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निकलता है कि समस्त घड़ेपर रूपका ही अधिकार नहीं है, अपितु घड़ा बहुत बड़ा है, उसमें अनन्त धर्म हैं। रूप भो उन अनन्त धर्मों से एक है। रूपकी विवक्षा होनेसे अभी रूप हमारी दृष्टिमें मुख्य है और वही शब्द द्वारा वाच्य बन रहा है, पर रसकी विवक्षा होनेपर रूप गौणराशिमें सम्मिलित हो सकता है और रस प्रधान बरु जाता है । इस हा शन्द ग गुम्यमत्रसे अनेकान्त अथके प्रतिपादक हैं। इसी सत्यका उद्घाटन 'स्यात्' शब्द करता है।
वस्तुतः 'स्यात्' शब्द एक सजग प्रहरी है, जो कहे जानेवाले धर्मको इधरउबर नहीं जाने देता। वह अविवक्षित धर्मों के अधिकारका संरक्षक है। अतः इस शब्दका अर्थ शायद सम्भावना या कदाचित् नहीं है। 'स्यादस्ति घट:' वाक्यमें अस्तिपदका वाच्य अस्तित्व' अंश घटमें सुनिश्चिरूपसे वर्तमान है। 'स्यात् शब्द उस अस्तित्वको सुदृढ़ स्थितिका सूचक है और नास्तित्व आदि सहयोगी धोका मौन स्वीकर्ता है, यह स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी दृष्टिसे जिस प्रकार घटमें निवास करता है उसी प्रकार परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिको अपेक्षासे उसका भाई नास्तित्व धर्म भी रहता है। वस्तु में रहनेवाले अनन्तधोंमेंसे 'स्यात' शब्द किसी एक धर्मको ओर मुख्यरूपसे इंगितकर अवशेष धर्मोंके सद्भावकी सूचना देता है।
सत्यका दर्शन स्याद्वादको भूमिपर हो हो सकता है । यह अपेक्षाविशेषसे अन्य अपेक्षाओंको निराकृस न करते हुए वस्तुका प्रतिपादन करता है।
जब हम किसी वस्तुको 'सत्' कहते हैं उस समय उस वस्तुके स्वरूपको अपेक्षासे ही उसे 'सत्' कहा जाता है । अपनेसे भिन्न अन्यवस्तुके स्वरूपको अपेक्षासे प्रत्येक वस्तु 'असत् है । 'सत्' और 'असत्' सापेक्षिक हैं। जिस अपेक्षासे वस्तु 'सत्' है उस उपेक्षासे 'असत् नहीं है और जिस अपेक्षासे 'असत् है उस अपेक्षासे 'सत्' नहीं है । वस्तुमें अनेकधर्मता विद्यमान है। वक्ता जिस धर्मका कथन करनेको विवक्षा करता है, उस धर्मका वह किसी दष्टिविशेषसे प्रतिपादन कर देता है । एक ही दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु विवेच्य नहीं हो सकती है ।
वस्तुतः प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है । उसमें अनेक धर्मगुण-स्वभाव और अंश विद्यमान हैं । जो व्यक्ति किसी भी वस्तुको एक ओरसे देखता है उसकी दष्टि एक धर्म या गुणपर हो पड़ती है। अतः वह उसका सम्यकद्रष्टा नहीं कहा जा सकता। सम्यद्रष्टा होने के लिये उसे उस वस्तुको सब ओरसे देखना चाहिए और उसके धर्मो, अंशों और स्वभावोंपर दृष्टि डालनी चाहिए । सिक्केकी एक हो पीठिका देखनेवाला व्यक्ति सिक्केके यथार्थरूपसे निर्णय नहीं कर सकता है। पर जब उसको दृष्टि सिक्केकी दूसरी पीठिकापर पड़ती है, तो वह पूर्व पीठिका
४७२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा