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दयालु महावीरने ग्रहण किया और मानवताके ललाटपर अक्षय कुंकुमका विजय - तिलक लगाया । प्राणिमात्रको अन्तिम श्वांस तक स्वाधीनतापूर्वक जीवित रहने और कार्य करने का सही मार्ग निर्दिष्ट किया। हिमा, असत्य शोषण, संचय और कुशालसे संत्रस्त मानवताकी रक्षा की । वरतापूर्वक किये जानेवाले अश्वमेध, नरमेध आदिको दूर कर अहिंसा और मंत्री भावनाका प्रचार किया। वास्तव में तीर्थंकर महावोरके व्यक्तित्वमें करुणाका अपूर्व समवाय था । वे इस लोकके समस्त प्राणियों का आत्मविकास और लोककल्याण चाहते थे और तदनुकूल प्रयास करते थे । महावीर जैसा करुणाका मसोहा इस धराधामपर कभी कदाचित् हो जन्म ग्रहण करता है ।
दिव्य तपस्वी
महावीर उग्र, घोर एवं दिव्ध तपस्त्री थे । उनको यह नमः साधना विवेककी सीमा में समाहित थी। सहज सप था आकुलताका नामोनिशान नहीं और अन्तरंग में आनन्दको अजस्त्र धारा प्रवाहित हो रही थी। महावीर बाह्य तपके साधक नहीं अन्तस् तपके साधक थे। उनकी तपस्याके प्रभावमे जोवनकी समस्त अशुभ वृतियाँ शुभ रूप में परिणत होकर शुद्ध रूपको प्राप्त हुई थीं । न उन्हें गर्व था और न ग्लानि ही । अभिग्रहके अनुसार अहार मिल जाता, तो उसे ग्रहण कर लौट आते और न भी मिलता तो प्रसन्न चित्तसे अपनो साधनामें लीन रहते । वे लाभालाभको परिस्थिति में समरस थे । साधारण व्यक्तियोंकी कठिनाईयां आगे बढ़ने से रोक देती हैं, कभी-कभी उन्हें वापस भी लौटना पड़ता है, पर महावीर न कहीं रुके और न वे आगे बढ़ने से विमुख हुए। सच्चे अर्थों में वे दिव्य तपस्वी थे ।
लोककल्याण और लोकप्रियता
आकर्षक व्यक्तित्व के धनी महावीरके व्यक्तित्वकी सबसे बड़ी गहरायी लोककल्याण और लोकप्रियताको है। इन्होंने अपनी साधना द्वारा सिद्धि प्राप्त कर आत्म-कल्याणके साथ-साथ विश्वकल्याणकी प्रेरणा दी। सर्वोदय तीर्थंका प्रवत्तन कर अशान्त जनमानसको शान्ति प्रदान की । तीर्थंकर महावीर मानवमात्रका हो नहीं, प्राणिमात्रका उदय चाहते थे। फलतः सर्वजीव- समभाव और सर्वजातिसममभावका प्रवर्तन कर समस्त प्राणियों को उन्नसिके समान अवसर प्रदान करनेको घोषणा की। उनका सिद्धान्त था कि दूसरोंका बुरा चाहकर कोई अपना भला नहीं कर सकता । मानव-मानव के बीच भेद - भावकी जो दीवालें खड़ी की गयी हैं, वे अप्राकृतिक है। रंगभेद, वर्णभेद, जातिभेद,
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ६०७