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का लेशमात्र भी न रहा । मनकी ग्रंथि खुल गयी और वह महावीरका सच्चा उपासक हो गया । वह तन गोर मनसे निर्ग्रन्थ बननेका संकल्प करने लगा ।
इन्द्रभूसिने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली । उसे मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया । इन्द्रभूति गौतमकी मिथ्याते श्रद्धाका ताला टूटते ही जयजयकारकी ध्वनि होने लगी ।
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यह पावन दिन आषाढ़ी पूर्णिमाका था, इसी दिन गौतमने दीक्षा धारण की थी । इसी कारण यह दिन 'गुरुपूर्णिमा' के नामसे लोक में प्रसिद्ध है । अगले दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके ब्राह्ममुहृत्तमें भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनि आरम्भ हुई। और इसीलिए धर्म तीर्थकी उत्पत्ति भी इसी दिन हुई
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वासस्स पढममासे सावणमासम्म बहुल पडिवाए । अभिजीत उप्पती म्पत्यस्स ॥
वीरसेनाचार्यने केवलज्ञानोत्पत्ति के ६६ दिनतक देशना प्रकट न होनेके कारणकी मीमांसा की है। लिखा है-
केवलणाणे समुप्पण्णे वि दिव्वणीए किमट्टं तत्यापउत्ती ? गणिदाभावादो | सोहम्मदेण तक्खणे चैव गणिदो किण्ण होइदो ? ण, काललबीए विपा असहेग्जस्स, देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि पडवण्णसहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिसिय दिव्वणी किण्ण पयट्ठदे ? साहावियादो | ण च सहाओ परपणिओगारुहो, अभ्ववत्था पत्तोदो ।
आशय यह है कि सौधर्म इन्द्र भी कालब्धि के अभाव में तत्काल गणघरकी तलाश नहीं कर सका । काललब्धिके सम्बन्धमें प्रश्न नहीं किया जा सकता, यतः यह स्वभाव है और स्वभाव में तर्कका प्रवेश नहीं होता ।
इन्द्रभूति गौतमने पचास वर्ष की अवस्थामें दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की और मोक्ष - भवनकी साड़ियोंपर पदार्पण किया। ये तत्वज्ञानी, विशिष्ट साधक और तपस्वी थे और थे विरल अध्यात्मयोगी, सिद्धिसम्पन्न साधक और विश्यकल्याणकी उदग्र भावनासे युक्त परिव्राजक । उनमें विनय, सरलता, मृदुता और विचारशीलता पूर्णतः विद्यमान थी। इनका जीवन पुष्पतुल्य ही नहीं, किन्तु पुष्पोंका रंग-विरंगा गुलदस्ता था, जिसमें विविध प्रकारकै सौरभके साथ सुरम्य सुकुमारता भी निहित थी ।
१. तिलोयपण्णत्ती १६९.
२. कसायपाहुड, जयधवला, पुस्तक १, पृ० ७६.
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १८९