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का अनुभव किया है। तुमने कोमल शुय्यातलपर अनेक रमणियोंके साथ चिरकाल तक विहार किया है । रसना इन्द्रियको तृप्त करनेवाले सब रसोंसे परिपूर्ण तथा अमृतरसायन के साथ स्पर्द्धा करनेवाले दिव्य भोजनका उपभोग तुमने किया है। उसी त्रिष्ठके भव में तुमने सुगंधित धूपके अनुलेपनोसे, मालाओंसे तथा अन्य सुवासित पदार्थोंसे अपनी घ्राण इन्द्रियको तृप्त किया है। रस-भाव समन्वित सम्पन्न हुए नृत्यका तुमने पर्याप्त अवलोकन किया है। संगीतके मधुर झंकारको सुनकर अगणित वर्षोंतक तुमने आनन्द लिया है। तीन खण्डका अ चक्रवतित्व प्राप्तकर ऐसा संसारका कौन सा भोग है, जिसका तुमने उपभोग नहीं किया है । निरन्तर सांसारिक सुखोंकी आसक्तिके कारण सम्यग्दर्शन और पंचव्रतोंसे रहित होने से तुमने सप्तम नरककी आयुका बन्ध किया और वहाँ तेतीस सागर तक विभिन्न प्रकारके कष्टोंको सहा नरकसे च्युत हो सिंहपर्याय प्राप्त की और इस पर्यायके अनन्तर पुनः प्रथम नरककी यातना सही। अब पुनः यह सिहपर्याय तुम्हें प्राप्त हुई है । अत: इस पर्यायमें तुम्हें अपने आत्मोत्थानमें प्रवृत्त होना चाहिये । तुम यह भूल रहे हो कि पशु और नरकपर्याय में छेदन-भेदन, भूख-प्यास, शीत-आतपजन्य कितने कष्ट सहन किये हैं । क्रूर परिणामी होकर तुम पशुओंकी हिंसा में प्रवृत्त हो रहे हो । अतएव संसारके स्वरूपका विचारकर हिंसाका त्याग करो। "
"अहिंसाका सम्बन्ध प्राणीके हृदयके साथ है, मस्तिष्क के साथ नहीं, तर्कवितर्कके साथ नहीं और न बँधे बँधा ये विवेकशून्य विश्वासोंके साथ ही है । इसका सम्बन्ध अन्तःकरणके साथ है - भीतर की गहरी आध्यात्मिक अनुभूति के साथ है । असाकी भूमि जीवन है। जबतक जीवके आचार-व्यवहार अहिंसामूलक घटित होते हैं, तभी तक जीवन हरा-भरा और विकसित रहता है । अतएव तुम्हें अहिंसाके वास्तविक महत्त्वको समझना है और जीवनको गतिशील बनाना है । तुमने पुरुरवा के भवमें अहिंसा-संस्कारका बीज अर्जित किया था, वह बीज अनेक जन्मोंमें किये गये मिथ्याचरणके कारण दबता गया । उसपर अज्ञानताकी तह पड़ती गयी । फलतः त्रिपृष्ठभवमें नारायण होकर भी तुमने इस अहिंसाके बीजको बने I अंकुरित नहीं होने दिया । तुम पूर्वके जन्मोंमें मनुष्य हुए, देव हुए और पशु पुरुरवाके भवमें तुमने हिंसा करना छोड़ा था, जिसके फलस्वरूप तुमने स्वर्गक सुख प्राप्त किये, पर त्रिपृष्ठके भवमें तुम वासनामें डूब गये, हिंसा में सन गये, जिसका दुःखद परिणाम यह पशु जीवन है । सुख चाहते हो, तो हिंसा - कार्यको छोड़ पहले किये गये संकल्पको याद करो ।"
उग्र तपस्वी अजितञ्जयको वाणीने जादूका कार्य किया । सिंहकी वृत्तियाँ
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४३