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"अग्निदाहके कारण सहसा तुम्हारे एक पैरमें खाज पैदा हो उठी और तुम झुककर दूसरे पैरको खुजलाने लगे। जब खुजला चुके, तो फिर उठे हुए पैरको धरती पर रखने लगे, तो देखा कि एक खरगोशका छोटा-सा बच्चा तुम्हारे पैरको भूमिपर स्थित है। यदि इस समय तुम पृथवीपर पैर रख देते, तो निश्चय ही उस निरीह खरगोशका प्राणान्त हो जाता।"
वह कांप रहा था, भयभीत दृष्टिसे इधर-उधर देख रहा था । उसे देखकर तुम्हारे मनमें दया उत्पन्न हो गयी, अतः तुम घरतीपर अपना पैर न रख सके और तूफान शान्त होने तक अपने पैरको पर उठाकर तीन पैरोंपर ही खड़े रहे। दावाग्निक शान्त होनेपर अब बनके जीव-जन्तु अपने-अपने स्थानपर चले गये, तो उनके साथ ही वह खरगोशका बच्चा भी चला गया। अब तुमने अपने पैरको धरतीपर रखा। बहुत समय तक तीन पैरोंसे खड़े रहने के कारण तुम्हारे अंग जकड़ उठे। समस्त शरीरमें पीड़ा हो रही थी और अब खड़ा रहना भी सम्भव नहीं था ।अतः तुम गिर पड़े और तुम्हारा प्राणान्त हो गया ।"
"मृत्युके समय तुम्हारे परिणाम शान्त थे और तुम आत्म-चिन्तनमें लीन थे, अतः तुम्हें यह मनुष्य-पर्याय प्राप्त हुई। पशु-योनिमें खरगोश-शिशुके प्रति कष्ट उठाकर तुमने दया प्रदर्शित की थी, अतएव तुम्हें राजकुमारका पद प्राप्त हुआ तथा तुम्हारे हृदय में उज्ज्वल भावनाएं उत्पन्न हुई।"
अब तुम कल्याण-मार्गके निकट आकर क्यों पीछेको ओर मुड़ना चाहते हो ? पशुयोनिमें तुमने जो समभाव रखा और खरगोशके शिशुके प्रति जो दया दिखलायी, उससे तुम्हें यह फल प्राप्त हुआ । तुम्हारा नाम मेघ है, जिस प्रकार मेध समानरूपसे बिना किसी भेदभावके जलको वर्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम्हें भी सभीको समान समझना चाहिए। इस विश्वमें न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। कैच-नीच, उन्नत-अवनस, छोटे-बड़े सभी अपने-अपने कर्मोसे ही बनते हैं । अतः सत्कर्मोके प्रति अनुराग रखना आवश्यक है।"
"देवानुप्रिय ! तुम संयमके महत्त्वको समय गये होगे । भवरोगोंसेछूटनेके लिए संयम ही संजीवनी-बूटी है । जिस व्यक्तिने अपने जीवनमें संयमका अवलंबन ग्रहण कर लिया है, वह नियमतः इस भवबन्धनसे छुटकारा प्राप्त कर लेता है।"
मान-अपमान, आपत्ति-विपत्तिसे भयभीत होना तो कायरपुरुषोंका कर्म है। जो क्षात्रतेजसे सम्पन्न हैं, वे कभी किसी भी सांसारिक बातसे घबड़ाते नहीं । जीवनका लक्ष्य त्याग है, भोग नहीं । भोग तो अनादिकालसे प्राप्त होते २२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा