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चन्दन के समान उस धरतीका चन्दन किया । शस्य श्यामला धरतीको छटा अनुपम हो गयी । वैशालीकी गौरव गाथाए लोकको आकृष्ट करने लगीं और घरासे सुरभित उच्छ्वास निकलने लगा ।
सूखे पेड़-पौधे हरीतिमाकी चादरसे आच्छादित हो गये । नदी-नालोंमें जल उफान लेने लगा । वृक्षोंकी गोद फूलोंसे भर गयीं और खेतोंमें अनाजकी बालोंसे लदे हुए पौधे झूमने लगे । पक्षियोंका कंठ खुल गया, जनजनके हृदयका उल्लास फूट पड़ा, धरती और धरती के लोग उस दिव्य ज्योतिके आगमन की प्रसन्नतामें स्वर्ग और स्वर्गके देवताओंसे स्पर्धा करने लगे ।
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त्रिशलाका स्वप्न-दर्शन
तीर्थंकर महावीर जब गर्भ में अवतरित हुए, उस समय त्रिशला के मुखमण्डलपर दिव्य आभा विचरण पार हो । असके हृदय दिव्य कालका कोत प्रवाहित हुआ और उनके पुण्यके शत-शत कमल विकसित होने लगे । त्रिशला - के अंग-प्रत्यंग स्फुरित होने लगे और आनन्दसूचक शुभ शकुन दिखलायीं पड़ने लगे । घरापर ही नहीं, स्वर्ग में भी इन्द्रको माँ त्रिशलाकी सेवाको चिन्ता उत्पन्न हुई। उसने देवांगनाओंको कुण्डपुर में प्रेषित कर त्रिशलाको सेवाकी व्यवस्था की । इन्द्रने कुबेर द्वारा रत्न और धन-सम्पत्तिकी वृद्धि कर विदेहदेशको समृद्ध बनाया | महाराज सिद्धार्थं विवेक और नीति के मार्गपर चलते तथा सभी प्रकारसे प्रजाका मंगल और कल्याण करनेमें तत्पर रहते ।
गर्भाधान से छः महीने पहले ही महाराज सिद्धार्थके यहाँ धन-धान्यकी वृद्धि होने लगी । सुगंधित जलवृष्टि, फल-पुष्पोंकी वृद्धि एवं स्वर्ण-रत्न भण्डारकी समृद्धि होने लगी ।
अच्युत स्वर्गसे च्युत हो तीर्थंकर महावीरका जीव १७ जून ई० पू० ५९९ शुक्रवार के दिन आषाढ़ शुक्ल पोको त्रिशलाके गर्भ में प्रविष्ट हुआ। प्रियकारिणी त्रिशला अपने राजभवनमें निद्रालीन थी। रात्रिके पिछले प्रहरमें उनकी पलकोंपर एक सुहावनी स्वप्न पंक्ति उतरती दिखलायी पड़ी। हस्तोत्तर आषाढशुक्ला षष्ठीकी रात्रिका अन्तिम प्रहर संसारके लिये विभूतिके उदयका निमित्त बना । त्रिशलाने देखा कि उसके सामने मदसे झूमता हुआ उन्नत गज उसके उदरमें प्रविष्ट हो रहा है। इतना ही नहीं उसने भविष्यसूचक सोलह स्वप्नोंका दर्शन किया। स्वप्न-दर्शनसे ही उसे अपूर्व आनन्द प्राप्त हो रहा था । उसके हृदयमें हर्ष की लहरें उत्पन्न हो रही थीं और मन-मयूर नृत्य कर रहा था । सोलह स्वप्न निम्न लिखित हैं '—
सीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ८७