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जीवन विपन्न हो जाता है। अतः अभी हम लोग आपको दीक्षित होनेको अनुमति नहीं देंगी।" ____ मेघकुमारके विरक्तिमय भावोंको परिवर्तित करनेकी दृष्टिसे वे नानाप्रकारके हाव-भाव और कटाक्षोसे उसे पथ-विचलित करने लगी। जितेन्द्रिय मेघकुमारके मनपर इस प्रकारके विकारो भावोंका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । लास्त्र चेष्टाएँ करनेपर भी वे उन्हें पथभ्रष्ट न कर पायौं ।
जब मेघकुमारकी रानियोंको उसकी दृढ़ताका परिचय प्राप्त हो गया, तो वे भी लाचार हो गयीं और उन्हें भी पराभूत होकर मेघकुमारको अनुमति देनी पड़ी।
परिवारके सभी सदस्योंसे स्वीकृति प्राप्तकर मेघकुमार अत्यधिक प्रसन्न हुआ और वह सीधे चलकर राजगहमें अवस्थित महावीरके समवरणमें पहुंचा। उसने गौतम स्वामीसे निवेदन किया-"प्रमो! मैंने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण करने को अपने परिवारसे अनुमति प्राप्त कर ली है । अतएव अब मुझे भी आरम-कल्याण करनेका अवसर दिया जाय । तीर्थकर महावीरकी शरण हो मेरे लिए सर्वस्व है।"
मेधकुमारने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली और वह अन्य मुनियोंके समान आत्म-शोधनमें प्रवृत्त हुआ।
मेघकुमार बिहार में अन्य मुनियोंके साथ भूमिपर शयन करते थे। सबसे बादमें दीक्षित होनेके कारण ये लघुमुनि कहलाते थे। इन्हें सोनेके लिए द्वारके पास स्थान प्राप्त होता था। द्वारसे होकर मुनियोंका आवागमन लगा ही रहता था। इससे मेघकूमारको प्रायः अन्य मनियोंके टकरा जानेका कष्ट उठाना पड़ता था इनकी नींद समाप्त हो गयी थी और मनमें पश्चात्तापकी भावना उत्पन्न हो गयी थी। __जब मेघकुमार राजकुमारके पदपर प्रतिक्षित थे, उस समय सभी मुनि उनका आदर-सत्कार करते थे। पर आज वे ही अपने पैरोंको धूलि उड़ाते हुए उनके पाससे निकल जाते हैं। आदर-सम्मान प्रकट करनेको कौन कहे, कोई उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखता, मेघकुमारके हृदयमें विचारोंका तूफान उठ रहा था। उनके हृदयमें राग, द्वष और अमर्षके भाव जागृत हो उठे थे । अतः उन्होंने निश्चय किया कि अब इस संघमें रहकर अपमान सहना उचित नहीं । इन्द्रभूति गोप्तम गणधरको सूचितकर और उनसे अनुमति लेकर यहाँसे चले जाना ही श्रेयस्कर है। मेघकुमार तीर्थकर महावीर और उनके प्रमुख गणघर इन्द्रभूतिकी सेवा
तीर्थकर महापौर और नमको देशमा : २१७