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(५) उदय, (६) उदीरण, (७) संक्रमण, (८) उपशम, (९) निर्घात ओर (१०) निकाचना |
बन्ध
कर्मवगंणाओंका आत्म-प्रदेशोंसे सम्बद्ध होना अन्ध है । यह सबसे पहला करण है । उसके बिना अन्य कोई अवस्था सम्भव नहीं । बन्धके चार भेद हैं:(१) प्रकृति, (२) स्थिति, (३) अनुभाग और (४) प्रदेश। जिस कर्मका जो स्वभाव है, वह उसकी प्रकृति है । यथा ज्ञानावरणका स्वभाव ज्ञानको आवृत करना है । स्थिति कर्मको समय-मर्यादाको कहते हैं । अनुभाग फलदानशक्तिका नाम है । प्रत्येक कर्ममें न्यूनाधिक फल देनेकी योग्यता होती है । प्रतिसमय बंधने - वाले कर्मपरमाणुओं की परिगणना प्रदेशबंध में की जाती है।
उत्कर्षण
स्थिति और अनुभागके बढ़नेको उत्कर्षंण कहते हैं । यह किया बषके समय हो सम्भव है । जिस कर्म की स्थिति और अनुभाग बढ़ाया जाता है, उसका पुनः बन्ध होनेपर पिछले बन्धे हुए कर्मका नवीन बन्धके समय स्थिति अनुभाग बढ़ सकता है। यह साधारण नियम है । अपवाद इसके अनेक हैं ।
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स्थिति और अनुभागके घटानेकी अपकर्षण संज्ञा है । कुछ अपवादोंको छोeet fear भी कर्म की स्थिति और अनुभागको कम किया जा सकता है । परिणामोंसे यहाँ यह स्मरणीय है कि कर्मोंका स्थिति और अनुभाग शुभ अशुभ कम होता है तथा अशुभ परिणामोंसे शुभ कर्मोंका स्थिति और अनुभाग कम होता है।
कर्मबन्धके पश्चात् दो क्रियाएं होती हैं:- अशुभ कर्मोका बन्ध करनेके पश्चात् यदि जीव शुभ कर्म करता है, तो उसके पहले बन्धे हुए अशुभ कर्मोकी स्थिति और फलदानशक्ति शुभ भावोंके प्रभावसे घट जाती है। अशुभ कर्मोंका बन्ध करनेके पश्चात् यदि जीवके भाव और अधिक कलुषित हो जाते हैं, और वह भी अधिक अशुभ कार्य करने लगता है, तो अशुभ भावोंका प्रभाव प्राप्तकर प्रथम बान्छे हुए कर्मोकी स्थिति और फलदानशक्ति और भी अधिक बढ़ जाती है । इस उत्कर्षण और अपकर्षणके कारण ही कोई कर्म शीघ्र फल देता है और कोई विलम्बसे । किसी कर्मका फल तीव्र होता है और किसीका मन्द |
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशमा ३९१