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कुलभेद, देश और प्रान्तभेद आदि सभी मानवता के विघातक हैं। तनावका वातावरण और अविश्वासको खाईंको दूर करनेका एकमात्र साघन जनसामान्यको पारस्परिक सहयोग और कल्याणके लिये प्रेरित करना है ।
स्वर्ग के देव विभूति में कितने ही बड़े क्यों न हो, उनका स्वर्गं कितना हो सुन्दर और सुहावना क्यों न हो, पर वे मनुष्यसे महान नहीं । मनुष्य के त्याग और इन्द्रियसंयमके प्रति उन्हें भी नतमस्तक होना पड़ता है । मानव-मानaari कारण सभी मनुष्य समान हैं, जन्मसे कोई भी व्यक्ति न बड़ा है, न छोटा । कार्य, गुण, परिश्रम, त्याग, संयम ऐसे गुण हैं, जिनकी उपलब्धिसे कोई भी व्यक्ति महान् बन सकता है । जीवनका यथार्थ लक्ष्य आत्मस्वातन्त्र्यकी प्राप्ति है । कालका प्रवाह अनाहूत चला आ रहा है । जीवन क्षण, पल घड़ियोंमें कण-कण बिखर रहा है ! पार्श्ववर्ती स्तब्ध वातावरण में भी सूक्ष्मरूपसे अतीत और व्यय समाहित हैं । नव नवीन रूपोंमें प्रस्फुटित हो रहा है और वस्तुकी
व्यता भी यथार्थरूपमें स्थित है | इसप्रकार उत्पादादित्रयात्मकरूप वस्तु आत्मष्टाको तटस्थ वृत्तिकी ओर आकृष्ट करती है और यहाँ उसे जन कल्याणकी ओर ले जाती है ।
तोर्थंकर महावोर जन्मजात वीतराग थे। उनके व्यक्तित्वके कण-कणका निर्माण आत्मकल्याण और लोकहितके लिये हुआ था । लोककल्याण हो उनका इष्ट था और यही था उनका लक्ष्य। जोवनके प्रथम चरणसे हो उन्होंने जनकल्याणके लिये संघर्ष आरम्भ किया, पर उनका यह संघर्ष बाह्य शत्रुभोंसे नहीं था, अन्तरंग काम, क्रोधादि वासनाओंसे था । उन्होंने शाश्वत सत्यकी प्राप्ति के लिये राजवैभव, विलास, आमोद-प्रमोद आदिका त्याग किया और जनकल्याण में संलग्न हो गये ।
लोककल्याणके कारण ही तीर्थंकर महावीरने अपूर्वं लोकप्रियता प्राप्त की थी । वे जिस नगर या ग्रामसे निकलते थे, जनता उनकी अनुयायिनी बन जाती थी । मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी भी उनसे प्रेम करते थे। हिंसक, क्रूर और पिशाच भी अपनी वृत्तियों का त्यागकर महावीरकी शरण ग्रहण करते थे । वे तत्कालीन समाजकी कायरता, कदाचार और पापाचारको दूर करनेके लिये fferद्ध थे । अतः लोकप्रियताका प्राप्त होना उन्हें सहज था ।
स्वावलम्बी
महावीरके व्यक्तित्वकी अन्य विशेषताओंमें स्वावलम्बनकी वृत्ति भी है । 'अपना कार्यं स्वयं करो' के वे समर्थक थे । अब साधनाकालमें अपरिचयके
६०८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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