________________
ताम्बिका इस जनपदकी राजधानी थी। इसके ईशान कोण में नन्दनवनके समान मृगवन नामक उद्यान था । यहाँका राजा प्रदेशी' अधार्मिक, नास्तिक और अधर्मानुकूल आचरण करनेवाला था । उसके शील- आचार में धर्मका किञ्चिन्मात्र भी स्थान नहीं था । एक दिन प्रदेशीका साक्षात्कार पावपत्य केशीकुमार से हुआ । केशीकुमारने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहसम्बन्धी विचारोंका महत्त्व बतलाते हुए प्रदेशीको आस्तिक बनानेका प्रयास किया। प्रदेशी केशोकुमारके आचार-सम्बन्धी विचारोंसे अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसे मानव जीवन के रहस्यका बोध हो गया । जीवनमूल्यांकी पहचान उसे प्राप्त हो गयी ।
प्रदेशीने यह अनुभव कर लिया कि भौतिक शरीरसे ज्ञान-दर्शनरूप आत्मा भिन्न है - आत्मा देह या पञ्चभूतरूप नहीं हैं। जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप चतुर्भूतसे आत्माको उत्पन्न मानते हैं, वे अज्ञानी हैं - आत्म-स्वरूपके बोधसे रहित हैं । प्रदेशीने अपनी शंकाका समाधान करनेके लिए केशोसे प्रश्न किया- "मेरे पिता निर्दयी थे और मरकर नरक गये, जहाँ वह दुःख भोग रहे हैं, फिर वह उन दुःखोंसे बचने के लिए मुझे क्यों सम्बोधित नहीं करते ?”
केशीकुमार - " राजा अपराधीको दण्ड देता है, उस दण्डको भोगते समय जैसे अपराधी अपने पुत्र कलत्र के पास नहीं जा सकता, उसी प्रकार नारकी जीव अपने अशुभ कृत्योंका फल भोगते समय वहांसे तब तक नहीं निकल सकता है, जब तक सम्पूर्ण कमका फल भोग नहीं लेता ।"
प्रदेशी -- "अच्छा यह मान लिया, पर यह बतलाइये कि मेरी धर्मात्मा दादी स्वर्ग गयी हैं, वह मुझे सम्बोधित करने क्यों नहीं आती ?"
केशी - " जो मनुष्य देवदर्शनके लिए शुद्ध होकर मन्दिर गया है, वह अशुद्धिके भय से दूसरे कामके लिए बुलाये जानेपर भी नहीं आता । देवगतिके जीव शुद्ध है, उन्हें मनुष्यगतिकी अशुचिता असह्य है। अतः उपर्युक्त भक्तके समान वे नहीं आते। पर जिन जीवोंका पारस्परिक मोह प्रबल होता है और वे इष्टमित्रोंका उपचार करना चाहते हैं, वे कष्ट सहकर भी आते हैं । आगमग्रन्थों में इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं। सीताजीका जीव अपने एक बन्धुको सम्बोधित करने के लिए नरक गया था ।"
प्रदेशीको जिज्ञासा अभी भी शान्त नहीं हुई। उसके मनमें आत्माके अस्तित्व सम्बन्ध में अभी भी आशंका अवशिष्ट थी । अतः वह कहने लगा
१. पएसिकहा, रायपसेणी सटीक, पत्र २७३.
-
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना २७१