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उस स्थानपर बैलोंको चरता हुआ न पाया, तो उसने महाबोरसे पूछा-'मेरे बेल कहां चले गये ?" महावीरने कुछ भी उसर नहीं दिया । उसने क्रोधाविष्ट हो महावीरको बहुत बुरा-भला कहा । पर जब उनसे कुछ भी उत्तर नहीं मिला, तो उसने समझा कि इन्हें मालूम नहीं है। अतः यह बैलोंको ढूढ़नेके लिये जंगलकी ओर चल दिया । रातभर वह बैलोंकी तलाश करता रहा, पर बैल उसे नहीं मिले । प्रातःकाल होने पर उसने बैलोको महावीरके पास बैठे रोमन्थन करते हुए पाया। ग्वाला बैलोंको महावीरके पास प्राप्तकर क्रोधसे जल-भुन गया और अपमानके स्वर में बोला-"बैलोंकी जानकारी होते हुए भी आपने मुझे नहीं बतलाया । मालूम होता है कि आप मुझे तंग करना चाहते थे, इसीलिये रातभर मुझसे परिश्रम कराया गया " यह कहकर हाथमें ली हुई रस्सीसे उसने महावीरको मारनेका प्रयास किया। तभी किसी भद्र पुरुषने आकर ग्वालको रोका और कहा कि "अरे, यह क्या कर रहे हो ? क्या तुझे मालूम नहीं कि जिन्होंने कल ही दीक्षा ली है, वही ये महाराज सिदार्थके पुत्र महावीर हैं । इन्हें तुम्हारे बेलोसे क्या प्रयोजन ? ये तो आत्म-ध्यानी हैं और कर्म-कालिमाको दूर करनेके लिये प्रयत्नशील हैं। अतएव इन्हें मारना-पीटना या अपशब्द कहना सर्वथा अनुचित है।"
ग्वालेने नतमस्तक होकर महावीरसे क्षमा याचना की और वह बैलोंको लेकर चला गया। ममताको सोपी कहाँ ?
अप्रतिबन्ध विचरण करते हुए महावीर मोराक-सन्निवेशमें पधारे। यहां दुर्जयन्त नामक तापस-कुलपतिका आश्रम था। आश्रमके समीप कल-कल । निनाद करते हुए निर्झर प्रवाहित हो रहे थे । शांत वातारण था और कुलपति महावीरके पिसाका मित्र था | उसने दूरसे ही महावीरको आते हुए देखा। कुलपतिने महावीरका स्वागत किया और अपनी कुटियामें विश्राम कराया।
प्रातःकाल महावीर अब चलने लगे, तो कुलपसिने उन्हें भावभीनी विदाई दो और इसी कुटियामें चातुर्मास करनेका निवेदन किया। तीर्थकर महावीर प्रामानुमाम विचरण करने के उपरान्त पुनः मोराकसन्निवेशमें आये और कुलपतिकी उसी कुटियामें चातुर्मास करनेका निश्चय किया।
वर्षा-ऋतु प्रारम्भ हो चुकी थी, पर वर्षाको कमीके कारण पर्याप्त मात्रामें वहाँ पास उत्पन्न नहीं हुई थी। गायोंका पेट नहीं भर रहा था। अतः भूखी गायें अपनी क्षुषाको शान्त करनेके लिये झोपडीको घास खानेको १३८ : तीर्थंकर महावीर और धमकी श्राचार्य परम्परा