________________
सुखको भोगता है, वह बहिरात्मा है' । देह, कलत्र, पुत्र और मित्रादिक चेतनाके वैभाविक रूप हैं, इनमें अपनेपनकी भावना करनेवाला बहिरात्मा होता है। मिथ्यादर्शनसे मोहित जीव अपने परमात्मा को नहीं समझता और न उसे निजात्मा की ही प्राप्ति होती है । फलस्वरूप वह परपदार्थोंमें आत्मबुद्धि करता है ।
जो मद, मोह और मानसहित है, राग-द्वेषसे नित्य सन्तप्त रहता है, विषयोंमें अति आसक है, वह बहिरात्मा है । "
बहिरात्मामें निम्नलिखित तत्त्व विद्यमान रहते हैं:
१. मिध्यात्वोदय,
२. तीव्र कषायविष
३. आत्मा शरीरके एकत्वको अनुभूति,
४. हेयोपादेय- विचारशून्य ।
मिथ्यात्वगुणस्थान में जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है, सासादन गुणस्थानमें मध्यम बहिरात्मा और मिश्रगुणस्थान में जघन्य बहिरात्मा कहलाता है | यह मुख होता है । अन्तरात्मा विवेचन
जिन्हें स्व-पर-विवेक या भेदविज्ञान अलग हो गया है, जिनकी शरीर नादि बाह्य पदार्थोंसे आत्मदृष्टि हट गयी है, वे सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हैं । जब जीवकी दृष्टि बाह्य विषयसे हटकर अन्तरकी ओर झुक जाती है, तब वह अन्तरात्मा कहलाता है । यह अन्तरात्मा सभी प्रकारसे जल्पोंसे रहित होता है और देहादिको अपने से भिन्न समझता है तथा निजानुभूतिका पान करता है । अन्तरात्माके निम्नलिखित गुण होते हैं:
१. अप्पाणाञ्ज्ञाणज्ज्ञयणसुमिय रसायणध्वाणं । मोखाण सुहं जो भुंज सोहु महिरप्पा | देहकललं पुत्तं मित्ताइ बिहायचेदणारुवं । अप्पसरूवं भावइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥
रयणसार-गाया १३५, १३७.
२. मिच्छा दंसण - मोहियर पर अप्पा ण मुणे । सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुर्ण संसार ममेद ॥
३. मदमोहमानसहितः
— योगसार, पद्म ७.
रागद्वेषनित्यसन्तप्तः ।
विषमेषु तथा शुद्धः नहिरात्मा भग्यते ह्येषः ॥
- ज्ञानसार, पद्य ३०.
सीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३६५
-