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स्वयं ही संसारी होता है और स्वयं ही मस्त ! राग-द्वेष आदिरूप अशद्ध और केवलज्ञान आदिरूप शख जितनी भी अवस्थाएं होती हैं, वे सब जीवको हो होसी हैं, जीवके सिवाय अभ्य द्रव्यमें नहीं पायी जाती हैं। शद्धता और अशुद्धताका भेद निमित्तकी अपेक्षासे किया जाता है। निमित्त दो प्रकारके हैं:(१) साधारण और (२) विशेष । साधारण निमित्त सभी द्रव्योंमें समानरूपसे कार्य करते हैं और विशेष निमित्त प्रत्येक कार्यके अलग-अलग होते हैं । यथाघटपर्यायको उत्पत्तिमें कुम्हार निमित्त है और जीवकी अशुद्ध अवस्थामें कर्मनिमित्त है। जब तक जीवके साथ कमका सम्बन्ध है, तब तक राग-द्वेष, मोह आदि भाव उत्पन्न होते हैं। कर्मके अभावमें नहीं । अतः संसारका मुख्य कारण कम है । कर्म और संसारका अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है । इनकी समव्याप्ति भी मानी जा सकती है।
कर्मका भोग स्वयं ही विविध प्रकारसे सम्पन्न होता है । अतएव संक्षेपमें जीव कर्म करने में भी स्वतन्त्र है और फल भोगने में भी । कर्मफल दाता ईश्वर नामक कोई शक्ति नहीं है। जीवके कर्मों में ही स्वत: फलदानशक्ति विद्यमान है। यतः मनुष्यके बुरे कर्म उसकी बुद्धिपर इस प्रकारका संस्कार उत्पन्न करते है, जिससे वह क्रोधमें आकर दूसरोंका घात कर डालता है और इस प्रकार उसके बरे कम उसे बुरे मागंकी ओर ही तबतक लिये जाते हैं, जब-तक वह उधरसे सावधान नहीं होता। ____ संक्षेपमें कर्मफलका नियामक ईश्वर नहीं है। कर्मपरमाणुओंमें जोवात्माके सम्बन्धसे एक विशिष्ट परिणाम होता है । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव आदि उदयानुकूल सामग्रीसे विपाक-प्रदर्शनमें समर्थ हो जीवात्माके सस्कारोंको विकृत करता है, उससे उनका फलोपभोग होता है। आत्मा अपने कियेका अपने आप फल भोगता है। कर्मपरमाणु सहकारी या सचेतकका कार्य करते हैं। विष और अमृत, अपथ्य और पथ्य भोजनको कुछ भी नहीं होता, फिर भी आत्माका संयोग प्राप्तकर उनकी वेसो परिणति हो जाती है। उनका परिपाक होते ही भोजन करनेवालेको इप या अनिष्ट फल प्राप्त हो जाता है । वस्तुतः कर्मपरमाणुओंमें मिचित्र शक्ति निहित है और उसके नियमनके विविध प्राकृतिक नियम भी विद्यमान हैं। अतएव कर्मों की फलदानशक्ति स्वयं ही प्राप्त होती है। कर्मोके कारण
कर्मोंमें दश प्रकारको मुख्य अवस्थाएँ या क्रियाएँ होती हैं, जिन्हें करण कहते हैं। करण दश हैं:-(१) बन्ध, (२) उत्कर्षण, (३) अपकर्षण, (४) सत्ता, ३९० : तीर्थकर महाबीर और उनकी आचार्ग-परम्परा