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अन्तराय इन चार कर्मोको उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। वेदनीय कर्मको जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है । नाम और गोत्रकी अन्य स्थिति आठ मुहूर्त है और शेष कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। अनुभाग बंध
कर्मों में विविध प्रकारके फल देनेकी शक्तिका पड़ना ही अनुभाग है । जिस कर्मका जैसा नाम है, उसीके अनुसार फल प्राप्त होता है और फल प्राप्त हो जाने के पश्चात् कर्मकी निर्जरा हो जाती है। कर्मबन्धके समय जिस जीवके कषायकी जैसी तीव्रता या मन्दसा रहती है और द्रष्य, क्षेत्र, काल, भव बोर भावरूप जैसा निमित्त मिलता है, उसीके अनुसार कर्ममें फल देनेकी शक्ति आती है । कर्मले के समय यदि शुभ परिणाम होते हैं, तो पुण्यप्रकृतियोंमें प्रकृष्ट और पापप्रकृत्तियोंमें निकृष्ट फलदानशक्ति प्राप्त होतो है। यदि कर्मबंधके समय अशुभ परिणामोंको तीवत्ता होती है, तो पापप्रकृतियोंमें प्रकृष्ट और पुण्यप्रकृतियोंमें निकृष्ट फलदानशक्ति रहती है। कर्मप्रकृतियोंमें नामके अनुसार ही अनुभाग प्राप्त होता है। ज्ञानावरणप्रकृतिमें ज्ञानको और दर्शनावरणमें दर्शनको आवृत करनेका अनुभाग प्राप्त होता है। कर्मफलदान-प्रक्रिया
कम स्वयं ही अपना फल देते हैं। उनके फलदानहेतु किसी अन्य कर्ता या न्यायाधीशकी आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार मदिरा पान करनेसे उसकी मादक शक्ति स्वयं अपना प्रभाव दिखलाती है, इस प्रभावके लिये किसी अन्य शक्तिको आवश्यकता नहीं; इसी प्रकार यह जीव कोका बन्ध स्वयं करता है और स्वयं ही उन कर्मो के उदय होनेवाले अनुभाग-फलोंको प्राप्त करता है । जीबकी प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तिके साथ, जो कर्मपरमाण जीवात्माकी ओर आकृष्ट होते हैं और राग-द्वेषका निमित्त पाकर उस जीवसे बंध जाते हैं, उन कर्मपरमाणुओंमें भी शुभ और अशुभ प्रभाव डालनेकी शक्ति रहती है। जो चैतन्यके सम्बन्धसे व्यक्त होकर जीवपर अपना प्रभाव डालते हैं और उसके प्रभावसे मुग्ध हआ जीव ऐसे कार्य करता है, जो सुखदायक या दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीवके भाव शुभ होते हैं, तो बंधनेवाले कर्मपरमाणुओंपर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है और उनका फल भी अच्छा होता है।
गहरायोमें प्रवेश करने पर अवगत होता है कि कमों का बन्ध आत्माके परिणामोंके अनुसार होता है और उनमें जैसा स्वभाव और होनाधिक फलदानशक्ति पड़ जाती है तदनुसार कार्यके होनेमें वे निमित्त होते रहते हैं । जीव
तीर्थकर महावीर और उनको देशना : ३८९