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अन्य अशुभकर्मके उदयसे त्रिपृष्ठकी प्रवृत्ति संसार - विषयोंकी ओर विशेषरूपसे जागृत हुई। उसने अनेक विद्याधरकुमारियोंसे विवाह किया। अनेक गन्धर्वकन्याएँ प्राप्त की और भूमिगोचरियोंके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया । त्रिपृष्ठने विजयार्द्ध पर्वतपर जाकर रथनूपुर नगरके राजा ज्वलनजटीको दोनों श्रेणियोंका चक्रवर्ती बना दिया और निश्चिन्ततापूर्वक अर्द्धचक्रवर्ती पदका भोग करने का।
शुभोदय के कारण जितनी भांगसामग्री प्राप्त होती जाती थी, त्रिपृष्ठ उतना ही अशान्त बना रहता था। उसे एक क्षण के लिये भी भोंगोंसे तृप्ति न मिली। वह करोड़ों वर्षो तक राज्यसुख और संसारके विषय सुखोंका भोग करता रहा । उसने बहुत आरम्भ और परिग्रह संचित किया; फलतः विषय-सुखोंको गृद्धता के कारण मरकर उसने सप्तक नरक में जन्म ग्रहण किया ।
पूर्वजन्ममें बाँधा गया निदान सफल हुआ और दुर्गतिका कारण बना। इस नरक में त्रिपृष्ठके जीवने अगणित काल तक नाना प्रकारके दुःखोंको सहन किया । आयु पूर्ण होनेपर यह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में गंगानदी के तटके समीपवर्ती वनप्रदेशमें सिगिरि पर्वतपर सिंह हुआ । यहाँ भी इसने तीव्र पापका अर्जन किया, जिससे रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकम नारकी हुआ और वहाँ एक सागर तक भयंकर दुःख भोगता रहा। पश्चात् वहाँ च्युत होकर इसी जम्बूद्वीपमें सिन्धुकूटकी पूर्व दिशा में हिमवत पर्वत के शिखरपर देदीप्यमान बालोंसे सुशोभित सिंह हुआ । सिंहपर्याय पुन: उत्थानको ओर
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सिंहपर्याय प्राप्त करनेपर महावीरका जीव अपनी शक्ति और पुरुषार्थका प्रदर्शन करता हुआ हिंसा में प्रवृत्त हुआ । वहु निर्बल जोवों को मारकर खाने लगा और अपनी शक्ति द्वारा समस्त जीवांको त्रस्त करने लगा। एक दिन उसने एक हिरणका पीछा किया और जब हिरणको उसने पकड़ लिया, तो उसे अपनी तोक्ष्ण दाड़ोंसे फाड़ डाला । जब सिंह इस प्रकार हिंसाकर्म में लगा हुआ था, तब आकाशमार्ग से अजिसञ्जय नामक चारण मुनि अमितगुण नामक मुनिराजके साथ जा रहे थे। उन्होंने आकाशमार्ग से उस सिंहको हिंसा में रत देखा, तो वे दयासे द्रवीभूत हो आकाशमार्ग से उतरकर उस सिंहके पास पहुँचे और एक शिलातलपर बैठकर जोर-जोर से धर्मप्रवत्रन करने लगे । उन्होंने कहा - " हे भव्य मृगराज ! तू हिंसा क्यों प्रवृत्त है ? क्या अभी भी तुम्हारी विषयोंसे तृप्ति नहीं हुई है ? त्रिपृष्टके भव में तुमने पांचों इन्द्रियोंके श्रेष्ठ विषयों
४२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा