________________
७. एवंभूतनय
जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ है, वह क्रिया जब हो रही हो तभी उस पदार्थको ग्रहण करनेवाला वचन और ज्ञान एवं भूतन कहलाता है। समाभरूढ़ नय जहाँ शब्दभेदके अनुसार अर्थभेद करता है, वहाँ एवंभूतनय व्युत्पत्यर्थके घटित होनेपर हो शब्दभेदके अनुसार अर्थभेद करता है। यह मानता है कि जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ है । तद्रूप क्रियासे परिणत समय में ही उस शब्दका वह अर्थ हो सकता है, अन्य समयमें नहीं । यथा-पूजा करते समय ही पुजारी कहना, अन्य समयमें उस व्यक्तिको पुजारी न कहना एवंभूतका विषय है ।
ये सातों नय परस्पर सापेक्षा अवस्थामें ही सम्यक् माने जाते हैं, निरपेक्ष अवस्थाम दुर्नय । इनमें नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थनय कहलाते हैं और शेष तीन शब्दनय । इन नयोंका उत्तरोत्तर अल्पविषय होता गया है। इन नयोंमें प्रारंभके तोन द्रव्याथिक हैं और शेष चार पर्यायाथिक हैं।
स्थाहाव
स्यावादशब्दकी निष्पत्ति 'स्यात्' और 'वाद' इन दो पदोंके योगसे हुई है । 'स्यात्' विधिलिङ्में बना हुआ तिष्ठन्त प्रतिरूपक निपात है। इसमें महान् उद्देश्य और वाचक शक्ति निहित है। इसे सत्य का चिह्न या प्रतीक कहा गया है। साथ ही इसे सुनिश्चित दृष्टिकोणका वाचक माना गया है। शब्दका यह स्वभाव है कि वह किसी निश्चित अर्थका अवधारण कर अन्यका प्रतिषेध करे, किन्तु 'स्थात् अन्यके प्रतिषेधपर अंकुश लगाता है। शब्द स्वार्थका प्रतिपादन तो करता ही है, पर शेषका निषेध भी कर देता है, जिससे वस्तुस्थितिका चित्राङ्कन नहीं हो पाता। 'स्यात्' शब्द इसी निरंकुशताको रोकता है, और न्याय्यवचनपद्धतिकी सूचना देता है ।
यह निपात है और निपात द्योतक एवं वाचक दोनों प्रकारके होते हैं। अतः 'स्यात्' शब्द अनेकान्त सामान्यका वाचक होता है और जब यह अनेकान्तका द्योतन' करता है, तब 'अस्ति' आदि पदोंके प्रयोगसे जिन अस्तिस्व आदि धोका प्रतिपादन किया जा जाता है, वह अनेकान्तरूप है; यह घोसित होता है। संक्षेपमें स्यावादका अयं 'कथञ्चित् कथन करना है। वस्तुके वास्तविक रूपको प्राप्ति स्याद्वाद द्वारा ही होती है।
स्यावाद सुनय निरूपण करनेवाली विशिष्ट भाषापद्धत्ति है। यह निश्चित रूपसे बतलाता है कि यस्तु केवल इसी धर्मवाली नहीं है, किन्तु इसके अतिरिक्त अन्य धर्म भी समाहित हैं । यथा-"स्यात् रूपवान् घट:" कहनेपर यह अर्थ
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : ४०१