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तूफान और बादलोंकी गड़गड़ाहटका आतंक व्याप्त रहता था, उस समय वे वृक्षके नीचे अविचल मावसे खड़े हुए तपश्चर्या लीन रहते थे।
पारों ओर हरी-हरी घास उग आती। ताल-सलैयां जलसे परिपूरित हो जाती। मक्खी और मच्छरोंकी भरमार हो जाती, ऐसे समयमें भी महावीर अनावृत्त कायामें संयमको साधनामें लीन रहते। शीत-ऋतुमें बर्फीली हवाएं पलती, घरसे निकलना पशु-पक्षियोंके लिये भी असम्भव था। ऐसे समय निवस्त्र रहकर महावीर नदीके शीत-लहरीयुक्त सटपर ध्यानावस्थित रहते । पर्वतकी फिसी उपत्यका, गुफा अथवा सूनसान, निर्जन और भयंकर स्थानोंमें जाकर वे तपस्या करते। इस प्रकार महावीरकी साधना उत्तरोत्तर उग्रतर होती गयी ।
महावीर विहार करते समय किसी भी स्थानपर तीन दिनोंसे अधिक नहीं व्हरते थे । साधनाके दिनोंमें उन्होंने अगणित स्थानोंकी यात्राएं की, अगणित मानवोंसे भेंट की और अगणित प्रकारके उपसर्ग सहन किये। तपश्चर्याके दिनोंमें जब व माती, कि.पी. स्थलापर नहकर पातुर्मास व्यतीत किया करते थे। उन्होंने साढ़े बारह वर्षोंके लम्बे तपश्चरण-कालमें कितने ही स्थानोंमें चातुर्मास किये।
महावीरके चातुर्मासोंके स्थानोंके साथ बड़े ही प्रेरक सन्दर्भ जुड़े हुए हैं। इन सन्दभोंसे एक ओर तत्कालीन समाजको कायरता, कदाचार और पापाचार अभिव्यक्त होते हैं, तो दूसरी ओर तीर्थकर महावीरके अदम्य साहस, त्याग, धैर्य, सहनशीलता, दया एवं क्षमाके चित्र भी प्रस्तुत होते हैं। यहाँ महावीरके वर्षावासोंके सम्बन्धमें कुछ जानकारी प्राप्त कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा।
आगम-गन्थोंमें वर्षावासोंका वर्णन प्राप्त होता है। इस वर्णनसे महावीरके मानवीय जीवनका उज्ज्वल पक्ष अंकित हो जाता है । प्रथम वर्ष-साधना : सहिष्णुता और साहस
ज्ञातृखण्डवनसे 'एक मूहूर्त दिन शेष रहनेपर महावीर कर्मार ग्राममें पहुंचे और कायोत्सर्ग धारण कर ध्यानमें संलग्न हो गये। इसी समय एक ग्वाला अपने बैलों सहित वहाँ आया और महावीरसे बोला-"मैं गाय दुहकर अभी गाँवसे वापस आता हूँ। मेरे ये बेल चर रहे हैं, इनकी निगरानी रखियेगा।" वह उत्तरकी प्रतीक्षा किये बिना ही गौव चला गया । महावीर तो ध्यान मग्न थे। उन्हें ग्वालेकी बातका कुछ भी ज्ञान नहीं था । बैल घास चरते हुए वनमें बहुत दूर चले गये । ग्वाला जब घरसे वापस आया और
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १३७