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होकर उसके प्रदेशों में प्रवेश करती हैं, वह द्रव्यासव है । सर्वसाधारणके यह आस्रव कषायवश होनेके कारण बन्धका हेतु होनेसे साम्परायिक कहलाता है । वीतरागयक्तियों के आगामी कर्मबन्धका हेतु न होनेसे ईर्ष्यापथ कहा जाता है।
यचन
जीवमें कर्ममलके आनेको सूचना आस्रव द्वारा प्राप्त होती है । यतः जीव और कर्मका बन्ध तभी सम्भव है, जब जीवमें कर्मपुद्गलोंका आगमन हो । अतः कर्मो के आनेके द्वारको व्यासव कहते हैं । जिस प्रकार नौकामें छेदके द्वारा पानी आता है, अतः वह छेद आसव कहा जाता है, उसी प्रकार मन, और कायको प्रवृत्ति द्वारा कर्मोंका आगमन होता है, तथा यह प्रवृत्ति या शक्ति ही योग कहलाती है। आशय यह है कि हम मनके द्वारा जो कुछ सोचते हैं, वचन-द्वारा जो कुछ बोलते हैं और शरीर द्वारा जो कुछ हलन चलन करते हैं, वह सब हमारी ओर कर्मो के आने में कारण होता है ।
मन, वचन और काकी क्रियाको योग कहा जाता है और योग ही आस्रवका कारण होने से आसव कहा जाता है। योगों मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियों द्वारा आत्मपरिस्पन्दन होता है और इस परिस्पन्दनसे कमका आलव होता है । सारांश यह है कि संसारी जीवके मध्यके आठ प्रदेशोंको छोड़कर शेष सब प्रदेश प्रति समय उद्वेलित होते रहते हैं । जो आत्मप्रदेश प्रथम समय में मात्र के पास थे, वे ही उत्तरक्षण में पैरोंके पास या पैरोंके पाससे मस्तक के पास पहुँचते हैं । संसारावस्था में यह प्रदेशकम्पन - व्यापार - क्रिया प्रति समय होती रहती है। इसी कम्पन -- व्यापारसे कर्म और नोकवर्गणाओंका ग्रहण होता है । इस क्रियाका नाम ही योग है और योग ही आस्रव है ।
शुभयोग से पुण्यकर्मका और अशुभयोगसे पापकर्मका आस्रव होता है । जिन कर्मोंका रस - अनुभाग शुभप्रद है, वे पुण्यकर्म और जिन कर्मोंका अनुभाग अशुभप्रद है, वे पापकर्म कहे जाते हैं ।
काययोग, वाग्योग और मनोयोगके द्वारा आत्मा के प्रदेशों में एक परिस्पन्दन होता है, जिसके कारण आत्मामें एक ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है, जिसमें उसके आसपास भरे हुए सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गलपरमाणु आत्मासे आ चिपटते है । आत्मा और पुद्गलपरमाणुओं के इसो सम्पर्कका नाम आस्रव है । आनवभेव और स्वरूप
इस आवके मूलतः दो भेद हैं: --- (१) साम्परायिक और (२) ईर्यापथिक । क्रोध, मान, माया और लोभरूप इन चार तीव्र मनोविकाररूप कषायोंके वेगसे प्रेरित अवस्थामें उत्पन्न हुआ आस्त्रव साम्परायिक एवं इन विकारोंकी प्रेरणा से रहित साधारण अवस्थामें होनेवाला आस्रव ईर्यापथिक – मार्गगामी कहा जाता
३७२ : सोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा