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तीर्थकरको वन्दनाके लिए चल दिया । यहाँ वह महावीरको देशनासे अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसके राग-द्वेष विभाजित होने लगे । उसके हृदय में विभिन्न प्रकारको अनुभूतियोंका संघर्ष हो रहा था । कभी वह अपने विशाल राज्यको ओर सोचता और अपने उत्तराधिकारीको अल्पवयका चिन्तनकर मोहाभिभूत हो जाता ! 'मेरे द्वारा दीक्षा ग्रहण कर लेनेपर इतने विशाल साम्राज्यका संचालन कैसे हो ? अभी मेरा तुमसोटा है, परियों के ऊपर इतने बड़े राज्यका दायित्व सौंप देना उचित नहीं है।' अत: उसके दीक्षाके भावोंपर मोहके पयोधर आच्छादित हो जाते ।
कुछ क्षणके पश्चात् वह सांसारिक सम्बन्धों, अस्थिरताओं, वासना-जन्य विकृतियों और जगत्के प्रपञ्चोंके विषयों में सोचता, तो उसका हृदय विकिसे परिपूर्ण हो जाता। संसारके सभी संयोगीभाव उसे कष्टकर प्रतीत होने लगते ।
शुभ परिणामोंकी तीव्रता और सधनताने उसके मिथ्यात्वभावको गला दिया और सम्यक्त्वके सूर्योदयने आत्माको अलोकित कर दिया । अतः उसने दिगम्बर-दीक्षा धारण करनेका निश्चय किया।
द्वादश अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनसे परिणामोंमें निर्मलता बढ़ती जाती और वह आरम्भ एवं परिग्रहका त्याग करनेके लिए कृत-संकल्प होता जाता । फलतः समस्त वस्त्रोंका त्यागकर केशलुम्चन करनेके लिए वह प्रवृत्त हुआ । पञ्चमुष्टी केश-लुच करते ही मनको ग्रन्थियाँ खुल गयीं। राजा प्रसन्नचन्द्रका चारों ओर जयघोष सुनायी पड़ रहा था । इन्द्रभूति गौतम गणधरके तत्त्वावधान में और अन्तिम तीर्थंकर महावोरके पादमूलमें सम्पन्न यह दीक्षा सभीको चर्चाका विषय थो।
प्रसन्नचन्द्रने अपने अल्प-वयस्क पुत्रको प्रधान अमात्यके संरक्षण में राज्यभार सौंप दिया । प्रसन्नचन्द्र दीक्षित होकर महाबोरके संघमें उग्र तपश्चरण करने लगा।
एक दिन समवशरणमें श्रेणिकने प्रसन्नचन्द्रके सम्बन्धमें प्रश्न किया । इन्द्रभूतिने प्रसन्नचन्द्र के परिवारकी कथा सुनायी। कालक्रमानुसार प्रसन्नचन्द्रने केवलज्ञान प्राप्त किया। केकयाचजनपद-श्वेताम्बिका : प्रदेशोका मोह-प्रन्थि-भेदन । ___ जैन ग्रन्थों में प्रतिपादित साढ़े पच्चीस आर्यदेशोंमें इसकी गणना की गई है। केकयगज्यका उपनिवेश होनेके कारण यह केकयार्द्ध कहलाता था। १. परिशिष्ट पर्ष, याकोबी-सम्पादित द्वितीय, संस्करण, सर्ग १, पद्म १२-१२८. २७० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा