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कर्मके अवान्तर भेदोंमें भी परस्पर संक्रमण नहीं होता और न दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीयरूपसे अथवा चारित्रमानोयका दर्शनमाहृनौयरूपसे संक्रमण होता है ।
एक कर्मका अवान्तर भेद अपने जातीय अन्य भेद रूप हो सकता है । जैसे वेदनीय कर्मके दो भेदोंमेंसे सातावेदनीय असातावेदनीयरूप हो सकता है और असातावेदनीय सातावेदनीयरूप हो सकता है।
उपशान्त
कर्मको वह अवस्था, जो उदारपाकै अयोग्य होती है, उपशान्त कहलाती है । उपशान्त अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण - अपकर्षण और संक्रमण हो सकता है, किन्तु उसकी उदीरणा नहीं होती । वस्तुतः कर्मको उदयमें आ सकने के अयोग्य कर देना उपशम करण है ।
निषत्त
कर्मकी वह अवस्था, जो उदीरणा और संक्रमण इन दोनोंके अयोग्य होती है, नित्ति कहलाती है । निधत्ति अवस्थाको प्राप्त कर्मका उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है, किन्तु इसका उदीरणा और संक्रमण नहीं होता । यथार्थतः कर्मका संक्रमण और उदय न हो सकना निर्वात है ।
निकाचना
कर्मको वह अवस्था, जो उत्कण, अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण इन चारके अयोग्य है, निकाचना कहलाती है। इसका स्वमुखेन या परमुखेन उदय होता है ।
कर्मकी इन विभिन्न दशाओंके अतिरिक्त उसके स्वामी, स्थिति, उदय, सत्व, क्षय आदिको भी इसी प्रकार अवगत करना चाहिये ।
पुनर्जन्म
पूर्व शरीरका त्याग कर नये शरीरका ग्रहण करना जन्म है । जब जोवकी भुज्यमान आयु समाप्त हो जाती है, तो वह नये भवको धारण करता है । स्थूल शरीरके नष्ट होनेपर भी आत्माका विनाश नहीं होता है, यह शाश्वतिक है और अपने ज्ञान दर्शनादि गुणसे युक्त है। आत्मा अन्वयी है, पूर्व जन्म और उत्तर जन्म दोनों उसकी अवस्थाएं हैं, आत्मा दोनोंमें एक रूपमें निवास करती है । अतएव मृत्यु केवल पर्यायका विनाश है, द्रव्य - आस्माका नहीं । जिस प्रकार वस्त्रके जीणं हो जानेपर नया वस्त्र धारण किया जाता है उसी प्रकार तीर्थंकर महावीर और उनकी देशमा ३९३