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चतुर्थ पर्वत बलाहक नामका है । यह धनुषके आकारका तीनों दिशाओंको घेरे हए पोभित है। पांच पाण्डक नामक पर्वत गोलाकार पूर्वोत्तर-मध्यमें है। ये पांचों पर्वत फल-पुष्पोंके समूहसे युक्त हैं। इन पर्वतोंके धनोंमें वासुपूज्य स्वामीको छोड़कर शेष समस्त तीर्थकरोंके समवशरण हुये हैं । ये यन सिद्धक्षेत्र भी हैं और कर्म-निर्जरामें कारण हैं' ।
वर्तमानमें पहला पर्वत विपुलाचल है। इसी विपुलाचलपर तीर्थकर महावीरका प्रथम समवशरण हुमा था । दूसरा रलगिरि है, सोसरा उदगिरि है, चौथा स्वर्णगिरि है और नाचतो वेभ गिरि मा है।
राजगृह के प्राचीन नाम पंचशेलपुर, गिरिव्रण, कुशाग्रयुर, क्षितिप्रतिष्ट आदि मिलते हैं | मगध देशमें अनेक उत्तम भव्य भवनोंसे युक्त राजगह-नगर चासरिन्छो शिण्णो वरुणागिलसोमदिसविभागेसु । ईसाणाए पंडू वण्णा सब्जे कुसम्पपरिपरणा ॥
-सिलोयपणती १६५-६७ पंच-सेल-पुरे रम्मे विसले पम्वदुत्तमे । णाणा-दुम-समारणे देव-दाणव-वंदिवे ॥ महावीरेणत्यो कहिओ भविय-लोयस्स ।
-पटसण्डामम, धवलाटोका-समन्वित, पु. १, पृ०६१. १. पंचशैलपुरं पूतं मुनिसुव्रतजम्ममा ।
यत्परध्वजिनीदुर्ग पञ्चशंसपरिष्कृतम् ॥ ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्रः सनिबरः । दिग्गजेन्द्रं इवेन्द्रस्य :कुकुभं भूषयत्यलम् ।। वैभारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृसिराश्रितः । वशिक्षणापरहिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ॥ सज्य चापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । शोभते पाणुको वृत्त: पूर्वोत्तरदिगम्तरे ॥ फलपुष्पभरानम्रलतापापपशोभिताः । पतनिरिसवातहारिणो गित्यस्तु ते॥ वासुपूज्यजिमाधीशादितरेषां जिनेशिनाम् । सर्वेषां समवस्थानः पावनोखमातराः ॥ तीर्थयात्राणतानेकमव्यसंघनिषेवितः । मानातिशयसम्बद: सियक्षेत्रः पवित्रताः ।।
-हरिवंशपुराम, ११५२-५८. २०० : तीपंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा