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व्यवहारनयमें विभागीकरणकी। पदार्थोके विधिपूर्वक विभाग करने रूप जितने विचार पाये जाते हैं, वे सब व्यवहारनयको श्रेणीमें परिगणित' हैं । ४. ऋजुसूत्रनय ___ यह नय भूत और भावी पर्यायोंको छोड़कर वर्तमान पर्यायको ही ग्रहण करता है । यह ज्ञातव्य है कि एक पर्याय एक समय तक ही रहती है, उस एक समयवर्ती पर्यायको अर्थपर्याय कहते हैं । यह अर्थपर्याय सूक्ष्म ऋजुसूत्रनयका विषय है। व्यवहारमें एक स्थूलपर्याय दीर्घकाल तक बनी रहती है। यथा मनुष्यपर्याय आयुके अन्स तक रहती है । स्थूलपर्यायको ग्रहण करनेवाला ज्ञान और वचन स्थूल ऋजुसूत्रनय कहा जाता है।
ऋजुसूत्रनय नित्य द्रव्यको गौणकर क्षणवर्ती पर्यायको प्रधानतासे ग्रहण करता है। ५. शबनय
लिङ्ग, संख्या, काल, कारक, पुरुष और उपसर्ग आदिके भेदसे अर्थको भेद रूप ग्रहण करनेवाला शब्दनय होता है। शन्दकी प्रधानताके कारण इसे शब्दनय कहते हैं । भिन्न-भिन्न लिङ्गवाले शब्दोंका एक ही वाच्य मानना लिङ्गव्याभिचार है। यह नय मानता है कि जब ये सब अलग-अलग हैं तब इनके द्वारा कहा जानेवाला अर्थ भी पृथक-पृथक् हो होना चाहिए । इसी कारण कियाभेदसे भी अर्थभेद माना जाता है । यथा-'देवदत्त घटको करता है' और 'देवदत्त द्वारा घट किया जाता है' इन दोनों वाक्यों में कर्तृवाच्य और कमंघाच्यका भेद होनेपर लौकिक व्यवहारको दृष्टिसे एकार्यता मानी जाती है; पर इस नयकी दृष्टिसे यह ठीक नहीं है, क्योंकि वाक्यभेदसे वाक्यार्थमें भेद होता है । ६. समभिनय
लिङ्ग आदिका भेद न होनेपर भी शब्दभेदसे अर्थका भेद माननेवाला समभिरूढनय है । जहाँ शब्दनय शन्दभेबसे अर्थभेद नहीं मानता, वहाँ यह नय शब्दभेद द्वारा अर्थभेद स्वीकार करता है। यथा-इन्द्र, शक्र और पुरन्दर ये सोनों शब्द स्वर्गके स्वामी इन्द्रके वाचक हैं और एक हो लिङ्गके हैं; किन्तु ये तीनों शब्द उस इन्द्र के भिन्न-भिन्न धर्मोको कहते हैं । जब आनन्द करता है तो इन्द्र कहा जाता है, शक्तिशाली होनेसे शक और पुरों-गरोंको नष्ट करनेवाला होनेसे पुरन्दर कहलाता है । इस प्रकार यह नय पर्यायभेदसे शब्दके भिन्न अर्थ मानता है। ४४० : तीर्षकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा