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आ रहे हैं, पर उनसे कभी तृप्ति नहीं हुई । अतः तुम अपनी महत्ताको समझ कर शाश्वत सत्यको प्राप्त करनेका प्रयास करो ।”
मेघकुमारके ज्ञान-वक्षु उद्घाटित हो गये । उसे अपनी पूर्वभवावको स्मृत हो गयी । जातिस्मरणकै कारण उसका चंचल मन स्थिर हो गया । वह सोचने लगा - "जो मानव सच्चे मनसे धर्माचरण करता है, अपने भीतरकी विकृतियोंपर विजय प्राप्त कर लेता है, अपने सोये हुए दिव्य भावको जगा लेता है, वह स्वर्गके देवताओंके द्वारा भी वन्दनीय हो जाता है। अहिंसा, संयम और तपकी ज्योति ही जीवनको आलोकित कर सकती है। निस्सन्देह भोगसे त्याग पराजित नहीं होता, त्यागसे ही भोग पराजित होते हैं।"
इस प्रकार स्थिर विचार होकर मेघकुमारने तीर्थंकर महावीरके पादमूलमें रहकर आत्म-साधना की और कर्म- कालिमाको नष्ट कर निर्वाण-लाभ किया । महावीर के सान्निध्यसे अनेक भव्य जीवोंने अपने भीतर ज्ञान दीप प्रज्वलित किया । वारिषेण: सौरभ
तीर्थंकर महावीरके उपदेशसे कल्याण करनेवालोंमें वारिषेणकी भी गणना है । वारिषेण थे तो राजकुमार पर श्रद्धा और विवेक में वे बहुत आगे थे । सम्राट् श्रेणिक इनके पिता और महारानी चेलना इनकी माता थीं। ये अत्यन्त गुणी और सम्यग्दृष्टि थे । निःशंक होकर व्रत-उपवासमें रत रहते थे । ये लौकिक कार्योंसे दूर और आत्म-चिन्तनमें समय यापन करते थे ।
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चतुर्दशीको श्याम रात्रि थी। चारों ओर घना अन्धकार आच्छादित था । वारिषेण उपवास ग्रहण कर श्मशान में सामायिक करनेके लिये इसी काली रात्रिमें पहुँच गये और एकान्त स्थानपर बैठकर आत्म ध्यानमें लीन हो गये ।
इसी रात्रिमें नगर में ऐसो घटना घटित हुई, जिससे वारिषेणकी जीवनधारा ही परिवर्तित हो गयी। बात यह हुई कि नगर में विद्युत नामका चोर रहता था । विद्युतकी एक प्रेमिका थी -- वारवधू । विद्युत उसे हृदयसे प्रेम करता था | वह जो कुछ कहती, विद्युत प्राण देकर भी उसे पूर्ण करनेका प्रयत्न करता था ।
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संयोगको बात, उस दिन रातमें जब वारवचूके घर गया, तो वह हावभाव प्रकट करती हुई कहने लगो - "यदि तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो, तो आज ही महारानी चेलनाका रत्नजटित स्वर्णहार चुराकर मेरे लिये ला दो। उस हारके विना मेरा गला सूना है ।"
महारानीका स्वर्णहार ! विद्युतके शरीर से पसीना निकलने लगा । स्वर्णहारको चुराकर लाना असम्भव है । राजभवन में दिन-रात संतरियों और सिपा
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना २२१