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शाम और यका सम्बन्ध
ज्ञान और शेयमें विषय-विषयीभावका संबन्ध है। ज्ञान स्वपर-प्रकाशक है। जिस प्रकार अपने ही कारणसे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ ज्ञेय होते हैं; उसी प्रकार अपने कारणसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी स्वतः ज्ञानात्मक है। ज्ञानका सामान्यधर्म अपने स्वरूपको जानते हए परपदार्थों को जानना है । अतः ज्ञान और शेयमें विषय-विषयीभावका सम्बन्ध है । यथार्थतः -- (१) ज्ञान अर्थमें प्रविष्ट नहीं होता और अर्थ ज्ञानमें । (२) ज्ञान अर्थाकार नहीं है । (३) ज्ञान अर्थसे उत्पन्न नहीं होता। (४) ज्ञान अर्थरूप नहीं है।
प्रमाता ज्ञानस्वभाव होता है, अतः वह विषया है। अध ज्ञयस्वभाव होता है, अतः वह विषय है। दोनों स्वतन्त्र हैं तो भी ज्ञान में अर्थको जाननेको और अर्थमें ज्ञानके द्वारा ज्ञात किये जानेकी क्षमता विद्यमान है। यही क्षमता दोनोंके कञ्चित् अभेदका हेतु है। चैतन्यके प्रधानरूपसे तोनकार्य हैं:-(१) नाना, (२) देखना और ( नुभूति र चक्षु द्वारा देखा जाता है और शेष इन्द्रियों एवं मनके द्वारा पदार्थोंको जाना जाता है । दर्शनका अर्थ देखना ही नहीं है अपितु एकता और अभेदको ज्ञानानुभूत्ति है। जो अर्थ और आलोकको ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण मानते हैं उनकी यह मान्यता इसीसे निराकृत हो हो जाती है। सदाकारता, अर्थ और आलोकके कारणत्यका विचार
ज्ञानको पदार्थाफार मानना तदाकारता है । इसका अर्थ है ज्ञानका ज्ञेयाकार कहना। पर वस्तुत: अमूर्तिक ज्ञान मृतिक पदार्थके आकार नहीं हो सकता। ज्ञानके ज्ञेयाकार होनका अभिप्राय यही हो सकता है कि उस ज्ञेयको जाननेके लिए ज्ञान अपना व्यापार कर रहा है। किसी भी शानकी वह अवस्था, जिसमें ज्ञयका प्रतिभास हो रहा है, निश्चित रूपसे प्रमाण नहीं कही जा सकती। सीपमें चाँदीका प्रतिभास करानेवाला ज्ञान यद्यपि उपयोगको दृष्टिसे पदार्थाकार हो रहा है, पर प्रतिभासके अनुसार बाह्मार्थकी प्राप्ति न होने के कारण उसे प्रमाणकोटिमें नहीं रखा जा सकता। अतएव ज्ञानको पदाकार मानना उचित नहीं। १. स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिछेद्यः स्वता यथा । सथा ज्ञान बहेतूत्थं परिच्छेदात्मक
स्वतः।।-लषीयस्वय ५९.
४१२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा