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है। इसके द्वारा आत्मा और कर्मप्रदेशोंका कोई स्थिर बन्ध उत्पन्न नहीं होता। जिस प्रकार सूखे वस्त्रपर लगो हुई धूल शीघ्र ही झड़ जाती है, बहुत समय तक वस्त्रपर चिपटी नहीं रहती, उसी प्रकार कषायके अभावमें होनेवाला आस्रव कर्मबन्धको स्थिरता प्रदान नहीं करता है। पर जब जोयकी मानसिक आदि क्रियाएं कषायोंसे युक्त होती हैं, तब आत्मप्रदेशों में एक ऐसी परपदार्थग्राहिणी दशा उत्पन्न हो जाती है, जिसके कारण उसके सम्पर्क में आनेवाले कर्मपरमाणु शीघ्र उससे पृथक् नहीं होते । ____ आस्रवके मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच भेद हैं और ये पांचों आस्रव प्रत्यय होनेके कारण बन्धके हेतु है ।' मिथ्यात्व
अपने स्वरूपको भूलकर शरीर आदि परद्रव्योंमें आत्मबुद्धि करना मिथ्यात्व है । इसे विपरीत श्रवा भी कहा जा सकता है। गिगादपिकी समस्त क्रियाएं और विचार शरीराश्रित व्यवहारोंमें उलझे रहते हैं । लौकिक यशलाभ आदिको कामनासे ही धर्माचरण करता है । इसे स्वपरविवेक नहीं रहता और पदार्थोके स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है ।
यह मिथ्यात्व सहज और गृहीत दो प्रकारका होता है। इन दोनों ही मिथ्याष्टियोंके तत्त्वरुचि जागृत नहीं होती। यह अनेक प्रकारके देव, गुरु और मूढ़ताओंको धर्म मानता है । भनेक प्रकारके ऊंच, नीच आदि भेदोंको सृष्टिकर मिथ्या अहंकारका पोषण करता है । शान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीरके मदसे मत्त होकर अन्य व्यक्तियोंको तुच्छ समझता है । आत्मनिष्ठाके अभावमें भय, स्वायं, घृणा, पर-निन्दा आदि दुर्गुणोंका केन्द्र होता है ।
संक्षेपमें आत्मशकिको न पहचानना और शरीर, इन्द्रिय आदिको वात्मा समझना मिथ्यात्व है । अहंता और ममताके कारण आत्मा अपने निज स्वरूपको पहचान नहीं पाती। मिथ्यात्वके कारण धात्मबोष न होनेसे अपने स्वरूपसे विमुखता बनी रहती है । जिस प्रकार बालक मिट्टीके घरोंदे बनाते और बिगाड़ते रहते हैं, उसी प्रकार आत्मा ही इस संसारको बनाती रहती है । अतएव मिथ्यात्वका त्याग आवश्यक है । मिष्यात्यके पांच भेद हैं:--(१) एकान्स, (२) विपरीत, (३) वैनयिक, (४) संशय और (५) अज्ञान। १. मिण्यताविरदिएमाजोमकोहावलोष विष्णेया । पन पग पगवा तिथ चदु कमसो भेदा दु पुज्वस्स ।।
-द्रव्यसंग्रह ३०. तीपंकर महावीर और उनकी वेशमा : ३७३