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सत्ता
बन्धनेके बाद कर्म तत्काल फल नहीं देता । कुछ समय बाद उसका फल प्राप्त होता है। जबतक वह अपना काम नहीं करता, तबतक उसकी वह अवस्था सत्ताके नामसे अभिहित की जाती है। जिस प्रकार मदिरापान करनेपर तुरन्त उसका प्रभाव दिखलायी नहीं पड़ता, कुछ समयके पश्चात् ही वह अपना नशा दिखलाता है । इसी प्रकार कर्म भी बन्धने के बाद कुछ समय तक सत्तामें रहता है। इस कालको आबाधा काल कहते हैं। सधारणतया कर्मका धाबाधाकाल उसकी स्थितिके अनुसार होता है | जिस कर्मकी जितनी स्थिति रहती है, उसका आबाधाकाल भी उतना ही अधिक होता है। एक कोडा-कोड़ी सागरकी स्थितिमें सौ वर्षका आवाधाकाल होता है। अर्थात्, यदि किसी कर्मको स्थिति एक कोड़ा-कोड़ी सागर हो, तो वह कर्म सौ वर्षके पश्चात् फल देना आरम्भ करता है और तबतक फल देता रहता है, जबतक उसकी स्थिति पूरी नहीं हो जाती । आयु कमंका बाधाकाल उसको स्थितिपर निर्भर नहीं है। उक्य
प्रत्येक कर्मका फल-काल निश्चित रहता है । इसके प्राप्त होनेपर कर्मके फल देनेरूप अवस्थाको उदयसंज्ञा है । फल देने के पश्चात् उस कर्मकी निर्जरा हो जाती है। यह उदय दो प्रकारका है:-(१) फलोदय और (२) प्रदेशोदय । जब कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है, तब वह फलोदय कहा जाता है और जब कर्म बिना फल दिये ही नष्ट होता है, तो उसे प्रदेशोदय कहते हैं। उदोरणा
फलकालके पहले फल देने रूप अवस्थाको उदीरणा संज्ञा है। कुछ अपवादोंको छोड़कर साधारणतः कर्मो के जदय और उदीरणावस्था सर्वदा होती रहती है। उदीरणामें नियत समयसे पहले कर्मका बिपाक हो जाता है। उदीरणाके लिये अपकर्षण करण द्वारा कर्मको स्थितिको कम कर दिया जाता है और र्थाितके घट जानेपर कर्म नियत समयसे पहले उदयमें आ जाता है। जिसप्रकार आम्र आदि फलोंको जल्दी पकानेके हेतु पेड़से तोड़कर पालमें रख देते हैं, जिससे वे आम जल्दी ही पक जाते हैं। इसी प्रकार उदयमें आनेके पहले कर्मो की उदीरणा कर देना उदीरणा करण है। संक्रमण
एक कर्मका दूसरे सजातीय कर्मरूप हो जानेको संक्रमण करण कहते हैं। यह संक्रमण मूल प्रकृतियोंमें नहीं होता। उत्तर प्रकृतियोंमें ही होता है। आयु ३९२ : तोर्यकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा