है । जब तुम राजकुमार अवस्थामें थे, तब सभी मुनि तुम्हारा आदर करते थे, पर अन दीक्षा में लघु होने के कारण समस्त मुनियोंको तुम्हें ही 'नमोऽस्तु' कहना पड़ता है। सभी साधुवर्ग मौन होकर साधना में संलग्न हैं, अतः तुमसे कोई बात-चीत भी नहीं करता । तुम्हें इन सब बातोंके कारण आन्तरिक वेदना हो रही है ।" मेघकुमार उक्त वातोंका क्या उत्तर देता ? तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के समक्ष उनका मस्तक नत हो गया । इन्द्रभूति द्वारा कही गयीं सभी बातें यथार्थ थीं।
इन्द्रभूति तोर्थंकर महावीरको दिव्यध्वनिका आधार ग्रहणकर कहने लगे - " वत्स, सभी मुनि तुम्हारे साथी हैं, साधनापथमें वे सभी तुम्हारे सहयात्री हैं | साधना कालमें मौन रहना आवश्यक होता है और यह भी अनिवार्य माना जाता है कि व्यर्थको बात-चीतकर समय नष्ट न किया जाय। विकथाओंकी चर्चा करना हेय माना गया है ।"
"साघना - व्रती के लिए मौन सबसे बड़ा बल माना गया है। मौनसे हृदयके भीतर एक ऐसी आग उत्पन्न होती है, जिसमें मनकी कलुषता जलकर भस्म हो जाती है । मौन मनके विकारभावोंको नियन्त्रित करनेका साधन है ।"
"अन्य मुनिवर्ग तुम्हारे प्रति इसीलिए उदासीन रहते हैं कि तुम अपने हृदयमें समभावको स्थिर रख सको। तुमने दीक्षा ग्रहण को है और तुम साधनापथपर चल रहे हो । अतः तुम्हारा किसीके द्वारा सम्मान किया जाय या न किया जाय, इससे क्या बनता - बिगड़ता है। आत्म-साधकको सो अपने प्रति सदा जागरूक रहना चाहिए। जिसे मान-अपमानका खयाल है, उससे आत्मसाधना संभव नहीं है । साधनाका उद्देश्य वीतरागता की प्राप्ति है। वीतराग ही निर्वाण-लाभ करता है ।"
इन्द्रभूति गणधरके उक्त वचनोंको सुनकर मेघकुमारके नेत्र खुल गये। उन्हें अपनो भूल ज्ञात हो गयी । उनकी वाणीने मेघकुमारके भीतर अमृत रस घोल दिया और वे मन-ही-मन पश्चात्ताप करने लगे ।
इन्द्रभूति पुनः कहने लगे - " वत्स ! तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो ? क्या थे ? पर मैं तुम्हारी पूर्वपर्यायोंको भलीभांति जानता हूँ । आजसे तीसरे भवमें तुम एक हाथी थे ।
२१८ : सीबंकर महावीर और उनकी वाचार्य-परम्परा