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वस्तुतः नृत्य जीवनके विस्तारका नाम है। यह जीवनका अनुपम और अमूल्य अंग है। जीवनका अर्थ है प्रगति एवं प्रवृत्तिकी गाथा तथा कर्मका इतिवृत्त । जिस जीवन में नृत्य और संगीतका विकास न हो, वह भारभूत हो जाता है। जीवन में यदि नत्यादि कलाएं न हों, तो मानवकी सात्विकता और पशकी पाशविकतामें अन्तर ही न रहे। संगीत और नृत्यकला विहीन जीवन अपूर्ण, वेग-रहित और नीरस है । जीवन में प्रगति लाना नृत्यादि-कलाओंका धर्म है। जैसे-जैसे जीवन में नृत्य और संगीत आदि कलाओंका विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे जीवन मूल्यवान् बनता जाता है । अतः कलाकी निर्मलता और पवित्रताका प्रभाव भी निर्मल एवं पावन होता है। संगीत और नृत्य आत्मलीन होनेके साधन हैं। ये जागृतिके कारण हैं। आत्म-स्वतन्त्रता एवं आनन्द-प्रमो. दकी प्राप्ति इन्हींके द्वारा सम्भव है।
संगीतशास्त्रमें विभिन्न मुद्राओंका उल्लेख आता है। मुखराग एवं हस्ताभिनय भी नृत्यके अन्तर्गत हैं। नर्तक एवं नर्तकियाँ मेधा-स्मृति, गुणश्लाघा, राग, संसर्ग और उत्साहसे युक्त होकर गीत वाद्य-तालके अनुसार पाद-संचालन कर विविध प्रकारके स्वाभाविक परिभ्रमण प्रस्तुत करती थीं। पताकहस्त, त्रिपसाक-हस्त, अर्द्धपताक-हस्त, कर्तरमुख-हस्त, मयूर-हस्त, अर्द्धचन्द्रहस्त, सुचीहस्त, चतुरहस्त, भ्रमरहस्त, व्यानहस्त, कटकहस्त एवं पल्लीहस्त आदि बत्तीस प्रकारको सयुक्त हस्तमुद्राओं द्वारा धियां अभिनय करती थीं। असंयुक्त हस्तमुद्राओंमें अञ्जलि, कपोत, कर्कट, पुष्पपुट, उत्संग, शकट, शंख, चक्र, सम्पुट, पाश, कोलक, मत्स्य, वराह, गरुड़, नागबन्ध आदि तेइस प्रकारकी मुद्राएं परिगणित हैं । शृङ्गारादि नव रसोंको अभिव्यक्त करनेवाले नृत्य उपस्थित किये जा रहे थे। इस प्रकार देवाङ्गनाए संगीत एवं नृत्य द्वारा माता की आनन्दोपलब्धिका साधन बन रही थीं। ये रसाश्रित और भावात्मक नृत्य उपस्थित कर माताको प्रसन्न करती थीं चित्रकला
गर्भस्थ बालकके सम्पक पोषण हेतु माताका प्रसन्न और आनन्दित मुद्रा में रहना आवश्यक माना जाता है। जीवनके विविध अनुभवोंका मूल्य अवगत करनेके लिये चित्रकलाको भी आवश्यकता अनिवार्य है । संस्कृतिकी पहचान इसीके द्वारा होती है । चित्रकलाका प्रधान कार्य कल्पनाको जागृत कर जीवनको पूर्ण बनाना है। इसकी मुख्य शर्त यह है कि इसमें जीवनका तटस्थ अनुभव ही प्राप्त हो । यथार्थताके सान्निध्यमें जो व्यवहार अनिवार्य बन जाये, उसमें उसके लिये जरा भी गुंजाइश नहीं। मनुष्यके आस-पास अपार जीवनलीलाका विस्तार रहता है। रेखा, परिबन्धन, आवेग और आलेखन द्वारा विभिन्न प्रकार
तीर्थकर महावीर और उनको देशना : ९९