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लोक है, अतएव ज्ञान सर्वगत अर्थात् व्यापक है। संक्षेपमें 'स्व' और 'पर' को जाननेका साधन ज्ञान ही है । पूर्वमें जिस ज्ञेयकी चर्चा की गई है, उसका सम्यक बोध ज्ञानद्वारा ही सम्भब है। मानोत्पत्ति प्रक्रिया
ज्ञेय और ज्ञान दोनों स्वतन्त्र हैं। ज्ञेय है-द्रव्य, गुण और पर्याय । ज्ञान आत्माका गुण है । न तो ज्ञेयसे ज्ञान उत्पन्न होता है और न जानसे ज्ञेय । हमारा ज्ञान पदार्थको जाने अथवा न जाने, पर पदार्थ अपने स्वरूपमें अवस्थित है। पदार्थ भी ज्ञानका विषय बने या न बनें, तो भी हमारा ज्ञान हमारी आत्मामें स्थित है। यदि ज्ञानको पदार्थकी उपज माना जाय तो वह पदार्थका धर्म हो जायगा। हमारे साथ उसका तारतम्य नहीं हो सकेगा। पदार्थको जाननेको क्षमता हमारे भीतर सदा विद्यमान रहती है । पर ज्ञानकी आवृत अवस्थामें हम माध्यमके विना पदार्थको नहीं जान पाते। हमारे ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम, अथवा क्षय द्वारा जितनी क्षमता हमें प्राप्त होती है उसी क्षमताके । अनुसार इन्द्रिय और मन द्वारा पदार्थका ज्ञान प्राप्त करते हैं। आशय यह है कि संस्कार जिस पदार्थको जानने के लिए ज्ञानका प्रेरित करते हैं, तब शेय भात होते हैं। यह ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं, अपितु प्रवृत्ति है। उदाहरणार्थ यों समझा जा सकता है कि श खर गाना मनाही पता हुई और बन्दुक चलाई भी, यह शक्तिको उत्पत्ति नहीं, किन्तु उसका प्रयोग है। इसी प्रकार मित्रको देखकर प्रेमका उमड़ आना प्रेमको उत्पत्ति नहीं, उसका प्रयोग है। यही स्थिति ज्ञानके सम्बन्धमें भी है। ___ विषयके सामने आनेपर ज्ञाता उसे ग्रहण कर लेता है। यह प्रवृत्ति मात्र है। जानके आवरणके क्षयोपशम या क्षयके अनुसार जैसी क्षमता होती है, उसीके अनुसार वह विषयोंको जानने में सफल होता है । वस्तुतः पदार्थों को ग्रहण करनेकी अन्तरंग क्षमता आवरणके विलयनपर ही निर्भर है। इसीको क्षयोपशम या क्षयजन्य अन्तरंगक्षमता कहा जाता है। इसी क्षमताके कारण ज्ञानमें तारतम्यकी उत्पत्ति होती है।
अल्पज्ञका ज्ञान इन्द्रिय और मनके माध्यमसे ज्ञेयको जानता है। इन्द्रियोंको शक्ति सीमित है। वे अपने-अपने विषयोंको मनके साथ सम्बन्ध स्थापित कर जान सकती हैं। मनका सम्बन्ध एक साथ अनेक इन्द्रियोंसे नहीं होता है।
१. आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्यमाणमुदिट्ट । __णेयं लोयालोयं तम्हा गाणं तु सव्वगयं ॥ ४१० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आमार्य-परम्परा
-प्रवचनसार गाथा २३.