________________
हियोंका पहरा रहता है। संतरियों और सिपाहियोंको आँख बचाकर वह राजभवन में कैसे प्रवेश कर सकेगा ? यदि कहीं वह पकड़ा गया, तो अवश्य ही उसे प्राण- दण्ड प्राप्त होगा ।
I
विद्युतके प्राण काँप उठे । उसने वारवधूको बहुत समझाया कि वह उसके लिये अच्छे से अच्छा हीरक जटिल स्वर्णहार ला देगा। महारानीके स्वर्णहारका छोड़ दे पर वारवधू उसकी बातको स्वीकार ही नहीं करती। उसने स्पष्ट कह दिया कि यदि वह महारानीका स्वर्णहार लाकर न देगा, तो वह उससे अपना संबन्ध तोड़ लेगी ।
विद्युत हर मूल्यपर बारवधूको प्रसन्न रखना चाहता था ! वह उसके लिये संभव असंभव सब कुछ करने को तैयार था । आखिर वह प्राण हथेलीपर रखकर राजभवनकी ओर चल पड़ा। रात्रिका समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था । विद्युत बड़े साहस और कौशल के साथ राजभवन में प्रविष्ट हुआ । वह धीरे-धीरे महारानीके कमरेमें घुसा और स्वर्णहार लेकर राजभवन से बाहर निकल गया । राजपथपर उसे जाते हुए नगर कोतवालने देख लिया । हारकी चमक-दमकने विद्युतको आलोकित कर रखा था । अतः नगर कोतवालनं उसे उपटते हुए कहा - "खड़ा रह, कहाँ जा रहा है, तेरे हाथमें क्या है ?"
विद्युतने सोचा कि कोतवालने महारानीका स्वर्णहार देख लिया है। अतः वह भाग खड़ा हुआ | कोतवालने सिपाहियों सहित चोरका पीछा किया । विद्युत भागता - भागता श्मशान में पहुँचा और ध्यान में लीन चारिषेणके पास स्वर्णहार फेंककर चलता बना | नगर कोतवाल भी कुछ क्षणोंके पश्चात् वारिषेणके पास जा पहुँचा । वारिषेण ध्यानमें मग्न थे और स्वर्णहार उनके पास पड़ा हुआ था | कोतवालने स्वर्णहार उठा लिया और साथमें वारिषेणको भी बन्दी बना लिया । कोतवाल सोचने लगा- " अवश्य ही इसने स्वर्णहार चुराया है और अपनी चोरीको छिपाने लिये तपस्याका ढोंग रचे हुए है। चोर अनेक प्रकारके अभिनय करते हैं । यह भी इसी कोटिका चोर है ।"
नगर- कोतवालने स्वर्णं हार के साथ वारिषेणको न्यायालय में उपस्थित किया । श्रेणिक बिम्बसार स्वयं न्यायके आसनपर विराजमान थे। महारानी चेलनाके स्वर्णहारके चोरके रूपमें अपने पुत्र वारिषेणको देखकर वे विचारमग्न हो उठे । क्या यह संभव हो सकता है कि वारिषेण जैसा निर्लिप्त राजकुमार अपनी माताके ही स्वर्णहारकी चोरी करेगा ? कुमार वारिषेणकी यह प्रवृत्ति तो रही नहीं, पर जितनी गवाहियाँ वहाँ प्रस्तुत की गयीं, वे सब वारिषेणके विरुद्ध में थीं | सभी प्रमाणों और साक्षियोंसे यही सिद्ध होता था कि वारिषेणने हो स्वर्ण२२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य- परम्परा