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अतएव एक कालमें एक पदार्थकी एक पर्याय हो जानी जा सकती है। अत: ज्ञानको ज्ञेयाकार माननेकी आवश्यकता नहीं है । यह सीमा आवृत ज्ञानकी है, अमावतकी नहीं। निरावरण शान तो एक साथ समस्त पदार्थोको जान सकता है।
सारांश यह है कि ज्ञान स्वपरावभासक है । इसके मूलस: दो भेद है:१) पूर्णतः निरावरण और (२) अंशतः क्षयोपशमजन्य तारतम्यरूप निराबरण। आस्माके ज्ञानगणको ज्ञानावरणकर्म रोकता है और इसके क्षयोपशमके तारतम्यसे ज्ञान प्रादुर्भूत होता है। यह ज्ञान मन और इन्द्रियोंके माध्यमसे पदार्थों को जानता है । अतीन्द्रिय शानकी पता
संसारमें अनन्त पदार्थ हैं और उन अनन्त पदार्थों की अनन्त पर्याएँ हैं। अतः क्षयोपशमजन्य इन्द्रियज्ञान एक कालमें अनन्त पदार्थो में अनन्त पर्यायों को नहीं जान सकता। न वह सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को ही ग्रहण कर पाता है। पर जो जान समस्त आवरणके नष्ट होनेसे उत्पन्न हुआ है वह अतीन्द्रियज्ञान त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थीको जाननेवाला है । आत्मामें अनन्त ज्ञेयोंको जाननेको शक्ति है । अतः निरावरणज्ञान एक ही कालमें अनन्त शेयोंको जान लेता है। वस्तुतः आत्मा में समस्त पदार्थों के जाननेका पूर्ण सामर्थ्य है । संसारी अवस्थामें उसके ज्ञानका-शानावरणसे आवृत होनेके कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब चैतन्यके प्रतिबन्धक कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाता है तब इस अप्राप्यकारी ज्ञानको समस्त पदार्थो को जानने में किसी प्रकारकी बाधा नहीं रहती । यदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान न हो सके तो सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिग्रहोंकी ग्रह) आदि भविष्य दशाओंका उपदेश कैसे सम्भव होगा। ज्योतिर्मानोपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है। अतएब अतीन्द्रियज्ञानको समस्त पदार्थ और उनकी पर्यायोंको ग्रहण करनेवाला मानना होगा।
यों तो केवलज्ञान ही आत्माका स्वभाव है। यह शान ज्ञानावरणकर्मसे आवत रहता है और आवरणके क्षयोपशमके अनुसार मतिजान आदि उत्पन्न होते हैं। जब हम मतिज्ञान आदिका स्वसंवेदन करते हैं, तब उस रूपसे अंशी केवलज्ञानका भी अंशतः स्वसंवेदन होता है । यथा पर्वतके एक अंशको देखनेपर भी पूर्ण पर्वतका व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना जाता है। इसी प्रकार मतिज्ञानादि अवयवोंको देखकर अवयवीरूप केवलज्ञान-ज्ञानसामान्यका प्रत्यक्ष भी स्वसंवेदनसे होता है। यहाँ केवलज्ञानको शानसामान्यरूप माना गया है और उसकी सिद्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा की गई है। संक्षेपमें अत्तोन्द्रियज्ञानकी क्षमता त्रिकाल और त्रिलोकमें स्थित समस्त पदार्थों को जाननेकी है ।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४११