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सृतीयांश नरकोंमें उष्णताकी तीन वेदना है तथा नीचेके नरकोंमें शीतजन्य तीव्र वेदना है। तीसरे नरक पर्यन्त असुरकुमार जात्तिके देव आकर नारकियोंकों परस्पर लाते हैं । नारकियोंका शरोर अनेक रोगोंसे ग्रस्त रहता है और परिणामोंमें निस्य क्रूरता बनी रहती है। नरकोंकी भूमि महादुर्गन्धयुक्त अनेक उपद्रवों सहित होतो है । नारकियोंमें परस्पर जातिविरोध होता है। वे परस्परमें एक दुसरेको भयानक दुःख देते हैं। छेदन, भेदन, साड़न, मारण आदि नाना प्रकारकी धोर बेदनाओंको सहते हुए दारुण दुःखका अनुभव करते हैं ।
नारको मरणकर नरक और देवगतिमें जन्म नहीं ग्रहण करते, किन्तु मनुष्य और तिर्यच गतिमें ही जन्म लेते हैं। इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च ही नरक गतिमें जन्म ग्रहण करते है। असंशी पञ्चेन्द्रिय जीव मरकर प्रथम नरक तक; सरीसृप जाति के जीव दुसरे मरक हा; भी नीसरे वह शर, सर्प चौथे नरक तक, सिंह पांचवें नरक तक स्त्री छठे नरक तक और कर्मभूमिमें उत्पन्न पुरुष तथा मत्स्य साप्तवें नरक तक जन्म ग्रहण करते हैं। भोगभूमिके जीव नरक नहीं जाते, किन्तु वे देव ही होते हैं। यदि कोई निरन्तर नरक जाय तो पहले नरकमें आठ बार तक, दूसरे नरकमें सात बार तक, तीसरे नरकमें छ: बार तक, चौथे नरकमें पांच बार तक, पाचवे नरकमें चार बार तक, छठे नरकमें तीन बार तक और सातवें नरकमें दो बार तक निरन्तर जा सकता है, अधिक बार नहीं । सातवें नरकसे निकलकर सिर्यञ्च पर्याय ही प्राप्त होती है । छठे नरकसे निकले हुए जोव संघम धारण नहीं कर पाते । पञ्चम नरकसे निकले हए जीव मोक्षको नहीं जा सकते। चतुर्थ नरकसे निकले जीव तीर्थंकर नहीं होते; पर प्रथम, द्वितीय और तृतीय नरकसे निकले जीव तीर्थकर हो सकते हैं। नरफसे निकले हुए जीय बलभद्र, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवर्ती नहीं होते। मध्यलोक : स्वरूप और विस्तार
अधोलोकसे ऊपर एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा और एक लाख चालीस योजन कैचा मध्यलोक है। यह मध्यलोक उत्तर-दक्षिण सात राजू और पूर्वपश्चिम एक राजू है। इसका आकार झालरके समान है। मध्यलोकके बीच में गोलाकार एक लक्ष योजन व्यासवाला जम्बूद्वीप है। इस जम्बूद्वीपको घेरे हुए गोलाकार लवण समुद्र है। इस लवण समुद्रको चौड़ाई सर्वत्र दो लाख योजन है । इसे घेरे हुए धातकोखण्ड द्वीप है, इसकी चौड़ाई चार लाख योजन है । इस द्वीपको घेरे हुए आठ लाख योजन चौड़ा कालोदधि समुद्र है । कालोदधि समुद्रको चारों ओरसे घेरे हुए सोलह लाख योजन चौड़ा पुष्करद्वीप है । इस प्रकारसे दूने-दूने विस्तारको लिए परस्पर एक दूसरेको बेड़े हुए असंख्यात द्वीप-समुद्र
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : ३९९