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सम्बन्धमें स्वयं शंका थी। अतः वे और भी असमंजसमें पड़कर कहने लगे-"चलो, तुम्हारे गुरुके समक्ष ही इस गाथाका अयं बतलाऊंगा । मैं अपनी विद्वत्ताका प्रभाव तुम्हारे गुरुपर ही एकट करना मान्दा !" ___ इन्द्रभूति गौतमको उक्त बातको सुनकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ और मनमें सोचने लगा-"मेरा कार्य अब सम्पन्न हो गया। तीर्थकर महावीरके समयशरणमें पहुंचते ही इनका अहंकार विगलित हो जायगा और शंकाओंका समाधान स्वयं प्राप्त हो जायगा।" मानस्तम्भवर्शन : मानगलन और रत्नत्रयका उपहार
इन्द्रभूति गौतमने शास्त्रार्थ करनेकी आकांक्षासे तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें प्रवेश किया । मानस्तम्भके दर्शनमात्रसे ही उनके मनका सारा कालुष्य घुल गया। स्तम्भ देखकर इन्द्रभूति स्तब्ध रह गया और शानका समस्त अहंकार पिघल गया। इन्द्रभूति गौतमके लिये मानस्तम्भ प्रकाश-स्तम्भ बन गया। उनके हृदयका तिमिर छिन्न हो गया और उन्हें क्षायोपशमिक ज्ञानकी सीमा ज्ञात हो गयी। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि मेरा ज्ञान कितना बौना है। मैं तो महावीरके शानकी एक किरण भी छूनेमें असमर्थ हूँ। न मालूम क्यों मुझे अपने ज्ञानका अहंकार था। आज मेरा अभिमानी मन विनम्रतासे भर गया है, द्रवीभूत हो गया है।
इन्द्रभूति गौतम गततम होकर गन्धकुटीमें विराजमान तीर्थंकर महावीरकी मङ्गल-मुद्राका दर्शनकर हर्षविभोर हो उठा। प्रतिभाके साथ उसकी श्रद्धाके कपाट भी खुल गये । मिथ्यास्वरूपी ओस-कण महावीरके केवलज्ञानरूपी सूर्यप्रभासे सूखने लगे। उसको अन्तरात्मा निर्मल नीरकी तरह स्वच्छ हो गयी । सम्यक्दर्शनका आविर्भाव हो गया और जानका मद चूर हो गया ।
श्रद्धातिरेकके कारण उसके परिणामोंमें अतिशय कोमलता उत्पन्न हो गयो । आया था शास्त्रार्थ करने, पर उसके शास्त्रके सभी शस्त्र कुण्ठित हो गये । वीतरागताके समक्ष उसके मनका कालुष्य घुल गया। दम्भ और मिथ्या१. स्वओवसमणिद-चउरमलबुद्धिसंपण्णण बम्हणेण गोदमगोत्तेण सयल-दुस्सुदि
पारएण जीवाजीव-विषय-संदेहविणासणट्ठमुवगय-वड्जमाण-पादमूलेण इंदभूदिणा वहारिदो। उक्तं च
गोसेण गोदमो विष्पो चाउब्वेय-सडंग वि । गामेण इंदभूदि ति सीलबं घम्हणुतमो ।।
-षट्संडागम, धवला, पुस्तक १, पृ० ६४ में उपत, १८८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आषाय-परम्परा