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महमा भाग
एक नि गये। बड़े जोरका तूफान व्याया । घरती आकाश सभी कुछ धूलसे भर गये। चारों ओर अन्धेरा छा गया । जीवजन्तु व्याकुल होकर इधर-उधर भागने लगे तुम्हें भी अपने प्राणोंकी चिन्ता हुई। तुम भी उस अन्धेरेमें भाग खड़े हुए। कहाँ जा रहे थे, कुछ पता नहीं, यतः सभी दिशाएँ तिमिराच्छन्न थीं। हाथों-हाथ दिखलायी नहीं पड़ता था ।"
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"आखिर तुम एक दल - दलमें जा फँसे । तुमने उस दलदल से बाहर निकलनेका अथक प्रयत्न किया, पर तुम निकल न सके । अब वर्षा बन्द हो गयी, बादल छूट गये और आंधी शांत हो गयी, तब दिशाएँ स्वच्छ हुई। अब तुम्हें ज्ञान हुआ कि तुम बड़ी कठिनाई में फँस गये हो । यहाँ उद्धार होना भी सम्भव नहीं । वनके हिंसक जीव-जन्तुओंने जब तुम्हें दल-दल में फँसा हुआ निस्सहाय देखा, तो मे तुम्हारे ऊपर टूट पड़े। तुम्हारा सारा शरीर उन्होंने नख और दाँतों क्षत-विक्षत कर दिया । तुमने प्राणोंका त्याग किया और यह दुर्भावना उत्पन्न की कि इन शत्रुओंसे प्रतिशोध लिया जाय । इस निदान के फलस्वरूप तुम पुनः विन्ध्याचल पर्वत पर हाथी के रूपमें उत्पन्न हुए ।"
"तुम्हारा शरीर भारी-भरकम था । तुम्हारे पदाघातसे धरती कांपती थी । वनके बड़े-बड़े हिंसक जीव-जन्तु भी तुम्हें देखते ही भयभीत हो जाते थे और तुम्हारा मार्ग छोड़कर एक ओर खड़े हो जाते थे । एक दिन तुम पुनः महाविपत्तिके आवर्त में फँस गये । उस वन में भीषण दावाग्नि लग गयी। पेड़-पौधे जलकर भस्म होने लगे । वनके साथ-साथ सहस्रों जीव-जन्तु भी समाप्त होने लगे ।"
"दावाग्नि के कारण वनके जीव-जन्तु अपनी रक्षा के लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ने लगे। तुम भी प्राणभयसे भागकर एक सुरक्षित स्थानपर खड़े हो गये । यह स्थान तुमने पहले से ही निरापद बनाया था । यहाँके पेड़-पौधे उखाड़कर सुँड़से जल छींटकर चौरस बना दिया था । अतः दावाग्निका प्रभाव इस स्थानपर नहीं था । यहाँ पर बहुत से पशु पहलेसे ही एकत्र थे । इस समय सभी पारस्परिक वैर-विरोध भाव छोड़कर अपने-अपने प्राण बचानेके लिए उपस्थित थे ! "
"तुम भी उस निरापद स्थानपर पहुँचकर एक ओर खड़े हो गये । बनके लघुकाय जीव तुम्हारे विशाल शरीरको आश्चर्य के साथ देख रहे थे। तुम हिमालयके तूहके समान खड़े हुए थे। तुम्हें देखकर भी वे प्राणी भयभीत नहीं हुए और न तुम्हारे मनमें ही अहंकार उत्पन्न हुआ । यतः उस समय सभीको स्थिति समान थी !"
ariकर महावीर और उनकी देशना २१९