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१. धर्मध्यानका ध्याता, २. आत्मोन्मुखी प्रवृत्ति, ३. शरीर और आत्माके भिन्नत्वकी प्रतीति, ४. आत्मनिष्ठाका पूर्ण सद्भाव,
५. जिनवचनोंका विज्ञता । अन्तरात्मा : भेद ___ अन्तरात्माके तीन भेद हैं। इन भेदोंको कल्पनाका आधार गुणोंका विकास है । आत्मगुण जिस परिस्थितिमें विकसित होते हैं, उसो परिस्थितिके अनुसार अन्तरात्माके भेद निर्धारित किये जाते हैं
(१) उत्तम अन्तरात्मा क्षीणकषायगुणस्थानमें अवस्थित आत्मा उत्तम अन्तरात्मा है।
(२) मध्यम अन्तरात्मा-अविरत और क्षीणकषायगुणस्थानोंके बीचमें (५ से ११ में) रहनेवाला मध्यम अन्तरात्मा है।
(३) जघन्य अन्तरात्मा-अविरतगुणस्थानमें उसके योग्य अशुभलेश्यासे परिणत।
जो जीव पांचों महावतोंसे युक्त होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानमें सदा स्थित रहते हैं तथा समस्त प्रमादोंको जिन्होंने जीत लिया है, वे उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं । श्रावकके व्रतोंको पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्तगुणस्थानवर्ती मुनि 'मध्यम' अन्तरात्मा हैं। ये जिनवचनमें अनुरक्त, उपशमस्वभावी और महापराक्रमी होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा कहलाते हैं ।' परमात्मा : स्वरूप
शुद्ध आत्मा हो परमात्मा है। जब आत्मा विशुद्ध भ्यानके बलसे कर्मरूपी ईन्धनको भस्म कर देतो है, तो यही परमात्मा बन जाती है।
१. पंचमहब्बय-जुत्ता पम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्च ।
णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होसि ॥ सावयगुणेहिं जुत्ता पमत्तविरमा म मजिसमा होति । जिणवयणे अणुरता उवसमसोला महाससा 1। अविरयसम्मादिट्ठी होति बहपणा मिणिदपयभत्ता । अयाणं गिर्दता गुणगहणे सुलु अणुरत्ता ॥
-स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा १९५-१९७. ३६६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा